रविवार, 29 मई 2016

मनुष्यता के सजग प्रहरी : रवींद्रनाथ ठाकुर

अरे भाई, 
मिट्टी की ओर लौट, 
वह मिट्टी, जो आँचल फैलाकर 
तेरे मुँह की ओर देख रही है, 
जिसके वक्षस्थल को फोड़कर 
यह प्राणधारा उच्छ्वसित हो रही है, 
जिसकी हँसी से फूल खिले हैं, 
जो संगीत की हर तान पर 
पुकार उठती है. 
वह देखो, 
इस छोर से उस छोर तक 
इस दिगंत से उस दिगंत तक 
उसकी गोद फैली हुई है.
जन्म और मरण 
उसी के हाथ के 
अलक्ष्य सूत्रों में गुँथे हैं. 
उसी के हृदय की 
विगलित वारि-धारा 
आत्मविस्मृत हो 
समुद्र की ओर 
छूटती है 
और 
वहाँ से प्राणों का संदेश
वहन कर लाती है. 
हाँ भाई, 
इस मिट्टी की ओर ही लौट आ!
                          (रवींद्रनाथ ठाकुर) 

मिट्टी की ओर लौटने के लिए आह्वान करने वाले कवि रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ. रवींद्रनाथ ठाकुर का नाम लेते ही भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश के राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बाँग्ला’ के साथ साथ ‘गीतांजलि’ तथा ‘चोखेर बाली’ की याद आना स्वाभाविक है. वे संपूर्णतः कवि थे. कहा जाता है कि उन्होंने अपनी पहली कविता आठ वर्ष की उम्र में लिखी थी. हर विधा में वे प्रवीण थे – चाहे संगीत हो या साहित्य, दर्शन हो या कला, समाज-चिंतन हो या शिक्षा. उनका समग्र लेखन प्रधान रूप से बांग्ला में उपलब्ध है लेकिन उनका समूचा साहित्य अन्य भाषाओं में भी अनुवाद के माध्यम से व्याप्त है.

रवींद्रनाथ ठाकुर ने हर विधा में अपनी लेखनी चलाई. कविता, उपन्यास, लघुकथा, गीतिनाट्य, नाटक, जीवनी साहित्य, यात्रावृत्त, पत्र साहित्य, चित्रकला आदि क्षेत्रों में उन्होंने सराहनीय कार्य किया. बौ-ठाकुराणीर हाट (1883), राजर्षि (1887), चोखेर बाली (1903), नौका डुबि (1906), प्रजापतिर निर्बन्ध (1908), गोरा (1910), घरे बाइरे (1916), चतुरङ्ग (1916), योगायोग (1929), शेषेर कबिता (1929), मालञ्च (1934), चार अध्याय (1934) आदि उनके प्रमुख उपन्यास हैं. छिन्नपत्र यात्रा साहित्य है तो जीबनस्मृति (1912) और चरित्रपूजा (1907) जीवनी साहित्य. सोनार तरी (1894), चित्रा (1896), चैतालि, गीतांजलि (1910), बलाका (1916), पूरबी (1925), महुया, कल्पना (1900), क्षणिका (1900), पुनश्च (1932), पत्रपुट (1936), सेँजुति (1938), भग्न हृदय आदि प्रमुख काव्यकृतियाँ हैं. कहना न होगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर सही अर्थों में लोकहृदय के कवि थे. उनके चिंतन का केंद्रीय मूल्य मनुष्य की भावनाओं का परिष्कार करना था. वे ऐसे चित्रकार थे जिनके रंगों में शाश्वत प्रेम की अनुभूति थी. वे ऐसे नाटककार थे जिनके रंगमंच पर सिर्फ त्रासदी नहीं बल्कि मानव की गहरी जिजीविषा आ उपस्थित होती थी. वे एक ऐसे कथाकार थे जो अपने इर्दगिर्द के जीवन से कथा चुनते थे, सलीके से बुनते थे और मनुष्य रूपी चरम लक्ष्य को तलाशते थे.

रवींद्रनाथ ठाकुर के संबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन द्रष्टव्य है – “वे उन महापुरुषों में थे, जिनकी वाणी किसी विशेष देश या संप्रदाय के लिए नहीं होती, बल्कि जो समूची मनुष्यता के उत्कर्ष के लिए सबको मार्ग बताती हुई दीपक की भाँति जलती रहती है. अपने जीवन काल में उन्होंने नाना भाव से मनुष्य की संकीर्णता को शिथिल करने के लिए उस पर बार-बार आघात किया था.” उनका हृदय कवि हृदय है. अतः वे मनुष्य को उसके समस्त बंधनों और वैविध्यों के साथ अपनाते हैं और प्रेम करते हैं. उनका प्रेम वैश्विक है. उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से इनसानियत, अपनापन, प्रेम, अध्यात्म, दर्शन, त्याग आदि भावनाओं को उकेरा है. वे कभी प्रकृति को अपने अंदर समा लेते हैं तो कभी समाज में व्यापत विसंगतियों पर कुठाराघात करते हैं. काव्य ही उनके लिए साधन भी है और साध्य भी. इसीलिए उन्हें ‘विश्वकवि’ कहा जाता है. 

रवींद्रनाथ ठाकुर मानवतावाद के प्रबल पक्षधर है. यह बात उनकी इस उक्ति से पुष्ट होती है – “मनुष्य की सेवा करना, उसका सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक पाश से मोचन करना, इसी संसार में उसे सब प्रकार से संपन्न करना मानव का चरम लक्ष्य है. यदि कोई परम देवता कहीं है, तो उसको खेत में काम करते हुए किसानों, सड़क पर गिट्टी तोड़ते हुए मजदूरों के श्रम-बिंदुओं में ही साक्षात पाया जा सकता है. शिशुओं के निर्मल हास में, विधवाओं एवं अपाहिजों के करुण क्रंदन में, अशिक्षितों और गुमराहों के भ्रांत आचरणों में और दलितों, पराजितों और निष्पेषितों की हाय-हाय में उसका निवास है. मनुष्य की सभी पूजाएँ और तपस्याएँ व्यर्थ हैं. यदि उनसे दीन-दुखियों के आँसू नहीं पुंछ सके. दलितों और निरन्न लोगों के चेहरों पर आनंद की हँसी दिखाई न दे जाय.” यही दृष्टि उनके साहित्य में द्रष्टव्य है. ‘गीतांजलि’ में भी वे इसी बात को व्यक्त करते हैं- 
“पूजन-भजन साधन-आराधन 
रहने दे तू एक किनारे,
मंदिर का पट बंद किए क्यों देवालय के द्वार 
बैठा हुआ यहाँ है ओ रे! 
करता है तू किसकी पूजा किसे पूजता लुका अंधेरे 
मन ही मन में इस कोने रे? 
नयन उघार निहार वहाँ पर 
देवालय में देव नहीं रे. 
वे हैं वहाँ, जहाँ पर माटी गोड़
कृषक खेती करते हैं, 
जहाँ बारहों मास मजूरे 
काट रहे पत्थर, खटते हैं. 
धूप कड़ी हो या वर्षा हो 
साथ सदा उनके रहते हैं. 
धूल और माटी में उनके 
हाथ सने दोनों रहते हैं.” 

स्मरणीय है कि किसी मजदूरनी की दीन-दशा से प्रभावित होकर कविता लिखने वाले प्रथम भारतीय कवि थे रवींद्रनाथ ठाकुर. अपने कार्य में तल्लीन एक मजदूरनी की स्थिति का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया-
“मैं बरामदे में बैठा देखता हूँ 
घंटों से लगी हुई है वह काम में, 
शर्म से झुक जाता है 
माथा कि प्रियजनों को निवेदित इस पवित्र श्रम की.....”

इन पंक्तियों को पढ़ते समय निराला की कविता ‘तोड़ती पत्थर’ का स्मरण हो आता है. निराला ने भी रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता से प्रेरित होकर ही ‘तोड़ती पत्थर’ का सृजन किया था. 

रवींद्रनाथ ठाकुर दीन-दलितों की कवि थे. यदि हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहे तो ‘वे कल्पना-विलासी कवि नहीं थे. मनुष्य की वेदना ने बार-बार उनके कोमल हृदय पर आघात किया है. वे दीन और दलितों के कंठ की वाणी को सहस्रगुण शक्ति देकर मुखरित कर सके थे; क्योंकि उनकी वेदना उन्हें व्याकुल कर देती थी. ’ वे यही चाहते थे कि ‘मनुष्य को मनुष्य की दृष्टि से देखें - बिना कोई भेदभाव के.’ मानवता के प्रहरी रवींद्रनाथ ठाकुर इसीलिए तो कहते हैं – 
“यह दासत्व की शृंखला भीतर और बाहर की 
सदा डरते हुए करता प्रणति शत-शत पदों की 
यह सुचिर अपमान मानव-दर्प का 
हत सब मर्यादा जनित धिक्कार 
लज्जाराशि वृहदाकार -
कर दो चूर्ण ठोकर मार.”

यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि रवींद्रनाथ ठाकुर अद्भुत चित्रकार थे. उनका जन्म ऐसे समय हुआ था जब भारत अंग्रेजों की कूटनीति के चंगुल में फंसा हुआ था और पूरे देश में नवजागरण की लहर फैल रही थी. देखा जाय तो वह दौर भारतीय चित्रकला के भी पुनरुत्थान का दौर था. ब्रह्मसमाज से प्राप्त तेवर के साथ रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने चित्रों को देवी-देवताओं तथा पुराण कथाओं के स्पर्श से दूर रखा. उन्होंने साहित्य के माध्यम से ही नहीं बल्कि चित्रकला के माध्यम से भी सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया. 

रवींद्रनाथ ठाकुर शिशुओं को भी नहीं भूले. उन्होंने उनके लिए अनेक शिशु गीतों का सृजन किया. उनके सारे बाल साहित्य को वस्तुतः दो भागों में विभाजित किया जाता है – छेले घुमानो छड़ा (बच्चे को सुलाने के गीत - लोरी) तथा छेले भुलानो छड़ा (बच्चों को बहलाने के गीत). 

रवींद्रनाथ ठाकुर का एक और पहलू है शिक्षा-दर्शन. बचपन से ही उनके मन में शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने की इच्छा बलवती थी. उनके मन में शिक्षा के ढाँचे की एक निश्चित परिकल्पना थी. इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की. वे चाहते थे कि शिक्षा में गुणात्मक सुधार हो. वे यह मानते थे कि प्रकृति की गोद में बैठकर विद्यार्थी बहुत कुछ सीख सकता है. साथ ही, उन्होंने हमेशा पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों के समन्वय की बात की. 

