मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली की शुभकामनाओं सहित .....

 
 
होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला अद्भुत पर्व है. यह पर्व फाल्गुन माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इसलिए इसे फाल्गुनी भी कहते हैं. इस पर्व को फगुआ भी कहते हैं. इस पर्व के मुख्य अंग हैं – राग और रंग. इतना ही नहीं रागरंजित प्रकृति भी इस अवसर पर अपने उत्कर्ष पर रहती है. यह हर्ष और उल्लास का पर्व है. आनंद का पर्व है. इसमें प्रेम, उमंग, हर्षोल्लास, मस्ती के साथ साथ अपनत्व और भाईचारे के रंग घुल मिल जाते हैं. वास्तव में “रंग अपने आस-पास की चीजों से हमारी पहचान बनाते हैं. नीला आकाश, हरी-भरी वनस्पतियाँ, लाल, पीले फूल; क्या रंगों की पहचान के बिना हमारे मन में इनकी ‘पहचान’ बन पाती? रंग हमारे मन और हमारी मानसिकता की पहचान के आधार भी बन जाते हैं. ‘वह बड़ा रंगीन आदमी है’ या ‘उसके रंग निराले हैं’ कहते ही कुछ खास अर्थ उस आदमी के व्यक्तित्व के खुलने लगते हैं. जब ‘लाल’ अनुराग से, पीला ‘कृश’ से, सफ़ेद ‘शांति या उदासी’ से, हरा ‘जीवन या ताजगी’ से, केसरिया ‘त्याग और बलिदान’ से और काला ‘दुष्कृत्य’ से जोड़कर कुछ नए अर्थ-संदर्भ देने लगते हैं तो हमें रंगों की मनोवैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय व्याख्या की ओर मुड़ने की जरूरत महसूस होती है.” (प्रो.दिलीप सिंह, संपादकीय, पूर्णकुंभ, मार्च 2000)

प्रकृति में रंगों की संख्या असीमित है अतः भाषाओं में भी बड़ी संख्या में रंगों की शब्दावली मिलती है, जिसका निरंतर विकास होता रहता है. ‘लाल’ रंग के ही बहुत शेड्स हैं जैसे – लाल, टमाटरी, महावरी, गाजरी, रक्तिम, सुर्ख तथा खूनी. इसी तरह हरे के लिए हरा, मूंगिया, धानी, हरित, मेंहदी, अंगूरी, तोतिया तथा पीले के लिए पीला, गेंदाई, बसंती, हल्दी, सुनहरी गेरुआ. इसी तरह नीला, भूरा, सफेद, बैंगनी, गुलाबी, नारंगी, सलेटी, काला आदि के अनेक शेड्स उपलब्ध हैं.      

रंगों के शेड्स निर्मित करने में समाज का स्थान महत्वपूर्ण है. ये रंग हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं. इन रंगों के पीछे हमारी सांस्कृतिक अस्मिता भी जुड़ी हुई है. होली पर्व इन्हीं रंगों का पर्व है. भारतीय साहित्य भी इस पर्व से अछूता नहीं रहा. उल्लेखनीय है कि आदिकालीन साहित्य से लेकर समसामयिक साहित्य तक में किसी-न-किसी रूप में होली का वर्णन अवश्य मिलता है. चाहे वह राधा-कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम से भरी होली हो या प्राकृत नायक-नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली हो. फाल्गुन माह के फाग भरे रस से कोई अछूता नहीं रह सकता. जायसी भी कहते हैं - 

“कँवल सहाय चलीं फुलवारी. फर फूलन्ह कै इंछा बारीं [1]
आपु आपु महँ करहिं जोहारू. यह बसंत सब कर तेवहारू [2]
चही मनोरा झूमक होई. फर औ फूल लेइ सब कोई [3]
फागु खेलि पुनि दाहब होली.  सेतब खेह उड़ाउब झोली [4]
आजु साज पुनि देवस न दूजा. खेलि बसंत लेहु दें पूजा [5]
भा आएसु पदुमावति करा. बहुरि न आइ करब हम फेरा [6]
तस हम कहँ होइहि रखवारी. पुनि हम कहाँ कहाँ यह बारी [7]
पुनि रे चलब घर आपुन पूजि बिसेसर देऊ [8]
जेहिका होइ हो खेलना आजु खेलि हँसि लेउ [9]” (जायसी, पद्मावत, बसंत खंड

