शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

राजनीति

लोग अक्सर कहते हैं
राजनीति एक खेल है
पर मेरे पापा कहते हैं
यह एक कमर्शियल फिल्म है

बहुमुखी प्रतिभा संपन्न इस फिल्म के हीरो है
रोज एक नया किरदार निभाता है
रोज एक नया नाम बदलता है
और हीरोइन तो हुकूमत की कुर्सी है भैया !
वह तो है अपनी जगह
न हिलती है न डुलती है
बड़ी शान से बैठी है

सांसद सपोर्टिंग आर्टिस्ट हैं
पार्टी के उम्मीदवार हैं प्रोड्यूसर्स और फाइनैन्सर्स
डाइरेक्टर है बिग बॉस
मीडिया है पब्लिसिटी स्टंट

टिकट खिड़की पर फिल्म
हिट हो गई तो "सत्ता पक्ष"
नहीं तो "विपक्ष"

इस फिल्म के बारे में खूब सूना है
लेकिन देखने के लिए सेंसर का कहना है
- "ओन्ली फर इंटेलेक्च्युअल्स"

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

उपन्यासों में जनवादी चेतना

सामाज वस्तुतः ऐसे वर्गों से बनता है जो किन्हीं निश्‍चित प्रयोजनों के लिए एक दूसरे के संपर्क में आते हैं. अर्थात्‌ समाज व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था है. आज समाज विभिन्न स्तरों अर्थात्‌ आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक के साथ साथ भाषिक स्तर पर भी पर बँट गया है. एक ओर वह उच्च, मध्य और निम्न वर्गों में विभाजित है तो दूसरी ओर सर्वहारा एवं पूँजीपति के रूप में विभाजित है. समाज में व्याप्त वर्ग संघर्ष, वर्ण संकीर्णता, सांप्रदायिकता, जातिभेद और भाषा भेद ने जनमानस को झकझोर दिया है. इसके परिणाम स्वरूप समकालीन कथासाहित्य में जनवादी चेतना मुखरित हुई. डॉ. महेंद्र कुमार (1976) ने अपनी शोध पुस्तक ‘हिंदी के प्रमुख उपन्यासों में जनवादी चेतना ’ (2009) में प्रेमचंद, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु, रांगेय राघव, हजारी प्रसाद द्विवेदी और जयशंकर प्रसाद के उपन्यासों में चित्रित जनवादी चेतना का विवेचन -विश्लेषण किया है.


लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि समाज व्यक्तियों का समूह भर नहीं, बल्कि उनके पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था भी है. जनवाद इस व्यवस्था की रीतियों, कार्य विधियों, अधिकार, पारस्परिक सहयोग, उनके समूहों एवं विभाजनों का सैधांतिक और व्यावहारिक अध्ययन करता है.वस्तुतः प्रजातंत्र जनवाद का व्यावहारिक रूप है. लेखक ने यह निरूपित किया है कि परंपरागत रूढ़ियों एवं जीवन चिंतन में बदलाव लाने में साहित्य सहायक घटक है तथा जनवादी चेतना वास्तव में मानव जीवन की वह अवधारणा है, जो जीवन के समग्र भेद को मिटाती है.


जनवादी चेतना की अवधारणा को स्पष्ट करने के बाद लेखक ने कहा है कि हिंदी के उपन्यासों में जनवादी चेतना सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं पारिवारिक समस्याओं के रूप में प्रस्फुटित हुई है. उनकी मान्यता है कि साहित्य में वैश्विक चेतना को फैलाने में जनवादी चेतना की अहम भूमिका है.


लेखक का यह प्रयास सराहनीय है, परंतु अनेक स्थलों पर अस्वाभाविक शब्द प्रयोग और टंकण की अशुद्धियाँ खटकती हैं. जैसे -
प्रस्तुत ग्रंथ महाप्रबंध..... (भूमिका)

यह मौलिक विवेचन यह उपन्यासकार पूर्णतः जनता के पक्षधर हैं. (भूमिका)

जनता के चैयन - चामन को एकदम पायमाल करनेवाले जन विरोधी शोषक शक्तियों का खंडन इसमें किया गया है. (पृष्ठ - 37)

प्रस्तुत शोध महाप्रबंध का उपसंहार अध्याय ही पूर्व अध्यायों में जो शोधकार्य किया है, उन सबका सार समुच्चय इस अध्याय में संप्रदत्त है. (पृष्ठ - 198)

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हिंदी के प्रमुख उपन्यासों में जनवादी चेतना /
डॉ.महेंद्र कुमार /
2009 /
मिलिंद प्रकाशन,
4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाज़ार, हैदराबाद - 500 095 /
पृष्ठ - 243 /
मूल्य - रु. 300
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मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

राष्ट्रकवि सुब्रह्‌मण्य भारती पर दो पुस्तकें

तमिल साहित्य और संस्कृति की विशाल परंपरा में राष्ट्रकवि सुब्रह्‌मण्य भारती का विशिष्ट स्थान है. भारतीय राष्ट्रीय संग्राम एवं राष्ट्रमुक्ति आंदोलन में भारती का योगदान उल्लेखनीय है. जाति - पाँति एवं देशकाल की सीमाओं से अनाबद्ध, मानव मात्र के लिए आदर्श जीवन मूल्यों का निर्देश देनेवाले प्रबल विचारक एवं श्रेष्‍ठ कवि के रूप में सुब्रह्‌मण्य भारती की महत्ता निर्विवाद है.

डॉ.एम.शेषन तमिल भाषी हिंदी साहित्यकार हैं. उन्होंने अपनी कृतियों
‘आधुनिक तमिल काव्य और सुब्रह्‌मण्य भारती ’ (2009) तथा ‘तमिल नवजागरण और सुब्रह्‌मण्य भारती ’(2009)
में राष्ट्रकवि एवं युगद्रष्टा सुब्रह्‌मण्य भारती की विचारधारा को हिंदी पाठकों के सम्मुख रखा है.

19 वीं सदी पुनर्जागरण का काल था. संपूर्ण भारतवर्ष में पुनर्जागरण की लहर उमड़ पड़ी. तमिलनाडु में भारती ने जनमानस में चेतना जगाई. उनका सिद्धांत था -
‘जननी जन्मभूमिश्‍च स्वर्गादपि गरीयसी. ’
उनके लिए जातीयता और राष्ट्रीयता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. भारती के हृदय में देशभक्ति के साथ साथ मातृभाषा के प्रति अपार प्रेम भी निहित है. अतः वे कहते हैं -
"जय हो सेन तमिल की, जय हो तमिल जन की, / जय हो मन भावन,पावन भारत भू की / **** / वंदेमातरम्‌ ! वंदेमातरम्‌ !" (जय हो सेन तमिल )

भारती पूर्ण स्वराज्य की कामना करनेवाले कवि थे. भारत माँ को गुलामी की ज़िंदगी से मुक्‍त करवाना ही उनका उद्धेश्य था. वे स्वतंत्र जीवन के अनुरागी थे. अतः
‘सुतंतिर पेरुमै ’(स्वतंत्रता का अभिमान), ‘सुतंतिर पयिर ’(स्वतंत्रता की फसल), ‘सुतंतिर दाहम्‌ ’(स्वतंत्रता का दाह), ‘सुतंतिर देवियिन्‌ तुति ’(स्वतंत्रता देवी की स्तुति)
आदि कविताओं के माध्यम से उन्होंने जनता में नई उमंग जगाई. उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता पग पग पर दिखाई देती है -
"सिन्धु नदी की लहरों में चाँदनी रात में /चेर प्रदेश की सुंदरियों सहित / सुंदर तेलुगु गीत गाते हुए / हम नाव खेते चलेंगे."


लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि भारती की कविताओं में राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता का सुंदर समावेश है. भारती ने विश्‍व भर में व्याप्‍त सभी प्रकार की क्रूरताओं एवं अत्याचारों के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की. वे नारी मुक्ति के भी प्रबल समर्थक थे -
"नारी की दासता को उन्‍मूलन किए बिना / मिट्टी की दासता को दूर करना असंभव है/ नारी को गूँगी जब तक मानेंगे तब तक / पुरुषों की मंदबुद्धि दूर नहीं होगी"
.
‘आज के बच्चे ही कल के नागरिक हैं ’,
इस उक्‍ति को सार्थक करने के लिए उन्होंने बच्चों में भी चेतना जगाने का प्रयास किया है-
"खेलो, कूदे, दौड़ो है बच्चों ... तू / आलसी बनकर मत रहो पाप्‍पा (बच्चा)! / मिल कर खेलो बच्चों ... / **** / जातियाँ यहाँ नहीं हैं पाप्‍पा / कुल की उच्चता और नीचता कहना पाप है / न्याय, ऊँची बुद्धि, शिक्षा, प्रेम से/ भरे व्यक्ति ही श्रेष्‍ठ हैं - पाप्‍पा."

