शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

‘गुलमोहर’ : कालिमा पर लालिमा की विजय

(13 जुलाई 2014 को ‘गुलमोहर’ के
लोकार्पण के अवसर पर )
पुस्तक ‘गुलमोहर’ की लेखिका श्रीमती शांति अग्रवाल को हार्दिक बधाई देती हूँ. शांति अग्रवाल जी से मेरी मुलाकात छह वर्ष पूर्व कादंबिनी क्लब की एक मासिक गोष्ठी में हुई थी. जब कभी मौक़ा निकालकर कादंबिनी क्लब की गोष्ठी में जाती हूँ तो वहाँ शांति अग्रवाल जी से मुलाकात तो हो ही जाती है पर वार्तालाप न के बराबर. बस एक हल्की सी मुस्कान और अभिवादन. शायद इससे ज्यादा कुछ नहीं. गोष्ठियों के कारण ही मैं उनकी कहानी कला से परिचित हूँ.

आदरणीया डॉ. अहिल्या मिश्र जी ने जब फोन पर कहा कि शांति अग्रवाल की पुस्तक ‘गुलमोहर’ का लोकार्पण इस समारोह के अवसर पर हो रहा है और मुझे पुस्तक का परिचय देना है तो मैं मना नहीं कर पाई. उन्होंने स्वयं इस पुस्तक को मुझ तक पहुँचाया. 

यह पुस्तक 2010 के ‘साहित्य गरिमा पुरस्कार’ से पुरस्कृत है. गीता प्रकाशन, हैदराबाद से प्रकाशित इस कहानी संग्रह में कुल 21 कहानियाँ हैं. इन कहानियों में पग पग पर जीवनानुभूति, कहानीकार की भावुकता और संवेदनाएँ प्रकट हो रही हैं. 

इस कहानी संग्रह में संकलित पहली कहानी ‘मदर डे’ ने मुझे उस बच्चे के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया जिसने एक ‘सेरोगेट मदर’ की कोख से जन्म लिया है. पहले किसी अनाथ आश्रम से या फिर किसी रिश्तेदार से बच्चे को गोद लिया जाता था. अब एक कदम आगे बढ़कर लोग ‘सेरोगेट मदर’ के माध्यम से बच्चे को अपना रहे हैं. किसी स्त्री से सौदा कर लिया जाता है और बच्चे के जन्म के बाद उसे वापस अपनी दुनिया में छोड़ दिया जाता है. लेकिन उस माँ पर क्या बीतती होगी जिसने नौ महीने उस बच्चे को अपनी कोख में पाला-पोसा. और उस बच्चे की मानसिक स्थिति क्या होगी जिसे हर वक्त ‘किराए की कोख का जना’ कहकर दुत्कारा जाता है. इस कहानी को पढ़ते समय मुझे सलमान खान, रानी मुखर्जी और प्रीति जिंटा की फिल्म ‘चोरी चोरी चुपके चुपके’ (2001) की याद आती रही जो विक्टर बेनर्जी, शर्मिला टैगोर और शबाना आज़मी की फिल्म ‘दूसरी दुल्हन’ (1983) का रीमेक थी. निस्संदेह, इस कहानी के माध्यम से शांति अग्रवाल जी ने हमारे समय की एक ज्वलंत भावनात्मक समस्या को उजागर किया है. इस कहानी में पूरा परिवार इस बात से अवगत है. तनु उस बच्चे को स्वीकार नहीं कर पाती और हर वक्त उसे ‘किराए की कोख का जना’ कहकर डाँटती-फटकारती रहती. आठ साल तक राहुल माँ की ममता से वंचित रहता है. जब तनु उस पर चोरी का इल्जाम लगाती है तो वह और भी विचलित हो जाता है. उसकी मानसिक स्थिति से परेशान कमला रानी राहुल को उसकी सगी माँ महिमा के पास ले जाती है और उसे सौंपते हुए कहती है – ‘आज ‘मदर डे’ के दिन एक दूसरे के लिए इससे और उत्तम उपहार कोई हो ही नहीं सकता था.’

इस काहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘गुलमोहर’ में लेखिका ने ‘मैं’ शैली को अपनाया है. मौली अपने हाथों से गुलमोहर का पेड़ लगाती है. पति की मृत्यु के बाद वह उस पेड़ से अपना दुःख-दर्द बाँटती रहती है. वह अपने अतीत से बाहर नहीं आना चाहती. लेकिन रोड वाइडेनिंग में उसका वह गुलमोहर बगिया के बाहर हो जाता है जिसके साथ उसका अतीत जुड़ा हुआ है. वह परेशान हो उठती है. एक दिन उसके पिता जी एक ऐसी बच्ची को घर ले आते हैं जिसके माँ-बाप दोनों एड्स से ग्रस्त होकर इस दुनिया से जा चुके हैं. मौली पहले उस बच्ची से दूर ही रहती है पर धीरे धीरे उसकी मासूमियत से बंधकर वह उसे अपनाने को मजबूर हो जाती है. वह उस बच्ची (गुलाबी) को माँ बनकर अपना लेती है. कहानी के अंत में लेखिका की टिप्पणी देखें – ‘उधर गुलमोहर बाहर चला गया. बगिया की नई दीवार खड़ी हो गई. मौली को अब अपने गुलमोहर का गम नहीं था. एक नया गुलमोहर उसकी गोद में था. उसे बड़ा करना था. *** अपनी गोद में गुलमोहर को पाकर मौली महक उठी.’ ममता को केंद्रीय विषय बनाकर शांति अग्रवाल ने कई कहानियाँ लिखी हैं जैसे चाची, ममता की पीड़ा, अम्मा, स्नेह स्पर्श आदि. साथ ही इनकी कहानियों में जातिगत भेद भाव का विरोध भी है. इसे ‘मंदिर के फूल’ नामक कहानी में देखा जा सकता है. इस कहानी में मोहन और ज़ाकिर दोनों अच्छे दोस्त हैं. मंदिर के पुजारी उन्हें हर रोज चरणामृत और पुष्प देते थे. ज़ाकिर के बीमार पड़ने पर पुजारी जी स्वयं उसके घर जाकर उसे पुष्प दे आते थे. टपोरी इस बात को उल्टा घुमाकर मोहल्ले में इस तरह फैलाता है कि पुजारी ज़ाकिर की माँ से मिलने जा रहा है. बस और क्या हिंदू-मुस्लिम समुदयों के बीच झगड़ा शुरू हो जाता है. मारपीट में घायल पुजारी का देहांत हो जाता है. ज़ाकिर को बुरा लगता है. मोहन और ज़ाकिर के परिवार वाले मिलकर पुजारी का अंतिम संस्कार करते हैं. यहाँ लेखिका लिखती हैं ‘पंडित जी के ‘मंदिर के फूल’ जात-पांत से दूर और भी गहरी मित्रता के बंधन में बंध गए.’ 