आज यह कहा जा रहा है कि 21वीं सदी विमर्शों की सदी है. स्त्री, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक विमर्श चरम पर है. लेकिन ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि कवींद्र रवींद्र ने इन्हें नई दृष्टि से देखने की शुरूआत की. स्त्री सशक्तीकरण की बात कवींद्र भी उठाते हैं. इसीलिए तो वे कहते हैं कि “संसार के संकीर्ण प्रयोजनों के निकट हमारी स्त्रियाँ कल दबाकर चलाई जाने वाली पुतलियों की तरह विधिविहित नियमों के अनुसार आवाज देती रही हैं, हिलती-डुलती रही हैं. वे केवल यही बात जानती हैं कि अज्ञता और अशक्ति ही उनका भूषण है. माता और गृहिणी के विशेष-विशेष ढाँचे में ही उनका परिचय रहा है. यह बात कभी तो अस्वीकृत हुई और कभी निन्दित हुई है कि उसके मनुष्यत्व का स्वातंत्र्य-साँचा अतिक्रम करके भी प्रकाशित होता है. इसी प्रकार स्त्रियाँ मनुष्य-जाति की एक बड़ी भारी क्षति करती आई हैं. आज ऐसा युग आया है जब स्त्रियों ने मानवत्व के पूर्ण मूल्य का दावा उपस्थित किया है. ‘जननार्थ महाभागा’ कहकर अब उनकी गणना नहीं होगी. संपूर्ण व्यक्ति विशेष के रूप में ही उनकी गिनती होगी. मानव समाज में इस आत्मश्रद्धा के विस्तार के समान इतनी बड़ी संपत्ति और कुछ नहीं हो सकती. गिनती में मनुष्य का परिमाण नहीं मिलता, पूर्णता में ही उसका परिमाण है. हमारे देश में भी कृत्रिम बंधनमुक्त स्त्रियाँ जब अपने पूर्ण मनुष्यत्व की महिमा प्राप्त करेंगी, तभी पुरुष भी अपनी पूर्णता प्राप्त करेगा.” 

मनुष्यत्व के ऐसे प्रहरी रवींद्रनाथ ठाकुर का निर्वाण 7 अगस्त, 1941 को हुआ. मृत्यु के कुछ दिन पूर्व उन्होंने कहा कि “मैं ऐसा विश्वास करना अपराध मानता हूँ कि मनुष्यत्व का अंतहीन अंत और प्रतिकारहीन पराभव ही चरम सत्य है.”

मनुष्यता के सजग प्रहरी कवींद्र रवींद्र की 155 वीं जन्म वार्षिकी के अवसर पर आजमगढ़ से प्रकाशित साहित्य, कला और संस्कृति की संवाहिका ‘सप्तपर्णी’ का जुलाई-दिसंबर 2015 का अंक दस्तावेजी महत्व का है. इस अंक में संगृहीत सभी लेख अपने आप में अमूल्य हैं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का लेख ‘मृत्युंजय रवींद्रनाथ’, विवेकी राय का लेख ‘विश्वकवि का अवसादपुर बनाम गाजीपुर’, सियाराम तिवारी का ‘अद्भुत व्यक्तित्व और अपूर्व कर्तृत्व’, पारसनाथ गोवर्धन का ‘टैगोर का मानवतावाद’, प्रभा दीक्षित का ‘अल्बर्ट आइंस्टीन और रवींद्रनाथ टैगोर का संवाद’, दिविक रमेश का ‘टैगोर, उनके गीत : निराशा में आशा के प्रकाश’, बृजेश कुमार का ‘भारतीयता के संवाहक : रवींद्रनाथ ठाकुर’, अशोक भौमिक का ‘भारतीय चित्रकला : परंपरा और रवींद्रनाथ ठाकुर’, हरिश्चंद्र मिश्र का ‘बंगला लोक शिशु-साहित्य : रवींद्रनाथ का विशेष संदर्भ’, अवधेश प्रधान का ‘रवींद्र का जन-गण-मन : सूरज पर कीचड़ मत उछालो’ आदि सामग्री के कारण यह विशेषांक संग्रहणीय बन गया है.

शुक्रवार, 13 मई 2016

कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन


[1]

सभी देशों और भाषाओं के साहित्य में कथा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. कथा कहना और सुनना मानव स्वभाव का अभिन्न अंग है. अलिफ-लैला की कहानियाँ हों या सिंदबाद की, पोटली बाबा के लतीफे हों या जातक और पंचतंत्र की नीति कथाएँ, सब बेमिसाल हैं. मौखिक और लिखित कथा के सुदीर्घ इतिहास के अगले चरण के रूप में, आज के दौर में कथासाहित्य की नई विधा के तौर पर लघुकथा अपनी पहचान बना चुकी है. ध्यान रहे कि आकार की दृष्टि से ‘लघु’ होना ही लघुकथा की पहचान नहीं है. कमल चोपड़ा का मत इस संदर्भ में द्रष्टव्य है – “लघुकथा क्षणिक विद्युत तरंग का विस्फोट होती है. कहानी और उपन्यास की भाँति लघुकथा भी एक कथा-प्रकार है, इसमें कथापन भी उतना ही आवश्यक है जितना कि सीमित आकार लेकिन सीमित आकार का यह अर्थ नहीं कि कुछ पंक्तियों में कुछ भी लिख दिया जाए. बस हो गई लघुकथा, कुछ कथा तो है!” (कमल चोपड़ा, कथापन की प्रतिष्ठा, संरचना 7, 2014, पृ. 8). अभिप्राय यह है कि आकार की दृष्टि से लघु होने मात्र से ही कोई कथा लघुकथा नहीं बन जाती. 

तो फिर लघुकथा किसे कहते हैं? अनेक विद्वानों ने लघुकथा को पारिभाषित करने का प्रयास किया है. सतीश दुबे कहते हैं कि “लघुकथा लेखन की पहली शर्त उसका लघु होना है.” (सतीश दुबे, ‘परिधियों से मुक्त बनाम लघुकथा का प्रांजल-स्वरूप’, संरचना 7, 2014, पृ. 26). लेकिन इसके साथ, लघुकथा की पहली शर्त है - प्रभावी कथाभिव्यक्ति. वस्तुतः लघुकथा के केंद्र में कोई घटना, भाव या विचार होता है. इसमें संप्रेषणीयता होना आवश्यक है. इसका पल्लवन कैसे होगा यह रचनाकार की लेखकीय क्षमता पर निर्भर होता है. राजेंद्र यादव लघुकथा को ‘कहानी का बीज’ कहते हैं तो बलराम अग्रवाल कहते हैं कि “कथा रचना के अंतर में कम से कम एक लघुकथा विद्युत तरंग की तरह विद्यमान है और पैंसठोत्तर काल की तो अनगिनत कहानियाँ ऐसी हैं जो अन्यान्य प्रसंगों के सहारे विस्तार पाई हुई लघुकथा ही प्रतीत होती हैं. इस दृष्टि से देखें तो लघुकथा को कहानी का बीज क्या सीधे-सीधे उसकी शक्ति कहना भी न्यायसंगत है.” (बलराम अग्रवाल, ‘लघुकथा : वस्तुस्थिति’, शकुंतला किरण, हिंदी लघुकथा, पृ. 10). रमेश बत्रा का मत है कि लघुकथा “किसी प्रकार का सार संक्षेप न होकर, कहानी की ही पृष्ठभूमि पर उसके स्वरूपात्मक संदर्भों से जुड़ी वह लघु रचना है, जिसमें केवल शब्द ही सीमित होते हैं, चिंतन नहीं.” (रमेश बत्रा, ‘लघुकथा नहीं,’ साहित्य निर्झर [जून 1974]; डॉ. शकुंतला किरण, हिंदी लघुकथा, 2010 (द्वितीय संस्करण), पृ. 22 पर उद्धृत). इससे यह स्पष्ट होता है कि लघुकथा एक ऐसी विधा है जिसमें गहन विचारों को कम शब्दों में प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया जाता है. इस संदर्भ में भगीरथ परिहार का मत द्रष्टव्य है - “यह एक ऐसी विधा है जो कम शब्दों में प्रस्तुत विचार की सशक्त अभिव्यक्ति कर सकने की क्षमता रखती है.” (भगीरथ परिहार, लघुकथा : गुफाओं से मैदान की ओर, पृ. 6). 

किसी भी बात (प्रतिपाद्य) को कम शब्दों में अभिव्यक्त करने के लिए पहले उस पूरी घटना (कथ्य) को आत्मसात करना पड़ता है, अनुभव के साँचे में उसे ढालना पड़ता है, पूरी तरह से पकाना पड़ता है. तभी संवेदना अनुभव के साँचे में ढलकर रचना का रूप ले सकती है, पाठकों को जागरूक कर सकती है तथा चमत्कार पैदा कर सकती है. लघुकथा के कथ्य के संबंध में कमल चोपड़ा कहते हैं कि “लघुकथा का कथ्य, किसी बड़ी गद्य रचना का बीज भी नहीं होता. लघुकथा अपने-आप में पूर्ण होनी चाहिए. इसलिए लघुकथा के कथ्य के चुनाव में विशेष सतर्कता की आवश्यकता होती है.” (कमल चोपड़ा, कथापन की प्रतिष्ठा, संरचना 7, 2014, पृ. 8). वस्तुतः कथ्य लघुकथा का प्राणतत्व होता है. अतः कथ्य का चयन करते समय सतर्कता अपेक्षित है. किसी भी गंभीर समस्या को लघुकथा का कथ्य बनाया जा सकता है. उसे सांकेतिक एवं सुगठित रूप से पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करना वांछित है. यहाँ विवेच्य लघुकथाकार कमल चोपड़ा की प्रायः सभी लघुकथाएँ इस बात को पुष्ट करती हैं. उदाहरण के लिए उनकी लघुकथा ‘छोनू’ को ही देखें जो सांप्रदायिकता पर प्रहार करती है. यह केवल 12 पंक्तियों की कथा है लेकिन बहुत ही मारक है. छोटा-सा छोनू (सोनू) कहता है कि “मैं छिक्ख-छुक्ख नई अूँ ... मैं बीज-ऊज नई अूँ .... मैं तो छोनू हूँ...” अभिप्राय यह है कि लघुकथा ऐसी होनी चाहिए जिसमें पाठक की चेतना को झकझोरने की क्षमता विद्यमान हो. यह तभी हो सकता है जब रचनाकार में सूक्ष्म अवलोकन की दृष्टि हो. यह बात केवल लघुकथा के लिए ही नहीं अपितु सभी विधाओं के लिए है. एक सजग और संवेदनशील रचनाकार का दायित्व होता है कि वह पाठकों को समस्या के मूल स्रोत तक पहुँचाए, उन्हें चेताए तथा उन्हें सघर्ष करने के लिए शक्ति प्रदान करे. इसीलिए “वैश्वीकरण और सांस्कृतिक संक्रमण के दौर में जीवन से बेदखल हो रही संवेदना की भयावहता के दृश्यों को कई रचनाकार अपनी सृजनात्मक प्रतिभा से जाँचने-परखने का प्रयास कर भी रहे हैं.” (वही, पृ. 7). 

