सोमवार, 26 सितंबर 2011

व्यापक सरोकार वाले कथाकार त्रिपुरनेनी गोपीचंद




त्रिपुरनेनी गोपीचंद (08 सितंबर, 1910 - 02 नवंबर, 1962) तेलुगु के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं. वे कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और निबंधकार के साथ साथ सिनेमा निर्देशक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं. उनकी मान्यता है कि साहित्य मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि जनकल्याण का साधन है. इसीलिए उन्होंने समाज और जीवन से संबंधित सच्चाइयों को उजागर करने के लिए साहित्य को माध्यम बनाया और जनता को सोचने तथा विचारने के लिए मजबूर किया. उनका कथन है कि "वस्तु-शिल्पाललो वस्तुवु कोसमे शिल्पमु. विनोदमु साहित्य प्रयोजनम कादु. अदि सामाजिक मार्पुकु दोहदकारी." (वस्तु और शिल्प दोनों में शिल्प वस्तु के लिए है. मनोरंजन साहित्य का प्रयोजन नहीं है. अपितु वह सामाजिक परिवर्तन का द्‍योतक है.).

गोपीचंद का जन्म 08 सितंबर, 1910 को अंगलूरु (कृष्‍णा जिला, आंध्र प्रदेश) नामक गाँव में हुआ. उनके पिता त्रिपुरनेनी रामस्वामि चौधरी तेलुगु साहित्य में आधुनिक हेतुवाद के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं. रामस्वामि चौधरी ने ‘सूताश्रम’ की स्थापना करके हेतुवाद का प्रचार-प्रसार किया. इस प्रकार गोपीचंद को हेतुवाद अपने पिता से विरासत में प्राप्‍त हुआ.

बचपन से ही गोपीचंद जिज्ञासु थे अतः हर विषय को तर्क तथा खंडन-मंडन के सहारे समझने का प्रयास करते थे. उन्होंने अपने आप को पाठ्‍य पुस्तकों तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए भारतीय एवं पाश्‍चात्य विद्वानों की रचनाओं का अध्ययन किया. उन पर महात्मा गांधी, अरविंद, रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, प्रेमचंद, उन्नव लक्ष्मीनारायण, बर्नार्डशा, बर्टरेंड रसल, शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स, स्काट और ह्यूम्स आदि का प्रभाव दिखाई देता है. पर उन्होंने कभी किसी का अंधानुकरण नहीं किया.

गोपीचंद भी अन्य रचनाकारों की भाँति अपने परिवेश से जुड़े साहित्यकार हैं. अतः उनकी रचनाओं में गाँव से लेकर शहर तक का परिवेश दिखाई देता है.

पेशे से वे वकील थे. दरअसल 1937 में मद्रास विश्‍वविद्‍यालय से बी.एल. की उपाधि प्राप्‍त करने के बाद उन्होंने वकील के रूप में अपना जीविकोपार्जन शुरू किया था, परंतु वे उस क्षेत्र में ज्यादा दिन टिक नहीं सके क्योंकि केस जीतने के लिए न्याय को अन्याय के रूप में तथा अन्याय को न्याय के रूप में साबित करना उन्हें पसंद नहीं आया और इसलिए उन्होंने वकालत छोड़ दी.

गोपीचंद ने राजनीति में भी सक्रिय रूप से भाग लिया. इसके अतिरिक्‍त 1953 में जब अलग राज्य के रूप में आंध्र प्रदेश की स्थापना हुई और कर्नूल को आंध्र की राजधानी बनाया गया तो उस समय गोपीचंद समाचार विभाग के निर्देशक बने. लेकिन इस काम में भी वे रम नहीं सके. अतः इसे भी तिलांजलि देकर जीवन भर अपने प्रिय साहित्यिक क्षेत्र में सक्रिय रहे.

संवेदनशील साहित्यकार के रूप में त्रिपुरनेनी गोपीचंद ने देखा कि समसामयिक समाज में अंधविश्‍वास, असमानताएँ, विसंगतियाँ, मूल्यह्रास और विद्रूपताएँ चारों ओर व्याप्‍त हैं. इनके उन्मूलन हेतु उन्होंने अनेक कहानियों, उपन्यासों और नाटकों का सृजन किया. उनकी मान्यता थी कि जब तक जनता जागृत नहीं होगी तब तक सामाजिक विसंगतियों का उन्मूलन संभव नहीं होगा. उन्होंने नाटक, उपन्यास और कहानियों के माध्यम से जनता को चेताया तथा तेलुगु कथा-साहित्य को एक नया मोड़ दिया. यों तो बचपन से ही साहित्यिक परिवेश प्राप्‍त होने के कारण उन्होंने विद्‍यार्थी जीवन में ही कहानियाँ लिखना शुरू किया था लेकिन 1933 में छ्पी ‘ओलंपियस’ उनकी पहली प्रकाशित कहानी है.

