रविवार, 25 सितंबर 2016

हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश

   
“मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा)। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण-भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सब कुछ बह जाते हैं।“ (हजारीप्रसाद द्विवेदी) 

भारतवर्ष के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के सपने देखने वाले, मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा की बात करने वाले, सभ्यता और संस्कृति के अर्थ को समझाने वाले आकाशधर्मी साहित्यकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में कुछ कहना या लिखना आसान नहीं हैं। द्विवेदी जी प्रखर आलोचक के साथ-साथ कवि, समीक्षक, निबंधकार और उपन्यासकार हैं। यह देखा जा सकता है कि उनके हर लेखन का केंद्र मनुष्य है। उनकी हर बात मनुष्य से शुरू होकर मनुष्य में समाप्त होती है। मानवता के प्रति गहन आस्था रखने वाले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में निहित परिवेश का मूल्यांकन डॉ. मृगेंद्र राय ने अपनी आलोचनात्मक कृति ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश’ में बखूबी किया है। 1996 में प्रकाशित इस कृति को पाठकों ने बहुत सराहा; अतः विषय की सार्थकता को दृष्टि में रखकर 2015 में उसे संशोधन एवं परिवर्धन के साथ नेशनल पब्लिशिंग हाउस से पुनः प्रकाशित किया गया है। 

मृगेंद्र राय ने अपनी इस पुस्तक में राजनीति, समाज, धर्म, संस्कृति और प्रकृति को कसौटियों के रूप में अपनाकर द्विवेदी जी के उपन्यास साहित्य में निहित परिवेश का मूल्यांकन किया है क्योंकि ये पाँचों ही परिवेश के प्रमुख पक्ष हैं। उपन्यास साहित्य को खँगालने से पहले उन्होंने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दिया है। साथ ही उपन्यास और परिवेश के अंतःसंबंध को रेखांकित किया है। परिवेश के पूर्वोक्त पाँच प्रमुख पक्षों (राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक) के आधार पर आगे द्विवेदी जी के उपन्यास साहित्य का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। 

द्विवेदी जी के उपन्यासों में निहित राजनैतिक परिवेश को उभारने के लिए ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ के पाठ की सूक्ष्म विवेचना की गई है। मृगेंद्र राय यह प्रतिपादित करते हैं कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में द्विवेदी जी ने जिस राजनैतिक परिवेश के यथार्थ को प्रस्तुत किया है, उसमें वस्तुतः राष्ट्र हित की चेतना मुखरित है। इसके पीछे मानव जाति की कल्याण भावना निहित है। इसीलिए द्विवेदी जी ने बाणभट्ट से कहलवाया है, “उठो देवी, आर्यावर्त को बचाना है, म्लेच्छ से देश को बचाना है, मनुष्य जाति को बचाना है।“ (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ. 231)। ‘चारुचंद्रलेख’ में चित्रित राजनैतिक परिवेश 12वीं-13वीं शताब्दी का है। उस समय एकता का नितांत अभाव था, आपसी रंजिश चरम पर थी, मनमुटाव के कारण विदेशी आक्रमणकारियों ने लाभ उठाया। मृगेंद्र राय कहते हैं कि “प्रजातंत्र की सफलता के लिए शासक और शासित जनता की निकटता एवं एकमेव की स्थिति जरूरी है। राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं गौरव को त्याग, बलिदान और स्वार्थ से ऊपर उठे बिना नहीं साधा जा सकता।“ (मृगेंद्र राय, हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश, पृ. 36)। ‘पुनर्नवा’ में यह दिखाया गया है कि राजनैतिक धरातल पर देश कैसे छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त है। ‘अनामदास का पोथा’ में आचार्य औदुंबरायण के माध्यम से यह कहा गया है कि “राजा जब तक स्वयं जागरूक न हो तो राजकर्मचारी शिथिल हो जाते हैं, मुस्तैदी से काम नहीं करते।“ मृगेंद्र राय का कहना है कि लेखक ने “तत्कालीन राजनैतिक परिवेश से प्रजा के हित में शासक वर्ग की दायित्व चेतना को सफलतापूर्वक संकेतित किया है।“ (वही, पृ. 45)। 

