मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

स्त्री : अशक्त या सशक्त

 
स्त्री कितनी अशक्त और कितनी सशक्त? यह सवाल बार बार हमारे सामने उपस्थित हो जाती है. इस पर अनेक विद्वानों एवं विदुषियों ने समय समय पर काफी कुछ कहा है. इस मुद्दे पर काफी चर्चा-परिचर्चा, बहस-मुहाबिसा भी हो चुका है. मैं भला इस पर और क्या कह सकती हूँ?

पर एक बात जरूर कहना चाहूंगी. स्त्री होने का प्रमुख लक्षण है कोमल होना. भावनात्मक स्तर पर स्त्री कोमल है. दया, ममता, वात्सल्य आदि गुण स्त्री को कोमल बानाते हैं. इसी कोमलता के कारण स्त्री पुरुष की सहचरी बनकर सृष्टि का निर्माण करती है. सृष्टि के निर्माण में स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. स्त्री की इस निर्भरता को, इस स्त्रीत्व को पुरुष वर्चस्व ने स्त्री के लिए अभिशाप बना दिया. वह उसकी संवेदनशीलता का दोहन करने लगा. सिर्फ पुरुष ही स्त्री का शोषण नहीं करता है. स्त्री का शोषण स्त्री भी करती है, परिवार भी करता है और साथ ही साथ समाज भी करता है. इसमें संदेह नहीं कि पुरुष को भी इस समाज में समस्याओं का सामना करना पड़ता है पर स्त्री को उससे ज्यादा पीड़ा उठानी पड़ती है.

बचपन से ही लड़की को लड़की होने का अहसास कराया जाता है. हर बात पर उसे यह कहकर टोका जाता है कि तुम लड़की हो, चुप रहो. शादी-ब्याह करके पराए घर में जाना है. पुरुष की तरह सीना तान के मत चलो. सर झुकाए बैठो. इत्यादि...... इत्यादि....... इत्यादि...... परंपरा और संस्कृति के नाम पर स्त्री को जंजीरों में जकड़ दिया जाता है. इस समाज ने जबरदस्ती उसे सती बनाया. देवदासी बनाया. उसे खिलौना बनाकर नचाया. इसलिए नीलम कुलश्रेष्ठ कहती हैं 'इतिहास की कोई दरबारी गायिका हो, नर्तकी हो या खूबसूरत रानी ही क्यों न हो. उसके इर्द गिर्द षड्यंत्रों के शिकंजे कसे होते थे.'

स्त्री की अशक्तता नैसर्गिक नहीं बल्कि थोपी हुई स्थिति है. उसे सपनों तक से वंचित कर दिया गया था. समाज ने स्त्री को अपने बारे में भी निर्णय लेना का अधिकार नहीं दिया. वह सबके सामने ऊँची आवाज में बात तक नहीं कर सकती निर्णय क्या ख़ाक लेगी! परंतु पुनर्जागरण आंदोलन, समाज सुधार आंदोलन, स्वतंत्रता आंदोलन तथा लोकतांत्रिक भारत में सामाजिक न्याय की माँग ने स्त्री के सशक्तीकरण को संभव बनाया.

निस्संदेह समाज ने स्त्री की भूमिका तय कर दी. उसे यह बताया गया कि घर संभालना, बच्चों को पैदा करना और उन्हें पालना, स्वादिष्ट भोजन बनाना, घर परिवार के लिए बलिदान होना आदि उसकी जिम्मेदारियां हैं. इन जिम्मेदारियों को निभाते निभाते स्त्री यह भूल गई कि उसका भी कोई अस्तित्व है.