शांति अग्रवाल जी की कहानियों का केंद्रीय स्वर पारिवारिकता और मनुष्यता का स्वर है. वे मानवतावादी कहानीकार हैं. ‘रजनीगंधा’ में उन्होंने विवाह संस्था को स्त्री शोषण से मुक्त करने की बात उठाई है तो ‘कन्यादान’ में बदनाम गली की दलाल होते हुए भी एक स्त्री की ममता और बहनापे का चित्रण अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है. ‘मुंडेर पर की गिलहरी जीव’ दया का संदेश देती है जिसे पर्यावरण विमर्श के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है. ‘अधूरा प्रयाश्चित’ में पारिवारिक संबंधों में संदेह का घुन लगने का परिणाम दिखाया गया है तो ‘सति’ में संस्कृति में प्रदर्शन और पाखंड का घुन लगने की परिणति समाज विरोधी, स्त्री विरोधी और मानव विरोधी दुष्कृत्य के रूप में सामने आती है. ‘एक रुपया’ शीर्षक कहानी अवमूल्यन पर आधारित है – पैसे का भी और मनुष्य का भी. 

‘दोषी कौन?’ में भारतीय समाज की उस पुरुषवादी दृष्टि का हिंसक प्रतिकार दिखाया गया है जो स्त्री को केवल वासनापूर्ति का यंत्र समझती है. पुरुष द्वारा संबंधों की गरिमा का हनन स्त्री को चंडी बनने के लिए पहले भी विवश करता रहा और आज भी कर रहा है. ‘कबाड़ होती जिंदगी’ में उपभोक्तावादी युग में जीवन की तुलना में वस्तुओं के अधिक मूल्यवान होने की त्रासदी को सामने लाया गया है तो ‘किट्टी पार्टी’ में नवधनाढ्य वर्ग की स्त्रियों के आचरण की पोल खोली गई है. इसी प्रकार ‘करू कुरू स्वाहा’, ‘अंतिम संस्कार’, ‘मानवता जीवित है’, ‘मेरे अपने’ और ‘सुखिया’ जैसी कहानियाँ भी मानवीय संबंधों की रक्षा के लिए लेखिका की चिंता को प्रकट करती हैं. 

अंत में यही कहना है कि यद्यपि लेखिका की दृष्टि ऐसे आदर्श और बेहतर भविष्य के निर्माण की ओर है जहाँ परिवार और समाज में सबके संबंध मधुर हों. परंतु इसके लिए वे कोई सपनों की दुनिया नहीं रचती, बल्कि अपनी कथावस्तु उसी यथार्थ दुनिया से उठाती है जिसमें ऊँच-नीच है, भेदभाव है, घरेलू हिंसा और स्त्री शोषण है, ईर्ष्या और द्वेष है, जीवन मूल्यों का हनन है और इन सबसे बढ़कर है उदासी, असफलता और मौत. वस्तुतः ये कहानियाँ मृत्यु की कालिमा पर ‘गुलमोहर’ की लालिमा की विजय की कहानियाँ हैं. 



गुलमोहर
शांति अग्रवाल
गीता प्रकाशन, हैदरबाद
2014
पृष्ठ 136
मूल्य - रु.395

रविवार, 13 जुलाई 2014

प्रकृति, लोक और समकाल के बिंबों के कवि : केदारनाथ सिंह



वरिष्ठ हिंदी कवि केदारनाथ सिंह को सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार (2013) से सम्मानित किया जा रहा है. हिंदी साहित्य में उनसे पहले सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, महादेवी वर्मा, श्रीनरेश मेहता, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को यह पुरस्कार मिल चुका है. 

केदारनाथ सिंह का जन्म 7 जुलाई 1932 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के गाँव चकिया में हुआ. 1956 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी) और 1964 में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की. उन्होंने कई कॉलेजों में अध्यापन का कार्य किया और अंत में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए. 

‘तीसरा सप्तक’ के हवाले से यह कहा जा सकता है कि समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह ने व्यवस्थित लेखन 1950 से आरंभ किया. उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं – [कविता संग्रह] अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहाँ से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, तालस्ताय और साइकिल, सृष्टि पर पहरा; [आलोचना] कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार; [संपादन] ताना बाना (आधुनिक कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएँ, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका) आदि. 