(1. कमल रूप पद्मावती के साथ फुलवाड़ी रूपी सखियाँ चलीं. वे बालाएँ फल फूलों के लिए उत्सुक थीं. 2. आपस में एक दूसरे को प्रणाम करती और कहती थीं, ‘यह वसंत सबका त्यौहार है.’ 3. मनोरा झूमक फाग गाना चाहिए. सब कोई फल फूल ले लो. 4. फाग खेलकर फिर होली जलाएँगीं और धूल बटोरकर झोली भर-भर उदाएँगीं. 5. आज उत्सव करो, फिर दूसरा दिन न मिलेगा. देव को पूजा देकर वसंत खेलो. 6. पद्मावती की आज्ञा हुई है कि फिर यहाँ हम घूमने न आएँगीं. 7. हमारे ऊपर ऐसी कड़ी देखभाल रहेगी. फिर कहाँ हम और कहाँ यह बगीची होगी? 8. विश्वेश्वर देव को पूजकर सबको फिर अपने घर चलना होगा. 9. हे सखियो, जिस किसी को खेलना हो आज मन भरकर हँस खेल लो.)

होली के समय में प्रकृति भी बासंती पंचमी के गीत गाने लगती है. होली के रंग में रंग जाने की चाहत सब में होती है. इसीलिए घनानंद भी कहते हैं -

 “होरी के मदमाते आए, लागौ हो मोहन मोहिं सुहाए.
चतुर खिलारिन बस करि पाए, खेलि-खेल सब रैन जगाए.
दृग अनुराग गुलाल भराए, अंग-अंग बहु रंग रचाए.
अबीर-कुमकुमा केसरि लैके, चोबा की बहु कींच मचाए.
जिहिं जाने तिहिं पकरि नँचाए, सबरस फगुवा दै मुकराए.
‘घनानंद’ रस बरसि सिराए, भली करी हम ही पै छाए.” (घनानंद, होरी के मदमाते आए)

सूरदास यूँ कहते हैं –
“हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।“ (सूरदास)

 तुलसीदास ने ‘गीतावली’ में फाग का वर्णन इस प्रकार किया है – 

” खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।।
सोहैं सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलन्हि अबीर पिचकारि हाथ।।
बाजहिं मृदंग डफ ताल बेनु। छिरकै सुगंध-भरे-मलय रेनु।।
उत जुवति जूथ जानकी संग। पहिरे तट भूषन सरस रंग।।
लिए छरी बेंत सोधे बिभाग। चाँचरि झूमक कहैं सरस राग।।
नूपुर किंकनि धुनि अति सोहाइ। ललनागन जब जेहि धरइँ धाइ।।
लोचन आँजन्हि फगुआ मनाई। छाँड़हिं नचाइ हाहा कराइ।।
चढ़े खरनि विदूषक स्वांग साजि। करैं कटि निपट गई लाज भाजि।
नर-नारि परसपर गारि देत। सुन हँसत राम भइन समेत।।
बरबस प्रसून बर बिबुध बृंद। जय जय दिनकर-कुल-कुमुद-चंद।।
ब्रह्मादि प्रसंसत अवध बास। गावत कल कीरति तुलसिदास।।“ (तुलसीदास, गीतावली)

 मीरां के पदों में भी होली के रंग की छटा दीख पड़ती है –

“फागुन के दिन चार होली खेल मना रे ।।
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे ।
बिन सुर राग छतींसूं गावै रोम रोम रणकार रे ।।
सील संतोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे ।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घटके सब पट खोल दिए हैं लोकलाज सब डार रे ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे ।।“ (मीरां, फागुन के दिन चार होली खेल मना रे)

 वस्तुतः फागुन का यह त्यौहार हँसी और ठिठोली का त्यौहार है. रसखान के पदों में भी होली की उमंग द्रष्टव्य है–
“फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।। (रसखान)

प्राचीन कवियों ने फागुन माह और होली की मादकता का सजीव चित्रण अपने रस भरे शब्दों में किया है. आधुनिक साहित्यकार भी इस संदर्भ में पीछे नहीं हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र के शब्दों में –

“मेरे जिय की आस पुजाऊ पियरवा होरी खेलन आओ। 
फिर दुर्लभ ह्वै हैं फागुन दिन आऊ गरे लगि जाओ।।
गाइ बजाइ रिझार रंग करि अबिर गुलाल उड़ाओ।
‘हरिचंद’ दुःख मेटि काम को घर तेहवार मनाओ।।“ (भारतेंदु हरिश्चंद्र, होली)

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कहते हैं कि –

”खेलूँगी कभी न होली
उससे जो नहीं हमजोली ।
यह आँख नहीं कुछ बोली,
यह हुई श्याम की तोली,
ऐसी भी रही ठठोली,
गाढ़े रेशम की चोली-
अपने से अपनी धो लो,
अपना घूँघट तुम खोलो,
अपनी ही बातें बोलो,
मैं बसी पराई टोली ।
जिनसे होगा कुछ नाता,
उनसे रह लेगा माथा,
उनसे हैं जोडूँ-जाता,
मैं मोल दूसरे मोली.”