लघुकथा आंदोलन अवश्य ही पिछली शती के उत्तरार्द्ध में उभरा परंतु रचना प्रवृत्ति के रूप में लघुकथा नई विधा नहीं है. इतिहास के पन्नों को पलटने से यह ज्ञात होता है कि 1874 में पटना से प्रकाशित साप्ताहिक ‘बिहार बंधु’ में मुंशी हसन अली की लघुकथाएँ हर अंक में प्रकाशित होती थीं और पाठक भी रुचि लेकर पढ़ते थे. 1875 में भारतेंदु अंग्रेज शासन के विरुद्ध हरिश्चंद्र भी व्यंग्यात्मक लघुकथाएँ लिख रहे थे. माधवराव सप्रे तथा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की लघुकथाएँ 1910 में प्रकाशित हुईं थीं. इस प्रकार लगभग 1874 से या कहें उससे पहले से यह क्रम चलता रहा. माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय आदि छिटपुट रूप में ही सही लघुकथाएँ लिखते रहे. जयशंकर प्रसाद, निराला, जानकी वल्लभ शास्त्री आदि रचनाकारों ने इस विधा को सशक्त बनाया. जनवरी 1939 में प्रेमचंद द्वारा संपादित पत्रिका ‘हंस’ में विष्णु प्रभाकर की पहली लघुकथा ‘सार्थकता’ प्रकाशित हुई थी. साठोत्तर काल में, 1974-75 में कमल गुप्ता के संपादन में कानपुर से ‘मंगलतारा’ का लघुकथा विशेषांक प्रकाशित हुआ था और ‘सारिका’ के माध्यम से भी अनेक नए लघुकथाकार उभरकर सामने आए. इस विधा को लोकप्रिय बनाने में ‘सारिका’ के साथ-साथ व्योम, साहित्यकार, ललकार, दिशा, पुनः, अवसर, लघु आघात आदि पत्रिकाओं की महती भूमिका है. लघुकथाओं में हास्य-व्यंग्य के साथ-साथ गंभीर विचारों को भी स्थान मिलता रहा. 

आज की लघुकथा कथ्य, शिल्प एवं शैली की दृष्टि से नवीन है. लघुकथा में कथ्य का पैनापन अधिक होता है. इस संदर्भ में कमल चोपड़ा कहते हैं कि “आकारगत लघुता के अतिरिक्त लघुकथा की अन्य आतंरिक व तात्विक विशेषताओं को समझकर अपने प्रतिभा-कौशल के सहारे लघुकथा की समूची रचना-प्रक्रिया से गुजरकर किसी घटना, स्थिति या विचार को नए अर्थ देते हुए मानवीय संवेदना, अनुभवों और अंतर्द्वंद्वों को बड़ी तटस्थता के साथ चित्रित किया जाना चाहिए ताकि रचना की पठनीयता व ग्राह्यता बची रहे.” (वही, पृ. 9). शिल्प की दृष्टि से अर्थगर्भिता, मितव्ययता एवं संप्रेषणीयता लघुकथा के लिए अपेक्षित है. इस दृष्टि से कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, जगदीशचंद्र मिश्र, हरिशंकर परसाई और विष्णु प्रभाकर से लेकर आज के साहित्यकारों में बलराम अग्रवाल, भागीरथ परिहर, सतीश दुबे, कमल चोपड़ा, मधुदीप, शकुंतला किरण, पवित्रा अग्रवाल, मुरलीधर वैष्णव, ज्ञानदेव मुकेश, राधेश्याम मेहर, माणक तुलसीराम गौड़, अशोक भाटिया, ओमप्रकाश भाटिया, पुष्पलता कश्यप आदि की लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं. 

[2]

यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि लघुकथा के लिए ‘कथापन’/ कथ्य महत्वपूर्ण है. इस कथ्य में जीवन की धडकन हो सकती है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश और असहमति हो सकती है, उस पर व्यंग्य भी हो सकता है. सांस्कृतिक संक्रमण के फलस्वरूप उत्पन्न स्थितियाँ, बदलते जीवन मूल्य, समाज में बढ़ती अराजकता, तानाशाही, भ्रष्ट राजनैतिक तंत्र आदि पर प्रहार भी लघुकथाओं के माध्यम से किया जा सकता है. गंभीरता, यथार्थपरकता, व्यंग्यात्मकता, प्रखरता, सूक्ष्मता, स्पष्टता, पैनापन आदि लघुकथा की कथ्यगत विशेषताएँ हैं तो शिल्प की दृष्टि से आकारीय लघुता, बनावट और बुनावट, सांकेतिकता, अर्थगर्भित अभिव्यक्ति, संप्रेषणीयता आदि महत्वपूर्ण हैं. कमल चोपड़ा की लघुकथाओं में इन विशेषताओं को भली प्रकार देखा जा सकता है. 

चेतना के स्तर पर यदि कमल चोपड़ा की लघुकथाओं की बात करें तो इनमें समाज-सांस्कृतिक चेतना के साथ-साथ आर्थिक और मूल्य चेतना निहित है. उनकी लघुकथओँ को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि भले ही ये लघुकथाएँ आकार की दृष्टि से लघु हैं पर लेखक ने इनमें मानवीय संवेदना के हर धरातल को बखूबी उकेरा है. छोटी-से-छोटी घटना में भी वे नए अर्थ भर देते हैं. 

बढ़ते बाजारवाद के कारण आज मनुष्य भी वस्तु बन चुका है. मानवीय संबंधों में दरारें पड़ रही हैं. परिवार टूट रहे हैं. परिवार के सदस्य एक-दूसरे से कट रहे हैं. ऐसी स्थिति में कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘इतनी दूर’ संवेदनशील मनुष्य को सोचने पर बाध्य करती है. इस कथा के माध्यम से उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि माँ-बाप अपने बच्चों के पालन-पोषण में अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं. बचपन में माँ-बाप की उँगली पकड़कर चलने वाले बच्चों के पास बड़े होने पर उन्हीं माता-पिता के लिए समय नहीं रह जाता. वे एक ही अपार्टमेंट में रहते हुए भी एक-दूसरे से मानो कोसों दूर रहते हैं. यह विडंबना नहीं है तो और क्या है? इस कहानी का अंत इतना मार्मिक है कि आँखों से आँसू निकलना स्वाभाविक है – “दरवाजा तोड़ा गया. सामने ईजी चेयर पर बाबूजी बेजान पड़े थे. गर्दन एक तरफ को लुढ़की पड़ी थी. उनकी खुली हुई आँखें दरवाजे की ओर ताक रही थीं जैसे किसी का इंतजार कर रही हों!” 

इस समाज में ऐसे बच्चे भी हैं जो माँ-बाप की परेशानी को समझ नहीं सकते. इतना ही नहीं, उन्हें उनकी भावनाएँ भी दकियानूस लगती हैं. ऐसे शहरी बच्चों को माँ-बाप ‘सेंटीमेंटल फूल्स’ प्रतीत होते हैं. ‘छत’ शीर्षक कथा में इसी बात को उजागर किया गया है – “क्या बाबूजी, आप एकदम सेंटीमेंटल फूल्स की तरह बातें कर रहे हैं! दुनिया ग्लोबलाइज हो रही है. परिवर्तन तो आना ही है! अब आप नई सुविधा के साथ नई छत के नीचे आराम से रहिए.” उपभोक्ता संस्कृति और मूल्य संक्रमण के इस दौर में माँ-बाप की स्मृतियों और भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं. ऐसी स्थिति में मूल्यों का ह्रास नहीं होगा तो और क्या होगा? 

कमल चोपड़ा ने अपनी लघुकथाओं में जहाँ यह दिखाया है कि बच्चे माँ-बाप का खयाल नहीं रख रहे हैं, वहीं उन्होंने यह भी दर्शाया है कि पढ़ी-लिखी बहू संवेदनशील होने के कारण अपने सास-ससुर की चिंता को समझती है. ‘छिपा हुआ दर्द’ शीर्षक लघुकथा में यह उजागर किया गया है कि गाँव में रहने वाले माँ-बाप को देखने जब बेटे-बहू जाते हैं तो तंगी में जी रहे माँ-बाप उन्हें अच्छा भोजन कराने के लिए सौ रुपए कहीं से भी उधार लाने की कोशिश करते हैं पर उन्हें कोई उधार नहीं देता. कशमकश में डूबे माँ-बाप जब इस बात को लेकर आपस में बात करते हैं तो उनकी बातों से आहत बेटा खामोश हो जाता है लेकिन बहू मामले की नजाकत को समझकर कहती है – “माँ जी, हम तो शहर से स्पेशली आपके हाथ की बनी मक्की की रोटी खाने आये हैं... साग अगर एक दिन का बासी हो तो अगले दिन और स्वादिष्ट लगता है, पर हाँ, उसमें घी-मक्खन मत डालना. हमें डॉक्टर ने मना किया है. और बाबूजी, आप हमारे पास बैठिए ना, हम तो आपकी तबीयत का हालचाल पूछने आए हैं...” वस्तुतः लघुकथाकार स्त्री मन में अवशिष्ट संवेदना में भविष्य की संभावनाएँ खोजता है और आश्वस्त होना चाहता है कि अब भी इस दुनिया में रिश्तों को महत्व देने वाले लोग बचे हुए हैं. 