उसे जागरूक बनाने के लिए राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद और महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे महापुरुषों ने आवाज बुलंद की तो वे समाज सुधारक कहलाए. जब स्त्री जागरूक हुई और शोषण तथा  षड्यंत्र के खिलाफ आवाज उठाई तो वह विद्रोहिणी बन गई. कुलटा बन गई. और न जाने क्या क्या बन गई. इसके बावजूद उसने अपने पर खोलकर उड़ना नहीं सीखा और आत्मनिर्भरता हासिल करके दिखाई. जब स्त्री पर-निर्भर थी, कोमल थी समाज के हाथों ठगी गई, लूटी गई, प्रताड़ित हुई, शिकार हुई. धीरे धीरे स्त्री अपनी शक्ति को पहचानने लगी. अपनी कमजोरियों को दूर करने लगी. आत्मनिर्भर होने लगी. यह आत्मनिर्भरता स्त्री को शिक्षा ने प्रदान की. महादेवी वर्मा कहती है 'युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिए नहीं, सहनशीलता के लिए दंड देता आ रहा है. स्त्री बोल्ड बनी. समाज में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी. हर क्षेत्र में वह आगे बढ़ी. वह अपने स्त्रीत्व को ही गुलामी का कारण समझने लगी. क्या स्त्रीत्व को खोना ही सशक्तीकर्ण है? पुरुष को हर तरह से खलनायक के रूप में चित्रित करना ही सशक्तीकरण है? स्त्री, स्त्री भी रहे, अपनी संवेदनाओं और सुकोमलता को भी बरकारा रखे और साथ ही मनुष्य भी बने. उसे शिकार न होना पड़े. वह अपमानित महसूस न करे. उसके साथ अन्याय न हो. इसीलिये महादेवी वर्मा कहती हैं 'हमें पुरुष नहीं बनाना है. हमें मनुष्य बनाना है.' हाँ संवेदनशील मनुष्य बनाना है.

आज कारपोरेट दुनिया और राजनीती में स्त्री ने अपनी ताकत का झंडा फहराया है. वह हर तरह से सफल है. सशक्त है. पर क्या आज हम यह कह सकते हैं कि कन्या भ्रूण सुरक्षित है ! स्त्री अकेली आधी रात को घर से बाहर निकल सकती है ! अगर नहीं तो मानना पडेगा कि सशक्त होकर भी आज की दुनिया में स्त्री सशक्त नहीं है जो हमारे समय की एक शर्मनाक सच्चाई है.   
  • गत माह कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद की मासिक गोष्ठी में प्रस्तुत किया गया आलेख      

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

दर्द


मैंने

दर्द को दबाने  की कोशिश की

वह गिद्ध बन

मेरा शिकार करता रहा.


      मैंने 

      उससे छुटकारा पाने के लिए

      स्लीपिंग पिल्स लिए 

      ट्रांक्विलाइज़र लिए

      और न जाने क्या क्या लिए

      पर वह इम्यून हो गया.


मेरे हितैषी

डाक्टर के पास ले गए

उसने

मुझे आपरेशन थियेटर पहुंचाया.

        
            डाक्टरों की जमात ने

            मेरे हृदय को चीरफाड़ डाला

            मेरे हर अंग का इलाज किया

            पर दर्द से मुक्ति नहीं मिली.

            वह मेरा अंतरंग बन गया.


आज
      मैं सोचती हूँ –
       यदि सीने में यह दर्द नहीं होता
      तो मेरा क्या होता!

आग


आग ....
             आग .....
                           आग .....



आग की लपटों में पिघल रही है

एक भव्य मूर्ति लाल होकर

चीख रही है बचाव के लिए

संघर्ष कर रही है

अपने जीवन के लिए.


            बचाओ..........

                     बचाओ.............

                         की पुकार है

                              पर बचाए कौन?

                                      लपटों में जाए कौन?


एक बूढ़ा आदमी

और एक जिद्दी औरत

 जुनून से भरकर कूद पड़े आग में.


              मूर्ति तक पहुँचते पहुँचते

              खुद जल गए झुलस गए.

             मूर्ति तो न बच सकी

            अस्पताल में मौत से लड़ रहे हैं

             बूढ़ा आदमी और जिद्दी औरत.



समस्या


जीवन की पुस्तक में

लिखना चाहें तो क्या लिखें?

कैसे लिखें? कितने अध्याय लिखें?

                            भिन्न भिन्न विषयों पर 

                            कलम चलानी चाही 

                            सब कुछ समेटना चाहा स्याही से

                            पर कलम रुक गई

                            अभिव्यक्ति फंस गई


न ध्वनि मिली न अक्षर

न शब्द बने न वाक्य

एक शून्य फैलता गया

भीतर ही भीतर .