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का मानना है कि 'केदारनाथ सिंह की कहानियों में ‘मैं’ की चेतना कवि की कविताओं को आत्मपरक बनाती है. वह मनुष्य की नियति को, उसकी पीड़ा को, समय के दबाव को अपने भोग के स्तर पर निजी बनाकर व्यक्त करता है. आशा, आकांक्षा, प्यास, अतृप्ति, बेचैनी, अकेलेपन की उदासी इस कवि में कहीं बहुत गहरी है.’ (आग की ओर इशारा, समकालीन हिंदी कविता, पृ. 159). इसके अलावा जो चीज केदारनाथ सिंह की कविताओं को विशिष्ट बनाती है, वह है लोक की गंध. उन्होंने ‘तीसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में कहा था – “मानव संस्कृति के विकास में कवि का योग दो प्रकार से होता है – नवीन परिस्थितियों के तल में अंतःसलिला की तरह बहती हुई अननुभूति लय के आविष्कार के रूप में तथा अछूते बिंबों की कलात्मक योजना के रूप में.” कहना न होगा कि उन्होंने अपने काव्य में अपने इस वक्तव्य को चरितार्थ किया है. उनकी कविताओं में प्रकृति अनेक भावों का आलंबन रही है. विशेष रूप से ग्राम्य प्रकृति. वे गाँव से शहर की ओर प्रस्थान करते हैं और फिर शहर से गाँव की ओर, पर कहीं भी उनमें अतीतजीवी ठहराव नहीं दिखाई देता. इनकी कविताओं में गाँव की प्राकृतिक आभा की अनेक छवियाँ दिखाई देती हैं. इस संबंध में उनका मत द्रष्टव्य है- “मैं गाँव का आदमी हूँ और दिल्ली में रहते हुए भी एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता कि मैं गाँव का हूँ. यह गाँव का होना कोई मुहावरा नहीं है, बल्कि इसके विपरीत मेरे जीवन की एक गहरी लगाव भरी वास्तविकता है, जिसे मैं अनेक स्तरों पर जीता हूँ. साल के कम से कम डेढ़-दो महीने मैं गाँव में गुजारता हूँ और वहाँ के सुख-दुःख में हिस्सा लेता हूँ. दरअसल मुझे लगता है कि मेरे भीतर एक सहज किसान के लगाव काम करते हैं और यह अकारण नहीं है कि उससे जुड़े हुए अनेक संकेत शायद मेरी रचना में भी ढूँढ़े जा सकते हैं. इसके साथ ही एक और बात मैं महसूस करता हूँ और वह यह कि हिंदी कविता की अपनी परंपरा शुरू से ही गाँव से जुड़ी रही है. मैं आज की कविता को जब अत्यधिक नागरिक होते देखता हूँ तो मुझे कई बार अपने भीतर एक डर पैदा होता है कि कहीं वह अपना जातीय स्वरूप खो न दे. यह तय है कि आज हम उस तरह गाँव की तरफ लौट नहीं सकते, जैसे मध्ययुग के कवि कर सकते थे. पर यह मुझे बराबर लगता है कि गाँव की चेतना और आधुनिक जीवन की वास्तविकता के बीच एक संतुलनपूर्ण तनाव समकालीन हिंदी कवि के लिए जरूरी है. मेरी कोशिश उसी दिशा में है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 182). 

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है कि केदारनाथ सिंह की कविताओं में नदी, नाले, फूल, जंगल, तट धूप, सरसों के खेत, धानों के बच्चे, बन, सांध्यतारा, बसंत, फागुनी हवा, पकड़ी के पात, कोयल की कूक, पुरवा-पछुवा हवा, शरद प्रात, हेमंती रात, चिड़िया, घास, फुनगी आदि – बहुरूपी प्रकृति संसार रूपायित मिलेगा. उदाहरण स्वरूप देखें – “आदमी के जनतंत्र में/ घास के सवाल पर/ होनी चाहिए लंबी एक अखंड बहस/ पर जब तक वह न हो/ शुरूआत के तौर पर मैं घोषित करता हूँ/ कि अगले चुनाव में/ मैं घास के पक्ष में/ मतदान करूँगा/ कोई चुने या न चुने/ एक छोटी सी पत्ती का बैनर उठाए हुए/ वह तो हमेशा मैदान में है./ कभी भी.../ कहीं से भी उग आने की/ एक जिद है वह.” (घास, सृष्टि पर पहरा).

कविता और काव्य भाषा के संबंध में केदारनाथ सिंह का मत है कि कविता में स्वतः ही बिंब का निर्माण होता है. इसके कारण पूरी कविता विलक्षण हो जाती है. वह पाठकों को एक क्षण के लिए रुककर सोचने के लिए बाध्य कर देती है. वह इतना विवश कर देती है कि उस पर कोई सतही टिप्पणी न कर सके और न ही कोई अंतिम निर्णय पर पहुँच सके. इस संबंध में वे कहते हैं कि “गद्य से कविता जिन अर्थों में भिन्न होती है, उनमें से एक यह है कि वह पाठ प्रक्रिया के दौरान एक खास तरह की रचनात्मक बाधा उपस्थित करती चलती है. यह रचनात्मक बाधा कविता में जिन तत्वों के जरिए उत्पन्न की जा सकती है, उनमें सबसे प्रमुख है बिंब. बिंब पाठक को रोकता-टोकता चलता है और एक हद तक उसे विवश करता है कि वह रुके और सोचे और समग्र कविता के बारे में तुरत-फुरत कोई फैसला न दे दे. यह रचनात्मक बाधा शायद एक ऐसी कसौटी है जिस पर हम कविता का श्रेणी विभाजन कर सकते हैं. मुक्तिबोध की कविताएँ शायद इस तरह की बाधा सबसे ज्यादा उपस्थित करती हैं और मुक्तिबोध जिन कारणों से बड़े कवि हैं, उनमें यह प्रमुख है. यह अवश्य है कि बिंब अपने आप में कविता का साध्य नहीं है. वह हर हालत में संप्रेषण की एक लंबे समय से आजमाई हुई विधि है, जो आज के कवि के लिए, जिसके निकट भाषा दिनोंदिन अवमूल्यित होती जा रही है, बहुत महत्वपूर्ण है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 182). 