भारती संपूर्ण भारतदेश के साथ साथ अपनी मातृभूमि और मातृभाषा को प्रमुखता देते हैं -
"तमिल राष्ट्र को अपनी माता मानकर / उसकी वंदना करो पाप्पा / अमृत से भी मधुर है हमारी तमिल / सज्जनों, पूर्वजों का यह हमारा देश है पाप्पा / भाषा में श्रेष्‍ठ तमिल भाषा है पाप्पा - उसकी / वंदना कर पढ़ो पाप्पा/ संपत्ति में श्रेष्‍ठ यह हिंदुस्तान - उसे / प्रतिदिन प्रशंसा करते रहो पाप्पा."


जातिप्रथा का उन्मूलन जनवादी क्रांति के लिए आवश्‍यक है. भारती की रचनाओं में यह व्यावहारिक रूप में दिखाई देता है - "ब्राह्मण हो या अब्राह्मण, हम सब समान हैं / इस धरती पर जन्में सब मानव समान हैं / जाति धर्म का दम न भरेंगे / ऊँच नीच का भेद तजेंगे / हम वंदेमातरम्‌ कहेंगे. / जो अछूत हैं, वे भी कोई और नहीं हैं / वे भी तो रहते हम सबके साथ यहीं हैं / अपने कहीं पराए होंगे / और हमारा अहित करेंगे ? हम वंदेमातरम्‌ कहेंगे."

डॉ.एम. शेषन ने प्रथम पुस्तक में भारती के काव्यों में निहित लोकगीत शैली की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है. इस शैली में रचित
‘अम्माकण्णु पाट्टु ’, ‘वण्डिक्‍कारन्‌ पाट्टु ’, ‘पुदिय कोणंगी ’, ‘पंडार पाट्टु ’ ‘कुम्मि पाट्टू ’
आदि उल्लेखनीय हैं. जैसे -
"वोडिविलयाडु पाप्पा ... नी / ओयिंदिरिक्‍क लागादु पाप्पा ! / कूडि विलयाडु पाप्पा, ओरु कुलंदैयनु नेनैक्‍कादे पाप्पा ..."
(खेलो, कूदो, दौडो हे बच्चों...तू / आलसी बनकर मत रहो ! / मिलकर खेलो बच्चों, अपने आप को सिर्फ बच्चे न समझो...)

सुब्रह्‌मण्य भारती कवि, गद्‌यकार, पत्रकार और संपादक के साथ साथ सफल अनुवादक भी हैं. उन्होंने संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, फ्रेंच, बेलजीयम, जापानी और चीनी भाषा के साहित्य को तमिल में अनूदित किया है. लेखक ने इसका भी संक्षिप्‍त विवरण प्रस्तुत किया है.

अपनी द्वितीय पुस्तक में लेखक ने तमिलनाडु में व्याप्त पुनर्जागरण और सांस्कृतिक चेतना का परिचय देते हए सुब्रह्‌मण्य भारती के योगदान को स्पष्ट किया है. अंत में उन्होंने भारतेंदु और मैथिलीशरण गुप्‍त के साथ भारती की तुलना की हैं. परिशिष्ट 1 और 2 में भारती की प्रासंगिकता तथा उनके खंड काव्य ‘पांचाली शपदम्‌ ’ का परिचय दिया गया है.

डॉ.एम.शेष‍न्‌ ने अपनी इन दो कृतियों के माध्यम से जहाँ एक ओर आधुनिक तमिल काव्य और भारती के अंतःसंबंधों की पड़ताल की हैं, वहीं दूसरी ओर तमिल नवजागरण में भारती की भूमिका का भी उल्लेख किया है. आशा है कि हिंदी जगत्‌ इनके इस प्रयास का स्वागत करेगा.


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1. आधुनिक तमिल काव्य और सुब्रह्‌मण्य भारती / डॉ.एम.शेषन्‌ /2009 / माणिक्‍यम एंड चिन्नाम्माल एडुकेशन एंड चारिटबल ट्रस्ट, नं. 6, IV क्रास स्ट्रीट, राजराजेश्‍वरी नगर, मडिप्पाकम, चेन्नई - 600 091

2. तमिल नवजागरण और सुबह्‌मण्य भारती / डॉ.एम.शेषन्‌ /2009 / माणिक्‍यम एंड चिन्नाम्माल एडुकेशन एंड चारिटबल ट्रस्ट, नं. 6, IV क्रास स्ट्रीट, राजराजेश्‍वरी नगर, मडिप्पाकम, चेन्नई - 600 091
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‘सन्नाटे में रोशनी ’ बोती कविताएँ

हर मनुष्य को एक तरह का नशा होता है - अंधकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचाकर, धरातल तक ले आने का. इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन हेतु मन बेबस हो उठता है. डॉ.दामोदर खडसे ने शायद इसीकी उपलब्धि हेतु ‘सन्नाटे में रोशनी ’ (2008) नामक काव्य संग्रह की रचना की.


‘सन्नाटे में रोशनी ’ डॉ.खडसे की सर्जनात्मक एवं आधुनिक संवेदना का निरूपक काव्य संग्रह है. इन कविताओं में आंतरिक आत्मीय सुंदरता का हृदयस्पर्शी चित्रण प्रकृति के माध्यम से अंकित है. इस संग्रह की कविताएँ कहीं प्रकृति से संपन्न हैं तो कहीं राजनैतिक घोटालों से कायल संवेदना से ऊभ-चूभ हैं. कहीं आध्यात्म दर्शन से निष्पन्न हैं तो कहीं मानवीय रिश्तों का ताना बाना है. अनुभवी जीवन को हर तरह से भोग सकने में सक्षम कवि ने समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता के हृदय बिदारक चित्र भी उकेरे हैं -
"विश्वास, भितरघात से घायल / राजनीतिक घोटालों से कायल / जाति, धर्म, प्रदेश सब कार्ड हैं / भुनाओं इसे क्रेडिट की तरह" (बहुत स्पर्धा है)


भूमंडलीकरण और उद्‍योगीकरण के फलस्वरूप आज मनुष्य बाज़ार में एक कमोडिटि बन गया है. बाज़ारवाद के प्रभाव के कारण समाज में ही नहीं अपितु इंसानी रिश्तों में भी बदलाव दीख रहा है. प्रतिस्पर्धा की होड़ में फँसा आज का मानव समाज परिवार से ही नहीं अपितु अपने आप से भी कटता जा रहा है. शायद वह अपनी आत्मा की आवाज से भी दूर होता जा रहा है. इसका अंकन कवि ने यूँ किया है -
"खुल गया है बाज़ार / दुनिया का / स्पर्धा है.../ नगरों - महानगरों में / भाग रहे हैं परिवार !/ स्पर्धा है - / एक छत की / रोज़गार की!/ जिसे मिले / वह भी भाग रहा है / जिसे नहीं मिला / भाग रहा है हताश - / किसी तिनके के लिए !" (बहुत स्पर्धा है)


आज का युग संचारक्रांति का युग है. सूचना क्रांति के फलस्वरूप संपूर्ण विश्व एक ग्लोबल विलेज में बदल गया है. जनसंचार के अधुनातन माध्यमों ने जहाँ आशातीत प्रगति की हैं वहीं दूसरी ओर मानव के अंतस को तोड़कर उसे संवेदनहीनता के कगार पर भी ला खड़ा किया है. इसीकी ओर इशारा करता हुआ कवि कहता है कि -
"आओ / इस कोलाहल में / किसी मोड़ पर / ठहरकर देखें हम.../ कितनी भीड़ है - / आवाज ही की / शब्द, संहिता / संयोज / चाहते हैं कि ठहरकर / किसी मोड़ पर / कर ही लें तय / समय, साथ और संवाद / का मतलब!" (संवाद का मतलब)


मानव आरामदायक ज़िंदगी बिताने और अपने जरूरतों को पूरी करने के लिए अपने चारों ओर स्थित रमणीय प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है. आज महानगरों की गगनचुंबी अट्टालिकाएँ इसी तरह पेड़-पौधों को खा गई हैं. ऐसे में छोटी-सी चिड़िया के घोंसले को निगल जाने में कोई अचंबा नहीं है. यह तो एक सहज वास्तविकता है -
"पेड़ खड़े हैं पूर्ववत्‌ / चिड़िया आती नहीं / गीत गाती नहीं.../ पेड़ असमय ही / पतझर हो जाते हैं / सुबह के बिना ही / शाम हो जाती है.../ यह कैसा क्रम है / यह कैसी नियति है ? /चिड़िया बोलती नहीं!" (चिड़िया)