द्विवेदी जी के उपन्यासों का विश्लेषण सामाजिक दृष्टि से करने पर यह स्पष्ट होता है कि विवेच्य कालावधि में समस्त सामाजिक परिवेश असत्य पर आधृत था। मृगेंद्र राय तत्कालीन सामाजिक समस्याओं की तुलना आज से करते हुए कहते हैं कि “नारी की उपेक्षा, अपमान, नारी को गणिका, परिचारिका, नर्तकी, देवदासी आदि बनाने के लिए पुरुष की विलासी प्रवृत्ति उत्तरदायी है। तत्कालीन समाज में इससे असत्य, पाखंड और दंभ का बोलबाला दिखाई देता है। यदि हम वर्तमान समाज को देखें तो स्थितियों में तमाम क़ानूनों के बावजूद कोई खास बदलाव नज़र नहीं आता।“ (वही, पृ. 51)। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि तत्कालीन समाज में भी जाति व्यवस्था चरम पर थी। सामाजिक एकता के लिए भाईचारे की भावना अनिवार्या है। इसीलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में भट्टिनी के माध्यम से यह चिंता व्यक्त की कि “एक जाति दूसरी जाति को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़कर अशांति का कारण और क्या हो सकता है, भट्ट? तुम्हीं ऐसे हो जो नर-लोक से लेकर किन्नर लोक तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय, एक ही करुणायित चित्त को हृदयंगम करा सकते हो।“ मृगेंद्र राय यह प्रतिपादित करते हैं कि जातिगत संकीर्णता और अहंकार से ऊपर उठने पर ही देश का हित संभव है। 

मनुष्य जीवन को सही दिशा दिखाने का काम करता है धर्म। लेकिन आजकल यह भी देखा जा सकता है कि धर्म के नाम पर लोगों के विश्वासों से कैसे-कैसे खेला जा रहा है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों से यह स्पष्ट है कि यह स्थिति उस समय के सामज में भी देखी जा सकती है। उन दिनों भी समाज में धार्मिक मिथ्याचार, बाह्याडंबरों की बहुलता थी। धर्म के नाम पर तमाम लोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे थे। आज भी यही स्थिति तो है। अतः मृगेंद्र राय का कहना है कि “उपन्यासकार सहज ही निवृत्ति का नहीं, वरन उस प्रवृत्ति मार्ग का समर्थन करता है। इस प्रकार लोक से जुड़ने एवं लोक की सेवा में ही वह जीवन की सार्थकता मान्य करता दीख पड़ता है।“ (वही, पृ. 98)। 

हजारीप्रसाद द्विवेदी संस्कृतिचिंतक हैं। वे प्रकृति के माध्यम से संस्कृति की यात्रा करने वाले रचनाकार हैं। यही कारण है कि उनके उपन्यासों में प्रकृति चित्रण विविध रूपों में द्रष्टव्य है। साथ ही, वे यह मानते हैं कि जिस देश की संस्कृति जितनी अधिक विकसित होगी वह देश उतना ही विकसित होगा। मृगेंद्र राय ने यह प्रतिपादित किया है कि “सांस्कृतिक परिवेश राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक होता है। संस्कृतिविहीन समाज आज भी पंगु माना जाता है। तत्कालीन समाज के लोग हर्षोल्लास के साथ उत्सवों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे। यह उनके जीवन जीने की कला की ओर ही संकेत करता है।“ (वही, पृ. 106)। 

मृगेंद्र राय विवेचन-विश्लेषण के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों का अध्ययन करते हुए यह सहज ही अनुभव किया जा सकता है कि राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक परिवेश, द्वैत-अद्वैत भाव से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। उनकी संश्लिष्ट उपस्थिति अपने इंद्रधनुषी सौंदर्य से पाठक को अभिभूत किए बिना नहीं रहती। इस स्थिति में पाठक उपन्यास-युग में विचरण करते हुए उसमें वर्णित वस्तु का साक्षात्कार करने के साथ-साथ उसकी मूल चेतना की ओर भी अभिमुख होता है।“ (वही, पृ. 145)। 