अक्सर साहित्य, आलोचना और कविता आदि की जरूरत को लेकर प्रश्न किया जाता है. इस पर टिप्पणी करते हुए कवि-आलोचक केदारनाथ सिंह कहते हैं कि “कविता की जरूरत है, क्योंकि वह मनुष्य के अस्तित्व की बुनियादी माँगों में से एक है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 185). कवि का मानना है कि कविता विषम परिस्थितियों में भी व्यवस्था की असाधारणता के भीतर से अपना रास्ता निकाल लेगी. वे ठोंक बजाकर कहते हैं कि कविता से अतिरिक्त माँग नहीं की जानी चाहिए. यह खुशफ़हमी भी नहीं पालनी चाहिए कि कविता क्रांति लाएगी; हाँ, क्रांति के लिए वातावरण अवश्य बना सकती है. वे कहते हैं कि “बेहतर होगा कि हम कविता से वही माँग करें, जो वह दे सकती है. मेरी मान्यता है, एक अच्छी कविता क्रांति के उपयुक्त वातावरण बनाने में सैकड़ों राजनैतिक प्रस्तावों से कहीं ज्यादा काम करती है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 186).

भाषा के बारे में केदारनाथ सिंह कहते हैं – “बिना कहे भी जानती है मेरी जिह्वा/ कि उसकी पीठ पर भूली हुई चोटों के/ कितने निशान हैं/ कि आती नहीं नींद उसकी कई क्रियाओं को/ रात-रात भर/ दुखते हैं अक्सर कई विशेषण./ कि राज नहीं – भाषा/ भाषा - भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को/ अरबी-तुर्की बांग्‍ला तेलुगु/ यहाँ तक कि एक पत्‍ती के हिलने की आवाज भी/ मैं सब बोलता हूँ जरा-जरा/ जब बोलता हूँ हिंदी.” (हिंदी).

‘देवनागरी’ कविता को ही देखें- “यह मेरे लोगों का उल्लास है/ जो ढल गया है मात्राओं में/ अनुस्वार में उतर आया है कोई कंठावरोध.” (देवनागरी). 

केदारनाथ सिंह बंदिशों के नहीं, स्वतंत्रता के पक्षधर हैं. वे मनुष्य की ही स्वतंत्रता की बात नहीं करते बल्कि प्रकृति की हर चीज की स्वतंत्रता की बात करते हैं – “माटी को हक दो- वह भीजे, सरसे, फूटे, अंखुआए,/ इन मेडों से लेकर उन मेडों तक छाए,/ और कभी न हारे,/ (यदि हारे)/ तब भी उसके माथे पर हिले,/ और हिले,/ और उठती ही जाए-/ यह दूब की पताका-/ नए मानव के लिए!” (हक दो).

डॉ. परमानंद श्रीवास्तव का मानना है कि “केदारनाथ सिंह का काव्यसंसार आज के भारतीय समाज के प्रति गहरी संवेदनात्मक उन्मुखता या लगाव प्रमाणित करने वाला संसार है. इस संसार में पहले की अपेक्षा अधिक सहज यथार्थ दर्शन का साक्ष्य मिलेगा – वह सहजता मिलेगी जो चीजों की तह तक पाठक को ले जाने में अर्थ ग्रहण करती हो और वह आधुनिक ऐतिहासिक विवेक भी मिलेगा जो सामाजिक संघर्ष जैसी वास्तविकता को अधिक स्पष्ट देखने में सक्षम प्रतीत हो. अनुभव और शिल्प की कुछ खास रूढ़ियों में फँसी आज की कविता को नया मोड़ देने की कोशिश में केदारनाथ सिंह जैसे कवि एक बार स्वयं अपनी अब तक की रचना प्रक्रिया का पुनः परीक्षण करते दिखाई देते हैं.” (परमानंद श्रीवास्तव, कविता में संवेदना और विचार की घुलावट, शब्द और मनुष्य, पृ. 145). इसी कोशिश के तहत उन्होंने हिंदी काव्य भाषा को एक नया आयाम प्रदान किया है जिसका एक पक्ष लोकतत्व से चेतना प्राप्त करता है तो दूसरा बिंब विधायिनी नवोन्मेषकारी प्रतिभा से अनुप्राणित दीखता है. शैली की दृष्टि से उनका काव्य अत्यंत अर्थगर्भित होते हुए भी सहज संप्रेष्य है. इस संबंध में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अनागत’ की विवेचना करते हुए प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव द्वारा दिए गए निष्कर्ष को यहाँ उद्धृत समीचीन होगा – “अर्थ संप्रेषण की इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हम निर्जीव ‘अनागत’ को सजीव व्यक्तित्व धारण करते पाते हैं. हम देखते हैं कि व्यक्ति रूप में उसका निवास स्थल कवि व्यक्तित्व का ‘अवचेतन मन’ है जहाँ से ‘कौंधकर’ वह चेतन मन के दर्पण में अपना प्रतिबिंब डालता है और अपनी सत्ता का आभास कवि व्यक्तित्व को देता रहता है. वह न केवल चेतन मन के दर्पण में ‘कौंध’ कर अपने ठोस वस्तुरूप की प्रतिछवि डालता है अपितु ‘चीख’ कर अपने दर्द को अभिव्यक्त रूप देने वाले एक सजीव प्राणी के रूप में उभरता है. वह मानव रूप है अतः पीड़ा की संवेदनात्मक अनुभूति की उसमें क्षमता भी है. कवि व्यक्तित्व के साथ उसके मानवोचित संबंधों की स्थिति उसके जीवंत पक्ष की ओर संकेत देती है और कवि को विवश करती है कि उसकी चीखपूर्ण वाणी की सार्थकता का पता लगाए और उसके तथा अपने बीच के संबंधों की प्रकृति पर निर्णय दे.” (प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, अनागत : शैली का काव्यस्तर, शैलीतत्व : सिद्धांत और व्यवहार, पृ. 169, 1988, (सं) प्रो. दिलीप सिंह). 