प्रकृति और पुरुष के बीच अभिनाभाव संबंध है. दोनों के रिश्ते आपस में इस तरह जुड़े हैं कि अपमा, उपमेय और उपमान मिट जाते हैं. तथा इसी एकाकार से कविता अंकुरित होती है. डॉ.खडसे स्वाभावतः प्रकृति प्रेमी हैं. उनकी हर एक कविता में प्रकृति का नित-नवीन रूप अभिव्यंजित है. उषःकालीन स्वर्णिम किरणों से जनमानस में आह्लाद का संचार होता है. नदी के प्रवाह के समान ही मानव जीवन भी अहर्निश गतिशील है. नदी, नारी और संस्कृति का अंतःसंबंध है. नदी किनारों को अपना लेती है और सन्नाटे में रोशनी बोती है. उसी तरह नारी भी हर एक रिश्‍ते को अपनाकर मानव जीवन को एक सार्थक पहचान देती है -
"नदी जन्म से पाती है / नाम, रिश्‍ता और खिलखिलाहट / किनारे भी मिलते हैं उसे / अनाम, निश्‍चल और उबड़-खाबड़ / नदी किनारों को अपना लेती है / देती है उन्हें नाम, परिभाषा और पहचान /***/ बरसात में किसी मोड़ पर नदी / किनारे को भरपूर गलबहियाँ देकर / सन्नाटे में /रोशनी बोती है / और उदारता की नई परिभाषाओं से / समय का अमृत-तिलक करती है." (समय का नाम)


जिस तरह सागर से मिलकर एक नदी अपने सारे अस्तित्व को विलीन कर डालती है यह जानते हुए भी कि नदी का अस्तित्व तभी तक है जब तक कि वह नदी के रूप में है, सागर से मिल जाने के बाद उसका अस्तित्व नहीं होता. वह सागर की पहचान से जानी जाती है. उसी तरह नारी भी पुरुष के आगोश में समा जाती है - "सागर में विसर्जित होती नदी / कितनी संतुष्ट, शांत और थिर लगती है /***/ सागर से मिलते ही पता नहीं कब / उसका जल मीठापन खो देता है / सागर के खारेपन को अपना लेती है नदी / सागर से लड़ती नहीं कभी वह / बस एकाकार हो जाती है / जीवन के साथ...." (केवल नदी)


कवि ने भारतीय संस्कृति को अपनी कविताओं के माध्यम से व्यकत किया है. उनहोंने सिर्फ प्रकृति चित्रण ही नहीं किया अपितु सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं के चक्रव्यूह में फँसे व्यक्ति की दुर्दशा का अंकन भी किया है -
"आज कल लोग / दफ्तर में / वक्त से पहले दुबक जाते हैं / ठंड़ी-ठंड़ी छाँव तले / ओवर टाइम कमाते हैं.../ उधर सड़कों के किनारे / कुछ झोपड़े बने हैं / बनती हैं जहाँ / खस की टट्‍टियाँ / दफ्तरी साहबों के लिए / दुकानों, सेठों और कोठियों के लिए / बनते हैं वे ठंडाई / भरी दुपहरी में / ताकि रख सकें देश का दिमाग ठंड़ा / और बुझ सके उनकी / पेट की आग..." (धूप में नंगे पैर)



डॉ.खडसे ने अपनी कविताओं में जीवन के हर एक रंग को बखूबी उकेरा है. कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि खडसे की कविताओं के केंद्र में मनुष्य़ है. उनकी हर एक कविता मानव के सुख - दुःख, आस्था - अनास्था, जीवन की चुनौतियाँ, उतार - चढ़ाव, संघर्ष, जय - पराजय आदि हर एक पहलू में शामिल होना चाहती है.

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सन्नाटे में रोशनी (काव्य संग्रह) / डॉ.दामोदर खडसे / 2008 / क्षितिज प्रकाशन, पुणे / पृष्ठ - 107 / मूल्य - रु. 180

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शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

‘हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले’

भगवतीचरण वर्मा की पुण्यतिथि 5 अक्‍तूबर पर विशेष

‘हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले’

भगवतीचरण वर्मा (30 अगस्त, 1903 - 05 अक्‍तूबर, 1981) ने प्रायः सभी विधाओं में सृजन किया. वे एक संपूर्ण साहित्यकार थे. लेकिन कविता वर्माजी की अंतरात्मा में इस प्रकार अनुस्यूत है कि उससे उनका संबंध विच्छिन हो ही नहीं सकता. हिंदी कविता के विविध ‘वादों’ की भूमि पर उन्होंने पदार्पण अवश्य किया, किंतु अधिक समय तक वे किसी वाद के कटघरे में आबद्‍ध नहीं रहे. उनकी अल्हड़ता, मस्ती और स्वातंत्र्य प्रियता उन्हें हर बार ‘वाद’ की प्राचीरों से विमुक्त होने के लिए आकुल बनाती रही. एक के बाद दूसरे वाद की सीमा में प्रविष्ट होने और उसे ठोंक बजाकर देखने के अनंतर वे मस्ती से यह गुनगुनाते हुए आगे बढ़ गए -
"हम दीवानों की क्या हसती, / हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले, / मस्ती का आलम साथ चला, / हम धूल उड़ाते जहाँ चले, / आए बनकर उल्लास अभी / आँसू बनकर बह चले अभी, / सब कहते ही रह गए, अरे, / तुम कैसे आए, कहाँ चले ? / किस ओर चले ? यह मत पूछो / चलना है, बस इसलिए चले, / जग से उसका कुछ लिए चले, / जग से अपना कुछ दिए चले," (हम दीवानों की क्या हस्ती)

जिस समय भगवतीचरण वर्मा ने काव्य रंगमंच पर पग धरा तब छायावाद की लहर चलनी प्रारंभ हो गई थी. इस नई लहर के साथ वह भी कुछ समय तब बह चले. लेकिन उन्हें न तो छायावादी काव्यानुभूति के अशरीर आधारों ने आकर्षित किया और न ही भारतीय मृदुलता को ही वे अपना सके. अपने काव्य संग्रह ‘मानव ’ तक आते आते वे एक प्रगतिशील कवि के रूप में परिणत हो गए. उनके बौद्‍धिक चिंतन और सामाजिक जागरूकता ने उन्हें समाज के निम्नवर्ग के जीवन स्तर के प्रति संवेदनशील बनाया और वे ‘भैंसागाड़ी ’ जैसी ख्याति लब्ध कविताओं की सृष्टि कर सके. उन्होंने अनेक कविताओं में समाज के दलित शोषित वर्ग का चित्र खींचा है. भारत में जहाँ एक ओर मानव मेधा की सहायता से तकनीकी विकास चरमोत्कर्ष पर हैं वहीं दूसरी ओर ग्रामों की स्थिति दयनीय है. भैंसागाड़ी से ‘चरमर - चरमर चूँ चरर - मरर ’ के ध्वनि बिंब उभरे हैं. कवि ने इस कविता में यह विडंबना चित्रित की हैं कि सारी सृष्टि गति के पालगपन से प्रेरित है. इसीलिए सागर में जहाज और आकाश में वायुयान उड़ रहे हैं और उसी दौर में गाँव के ऊबड़ - खाबड़ रास्तों के बीच भैंसागाड़ी चली जा रही है -
"चरमर - चरमर चूँ चरर -मरर / जा रही चली भैंसागाड़ी ! /***/ पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं / उच्छावास, भावनाएँ, चाहें, / वे भूख, अधखाए किसान / भर रहे जहाँ सूनी आहें / नंगे बच्चे, चिथड़े पहने / माताएँ जर्जर डोल रहीं / है जहाँ विवशता नृत्य कर रही / धूल उड़ाती हैं राहें, /***/ पीछे है पशुता का खंडहर, / दानवता का सामने नगर, /मानव का कृश कंकाल लिए / चरमर - चरमर चूँ चरर - मरर / जा रही चली भैंसागाड़ी !" (भैंसागाड़ी)

महानगरों की विडंबना भी कुछ ऐसी ही है -
"पशु बनकर मानव भूल गया / है मानवता का नाम - ग्राम ! /हम ठीक तरह चढ़ भी न सके / घर घर घर घर चल पड़ी ट्राम !" (ट्राम)

वर्मा जी व्यक्तिवादी कवि थे. उनकी कविताओं में अहंवाद की खुली अभिव्यक्ति हुई है. ‘प्रेम - संगीत ’ और ‘मानव ’ की अधिकांश कविताओं में उनके वैयक्तिक सुख - दुःख की अभिव्यंजना हुई है. वे अपने प्रणय और वेदना भाव को निःसंकोच स्वीकारते हैं -
"हाँ, प्रेम किया है, प्रेम किया है मैंने, / वरदान समझ अभिशाप लिया है मैंने." (प्रेम - संगीत)

