शनिवार, 27 अप्रैल 2013

कोलाहल


चिडियाँ चहक रही हैं
बगियाँ महक रही हैं.
बच्चियों की हँसी से
खिलखिला रहा है आँगन
खुशी से घर की आँखें थिरक उठी हैं.

तपिश


तप रहा है बदन
तप रहा है मन
युग युगों से
तुम्हारी कैद में
सोने के पंजरे में

बुना तो था प्यार का घोंसला
बन गया जाने कब
बिना दरवाजों का अंधेरा तलवार.

रिश्ते कफन बन गए
घर चिता.

मैं झुलसती रही
इस आग में.

नचाते रहे तुम
नाचती रही मैं.
कभी चाभी के सहारे
कभी चाबुक के साहरे.

बस हो गया
अब नहीं नाचूँगी

मेरी चाभी मुझे दे दो
रोक दो अब तो चाबुक

चाहती हूँ मैं
'मैं' बनकर जिऊँ
सदियों तक. 

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

खबरदार !

तुम रक्षक हो या भक्षक?
मासूमों की चीख सुनकर भी
तुम्हारे कान नहीं खुलते!

कब तक बहलाओगे
झूठी कहानियों से?

शिकारी को छोड़कर
शिकार को लूट रहे हो!
इन्साफ माँगने वालों को सजा दे रहे हो!!

खबरदार! सारे शिकार एकजुट हो रहे हैं,
तुम्हारे खिलाफ बगावत तय है!

रविवार, 21 अप्रैल 2013

खतरे में बेटियाँ


भीगी भीगी ठंडी शब्दहीन चीख
पर उसने तो वीभत्स हँसी हँसकर अट्टहास किया.

मैं तो बस छोटी-सी गुड़िया हूँ
गुड्डे-गुड़ियों से खेलती हूँ.
उस दिन भी मैंने खेलने के लिए ही तो
खुशी खुशी घर की दहलीज पार की थी.
पर मुझे क्या पता
कि दरिंदा मुझे वहीं से उठाकर ले जाएगा
मुझे नोच-नोचकर खसोट-खसोटकर खा जाएगा

मुझे तो उसने मार डाला ही
मेरे माँ-बाप को ज़िंदा लाश बना दिया.

वे सड़क पर चलते हैं
पीछे से कोई पदचाप सुनाई दे तो घबरा जाते हैं
डर के मारे पसीने पसीने हो जाते हैं
होंठ दबाकर चीख को रोक लेते हैं.

जब कभी किसी नन्ही गुड़िया को देखते हैं
तो बस चीख उठते हैं -
‘गुड़िया घर से बाहर न जा
यह समाज तेरे लिए नहीं बना है
बाहर न जा
तुम्हें नोचकर खाने के लिए गिद्ध इंतजार कर रहा है
तू बाहर न जा’.

यहाँ भी देखा जा सकता है 
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in/2014_04_01_archive.html