अथ से अनंत

डॉ. त्रिभुवन राय के संपादकत्व में यश पब्लिकेशंस, दिल्ली द्वारा 2 भागों में प्रकाशित ‘अथ से अनंत’ (2015) शीर्षक ग्रंथावली मनुष्य की जययात्रा में आस्था रखने वाले मानवता के चितेरे साहित्यकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त,1907 - 19 मई,1979) के समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व के मूल्यांकन पर केंद्रित है। 

‘अथ से अनंत’ [1 और 2] में देश भर के विभिन्न विद्वानों के चिंतनपरक आलेख सम्मिलित हैं। पहले भाग में 20 आलेख हैं जिन्हें तीन खंडों में विभाजित किया गया है। ‘व्यक्तित्व एवं जीवन बोध’ शीर्षक पहले खंड में आचार्य डॉ. शिवेंद्र पुरी (गुरुदेव का पुण्य स्मरण), प्रो. नंदलाल पाठक (श्रद्धा सुमन), डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी (शांतिनिकेतन के वे दिन), डॉ. इरेश स्वामी (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व की प्रमुख रेखाएँ), डॉ. विद्या केशव चिटको (मेरे विभागाध्यक्ष डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. एम. शेषन (मानवतावादी साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. धर्मपाल मैनी (भारतीय संस्कृति के पुरोधा : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. रामदरश मिश्र (हजारी प्रसाद द्विवेदी : सर्जना ही बड़ा सत्य है), डॉ. शिवशंकर पांडेय (‘अशोक के फूल’ संग्रह के निबंधों में निहित आचार्य द्विवेदी का पारदर्शी व्यक्तित्व), प्रो. अभिराज राजेंद्र मिश्र (लोक एवं लोकचेतना के चतुर चित्रकार : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) और डॉ. रामदेव शुक्ल (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन बोध) के लेख सम्मिलित हैं जो द्विवेदी जी के व्यक्तित्व को उभारने में सक्षम हैं। 

द्विवेदी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। संपादकीय में डॉ. त्रिभुवन राय ने उनके विराट व्यक्तित्व के बारे में संकेत करते हुए कहा है कि “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी संपूर्ण सहजता और सरलता में भी भव्य एवं उदात्त व्यक्तित्व के प्रतिरूप थे।“ (डॉ. त्रिभुवन राय, संपादकीय, अथ से अनंत, पृ. 7)। ऐसे विराट व्यक्तित्व को शब्दों में समेटना कठिन है। ‘अथ से अनंत’ में सम्मिलित लेखों में द्विवेदी जी के अनेक आयाम सामने प्रकट हो जाते हैं। 

गुरु का आशीर्वाद शिष्य के लिए ऊर्जा का स्रोत होता है। जब रामदरश मिश्र एम.ए. के विद्यार्थी थे तब द्विवेदी जी हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। उन दिनों को याद करते हुए मिश्र जी कहते हैं कि पंडित जी के सौम्य व्यक्तित्व की उपेक्षा करना संभव नहीं, लेकिन इतने बड़े व्यक्ति से निजी संपर्क बनाने के लिए कोई बहाना भी तो चाहिए। काशी विद्यापीठ में आयोजित एक कवि गोष्ठी में आचार्य के समक्ष गीत पढ़ने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। पहले तो वे संकोच करते रहे, लेकिन जब उन्होंने यह देखा कि द्विवेदी जी मुग्ध होकर गीत सुन रहे हैं तो वे और अधिक तन्मयता से गीत पढ़ने लगे। मिश्र जी उस क्षण को याद करते हुए कहते हैं कि “मैंने उस समय कितनी धन्यता अनुभव की, कह नहीं सकता। उस क्षण का बहुत आभारी हूँ कि उसने मुझे पंडितजी का अंतेवासी बना दिया। उस क्षण ने एक ऐसा संबंध दिया जो पंडितजी को सबसे अधिक प्रिय था। मैं सर्जनात्मक संबंध से पंडितजी के निकट पहुँचा था।“ (रामदरश मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : सर्जना ही बड़ा साहित्य, अथ से अनंत-1, पृ. 44)। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार साहित्य में सर्जनात्मकता ही परम सत्य है। 