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आजकल हर वक्त भयावह स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है. रिश्तों की गरिमा भी समाप्ति के कगार पर है. हर तरफ से खौफ मंडराता रहता है; न जाने कब क्या हो जाए? ऐसी स्थितियाँ सामने आ रही हैं कि मनुष्य और जानवर का भेद मिटता जा रहा है. उम्र का तो कोई लिहाज ही नहीं. स्त्री की स्थिति और भी सोचनीय है. चाहे वह विधवा हो या सधवा, युवती हो या फिर छह साल की बच्ची; उसकी जिंदगी असुरक्षित है. रक्षा करने वाले ही उसे असुरक्षा के चक्रव्यूह में धकेल दें तो वह क्या कर सकती है? ‘खौफ’ शीर्षक लघुकथा इस बात को उजागर करती है कि एक छोटी बच्ची का किस तरह भेडिए शिकार कर रहे हैं. माँ इस तरह की घटनाओं से भयभीत हो जाती है और अपनी आठ साल की बच्ची के भविष्य के बारे में चिंतित हो उठती है. बच्ची को भयावह स्थिति से अवगत कराने की उस माँ की चेष्टा मन दहला देती है. वह अपनी बच्ची से कहती है – “बेटी, किसी के घर अकेले नहीं जाना. लड़के हों या अधेड़ बूढ़े, सबसे दूर रहना. किसी का कुछ पता नहीं? कब कहाँ किसका दिमाग घूम जाए? चाहे कोई लड़का हो, जिसे तुम ‘भैया-भैया’ कहती हो. कुछ पता नहीं कब तुझ पर टूट पड़े? और तो और, अधेड़ बूढ़े ‘बेटी-बेटी’ कहते-कहते छोटी बच्ची को अकेला देखकर कब टूट पड़ें और नोंच खाएँ? इन सबसे बचकर रहना.” यह सब सुनकर उस मासूम के मुँह से जो बात निकली वह अत्यंत मार्मिक और मारक है – “मम्मी, ‘बेटी-बेटी’ तो मुझे बहुत से अंकल कहते हैं! ये ‘बेटी-बेटी’ कहने वाले इतने खतरनाक होते हैं?” इस कहानी का अंत भी बहुत मार्मिक और विचलित करने वाला है जिससे पाठक उद्वेलित हो उठता है. देखिए – “पापा शाम को लौटे. आते ही पुकारा, ‘बिटिया, बिटिया ... वो ... कहाँ है हमारी बेटी...?’ बच्ची लोहे की अलमारी के पीछे छिपी हुई थी. चेहरा पीला जर्द. डर से थर थर काँपती हुई.” असुरक्षित जिंदगी के अतिरिक्त आखिर हम बच्चों को क्या दे रहे हैं? 

युगों से पुरुष के लिए स्त्री मात्र खिलौना रही है. उसके लिए तो वह मनोरंजन का साधन भर है. झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली लाचार स्त्रियों की स्थिति और भी बदतर है. उनकी असहाय दशा का लाभ उठाते हुए हर दिन नया व्यक्ति सार्वजिनक संपत्ति समझकर उनके साथ खेलने आ जाता है. ‘खेल’ शीर्षक लघुकथा में कमल चोपड़ा ने लाचार विधवा की स्थिति को दर्शाया है. वीनू जब यह देखता है कि कोई बाबू उसकी माँ से मिलने आता है तो वह सवाल करता है कि यह आदमी कौन है और यहाँ किस लिए आया है. माँ के पास कोई जवाब नहीं होता. जब वीनू कहता है कि उसे पता है कि वह आदमी वहाँ क्यों आया है तो उसकी माँ काँप उठती है. इस कहानी को लेखक ने बहुत प्रभावशाली ढंग से समाप्त किया है. देखिए – “तुम्हारे साथ खेलने ... है न माँ ...? जिस तरह मैं लच्छी के घर जाता हूँ ... खेलने के लिए. माँ ने सीने से लगा लिया वीनू को. ‘पर माँ ... मैंने तो लच्छी को कभी नया पैसा भी नहीं दिया. बाबू तो तुम्हें ... माँ... माँ... मैं यह पच्चीस पैसे लच्छी को दे आऊँ?” कथा का यह अंत अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण वास्तव में पाठक को विचलित करने वाला अंत है. 

आजकल समाज में गर्ल ट्रैफिकिंग आम बात हो चुकी है. भोली-भाली लड़कियों को बहला-फुसलाकर, शादी के झाँसे में फँसाकर उनका व्यापार किया जाता है. ऐसी लड़कियाँ चाहकर भी दरिंदों के चंगुल से बाहर निकल नहीं पातीं. ऐसी लड़कियों को माँ-बाप भी समाज के डर से अपनाने में संकोच करते हैं. ‘चंगुल’ शीर्षक कथा में लेखक ने थानेदार के माध्यम से यह प्रश्न किया है, “अपनी बेटी को वापिस नहीं लोगे तो उन गुंडों और आप में फर्क ही क्या रह जाएगा?” 

इक्कीसवीं शती के भारत में स्त्री अपने आप को तरह-तरह की असुरक्षाओं से घिरी हुई महसूस करती है. समाज की रुग्ण मानसिकता के कारण स्त्री के प्रति हिंसा और बलात्कार रोज की बात होती जा रही है. कानून के हाथ से बलात्कारी तो बाइज्जत रिहा हो जाते हैं लेकिन बलात्कृत स्त्री को जिंदगी भर घुट-घुटकर जीना पड़ता है, नहीं तो आत्महत्या करनी पड़ती है. बलात्कार के निर्मूलन हेतु अनेक कानून हैं लेकिन इस प्रकार की घटनाओं की कोई रोकथाम नहीं. आए दिन ऐसी घटनाएँ घटती ही रहती हैं. ‘बदला’ शीर्षक लघुकथा में यह दिखाया गया है कि किस तरह लड़की से बलात्कार करके अपराधी के परिवार के लोग कोर्ट-केस से बचने के लिए लड़की के पिता से समझौता करने के लिए आते हैं और उन्हें बहलाते हैं – “चौधरी साब, जो होना था वो तो हो गया! अब जरा समझदारी से काम लो. लड़के को फाँसी चढ़वाकर तुम्हें क्या मिलेगा? केस वापस ले लो! राजसिंह तुम्हारी जमीन और साथ में सात लाख रुपए देने को तैयार है, और बोलो?” एक क्षण के लिए वह पिता उनके झाँसे में आ तो जाता है लेकिन ‘मैं घर की इज्जत हूँ तो....’ अपनी बेटी के इस अधूरे प्रश्न से आहत हो उठता है क्योंकि उसे ऐसा प्रतीत होता है कि बेटी की लाल सुर्ख आखें उससे सवाल कर रही हैं कि “दुश्मनों से घर की इज्जत का समझौता कर लोगे? बदला भी मुझसे ही .... दुश्मनों के साथ खड़े हो जाओगे?” 

स्त्री का शोषण तो हर तरह से होता है. पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में वह सर्वत्र असुरक्षा का अनुभव करती है. यहाँ तक कि परिवार में भी वह सुरक्षित नहीं है. हमेशा उसे कमतर ही माना जाता है. उसका कोई मूल्य ही नहीं होता. इसी बात को ‘वैल्यू’ शीर्षक लघुकथा में दर्शाया गया है. इस कहानी में यह दिखाया गया है कि जानवरों में मादा जानवर का बहुत मूल्य है जबकि इंसानों में नहीं – “पर चाचा! इंसानों में छोरियों की वैल्यू क्यों ना है! छोरियाँ तै बड़ी होके सारा काम करें हैं. घर का, खेताँ का ... डंगरों का .. अर मर्द तै इधर उधर हाँडते फिरे हैं? फेर छोरों की वैल्यू घणी क्यों सै? माणसाँ में तो बात जमै गलत और उल्टी ही हो रही सै.” बेटे को अमूल्य और बेटी को तुच्छ समझने वालों पर लेखक ने व्यंग्य किया है. बेटे और बेटी में यह भेदभाव आखिर क्यों? और कब तक? 

एक जमाना ऐसा था जब लड़की से यह कहा जाता था कि जिस घर में डोली उतरी वहाँ से अर्थी ही उठे. चाहे कुछ भी हो जाए ऐसी स्त्री कभी ‘उफ़’ तक नहीं कर सकती थी. पति मार-मार कर उसे ज़िंदा लाश ही क्यों न बना दे, मायके वाले उसे शरण नहीं दे सकते थे. आज की स्त्री ऐसी स्थिति को अपनी नियति मानकर खामोश नहीं बैठ सकती. ‘इससे ज्यादा क्या’ शीर्षक लघुकथा की नायिका अपने हैवान पति से अलग हो जाती है और अकेली जिंदगी बिताने का दृढ़ निर्णय लेती है. “पैसा-कौड़ी लूटना, मारना, पीटना और जबरदस्ती करना गुंडागर्दी है तो उसका पति भी यही सब करता था. कभी कोई गुंडा आ भी गया तो उसके पति से ज्यादा गुंडई क्या कर लेगा?” विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए आज की स्त्री परंपरागत अबला छवि की केंचुल से बाहर निकल रही है. लेखक ने परिवर्तित स्त्री छवि का अंकन करते हुए यह व्यंजित किया है कि आज की सशक्त स्त्री हर पारिस्थिति का सामना करने के लिए अपने आपको मानसिक रूप से तैयार कर रही है. 

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आज का समय हर तरह से जटिल समय है. इन जटिलताओं और पेचीदगियों को समझने तथा समझाने के लिए रचनाकार नई कथाभूमि को तलाशता रहता है. सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करने के लिए वह भरसक प्रयास करता है. धर्म, जाति, वर्ण, भाषा और वर्ग आदि के नाम पर समाज टुकड़ों में बँट गया है. वस्तुतः धर्म और मजहब का परम उद्देश्य शांति की स्थापना है लेकिन आज धर्म और मजहब के नाम पर चारों ओर उन्माद फैला हुआ है. लोग इतने उन्मत्त हो रहे हैं कि मासूम बच्चों के बचपन को भी रौंद रहे हैं. इस दृष्टि से कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ ‘छोनू’, ’उलटा आप’, ‘असलियत’, ‘शांति शांति’, ‘धर्म के अनुसार’, ‘आचरण’ आदि उल्लेखनीय हैं जो सांप्रदायिकता पर तो प्रहार करती ही हैं, संवेदनशील पाठक को सोचने के लिए बाध्य भी करती हैं. 