जहाँ एक ओर उनकी कविताओं में रोमानीपन, आत्मपीड़ा, अकेलापन आदि का आभास होता है वहीं दूसरी ओर उनमें मानवीय मूल्यों के प्रति पक्षधरता, सामाजिक विषमता, नियतिवाद, व्यंग्य आदी भी पग - पग पर समाहित हैं. वे इसी मान्यता पर विश्वास करते थे कि ‘जो होना है वह हो चुका है. जो कुछ सामने है, वही सत्य है और वही नित्य है.’ अतः वे कहते हैं -
"यहाँ सफलता या असफलता, ये तो सिर्फ बहाने हैं; / केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयम्‌ अजाने हैं." (चहल - पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं)

देशभक्‍ति का अखंड स्वर भी उनकी कविताओं में विद्‍यमान है -
"ऐ अमरों की जननी, तुझको शत - शत बार प्रणाम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम. / तेरे उर में शादित गांधी, बुद्ध, कृष्ण औ’ राम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम. / *** / गूँज उठे जयहिंद नाद से सकल नगर औ’ ग्राम, / मातृ - भू, शत - शत बार प्रणाम." (मातृ - भू शत - शत बार प्रणाम)


वस्तुतः भगवतीचरण वर्मा उन कवियों में से हैं जिन्हें प्रकृति सौंदर्य की अपेक्षा मानव सौंदर्य अधिक आकर्षित करता है. वे स्वयं फूलों की अपेक्षा रंगों से अपना मोह होने की बात स्वीकृत करते हैं -
"मुझको रंगों से मोह, नहीं फूलों से. / जब मुग्ध भावना मलय - भार से कंपित / जब विसुध चेतना सौरभ से अनुरंजित, / जब आलस लास्य से हँस पड़ता है मधुवन / तब हो उठता है मेरा मन आशंकित / चुभ जायँ न मेरे वज्र सदृश चरणों में / मैं कलियों से भयभीत, नहीं फूलों से." (मुझको रंगों से मोह)


इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वे प्रकृति सौंदर्य की उपेक्षा करते हैं. वे प्रकृति के ऋतु सौंदर्य से बहुत प्रभावित हैं, विशेषतः पावस एवं बासंती प्रकृति से -
"जब उषा सुनहली जीवन - श्री बिखराती / जब रात रुपहली गीत प्रणय के गाती / जब नील गगन में आंदोलित तन्मयता / जब हरित प्रकृति में नव सुषमा मुस्काती" (मुझको रंगों से मोह)

"आज सौरभ में भरा उच्छ्‌वास है, / आज कम्पित भ्रमित यह वातास है, / आज शतदल पर मुदित - सा झूलता / कर रहा अठखेलियाँ हिमहास है, / लाज की सीमा प्रिये, तुम तोड़ दो! / आज मिल लो, मान करना छोड़ दो!" (आज माधव का सुनहला प्रात है)

भगवतीचरण वर्मा की कविताओं में वैविध्य होने के बावजूद सभी कविताओं में एक बिंदु पर अन्विति दिखाई देती है. वह है ‘अस्मिता की खोज’. उनकी कविताओं की केंद्रीय आत्मा है जीवन दर्शन -
"कैसे विषाद ? क्या मानवता ? / मेरे सम्मुख तो है पशुता; / ये भक्ष्य और वे भक्षक हैं, / इनमें लघुता, उनमें गुरुता, / *** / केवल मुट्ठी - भर अन्न, इसी / पर केंद्रित मानव का जीवन/ दो-चार हाथ कपड़ों से ही / ढक जाता है मानव का तन, / छः हाथ भूमि पर बना हुआ / है मानव का ऐश्‍वर्य - सदन, / फिर क्यों इतना मानापमान / इतनी तृष्णा, इतना क्रन्दन ?" (जीवन दर्शन)

भगवतीचरण वर्मा हिंदी के श्रेष्ठ कवि हैं. इसमें कोई संदेह नहीं. कवि रूप के साथ साथ उनका उपन्यासकार रूप उतना ही भव्य है. उनकी सरल उक्तियों में पाठकों का दिल झकझोर देने की क्षमता निहित है. अपनी कालजयी कृति ‘चित्रलेखा ’ के माध्यम से उन्होंने पाप और पुण्य की परिभाषा का प्रतिपादन किया. मनुष्य में ममत्व प्रधान है. प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है. केवल व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न होते हैं. कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं, कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं - पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है. कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा, जिसमें दुःख मिले - यही मनुष्य की मनःप्रवृत्ति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता है. फिर पाप और पुण्य कैसा ? हम न ही पाप करते हैं और न ही पुण्य, हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है. इस तथ्य का प्रतिपादन वर्मा जी ने अपने उपन्यास ‘चित्रलेखा ’ में किया है.

वर्मा जी ने मूलतः किसी न किसी सामाजिक समस्या को अपनी कृतियों में अवश्य उठाया है. प्रेम की परिणति विवाह में आवश्यक है या नहीं, यही वस्तुतः ‘तीन वर्ष ’ उपन्यास की समस्या है. इसमें उपन्यासकार प्रेम के आत्मिक पहलू को स्वीकार करने पर बल देता है. ‘भूले बिसरे चित्र ’ में तीन पीढ़ियों की सोच और मानसिकता के बदलाव, पुरानी पीढ़ी के साथ नई पीढ़ी के संघर्ष (पीढ़ी अंतराल), औपनिवेशिक शासन के प्रति बुद्धिजीवियों का मोहभंग एवं विद्रोह का अंकन किया गया है. ‘सीधी सच्ची बातें ’ में राष्ट्रीय आंदोलन को बुद्धिजीवियों एवं नेताओं के दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया गया है. अपराध और राजनीति का गठबंधन, नेताओं की सत्तालोलुपता आदि को ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं ’ तथा ‘प्रश्‍न और मरीचिका ’ में व्यंग्यात्मक शैली अपनाकर बखूबी चित्रित किया है. अतः हम यह कह सकते हैं कि भगवतीचरण वर्मा ने अपनी कृतियों में उन्नीस्वीं शती के अंतिम दशक से लेकर बीसवीं शती के सातवें दशक तक के काल को उसके व्यापक और वैविध्यपूर्ण आयाम में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.

इतना ही नहीं उनका कहानीकार रूप भी भव्य है. उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से मध्यवर्गीय व्यक्ति की आर्थिक कठिनाइयाँ, महानगरीय जीवन और उसकी यांत्रिकता, वेश्या समस्या, काम समस्या, बेकारी आदि अनेक व्यष्टि - समष्टि जीवन की समस्याओं को उठाया. संसृति के प्रति उनकी भावना वंदनीय है -
"संसृति के प्रति अनुरक्ति बनूँ / जन के प्रति श्रद्धा बनूँ / मैं शक्ति बनूँ ऐसी कि रच सकूँ / पृथ्वी पर नन्दन कानन." (बसंतोत्सव)


शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

गाँधी जयंती : ''हिंद स्वराज्य''

अक्‍तूबर का महीना आते ही सबसे पहले हम सत्य और अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी (02 अक्‍तूबर,1869 - 30 जनवरी,1948) को याद करते हैं. इस उपलक्ष्य में ‘स्रवंति ’ की ओर से आपको ‘गांधी जयंती ’ की शुभकामनाएँ. इस अंक में हम महात्मा गांधी की कृति ‘हिंद स्वराज्य ’(1909) की ओर आपका ध्यान आकर्षित करेंगे क्योंकि यह ‘हिंद स्वराज्य ’ का शताब्दी वर्ष है.

1909 में गुजराती में लिखी गई यह पुस्तक महात्मा गांधी की पहली पुस्तक है. पाठक और संपादक की संवाद शैली में लिखी गई इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद ‘हिंद स्वराज्य ’ नाम से नवजीवन संस्था ने प्रकाशित किया.

1893 में गांधी दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए दक्षिण अफ्रीका गए. बाद में वे 1909 में ट्रांसवाल डिप्यूटेशन के साथ लंदन गए थे. वहाँ उनकी मुलाकात कुछ स्वराज्य प्रेमी भारतीय नवयुवकों से हुई. गांधी जी ने उनसे तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, हिंदुस्तान की दशा, उसकी आजादी की संभावनाएँ, शिक्षा, सत्य, अहिंसा और स्वराज्य जैसे अनेक मुद्‍दों पर चर्चा की. चार महीने के बाद वापस दक्षिण अफ्रीका लौटते समय उन्होंने किलडोनन कैसल पर मात्र दस दिनों (13 - 22 नवंबर, 1909) में उस बातचीत से संदर्भित विचारों को प्रश्‍नोत्तर शैली में ‘हिंद स्वराज्य ’ के रूप में लिपिबद्ध किया.

गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज्य ’ के उद्धेश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है -
"उद्धेश्य सिर्फ देश की सेवा का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है."
पुनः 1921 में इस पुस्तक का सार प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा कि -
"1909 में यह लिखी गई थी. इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है. मुझे लगता है कि हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता ’ का त्याग करेगा, तो उससे उसे ही लाभ होगा. ... इस किताब में जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं. मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है. ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्‍वास है कि इसमें जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक (आम) प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढ़ंग का स्वराज्य पाना है. ... मेरी यह छोटी सी किताब इतनी निर्दोष है कि यह बच्चों के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेष धर्म की जगह पर प्रेम धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म - बलिदान स्थापित करती है और पशुबल के खिलाफ टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है."

तत्कालीन परिस्थितियों, विचारों और तर्कों को गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज्य' (94 पृष्ठ) में दो परिशिष्टों सहित
‘सुधार का दर्शन ’, ‘हिंदुस्तान की दशा ’, ‘हिंदू -मुसलमान ’, ‘वकील और डॉक्टर ’, ‘सत्याग्रह ’, ‘पढ़ाई ’, ‘मशीनें ’ और ‘छुटकारा ’
शीर्षक 20 छोटे - छोटे अध्यायों में संजोया है. प्रथम अध्याय में पत्रकारों की आचार संहिता के बारे में विचार प्रकट करते हुए उन्होंने पत्रकारिता की कसौटियों को स्पष्ट किया है. इस अध्याय के अंत में उन्होंने यह लिखा है कि
"कांग्रेस ने अलग - अलग जगहों पर हिंदियों को इकट्ठा करके उनमें ‘हम एक प्रजा है ’ ऐसे जोश पैदा किया."
यहाँ पर प्रयुक्‍त शब्द ‘हिंदियों ’ वसतुतः ‘हिंदुस्तानियों ’ का वाचक है.

गांधी जी मशीनी सभ्यता के खिलाफ थे क्योंकि वे मानते थे कि मशीनें मनुष्य का रोजगार छीनकर उसे भूखों मरने के लिए मजबूर करती हैं :
"मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है. यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूँ. ... बंबई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, उनकी हालत देखकर कोई भी काँप उठेगा. जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थीं." गांधी जी के इन विचारों को भले आज अक्षरशः स्वीकारना कठिन प्रतीत हो लेकिन इस दृष्टि से ये आज भी प्रासंगिक हैं कि आज मनुष्य यांत्रिक पुर्जा बन गया है. गांधी जी का स्वराज्य इस मशीनी सभ्यता से मुक्ति प्राप्त करने पर जोर देती है. ‘हिंद स्वराज्य ’ की असली अवधारणा को उन्होंने एक वाक्य में समेटा है - "हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है, और वह स्वराज्य हमारी हथेली में है."


‘हिंद स्वराज्य ’ में अन्यत्र गांधी जी ने स्वराज्य के बारे में अपने विचार यों व्यक्‍त किए हैं -
"स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिए और सबको उसे अपना बनाना चाहिए. मांगने से कुछ नहीं मिलेगा, यह तो खुद लेना होगा."
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि एक हद तक स्वराज्य में अंधाधुंधी को बरदाशत कर सकते हैं लेकिन परराज्य को नहीं क्योंकि परराज्य हमारी बरबादी का सूचक है.

बापू ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य ’ के माध्य्म से भारतीय जनता ही नहीं बल्कि विश्‍व के तमाम लोगों के सामने जीवन की कसौटियों को रखा है. उनका स्वराज्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता तक सीमित नहीं हैं. जीवन के हर क्षेत्र में, धर्म, सत्य और अहिंसा का साम्राज्य देखना ही उनका सपना था. अतः वे लिखते हैं
"मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य पाने के लिए यह देह समर्पित है."


गांधी जी का ‘हिंद स्वराज्य ’ 100 साल पहले भी प्रासंगिक था, आज भी प्रासंगिक हैं और कल भी रहेगा, इसमें दो राय नहीं हैं. ब्रिटिश शासन की गुलामी से तो भारत आजाद हुआ लेकिन आज तक वह ‘स्वराज्य ’ प्राप्त नहीं हुआ जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था. बापू हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई में कोई भेदभाव नहीं करते थे. उनके अनुसार तो
"हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, वे एक - देशीय, एक - मुल्की हैं, वे मुल्की - भाई हैं."

मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास अर्थात्‌ सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा अत्यंत जरूरी है. मातृभाषा का महत्व स्पष्ट करते हुए गांधी जी लिखते हैं -
"हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए. सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा होनी चाहिए. हरेक पढ़े - लिखे हिंदी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमानों को अरबी का, पारसी को फारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए."

बापू ने ‘हिंद स्वराज्य ’ के ‘परिशिष्ट 2 ’में ब्रिटिश सांसद जे.सी.मोर का उद्धरण अंकित किया है जिससे भारत के स्वभाव का पता चलता है -
"हमने पाया कि भारत एक प्राचीन सभ्यता है जो वहाँ हजारों सालों से रह रही अतिशय बुद्धिमान जातियों के चरित्र का अंग बन चुकी है. उस सभ्यता ने भारत को राजनैतिक संरचना तो दी है, समाज और परिवार के जीवन को चलने वाली अनेकों विविधतापूर्ण और संपन्न संस्थाएँ भी दी हैं. अपनी इन संस्थाओं के कारण हिंदू जाति का चरित्र उन्नत है. वे कुशल व्यापारी हैं, बुद्धिमान, विचारशील और समीक्षाबुद्धि से संपन्न हैं, कमखर्च हैं, उदार हैं, संयमी हैं, धर्म पर चलने वाले और नियमों को मानने वाले हैं, मधुर व्यवहार वाले हैं, दयालु हैं, विपत्ति में धैर्यशील हैं और मातापिता की आज्ञा मानने वाले हैं."


इस पुस्तक के प्रारंभ में दी गई प्रस्तावना बहुत ही महत्वपूर्ण है. सात प्रस्तावनाओं में दो काकासाहब कालेलकर की हैं, दो महादेवभाई की और तीन महात्मा गांधी की हैं. काकासाहब ने ‘दो शब्द ’ में लिखा है कि "इस अमर किताब का स्थान तो भारतीय जीवन में हमेशा के लिए रहेगा ही.
" महादेवभाई ने ‘उपोद्‍धात’ के अंत में लिखा है - "सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्वीकार से अंत में क्या नतीजा आयेगा, उसकी तस्वीर इसमें है." महात्मा गांधी द्वारा लिखित प्रस्तावना को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि किस परिस्थिति में बापू को ‘हिंद स्वराज्य ’ लिखने की प्रेरणा हुई - "जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा है. बहुत पढ़ा, बहुत सोचा. विलायत में ट्रांसवाल डेप्युटेशन के साथ मैं चार माह रहा, उस बीच हो सका उतने हिंदुस्तानियों के साथ मैंने सोच - विचार किया, हो सका उतने अंग्रेजों से भी मैं मिला. अपने जो विचार मुझे आखिरी मालूम हुए, उन्हें पाठकों के सामने रखना मैंने अपना फर्ज समझा."

[अक्‍तूबर 2009: संपादकीय :स्रवंति]

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

हिंदी दिवस पर भाषा चिंतन

सितंबर का महीना हम हिंदी प्रचारकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसी महीने में ‘हिंदी दिवस ’ मनाया जाता है. ‘स्रवंति ’ की ओर से आपको ‘हिंदी दिवस ’ की शुभकामनाएँ देते हुए हम यहाँ एक सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘हिंदी भाषा चिंतन ’ की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करेंगे.


भाषा के बारे में विवेचन - विश्लेषण वस्तुतः भाषा से ही होता है. अतः भाषा साध्य भी है और साधन भी. यह सर्वविदित है कि हिंदी भाषा के विकास, मानकीकरण,आधुनिकीकरण और सुनिश्चित व्याकरणिक संरचना की एक सुदृढ़ परंपरा रही है. हिंदी भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन ही ‘हिंदी भाषाविज्ञान ’ है. भाषाविज्ञान भाषा के व्याकरणिक सम्मत, शुद्ध तथा मानक रूप को अध्ययन सामग्री बनाता है, लेकिन सामाजिक व्यवहार में भाषा समरूपी न होकर विषमरूपी होती है. एक ओर समाज में भाषा के शैली भेद उपलब्ध हैं तो दूसरी ओर इसकी विविध बोलियाँ और सामाजिक व्यवहार के अनेकानेक विकल्प.