बौराई आम्रमंजरियों और फूलते पलाश की महक के साथ हर किसी का मन बौरा जाता है. होली मस्ती और उल्लास का त्यौहार है. फाग हो या फिल्मी गीत - होली के रंगों की अनेक छटाओं से भरे पड़े हैं. समाजभाषावैज्ञानिक प्रो.दिलीप सिंह की बातों में कहें तो ‘हमारा जीवन सुख-दुःख के सफ़ेद-काले रंगों के उतार-चढ़ाव का नाम है.’ वस्तुतः इन्हीं दो मूलभूत रंगों के कम या ज्यादा मिलाने से रंगों की अनेक छटाएँ उभरती हैं. होली इसी का द्योतक है. बस हमें इनमें से सही रंगों को पहचानना है और अपनी जिंदगी में अपनत्व और भाईचारे के रंग भरने हैं.


दिगंबर खेलें मसाने में होरी


खेलें मसाने में होरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
भूत पिशाच बटोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
लखि सुंदर फागुनी छटा के
मन से रंग गुलाल हटा के
चिता भस्म भर झोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.

 गोप न गोपी श्याम न राधा
ना कोई रोक ना कवनो बाधा
अरे ना साजन ना गोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.

 नाचत गावत डमरूधारी
छोड़े सर्प गरल पिचकारी
पीटें प्रेत थपोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.

 भूतनाथ की मंगल होरी
देखि सिहायें बिरज की छोरी
धन धन नाथ अघोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.

 

बुधवार, 13 मार्च 2013

“स्त्री-पुरुष की परस्पर-आश्रयता का प्रतीक है ‘अर्धनारीश्वर’

आज की स्त्री चाहती है अपने युग की स्मृति खुद रचने का अधिकार


वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में,
न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,
देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है.” (दिनकर, उर्वशी, तृतीय अंक, पृ.48)

अक्सर कुछ लोगों के मुँह से सुनने को मिलता है कि ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी’. लोग स्त्री को अबला, दीन, कमजोर, फेयर सेक्स, वीक जेंडर आदि अनेकानेक विशेषणों से अलंकृत करते रहते हैं. यह भी सुनने को मिलता है कि स्त्री को देवी, माँ आदि गरिमामय स्थान देकर उसे बंधनों में जकड़ लिया जाता है. दूसरी ओर ‘ऐसा कुछ नहीं है’ कहकर कुछ लोग स्त्री-प्रश्न को सिरे से रद्द करने वाले भी मिलते हैं. इन अतिवादी फतवों के बीच समझना यह है कि भारतीय संस्कृति के अनुसार स्त्री अबला या कमजोर नहीं है. जैसा कि महादेवी वर्मा कहती हैं, “’नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव तीव्र तथा स्थायी होते हैं. इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिनकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं. इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना विद्युत और झड़ी में. एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है, बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझाई जा सकती. दूसरी से शान्ति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं. दोनों के व्यक्तित्व, अपनी उपस्थिति से समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भर देते हैं जिससे विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंजस्य उत्पन्न होकर उन्हें पूर्ण कर देता है”.’

भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष एक दूसरे के विरोधी या प्रतिबल नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं. ‘उर्वशी’ में दिनकर यही कहते हैं कि “’नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर नारी के आलिंगन में संतोष मानता है. कोई शक्ति है जो नारी को नर तथा नर को नारी से अलग रहने नहीं देती, और जब वे मिल जाते हैं, तब भी, उनके भीतर किसी ऐसी तृषा का संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है. नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है. इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते, उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँच कर निस्पंद हो जाता है. और पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है.”’

स्त्री-पुरुष के इस मूलभूत युग्म के लिए हमारे पास एक बहुत सुंदर प्रतीक है ‘अर्द्धनारीश्वर’. दिनकर की मान्यता है कि “अर्द्धनारीश्वर केवल इस बात का प्रतीक नहीं है कि नारी और नर जब तक अलग हैं, तब तक दोनों अधूरे हैं, बल्कि इस बात का भी द्योतक है जिसमें नारीत्व अर्थात संवेदना नहीं है, वह पुरुष अधूरा है. जिस नारी में पुरुषत्व अर्थात अन्याय के विरुद्ध लड़ने का साहस नहीं है, वह भी अपूर्ण है.” अभिप्राय यह है कि भले ही हम पुरुष हों या स्त्री, दरअसल हम संवेदना के स्तर पर स्त्री और पुरुष का युग्म ही होते हैं – इस युग्मता में ही हमारे अस्तित्व की पूर्णता है.