समाज में मजहबी कट्टरपन इतना बढ़ रहा है कि कट्टरपंथी न आव देखते न ताव, बस लाठी लेकर पिल पड़ते हैं. लोग उन्मत्त होकर पराए धर्म के लोगों को खून से लथपथ मांस के ढेर में बदल देते हैं. ऐसा करते समय एक क्षण के लिए भी नहीं सोचते कि हिंसा कभी भी धर्मसम्मत कर्म नहीं है. ‘असलियत’ शीर्षक लघुकथा के माध्यम से यह दिखाया गया है कि एक व्यक्ति के पास ‘ॐ’ के डिजाइन के स्टिकर को देखकर दूसरे मजहब के लोग उसे लहूलुहान कर देते हैं. जब यह पता चलता है कि वह व्यक्ति स्टिकर बेचने वाला है तो वे दंगाई “अपनी झेंप मिटाने और रंग बदलने की जल्दबाजी पर हें-हें करने” लगते हैं. कमल चोपड़ा अपनी एक लघुकथा ‘शांति शांति’ में यह टिप्पणी करते हैं कि “बात धर्म की आती है तो जाने क्यों लोग अपना विवेक खो बैठते हैं...? पीढ़ियों से हम अहिंसा का संदेश फैला रहे हैं लेकिन आज ...? ताकि कोई हिंसा न करे इसलिए लोग खुद ही हिंसा करने लगते हैं!!” यदि एक क्षण के लिए ठहर कर विवेक से काम लें तो इस तरह खून की नदियाँ न बहें. लेकिन धर्म के नाम पर लोग इतने अंधे होते जा रहे हैं कि दहशत फैलाने को ही धर्म मान बैठे हैं. ‘उलटा आप’ शीर्षक लघुकथा में एक हिंदू अध्यापक अपनी मुस्लिम शिष्या की जान बचाता है लेकिन जब वह लड़की अपने मोहल्ले में जाती है तो उसके धर्म के लोग ही उसे मौत के घाट उतार देते हैं – “मारो साली को! एक तो रात भर काफ़िर के यहाँ रहकर हमारे मजहब की बेइज्जती करवा दी है और उलटा हमें ही काफिर बता रही है.’ भीड़ उस पर पिल पड़ी थी. अब्बू के बचाने की कोशिश के बावजूद लहूलुहान होकर वह अपने मजहब वालों के बीच गिर पड़ी थी.” यदि प्रेम और भाईचारा अपनाकर एक-दूसरे के मजहब का सम्मान करें तो समाज में ऐसी स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी. इसी बात को कमल चोपड़ा ने ‘फुहार’ शीर्षक लघुकथा के माध्यम से व्यक्त किया है. यथा – “मनीराम के घर से लोहे की छड़ें माँग लाने के लिए ज्यों ही लालाजी घर से निकले सामने से शाबू चला आ रहा था. डरा-सहमा, सिकुड़ा हुआ-सा. ज्यों ही एकाएक वह चहका, ‘सॉरी ताऊ जी... सॉरी-सॉरी... जब आप सूर्य को जल चढ़ा रहे होंगे न, उस वक्त मैं बॉल नहीं खेला करूँगा.... चौराहे तक आकर ठहर गए थे हिंदू दल के लोग. अशरफ के घर के बाहर जमा लोग भी देखते रह गए थे. निर्दोष, भोले-भाले चेहरे वाले मासूम शाबू को लालाजी ने गोद में उठा लिया और कहा, नहीं रे, अब मैं सुबह-सुबह तेरे उठकर बॉल खेलने से पहले ही जल चढ़ा लिया करूँगा.” जात-पाँत, धर्म और मजहब के नाम पर एक-दूसरे को मारना, काटना, अराजकता फैलाना इंसानियत के लिए खतरा है. ऐसे में लेखक बच्चों की मासूमियत के सहारे समाज की संवेदना को झकझोरने का प्रयास किया है. 

धर्म-मजहब के नाम पर इंसान एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं. लेकिन खून का रंग तो एक ही है. हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई सबका निवास स्थान एक ही है. सबी एक ही तरह साँस लेते हैं, भूख भी सबकी समान है तो फिर यह भेदभाव किस लिए? इसी प्रश्न को लेखक ने ‘जात’, ‘खेलने दो’, ‘अन्न का मजहब’ जैसी लघुकथाओं के माध्यम से उठाया है. ‘अन्न का मजहब’ शीर्षक लघुकथा में इस संदर्भ में लेखकीय टिप्पणी द्रष्टव्य है – “भूख की क्या जात? अन्न का क्या मजहब?” ‘जात’ शीर्षक लघुकथा में भी यह दर्शाया है कि पौने तीन वर्ष का छोटा बच्चा जब जमादारिन से लड्डू लेता है तो उसके पिताजी नाराज हो जाते हैं और जमादारिन को गाली देने लगते हैं – “साली, ब्राह्मण के बच्चे को लड्डू खिलाकर भ्रष्ट करना चाहती है?.....” लेकिन जब उसकी पत्नी मामले को रफा-दफा करने के लिए कहती है कि पंडिताइन ने ही नन्हे को लड्डू दिया है तो वह गिरगिट की तरह रंग बदलता है और कहता है – “मैं भी कहूँ... मेरा बेटा इतना गिरा, गंदा कैसे हो सकता है?” जात और मजहब के कोढ़ ने इनसानों के दिलोदिमाग को भी जहरीला बना दिया है, सोचने-विचारने की शक्ति भी क्षीण होती जा रही है, इंसान हैवान बनते जा रहे हैं. 

लेखक कमल चोपड़ा मानवता के पक्षधर हैं. वे कट्टरवाद और सांप्रदायिकता का घोर विरोध करते हैं. पहले चर्चित लघुकथा ‘छोनू’ में लेखक ने एक बच्चे के मुँह से जहाँ यह कहलवाया है कि “मैं छिक्ख-छुक्ख नई अूँ ... मैं बीज-ऊज नई अूँ .... मैं तो छोनू हूँ...” वहीं ‘मजहब’ में कहा है कि “किसी भी मजहब की कोई बात ठीक लगे और उससे फायदा हो तो उसे अपना लेना चाहिए.” इसी तरह ‘धर्म के अनुसार’ शीर्षक लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि धर्म और मजहब एक-दूसरे से लड़ने का नहीं बल्कि सहायता करने का संदेश देते हैं. इस कहानी का अंत कट्टरपंथियों पर प्रहार करता है- “किसी का धर्म देखकर उसकी जान बचाओ ऐसा कहाँ लिखा है? मैंने वही किया है जो मेरे धर्म में करने को कहा गया है. वैसे भी वो विष्णुपुर हिंदू का मोहल्ला है. वहाँ उस हिंदू जख्मी आदमी की कोई न कोई मदद कर ही देगा पर यह पड़ा-पड़ा मर जाता तो हमारे धर्म के खाते में एक खून का धब्बा और बढ़ जाता.” सभी धर्म यही कहते हैं कि इंसानियत की रक्षा करो और शांति को कायम करो. 

‘सिर्फ इनसान’ शीर्षक लघुकथा में कमल चोपड़ा ने यह प्रतिपादित किया है कि कोई व्यक्ति काफिर नहीं होता. यह लघुकथा कट्टरवादी सोच पर सीधी चोट करती है. देखिए – “बॉस. शातिर बदमाशों को ठिकाने लगाना तो मेरा पेशा है, पर दंगा करवाने के लिए... मैं तो मार्केट में से निकलने वाली एक गली के मोड़ पर छिपकर खड़ा भी हो गया था. ××× दरअसल वहाँ से औरतें, बच्चे, जवान, बूढ़े वगैरह तो गुजरते रहे, पर वहाँ से कोई काफिर नहीं गुजरा. कोई ऐसा नहीं लगा जो काफिर दीखता हो.” 

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देश की स्थिति सोचनीय बनती जा रही है. एक ओर मानवीय मूल्यों का ह्रास है तो दूसरी ओर सांप्रदायिक उन्माद. तरह तरह के टकरावों के कारण सामाजिक-सांस्कृतिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है. अमीर दिन-ब-दिन सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे हैं तथा गरीब गर्त में डूबते जा रहे हैं. इस यथार्थ का खुलासा कमल चोपड़ा की अनेक लघुकथाओं में हुआ है. ‘खेलने के दिन’ में यह दिखाया गया है कि बच्चों का बचपन उनसे छीना जा रहा है. उनके खेलने के दिन तो खत्म ही हो गए. दो वक्त की रोटी के लिए उन्हें मजबूरी में मजदूरी करनी पड़ रही है. ‘खेलने के दिन’ के बाबूजी झुग्गियों में रहने वाले बच्चों के पास जाकर मुफ्त में खिलौने बाँटते हैं. एक बच्चे की यह बात सुनकर वे हक्के-बक्के रह जाते हैं, “मैं इसे नहीं ले सकता. मैं इसे घर ले जाऊँगा, तो माँ-बापू समझेंगे कि मैंने मालिक से ओवरटाइम के पैसे उन्हें बिना बताए ले लिए होंगे और उनसे खिलौने ले आया होऊँगा... वे नहीं मानेंगे कि किसी ने मुफ्त में दिया होगा. शक में मेरी तो पिटाई हो जाएगी...” दूसरे बच्चे का कथन तो और भी चौंकाता है, “बाबूजी, खिलौने लेकर हम करेंगे क्या? मैं फैक्टरी में काम करता हूँ. वहीं पर रहता हूँ. सुबह मुँह अँधेरे से देर रात तक काम करता हूँ. किस वक्त खेलूँगा इनसे? आप ये खिलौने किसी ‘बच्चे’ को दे देना....”. लेखक ने ‘बच्चे’ को अवतरण चिह्न में प्रयोग करके यह दर्शाया है कि गरीब बच्चों का बचपन गायब होता जा रहा है. उसे सुरक्षित रखना हर एक नागरिक का कर्तव्य है. बालश्रम पर रोक लगाते हुए अनेक कानून बने लेकिन आज भी झुग्गी-झोंपड़ी के बच्चे स्कूल जाने के बजाय फैक्ट्री जाते हैं ताकि दो वक्त की रोटी खा सकें. ‘सपने’ शीर्षक लघुकथा में लेखक ने बाल शोषण पर कुठाराघात किया है. ठेकेदार बबलू को लोहे की चद्दरों वाले शेड के ऊपर चढ़ा देता है और नीचे से पुर्जों से भरे हुए बोरी के कट्टे पकड़ा देता है. बबलू को उन बोरियों को शेड के दूसरी तरफ रखना होता है. बबलू इस काम से बहुत डर जाता है क्योंकि शेड के ठीक नीचे तेजाब का टैंक है. इसी डर से वह हमेशा बुरे सपने देखता रहता है. लेखकीय आशावाद के फलस्वरूप उसकी माँ उसे आश्वस्त करती है कि वह उसे पढ़ाएगी-लिखाएगी, नौकरी करने नहीं भेजेगी. 

भारत कृषि प्रधान देश है. कृषि से देश की आमदनी में इजाफा होता है लेकिन किसानों की तो दुर्दशा है. किसान खून-पसीना बहाकर खेती करते हैं, फसल उगाते हैं पर अंत में उनके हाथ कुछ नहीं लगता, कर्ज के सिवाय. सरकार ने किसानों के लिए अनेक योजनाएँ बनाई हैं लेकिन वास्तविक स्थिति इसके विपरीत है. ‘मंडी में रामदीन’ शीर्षक लघुकथा में कमल चोपड़ा ने यह दर्शाया है कि एक किसान अपना खून-पसीना बहाकर तरबूज की खेती करता है. फिर गाड़ी में लादकर मंडी जाता है इस आशा में कि तरबूज बिक जाएँगे तो उसे मेहनत का फल प्राप्त होगा. लेकिन गाड़ी का किराया, पुलिस की घूस आदि में ही सारे पैसे खर्च हो जाते हैं. गाँव वापस जाने के लिए भी उसके पास भाड़ा तक नहीं बचता. ऐसी स्थिति में फल-सब्जी व्यापार मंडल का एक आदमी रसीद बुक लेकर आता है और कहता है कि ‘तुमने माल बेचा है. इक्यावन रुपए की पर्ची कटवाओ’ तो रामदीन खीझ उठता है और कहता है “एक पैसा नहीं बचा है मेरे पास. अब क्या अपने कपड़े उतारकर दूँ? मैंने बेचा कहाँ से है...? मेरा माल तो यहाँ लूट लिया गया है.” इस प्रकार के शोषणचक्र में फँसे हुए किसानों की दशा इतनी दयनीय होती जा रही है कि दिन-ब-दिन वे कर्ज के गर्त में डूबते जा रहे हैं और बेबसी की हालत में आत्महत्या कर रहे हैं. 