वस्तुतः डॉ. केदारनाथ सिंह उन विरले कवियों में से हैं जिन्होंने अभिव्यक्ति के लिए ‘अतिकथन और मितकथन के बीच का रास्ता’ ‘बड़ी चिंता के साथ’ खोजा है. एक ओर वे प्रकृति और लोकसंपृक्ति के सहारे जमीन से जुड़ते हैं तो दूसरी ओर समकालीन जीवन के तनावों को भी बड़बोलेपन से बचकर साक्षी भाव के साथ चित्रित करते हैं. ऐसे कवि के समक्ष अभिधात्मक होने का खतरा सदा विद्यमान रहता है परंतु जैसा कि डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं, बिंब का रास्ता अपनाकर उन्होंने सहज ही इस खतरे से अपनी कविता को बचा लिया है. “वे काव्य विकास के अपने हर दौर में वस्तु के स्तर पर जमीन से जुड़े रहे हैं और विधान के स्तर पर बिंब से. सामान्यतः जमीन की महिमा का बखान करने वाले अधिकतर कवि अभिधा और सपाटबयानी पर आश्रित रहते हैं जैसे नागार्जुन, सुमन या कि आगे चल कर धूमिल. केदारनाथ सिंह का रास्ता इनसे अलग है, जो कवि कर्म की दृष्टि से जितना कठिन है उपलब्धि की दृष्टि से उतना ही सर्जनात्मक.”(रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 242)

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

मैं ऋणी हूँ!

12 जून 2014 को नजीबाबाद में परिलेख हिंदी साधक सम्मान समारोह में उस समय मैं कृतज्ञता और आनंद से भर कर मन ही मन रो दी जब पता चला कि आदरणीय मैडम डॉ. पूर्णिमा शर्मा द्वारा लिखे गए मेरे इस परिचय को पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया है. मैडम! मैं आजीवन आपकी ऋणी रहूँगी. 
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नत नयन, प्रिय कर्मरत मन नीरजा 
-    डॉ. पूर्णिमा शर्मा


डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा 
सहज समर्पण भाव और विनम्रता से हिंदी की मौन सेवा में लगी रहने वाली डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा भाषा और साहित्य से अपेक्षाविहीन प्रेम करती हैं. उन्हें आज तक किसी ने किसी तरह की शिकायत करते नहीं सुना. असुविधाएँ हैं, तो हुआ करें. वे बस अपने कर्म में किसी निष्काम कर्मयोगी की भाँति लगी रहती हैं. ‘नत नयन, प्रिय कर्मरत मन’ – तोड़ती पत्थर! कभी कोई धन्यवाद दे दे तो तरल मुस्कान से चेहरा खिल उठता है. लेकिन ज्यादातर धन्यवाद कोई देता नहीं – लोग काम निकलवाने में तो माहिर होते हैं लेकिन अपनी ओर से आगे बढ़कर सहयोग व सहायता देने वालों को धन्यवाद देना कतई जरूरी नहीं समझते. ऐसा नहीं है कि डॉ. नीरजा लोगों के इस ‘नाशुक्रे’ स्वभाव को नहीं जानतीं लेकिन इसे क्या कहिए कि तमाम तरह के ‘थैंकलेस’ काम करने के अपने स्वभाव को बदलना ही नहीं चाहतीं. तो ऐसी हैं हमारी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा. वे सदा हिंदी के नाम पर हर किसी का सहयोग करने को तत्पर रहती हैं और यही कारण है कि हैदराबाद के हिंदी जगत में – छात्रों, शोधार्थियों, अध्यापकों, पत्रकारों और साहित्यकारों के बीच – वे अच्छी खासी लोकप्रिय हैं. 


डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का जन्म 11 मार्च 1975 को चेन्नै में हुआ. उनकी माताजी का नाम श्रीमती कुसुमा और पिताजी का नाम श्री गुर्रमकोंडा श्रीकांत है. माताजी सुशिक्षित गृहिणी हैं और पिताजी तेलुगु के सम्मानित पत्रकार एवं साहित्यकार. बचपन से ही नीरजा ने माँ से आत्मगोपन और पिता से गंभीरता का संस्कार पाया. उसी काल में उनके मन में कला, साहित्य, संगीत और नृत्य के प्रति प्रेम के बीज रोपे गए. आरंभिक शिक्षा-दीक्षा उन्होंने तमिल और अंग्रेजी माध्यम से प्राप्त की. घर में मातृभाषा तेलुगु का व्यवहार सीखा तथा तीन वर्ष की आयु से ही हिंदी की भी विधिवत शिक्षा प्राप्त की. मैट्रिक के बाद उन्होंने चिकित्सा संबंधी क्षेत्र में जाने का सपना देखा और विज्ञान विषयों की विधिवत पढ़ाई की. इसी बीच उन्हें अपने पिता और परिवार सहित चेन्नै से हैदराबाद आना पड़ा. दरअसल उनके पिता चेन्नै से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सोवियत भूमि’ के तेलुगु संस्करण के संपादक थे जो सोवियत संघ के विघटन के बाद बंद हो गई. श्रीकांत जी सपरिवार हैदराबाद आ गए और कई वर्ष तक आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय नेता-अभिनेता श्री एन.टी. रामाराव के पी.आर.ओ. के रूप में कार्यरत रहे. एन.टी.आर. के निधन के बाद तेलुगु समाचार पत्रों ‘उदयम’ और ‘वार्ता’ में काम किया. कुछ वर्ष वे ‘वार्ता’ समूह द्वारा संचालित पत्रकारिता विद्यालय के प्राचार्य भी रहे. परिवार के इस साहित्य और राजनीति मिश्रित परिवेश को आत्मसात करते हुए डॉ. जी. नीरजा ने 1995 में माइक्रोबायोलॉजी, जेनेटिक्स और केमिस्ट्री विषय लेकर उस्मानिया विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी.एससी. उत्तीर्ण की. इसके बाद मेडिकल लैब टेक्नोलॉजी में पीजी डिप्लोमा भी कर डाला. जैसा कि होना था, इस पाठ्यक्रम के बाद वे एक वर्ष अपोलो अस्पताल में माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत रहीं. अर्थात चिकित्सा संबंधी क्षेत्र में जाने का सपना पूरा हो गया. लेकिन पारिवारिक संस्कार शायद इस सपने से अधिक प्रबल था. भाषा और साहित्य का प्रेम बार-बार जोर मारता था. और एक दिन संस्कार ने सपने को जीत लिया. नीरजा ने वह नौकरी छोड़ दी और हिंदी क्षेत्र में छलांग लगा दी. 