रामदरश मिश्र द्विवेदी जी के व्यक्तित्व के एक और आयाम की परत को खोलते हुए कहते हैं कि “पंडितजी का भास्वर सारस्वत व्यक्तित्व जितना प्रिय और बड़ा है, उतना ही छोटे-छोटे सामाजिक तथा पारिवारिक प्रसंगों में उभरता उनका सामान्य मनुष्य। कोई अजनबी से अजनबी मनुष्य उनके यहाँ चला जाता था, तो वे अपनी सहज हँसी और चुटकुलों में उसे बहा लेते थे। वह मनुष्य अपने को उनके बहुत निकट समझने लगता था और लगता था, ये तो हम लोगों जैसे एक सामान्य मनुष्य हैं, जो विनोद करते हैं, चुट्कुले सुनाते हैं, अट्टहास करते हैं, किसी की निंदा भी हो रही हो तो उसे भी विनोद से सुन और हँस लेते हैं. लेकिन उनसे अलग होने के बाद जब वह अपने को टटोलता था तो पाता था कि बातों-बातों में पंडित जी उसे बहुत कुछ दे गए हैं, आत्मीयता ही नहीं, ज्ञान भी।“ (वही, पृ. 51)। 

दूसरा खंड है ‘परंपरा और इतिहास’। इसमें आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (आर्ष परंपरा और हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. अमर सिंह वधान (प्राचीन और नवीन के मध्य आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. रमेश कुंतल मेघ (कलात्मक इतिहास और समाज विज्ञानों की गोधूलि में सृजनशीलता) और डॉ. बैजनाथ प्रसाद (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहास दृष्टि और भक्ति आंदोलन) के लेख समाहित हैं। इन लेखों से यह स्पष्ट होता है कि द्विवेदी जी साहित्य को कला, संस्कृति, सभ्यता और परंपरा आदि से जोड़कर देखते हैं। उनके विचार प्रौढ़ एवं वैज्ञानिक हैं। आनंदप्रकाश दीक्षित का कहना है कि अतीत को वे इस तरह खंगालते हैं कि उसमें नई दीप्ति पैदा हो जाती है और बरबस हमारे चिंतन के नए द्वार उन्मुक्त हो जाते हैं। (अथ से अनंत)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानवता के पक्षधर थे। वे साहित्य और भाषा को मानव की दृष्टि से देखने की पक्षपाती थे। उनका मानना है कि “हम लोग एक कठिन समय के भीतर से गुजर रहे हैं। आज नाना भाँति के संकीर्ण स्वार्थों ने मनुष्य को कुछ ऐसा अंधा बना दिया है कि जाति-धर्म-निर्विशेष मनुष्य के हित की बात सोचना असंभव-सा हो गया है। ऐसा लग रहा है कि किसी विकट दुर्भाग्य के इंगित पर दलगत स्वार्थ से प्रेम ने मनुष्यता को दबोच लिया है।“ (हजारी प्रसाद द्विवेदी, ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’, अशोक के फूल, पृ. 143)। आज तो मनुष्य, मनुष्यता और भाषा खतरे में हैं। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की मान्यता है कि द्विवेदी जी के साहित्य को समझना हो तो मानवतावादी अवधारणा को समझना अनिवार्य है क्योंकि द्विवेदी जी मानवीय मूल्यों को प्रमुख मानते हैं। ‘अनामदास का पोथा’ में द्विवेदी जी ने लिखा है कि “मानवीय मूल्यों के आचरण का पर्यवसान विश्वमंगल के साथ-साथ विश्वात्मक और विश्वातीत चिदानंदमय सुख में होना चाहिए।“ 