आर्थिक कठिनाइयों के कारण मनुष्य इतना बेबस हो जाता है कि उसकी सूझबूझ भी जवाब देने लगता है. वह न तो मन लगाकर काम कर सकता है और न ही समस्याओं को सुलझा सकता है. हर वक्त परेशानी के घेरे में ही रहता है. आर्थिक परेशानियों से जूझते हुए ऐसे ही व्यक्ति की व्यथा-कथा है ‘अनुपस्थित’. चलने-फिरने से लाचार माँ, दहेज की रकम का पूरा इतंजाम न हो पाने के कारण घर में बैठी बहन, घर के खर्च न चल पाने कारण परेशान पत्नी और बीमार मुन्ने की चिंता रघुवीर को खाए जा रही है. ऐसी स्थिति में वह मन लगाकर काम भी नहीं कर पाता है. वर्कशाप में मशीन चलाते समय नुकसान होते-होते बच जाता है लेकिन मालिक उसे फटकारने लगता है कि ‘तुम्हारा ध्यान कहाँ होता है? .... तुम होते कहाँ हो?’ घर पहुँचने पर पता चलता है कि मुन्ना सदा के लिए उसे छोड़कर चला गया. उस समय पत्नी कराहती है – “जब मुन्ना दम तोड़ रहा था तब तुम कहाँ थे?” रघुवीर समझ नहीं पाता कि वह कहाँ था. वह अपने आपसे सवाल करने लगता है - “काम पर भी नहीं था, यहाँ भी नहीं था... तो था कहाँ मैं? कहाँ हूँ मैं? जहाँ हूँ, वहाँ क्यों हूँ?” यह स्थिति केवल रघुवीर की ही नहीं बल्कि औसत मध्यवर्ग की स्थिति है जो आर्थिक समस्या से जूझते रहने के कारण सब कहीं अनुपस्थित रह जाता है. 

कमल चोपड़ा ने अपनी कथा ‘मेहनताना’ में दिखाया है कि अब गरीब भी जाग चुके हैं; अपनी मेहनत का पूरा पैसा वसूल करके ही छोड़ेंगे. लाला रेहड़ी वाले को दस रुपए का नोट थमाकर उसे रफा-दफा करना चाहता है लेकिन वह अपनी मेहनत के पैसे के लिए अड़ जाता है. तब लाला कहता है, ‘तू ज्यादा ही करता है न, तो यह माल जहाँ से लाया है वापस वहीं ले जा...’ लाला यह सोच रहा था कि रेहड़ी वाला माल वापस नहीं ले जाएगा बल्कि हारकर उसकी बात मानेगा. पर इसके विपरीत वह रेहड़ी वाला माल लाद कर वापस लौट जाता है तो लाला उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगता है और ‘काफी हील-हुज्जत के बाद पूरे पचास रुपए लेकर ही वह’ मानता है. लालाजी को उसकी काफी खुशामद करनी पड़ती है. इससे यह स्पष्ट है कि निम्नवर्गीय व्यक्ति भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो चुका है. 

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आजकल कालाबाजारी, ड्रग्स माफिया और स्मगलिंग का भी बोलबाला है. इस धाँधली से रातों रात कुछ लोग अरबपति बन जाते हैं. नशीले पदार्थों का सेवन करना फैशन बनता जा रहा है. ड्रग्स माफिया का रैकट बहुत बड़ा है और देश से लेकर विदेशों तक फैला हुआ है. कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ, स्कूली बच्चे भी नशीले पदार्थों के आदी हो रहे हैं. पहले तो उन्हें मुफ्त में स्मैक आदि दिया जाता है बाद में जब उसकी आदत पड़ जाती है तो पैसा ऐंठना शुरू कर देते हैं; और तो और नाजायज काम भी करवाते हैं. ‘कत्ल में शामिल’ शीर्षक लघुकथा में कमल चोपड़ा ने ड्रग्स माफिया का खुलासा किया है. नंदू निम्नवर्गीय परिवार का लड़का है. उसे स्मैक की लत पड़ जाती है. पहले तो मुफ्त में पीता था, बाद में शौक के लिए और उसके बाद धीरे-धीरे स्मैक उसकी मजबूरी बन जाती है. झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाला नंदू स्मैक का आदी हो जाता है. दिन भर काम करता और उन पैसों से स्मैक खरीदकर नशे में धुत रहता. उसके पिताजी उसकी आदत छुड़वाने की कोशिश में हार जाते हैं तो वे स्वयं बेटे को स्मैक खरीदकर देते हैं क्योंकि बेटे की तड़प उनसे देखी नहीं जाती. एक दिन काम से वापस आने पर पिता देखता है कि उसका बेटा बेजान पड़ा है तो वह सीधे पुलिस थाने पहुँचकर कहता है, “मैं कसूरवार हूँ. कत्ल में शामिल हूँ! मैंने पहले ही आपके खिलाफ कुछ क्यों नहीं किया? शाखाओं में उलझा रहा, जड़ क्यों नहीं काटी?” पुलिस भी जानती है लेकिन कुछ नहीं कर पाती. केवल नंदू की ही नहीं बल्कि छोटू, दीपू, कल्लू, जीतू, रामू, अज्जू न जाने कितने लोग इसका शिकार हो रहे हैं? आखिर इसे रोकेगा कौन? 

सत्तालोलुपता और स्वार्थ का साम्राज्य चारों ओर फैला हुआ है. ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की उक्ति सार्थक हो रही है. ‘अपहरण’ शीर्षक कथा में यह दर्शाया गया है कि बेगुनाह लोगों की जान की कोई कीमत नहीं होती. धनपत सेठ के दस वर्षीय लड़के का जब अपहरण होता है तो शक के तौर पर नौकर को पुलिस पकड़कर ले जाती है. उसका बेटा गिडगिडाता है कि बापू निर्दोष है लेकिन पुलिस के चंगुल से बापू को बचाने के लिए उस मासूम से बीस हजार रुपए माँगे जाते हैं. अपहरणकर्ताओं के चंगुल से सेठ का लड़का छूटकर घर लौट आता है तो वह बेचारा इस आस में थाने में पहुँचता है कि अब तो उसके बापू को बिना पैसे लिए छोड़ दिया जाएगा. लेकिन थानेदार लापरवाही से जवाब देता है कि उसके बापू को उसी दिन छोड़ दिया गया था. वह बच्चा “रोता-कुरलाता माँ को मिलने हस्पताल की ओर चल पड़ा. रास्ते में उसे पता चला, उसके बापू की लाश थाने से तीन किलोमीटर दूर से गुजरने वाली रेल की पटरियों पर पड़ी पाई गई है.” यहाँ वे घटनाएँ पाठक को याद आती हैं जिनमें पुलिस एनकाउंटर के नाम से लाचार और बेगुनाहों को मौत के घाट उतार देती है. सुरक्षा कहाँ है? रक्षक ही भक्षक बन जाय तो रक्षा के लिए किसके दरवाजे खटखटाएँ आखिर? 

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कमल चोपड़ा की लघुकथाओं से यह स्पष्ट होता है कि वे आशावादी रचनाकार हैं. उन्होंने यह दर्शाया है कि आत्मविश्वास से आगे बढ़ेंगे तो हर काम में सफलता प्राप्त होगी. उन्होंने लघुकथाओं में ज्यादातर भ्रष्टाचार, अराजकता, सांप्रदायिकता, बलात्कार, बाल शोषण जैसी सामाजिक विद्रूपताओं पर खुलकर प्रहार किया है और सकारात्मक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया है. उन्होंने अपने आसपास की घटनाओं को ही कथ्य बनाया है. उनकी लघुकथाओं को पढ़ते समय पाठक को यही लगता है कि इस घटना से वह भलीभाँति परिचित है क्योंकि समस्त कथाओं का तानाबाना यथार्थ के धरातल पर निर्मित है.

कमल चोपड़ा कभी-कभी अपनी लघुकथा का आरंभ किस्सागोई या कहन शैली में करते हैं तो कभी-कभी अचानक बिना किसी पृष्ठभूमि के. कभी-कभी यह भी देखने को मिलता है कि लघुकथा सीधे पाठक को संबोधित करती है. फिर उसका विकास होता है और अंत में पंचलाइन के साथ कथा समाप्त होती है, पाठक को विचलित करते हुए. शीर्षक भी पूरी तरह कथा से जुड़ा हुआ होता है. कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ आकारीय दृष्टि से तो लघु हैं ‘पर घाव करैं गंभीर’ के अनुरूप इनमें स्थानीयता और वैश्विक विषय को एक साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति है. 

कमल चोपड़ा की लघुकथाओं का आरंभ प्रायः बिना किसी पृष्ठभूमि के हो जाता है. कुछ उदाहरण देखें – 

  • खबर फोन पर मिली थी, जिसे सुनकर वह एकाएक उदास हो गई थी. घबराकर पति ने पूछा था, ‘खैर तो है?’ भर्राये स्वर में उसने कहा, भैया कंपनी की तरफ से यू.के. जा रहे हैं. एक ही तो भाई है मेरा, वो भी विदेश जा रहा है. इतनी दूर! (इतनी दूर) 
इस लघुकथा का आरंभ फोन पर प्राप्त सूचना के उल्लेख्क से हुआ है. सूचना क्या है? यह उत्सुकता स्वाभाविक है जो ‘एकाएक’, ‘उदास’ और ‘भर्राए स्वर’ से और भी घनीभूत घनीभूत हो जाती है. बहन के मनोभाव को उजागर करने के लिए प्रश्नवाचक वाक्य और विस्मयादिबोधक चिह्न का प्रयोग किया गया है. इसी प्रकार एक और उदाहरण देखें – 
  • डबडाकर उठ बैठा बबलू. डरा सहमा-सा अंधेरे में बैठा थर-थर काँपने लगा. पास सोयी माँ की नींद खुली तो घबरा कर पूछी, ‘अभी तक सोया नहीं? डरी-सी आवाज में कहा बबलू ने, ‘सो जाऊँगा तो सपने आएँगे!’ (सपने) 
यहाँ लघुकथाकार ने हडबडाना, उठ बैठना, डर जाना, सहम जाना, थर-थर काँप उठना, सपने के डर से जागते रहना - क्रियाओं का प्रयोग करके बाल मानस को दर्शाया है तथा पाठक की जिज्ञासावृत्ति को जगाया है. 

