सोमवार, 28 मार्च 2011

कुछ तो बच ही जाएगा...


अशोक वाजपेयी के हैदराबाद  आगमन पर विशेष

"समय, मुझे सिखाओ
कैसे भर जाता है घाव, पर
एक अदृश्‍य फाँस दुखती रहती है
जीवन भर।
**** ****
समय, अंधेरे में हाथ थामने,
सुनसान में गुनगुनाहट भरने,
सहारा देने, धीरज बँधाने,
अडिग रहने, साथ चलने और लड़ने का
कोई भूलाबिसरा पुराना गीत तुम्हें याद हो
तो समय गाओ, 
ताकि यह समय,
यह अंधेरा,
यह भारी
यह असह्‌य समय कटे।" (अशोक वाजपेयी, समय से अनुरोध)

‘दक्षिण समाचार’ के संस्थापक संपादक मुनींद्र जी की प्रथम पुण्यतिथि (16 अप्रैल, 2011) के अवसर पर हैदराबाद में विशेष व्याख्यान का आयोजन किया जा रहा है। इस प्रसंग में प्रख्यात हिंदी साहित्यकार और ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के चेयरमैन अशोक वाजपेयी हैदराबाद पधार रहे हैं। आदरणीय प्रफुल्ल मुनींद्र ने फोन करके कहा कि इस अवसर पर प्रकाशन के लिए व्याख्यानमाला के वक्ता यानी अशोक वाजपेयी पर एक परिचयात्मक आलेख चाहिए| आदेश टालना संभव न था अतः यह लेख लिखा गया|

नई कविता के सशक्‍त कवि, संपादक, आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी का जन्म 16 जनवरी, 1941 को दुर्ग (छत्तीसगढ़) में हुआ। वे चिंतकमिजाज और संवेदनशील कवि हैं। उनकी कविताओं में समसामयिक परिस्थितियाँ दृष्‍टिगत होती हैं। वे अपने समय और समाज, जिसे वे अपना पड़ोस कहते हैं, की सच्चाइयों के प्रति सजग और संवेदनशील हैं। उनकी कविताओं में विषयवैविध्य है। परंपरा और आधुनिकता, प्रेम, अनुभूति, जिजीविषा, आस्था, समाज, समय, शब्द, पूर्वज, कलाएँ, घर, पड़ोस, मृत्यु, कुंठा, अकेलापन और मनुष्‍य की नियति आदि उनकी कविताओं में विशेष रूप से दिखाई पड़ते हैं।

अशोक वाजपेयी ने सागर विश्‍वविद्‍यालय से बी.ए. और नई दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्‍त की हैं। तत्पश्‍चात वे दो साल तक ध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत रहे। 1965 में वे भारतीय प्रशासन सेवा में शामिल हुए। उन्होंने मध्यप्रदेश शासन के अनेक विभागों में सचिव के रूप में अपनी सेवाएँ दी। 1992 में भारत सरकार के संस्कृति विभाग में संयुक्‍त सचिव बने। उस समय उन्होंने साहित्य और कलाओं के राष्‍ट्रीय, अंतरराष्‍ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर अनेक आयोजन भी किए। इतना ही नहीं वे भारत भवन (भोपाल), कालिदास अकादमी, उर्दू अकादमी, मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद आदि अनेक संस्थाओं के संस्थापक और संचालक भी रह चुके हैं। भारतीय प्रशासन सेवा कार्यों के साथ साथ वाजपेयी जी ने अपने सृजनात्मक लेखन को लगातार जारी रखा है।

अशोक वाजपेयी की प्रमुख रचनाओं में ‘शहर अब भी संभावना है’(1966), ‘एक पतंग अनंत में’(1984), ‘अगर इतने में ’(1986), ‘तत्पुरुष’(1989), ‘कहीं नहीं वहीं’(1991), ‘बहुरि अकेला’(1992), ‘थोड़ी जगह’(1994), ‘घास में दुबका आकाश’(1994), ‘होना पृथ्वी न होना आकाश’(1994), ‘आविन्यों’(1995), ‘अभी कुछ और’(1988),‘समय के पास समय’(2000), ‘इबारत से गिरी मात्राएँ’(2002), ‘उजाला एक मंदिर बनाता है’(2002), पुरखों की परछाई में धूप’(2003), कुछ रफ़ू कुछ थिगड़े’(2004), ‘उम्मीद का दूसरा नाम’(2004), ‘कुछ पूर्वग्रह’(1984) और  समय से बाहर’(1994) आदि कृतियाँ शामिल हैं। अशोक वाजपेयी  ने ‘समवेत’, ‘समास, ‘पूर्वग्रह’ ‘पहचान’, ‘बहुवचन’ और कविता एशिया(अंग्रेज़ी) आदि प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं के संपादक के रूप में ब्भी पर्याप्‍त ख्याति अर्जित की हैं।

वाजपेयी जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार(1994) और दयावती मोदी कविशेखर सम्मान(1994) मिले हैं। पोलिश सरकार ने उन्हें अपने सम्मान ‘आफ़िसर आव्‌ द आर्डर आव्‌ क्रास’(2004) और फ्रेंच सरकार ने ‘आफ़िसर आव्‌ द आर्डर आव्‌ आर्ट्स एवं लैटर्स’(2005) से गौरवान्वित किया है।