गोपीचंद ने 1947 में ‘आंध्र ज्योति’ (मासिक पत्रिका) में प्रकाशित कहानी ‘बीदलंता ओकटे’ (गरीब सब एक हैं) के माध्यम से कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों को प्रत्पादित किया. इस कहानी में लेखक ने श्रमिक वर्ग की बेबसी, उनके जीवन संघर्श और अन्याय के प्रति उनके विद्रोह को बखूबी रेखांकित किया है. उनकी कहानी ‘अर्रुचाचिना एद्‍दु’ (बूढ़ा बैल) वृद्धावस्था विमर्श की स्शक्‍त प्रस्तुति है. बूढ़े बैल का स्वगत कथन इस प्रकार है - "नेनुइप्पुडु मुसलिदान्नि अय्यानु. कालु तीसी कालु वेय्यलेनु. लेचि निलबडटमे कष्‍टंगावुंदी. आकली अनेदी उंटुंदी. अदि शरीरम उन्नंतकालम उंटुंदिकाबोलु. ... ना यजमानि तंड्रि चाला मंचिवाडु. अंटे पातकालम मनिषि. ना मनस्सुलो वुन्नाकष्‍टम आयनकु तेलिसिनट्‍लुगा एवरिकी तेलियदु. एंदुकंटे प्रस्तुतम आयना अनुभवम कूडा इंचुमिंचु ना अनुभवानिकी मल्लने वुंदि. मेमु एंदुकु ब्रतुकुतुन्नामो इतरुलकु तेलियदु. माकू तेलियदु." (मैं बूढ़ा हो गया हूँ. मेरे अंदर ताकत भी नहीं बची. खड़े रहना भी मुश्‍किल हो रहा है. भूख लगती है. यह शरीर जब तक रहेगा तब तक भूख भी रहेगी. ... मेरे मालिक के पिताजी भलेमानुस हैं. वे पुराने विचारों वाले हैं. ....मेरे मन की व्यथा को वे अच्छी तरह समझते हैं. चूँकि उनका और मेरी अनुभव एक समान है. हम क्यों जी रहे हैं हमारे अलवा कोई नहीं जानता. शायद हम भी नहीं.).

कहानीकार के रूप में गोपीचंद की प्रसिद्धी अप्रतिम है. उन्होंने तीन सौ से अधिक कहानियों का सृजन किया. उनकी कुछ प्रमुख कहानियाँ हैं - ‘देशमेमैयेटट्‍टू?’ (देश का क्या होगा?), ‘पिरिकिवाडु’ (डरपोक), ‘भार्यल्लोने उंदि’ (पत्‍नियों में ही है), ‘इरुगु-पोरुगु’ (अडोस-पडोस), ‘गोडमीदा मूडोवाडु’(दीवार पर तीसरा व्यक्‍ति) आदि.

गोपीचंद ने सामाजिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों से संबंधित अनेक उपन्यास भी रचे. 1943 में प्रकाशित ‘परिवर्तना’ (परिवर्तन) उनका पहला उपन्यास है. इस उपन्यास का नायक राजाराव अपनी पत्‍नी की मृत्यु को सहन नहीं कर पाता. वह इतना व्याकुल हो जाता है कि दिन-ब-दिन उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और वह रोग ग्रस्त हो जाता है. कथा में नाटकीय मोड़ तब आता है जब मृत्यु शय्या पर लेटे राजाराव के मन में अचानक जीने की इच्छा प्रबल हो उठती है और वह तनाव की स्थिति से मुक्‍त हो जाता है. इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने यह स्पष्‍ट किया है कि जीवन गतिशील है.