यह पहले भी कहा जा चुका है कि द्विवेदी जी परंपरा और आधुनिकता को जोड़कर कर देखते हैं। अमर सिंह वधान यह स्पष्ट करते हैं कि “द्विवेदी जी प्राचीन के प्रति पूर्ण आस्थावान होते हुए भी विकास-नियम स्वीकार करते हैं। लेकिन समय की माँग के अनुसार परिवर्तन के वे समर्थक हैं। इसीलिए उनके निबंधों में नवीन मानव के प्रति आशावाद है।“ (अमर सिंह वधान, प्राचीन और नवीन के मध्य आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अथ से अनंत-1, पृ. 103)। इस संदर्भ में डॉ. त्रिभुवन राय का मत उल्लेखनीय है। उनका मानना है कि “पुरातन और आधुनिकता के संधि बिंदु पर अवस्थित आचार्यश्री न आँख मूँदकर पुराने का अनुगमन करते हैं और न ही नए के पीछे भागते हैं। इनके स्वीकार और अस्वीकार के मूल में उनके संदर्भ में वस्तुतः समय के साथ मनुष्य उसके हित-अहित एवं प्रतिष्ठा की भावना ही निर्णायक प्रतीत होती है।“ (त्रिभुवन राय, संपादकीय, अथ से अनंत-1, पृ. 12)। 

डॉ. देवकीनंदन श्रीवास्तव (भक्ति साहित्य के मर्मी पंडित द्विवेदी), डॉ. सुनील कुमार (मध्ययुगीन साहित्य और आचार्य द्विवेदी), डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी (जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो), डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी (आचार्य और धर्मवीर के कबीर : कुछ खुलासे) और डॉ. लल्लन राय (कबीर और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : सूर्य पर पूर्ण ग्रहण) के लेख ‘भक्ति साहित्य’ शीर्षक तीसरे खंड में सम्मिलित हैं। इन लेखों को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि द्विवेदी जी भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ हैं। मध्यकालीन भाव बोध को उन्होंने बखूबी रेखांकित किया है। 

‘अथ से अनंत’ के दूसरे भाग में 27 शोधपूर्ण आलेख सम्मिलित हैं जिन्हें दो खंडों में विभाजित किया गया है। ‘सृजन आयाम’ शीर्षक खंड को निबंध, उपन्यास और आलोचना में विभाजित किया गया है। ‘निबंध’ के अंतर्गत ‘व्युत्पत्ति और प्रतिभा के धनी : निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ (डॉ. रामानंद शर्मा), ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध साहित्य : परंपरा का पुनराख्यान’ (डॉ. श्रीराम परिहार), ‘शूद्र-ब्राह्मण के द्वार बालू से निकाला गया तेल : परंपरा और प्रगतिशीलता का संदर्भ’ (प्रो. जयप्रकाश), ‘लालित्य तत्व एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ (डॉ. शैलेंद्र कुमार शर्मा) और ‘आचार्य द्विवेदी के निबंधों का लालित्य विधान’ (डॉ. रविकुमार ‘अनु’) आदि लेख सम्मिलित हैं, जिनके माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि द्विवेदी जी के निबंधों में प्रकृति के माध्यम से संस्कृति की यात्रा है, परंपरा का पुनराख्यान है, लोकमंगल की भावना है, जनता के भविष्य की सुरक्षा है, दीन-हीन जनता के प्रति अपार सहानुभूति है। ‘उपन्यास’ शीर्षक उपवर्ग के अंतर्गत डॉ. सूर्यप्रसाद शुक्ल (बाणभट्ट की आत्मकथा : मानवीय जीवन का महाकाव्य), डॉ. देशराज शर्मा (बाणभट्ट की आत्मकथा और मानव मूल्य), डॉ. योजना रावत (बाणभट्ट की आत्मकथा और मानववाद), डॉ. शशिकला राय (जिजीविषा है तो जीवन रहेगा), मधुरेश (द्विवेदीजी के उपन्यास : प्रेम और सौंदर्यदृष्टि), डॉ. अश्विनी कुमार शुक्ल (भारतीय उपन्यास की अवधारणा और आचार्य द्विवेदी के उपन्यास), डॉ. सत्यकेतु सांकृत (हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में व्यक्त भारतीय जीवन दृष्टि), डॉ. सुशीला गुप्ता (हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में चित्रित नारी शक्ति का आह्वान), डॉ. इंदु शुक्ला (आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में चित्रित नारी भावना), डॉ. रामनाथ मौर्य (आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में लोकतत्व) और डॉ. त्रिभुवन राय (परंपरा का पुनराख्यान : उपन्यासकार हजारी प्रसाद द्विवेदी) के लेख सम्मिलित हैं, तो ‘आलोचना’ शीर्षक उपवर्ग में डॉ. ए. अरविंदाक्षन (आलोचना की सृजनात्मकता), डॉ. रामकिशोर शर्मा (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि) तथा डॉ. त्रिभुवन राय (आचार्य द्विवेदी के साहित्य सिद्धांत और समीक्षा दृष्टि) के गंभीर चिंतनपरक लेख सम्मिलित हैं, जिनमें द्विवेदी जी के समग्र कृतित्व की पड़ताल है। 