अशोक वाजपेयी की काव्य प्रकृति को स्पष्‍ट करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है कि "तीखे व्यंग्य विद्रूप के युग में अशोक वाजपेयी बड़ी कोमल और सुकुमार मनःस्थिति के कवि हैं।" वे अपने परिवेश से इतने जुड़े हुए हैं कि उनकी रचनाओं में वह स्वतः ही मुखरित होता है। इसीलिए उनको ‘पड़ोस के कवि’ के रूप में जाना जाता है। वे समय के महत्व को जानते हैं और वे समय के साथ चलते हैं और कहते हैं कि 
"अगर वक्‍़त मिला होता
तो मैं दुनिया को कुछ बदलने की कोशिश करता।
आपकी दुनिया को, नहीं,
अपनी दुनिया को,
जिसको सँभालने-समझने
और बिखरने से बचाने में ही वक्‍़त बीत गया।" (अगर वक्‍़त मिला होता)।

जब समाज एक साँचे में जकड़ जाता है तो संवेदनशील हृदय का संत्रस्त होना स्वाभाविक है चूँकि उस परिस्थिति में सबसे पहले सृजनात्मकता नष्‍ट हो जाती है। इसीलिए अशोक वाजपेयी स्वस्थ समाज की कामना करते हुए कहते हैं कि 
"हमें हार-जीत का कौशल नहीं
जीने की सीदी-सादी हिकमतें चाहिए
और उसके लिए थोड़ा-सा इतिहास काफ़ी है।" (थोड़ा-सा इतिहास)।

अशोक वाजपेयी आस्था के कवि हैं। वस्तुतः भारतीय मनीषा इसी बात पर विश्‍वास करती है। इसलिए वे कहते हैं कि
"अपनी गाड़ी में ले जाएगी
लादकर मृत्यु सारा अंबार और अटाला
पर छूट ही जाएगी 
एक टुटही मेज़ और बाल्टी -

सब चले जाएँगे
सुख-दुख, धैर्य और लालच
सुंदरता और पवित्रता
पर प्रार्थना के अंतिम अक्षय शब्द की तरह
बची रह जाएगी कामना -

सब कुछ नष्‍ट नहीं होगा,
कुछ तो बच ही जाएगा।" (कुछ तो)।

वे आगे यह भी कहते हैं कि
"अगर बच सका 
तो वही बचेगा
हम सबसे थोड़ा-सा आदमी -
***** ****
जो रौब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता,
***** ****
जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है,
जो अपनी चुपड़ी खाते हुए दूसरे की सूखी के बारे में सोचता है," (थोड़ा-सा)।

अशोक वाजपेयी कवि के साथ साथ आलोचक भी हैं। उनकी पक्षधरता मनुष्य के सामने उपस्थित संकटों की पहचान में निहित है -
"हमें खुद ही पता नहीं है
हम इतने सारे सच
उठाए चल रहे हैं

अपने समय का सच,
अपने समय में आदमी के धीरे-धीरे
गायब हो जाने का सच,
चीज़ों, लालच और डाह के बढ़ जाने
और जगह के कम होते जाने का सच
दिन-ब-दिन भरोसा न किए जाने का सच।" (धूल की तरह सच)।

किसी भी रचनाकार के व्यक्‍तित्व को पहचानना है तो उनकी रचनाओं को परखना होगा। अशोक वाजपेयी की कविताओं को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि वे आत्मचेतना के कलाकार हैं। उनकी मान्यता है कि एक जागरूक बुद्धिजीवी के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि अपनी समकालीन दुनिया में उसे बौद्धिक चुनौतियाँ दी जाना बंद हो जाएँ। वे मानवीयता के खोजी हैं -
"पदाघात से
खिलता है अशोक का फूल

बिखरते हैं रंग
होती है सुबह 

पृथ्वी मनाती है मोद
पदाघात से! (पदाघात)।


मंगलवार, 15 मार्च 2011

इनसानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ...



आज की नारी न तो कामायनी की श्रद्धा मात्र है और न इड़ा मात्र ही। इड़ा और श्रद्धा उसके व्यक्‍तित्व के दो पहलू हैं - समान रूप से आवश्‍यक और समान रूप से महत्वपूर्ण। जब तक स्त्री को श्रद्धा और इड़ा में विभाजित करके देखा जाता रहेगा, ऐसा हर दर्शन अधूरा रहेगा। स्त्री को उसके व्यक्‍तित्व की पूर्णता में समग्र मानवी के रूप में देखे बिना उसके बारे में फ़तवे जारी करना न्याय संगत नहीं है।

इंदिरा गांधी ने एक जगह कहा था कि ‘भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही स्त्री को कई अधिकार प्राप्‍त हैं। इसलिए अन्य देशों की अपेक्षा यहाँ स्त्री अधिकारों के लिए उस तरह के संघर्ष की आवश्यकता  नहीं है।’ अतः भारतीय संदर्भ में स्त्री की छवि कई प्रसंगों में दुर्बल न होकार सक्षम ही प्रतीत होती है।’ हाँ, यह सर्वविदित है कि भारत में कई बाह्‍य आक्रमण हुए जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय संस्कृति में कई अन्य देशों की संस्कृति आकर सम्मिलित हुईं तथा स्त्रियों पर कुछ पहरे लगने भी शुरू हुए। यहाँ भिन्न भिन्न वर्ग, धर्म और संप्रदाय की स्त्रियों की भिन्न भिन्न दशाएँ देखने को मिलती हैं। यह एक आम धारणा बन चुकी है कि मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल के आरंभ तक भारत में स्त्रियों की दशा सोचनीय रही लेकिन यह भी सच है कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली और नई प्रौद्योगिकी ने स्त्री को बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक स्तर पर सचेत किया है। अतः आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ स्त्री न पहुँची हो।

जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक ‘दि सब्जेक्शन ऑफ विमैन’ (1869) में स्त्रियों की कानूनी असमानता को चुनौती दी है। उनकी मान्यता थी कि ‘स्त्रियों के लिए मताधिकार का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण है।’ संयुक्‍त राष्‍ट्र के महासचिव कॉफी अन्नान के अनुसार ‘प्रजातांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज की अवधारणा को क्रियान्वित करने के लिए सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक स्तर पर जेंडर समानता और महिलाओं का सशक्‍तीकरण महत्वपूर्ण कदम है।’ स्त्रियों के लिए मताधिकार का संवैधानिक अधिकार तो प्राप्‍त हुआ लेकिन आज भी वह अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत है। दूसरी ओर ‘हिंदू कोड बिल’ ने भारतीय नारी की स्थिति को पूरी तरह से बदल दिया जिसके परिणाम स्वरूप वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई। इस समस्त संघर्ष और चेतना का ब्यौरा हमें सहज रूप से साहित्यिक कृतियों में भी देखने को मिलता है।

संवेदनशील साहित्यकारों ने स्त्री की जागरूकता का चित्रण किया है। साहित्य में स्त्री के सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों रूपों का चित्रण प्राप्‍त होता है। आदिकालीन हिंदी साहित्य में नारी के अपूर्व सौंदर्य का वर्णन पाया जाता है। भक्‍तिकालीन साहित्य में उसके वैराग्यजनित कुंठाओं का चित्रण है तो रीतिकालीन साहित्य में वह पुरुष की विलासिता का पात्र बन गई। आधुनिक साहित्य में नारी को अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष करते देखा जा सकता है तथा समकालीन साहित्य में स्त्री की ‘बोल्डनेस’ को।

हिंदी साहित्यकारों की भाँति तेलुगु साहित्यकारों ने भी स्त्री के अनेक रूपों और उनसे जुड़े अनेक मुद्‍दों का चित्रण किया है। कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु और गुरजाडा अप्पाराव जैसे साहित्यकारों ने स्त्री की समस्याओं को लेकर अनेक रचनाएँ की हैं। स्त्री विमर्श की दृष्‍टि से तेलुगु साहित्य में गुडिपाटी वेंकट चलम्‌ की रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री को अपने बारे में सोचने के लिए बाध्य किया। उनकी रचनाओं में ‘कन्नीटी कालुवा’ (अश्रुधारा), ‘अदृष्‍टम्‌’ (किस्मत), ‘हंपी कन्यलू’ (हंपी की कन्याएँ) और ‘वेंकट चलम्‌ कथलू’ (वेंकट चलम्‌ की कहानियाँ) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

इसी क्रम में कोडवटीगंटी कुटुंबराव की रचनाओं को भी स्त्री विमर्श की दृष्‍टि से देखा जा सकता है। उन्होंने अपनी कृतियों में स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता से जुड़े मुद्‍दों को उकेरा है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं ‘आडा जन्मा’ (स्त्री जन्म), ‘लेचिपोइना मनिषी’ (भागा हुआ मनुष्य) और ‘कुलम्‌ लेनी पिल्ला’ (निम्न जाति की लड़की) आदि।

चलम्‌ और कुटुंबराव के साहित्य से प्रेरणा पाकर अनेक स्त्रियों ने अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए संघर्ष किया। इतना ही नहीं अनेक पुरुष साहित्यकारों के साथ साथ महिला रचनाकारों ने भी उनसे प्रभावित होकर अपने सृजनात्मक लेखन द्वारा समाज में स्त्री की दशा को बदलने की आवाज उठाई।

भावात्मक कहानियाँ लिखने में जहाँ अडवि बापिराजु, चिंता दीक्षितुलु और वेलूरि शिवराम शास्त्री प्रसिद्ध हैं वहीं लेखिकाओं में कनुपर्ति वरलक्ष्‍म्मा, इल्लिंदल्लि सरस्वती देवी, मालती चंदूर, अब्बूरि छायादेवी तथा कोम्मूरि पद्‍मावती देवी आदि विख्यात हैं। इन महिला रचनाकारों ने भोगे हुए यथार्थ को कलात्मक बिंबों द्वारा अपनी रचनाओं में अभिव्यक्‍त किया है।

आज वह जमाना नहीं रहा जब स्त्री की दुनिया चूल्हा-चक्की तक सीमित थी। अब वह घर-परिवार के साथ साथ समाज की भी संरक्षक बन गई है। कोंडेपूडि निर्मला, ओल्गा, वसंता कन्नाभिरान्‌, पद्‍मलता, एन.अरुणा, वाणी रंगाराव, घंटसाला निर्मला, शाहजहाना, वकुलाभरनम्‌ ललिता और के.गीता जैसी अनेक कवयित्रियों ने भुक्‍तभोगी के रूप में स्त्री जीवन के यथार्थ के साथ साथ अपने समकालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश को भी अपनी रचनाओं में विचारोत्तेजक रूप में प्रस्तुत किया है।