1947 में प्रकाशित ‘असमर्थुनी जीवयात्रा’ (असमर्थ की जीवन यात्रा) गोपीचंद का दूसरा उपन्यास है. इस मनोवैज्ञानिक उपन्यास के माध्यम से उन्होंने मानव जीवन की अनेक परतों को उजागर किया है. इस उपन्यास का प्रमुख पात्र सीताराम उच्चता ग्रंथि से ग्रसित है. वह अपने मरणासन्न पिता को वचन देता है कि वंश की प्रतिष्‍ठा बनाए रखेगा. अपने पिता को दिए वचन को निभाते निभाते सीताराम पूरी तरह कंगाल हो जाता है. पापी पेट को पालने के लिए विवश होकर वह अंततः नौकरी करता है. लेकिन किसी के अधीन काम करने से उसके अहं को ठेस पहुँचती है इसलिए वह नौकरी छोड़ देता है. आर्थिक अभाव के कारण वह कम उम्र में ही मानसिक रोगी बन जाता है और आत्महत्या कर लेता है. इस उपन्यास के माध्यम से गोपीचंद ने यह स्पष्‍ट किया है कि उतार-चाढ़ाव का नाम ही जीवन है. इस समाज में स्वस्थ जीवन जीने के लिए अहं और राग-द्वेष को तजकर कर्मशील रहना आवाश्‍यक है. कहा जाता है कि गोपीचंद ने इस उपन्यास में अपने निजी अनुभवों को अभिव्यक्‍ति दी है.

1960 में प्रकाशित उपन्यास ‘पिल्ला तेम्मेरा’ (फुरवाई) के माध्यम से त्रिपुरनेनी गोपीचंद स्त्री की उच्छृंकल मनोवृत्ति को दर्शाया है. इसी प्रकार 1961 में प्रकशित उपन्यास ‘पंडित परमेश्‍वर शास्त्री वीलुनामा’ (पंडित परमेश्‍वर शास्त्री की वसीयत) एक सामाजिक उपन्यास है. इस उपन्यास के लिए गोपीचंद को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्‍त हुआ. उनके अन्य बहुचर्चित उपन्यास हैं - ‘शिथिलालयम’ (खंडहर), ‘गतिंचिन गतम’ (बीता हुआ कल), ‘यमपाशम’ (यमपाश), ‘चीकटी गदुलु’ (अंधेरे कमरे) और ‘मेरुपु मरकलु’ (बिजली के धब्बे) आदि.

‘गुड्डी संघम’ (अंधा समाज), ‘अभागिन’, ‘तत्वमसी’, ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव) आदि गोपीचंद के सामाजिक नाटक हैं. उनके ‘सोशलिस्टु उद्‍यम चरित्र’ (समाजवादी आंदोलन का इतिहास), ‘पट्टाभिगारी सोशलिज्म’ (पट्टाभिजी का समाजवाद), ‘कम्यूनिज्म अंटे एमिटी?’ (कम्यूनिज्म का क्या अर्थ है?), ‘प्रजा साहित्यमु’ (प्रजा साहित्य) जैसे विचारोत्तेजक लेखों ने जनमानस को चेताया.

गोपीचंद के साहित्य में एक ओर सामाजिक और राजनैतिक विद्रूपताओं का अंकन है तो दूसरी ओर आधुनिकता और परंपरा की टकराहट है. मृत्युबोध और पीढ़ी अंतराल के साथ साथ उनके साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, पर्यावरण विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और वृद्धावस्था विमर्श भी उल्लेखनीय हैं. भाषा और शिल्प की दृष्‍टि से भी गोपीचंद का साहित्य विलक्षण है.

यह पहले भी बताया गया है कि गोपीचंद सिनेमा निर्देशक भी थे. उन्होंने ‘रैतुबिड्डा’ (किसान पुत्र), ‘गृहप्रवेशम’ (गृहप्रवेश), ‘गृहलक्ष्मी’ (गृहणी), ‘चदुवुकुन्ना अम्माइलु’ (शिक्षित लड़कियाँ) आदि चलचित्रों के संवाद लिखे तक ‘प्रियुरालु’ (प्रेयसी) और ‘लक्षम्मा’ आदि चित्रों का निर्देशन किया.