भूमंडलीकरण के इस दौर में एक ओर तो बाजारवाद पूरे विश्व को एक बड़ी मंडी में तब्दील कर रहा है, वहीं दूसरी ओर संकीर्ण स्वार्थों के कारण समस्त संसार अनेक टुकड़ों में, दलों में और खेमों में विभाजित हो चुका है। द्विवेदी जी इस दलगत संकीर्णता का विरोध करते हैं। उनकी दृष्टि में मनुष्य सर्वोपरि है। मनुष्य की रक्षा और विकास ही उनका परम लक्ष्य है। वे इस बात पर बल देते हैं कि अच्छी बात को सुनने और मानने के लिए ‘मनुष्य’ को तैयार करना आवश्यक है। और यह काम एक संवेदनशील साहित्यकार के माध्यम से ही संभव हो सकता है। स्पष्ट है कि साहित्य द्विवेदी जी के लिए साधन है, साध्य नहीं, क्योंकि वे मानते हैं कि साहित्य में वह शक्ति होनी चाहिए जो मनुष्य को पशु होने से बचा सके। उनके विचार में जो साहित्य मनुष्य में निहित पशुत्व का निर्मूलन नहीं कर सकता है वह साहित्य की संज्ञा ही खो देता है। (हजारी प्रसाद द्विवेदी, विचार और वितर्क, पृ. 96)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के लिए संस्कृति मनुष्य की सहायक एवं सहयोगिनी है। डॉ. त्रिभुवन राय का मानना है कि “मानव संस्कृति में भारतीय संस्कृति उन्हें विशेष प्रिय है। इसलिए कि जीवन के उत्तरोत्तर साधना क्रम में मानव में अंतर्निहित संभावनाओं का द्वार उद्घाटित करने के साथ अंततः उस ‘एक’ से तदाकार होने की दिशा भी उन्मीलित करती है, जिसके आगे पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता, परंतु यहाँ भी उनकी पटरी विशुद्धतावादियों से नहीं बैठती।“ (त्रिभुवन राय, संपादकीय, अथ से अनंत-1, पृ. 9)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संस्कृतिकर्मी के साथ-साथ भाषाचिंतक भी हैं। अतः ‘भाषा तथा अन्य’ शीर्षक खंड में उनके भाषाचिंतन के विविध आयामों को डॉ. अमरनाथ (आचार्य द्विवेदी की दृष्टि में स्वराज्य और स्वभाषा), डॉ. ऋषभदेव शर्मा (लोकवादी भाषाचिंतक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), प्रो. भगवानदीन मिश्र (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का भाषावैभव), डॉ. दिलीप सिंह (प्रकृति में फक्कड़ता की तलाश का गद्य), डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया (अपभ्रंश और हिंदी के संबंध पर द्विवेदी जी के भाषाशास्त्रीय विचार), डॉ. रत्ना शर्मा (आचार्य द्विवेदी की व्याकरणिक दृष्टि), प्रो. सुरेश उपाध्याय (मेघदूत की सहयात्रा) और डॉ. निर्मला एस. मौर्य (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पत्र साहित्य में मानवीय संवेदना) ने खँगाला है। 