महाकवि श्रीश्री का कथन है कि ‘कविता के लिए हर कोई छोटी चीज भी उपयोगी है।’ इसी तथ्य को आज की समकालीन स्त्री रचनाकार चरितार्थ कर रही हैं। वे अपनी अभिव्यक्‍ति के लिए छोटे से छोटे बिंब, प्रतीक, घटना और विचार को सशक्‍त रूप से प्रयोग कर रही हैं। एन.अरुणा ने अपनी कविता ‘सुई’ के माध्यम से यह स्पष्‍ट किया है कि सुई स्त्री जीवन और सृजनात्मक मानसिकता का वह प्रकार है जो बेटी को अपनी माँ से विरासत में प्राप्‍त होता है। सुई को कवयित्री ने प्रतीक के रूप में प्रयोग किया है। जिस तरह फटे कपड़ों को सुई जोड़ती है उसी तरह स्त्री भी अपने परिवार को आत्मीयता के धागों से पिरोती है - "इनसानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ/ फटते भूखंडों पर/ पैबंद लगाना चाहती हूँ/ कटते भाव-विभेदों को/ रफ़ू करना चाहती हूँ/ चीथड़ों में फिरनेवाले लोगों के लिए/ हर चबूतरे पर/ सिलाई मशीन बनना चाहती हूँ।/ ***/ आर-पार न सूझनेवाली/ खलबली से भरी इस दुनिया में / मेरी सुई है/ और लोकों की समष्‍टि के लिए खुला कांतिनेत्र।" (एन.अरुणा, ‘सुई’, मौन भी बोलता है; पृ.53-54)।

स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागृत करने के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं। जैसे समान क्षतिपूर्ति अधिनियम 1976; बाल विवाह प्रतिबंध नियम 1929, संशोधित 1987; हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और महिला आरक्षण विधेयक आदि। फिर भी स्त्री का जीवन संघर्षपूर्ण है। उसे अक्सर यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि तुम लड़की हो। अपनी सीमा में रहो। एन. रजिया बेगम ने अपनी कविता ‘अलागे अन्नारू’ (ऐसे ही कहते थे) में इसी बात को स्प्ष्‍ट किया है - "बाल्यम्‌लो/ ‘चिन्न पिल्लवी नीकेम तेलुसु कूर्चो!’ अन्नारू/ यौवनम्‌लो/ ‘उडुकुरक्‍तम्‌ मंची चेडु तेलीदु कूर्चो! अनारू/ वृद्धाप्यम्‌लो/ ‘मुसल्‌दानिवी इंकेम्‌ चेस्ताव कूर्चो!’ अनारू/ अवकाहसम्‌ रानन्दुकु कोपंगा लेदु नाकु/ कूर्चोनी, कूर्चोनी बद्‌धकम्‌ वच्चिनंदुके बाधगा उन्दि।" (‘बचपन में  यह कहकर चुप कराया गया कि तुम बच्ची हो, तुम्हें क्या पता। यौवन में कहा गया कि जोश में हो, अच्छे और बुरे की पहचान नहीं है, चुप बैठो। और वार्धक्य में यह कहकर एक कोने में बिठा दिया ‍गया कि बूढ़ी हो, अब क्या कर सकती हो। कुछ करने के लिए मौका प्राप्‍त न होने के कारण क्रोधित नहीं हूँ, पर बैठे बैठे उकताहट ने घेर लिया है। यही मेरी वेदना है।’ - एस.रजिया बेगम, अलागे अन्नारू (ऐसे ही कहते थे), नीलि मेघालू (नीला मेघ) (सं) ओल्गा; पृ.58)।

पुरुष सदैव से स्त्रियों की कुंठा, निराशा, इच्छा और प्रेम आदि के बारे में तो लिखता आया है लेकिन वह निजीकरण (प्रसव वेदना और मासिकधर्म) जिसे स्त्री ही स्वयं अनुभव कर सकती है, उसकी भाषिक और सच्ची अभिव्यक्‍ति स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। तेलुगु की अनेक कवयित्रियों ने इस सर्वथा निजी अनुभव को सटीक अभिव्यक्‍ति प्रदान की हैं। 

आज की स्त्री पूरी तरह से बदल चुकी है। जहाँ मनुस्मृति में यह कहा गया है कि स्त्री की कौमार्य अवस्था में पिता, यौवनावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं वहीं आज की स्त्री कहती है कि "सुना है पुराने जमाने में गांधारी नाम की एक महान पतिव्रता थी, जिसका पति जन्मांध था। उसने अपनी आँखों पर पट्टी इसलिए बाँध ली कि उसे वह दुनिया दिखाई न दें, जिसे उसका पति नहीं देख सकता। इस ज़माने में अगर आप ऐसा सोचेंगे कि हम बिना पट्टी बाँधे आपकी मनमानी देखें, चुपचाप रहें, तो यह संभव नहीं है।" (डी.कामेश्वरी, ‘आज की नारी’; आज की नारी’ पृ.58)|

वैज्ञानिक तर्कों ने भी यह साबित कर दिया है कि कई प्रसंगों में पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक समझदार, भावुक और मानवीय गुणों से संपन्न है। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा के निबंध ‘युद्ध और नारी’ के  कुछ अंश याद आ रहे हैं। उन्होंने कहा है कि ‘जहाँ पुरुष एक बरगद का पेड़ है, वहीं स्त्री एक कोम्ल लता।’ वे आगे कहती हैं कि ‘स्त्री ने यदि पुरुष के विरुद्ध हथियार उठा लिया तो पूरी दुनिया का सर्वनाश हो जाएगा।’ अतः जो समाज स्त्री को एक बोझ समझकर उसके पैदा होने से पहले ही उसकी भ्रूण हत्या करने की ओर अग्रसर हैं, उन्हें थोड़ी देर के लिए आज की स्त्री की शक्‍ति को एक बार परख लेना समीचीन होगा।