2000 ई. में गुर्रमकोंडा नीरजा ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान से प्रथम श्रेणी में एमए हिंदी की उपाधि अर्जित की तथा स्वर्ण पदक प्राप्त किया. सौभाग्यवश उन्हें प्रो. दिलीप सिंह जैसे भाषावैज्ञानिक और प्रो. ऋषभ देव शर्मा जैसे साहित्य मर्मज्ञ अध्यापकों का अहेतुक स्नेह मिला तथा इन दोनों गुरुजन की प्रेरणा से उन्होंने अनुवाद समीक्षा और अनुवाद तुलना जैसे अछूते क्षेत्र में शोधकार्य का निर्णय लिया. 2001 में उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र : अंग्रेजी अनुवाद की समीक्षा’ पर एमफिल की शोधोपाधि प्राप्त की तथा एक और स्वर्ण पदक अर्जित किया. आगे उन्होंने ‘श्रवणकुमार कृत उपन्यास ‘प्रेत’ : अंग्रेजी अनुवाद का संदर्भ’ विषय पर शोधप्रबंध प्रस्तुत करके 2006 में पीएचडी उपाधि प्राप्त की. अपने इन शोधकार्यों के आधार पर डॉ. जी. नीरजा को बहुभाषाविद अनुवाद समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई. इस अवधि में उन्होंने स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा और पत्रकारिता डिप्लोमा की परीक्षाएँ भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर डालीं.



एमए के बाद से ही गुर्रमकोंडा नीरजा ने कई विद्यालयों में हिंदी अध्यापन का कार्य आरंभ कर दिया था. पीएचडी के बाद 2007 में उन्हें उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के हैदराबाद परिसर में प्राध्यापक के रूप में विधिवत नियुक्ति प्राप्त हो गई. और यहाँ से शुरू हुआ भाषा और साहित्य की सेवा का उनके जीवन का नया अध्याय. उन्होंने अपनी निष्ठा और श्रमशीलता के आधार पर अल्प अवधि में ही छात्रों के मन में अपनी जगह बना ली. उन्हें स्नातकोत्तर कक्षाओं में सामान्य भाषाविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, व्यतिरेकी विश्लेषण, अन्य भाषा शिक्षण, प्रयोजनमूलक हिंदी और समाजभाषाविज्ञान जैसे विषयों की विशेषज्ञ के रूप में जाना जाता है. 



शोध निर्देशक के रूप में भी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय रही हैं. उनके निर्देशन में संपन्न शोधकार्यों की सूची के अवलोकन से यह पता चलता है कि उनका ज्ञान क्षेत्र कितना व्यापक एवं वैविध्यपूर्ण है. उनके द्वारा निर्देशित तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद समीक्षा संबंधी शोधकार्यों में तेलुगु-हिंदी कविताओं में विद्रोही चेतना, विश्वनाथ सत्यनारायण कृत ‘वेयिपडगलु’ का हिंदी अनुवाद ‘सहस्रफण’ : अनुवाद समीक्षा, एन. गोपि कृत तेलुगु काव्य ‘कालान्नि निद्रपोनिव्वनु’ का हिंदी अनुवाद : तुलनात्मक अध्ययन, माधवीकुट्टी कृत मलयालम उपन्यास ‘वंडीकालकल’ का हिंदी अनुवाद, मुदिकोंडा शिवप्रसाद के तेलुगु उपन्यास ‘रेज़िडेंसी’ का हिंदी अनुवाद : अनुवाद समीक्षा एवं अनुवाद मूल्यांकन जैसे शोधकार्य सम्मिलित हैं. इसी प्रकार भाषा संबंधी शोधकार्य के रूप में वाणिज्यिक हिंदी : समस्याएँ और संभावनाएँ (बैंकिंग हिंदी के विशेष संदर्भ में) का उल्लेख किया जा सकता है. मीडिया विमर्श जैसे नए क्षेत्र में शोध कराना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है. डॉ नीरजा ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अलका सरावगी के उपन्यास ‘एक ब्रेक के बाद’ में मीडिया विमर्श, हिंदी ब्लॉगिंग में महिला ब्लॉगरों का योगदान विषयों पर भी शोधकार्य कराए हैं. स्त्री विमर्श डॉ. नीरजा का विशेष रुचि क्षेत्र है जिसका प्रमाण उनके द्वारा निर्देशित महुआ माजी के उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ में स्त्री विमर्श, चंद्रकांता कृत ‘हाशिए की इबारतें’ में स्त्री विमर्श, नीलम कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह ‘हैवेनली हेल’ में स्त्री विमर्श, सिम्मी हर्षिता के उपन्यास ‘जलतरंग’ में स्त्री विमर्श, विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ में स्त्री विमर्श, मनोज सिंह के उपन्यास ‘कशमकश’ में स्त्री विमर्श जैसे शोधप्रबंध बाकायदा देते हैं. इसी प्रकार दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक विमर्श का क्षेत्र भी उन्होंने अछूता नहीं छोड़ा है. इस संदर्भ में उनके द्वारा निर्देशित के.एस. तूफ़ान का दलित विमर्श : ‘टूटते संवाद’ का विशेष संदर्भ, मधुकर सिंह के उपन्यास ‘बाजत अनहद ढोल’ में आदिवासी विमर्श, नई शती के कथा साहित्य में अल्पसंख्यक विमर्श (मुस्लिम समाज के विशेष संदर्भ में) शीर्षक शोधकार्यों का अवलोकन किया जा सकता है. उनके द्वारा निर्देशित अन्य शोधप्रबंधों में श्रीलाल शुक्ल के साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन, पुनर्जागरण के संदर्भ में बालकृष्ण भट्ट कृत ‘निबंधों की दुनिया’ का अनुशीलन, अनंत काबरा के कविता संग्रह ‘पड़ाव पर ठहरे कदम’ में सामाजिक यथार्थ, विश्वनाथ अय्यर के ललित निबंधों में दक्षिण भारत की झलक, रामदरश मिश्र के उपन्यास ‘जल टूटता हुआ’ में आंचलिकता, हरिशंकर परसाई के निबंधों में व्यक्तित्व और वैचारिकता (‘निबंधों की दुनिया’ का विशेष संदर्भ), कमलेश्वर के कहानी संग्रह ‘देस-परदेस’ में चित्रित सामाजिक समस्याएँ, उषा प्रियंवदा के कहानी संग्रह ‘एक कोई दूसरा नहीं’ में वस्तु और शिल्प, क्षमा शर्मा के कहानी संग्रह ‘रास्ता छोड़ो डार्लिंग’ में मध्यवर्ग, श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दराबारी’ में राजनैतिक चेतना, अमरकांत के उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में आधुनिकताबोध, राजेंद्र अवस्थी की कहानियों में आधुनिकताबोध, रामदरश मिश्र की कहानियों में ग्राम चेतना शामिल हैं. 