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

छात्र हित संबंधी समस्याओं का निराकरण : प्रश्न बैंक के संदर्भ में


दूरस्थ शिक्षा माध्यम ने उच्च शिक्षा को सर्वसुलभ बना दिया है. कुछ समय पहले तक यही समझा जाता रहा कि दूरस्थ शिक्षा पारंपरिक शिक्षा से कम स्तर की है. लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है. आज दूरस्थ शिक्षा में सुनियोजित ढंग से पाठ्य सामग्री एवं तकनीकी संसाधनों का प्रयोग करके शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाया जा रहा है.

आज दूरस्थ शिक्षा सिर्फ पिछड़ों, वंछितों या घरेलू स्त्रियों तक सीमित नहीं है. आज देश भर के युवक/ युवतियां इसे उच्च शिक्षा का बढ़िया विकल्प मानकर आगे बढ़ रहे हैं. यह शिक्षा पद्धति निरंतर नवाचार युक्त/ इन्नोवेटिव बन रही है. यह सर्वविदित है कि दूरस्थ शिक्षा प्रणाली में अध्यापक अनुपस्थित रहता है अर्थात अध्यापक से प्रत्यक्ष संवाद /फेस टू फेस कांटेक्ट नहीं रहता. इसलिए समस्याओं का समाधान/ निवारण तुरंत नहीं हो सकता है. दूरस्थ शिक्षा के अध्येताओं के लिए पाठ्य सामग्री ही शिक्षक है. अतः पाठ्य सामग्री तथा तकनीकी संसाधनों के माध्यम से दूरस्थ शिक्षा प्रणाली में शिक्षक तथा कक्षा की कमी को दूर किया जा सकता है. इस प्रणाली को बाधाविहीन शिक्षा प्रणाली भी कहा जा सकता है चूंकि बिना किसी रुकावट के, बिना किसी समस्या के, बिना किसी बंधन के इस शिक्षा प्रणाली को अपनाया जा सकता है. इस माध्याम का अध्येता समूह विषमरूपी है अर्थात हेटीरोजीनस ग्रुप. हर आयु के लोग अपने व्यवसाय, दैनंदिन नौकरी, गृहस्थी आदि के साथ साथ शिक्षा जारी रखते हैं. पारंपरिक शिक्षा पद्धति से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र अपनी समस्याओं एवं शंकाओं का समाधान अध्यापक की सहायता से कर लेते हैं लेकिन दूरस्थ शिक्षा के अध्येता की समस्याओं का समाधान पाठ्य सामग्री के माध्यम से ही संभव हो सकता है. अतः पाठ्य सामग्री में संभावित समस्याओं और समाधानों का समावेश किया जा सकता है. 

दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रमों के लिए कुछ इकाइयां लिखने का अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ है. उस समय विद्वानों से यह निर्देश प्राप्त हुआ कि इकाइयां उन विद्यार्थियों के लिए लिखी जा रही हैं जिनके समक्ष अध्यापक उपस्थित नहीं है. अतः विद्यार्थियों को बीच बीच में संबोधित करना जरूरी है और उनकी समझ की पहचान करने के लिए प्रत्येक लघु उपखंड के बाद प्रश्न करना भी जरूरी है. इसीलिए इकाइयों के बीच में बोध प्रश्न दिए जाते हैं. इनका उद्देश्य अध्येता का एक प्रकार से स्वतः मूल्यांकन करना होता है. 