गोपीचंद सफल कथाकार, नाटककार, निबंधकार और फिल्म निर्देशक तो हैं ही. उन्होंने अपने आप को सफल संपादक के रूप में भी प्रतिष्‍ठित किया. एम.एन.राय के नेतृत्व में ‘रेडिकल पार्टी’ का आविर्भाव हुआ तो कुछ समय तक गोपीचंद ने रेडिकल पार्टी के सचिव के रूप में भी अपनी सेवाएँ दीं और तेलुगु पत्रिका ‘रेडिकल’ का संपादन भी किया. उनके संपादकीय जनमानस को झकझोरने की दृष्‍टि से सफल माने जाते हैं. वस्तुतः गोपीचंद मानववादी साहित्यकार हैं. और आज भी उनकी रचनाएँ प्रासंगिक हैं.

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में हिंदी दिवस





हिंदी-दिवस जनभाषा की गौरव-प्रतिष्ठा का दिन है - डॉ. राधेश्याम शुक्ल 

हैदराबाद, १४ सितंबर २०११.

आज यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अंतर्गत उच्च शिक्षा और शोध संस्थान , बी एड प्रशिक्षण महाविद्यालय तथा हिंदी प्रचारक प्रशिक्षण महाविद्यालय ने संयुक्त रूप से हिंदी समारोह  मनाया जिसके अंतर्गत स्वतंत्र वार्ता के संपादक एवं भाषा चिंतक डॉ. राधेश्याम शुक्ल का विशेष व्याख्यान आयोजित  किया गया.

अपने संबोधन में डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने विस्तार से भारत के भाषा परिदृश्य की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि हिंदी कोई क्षेत्रीय या साम्प्रदायिक भाषा नहीं है बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से ''हिंदी'' शब्द सभी भारतीय भाषाओँ  का द्योतक  है. उन्होंने  भाषा और संस्कृति के अटूट सम्बन्ध की चर्चा करते हुए यह प्रतिपादित किया कि भारत की संस्कृति संगम-संस्कृति है तथा हिंदी उस को अभिव्यक्त करने वाली संगम-भाषा है.

डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने जोर देकर कहा कि हिंदी-दिवस इस कारण अत्यंत गौरवशाली राष्ट्रीय पर्व है कि इस दिन दुनिया भर में पहली बार किसी जनभाषा को राष्ट्र की  राजभाषा का संवैधानिक दर्ज़ा मिला.उन्होंने हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सेवाओं को अतुलनीय मानते हुए इसके समर्पित हिंदी कार्यकर्ताओं की सराहना की.

समारोह की अध्यक्षता उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अध्यक्ष प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने की. संपर्क अधिकारी एस के हलेमनी, सचिव डॉ. पी ए राधाकृष्णन , बी एड कालिज की प्राचार्य डॉ. सीता नायुडू तथा प्रचारक प्राचार्य डॉ उमा रानी ने भी छात्रों और शोधार्थियों को संबोधित किया.

आरम्भ में सरस्वती-दीप प्रज्वलित किया गया और छात्राध्यापिकाओं ने मंगलाचरण किया.ए जी श्रीराम , डॉ. साहिरा बानू बोरगल एवं अन्य प्राध्यापकों ने अतिथियों का स्वागत किया.डॉ. बलविंदर कौर ने भारत के गृह मंत्री पी. चिदंबरम के संदेशका वाचन किया.

इस अवसर पर दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के सहायक निदेशक डॉ. पेरीशेट्टी श्रीनिवास राव को आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी का युवा हिंदी लेखक  पुरस्कार प्राप्त होने के उपलक्ष्य में सम्मानित भी किया गया. 

समारोह का संचालन डॉ. जी. नीरजा ने तथा संयोजन डॉ. मृत्युंजय  सिंह ने किया.  राष्ट्रगान के साथ समारोह संपन्न हुआ. 

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

प्रतिष्‍ठित कवयित्री डॉ.कविता वाचक्नवी की हिंदी कविताओं का तमिल अनुवाद




प्रतिष्‍ठित कवयित्री डॉ.कविता वाचक्नवी की निम्नलिखित तीन हिंदी कविताओं का तमिल अनुवाद 

  • साधना (अनु. साधनै)
  • गौरैया (अनु. अन्ना पिरवै)
  • अभ्यास (अनु. पयिर्चि)
हिंदी कविता 
साधना 

एक मछली सुनहरी
ताल के तल पर ठहरी
ताकती रही रात भर
दूर चमकते तारे को.


ब्राह्‍ममुहूर्त में 
गिरी एक ओस बूँद
गिरा तारे का आँसू
मछली के मुँह में 
पुखराज बन गया.