'परिलेख हिंदी साधक सम्मान' समारोह (12/6/2014) के अवसर पर प्रकाशित  परिचय पुस्तिका का आवरण 


नीरजा को कविताएँ लिखने का शौक छात्र जीवन से रहा. यदाकदा छपती भी रहीं. लकिन जब 2008 में उन्हें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की द्विभाषी (हिंदी-तेलुगु) साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘स्रवंति’ के संपादन का दायित्व मिला, तब से उनके लेखन में नियमितता आई. यही समय था जब उन्होंने गंभीरता से तेलुगु के पुराने-नए साहित्य का अध्ययन आरंभ किया और सहज सरल भाषा शैली में तेलुगु साहित्य तथा साहित्यकारों के संबंध में लिखना आरंभ किया. उनके तेलुगु भाषा-साहित्य विषयक लेखन को ‘स्रवंति’ के साथ साथ उनके ब्लॉग ‘सागरिका’ के माध्यम से पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई. उनके ऐसे लेखों का एक संग्रह ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ शीर्षक से 2012 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ जिसे सुधी पाठकों और विद्वानों का भरपूर स्नेह मिला. शीर्षस्थ तेलुगु कवि प्रो. एन.गोपि ने इस कृति की प्रशंसा करते हुए लिखा कि “तेलुगु भारत में हिंदी के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. अतः तेलुगु में निहित साहित्यिक धरोहर से हिंदी जगत को परिचित कराना अत्यंत आवश्यक है. डॉ. नीरजा केवल विदुषी भर नहीं अपितु समय समय पर अपने आप को अद्यतन रखने वाली आलोचक भी हैं. इसलिए वे स्वाभाविक रूप से इतिहास बोध से भी संपन्न हैं. खास तौर पर समकालीन तेलुगु साहित्य को वे जिस दृष्टि से देख रही हैं, वह निरंतर परिवर्तित होते साहित्य के अनुशीलन का परिचायक है.” इसी प्रकार प्रमुख हिंदी भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह ने भूमिका में कहा कि “गुर्रमकोंडा नीरजा ने तेलुगु साहित्य का परिचयात्मक आकलन अपनी इस पुस्तक में दिया है. लेखिका ने जटिलता भरे विस्तार की जगह उन मुद्दों को उभारने की कोशिश की है जिनसे तेलुगु साहित्य की सामाजिकता अथवा लौकिकता का उद्घाटन हो सके और इसके जरिए तेलुगु साहित्य में मनुष्य और मनुष्यता का जो भाव प्रारंभ से ही अंतर्भुक्त है, उभार पा सके. जी.नीरजा की यह पैनी दृष्टि ही पुस्तक की प्राण-रेखा है.” इस पुस्तक की प्रशंसा करते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने लिखा है कि “पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ में लेखिका डॉ. जी.नीरजा ने तेलुगु के अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों का साहित्यिक परिचय देते हुए जहाँ एक ओर इस बात का खयाल रखा है कि सूचना और विवेचन दोनों का मणिकांचन संयोग हो सके, वहीं यह भी ध्यान रखा है कि इन निबंधों के माध्यम से हिंदीभाषी समाज आंध्र प्रदेश के सामाजिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को भी हृदयंगम कर सके. विषयवस्तु की दृष्टि से यह निबंध संग्रह तेलुगु साहित्य के विविध कालों, विविध विधा प्रकारों, विविध प्रवृत्तियों और विविध साहित्यकारों को समेटे हुए है.” इतना ही नहीं, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. देवराज ने नीरजा की इस पुस्तक की विस्तृत समीक्षा करते हुए ‘संकल्य’ मासिक में लिखा है कि “गुर्रमकोंडा नीरजा की इस पुस्तक में अन्नमाचार्य, कृष्णदेव राय, त्यागराज, वीरेशलिंगम पंतुलु, कशीनाथुनि नागेश्वराराव पंतुलु, गुरजाडा वेंकट अप्पाराव, उन्नव लक्ष्मीनारायण, जनकवि श्री श्री, दिगंबर कवि ज्वालामुखी, त्रिपुरनेनि गोपीचंद, आरुद्रा, डी. कामेश्वरी आदि के साहित्यिक अवदान के बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराई गई है. स्मरणीय है कि भारतीय नवजागरण का सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य वीरेशलिंगम पंतुलु और गुरजाडा अप्पाराव जैसे कालजयी रचनाकारों के कृतित्व को जाने बिना नहीं समझा जा सकता. नीरजा की पुस्तक से पता चलता है कि वीरेशलिंगम पंतुलु आंध्र साहित्य के भारतेंदु हैं. उन्हें गद्य ब्रह्म और गद्य तिक्कना भी कहा जाता है. उन्होंने आंध्र में जाति-विरोध आंदोलन का सूत्रपात किया था. वे लिखती हैं, “तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर वीरेशलिंगम ने जनता को चिर निद्रा से जगाया, चेताया, स्त्री सशक्तीकरण को प्रोत्साहित किया, स्त्री शिक्षा पर बल दिया, बालविवाह का खंडन किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और ज़मींदारी प्रथा का विरोध किया. उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर दिखाई नहीं देता. उन्होंने 11 दिसंबर, 1881 को प्रथम विधवा पुनर्विवाह संपन्न करवाया जिसके कारण उनकी कीर्ति देश-विदेश में फ़ैल गई. वीरेशलिंगम पंतुलु ने अपने एक-सौ तीस ग्रंथों से तेलुगु साहित्य को समृद्ध किया, जिनमें राजशेखर चरित्रमु जैसा मौलिक उपन्यास तथा कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम का तेलुगु रूपांतर शामिल है.” प्रो. देवराज ने आगे लिखा है कि “वर्तमान में भारतीय भाषाओं के साहित्य और भारतीय साहित्य पर नए सिरे से विमर्श की शुरूआत हुई है. इस परिघटना में हिंदी समालोचना से सबसे अधिक सक्रियता की अपेक्षा है. जो समीक्षक हिंदी में हिंदी के इतर भाषाओं और उनके साहित्य पर केंद्रित कार्य करने में समर्थ हैं वे भारतीय साहित्य की परिकल्पना को यथार्थ बनाने में वास्तविक रचना-घटक की भूमिका निभा सकते हैं. इस अभियान में इतनी सावधानी भी ज़रूरी है कि उनके द्वारा प्रतुत सामग्री विश्लेषणपरक और प्रामाणिक हो. उसमें अंतिम निष्कर्ष देने की जल्दबाजी न हो. गुर्रमकोंडा नीरजा भारतीय साहित्य के इस अभियान से जुड़ने को संकल्पबद्ध हुई हैं, उन्हें मेरी शुभकामनाएँ; और उनसे यह अपेक्षा भी कि वे अपने अध्ययन में और अधिक गंभीरता, और अधिक गहराई लाने की कोशिश करेंगी.” 