दूरस्थ माध्यम की अध्ययन सामग्री में इन बोध प्रश्नों के अलावा इकाई के अंत में पूरे पाठ पर आधारित अलग अलग प्रकार के प्रश्न दिए जाते हैं. ये प्रश्न ही मिलकर उस पाठ्यक्रम का प्रश्न बैंक बनाते हैं. इस प्रकार निर्मित प्रश्न बैंक का अवलोकन करने से यह पता चलता है कि इसमें प्रायः तीन प्रकार के प्रश्न होते हैं - दीर्घ उत्तरीय प्रश्न, लघु उत्तरीय प्रश्न और अति लघु उत्तरीय प्रश्न. इन तीनों प्रकार के प्रश्नों के उद्देश्य भी एकदम साफ है. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एक ओर जहां संबंधित विषय के समग्र अधिग्रहण का मूल्यांकन करते हैं वहीं विद्यार्थी की संप्रेषण क्षमता या लेखन कौशल की भी इनके द्वारा परिक्षा होती है. इनकी तुलना में लघु उत्तरीय प्रश्न इस दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं कि ये पाठ के छोटे छोटे परंतु महत्वपूर्ण अंशों पर केंद्रित होते हैं और इनके उत्तर से यह पता चलता है कि छात्र ने पाठ के विविध सूक्ष्म आयामों को समझा है या नहीं. अब बचे अति लघु उत्तरीय प्रश्न. ये प्रायः एक दो शब्दों की उत्तर की अपेक्षा रखते हैं या इनके सही उत्तर के लिए विकल्पों में से चुनाव करना होता है. वास्तव में इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए छात्र को पूरा पाठ अक्षरशः पढ़ना जरूरी होता है. इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अति लघु उत्तरीय प्रश्न छात्र को बाध्य करते हैं कि वह पूरी इकाई की क्लोस रीडिंग करे. यही ऐसे प्रश्नों की सबसे बड़ी उपाधेयता है. 

वस्तुतः अध्येताओं का ज्ञान (Knowledge), समझने की शक्ति (Understanding Power) और ग्रहण करने की दक्षता (Ability to grasp) का परीक्षण और मूल्यांकन अनेक स्तरों पर किया जाता है. कोर्स/ पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए अध्येता को विभिन्न तरह की परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है – आतंरिक परीक्षाएं और बाह्य परीक्षाएं. दूरस्थ शिक्षा अध्येताओं को आतंरिक परीक्षा के रूप में दत्तकार्य (Assignment) को पूरा करना पड़ता है. दत्तकार्य हो या बाह्य परीक्षाएं अध्येता को सभी तरह के प्रश्नों का समाधान देना पड़ता है. 

वास्तव में प्रश्न कोश का केंद्रक छात्र होता है. और प्रश्न कोश की सुविधा मूलतः छात्र हित की ही सुविधा है. प्रश्न कोश बनाने की प्रक्रिया के संबंध में यहाँ कुछ बातें जान लेना आवश्यक है. 

प्रश्न कोश के निर्माण की प्रक्रिया 

१. पहले प्रश्नों को श्रेणियों में बांटना चाहिए – अर्थात अति लघु उत्तरीय प्रश्न, लघु उत्तरीय प्रश्न और दीर्घ उत्तरीय प्रश्न. 

२. उसके बाद पाठ के आधार पर प्रश्न बनाने चाहिए. 

३. केवल प्रश्न बनाना काफी नहीं है. यह भी बताना होगा कि उसका उत्तर कहाँ से प्राप्त हो सकता है और कैसे लिखा जा सकता है. इस दृष्टि से हमें अपने विविध पाठ्यक्रमों के प्रश्न कोशों का पुनरावलोकन करना होगा. और उन प्रश्नों को पहचानना होगा जिनके लिए उत्तर संबंधी निर्देश की आवश्यकता है. 

४. यह पहचान करने के बाद अगले स्तर पर इन प्रश्नों के समक्ष कोष्ठक में अथवा प्रश्नावली के अंत में उत्तर संकेत देने होंगे. आवश्यक हो तो दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के लिए उत्तर की संक्षिप्त रूपरेखा भी बिंदु बिंदु रूप में दी जा सकती है. अर्थात प्रश्न कोश अपने आप में उत्तरों का भी पावर पाइंट प्रेसेंटेशन बन सकता है. 

५. इस सुझाव का आधार यह है कि प्रायः छात्रों के द्वारा यह मांग की जाती है कि दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के लिए कम से कम एक रूपरेखा दी जानी चाहिए ताकि यह पता चले कि उत्तर कैसे लिखना चाहिए. 