मानकीकरण की दृष्टि से हिंदी भाषा की लिपि से लेकर के उसके व्याकरणिक ढ़ाँचे तक के महत्वपूर्ण पक्षों पर महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा अनेकानेक विद्वानों ने समय समय पर विचार प्रकट किए हैं. साथ ही हिंदी भाषा के शक्ति सामर्थ्य से संबंधित अनेक गुत्थियों को भी सुलझाया गया. विश्व फलक पर उभर रहे भाषाई चिंतन से हिंदी भाषाविज्ञान को जोड़ने में डॉ.धीरेंद्रवर्मा का योगदान अनुपमेय है. उन्होंने हिंदी भाषा की ऐतिहासिकता तथा उसकी बोलीगत, क्षेत्रगत एवं प्रयोगगत संभावनाओं का भी सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है. इस परंपरा को आगे बढ़ाने में अनेक भाषाविदों ने योगदान किया है और हिंदी भाषा चिंतन के विविध पक्षों को पुष्ट किया है. इस संदर्भ में प्रो.दिलीप सिंह (1951) की कृति ‘हिंदी भाषा चिंतन ’(2009, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) मूलतः हिंदी भाषा विषयक विमर्श के एक नए आयाम प्रस्तुत करती है.


प्रो.दिलीप सिंह ने अपने इस ग्रंथ में हिंदी भाषा के विकास का भाषावैज्ञानिक विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत किया है. उनकी मान्यता है कि
"हिंदी भाषा के रचनाकारों, पोषकों, अनुवादकों (चाहे वे किसी प्रांत या क्षेत्र के हों) ने हिंदी भाषा के भीतर विशाल जन-जीवनों की आत्मा से बराबर तालमेल बनाए रखा है. इनको अब हिंदी व्याकरण में उकेरने होगा. बनावटी, अनुवाद आश्रित, जन-संपर्क से दूर होती जा रही सामर्थ्यहीन हिंदी का तिरस्कार करना भी इस व्याकरण के लिए ज़रूरी होगा. भाषा की शुद्ध्ता या मानकता की दुहाई देकर हिंदी भाषा के स्वाभाविक विकास और प्रयोग को; कहा जाय उसकी लचीली प्रकृति या ग्रहणवादी प्रकृति की आलोचना करनेवाले शुद्धतावादियों से सावधान रहे बिना और भाषा-संपर्क एवं भाषा-विकास की स्वाभाविक व्याकरणिक परिणतियों का संकेत दिए बिना हिंदी व्याकरण की परतों (layers) को नहीं टटोला जा सकता है. हिंदी भाषा मात्र, ‘एक ’ व्याकरणिक व्यवस्था नहीं है, वह हिंदी भाषा समुदाय में व्यवस्थाओं की व्यवस्था के रूप में प्रचलित और प्रयुक्त है; इस तथ्य के प्रकाश में निर्मित हिंदी-व्याकरण ही भाषा के उन उपेक्षित धरातलों पर विचार कर सकेगा जो वास्तव में भाषा प्रयोक्ता के ‘भाषाई कोष ’ की धरोहर हैं. कोई भी जीवंत शब्द और जीवंत भाषा एक नदी की तरह विभिन्न क्षेत्रों से गुजरती और अनेक रंग-गंधावली मिट्टी को समेटती आगे बढ़ती है. हिंदी भी ऐसी ही जीती - जागती भाषा है. इसके व्यावहारिक विकल्पों को व्याकरण में उभारना, यही एक तरीका है कि हम हिंदी को उसकी राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय भूमिका में आगे ले जा सकते हैं."


लेखक ने प्रथम खंड ‘धरोहर’ के अंतर्गत हिंदी के शब्द संस्कार की व्यापकता की चर्चा करते हुए यह बात स्पष्ट की है कि डॉ.रघुवीर के पारिभाषिक शब्दावली कोश पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ताकि जिन शब्द सूचियों की मदद अक्सर ली जाती हैं, उनकी रचना और बनावट को पुनः रेखांकित किया जा सके तथा उन्हें अधिक व्यावहारिक बनाया जा सके. हिंदी की सामासिक संस्कृति पर विचार करते हुए लेखक ने यह रेखांकित किया है कि भाषा शिक्षण की सहायक सामग्री के रूप में व्याकरण एक अनिवार्य तत्व है. उनका मत है कि आज व्यावहारिक अथवा संप्रेषणपरक व्याकरण की आवश्यकता है जिसके सहारे हिंदी भाषा की वैविध्यपूर्ण प्रकृति अथवा उसकी सामाजिक यथार्थता को उद्‍घाटित किया जा सके. उच्चरित और लिखित भाषा के अंतःसंबंधों एवं देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता की चर्चा भी की गई है. इस खंड में लेखक ने भाषाविज्ञान के विकास में महिलाओं के योगदान का भी विवेचन किया है जो स्त्रीविमर्श को नया आयाम प्रदान करता है तथा संभवतः अपनी तरह का इकलौता सर्वेक्षण है.


दूसरे खंड ‘हिंदी का सामाजिक संदर्भ ’ के अंतर्गत ‘समाज भाषाविज्ञान ’ के सैद्‌धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों पर दृष्टि केंद्रित की गई है. भाषिक क्षमता और भाषिक व्यवहार की चर्चा करते हुए आधुनिक भाषा अध्ययन के अनेक दृष्टिकोणों तथा अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की भिन्न शाखाओं का परिचय कराया गया है. साथ ही समाज में व्यवहृत भाषा रूपों अर्थात्‌ पिजिन, क्रियोल, कोड मिश्रण, कोड परिवर्तन और भाषा द्वैत की संकल्पनाओं को स्पष्ट किया गया है.


तीसरे खंड में मानकीकरण और आधुनिकीकरण की संकल्पनाओं की चर्चा करते हुए लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि यदि मानकीकरण के प्रयासों के साथ उसकी संभावनाओं पर दृष्टि केंद्रित करनी है तो उसके खतरों से भी अवगत होना जरूरी है.


चौथे खंड में भाषा विकास की चर्चा करते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि दक्खिनी हिंदी वसतुतः हिंदी के विकास की मजबूत कड़ी है. उन्होंने यह रेखांकित किया है कि
"दक्खिनी हिंदी काव्य भाषा भारत की सामासिक संस्कृति का एक अनुकरणीय स्वरूप लेकर हमारे सामने आज भी एक जीवंत और ज्वलंत प्रमाण के रूप में उपस्थित है."
उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया है कि ‘हिंदी और उर्दू को टुकड़ों में, खेमों में या खानों में विभाजित करना बेमानी है. ’


प्रयोजनमूलक हिंदी वस्तुतः आज की जरूरत है. पांचवे खंड में प्रयोजनमूलक हिंदी की प्रयुक्तियों एवं उप-प्रयुक्तियों की स्वरूपगत विशेषताओं को समझाते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि प्रयोजनमूलक हिंदी के संदर्भ में अधिकांश अध्ययन और विवेचन ‘कार्यालयीन हिंदी ’ तक ही सीमित हो गए हैं. लेकिन वास्तव में प्रयोजनमूलक हिंदी जीवन और समाज की विभिन्न आवश्यकताओं एवं दायित्वों की पूर्ति के लिए उपयोग में लाए जानेवाली हिंदी है. छठे खंड में प्रयोजनमूलक हिंदी की विविध शैलियों के अंतर्गत व्यावसायिक हिंदी की चर्चा करते हुए लेखक ने पत्रकारिता की हिंदी और साहित्य समीक्षा के साथ साथ पाक-विधि की प्रयुक्ति का सोदाहरण विवेचन किया है. इसमें संदेह नहीं कि समीक्षा से रसोई तक रस परिपाक का आधार भाषा ही है और इस कृति में इसे अत्यंत रोचक ढ़ंग से उद्‌घाटित किया गया है.


सातवें और अंतिम खंड में लेखक ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के योगदान को स्पष्ट किया है. यह सर्वविदित है कि स्वतंत्रता संघर्ष में हिंदी राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उभरी. इसलिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का प्रतीक चिह्‌न हृदयों को जोड़ता हुआ यह घोषित करता है -
"एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक हृदय हो भारत जननी."
1918 में स्थापित सभा का मुख्य उद्‍देश्य था, हिंदी का प्रचार - प्रसार. राष्ट्रपिता माहात्मा गांधी इस संस्था के आजीवन अध्यक्ष रहे. 1927 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एक स्वतंत्र संस्था के रूप में उभरी और 1964 में ‘राष्ट्रीय महत्व की संस्था ’ बनी. इसी वर्ष मद्रास में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान (विश्‍वविद्‍यालय विभाग) प्रारंभ हुआ. तब से लेकर आज तक सभा अपने उद्‍देश्‍यों को क्रियान्वित कर रही है. उच्च शिक्षा और शोध संस्थान ने व्यावहारिक हिंदी के पाठ्‍यक्रमों में एम.ए. स्तर पर साहित्य के साथ साथ शैलीविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, सामान्य भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा की संरचना और इतिहास ही नहीं कार्यालयीन हिंदी, व्यावसायिक हिंदी, अनुवाद विज्ञान, तुलनात्मक अध्ययन, व्यतिरेकी विज्ञान तथा अन्य भाषा शिक्षण जैसे प्रयोजनमूलक हिंदी के प्रश्‍न पत्र भी शामिल किए हैं. इस प्रकार के ‘जॉब ओरियंटेड ’ पाठ्‍यक्रम छात्रों को रोजगार प्राप्त कराने में सक्षम हैं. इस प्रकार हिंदी के प्रचार - प्रसार के साथ साथ उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के माध्यम से निरंतर एक नई पीढ़ी को तैयार कर रही है ताकि हिंदी अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त कर सकें.