यहाँ एक और बात ध्यान खींचती है. यह नहीं कहा जाता कि शिव के बिना शक्ति अधूरी है, बल्कि यही कहा जाता है कि शक्ति के बिना शिव अपूर्ण है. अर्थात कहीं न कहीं हमारी परंपरा स्त्री को पूर्ण मानती है – और पूर्ण करने वाली भी. इस परंपरा में स्त्री ‘पर-निर्भर’ और ‘अबला’ नहीं थी. भारतीय परंपरा के अनुसार वह पुरुष के मनोरंजन की वस्तु भी नहीं है. स्त्री भी पुरुष के समान पूर्ण है. उसकी रचना किसी आदिपुरुष के मनोरंजन के लिए नहीं की गई बल्कि वह भी पुरुष के साथ ही अस्तित्व में आई और सृष्टि के लिए उतनी ही अहम है जितना पुरुष. इसीलिए अर्धनारीश्वर का मिथक हमारी संस्कृति का सबसे मनोरम मिथक है. इस मिथक का अत्यंत सटीक और सामयिक प्रयोग विष्णु प्रभाकर ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ में किया है और यह दर्शाया है कि स्त्री-पुरुष संबंधी विसंगतियों का निदान है ‘अर्द्धनारीश्वर’. विष्णु प्रभाकर यह कहते हैं कि “नारी की स्वतंत्र सत्ता का, नारी की सैक्स-इमेज से कोई संबंध नहीं है. उसका अर्थ है समान अधिकार, समान दायित्व, एक स्वस्थ समाज के निर्माण के दोनों समान रूप से भागीदार हैं. अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक इस कल्पना का साकार रूप है, एक-दूसरे से विसर्जित नहीं, एक-दूसरे से स्वतंत्र, फिर भी जुड़े हुए. आगे वे यह भी कहते हैं कि नारी को बस नारी बनना है, सुंदरी और कामिनी नहीं.”

हमारी आज की यह चिंता भी विष्णु प्रभाकर की चिंता है कि वर्ण-व्यवस्था और उसके अंतर्गत फलती-फूलती जाति व्यवस्था ने आज समाज को खोखला बना दिया है. पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री की स्थिति सोचनीय बन गई. आज वह न ही घर में सुरक्षित है, न ही बाहर. “एक ओर नारियों को परेशान करने वाले असामाजिक तत्वों के विरुद्ध क़ानून बनाकर जनता से एक जागरूक और प्रगतिशील संस्कार होने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करते हैं; दूसरी ओर, दूषित साहित्य, कामुक फिल्म और फूहड़ विज्ञापनों के माध्यम से जनमत की कोमल वृत्तियों को उत्तेजित करके उन्हें नारियों के प्रति अपराध करने को उकसाते हैं.” कहना न होगा कि यह एक तरह से भोगवादी दृष्टि है जो पश्चिमी सभ्यता का परिणाम है. इसके कारण पुरुष स्त्री को एक खिलौना व मनोरंजन की वस्तु के रूप में देख रहा है. वास्तव में जो पुरुष सुविधाभोगी होता है वह कायर होता है. इस कायरता के कारण ही वह स्त्री की गरिमा को नकारता है और स्त्री के प्रति प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से हिंसक हो उठता है. हीनताग्रंथि से ग्रस्त तथाकथित आधुनिक पुरुष समाज के हाथों स्त्री की गरिमा के प्रतिदिन तार-तार होने का यह एक बड़ा कारण है.

