शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

FEW MOMENTS WITH AN EMINENT AUTHORITY OF ART


26 Jan, 2012

Today is a remarkable day in my life. I never thought that I will meet an eminent authority of Indian art, Jagdish Mittal ji.  When I came to know that our Head Of The Dept. Pro.Rishabha Deo Sharma is going to meet Jagdish Mittal I requested him whether I can also accompany him to meet Mittal ji as it is a grate pleasure to meet such an eminent personality in one’s lifetime. Today after Republic Day celebrations we went to meet Mittal ji at his residence. My Better Half Krishna Rao also accompanied us. We reached almost by 11.30. Mittal ji was waiting for us. He gave a warm welcome. His simplicity touched my heart

From childhood onwards whenever I heard about eminent personalities I used to dream how they look like. I often thought that they will not like to talk to ordinary persons as they may feel that it is against their prestige. Even about Mittal ji I dreamt something like that. But I was extremely wrong. I observed his simplicity, his smiling face and a passion towards the art in his glazing eyes. When he was talking about the paintings and photography there was a unique lust in his eyes. At that time he was just like a kid who wants to get everything what he wants. His passion towards the painting is like a never ending story.

Actually Sharma sir needed some information about Indian Paintings. Especially about Ramayana in Indian Painting. Mittal sir has already kept the information ready. And also he showed some books relating to the topics. He showed his book entitled “Andhra Paintings Of The Ramayana”( Jagdish Mittal/ Andhra Pradesh Lalit Kala Akademi, hyd. 1969 (first  ed)).  I was overwhelmed to see it.

Jagdish Mittal was born in Uttar Pradesh in 1927.  He studied fine arts at Shantiniketan and was the art editor of Kalpana, a leading Hindi Monthly, for 22 years. From 1950 onwards he settled in Hyderabad. He and his wife smt.Kamala Mittal are passionate collectors of Indian miniatures, folk arts, bronze sculptures, decorative and other arts. In March 1976 they founded “Jagdish and Kamal Mittal Museum Of Indian Art.” Several objects of their collection were displayed at the prestigious Festival Of Indian Exhibitions held in London (1982), USA (1985) and France (1986) et al. He was instrumental in establishing the International Trust For Art And Cultural Heritage). For implementing his dreams he seeked the help from the Govt. of India. The Govt. gave the permission for the trust to establish a museum for about 30 years. Mittal ji is worried thinking about the next 30 years of span after the establishment of the museum. So now he is thinking to establish a museum of his dreams in his own residence located at the heart of the city i.e. Gagan Mahal Road, Hyderabad.

Jagdish Mittal is a renowned artist and has written many everlasting books and also delivered lectures at several foreign museums and universities.

बुधवार, 11 जनवरी 2012

एक समर्पित साहित्यकार के समग्र मूल्यांकन का सार्थक प्रयास


हिंदी के लेखकों को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. प्रकाशकों ने तो ऐसी अंधेरगर्दी मचा रखी है कि आपके पैसे से छापकर आपकी किताब आप ही को बेच भी देंगे. विचारधाराओं के झंडे बरदारों ने एक अलग कोहराम मचा रखा है. इतनी तरह के खेमें, वाद और विमर्श हैं कि नई प्रतिभा चौराहे पर खड़ी सिर धुनती है पर तय नहीं कर पाती कि मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ, मैं किधर जाऊँ.

ऐसे वातावरण के बीच भी कुछ व्यक्ति और संस्थाएं हैं जो सृजन, संपादन और प्रकाशन के क्षेत्र में सेवा भाव से कार्यरत है. डा.महेश दिवाकर भी ऐसे ही व्यक्तित्व की संज्ञा है. एक ओर वे राष्ट्रीय भावों से ओत प्रोत, जीवन मूल्यों से भरपूर स्वास्थ्य साहित्य की रचना में लीन हैं तथा दूसरी ओर अनेक साहित्यिक आयोजनों के माध्यम से गुमनामी की धूल में डूबे समर्थ और श्रेष्ठ साहित्यकारों को सामने लाने का काम भी कर रहे हैं. अखिल भारतीय साहित्य कला मंच के माध्यम से अनेक रचनाकारों को प्रोत्साहित करके उन्होंने प्रकाशकों के शोषण से बचाया है.

ऐसे विरले साहित्य सेवी के रचनाकर्म के मूल्यांकन पर केंद्रित है डा.अभय कुमार, डा.मीना कौल और डा.बाबूराम द्वारा संपादित ग्रंथ – 'समीक्षा के निकष पर डा.महेश दिवाकर' (2011). 