अनेक स्त्रियों ने अपने अनुभूत यथार्थ को सर्जनात्मक अभिव्यक्‍ति दी है। उनमें से कुछ ने और एक कदम आगे बढ़कर इस सर्जनात्मक चेतना को वैचारिक रूप प्रदान करने के लिए कई संस्थाओं का निर्माण किया है। उदाहरणार्थ तेलुगु की प्रसिद्ध कवयित्री ओल्गा (1950) ने स्त्री संबंधी रचनात्मक साहित्य ही नहीं लिखा बल्कि उस साहित्य को जन आंदोलन का रूप देने हेतु ‘अस्मिता’ (Feminist Voluntary Organization) की स्थापना भी की। ऐसी और भी अनेक संस्थाएँ सामाजिक परिवर्तन के लिए अहर्निश प्रयासरत हैं। 

स्मस्णीय है कि मानव-अधिकारों की बात करना ही स्त्री-अधिकारों की बात करना है; स्त्री-अधिकार कोई अलग वस्तु नहीं है :-
"हमें उड़ने को
पंख नहीं चाहिए।
बस हमारे पैरों की
बेड़ियाँ खोल दो॥" 

- ८.३.२०११ 



बुधवार, 9 मार्च 2011

मृत्यु शैय्‍या


"मृतं शरीरमृत्युज्य काष्‍ठलोष्‍ठसमं क्षितौ।
विमुखाः बान्धवाःयान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥" (मनुस्मृति, 4/243)

(मृतक के शरीर को बेकार लकड़ी अथवा मिट्टी के ढेले के समान ही निरर्थक समझकर धरती पर छोड़कर (गाड़ अथवा जलाकर) बंधु-बांधव वापस लौट जाते हैं। उस समय धर्म ही जीव का साथ निभाता है, वही उसका अनुगमन करता है।)

मनुष्‍य इस संसार में अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही संसार से विदा लेता है। जन्म और मृत्यु का यह चक्र निरंतर चलता ही रहता है। अनंत काबरा (1960) ने अपनी पुस्तक ‘मृत्यु शैया’ (कविता संग्रह; 2010) में जीवन की त्रासदी अर्थात मृत्यु के विभिन्न रूपों को उजागर किया है। इस रचना के उद्‍देश्य को स्पष्‍ट करते हुए स्वयं कवि ने कहा है कि "जीवन के साथ मृत्यु का पथ अभी जुड़ा है।... कब कोई कौन से काल में काल का ग्रास बन जाए यही समझाने की एक सहज कोशिश के अतिरिक्‍त कुछ नहीं । हर हालातों में बिछी हर कदम पर सजी मृत्यु शैय्या प्रायश्‍चित का भी अवसर दे, इस पर संशय की परतें चढ़ी हुई हैं। इन्हीं परतों को खोलना, आशंकाओं को गिनना  इन कविताओं का नैतिक धर्म है जो मानवता के मापदंड़ों पर अपने शिलालेखों को गिनती हुई मिलती हैं। ...जीवन की त्रासदी का यह सत्य अब तक आँख मिचौली खेल यहाँ-वहाँ छिपता रहा। उसे पकड़कर कान मरोड़कर आपके सम्मुख रख रहा हूँ।" (भूमिका)।

भारतीय संस्कृति के अनुसार यह कहा जाता है कि मानव शरीर कर्मों के फल से प्राप्‍त होता है। मनुष्‍य को भगवान ने विवेक की शक्‍ति दी है, सोचने-समझने की शक्‍ति प्रदान की है। इसीलिए मनुष्‍य पशु से भिन्न है। उसके जीवन में वस्तुतः तीन अवस्थाएँ हैं - बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था। कवि ने अपने कविता संग्रह में इन तीनों अवस्थाओं में घटित होनेवाली घटनाओं को उजागर करने के साथ साथ मृत्यु के विभिन्न  रूपों अर्थात आकस्मिक मृत्यु, संदेहात्मक मृत्यु, दुर्घटनाग्रस्त मौत, प्राकृतिक मृत्यु और मृत्युबोध आदि को रेखांकित किया है। इतना ही नहीं इन कविताओं में परंपरा और आधुनिकता का द्वन्द्व भी विद्‍यमान है। कवि ने जीवन में व्याप्‍त अनेकानेक समस्याओं जैसे कन्या भ्रूण हत्या, विधवा समस्या,वृद्धावस्था की समस्या, रोगी की मानसिकता, प्रसव पीड़ा आदि को भी उकेरा है।

आज के जीवन में संत्रास और भय की स्थिति उत्पन्न हो गई है। आधुनिक मानव अपनों से तथा अपने आप से भी इतना दूर होता जा रहा है कि आत्मीयता  और संवेदशीलता छटपटाने लगी है। आज मानव मन को मृत्यु का सत्य स्फष्‍ट हो गया  है। इसके हृदय में मुत्युबोध की भावना व्याप्‍त हो गई है - "घुटन और बौखलाहट की खीझ के बीच/ जीवन के घुप्प अंधेरे में/ राहों को तलाशने/ केवल शेष संभावनाओं की प्रतीक्षा में/ मृत्यु आकर नोंच ले/ मेरी सांसों को/ एक ही झटके में/ और लूट ले देह की क्रिया को/ और ले चले/ इस प्रयाण से महाप्रयाण की ओर" (पृ.2)|