यह निर्विवाद है कि भारत और भारतीय संस्कृति को समझने में हिंदी की अहम भूमिका है. हिंदी ने संपूर्ण विश्‍व का ध्यान अपनी ओर खींच रखा है. प्रो.दिलीप सिंह ने अपनी पुस्तक द्वारा विश्‍व भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति का भी बोध कराया है. उन्हीं के एक कथन के साथ इस चर्चा का समाहार समीचीन होगा -

"हम भारत के लोग विदेशों में हो रहे हिंदी संबंधी कार्यों को भी अनदेखा किए हुए हैं. इन्हें न तो हम कोई पहचान देते हैं और न ही महत्व. इस तरह की उदासीनता को सक्रिय जागरूकता में बदले बिना हिंदी भाषा (साथ ही विदेशों में चल रहे तमिल, तेलुगु, बांग्‍ला भाषा कार्यक्रमों को भी) के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को वह ऊँचाई नहीं मिल सकती जिसकी आकांक्षा है, उल्टा, इस तरह की मनोवृत्ति से विदेशी भाषा के रूप में हिंद्दी भाषा की गति - प्रगति बाधित होगी, नीचे की ओर ढुलकेगी. विदेश में हिंदी का ध्वज रामायण के परिवेश में फहरा है. शायद ही दुनिया की कोई ऐसी भाषा हो जिसमें वाल्मीकी कृत ‘रामायण ’ अथवा ‘रामचरित मानस ’ का अनुवाद या व्याख्यानुवाद न हुआ हो. मीरा, सूर, कबीर भी खूब अनूदित हुए हैं. रूसी भाषा में ‘प्रेम सागर ’ (ए.पी.बारान्निकोव) का अनुवाद भी हुआ है. अपने अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में हिंदी भाषा, मात्र एक भाषा नहीं, भारतीय संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म की संवाहिका भाषा है. इस भावात्मक लगाव के कारण ही विश्‍व का झुकाव हिंदी की ओर हुआ. हिंदी साहित्य के अनुवाद कार्य में तथा हिंदी में सृजनात्मक लेखन में इन देशों का योगदान अपना ऐतिहासिक महत्व रखता है. आज हमें इन कार्यों का अवलोकन - आकलन करते हुए इन्हें प्रोत्साहित करने और इनसे संबद्ध समस्याओं का समाधान करने का प्रयत्‍न करना चाहिए. भारत के विश्‍वविद्‍यालयों में इन कार्यों पर शोध हों, महत्वपूर्ण व्याकरणों, रचनाओं का पाठ्‍यक्रम में स्थान दिया जाय और भारत सरकार इन कार्यों को प्रकाशित कर सस्ते दामों पर उपलब्ध कराये. विश्‍व हिंदी के विस्तार को भारतीय जनता से परिचित कराने पर ही हम हिंदी - प्रेमी भारतीय का आत्म - सम्मान बढ़ेगा और विदेशों में हिंदी के लिए समर्पित प्रतिभाओं का उत्साह भी."


[सितंबर2009, संपादकीय: स्रवंति}

जो चले गए, उनको प्रणाम !

हिंदी के लोकप्रिय रंगकर्मी, निर्देशक, कवि और अभिनेता, ‘आगरा बाज़ार ’ और ‘चरनदास चोर ’ जैसे सुप्रसिद्ध नाटकों के लेखक हबीब तनवीर का निधन 08 जून, 2009 को 85 वर्ष की आयु में हुआ.

हबीब तनवीर का जन्म 01 सितंबर, 1923 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ था. उनका मूल नाम हबीब अहमद खान था. ‘तनवीर ’ नाम से वे कविता लिखते थे. उनके द्वारा रचित नाटकों में ‘आगरा बाज़ार’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘मिट्टी की घड़ी’ ‘चरनदास का चोर’, ‘पोंगा पंडित’, ‘कामडे का अपना बसंत ऋतु का सपना’, ‘राजरक्त’ आदी प्रमुख हैं.

तनवीर को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1969), पद्‍मश्री (1983), कालिदास सम्मान (1990),संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप(1996), तथा पद्‍मभूषण (2002), से सम्मानित किया गया था. उनके सुप्रसिद्ध नाटक ‘चरनदास चोर’ के लिए एडिनबर्ग अंतरराष्ट्रीय नाटक महोत्सव (1982) में `Fringe Firsts Award' भी प्राप्त हुआ.

तनवीर पारदर्शी तथा खुले विचारोंवाले व्यक्ति थे. उनके अनुसार अंचल ही सही अर्थों में रंगमंच है. अतः उन्होंने लोक कलाकारों को प्रोत्साहित किया और अपने थियेटर में उन्हें स्थान दिया. वे अपने नाटकों में लोक संगीत का प्रयोग करते थे, समाज में व्याप्त शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि के खिलाफ आवाज उठाते थे तथा छत्तीसगढ़ी लोकशैली ‘पंडवाणी’ के साथ साथ पारंपरिक रंगमंचीय तकनीक का भी प्रयोग करते थे. उनके नाटकों में छत्तीसगढ़ी लोक परंपरा एवं छत्तीसगढ़ी नाच का प्रभाव देखा जा सकता है.

सफदर हाशमी के अनुरोध पर तनवीर ने 1980 को जन नाट्‍य मंच (जनम) के लिए ‘मोती राम का सत्याग्रह’ नामक नाटक का निर्देशन किया. नाटक निर्देशन के साथ साथ उन्होंने फिल्मों में भी अभिनय किया. रिचडर्स एटिनबरो की फिल्म ‘गांधी ’ (1982) में अभिनय किया. भोपाल गैस त्रासदी पर चित्रित फिल्म ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ में भी उन्होंने अभिनय किया, पर यह फिल्म अभी तक रिलीज़ नहीं हुई.

रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘राजर्षि ’ तथा नाटक ‘विसर्जन ’ के आधार पर उन्होंने 2006 में ‘राजरक्त ’ नामक नाटक लिखा और उसका निर्देशन भी किया.

निध्न से पूर्व वे उर्दू में लिखित अपनी आत्मकथा ‘मटमैली चदरिया ’ को अंतिम रूप दे रहे थे.

जून माह में हमने वरिष्ठ रंगकर्मी हबीब तनवीर के साथ साथ हिंदी काव्यमंच की तीन विभूतियों - ओमप्रकाश ‘आदित्य’, लाड़सिंह गूजर और नीरज पुरी को खो दिया.

इन सब दिवंगत विभूतियों को ‘स्रवंति ’ परिवार की विनम्र श्रद्धांजलि !
[जुलाई2009, संपादकीय:स्रवंति]

कुँवरनारायण

"चारों ओर लौह - मौन गुम्बद - सा अंधकार
जिसकी दीवारों से टकराती आवाजें ये
केवल सन्नाटे को और झनझनाती हैं.
*** *** *** ***
समय के केंचुल सरीखा रास्ता.
मारकर खाया हुआ - सा पड़ा
चारों ओर खाली नगर - पंजर ...
लुंज दीवारें -
सहारे
डरी, सिकुड़ी पड़ी
कुछ परछाइयाँ ." (आत्मजयी)


आधुनिक समाज की जटिलताओं एवं विसंगतियों के चितेरे, हिंदी कविता के शलाका पुरुष कुँवरनारायण को वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया. नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवरनारायण ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’ (1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं. वे अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिए वर्तमान को देखने के लिए जाने जाते हैं. कुँवरनारायण के लिए जीवन संपर्क का अर्थ अनुभव मात्र नहीं अपितु वह अनुभूति और मननशक्ति भी है जो अनुभव के प्रति तीव्र और विचारपूर्वक प्रतिक्रिया कर सके.