६. वास्तव में अध्येताओं की दक्षता और कौशल के परीक्षण करने के लिए प्रश्न बैंक का निर्माण किया जाता है. दूरस्थ शिक्षा माध्यम की यह मांग है कि प्रश्न कोश केवल पाठ्य सामग्री अथवा एक पुस्तक के रूप में ही नहीं बल्कि इंटरनेट पर भी उपलब्ध होने चाहिए. आन लाइन प्रश्न कोश बनाने में यह एक लाभ रहेगा कि समय समय पर हम इसे आवश्यकतानुसार संपादित और परिवर्धित कर सकेंगे. आवश्यकता होने पर नई श्रेणियाँ और उप श्रेणियाँ भी बनाया जा सकता है. और इस तरह धीरे धीर हमारा आन लाइन प्रश्न कोश केवल प्रश्न कोश नहीं बल्कि ज्ञान कोश बन सकता है. 

हमारे संस्थान को भी इस दिशा में प्रयास करना होगा. इसके लिए निम्न लिखित सुझावों पर ध्यान दिया जा सकता है – 

१. प्रत्येक प्रश्न पत्र के आन लाइन प्रश्न कोश को भी अलग अलग श्रेणियों में बांटा जाए. ये श्रेणियाँ प्रश्नों के प्रकार के आधार पर भी बनाई जा सकती हैं और परिक्षा के प्रकार के आधार पर भी. इससे छात्र को यह लाभ होगा कि वह आसानी से इच्छित परिक्षा, इच्छित पाठ्यक्रम, इच्छित इकाई अथवा इच्छित प्रकार के अनुसार प्रश्नों तक पहुँच सकेगा. यह भी आवाश्यक है कि प्रश्नों के साथ कई कई टैग अथवा लेबल भी उपलब्ध कराए जाएँ जिन्हें सर्च करके इच्छित सामाग्री तक पहुंचा जा सके. यदि हमारी पाठ सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध हो तो एक अत्यंत चमत्कारी सुविधा यह भी हो सकती है कि प्रश्नों के साथ संबंधित इकाई अथवा पाठांश का हाईपर लिंक भी उपलब्ध कराया जाए. इस हाईपर लिंक को क्लिक करते ही छात्र उस मूल पाठ तक पहुँच सकता है जिसके आधार पर उसे उत्तर तैयार करना है. 

२. इंटरनेट पर अपने पाठों और प्रश्न कोश उपलब्ध कराते समय उसे लाक अवश्य करना होगा ताकि केवल पंजीकृत उपभोक्ता ही उस तक पहुँच सके. और सामग्री पर हमारा कापी राईट बना रहे. मैंने तो यह सुझाव मात्र दिया है. अब आगे इससे जुडी तकनीकी संभावनाओं पर विस्तृत विचार विमर्श की आवश्यकता है.


  • दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा द्वारा आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी / कार्यशाला  में प्रस्तुत शोध पत्र

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

हाइकू



हाइकू  
दुःख

चेहरा नम


आंसू का स्रोत कहाँ


दिल में गम

 किताब
अलमारी में  
किताबों का ढेर है
निद्रा में लीन  



गर्भ से


कन्या भ्रूण ने
लगाई है गुहार
मुझे न मार.
      अंश हूँ मैं भी
        तुम्हारे ही प्यार का
          दंश फिर क्यों ?
                मत चढ़ाओ
                   सूली पर बेटी को
                       जीने दो उसे.
मत छीनो
   जीने का अधिकार
        मुझे दो प्यार ...

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

डा.जी.नीरजा की पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ लोकार्पित







हिंदी-तेलुगु द्विभाषी पत्रिका ‘स्रवन्ति’ की सह-संपादक डा.गुर्रमकोंडा नीरजा की समीक्षा-पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ का लोकार्पण समारोह यहाँ साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सभागार में संपन्न हुआ.