नीरजा अध्यापक, संपादक, समीक्षक और कवयित्री तो हैं ही, बहुभाषाविद होने के नाते अच्छी अनुवादक भी हैं. उन्होंने हिंदी से तमिल और तेलुगु में तथा अंग्रेजी से हिंदी व हिंदी से अंग्रेजी में काफी साहित्यिक और साहित्येतर पाठों का अनुवाद किया है. तेलुगु के नागार्जुन माने जाने वाले प्रजाकवि पद्मविभूषण डॉ. कालोजी नारायणराव की जन्मशताब्दी पर विशेष रूप से प्रकाशित 100 कविताओं के हिंदी अनुवाद कार्य से वे अनुवादक मंडल के एक सदस्य के रूप में तो संबद्ध रहीं ही, अनुवाद-संपादन का कार्य भी अत्यंत मनोयोग और सफलता से निभाया जिसकी तेलुगु और हिंदी दोनों ही के साहित्यिक हलकों में भूरि भूरि प्रशंसा हुई है. 



परिचयकर्ता  डॉ. पूर्णिमा शर्मा और सम्मानित  डॉ. जी. नीरजा 
हिंदी भाषा और साहित्य की निष्काम सेवा में रत डॉ. नीरजा के काम पर विभिन्न साहित्यिक और शैक्षणिक संस्थाओं का ध्यान जाना स्वाभाविक है. यही कारण है कि उन्हें कई सम्मानों-पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है जिनमें आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी का ‘युवा लेखक पुरस्कार (2012)’ तथा तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी का ‘साहित्य सेवी सम्मान (2014)’ उल्लेखनीय हैं. इतना ही नहीं, 2012 में जब हैदराबाद से भाषा, संस्कृति और विचारों की अंतरराष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘भास्वर भारत’ आरंभ हुई तो उसके संपादक-प्रकाशक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने डॉ. नीरजा को मानद साहयक संपादक के रूप में उसमें शामिल करना आवश्यक समझा. 



कुलमिलाकर यह कहना उचित होगा कि डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा हिंदी और तेलुगु के बीच साहित्यिक सेतुबंध के महान अनुष्ठान में अपना शक्तिभर योगदान करने में सदा निरभिमान हिंदी सेवी की तरह तत्पर रहती है.उनको ''परिलेख हिंदी साधक सम्मान -2014'' से सम्मानित किया जाना उचित ही है. मैं उनके उज्ज्वल भविष्य और समृद्ध जीवन के लिए शुभकामना करती हूँ. 



  डॉ. पूर्णिमा शर्मा, 



208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013, मो. 08125336300