स्मरणीय है कि डा.महेश दिवाकर ने अपनी कविताओं, कहानियों, निबंधों, समीक्षाओं और यात्रावृत्तों द्वारा हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धी की हैं. उनकी कई काव्य कृतियाँ अपने राष्ट्रीय दृष्टिकोण के लिए देश भर में सराही गई हैं. जैसे वीरबाला कुंवर अजबदे पंवार, महासाध्वी अपाला, वीरांगना चेन्नम्मा, जय गुरूजी जय शिवजी, अन्याय के विरुद्ध, पथ की अनुभूतियाँ, काल भेद, भावना का मंदिर, आस्था के फूल, विविधा, युवकों सोचो, सूत्रधार है मौन तथा रंग रंग के दृश्य. इसके अलावा उनके द्वारा संपादित कृतियों की एक लंबी सूची है. इसमें संदेह नहीं कि इनसे हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि हुई है तथा इनसे हिंदी की वर्तमान रचना दिशा का सम्यक बोध होता है. संपादित कृतियों का विशेष महत्व इस बात के लिए भी है कि इनसे राष्ट्रीय स्तर पर देश के समस्त हिंदी सेवियों के मध्य ऐक्य और संगठन का सूत्रपात हुआ है. 

इस ग्रंथ में डा.महेश दिवाकर के साहित्यिक व्यक्तित्व के विविध आयामों के साक्षात्कार का अवसर पाठक को मिलता है. व्यक्तित्व और कृतित्व विषयक खंडों के बाद पूरी गहराई से उनकी कृतियों का समीक्षात्मक विश्लेषण देश भर के साहित्य समीक्षकों द्वारा किया गया है. उदाहरण के लिए 'वीरबाला कुंवर अजबदे पंवार' की समीक्षा करते हुए डा.एम.शेषन कहते हैं कि महाराणा प्रताप की सहधर्मिणी के व्यक्तित्व को उजागर करनेवाला यह काव्य इतिहास द्वारा उपेक्षित स्त्री को न्याय देने की कोशिश करता है. इसी प्रकार डा.हरमहेंद्र सिंह बेदी 'अन्याय के विरुद्ध' की पड़ताल करते हुए यह निष्कर्ष देते हैं कि जन जन के हृदय की पीड़ा और उससे जूझने की आत्मशक्ति उत्पन्न करने में कवि का सार्थक प्रयास उसे उँगलियों पर गिने जाने वाले साहित्यकारों की श्रेणी में ला खड़ा करता है. डा.पद्मा पाटिल ने 'काल भेद' की समीक्षा करते हुए दिखाया है कि कवि ने भिन्न भिन्न कोणों से राजनीति के विभिन्न दूषित पक्षों को जिस ढंग से उजागर किया है वह उसके सूक्ष्म निरीक्षण तथा समाज और देश के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इसी क्रम में प्रो. शेरसिंह बिष्ट ने 'वीरांगना चेन्नम्मा' को नारी शक्ति की यशोगाथा मानते हुए यह प्रतिपादित किया है कि दोहों में रचित यह काव्य राष्ट्रहित और लोक मंगल की लोकरंजक प्रस्तुति के कारण हर युग में प्रासंगिक बना रहेगा.

अभिप्राय यह है कि 133 आलेखों और दो परिशिष्टों से निर्मित 720 पृष्ठों का यह महाकाय समीक्षा ग्रंथ डा.महेश दिवाकर के अवदान का सम्यक मूल्यांकन करने का सफल और स्तुत्य प्रयास है. संपादक मंडल इसके लिए बधाई का पात्र है.


समीक्षा के  निकष  पर डा.महेश दिवाकर
(सं) डा.अभय कुमार, डा.मीना कॉल, डा.बाबूराम
प्रकाशक – विश्व पुस्तक प्रकाशन, बी.जी.6/304 ए, पश्चिम विहार, नई दिल्ली – 63
पृष्ठ – 720
मूल्य – रु.500/-


रविवार, 8 जनवरी 2012

'राग दरबारी' : राजनैतिक संदर्भ



श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का राजनैतिक  संदर्भ / सीमा मिश्रा/ 2012/ नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2/35 - अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली – 110 002/ पृष्ठ – 180 / मूल्य – रु.350/= 