‘मनुस्मृति’ में कहा गया है कि स्त्री की बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में क्रमशः पिता, पति और पुत्र रक्षा करते हैं, अर्थात वह अधीन रहती है और उसे अधीन ही बने रहना चाहिए, चूंकि वह कभी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है. यों तो विद्वान लोग इस वचन की अनेक उदारतावादी व्याख्याएं कर सकते हैं,लेकिन यह सच है कि ऐसे ही वचनों के सहारे स्त्री की स्वतंत्रता को पूरी तरह से पुरुष ने अपने हक में कर लिया और स्त्री को भी इस तरह ट्यून किया कि वह भी वही करती है जो पुरुष चाहता है. ‘युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिए नहीं, सहनशक्ति के लिए दंड देता आ रहा है.’ (महादेवी वर्मा, शृंखला की कड़ियाँ). विष्णु प्रभाकर भी अपने उपन्यास में यही दर्शाते है कि "जो समाज युगों से मातृशक्ति को शीर्षस्थ स्थान पर बैठा कर और शाब्दिक पूजा करके भी अपमानित करता आया है, शब्द को महिमामंडित करने में उसने ज़रा भी कृपणता नहीं की है. परंतु अर्थ की दुनिया में उसने पत्नी को पति-परमेश्वर की संपत्ति ही माना है, धरती है वह. इसलिए अन्नपूर्णा होकर भी निष्प्राण-निष्पंद है. उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है. पुरुष के पापों का दंड उसने भोगा है, पर उसे दंडित करने का अधिकार उसे कभी नहीं मिला.” सभ्यता के जिस सामंती दौर में स्त्री इस तरह मानवी से संपत्ति बन् गई उसे सबसे अंधा दौर कहा जाना चाहिए!

स्त्री केवल पुरुष की सहभागिनी, सहधर्मिणी तथा छाया मात्र बनकर नहीं रहना चाहती है. वह स्वतंत्रता चाहती है. वह आत्मनिर्भर बनना चाहती है. निर्णय लेने, चुनाव करने, वरण करने का अधिकार चाहती है. वह यह नहीं चाहती कि देवी के रूप में उसकी पूजा की जाए, बल्कि वह यही अपेक्षा करती है कि पुरुषसत्तात्मक समाज मानवी के रूप में उसे देखे और उसके अस्तित्व को सुरक्षित रखे. देवी बनाकर भी हमने औरत से त्याग की ही माँग की और कहा कि चूंकि वह पति और परिवार के सुख के लिए अपने सुख का त्याग करती है अतः पूजनीय है. इस तरह पूजनीय बनाकर उसके निजत्व को नष्ट करने वाली व्यवस्था महान होते हुए भी स्त्रीत्ववादी दृष्टि से तो स्त्रीविरोधी और अमानवीय ही मानी जाएगी. महादेवी इस पर वुयांग्य करते हुए कहती हैं कि “पुरुष के विचार में नारी मानव नहीं है, देवी है और देवताओं को मनुष्य के लिए आवश्यक सुविधाओं का करना ही क्या है! नारी के देवत्व की कैसी सी विडंबना है!”

आज तो समाज में स्त्री की कोई गरिमा नहीं है. आए दिन नन्हीं बच्चियों से लेकर बुजर्ग महिलाओं तक हो रहे अपहरण, बलात्कार, कन्याभ्रूण हत्या जैसे दुष्कांड समाज की घोर अनैतिकता के प्रतीक हैं.पर यही समाज दिन रात मर्यादा और नैतिकता के ढोल पीटता नहीं थकता. संवेदनशील स्त्री अपने इस जीवन से परेशान है, वह इससे छुटकारा चाहती है. इस संदर्भ में पुनः विष्णु प्रभाकर का कथन उल्लेखनीय है. वे कहते हैं कि “इन दोहरे मूल्यों का परिहार तभी किया जा सकता है जब नारी की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार किया जाय. तब इस प्रकार की घटनाएँ नहीं घटेंगी क्योंकि उनके लिए कोई कारण ही नहीं रहेगा. नर-नारी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार स्वतंत्र रूप से आचरण करेंगे. वे यह भी ध्यान दिलाते हैं कि असंयम निश्चय ही घातक है, पर अतिसंयम नितांत अप्राकृतिक है. आदिवासी समाज में ‘बलात्कार’ शब्द ही नहीं है क्योंकि उन्होंने अपना सामाजिक जीवन इस प्रकार व्यवस्थित किया है कि उसकी संभावना ही नहीं रहती.

स्त्री जब तक अपने आपको सशक्त नहीं बनाएगी तब तक इस दासता से मुक्ति संभव नहीं है. इसके लिए उसे खुद यह समझना अनिवार्य है कि स्त्री-पुरुष एक दूसरे के विरोधी तत्व नहीं है बल्कि इस सृष्टि के निर्माण में दोनों एक-दूसरे के पूरक है. दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं. यह आश्रयता पराधीनता नहीं है बल्कि सिद्धि है. सार्थकता है. “नारी जब अपनी स्वतंत्र सत्ता के रूप में अपनी शक्ति और सामर्थ्य के साथ पुरुष के बराबर आकर खड़ी होगी तब समाज का बल अनंत गुणा बढ़ जाएगा. दो परिणत स्वाधीन सत्ताओं का मिलन एक-दूसरे की सिद्धि और सार्थकता को तेज गति प्रदान करेगा.”