कुछ लघुकथाओं का आरंभ विवरणात्मक शैली में हुआ है. यथा – 
  • मकान के मलबे को देखकर अंदर-ही-अंदर जैसे वह तड़फड़ा रही थी. इस घर में उसकी डोली को आये दो दिन ही हुए थे कि एकाएक बेघर कर दिया गया था. (मलबे के ऊपर) 
  • लड़की को मास्टरजी के घर से निकले देखकर देखने वालों की आँखों से आग की लपटें निकलने लगी थीं. कर्फ्यू में ढील मिलते ही लड़की के घरवाले आकर लड़की को ले गए थे. वे जिस तेजी से आए थे, उसे तेजी से लौट गए थे. उनके जाने के बाद मोहल्ले में हड़कम्प-सा मच गया था. (उलटा आप) 
यहाँ विशेष बात यह हसी कि कथाकार ने इन आरंभिक विवरणों से संबंधित विषय की ‘सूक्ष्म डिटेल्स’ का समावेश किया है. 

लघुकथाओं के समापन शिल्प पर ध्यान दें तो पता चलता है कि ज्यादतर लघुकथाओं का अंत पाठकों को झकझोरने वाला है. इस दृष्टि से ‘इतनी दूर’, ‘खलेने के दिन’, ‘मंडी में रामदीन’, ‘छोनू’, ‘खेल’, ‘’उलटा आप’, ‘वहाँ नहीं रहते वे’ आदि उल्लेखनीय हैं. 
  • वह भगवान जी का घर नहीं है. वहाँ नहीं रहते वे! वहाँ तो बस गुंडे-वुंडे रहते हैं. (वहाँ नहीं रहते वे) : लघुकथा के इस अंतिम वाक्य से पाठक की चेतना पर हथौड़ा पड़ता है क्योंकि भगवान को गुंडों द्वारा अपदस्थ और निर्वासित कर दिया जाना हमारे समय की बहुत बड़ी त्रासदी है.
  • अब्बू के बचाने की कोशिश के बावजूद लहूलुहान होकर वह अपने मजहबवालों के बीच गिर पड़ी थी. (उलटा आप) : विवशता, असहाय स्थिति, धर्म की विडंबना और हिंसा का दृश्य पाठक को द्रवित भी करता है और विचलित भी. 
  • पर माँ... मैंने तो लच्छी को कभी नया पैसा भी नहीं दिया. बाबू तो तुम्हें... माँ...माँ... मैं यह पच्चीस पैसे लच्छी को दे आऊँ? (खेल) : इस बाल सुलभ प्रश्न में सामाजिक संबंधों की विडंबनापूर्ण स्थिति अपनी क्रूर परिणति के साथ सामने आती है. 
  • मैं छिक्ख-छुक्ख नई अूँ... मैं बीज ऊज नई अूँ... मैं तो छोनू हूँ. (छोनू) : यह अंत पाठक से ऐसी ही बाल सुलभ सरलता, निश्चलता और पारदर्शिता की माँग करता है. 
  • हमेशा तो हम लोग मन मारकर रह जाते हैं. इनको भी तो पता चले, मन मारकर रह जाना कितना कष्टप्रद होता है? (बहुत बड़ी लड़ाई) : वर्ग भेद से उपजी हताशा और उससे जुड़े क्रोध को यह अंतिम वाक्य भली प्रकार ध्वनित करता है जिसकी प्रतिध्वनि देर तक मस्तिष्क में गूँजती है. 
कुछ लघुकथाओं का अंत सूक्तिपरक भी होता है. उदाहरण के लिए – 
  • जान लो अहिंसा और शांति का संदेश देना कठिन अवश्य है पर असंभव नहीं. (शांति शांति) 
  • किसी भी मजहब की कोई बात ठीक लगे और उससे फायदा हो तो उसे अपना लेना चाहिए. (मजहब) 
कमल चोपड़ा की कुछ लघुकथाओं का समापन विपथित अंत की शैली में किया गया है. उदाहरण के लिए – ‘खेलने दो’ शीर्षक लघुकथा के अंत में जब चरणू दुसरे बच्चों की दबंगई के समक्ष आत्मसमर्पण करने के बजाय निडरता के साथ उनकी गेंद को वापस कीचड़ में फेंक देता है तो शिल्प स्वयं ही उस वर्ग के बदले हुए तेवर की सूचना दे जाता है जिससे ऐसे प्रत्युत्तर की अब तक उम्मीद नहीं थी. यथा – “चरणू ने गुस्से से उस बॉल को जिसे उसने गहरे गंदे नाले से अपनी जान की बाजी लगा कर निकाला था, उसे उसने फिर से नाले में फेंक दिया और गंभीर क़दमों से वहाँ से चल पड़ा, ‘देखता हूँ, तुम भी कैसे खलते हो’!” (खेलने दो) 

इसी प्रकार ‘इच्छा’ शीर्षक लघुकथा के अंत में बहु द्वारा हलवा खाने के लिए बुलाए जाने पर इच्छा होते हुए भी बाबूजी का मना करना कहानी की चली आ रही रेखा को विपरीत दिशा में मोड़ देता है और परिवार में वृद्ध सदस्य के सम्मान का प्रश्न हलवा खाने की इच्छा की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण बनाकर अग्रप्रस्तुत होता है. जैसे – “छोटे बच्चों की तरह इठलाते हुए उन्होंने कहा, बूढ़ा हो गया हूँ मैं, मुझे हलवा पचेगा नहीं. मैं तो नहीं खाऊँगा.” (इच्छा)

इसके अलावा यहाँ ‘निशानी’ कहानी का अंत भी द्रष्टव्य है जिसमें सास की अपेक्षा के विपरीत बहु कैंसर पीड़ित पति की संतान को जन्म न देने का निर्णय लेती है. देखें – “तड़पकर रह गई वह. उसके दिलोदिमाग पर कई विस्फोट एक साथ हुए. अपनी इच्छापूर्ति के लिए किसी अजगर की तरह मेरी जिंदगी को समूचा ही निगल गई यह धोखेबाज बुढ़िया? निशानी तो इसे नहीं ही देनी. उसने पैर मारकर दरवाजा भड़ाक से खोल दिया. सामने बहू को खड़ा देख बुढ़िया थर-थर काँपने लगी.” (निशानी) 

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कमल चोपड़ा की लघुकथाओं में व्यंग्य शिल्प भी उल्लेखनीय है. वस्तुतः व्यंजना शब्द शक्ति को व्यंग्य का जनक माना जा सकता है. यह एक ऐसा उपकरण है जिसके माध्यम से वक्ता अपना आक्रोश व्यक्त कर सकता है. साँप मरे और लाठी भी न टूटे. यदि यह कहा जाय कि व्यंग्य का उद्देश्य लोकहित है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. जो बात चोट कर जाए, सोचने पर बाध्य करे, पाठक/ श्रोता तिलमिला उठे वह व्यंग्य है. कमल चोपड़ा ने अपनी अधिकांश लघुकथाओं में इस उपकरण का सहारा लिया है. विशेष रूप से धार्मिक विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए उन्होंने इसका सटीक प्रयोग किया है. 

भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, संविधान की दृष्टि से. यह भी कहा जाता है कि यहाँ भिन्नता में एकता द्रष्टव्य है. धर्म सबको एकसूत्र में पिरोने के लिए आवश्यक है लेकिन खेद का विषय है कि धर्म के नाम पर ही इस देश में चारों ओर अराजकता फैल रही है. इसका चित्रण ‘अनर्थ’ शीर्षक लघुकथा में हुआ है. दुकानदार फटे-पुराने कैलेंडर के टुकड़ों को झाड़ू मार रहा था तो तिवारी जी के चीखने पर लोग इकठ्ठा हो गए और उस दुकानदार को लहूलुहान कर दिया. “लोगों की घृणा और गुस्सा दुकानदार पर उतरने लगा. लहूलुहान दुकानदार सड़क पर बिछा दिया गया. उसका लहू भगवानजी के टुकड़ों को भिगोने लगा था. उसकी दुकान को अग्नि के सुपुर्द कर दिया गया. आग फैलती जा रही थी. मामला धर्म का था. शटर गिरने लगे. भगदड़ मच गई.” जब दूसरे धर्म वालों की आवाजें सुनाई दीं तो तिवारी जी नंगे पैर भागने लगे. अचानक नंगे पैरों में कोई चीज चुभ गई तो दर्द से बिलबिला उठे. “झुककर उन्होंने वह चीज उठाई. किसी का गले में लटकने वाला बड़ा सा लॉकेट था जिस पर भगवानजी की तस्वीर थी. एक हाथ से उन्होंने अपने पैर को सहलाया. दूसरे हाथ से भगवानजी के चित्र वाला लॉकेट सड़क पर दे मारा. लॉकेट लुढ़कता हुआ नाली में जा गिरा. इस बार तिवारीजी की चीखें नहीं निकली.” इस प्रकार धर्म के नाम पर पाखंड और परिस्थिति बदलने पर विपरीत आचरण को आमने-सामने रखकर लेखक ने कथनी-करनी के भेद को उभारा है. 

कहा जाता है कि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं. लोग आस्था और विश्वास के साथ मंदिर जाते हैं. ‘वहाँ नहीं रहते वे’ शीर्षक कथा में रिजू और विशू मरे हुए पिल्ले रोमी को लेकर इस आस में मंदिर पहुँचते हैं कि “मंदिर या मस्जिद में रहता होगा ना ऊपरवाला! तभी तो लोग वहाँ आकर पूजा करते हैं..” और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि ‘रोमी को जिंदा कर दें.’ इतने में एक आदमी मीटिंग हाल से बाहर निकलता है और चीखने लगता है कि ‘पूजास्थल में मरा हुआ कुत्ता..! अनर्थ! घोर अनर्थ! पूजास्थल को अपवित्र करने की नापाक कोशिश!” लोग उन दोनों को मारने दौड़ते हैं तो दोनों अपनी जान बचाने के लिए वहाँ से भाग खड़े होते हैं. लेखक विशू के माध्यम से व्यंग्य करते हैं कि “वह भगवानजी का घर नहीं है. वहाँ नहीं रहते वे! वहाँ तो बस गुंडे-वुंडे रहते हैं...” 