लोकार्पण  करते हुए मुख्य अतिथि प्रो.दिलीप सिंह ने कहा कि तेलुगु विश्व भर में हिंदी के बाद सबसे ज्यादा पढ़ी जानेवाली भारतीय भाषा है इसलिए तेलुगु में निहित साहित्यिक धरोहर से अन्य भाषाभाषियों को परिचित कराना अत्यंत आवश्यक है तथा डा.नीरजा की यह पुस्तक इस आवश्यकता की पूर्ति की दिशा में एक सार्थक प्रयास है. प्रो.सिंह ने लोकार्पित पुस्तक की पठनीयता की प्रशंसा करते हुए बताया कि इसमें खास तौर पर तेलुगु साहित्य की सामाजिकता और लौकिकता को उभारा गया है.

विमोचित किताब की पहली प्रति को स्वीकार करते हुए वार्ता पत्रकारिता संस्थान के प्राचार्य गुर्रमकोंडा श्रीकांत ने कहा कि तेलुगु भाषा और साहित्य की समझ के बिना भारतीय साहित्य की आत्मा को नहीं पहचाना जा सकता इसलिए यह पुस्तक भारतीय साहित्य के हर अध्येता के लिए अत्यंत उपयोगी है. उन्होंने ध्यान दिलाया कि इस पुस्तक में तेलुगु साहित्य के पुराने और नए रचनाकारों का जो समीक्षात्मक विवेचन किया गया है वह अत्यंत प्रामाणिक है.






इस अवसर पर प्रमुख तेलुगु साहित्यकार प्रो.एन.गोपि भी उपस्थित थे. उन्होंने लेखिका को शुभकामना देते हुए कहा कि यह रचना एक खास इतिहासबोध से संपन्न है तथा लेखिका ने लगातार बदलते हुए आधुनिक साहित्य की आधारभूत चिंताओं को समझकर नए नए विमर्शों का भी सटीक विवेचन और विश्लेषण किया है. प्रो.गोपि ने कहा कि इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने बहुमूल्य रत्नों के समान तेलुगु साहित्यकारों का परिचय विशाल हिंदी जगत से कराकर सेतु का कार्य किया है.     
‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ की समीक्षा करते हुए भगवानदास जोपट ने कहा कि इस पुस्तक में संकलित इक्कीस निबंध साहित्य को देखने और विश्लेषित करने की लेखिका की शक्ति के परिचायक हैं. उन्होंने कहा कि इन निबंधों में तेलुगु साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकारों के सरोकारों, शैलियों और प्रवृत्तियों पर जो सारगर्भित चर्चा की गई है वह ताजगी की महक लिए हुए है. अन्नमाचार्य से लेकर उत्तरआधुनिक तेलुगु साहित्य तक को समेटनेवाली इस पुस्तक को जोपट ने भारतीय मनीषा के सम्पूर्ण वैभव और संवेदनशीलता को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखने की एक ईमानदार कोशिश बताया.   


अध्यक्षासन से संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार डा.राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि डा.गुर्रमकोंडा नीरजा की यह पुस्तक तेलुगु साहित्य ही नहीं बल्कि तेलुगु समाज और संस्कृति को भी निकट से समझने में हिंदी पाठक की सहायता करेगी. उन्होंने भाषा, साहित्य और संस्कृति के आपसी संबंधों की चर्चा करते हुए कहा कि भारत की सांस्कृतिक एकता को पुष्ट करने के लिए इस प्रकार की रचनाओं की अधिकाधिक जरूरत है.


लोकार्पण के अवसर पर लेखिका डा.जी.नीरजा का सारस्वत सम्मान भी किया गया. इस अवसर पर डा.ऋषभ देव शर्मा, एस.के.हलेमनी, एम.सीतालक्ष्मी, डा.मोहन सिंह, डा.पूर्णिमा शर्मा, डा.पुष्पा शर्मा, डा.रोहिताश्व, डा.टी.वी.कट्टीमनी, डा.देवेन्द्र शर्मा, विनीता शर्मा, राजकुमार गुप्ता, एलिजाबेथ कुरियन मोना, डा.भीम सिंह, डा.आंजनेयुलू, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, पवित्रा अग्रवाल, कोसनम नागेश्वर राव, डा.सीता नायडू, डा.मृत्युंजय सिंह, डा.शक्ति द्विवेदी, अर्पणा दीप्ति, जी.संगीता आदि सहित शताधिक हिंदी प्रेमी और साहित्यकार उपस्थित रहे.