अगर थोड़ा पीछे जाकर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज जो स्थिति स्त्री की है वह पुराने जमाने में नहीं थी. उस जमाने में स्त्री गरिमामय थी. राम, कृष्ण और शिव भारतीय समाज में संबंधों के ऐसे प्रतीक हैं जो सामाजिक जीवन शैली को नियंत्रित करने में सहायक हैं. पूरे विश्व में कृष्ण जैसा दूसरा व्यक्तित्व नहीं मिलता जिसने नैतिकता के विकृत रूप पर प्रहार किया और सही अर्थों में जो नारी का सखा है, इसीलिए डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘मैं समझता हूँ नारी कहीं अगर नर के बराबर हुई है तो बृज में और कान्हा के पास’.” नैतिकता की अवधारणा को व्यक्त करने के उद्देश्य से विष्णु प्रभाकर ने ‘अर्द्धनारीश्वर’ के एक स्त्री पात्र के माध्यम से मार्मिक चोट की है उस समाज पर जिसने स्त्री को केवल भोग्या माना है - “’’मैं इसमें इतना और जोड़ सकती हूँ कि पाँच पांडवों की पत्नी द्रौपदी भी कृष्ण की सखी है, उसका चीर वही तो बढ़ाता है. मैं पूछती हूँ कि किसी ने समझा है इस प्रतीक का अर्थ? समझा होता तो क्यों होतीं वधू-दहन और बलात्कार की असंख्य जघन्य घटनाएँ इस देश में?”’’

पुरुष समाज यह कहता थकता नहीं कि ‘स्त्री कभी मुक्त नहीं हो सकती.’ वह कभी कभी यह कहकर भी स्त्री को निराश करता रहता है कि ‘मुक्ति बाहर वालों से ही नहीं, अपने अंतरमन से भी पानी होती है.’ ऐसे कहने वालों के समक्ष विष्णु प्रभाकर ने भारतीय वाङ्मय में समग्रता की खोज करते हुए उदाहरण दिए हैं – “राम की मर्यादा से कृष्ण की लीला तक की यात्रा मनुष्य की शब्द से अर्थ तक की यात्रा है. सत्य की खोज की जननी यात्रा है. सत्य तो ‘नेति नेति’ है. निरंतर यात्रा करता है. सत्य की इस विकास यात्रा से ही सारा वाङ्मय, सारा विज्ञान, सारी संस्कृति विकसित हुई है. इसलिए हर युग में कविता के छंद वाल्मीकि से व्यास तक और जीवन के छंद राम से कृष्ण तक निरंतर यात्रा करते हैं. राम शब्दों की यानी नियमों की कारा में बंद है. क्योंकि विकसित होते समाज में उसकी जरूरत होती है. यही नैतिकता है, लेकिन शब्द जब अर्थ खोकर जड़ हो रहते हैं तब कृष्ण आकर शब्दों की कारा से यानी जड़ नैतिकता से मुक्ति का संदेश देते हैं.”. अब समय आ गया है कि भारतीय समाज जड़ नैतिकता से मुक्त हो और स्त्री को उसकी मानवीय गरिमा तथा स्त्रीत्व का सम्मान बहाल करे ताकि स्त्री-जीव होना अधमता न माना जाए वरना न तो भ्रूण हत्याएं थमेंगी, न बलात्कार – क्योंकि ये तमाम स्त्रीविरोधी अपराध इसीलिए विद्यमान हैं कि हम सच्चे हृदय से स्त्री और स्त्रीत्व का सम्मान नहीं करते.

इसे शुभ लक्षण माना जाना चाहिए कि आज समाज भी जाग रहा है और स्त्री भी अपनी चिर निद्रा से जाग चुकी है. वह अपने अधिकारों के प्रति सजग हो उठी है. शिक्षा ने उसे आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाया है. वह आज यह सवाल कर रही है कि “हमें अपने युग की आचार संहिता, अपने युग की स्मृति बनाने का अधिकार क्यों न मिले? ऐसी स्मृति जिसमें नारी की स्वतंत्र सत्ता हो. मनुष्य-मनुष्य में सामाजिक स्तर पर कोई भेद-विभेद न हो. दलित कोई न हो. नर नर हो– नारी नारी.”