तमिल अनुवाद
साधनै

ओरु तंग निरमुल्ला मीनु
इरैवेल्लाम मिन मिनिक्कुम नक्षत्तिरत्तै
ओयामल पार्तुकोंड्रु
कोलत्तोरमा निंड्रदु.


ब्राह्‍ममुहूर्तत्तिल
वानत्तिलंदु ओरु पनि तुलि विलुंददु
नक्षत्तिरत्तिन कन्नीर 
मीनिन वाइल पुगुंदु
पुष्यरागामाइ मारिनदु.


हिंदी कविता
गौरैया

धूप के मुहाने पर
पाँव रख 
छोटी - सी गौरैया एक
खड़ी हो जाती है.
धूप समझती 
चिड़िया के पंखों का विस्तार भी
समेट लिया मैंने
और सोचती है चिड़िया
रोक सकती हूँ धूप
मैं अभी
ठहर जाऊँ यदि - तब भी
डरती है धूप 
मेरी छाया तक से भी.


तमिल अनुवाद
अन्ना पिरवै

वेइलिन वासलिले
काल वैइत्तु 
निक्कुम
ओरु अन्ना पिरवै.
वेइलिन योसनै इदु - 
अन्ना पिरवैइन रेक्खैगलै
नान इरिक्कि अनैत्तुकोल्वेन
आनाल अन्ना पिरवैइन सिंधनै इदु - 
इंद वेइलै निरुत्तिविडुवेन
नान इप्पोलुदे 
निरिंदिविट्टालुम - 
वेइल भयंदिविडुम
एन निललै पार्तु.


हिंदी कविता
अभ्यास

भोर का 
चिड़ियों की चह्‌ - चह्‌ का
जिन्हें अभ्यास हो
रात्रि का निर्जन अकेलापन
उन्हें
कैसे रुचे ?


तमिल अनुवाद
पयिर्चि

पोलुदु विडिंददुम
परवैगलिन ची... ची... नादत्तुडन
विलयाडुम मनिदनुक्कु
रात्रियिन निशब्द तनिमै
अवर्गलक्कु
रुचुक्कुमा ? 








मंगलवार, 6 सितंबर 2011

साहित्य और भाषा सबसे निकटस्थ शिक्षक हैं - प्रो.दिलीप सिंह










हैदराबाद, ६ सितम्बर,२०११.

साहित्य और अन्य विषयों की शिक्षा में एक मूलभूत अंतर यह है कि साहित्य में व्यक्‍तित्व विकास और जीवन मूल्यों की शिक्षा अंतर्निहित रहती है जबकि अन्य विषयों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. इसलिए हामारे जीवन में साहित्य के शिक्षक का महत्व अपेक्षाकृत अधिक होता है. वह साहित्य में निहित उच्च मानवीय गुणों के प्रति हमारे मन को उन्मुख और संस्कारित करता है. यह संभव है कि कोई विशेष जीवन मूल्य स्वयं शिक्षक में विद्‍यमान न हो तो भी साहित्य के माध्यम से छात्र के मन उसे जगाया जा सकता है. यहाँ हम हिंदी साहित्य की चर्चा कर सकते हैं कि किस प्रकार पद्‍मावत में शिक्षक का प्रतीक हीरामन तोता जीवन और अध्यात्म से जुड़ी पते की बातें करता है. इसी प्रकार कबीर, तुलसी और रहीम के दोहों के माध्यम से बड़ी सहजता से नैतिक शिक्षा दी जा सकती है. साहित्य में प्रकट और परोक्ष रूप से शिक्षा के सूत्र समाए हुए हैं. अगर कोई साहित्यकार प्रकृति का वर्णन करता है तो वह नदी, समुद्र, वृक्ष और बादल तक को शिक्षक बना देता है कि कैसे इनके माध्यम से परमार्थ और परोपकार जैसी उदार चीज़ें सीखी जा सकती है. यही कारण है कि बचपन से ही कोई भी साहित्यिक पाठ पढ़ाने के बाद हम से यह पूछा जाता है कि इस पाठ से आपको क्या सीख मिली. गणित या अर्थशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय के पाठ में ऐसा नहीं होता. इसलिए साहित्य का छात्र भाग्यशाली है कि वह शिक्षक और पाठ दोनों के माध्यम से जीवन को श्रेष्‍ठ बनाने की शिक्षा प्राप्‍त कर सकता है.