समाज में व्याप्त वर्ग भेद पर भी कमल चोपड़ा व्यंग्य करते हैं. ‘खेलने दो’ शीर्षक लघुकथा में उच्च वर्ग की मानसिकता में निहित घृणा, दंभ और दमन की प्रवृत्तियों पर व्यंग्य किया गया है. उच्च वर्ग के लोग यह सोचते हैं कि पैसों के बल पर वे गरीबों को खरीद सकते हैं, उनसे कुछ भी करवा सकते हैं. इस कथा में यह दिखाया गया है कि जब बच्चे खेल रहे थे तो गेंद बदबूदार नाले में गिर गई. नितिन चरणू को लालच देता है कि यदि वह गेंद ला देगा तो एक रुपया भी देगा और अपने साथ खेलने की अनुमति भी. निम्नवर्गीय चरणू लालच में आकर नाले में उतर जाता है. यहाँ लघुकथाकार ने उच्चवर्गीय मानसिकता को दर्शाया है- “साला नीच.... देखो तो, एक रुपए के लिए गंदगी में घुसकर.... ये साला नीच ... ये गरीब लोग इतने लालची और गिरे हुए होते हैं कि रुपया क्या एक पैसे के लिए तो ये जान भी दे दें.” गेंद निकालने के बाद चरणू कहता है कि “मैंने इस एक रुपये के पीछे इतना बड़ा खतरा मोल नहीं लिया था... मैं भी तुम्हारे साथ खेलना चाहता हूँ” तो सब हँसने लगते हैं और उसे ‘सूअर’ कहकर संबोधित करते हैं. उस पर “गुस्से से उस बॉल को जिसे उसने गंदे नाले से अपनी जान की बाजी लगा कर निकाला था, उसे उसने फिर से नाले में फेंक दिया और गंभीर कदमों से वहाँ से चल पड़ा.” यह पूरा घटनाचक्र व्यंजनापूर्ण है तथा शोषण और दमन के विरोध में पक रहे आक्रोश और विद्रोह को ध्वनित करता है. 

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कमल चोपड़ा की लघुकथाओं में बोलीगत प्रयोग भी द्रष्टव्य है. इनसे लघुकथाओं में भाषिक विश्वसनीयता का समावेश हुआ है. साथ ही ये प्रयोग कथाभाषा को नई अभिव्यक्तियों से भी समृद्ध करते प्रतीत होते हैं. 
  • बावले, इन्न में कटड़ा नई कटड़ी आच्छी होवे है. कटड़ी बड़ी होके दूध देवेगी. अर कटड़ा साला के करेगा? झोटा-बुग्गी भी चलने बंद हो गए आजकल ते. (वैल्यू) 
  • तोहर ई पंख-वंख काट देब! ई सब ना चली! (तोहरे खातिर)
  • पत्नी फनफनाई. (छाँव) 
कमल चोपड़ा ने अपनी लघुकथाओं में यत्र-तत्र लेखकीय टिप्पणियों का समावेश करके सामाजिक विद्रूपताओं का पर्दाफाश करता है. साथ ही उन पर प्रहार भी. ये टिप्पणीयाँ प्रायः सूक्ति के रूप में हैं. 
  • छोटी-छोटी इच्छाओं को लेकर ही तो आदमी कितने बड़े-बड़े अपराध कर बैठता है. जब तक इंसान ज़िंदा रहता है, इच्छाएँ तो जन्मती ही रहती हैं. (इच्छा) 
  • बात धर्म की आती है तो जाने क्यों लोग अपना विवेक खो बैठते हैं? (शांति-शांति)
  • पीढ़ियों से अहिंसा का संदेश फैला रहे हैं लेकिन आज काम...? (शांति-शांति)
  • मेरे शांतिप्रिय मित्रो, जान लो, कि अहिंसा और शांति का संदेश देना कठिन अवश्य है पर असंभव नहीं. (शांति-शांति) 
  • किसी भी मजहब की कोई बात ठीक लगे और उससे फायदा हो तो उसे अपना लेना चाहिए. (मजहब) 
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इन लघुकथाओं में कथ्य एवं पात्र के अनुरूप भाषा प्रयोग द्रष्टव्य है. बच्चों के मुँह से तुतली बोली का प्रयोग बखूबी किया गया है. यथा – ‘मैं छिक्ख-छुक्ख नई अूँ...’ (छोनू), ‘मैं नईं... मैं कों दूँ? गुलिया मेली है.’ (बहुत बड़ी लड़ाई). 

पाठ निर्माण की दृष्टि से लघुकथाकार कमल चोपड़ा ने अनेक स्थलों पर नकारात्मक अर्थ के संप्रेषण के लिए प्रश्नात्मक वाक्य रचनाओं का प्रभावशाली विधान किया है. जैसे - 
  • यहाँ रखा ही क्या है? (इतनी दूर) 
  • एक शहर में रहते हुए भी रोज-रोज कहाँ मिलना हो पाता है? (इतनी दूर) 
  • तन ढँकने के लिए कपड़े भी माँग-ताँगकर पहन ही लेते है, पर खिलौने उन बेचारों के नसीब में कहाँ? (खेलने के दिन) 
  •  किस वक्त खेलूँगा इनसे? (खेलने के दिन) 
  •  किसान के बिना लोग खाएँगे क्या? (मंडी में रामदीन) 
  • इधर हमारा कैसे चलेगा? (मेरा खून)
इसके अतिरिक्त कथन में अर्थगांभीर्य और ध्वन्यात्मकता के लिए ‘ही’ और ‘तो’ का सटीक प्रयोग किया गया है. 
‘ही’ : 
  • विदेश की बात ही कुछ और है. (इतनी दूर) 
  • आम तौर पर फोन पर ही बात होती है. (इतनी दूर) 
  • संतान भी एक किस्म का सत्ता ही होती है. (सर ऊँचा) 
  •  ये मुसलमान थोड़ी ही न हैं! ये तो मेरे शैफू चाचा है. (बताया गया रास्ता)
‘तो’ :

  • सुरेश आवारा व निकम्मा सट्टेबाज तो है पर है तो उनका पुत्र (सर ऊँचा) 
  • भूख होती तो मैं खा ही लेता (अन्न का मजहब)
  • ठाकुर साहब! एक आपके होने की ही तो चिंता है...! (एक उसका होना)
  •  माँ को तो टी.बी. है ही.... मुझे भी हो गई तो...? (रोग और रिश्ते)
  •  जो होना था वो तो हो गया! (बदला)

लघुकथा में अपूर्ण वाक्यों और मौन के सटीक प्रयोग द्वारा आकारगत लघुता को तो प्राप्त किया ही जाता है. प्रसंगानुसार इनसे कथन के प्रभाव को भी बढ़ाया जाता है. कमल चोपड़ा ने भी अपनी लघुकथाओं में इस युक्ति का सहारा लिया है. यथा - 
  • किसी का क्या कसूर... हमारी किस्मत ही..... (सीख) 
  • होली भी आकर चली गई थी, फोन तक नहीं किया! और बाबूजी इधर.... (इतनी दूर) 
  • आप ये खिलौने किसी ‘बच्चे’ को दे देना.... (खेलने के दिन) 
  •  पहले तो बहन-बेटी को माँ बाप के दुश्मनों से ही खतरा था, अब तो खुद माँ बाप से भी....! (बदला) 
  • आपकी पेंशन से ही तो.... (मेरा खून) 
  • तू क्या गई, हमारे घर से तो लक्ष्मी ही रूठ गई.... (मलबे के ऊपर) 
  •  हाय रे! तूने इस घर में पैर क्या रखा.... (मलबे के ऊपर) 
  •  मैं घर की इज्जत हूँ तो.... (बदला) 
भाषा की लाक्षणिकता मुहावरों के समावेश से बढ़ जाती है. अपनी लघुकथाओं को पैनापन प्रदान करने के लिए, इसीलिए, कमल चोपड़ा ने बहुत से अवसरों पर मुहावरेदार भाषा का व्यवहार किया है. जैसे - 
  • कुएँ और खायी के बीच लटक गया था रामदीन (मंडी में रामदीन) 
  •  इधर कुआँ, उधर खायी थी. बीच में लटक गए थे बाबूजी. (सर ऊँचा) 
  • अब मेरे एक हाथ में मेरे कलेजे में ठंडक पड़ जाने का लड्डू है और दूसरे में सात लाख रुपयों के ऑफर का लड्डू है. (बदला) 
  • हमेशा तो हम लोग मन मारकर रह जाते हैं. इनको भी तो पता चले, मन मारकर रह जाना कितना कष्टप्रद होता है? (बहुत बड़ी लड़ाई) 
  •  रंग में भंग तो डाल दिया भगवान ने... अब बेटी की शादी कैसे कर पाऊँगा? (खू-खाता)
कमल चोपड़ा ने अपनी लघुकथाओं में जीवंत भाषा का प्रयोग किया है. एक ओर स्थानीयता का प्रयोग है तो दूसरी ओर अंग्रेजी एवं उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग भी द्रष्टव्य है. 

अंग्रेजी कोड मिश्रण
  • बस एक क्लिक और दूरियाँ खत्म... (इतनी दूर) 
  • इंडस्ट्रीयल एरिया के पीछे बनी घुग्गियों की ओर चल दिए (खेलने के दिन) 
  • शेड्यूल कास्ट कोटे से बिना योग्यता के अफसर बन गया (अपनों से निकलकर) 
  • अब्बू ने कैटरिंग वाले को फोन करके पार्टी को कैंसिल करने के लिए कह दिया (अभिन्न) 
  • टेंशन, डिप्रेशन, सिरदर्द, घबराहट, बेचैनी, चक्कर और जाने क्या-क्या! (प्लान) 
उर्दू कोड मिश्रण 
  •  हैवानियत और दरिंदगी हँसने लगी (छोनू) 
  •  खुदा की कसम! (उलटा आप) 
  •  ये बाँह जो तेरा सहारा बंटी थी जालिमों ने तोड़ दी है (बाँह-बेली) 
  •  तेरे मजहबवालों ने तो बर्बाद कर दिया है (बाँह-बेली) 
  • खामखाह डरामा करेगी (ख्याल रखना) 
अंततः यह कहना समीचीन होगा कि अपनी लघुकथाओं में कमल चोपड़ा सामाजिक विसंगतियों पर सीधा प्रहार करते हैं और कथा के अंत में ‘पंच’ के साथ उनकी धज्जियाँ उड़ाते हैं. इनकी भाषा बोधगम्य तथा परिवेश और पात्र के अनुरूप है. इनकी लघुकथाओं में व्यंग्य भी है और फटकार भी; आक्रोश भी है और चेतना तथा जागरूकता भी.