डॉ. त्रिभुवन राय ने अपने शोधपरक लेख ‘आचार्य द्विवेदी के साहित्य सिद्धांत और समीक्षा दृष्टि’ में यह स्पष्ट किया है कि “द्विवेदी जी सहज भाषा के पक्षपाती हैं। किंतु सहज भाषा उनके विचार में वही हो सकती है जो मनुष्य को आहार, निद्रा आदि पशु सामान्य प्रवृत्तियों से ऊँचा उठाने में सहायक होती है।“ (डॉ. त्रिभुवन राय, अथ से अनंत–2, पृ. 218)। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी स्वयं इस बात पर बल देते हैं कि उनकी दृष्टि में “सहज भाषा का अर्थ है सहज ही महान बना देने वाली भाषा। वह भाषा जो मनुष्य को उसकी सामाजिक दुर्गति, दरिद्रता, अंध संस्कार और परमुखापेक्षिता से न बचा सके किसी काम की नहीं है, भले ही उसमें प्रयुक्त शब्द बाज़ार में विचरने वाले अत्यंत निम्नस्तर के लोगों के मुख से संग्रह किए गए हों।“ (हजारी प्रसाद द्विवेदी, विचार और वितर्क, पृ. 175)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मनुष्य को सबसे बड़ा मानते हैं और भाषा उसकी सेवा के लिए उपयुक्त साधन। डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अपने लेख ‘लोकवादी भाषाचिंतक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ में यह याद दिलाया है कि द्विवेदी जी के साहित्य और भाषाविषयक चिंतन के केंद्र में परंपरा और इतिहास बोध अवस्थित है, क्योंकि उन्होंने परंपरा और इतिहास बोध की सहायता से समसामयिक भाषा समस्या को भी सुलझाने के सूत्र अपने निबंधों में दिए हैं। (डॉ. ऋषभदेव शर्मा, ‘लोकवादी भाषाचिंतक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’, अथ से अनंत-2, पृ. 244)। आगे उन्होंने कहा है कि भाषा नियोजन के संबंध में द्विवेदी जी की दृष्टि अत्यंत व्यापक है। इस संबंध में द्विवेदी जी की दो मान्यताएँ हैं – ‘अपने देश की भाषा और साहित्य विषयक नीति स्थिर करते समय हमें अपने देश के विशाल इतिहास को याद रखना होगा; और मनुष्य को चरम लक्ष्य मानकर तथा उसके सुख-दुख का विचार करके हमें अपनी भाषा विषयक नीति स्थिर करनी चाहिए.’ (वही, पृ. 247)। 

यहाँ हिंदी भाषा के संबंध में भी हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत उल्लेखनीय है। वे हिंदी को निरी शास्त्रार्थ की भाषा बनने से बचाना चाहते हैं। इस संबंध में वे कहते हैं कि “हमें हिंदी को ऐसी भाषा नहीं बना देना है, जो सर्वसाधारण के निकट अंग्रेजी की भाँति दुर्बोध्य बनी रहे, या संस्कृत की ही भाँति कुछ चुने हुए लोगों के शास्त्रार्थ-विचार की भाषा बन जाए। ऐसा करके तो हम निश्चित रूप से हिंदी का अहित करेंगे। हमारी भाषा ऐसी होनी चाहिए जो मामूली से मामूली जनचित्त को ऊपर उठा सके। हमें तो इस भाषा को इस योग्य बना देना है कि वह साधारण से साधारण मजदूर से लेकर अत्यंत विकसित मस्तिष्क के बुद्धिजीवी के दिमाग में समान भाव से विहार कर सके।“ (हजारी प्रसाद द्विवेदी, अशोक के फूल, पृ. 142)। अतः बुद्धिजीवियों से यही अपील है कि हिंदी को सर्वसाधारण जनता की भाषा बनाए रखें और द्विवेदी जी की बात को हमेशा हमेशा के लिए याद रखें कि “हिंदी साधारण जनता की भाषा है। जनता के लिए ही उसका जन्म हुआ था और जब तक वह अपने को जनता के काम की चीज बनाए रहेगी, जन-चित्त में आत्मबल का संचार करती रहेगी, तब तक उसे किसी से डर नहीं है। वह अपने आपकी भीतरी अपराजेय शक्ति के बल पर बड़ी हुई है, लोक-सेवा के महान व्रत के कारण बड़ी हुई है और यदि अपनी मूल-शक्ति के स्रोत को भूल नहीं गई, तो निस्संदेह अधिकाधिक शक्तिशाली होती जाएगी।“ (अथ से अनंत-2, पृ. 250)।