मानवीय सार्थकता के पक्षधर कुँवरनारायण का जन्म 1927 में हुआ. वे चुंतक मिजाज और संवेदनशील कवि हैं. उनकी कविताओं में भावनाओं का आवेग नहीं अपितु संयम है. उनकी कविता रोमांटिक भावुकताग्रस्त कविता नहीं अपितु उसमें कई की प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती नज़र आती हैं. उनकी कविता में एक प्रकार के रहस्य और विलक्षण प्रश्‍नाकुलता की मुद्रा पग पग पर दिखाई देती है. अस्तित्व को पहचानने की चिंता, अकेलापन, मनुष्य की नियति, मृत्युबोध आदि उनकी कविताओं में विशेष रूप से दीख पड़ते हैं. उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘आत्मजयी’, ‘आकारों के आसपास’, ‘चक्रव्यूह’, ‘अपने सामने’, ‘सन्नाटा या शोर’, ‘जब आदमी आदमी नहीं रह जाता’, ‘इन्तिज़ाम’, ‘दिल्ली की तरफ’, ‘शक’ आदि शामिल हैं.



कुँवरनारायण कवि होने के साथ साथ गंभीर आलोचक भी हैं. उनकी कविता का मूलाधार है - निरंतर और बेचैन प्रश्‍नाकुलता, जो किसी भी सहृदय का सहज स्वाभाव होती है. उनहोंने अपने काव्यबोध से यह प्रमाणित किया कि जो सुंदर है, वह कठिन भी है; चूँकि मानवीय हित की कल्पना सुंदर है लेकिन उसके लिए कठिनतर प्रयत्‍न ज़रूरी है. उनकी पक्षधरता विश्‍वमानवता के सामने उपस्थित संकटों की पहचान में निहित है. कठिन समय का अहसास कुँवरनारायण की कविताओं में बार बार उभरता है -
"शायद उसी मुश्किल वक्त में / जब मैं एक डरे हुए जानवर की तरह / उसे अकेला छोड़कर बच निकला था ख़तरे से सुरक्षा की ओर / वह एक फँसे हुए जानवर की तरह / खूंख्वार हो गया था." (जब आदमी आदमी नहीं रह जाता / अपने सामने).



कुँवरनारायण ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में व्याप्त त्रास्द मूल्यहीनता का निर्मम उद्‍घाटन किया है. मुक्तिबोध ने कुँवरनारायण के बारे में लिखा है -
"महत्व की बात यह है कि आज, जबकि साधारणतः लेखक और कवि इसी व्यवहार क्षेत्र में कार्यकुशल होकर अपने को अधिकाधिक सफल और प्रभावशाली बनाने के प्रयत्‍न में लीन रहते हैं और इसके लिए बिक तक जाते हैं, कुँवरनारायण ऐसा कवि है जो उसी व्यवहार क्षेत्र के विरुद्ध तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ करता हुआ, जीवन के क्षण क्षण को तड़िन्मय और संवेदनमय बनाने के लिए अकुलाता हुआ, पीड़ित अंतरात्मा के स्तर को उभारता है. उसे वास्तविक मानवीय सार्थकता की तलाश है. वह वास्तविक मानवीय सार्थकता उसे कहीं नहीं मिल पाती. इसलिए उसका चित्त खिन्न हो जाता है. पर वह केवल दुःख के काले रंगों में घिरकर डूब नहीं जाता, वरन्‌ मानव के हृदय विस्तार की क्रिया में जो एक मूल समस्यात्मक बाधा है, उस बाधा के वस्तुगत रूप का भी स्पष्ट चित्रण करता है. उसका स्वर उदात्त और नैतिक महत्व धारण कर लेता है. कुँवरनारायण मूलतः आदर्शवादी कवि हैं."



वास्तविक मानवीय सार्थकता के खोजी कवि कुँवरनारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने के अवसर पर उन्हीं के कवितांश के माध्यम से ‘स्रवंति ’ परिवार की बधाई निवेदित है -


"चेतना का न्यून अंकुर,
मनुजता की सहज मर्यादा,
उपजने दो खुली, सन्तुष्ट, रस जलवायु में,
क्योंकि विकसित व्यक्ति ही वह देवता है
इतर मानव जिसे केवल पूजता है;
आँक लेगा वह पनप कर
विश्‍व का विस्तार अपनी अस्मिता में ...
सिर्फ उसकी बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो."

[स्रवंति:दिसंबर 2008 संपादकीय]

'आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे'


"कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे,
हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे."

- -अशफ़ाक उल्ला खाँ

भारत की आज़ादी का इतिहास अविस्मरणीय घटनाओं से भरा पड़ा है. लाखों - करोड़ों देशप्रेमियों ने जिस बहादुरी और साहस के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष किया और जिस बलिदान एवं त्याग का परिचय दिया, वह अनुपमेय है. प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था -
" वर्षों पहले हमने भाग्यवधू से एक प्रतिज्ञा की थी. आज वह क्षण आ गया है जब हम उस प्रतिज्ञा को समग्र रूप में न सही , बहुत हद तक पूरा करेंगे."

स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में 19 वीं सदी पुनर्जागरण का काल था. इसी काल में राष्ट्रीय चेतना मानवीय जिजीविषा के लिए चुनौती बनकर सामने आई, नए मूल्यों की स्थापना हुई. भारतीय साहित्य में निरंतर इन मूल्यों एवं आदर्शों का सशक्त रूप मुखरित होता रहा है.

हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय संघर्ष की विविध घटनाओं का चित्रण सहज एवं स्वाभाविक है. ब्रिटिश शासन काल में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति पर अंकुश था लेकिन साहित्यकारों ने जनमानस में राष्ट्रीय चेतना जगाई.

राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम बापू के नेतृत्व में चरम सीमा पर पहुँचा. शांति और क्रांति दोनों के समर्थक आंदोलनों ने ब्रिटिश शासन पर प्रहार किए. साहित्यकारों ने भी अपना दायित्व निभाते हुए तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक घटनाओं को रूपायित किया. उसकी समृति बाद की रचनाओं में भी अंकित हुए. उदाहरण के लिए ‘मैला आंचल ’ (1954) का एक सत्याग्रही अपने साथियों को संबोधित करते हुए कहता है -
"पियारे भाइयो, हमने भारथमाता का नाम, महतमा जी का नाम लेना बंद नहीं किया. तब मलेट्री ने हमको जेलखाना में डाल दिया. आप लोग तो जानते ही हैं कि सुराज लोग जेहल को क्या समझते हैं - ‘जेहल नहीं ससुराल यार हम बिहा करने को जाएँगे’." (मैला आंचल ; पृ.30)

1947 में भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति तो मिली लेकिन द्विराष्ट्रवाद के कारण देश का विभाजन हुआ और भारत को सांप्रदायिकता की ज्वाला में दग्ध होना पड़ा. इस प्रकार आज संपूर्ण देश में फैली सांप्रदायिकता का बीज स्वतंत्रता पूर्व ही अंकुरित हो गया था. दूसरी ओर ‘मैला आंचल ’ में रेणु ने सांप्रदायिक एकता के उस गीत का स्मरण किया जो खिलाफत के जमाने में गाया गया था -
"अरे चमक मंदिरवा में चाँद / मसजिदवा में बंसी बजे! / मिली रहू हिंदू - मुसलमान / मान-अपमान तजो!" (मैला आंचल ; पृ.232)

इसके अलावा स्वाराज्य की कल्पना उस काल के भारतीय लोकमानस ने किस रूप में की थी, उसकी झांकी द्रष्टव्य है -
"भारत में आयल सुराज / चलु सखी देखन को... / भारथमाता / कथि जे चढ़ल सुराज / चलु सखी देखन को! / *** *** / हाथ चढ़ल आवे भारथमाता / डोली मैं बैठल सुराज! चलु सखी देखन को" (मैला आंचल ; पृ.224)

1947 से पहले हमारा एकमात्र उद्‌देश्‍य था आजादी लेकिन आजादी मिलने के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं. लोगों के सपने टूट गए. सामान्य जनता की हालत में कोई परिवर्तन न हुआ. डॉ.रामदरश मिश्र के ये प्रश्‍न आज जन जन के प्रश्‍न हैं कि -
"कहाँ है वह सुराज्य ? कहाँ है वह समता की भावना, गांधीजी जिसका सपना देखते थे ? हत्यारों ने गांधीजी को पहले ही साफ कर दिया. आज मौज से मनमाना करते हैं." (जल टूटता हुआ ; पृ.9)

साहित्य का काम है प्रश्‍न उठाना, जनमानस को झिंझोड़ना और झकझोरना ताकि वह इन प्रश्‍नों के उत्तर प्राप्त करने के लिए सन्नद्ध हो. संतोष का विषय है कि हमारे साहित्यकार इस दिशा में सचेत हैं.
[स्रवंति : संपादकीय : अगस्त २००९]