ये विचार दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कुलसचिव प्रो.दिलीप सिंह ने यहाँ सभा के खैरताबाद परिसर में आयोजित उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के शिक्षक दिवस समारोह में अध्यक्ष पद से बोलते हुए व्यक्‍त किए. प्रो.सिंह ने आगे कहा कि साहित्य की ही भाँति भाषा भी हमारा शिक्षक है. उन्होंने कहा कि भाषा में सामाजिक और सांस्कृतिक अनेक ऐसे पहलू निहित होते हैं जिन्हें सीखकर हम लोक व्यवहार के साथ साथ व्यक्‍तित्व निर्माण के लक्ष्‍य को भी प्राप्‍त कर सकते हैं. उन्होंने ध्यान दिलाया है सभी भाषाओं के साहित्य में अनेक ऐसे पात्र मौजूद हैं जो हमें जीवन संघर्ष की शिक्षा देते हैं तथा हताशा के क्षणों में हमारे काम आते हैं. यदि प्राचीन साहित्य को छोड़ भी दें तो आज के कहानी और उपन्यासों में भी शिक्षा का यह गुण मिल जाएगा. प्रो.दिलीप सिंह ने याद दिलाया कि प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का सूरदास अंधा अनपढ़ भिखारी होते हुए भी बहुत बड़ा अनाऔपचारिक शिक्षक है जो हमें समाज के लिए कुछ सार्थक कार्य करने की प्रेरणा देता है. डॉ.दिलीप सिंह ने बताया कि भाषा और साहित्य हमारे सबसे अधिक निकट सबसे बड़े शिक्षक है क्योंकि इनसे हम जीवन को सुंदर बनाने के रास्ते सीख सकते हैं अतः साहित्य को परीक्षा लिखने अथवा शोधग्रंथ रचने के लिए ही नहीं, जीवन और समाज को सार्थक बनाने की शिक्षा प्राप्‍त करने की दृष्‍टि से भी पढ़ना चाहिए.

इस अवसर पर संस्थान के छात्रों और शोधार्थियों ने वि्भागाध्यक्ष प्रो.ऋषभदेव शर्मा सहित सभी अध्यापकों डॉ.साहिरा बानू बी. बोरगल, डॉ.जी.नीरजा, डॉ.बलविंदर कौर, डॉ.गोरखनाथ तिवारी और डॉ.मृत्युंजय सिंह का उत्तरीय, स्मृति चिह्‍न, पुष्‍प गुच्छ और उपहार देकर सम्मान एवं अभिनंदन किया.



शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

डॉ. कविता वाचक्नवी और डॉ. राधेश्याम शुक्ल का सम्मान समारोह


हैदराबाद, ३० अगस्त २०११ .

दोपहर के समय  डॉ.अहिल्या मिश्र का फोन आया. सूचना मिली कि  शाम को ठीक साढ़े चार बजे आथर्स  गिल्ड ऑफ़ इण्डिया के हैदराबाद चैप्टर की विशेष बैठक है. पहुँचने पर पता चला दो विद्वानों का सम्मान समारोह था. एक तो डॉ कविता वाचक्नवी जी जो कुछ ही दिन के लिए लन्दन से आई थीं . दूसरे डॉ. राधेश्याम शुक्ल जिन्हें दो दिन पहले ही कमला गोइन्का फाउंडेशन ने पत्रकार शिरोमणि का ५१ हज़ार का पुरस्कार दिया था.

मंच पर दोनों सम्माननीय अतिथियों के साथ विशेष अतिथि प्रो.ऋषभदेव शर्मा , डॉ. एम् प्रभु , मधुसूदन सोंथालिया और अध्यक्ष डॉ. अहिल्या मिश्र बैठीं. खूब भावभीना स्वागत हुआ. बाद में  हास्य व्यंग्य   के महारथी वेणुगोपाल की अध्यक्षता में ''कविता की एक शाम डॉ. कविता के नाम'' का आयोजन हुआ. कई भाषाओँ की कविताएँ सुनने का मौका मिला. बहुत अच्छा लगा. मुझे भी काव्य पाठ के लिए बुलाया गया. मैंने कविता जी की तीन छोटी कविताओं का तमिल अनुवाद प्रस्तुत किया, तो सबने खूब आशीर्वाद दिया. कविता जी को अनुवाद पसंद आया इससे मुझे संतोष हुआ ; नहीं तो मैं तो डरी हुई थी.

मैं इस साहित्यिक शाम को भूल न सकूँगी.