मनुष्य  जब मृत्यु का साक्षात्‌ दर्शन कर लेता है तब वह मृत्यु के विषय में सोचता-विचारता है। कवि का कथन है  कि जन्म और मृत्यु जन्म जन्मांतरों से एक दूसरे से बँधे हैं - "जहाँ जीवन का वर/ मृत्यु की वधू बन/ जन्म ज्न्मांत्रों से/ एक दूजे के लिए/ हमेशा नए रूपों में  ब्याही है।" (पृ.175)।

मानव जीवन क्षणभंगुर है। इसलिए कवि कहता है कि "एक झटके में टूटता जीवन/ समय की चक्कियों में पीस/ जीवन पर कोल्हू के बैल की तरह/ धानी के चक्कर काटता रहा।" (पृ.24)| वे यह भी कहते हैं कि "जीवन के बीज से/ मृत्यु के पुष्‍प तक की यात्रा/ कई अवरोधों को पार  करती है/ इसी जीवन की सुगंध को/ कहाँ-कहाँ तक फैलाओगे/ यह हम पर निर्भर है।" (पृ.84)।

मृत्यु कब, कहाँ, कैसे, क्यों और किस तरह होती है यह कहना कठिन है। जिस तरह छिपकली कीट को पलक झपकते ही अपना आहार बना लेती है, उसी तरह एक ही क्षण में मनुष्‍य मौत के मुँह में जा सकता है - "भविष्य से मुँह चुरा/ बैठते हैं दीवार पर/ ललचाई छिपकली/ लिपलिपाती जुबान से/ धीरे-धीरे/ दबे पाँवों से/ जकड़ लेती है/ उस कीड को - उस कीट को/ पलक झपकते ही/ अपने आहार के लिए/ काल का ग्रास बना/ निगल लेती है/ एक ही क्षण में / और अनसोच भविष्‍य/ एक झटके में तोड़ता है दम/ उसके पैर  की मृत्यु शैय्या पर।" (पृ.1)|

भारतीय मान्यता है कि जन्म लेने के लिए जीव को मरना आवश्‍क है। इसी तथ्य को उजागर करते हुए कवि कहते हैं कि "जन्म लेनेवाले के लिए/ नितांत आवश्‍क है मृत्यु/ मिले वरदान भी/ नहीं शोक पाए हैं जीवन को/ हिरण्यकश्यप हो या भस्मासुर/ राम कृष्‍ण भी आकर लौट गए/ यह जीवन का शास्वत सत्य है।" (पृ.99)।

गीता में भी कहा गया है कि ‘देह से तादात्म्य मानने से ही मनुष्‍य अपने को मरनेवाला समझता है। देह के संबंध से होनेवाले संपूर्ण दुःखों में सबसे बड़ा दुःख मृत्यु ही माना गया है। अतः कवि कहता है कि "मृत्यु शैय्या पर लेटा असहाय शरीर/ निरीह आँखों के भाव लिए/ भीतर से काँपते हुए/ औरों की अनदेखी से/ दी हुई प्रताड़नाओं से/ पीड़ा के आभास में लिपट/ जलाता है।" (पृ.145)|

कहा जाता है कि चिंता चिता के समान है। चिंताग्रस्त व्यक्‍ति को चिता की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि वह चिंता की आग में ही झुलस जाता है - "जीवित शरीर की/ जीवित भावनाएँ बहुत पहले ही/ घोषित कर चुकी है अपनी मृत्यु की/ अब जो जलता है रह-रहकर/ वह चिंता का शरीर/ चिता के लिए नहीं तरसता।" (पृ.145)।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में मानव जीवन संकटपूर्ण बन गया है। ऐसी स्थिति में जहाँ मृत्यु की नंगी तलवार सिर पर लटकती दिखाई देती है, वहाँ जीवित रहने की आकांक्षा भी बलवती हो उठती है - "मरणासन्न देह की मृत्यु शैय्या/ प्रेम का दुलार पाते ही/ जिजीविषा को जागृत करती है/ और कष्‍टी देह/ भभकी किरण की लौ बन। जीवन ज्योति जलते हुए/ कुछ पलों के लिए ही सही/ मृत्यु के अंधेरों को/ धैर्य की लाठी से भगाता है।" (पृ.12)।

पहले ही इस बात की ओर संकेत किया जा चुका है कि इस कविता संग्रह में मृत्युबोध और मृत्यु के विविध रूपों के साथ साथ कवि ने कन्या भ्रूण हत्या और वृद्धावस्था की समस्याओं की ओर भी ध्यान आकृष्‍ट किया है।

यह सर्वविदित है कि कन्या भ्रूण हत्या जघन्य अपराध है लेकिन कुछ लोग गर्भस्त अथवा नवजात बालिका का जीवन इसलिए मिटा देते हैं कि वह एक लड़की है| गर्भपात निरीह असहाय प्राणी की बर्बर हत्या की करुण कहानी है और सामाजिक पतन की चरम सीमा का द्‍योतक भी है। इसकी ओर संकेत करते हुए कवि कहते हैं कि "गर्भ में पलता शिशु/ अपने मूल अस्तित्व अंड को छोड़ता हुआ/ आंवल में लिपट कर जकड़ा/ सांसों को लेता और छोड़ता हुआ/ सृष्‍टि के रहस्य को जानने आतुर/प्रयास में/ अपने अस्तित्व को भूल/ जब मारा जाता है/ गर्भ के भीतर/ जीवन रक्षकों के द्वारा।" (पृ.6)|

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सिर्फ प्रेम की परिभाषा ही नहीं बल्कि ममत्व की परिभाषा भी बदल गई है। कवि कहता है कि "माँ शब्द/ ममत्व की रक्षा करने के बाद भी नीलाम होता गया।" (पृ.7)|