स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं. इनमें से कोई उच्च या कोई निम्न नहीं है. दोनों का अस्तित्व बराबर है. दोनों ही इंसान हैं. इस तथ्य को समझने के लिए पहले हमारे भीतर निहित अहं को समाप्त करना होगा. इस संबंध में विष्णु प्रभाकर का कथन द्रष्टव्य है – ‘“बस ‘मैं’ को मारना है. यानी ‘स्वयं’ को ‘स्व’ से मुक्त करना है आदमी बनना है.’ ” भले ही भारतीय संस्कृति विरोधाभासों से आप्लावित हो उसे स्त्रीत्व की गरिमा को, उसकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करके पुष्ट किया जा सकता है. “प्रश्नाकुलता, चिरंतन खोज के आधार पर आज एक नई स्मृति, एक नई संहिता की आवश्यकता है.

यह सब महज कागज़ी बातें होने से काम नहीं चलेगा. भाषण झाड़ने से कोई फायदा नहीं होगा. अगर समाज में स्त्री को गरिमामय स्थान प्राप्त होना है तो ऑपेरेशन करके स्त्रीविरोधी सड़े-गले विचारों को काट फेंकना होगा. “कलम की नोक से कागज़ पर कुछ भी लिखा जा सकता है. आवश्यकता है हमारी मज्जा में पैबस्त हुए विचारों को ऑपरेशन करके निकाल फेंकने की, मन के पटल पर खिंचे दायरों को मिटाने की, लेकिन हर समाज शक्ति की भाषा समझता है. शक्ति तलवार में नहीं, विचारों में होती है. अतः वैचारिकता में मूलगामी बदलाव लाने के लिए सभी स्तरों पर प्रयास ज़रूरी है ताकि पुरुषवर्चस्व के टूटने को सहजता से स्वीकार करके समाज स्त्री का सम्मान लौटा सके.

स्मरण रहे कि अतीत हमारी शक्ति है पर वह हमारा आदर्श नहीं हो सकता, हमारे वर्त्तमान और भविष्य पर आरोपित नहीं हो सकता. अतीत से शक्ति वैसे ही मिलती है जैसे वृक्ष को जड़ों से, लेकिन जड़ कभी ऊपर नहीं फैलती; ताल में रहकर ही वह वृक्ष को पुष्पित, पल्लवित करती है. जड़ ही तो बीज है और बीज के भीतर ही कोंपल फूटती है, तभी वह धन्य होता है.” विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि “हमारा सामाजिक ढांचा युगों पूर्व बनी स्मृतियों और संहिताओं पर आधारित है. हिंदू समाज में, जो प्राचीन काल में आर्य या भारतीय समाज था, चौथी या छठी शताब्दी के बाद कोई नई स्मृति नहीं बनी. जैन समाज बहुत प्राचीन है, पर उनकी ऐसी कोई स्मृति नहीं . बौद्धों में भी अपनी कोई विशेष परंपरा नहीं है. ईसाई, मुसलमान – इन अल्पसंख्यक समाजों की अपनी परम्परा है, वही भी दो हजार – डेढ़ हजार वर्ष पुरानी है. आदिवासियों के अपने अलिखित क़ानून हैं. सिख, ब्रह्म समाज, आर्य समाज आधुनिक भारत की देन हैं, लेकिन इनके विधि-विधान में विशेष नया नहीं है. अब जब हम सब सुगठित समाज के रूप में जीना चाहते हैं तो हमें आधुनिक मानव मूल्यों पर आधारित एक सांझी सामाजिक संहिता की रचना करनी होगी.”

अंततः विष्णु प्रभाकर अर्धनारीश्वर को एक और अर्थ देते है. वह यह कि भारत में स्त्री न्याय चाहती है लेकिन पुरुष से मुक्ति नहीं. आज उसमें यह कहने का साहस आ गया है कि “बलात्कार से सतीत्व नष्ट होता हो तो हो, पर नारीत्व नष्ट नहीं होता. और नारी के लिए नारीत्व सर्वोपरि है.” स्त्री-गरिमा और स्त्री-मुक्ति का यह अर्थ कदापि नहीं कि स्त्री अपनी कोमल भावनाओं को छोड़ दे. स्त्री, स्त्री भी रहे, अपनी संवेदनाओं और सुकोमलता को बरकरार रखे और साथ ही मनुष्य भी बने. उसे शिकार न होना पड़े. वह अपमानित महसूस न करे. आज वह कह रही है, “मैं वही हूँ. वही रहूँगी जो शंकर के अर्द्धनारीश्वर के रूप में कल्पित की गई है.”