सोमवार, 2 जनवरी 2012

श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का राजनैतिक संदर्भ


श्रीलाल शुक्ल(1925 – 2011) ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के भारतीय जन जीवन के यथार्थ को इतनी सफलता के साथ अपनी रचनाओं में व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की कि उनका नाम इस शती के शीर्षस्त साहित्यकारों में शामिल हो गया. इसमें संदेह नहीं कि उनका कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ सही अर्थ में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्राम और राजनीति का जीता जागता दर्पण है जो यथार्थ को दिखाता ही नहीं बल्कि सभ्यता की समीक्षा भी करता चलता है. गाँवों की हालत में सुधार हो सकता है बशर्ते कि जहालत का अंधेरा कटे. इसके लिए शिक्षा का प्रकाश जरूरी है. लेकिन हर शाख पर बैठे हुए अँधेरे के एजेंट स्वयं शिक्षा तंत्र में इतना अंधेरा मचाए हुए हैं कि इस अंधेर गर्दी में शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया बनकर रह गई है जिसे कोई भी लात मार सकता है. वह भला क्या प्रकाश लाएगी और क्या परिवर्तन करेगी. होना तो यह चाहिए था कि शिक्षा का स्थान समाज में सबसे ऊपर होता, लेकिन हुआ यह है कि ओछी राजनीति का स्थान सबसे ऊपर है और शिक्षा उसकी क्रीतदासी. सब ओर एक ऐसा राग चल रहा है जिसमें दरबारी संस्कृति फल फूल रही है. श्रीलाल शुक्ल ने ‘राग दरबारी’ में इसी दरबारवाद का सच खोलकर पाठक के सामने रखा है.

‘राग दरबारी’ के इस राजनैतिक संदर्भ के विविध पहलुओं की पड़ताल सीमा मिश्रा (1972) ने विस्तारपूर्वक अपनी शोध कृति ‘श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का राजनैतिक संदर्भ” (2012) में की हैं. जैसा कि प्रो.अमरसिंह वधान ने लक्षित किया है, इस अल्लोच्नात्म्क ग्रंथ में राजनैतिक विमर्श की व्यापकता है, लेखकीय दायित्व के सभी तत्व मौजूद हैं, और साहित्य के गहरे सरोकार लेखिका के आलोचना कर्म में पारदर्शिता से पढ़े जा सकते हैं. वे ‘राग दरबारी’ का विश्लेषण मात्र नहीं करती बल्कि उसमें अंतर्निहित नए रूपों का प्रकाशन भी करती हैं. इस अनुसंधान प्रक्रिया के माध्यम से यदि नए संदर्भ स्वतः उजागर हो उठते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं. 

लेखिका ने आरंभ में राजनैतिक चेतना के स्वरूप पर चर्चा करते हुए हिंदी उपन्यासों में उसके विकास पर प्रकाश डाला है. इसके उपरांत श्रीलाल शुक्ल के व्यक्तित्व और कृतित्व का विवेचन करते हुए ‘राग दरबारी’ के रचना वैशिष्ट्य की परख की गई है. राजनैतिक मूल्यह्रास को एक राजनैतिक विडंबना मानते हुए राजनीति और अपराध के गठबंधन की दुर्घटना के ग्राम विकास पर पड़े प्रभाव के संदर्भ में ग्रामीण राजनैतिक परिवेश के ‘राग दरबारी’ में चित्रण की विवेचना के आधार पर लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि नेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत से भ्रष्टाचार की गतिविधियों का विस्तृत चित्रण तथा वर्तमान राजनीति का घृणित विद्रूप चेहरा ‘राग दरबारी’ में देखने को मिलता है. इसके साथ ही राजनीति की भाषा और व्यंग्य की धार विषयक विश्लेषणात्मक सामग्री इस अध्ययन को परिपूर्णता प्रदान करती है. इसमें संदेह नहीं कि व्यंग के व्यापक प्रयोग से उपन्यासकार की अभिव्यक्ति को नई धार मिली है तथा ‘राग दरबारी’ में प्रयुक्त राजनैतिक प्रयुक्ति, शब्द विन्यास, मुहावरे और प्रतीक श्रीलाल शुक्ल की व्यंजना गर्भित अभिव्यक्ति के द्योतक हैं. उनकी जन पक्षधरता भी स्वतः प्रमाणित है. जैसा कि लेखिका के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने स्वयं कहा है “साहित्यकार केवल शब्दों का खिलाड़ी नहीं है. राजनीति के सर्वव्यापी प्रभावों को देखते हुए निश्चय ही उसे अपने निजी विचारों से किसी विचारधारा से असम्पृक्त नहीं रखा जा सकता है. दूसरी बात यह है, कि भारतीय समाज में धर्म, वर्ग और जाती से जकड़े हुए और दूसरे प्रकार के शोषण से बंध स्वरूप को देखते हुए किसी भी संवेदनशील लेखक का जन पक्षधर हो जाना अनिवार्य है.” कुलमिलाकर सीमा मिश्रा की यह शोधपूर्ण आलोचना पुस्तक ‘राग दरबारी’ की गहरी समझ पर आधारित है और साहित्य के गंभीर पाठकों को पसंद आनी चाहिए. 

  • श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का राजनीति संदर्भ / सीमा मिश्रा/ 2012/ नॅशनल पब्लिशिंग हाउस, 2/35 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली – 110 002/ पृष्ठ – 180/ मूल्य – रु.350