व्यक्‍ति युवावस्था से वृद्धावस्था में जब कदम रखता है तब उसका शारीरिक बल क्षीण हो जाता है और वह हर तरह से कमजोर हो जाता है। सब लोग उसे अनुपयोगी और बोझ समझने लगते हैं। अतः वार्धक्‍य में जीवन दूबर लगने लगता है। मृत्यु की इंतजार में वह अतीत की यादों के सहारे दिन काटता रहता है - "बुढ़ापे का थका शरीर/ मृत्यु शैय्या पर उन पलों को गिनता है/ देखता है/ जहाँ उसके अतीत ने/ शौर्यता के पाठ पढ़े/ वृद्धावस्था पर संशय लगाने ।" (पॄ.40)|

निःसंदेह अनंत काबरा की इस पुस्तक में जीवन की त्रासदी का साक्षात्‌ दर्शन निहित है।

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  • मृत्यु शैय्या (कविता संग्रह)/ अनंत काबरा/ 2010 (प्रथम संस्करण)/ अकादमिक प्रतिभा; 42, एकता अपार्टमेंट, गीता कॉलोनी, दिल्ली - 110 031/ पृष्‍ठ -176/ मूल्य - रु.300/-


मंगलवार, 8 मार्च 2011


नारी कामायनी की श्रद्धा नहीं, इड़ा है |

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सब महिला ब्लोगरों को शुभकामनाएं |

सोमवार, 7 मार्च 2011

मेरे उद्‍गार




‘स्रवंति’ फरवरी 2011 ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ विशेषांक के लोकार्पण के अवसर पर गुरुओं द्वारा मुघे सम्मानित किया गया, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। इस सम्मान की मैं पात्र हूँ या नहीं यह तो मैं नहीं जानती, परंतु जिस तरह से मुझे सम्मानित किया गया उस क्षण को मैं कभी भूल नहीं सकूँगी। इसके लिए अपने गुरुवर प्रो.ऋषभ देव शर्मा तथा अन्य के प्रति कृतज्ञ हूँ।



`स्रवंति' के `उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य ' विशेषांक के लोकार्पण पर





‘स्रवंति’ ने अपने सीमित कलेवर के बावजूद सदा यह प्रयास किया है कि अपने पाठकों को भाषा और साहित्य के हलकों में चलनेवाली हलचलों से अवगत कराया जाए। पिछले कुछ दशकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है उत्तर आधुनिकता की हलचल। समय समय पर इसके विभिन्न पहलुओं से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जुड़ी हुई सामग्री हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं। इसी कड़ी में फरवरी 2011 के अंक को ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ पर केंद्रित विशेषांक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।  स्मरणीय है कि गत वर्ष ‘साहित्य-संस्कृति मंच’ द्वारा इस विषय पर राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी और पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था, जिसका विद्वानों और शोधार्थियों ने व्‍यापक स्वागत किया था। और यह मांग की थी कि संगोष्‍ठी की सामग्री को मुद्रित रूप में सामने आना चाहिए। सभा के सचिव और विशेष अधिकारी के सहयोग से इस वेशेषांक के रूप में हमने उसी माँग को पूरा करने का प्रयास किया है।




इस विशेषांक में संपादकीय के अलावा तेरह आलेख, आठ टिप्पणियाँ, दो काव्यांश और एक रिपोर्ट सम्मिलित हैं।

      
उत्तर आधुनिकता एक ओर भूमंडलीकरण से जुड़ी हुई है तो दूसरी ओर लोकतंत्रीकरण से। डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने विषय प्रवेश में इस बात की ओर इशारा किया है कि विभिन्न क्षेत्रों के ध्रुवों और सत्ता केंद्रों के टूटने से, अब तक के हाशियाकृत समूह और विमर्श जीवन और साहित्य में अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहे हैं तथा व्यक्‍तिकेंद्री चिंतन का स्थान समूहों के विमर्श ले रहे हैं।

प्रो.दिलीप सिंह का आलेख ‘उत्तर आधुनिक विमर्श:एक बहस’ इस अंक की जान है। बहुत सरल ढंग से लिखे गए इस आलेख में प्रो.दिलीप सिंह ने उत्तर आधुनिकता को अनिवार्यतः आधुनिकता विरोधी मानने के भ्रम का खंडन तो किया ही है, यह भी खुलासा किया है कि भारत में पुनर्जागरण और उसके बाद भी आधुनिकता के भीतर से ही उत्तर आधुनिक संदर्भ जनमते और पनपते दिखाई देते हैं। उनकी यह स्थापना पिछले डेढ़ सौ साल के साहित्य के इतिहास पर नए सिरे से सोचने को बाध्य करती है कि उत्तर आधुनिक साहित्य का टटका आधार मानी जानेवाली विडंबना, उपहास और पैरोडी जैसी प्रवृत्तियाँ भारतेंदु, प्रेमचंद और निराला से लेकर अमृतलाल नागर, मुक्‍तिबोध और धूमिल तक के साहित्य में परिव्याप्‍त हैं।

उत्तर आधुनिकता के लक्षणों को गिनवाते हुए प्रो.अर्जुन चव्हाण ने अपने आलेख में जहाँ यह कहा है कि इसमें  न तो कोई विचार अंतिम है और न कोई विकास, वहीं यह भी कहा है कि इसका वैध-अवैध से कोई लेना-देना नहीं है तथा उदारीकरण, निजीकरण, पूँजीवाद और उपभोक्‍तावाद इसके विभिन्न पक्ष हैं।