सोमवार, 4 मार्च 2013

सामान्य साहित्य

[प्रो. ऋषभ देव शर्मा के कक्षा-व्याख्यान पर आधारित ]

तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन करते समय तीन परस्पर निकटस्थ अवधारणाओं से टकराना पड़ता है. ये हैं – राष्ट्रीय साहित्य (National Literature), विश्व साहित्य (World Literature) और सामान्य साहित्य (General Literature). प्रो. इंद्रनाथ चौधुरी ने ‘तुलनात्मक साहित्य की भूमिका’ में इन अवधारणाओं को स्पष्ट करते हुए तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के संबंध पर सम्यक प्रकाश डाला है. 

साधारण रूप से सामान्य साहित का अर्थ हम किसी भी साहित्य के प्रचलित स्वरूप से लगा सकते हैं. परंतु यहाँ यह एक पारिभाषिक पद के रूप में व्यवहृत है जिसकी अलग अलग विद्वानों ने अलग अलग परिभाषाएँ दी हैं. जैसे – सामान्य साहित्य का प्रारंभिक अर्थ था काव्यशास्त्र या साहित्य सिद्धांत का अध्ययन. जेम्स मांटुगमरी ने 1833 में सामान्य साहित्य पर भाषण देते हुए इसके अंतर्गत काव्यशास्त्र अथवा सामान्य सिद्धांत पर ही चर्चा की थी. इसे प्रकार इरविन कोपेन ने तो स्पष्ट कहा है की सामान्य साहित्य मूलतः साहित्य सिद्धांत ही है. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए हार्स्ट फ्रेंज़ ने कहा ही कि सामान्य साहित्य से तात्पर्य है साहित्यिक प्रवृत्तियों, समस्याओं एवं सिद्धांतों का सामान्य अध्ययन अथवा सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन. यहाँ यह बात स्मरणीय है कि तुलनात्मक साहित्य भी साहित्य सिद्धांत अथवा काव्यशास्त्र का भी अध्ययन करता है. मगर उसके अध्ययन की पद्धति तुलनात्मक होती है जबकि सामान्य साहित्य इस प्रकार की किसी पद्धति का निर्धारण नहीं करता. 

दरअसल सामान्य साहित्य पद का प्रयोग कुछ पाठ्यक्रमों में परस्पर अंतर को दर्शाने के लिए किया जाता रहा है. जैसे कि अमेरिका में सामान्य साहित्य उन विदेशी साहित्य के पाठ्यक्रमों या प्रकाशनों के लिए किया जाता है जो या तो अंग्रेज़ी अनुवादों में उपलब्ध हैं या राष्ट्रीय साहित्य के पाठ्यक्रमों के अंतर्गत स्वतंत्र अध्ययन के विषय हैं. कभी कभी अनेक साहित्यों की कृतियों के संग्रह, आलोचनात्मक अध्ययन या विवरण को भी इस वर्ग में स्थान दिया जाता है. परंतु लगभग ऐसी ही विषयों के लिए अलग अलग संदर्भों में तुलनात्मक साहित्य और विश्व साहित्य जैसे नामकरण भी कम में लिए जाते हैं. अतः कहना होगा कि सामान्य साहित्य की अवधारणा बहुत स्पष्ट नहीं है. रेनेवेलक ने भी इसे अयुक्तियुक्त और अव्यावहारिक माना है. वान्टिग्हेम ने तुलनात्मक और सामान्य साहित्य का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा है कि तुलनात्मक साहित्य दो साहित्यों के आपसी संबंधों के अध्ययन तक सीमित है जबकि सामान्य साहित्य का संबंध उन आंदोलनों और फैशनों से है जो अनेक साहित्यों में विद्यमान दिखाई देते हैं. इसमें संदेह नहीं कि यह अंतर भी बहुत सूक्ष्म अंतर है और इन दोनों प्रकार के साहित्यों की सीमाएँ एक-दूसरे पर अपनी छाया अवश्य डालती हैं. 

अनतः क्रेग के निम्नलिखित मत को यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा कि – 

“राष्ट्रीय साहित्य की चारदीवारी के भीतर जो अध्ययन है वह राष्ट्रीय साहित्य है और इस चारदीवारी के परे साहित्य का अध्ययन तुलनात्म साहित्य है तथा दीवारों के ऊपर जो साहित्यिक अध्ययन है वह सामान्य साहित्य है.” 

जैसा कि प्रो.चौधुरी ने कहा है कि पता नहीं इस प्रकार के सीमा निर्धारण से इनमें अंतर निश्चित होता पाता है या नहीं परंतु इनके पारस्परिक संबंध अपने आप में बहुत स्पष्ट है. 

द्रष्टव्य - इंद्रनाथ चौधरी, तुलनात्मक साहित्य की भूमिका, पृ. 23-26