उत्तर आधुनिक विमर्श के अर्थ, इतिहास और विकास को समझने की दृष्‍टि से इस अंक में प्रकाशित प्रो.एम.वेंकटेश्‍वर का आलेख अत्यंत महत्वपूर्ण और दिशा निर्देशक है। प्रो.एम.वेंकटेश्‍वर ने वि-रचना को उत्तर आधुनिक विमर्श का एक मात्र लक्ष्य मानते हुए इस बात पर बल दिया है कि इसमें पाठ को अर्थ युक्‍त रचना के रूप में देखने के बजाय उसमें उपस्थित आंतरिक विसंगतियों की पहचान महत्वपूर्ण होती है। उन्होंने ध्यान दिलाया है कि यह विमर्श रचना को विज्ञापन बनाता है और बहुकेंद्रीयता इसका प्रमुख लक्षण है। इस लेख को इस विशेषांक की विशेष उपलब्धि माना जा सकता है।


इसी प्रकार डॉ.मृत्युंजय सिंह ने ‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है’ शीर्षक अपने आलेख में रेखांकित किया है कि हिंदी के आलोचक साहित्य में उत्तर आधुनिकतावादी मूल्य ध्वंस को लेकर चिंतित रहे हैं, पर मूल्य के संदर्भ में आए तनाव और मूल्यांकन की जगह अनुभावन पर जोर देने की उपेक्षा करते रहे हैं।

उत्तर आधुनिक विमर्श की लोकतांत्रिकता पर ध्यान केंद्रित करते हुए डॉ.जी.नीरजा अर्थात मैंने अपने आलेख में यह दर्शाया है कि इसमें ‘डिफरेंस’ बुनियादी मुद्‍दा है, जिसके फलस्वरूप दलित, आदिवासी, स्त्री, समलैंगिक आदि समुदायों को अपनी सामूहिक पहचान के लिए साहित्य में संघर्ष करते देखा जा सकता है।

डॉ.बलविंदर कौर, जो आज के इस कार्यक्रम का संयोजन भी कर रही है, ने अत्यंत अध्यवसाय पूर्वक तैयार किए गए अपने ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और पहचान का संकट’ शीर्षक विस्तृत आलेख में विकेंद्रीकरण, महावृत्तों के अवसान तथा विचारधारा से मुक्‍ति की व्याख्या करते हुए इस विमर्श में पाठक की रचनाधर्मिता और उसके पाठ का महत्व दर्शाया है। भारतीय समाज और जनता को उसकी अमानुषिक परिणति का अहसास कराने में इसकी प्रासंगिकता मानने के विचार का उन्होंने समर्थन किया है।

उत्तर आधुनिक साहित्य में दलित संदर्भ की चर्चा करते हुए डॉ.भीमसिंह ने इसे ऐसी ताकतवर प्रस्तुति माना है जो इतिहास के अंत की घोषणा के बाद भी इतिहास बनाने की परिघटना के लिए आधारभूमि बनी रही है।

इसी क्रम में डॉ.पेरिसेट्‍टि श्रीनिवास राव ने अपने संक्षिप्‍त परंतु शोधपूर्ण आलेख में हिंदी के स्त्री लेखन को स्त्री के निजीपन और अस्मिता की खोज के रूप में पहचानने पर बल दिया है।

डॉ.करन सिंह ऊटवाल ने अपने लेख में उत्तर आधुनिकता में स्वीकृत सीमातीत खुलेपन की अभिव्यक्‍ति को नाटकों में सर्वाधिक संभाव्य माना है।

 जड़ों की ओर वापसी की प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए डॉ.घनश्‍याम ने अपने लेख में आदिवासी जीवन के चित्रण को इसका उत्‍कृष्‍ट उदाहरण बताया है।

इसी क्रम में प्रणव कुमार ठाकुर ने कविताओं की चर्चा करते हुए दर्शाया है कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में आदिवासी समुदाय सबसे अधिक लहूलुहान हुआ है।

डॉ.साहिरा बानू बी. बोरगल ने साहित्य भाषा पर पड़े उत्तर आधुनिकता के प्रभाव को आंकने का प्रयास किया है।

इसके अलावा डॉ.अनुराधा जैन, राजकमला, प्रतिभा कुमारी, एम.डी.कुतुबुद्दीन, चंदन कुमारी, सुशीला, मोनिका देवी और डॉ.बी.बालाजी की टिप्पणियों में भी उत्तर आधुनिकता और साहित्य के संबंधों पर महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं।

उत्तर आधुनिकता की थीम को ध्यान मे रखते हुए इस अंक का आवरण चित्र भी विशेष रूप से तैयार कराया गया है। उल्लेखनीय है कि मई 2010 से ‘स्रवंति’ के मुख पृष्‍ठ पर जो फोटोग्राफ छप रहे हैं, वे सब अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्‍वविद्‍यालय की ‘मास कम्यूनिकेशन’ की द्वितीय वर्ष की छात्रा लिपि भारद्वाज ने उपलब्ध कराए हैं।


विशेषांक कैसा बन पड़ा है, यह तो श्रद्धेय प्रो.एम.वेंकटेश्‍वर जी और आप सब ही बताएँगे, लेकिन हमारी ओर से कुल मिलाकर यह सामग्री उत्तर आधुनिक विमर्श की सैद्धांतिकी के अलग अलग पहलुओं को सामने लाते हुए समकालीन साहित्य में उनके प्रतिफलन की पड़ताल का एक संक्षिप्‍त परंतु समग्र प्रयास है।



धन्यवाद।