शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

प्रेमचंद का भाषा विमर्श

'इंदु संचेतना'

(चीन से निकलने वाली साहित्य की पहली अंतरराष्ट्रीय पत्रिका)

'विशिष्ट प्रतिभा विशेषांक' (अक्तूबर-दिसंबर 2016)

वर्ष 2, अंक 5



प्रेमचंद का भाषा विमर्श 

प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) अपने समय के लिए जितने प्रासंगिक थे आज भी वे उतने ही प्रासंगिक हैं। "यह तथ्य इस बात से ही प्रमाणित हो जाता है कि आज दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, बाजारीकरण, भ्रष्ट व्यवस्था, संवेदनात्मक छीजन आदि पर जब भी कहीं चर्चा होती है तो वह अंततः प्रेमचंद के ही इर्द-गिर्द आकर अपनी सार्थकता पाती है। प्रेमचंद की भाषा भी आज तक नए गद्यकारों का आदर्श बनी हुई है। यह अलग बात है कि प्रेमचंद के निकट कोई नहीं पहुँच सका।" (संपादकीय, प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 5)।

मानव जीवन में भाषा की भूमिका निर्विवाद है चूँकि भाषा के अभाव में मनुष्य केवल जैविक जंतु है। भाषा ही वह चीज है जो उसे समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। शायद इसीलिए प्रेमचंद ने अपने एक व्याख्यान में कहा था, "जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बनती है। भाषा सुंदरी को कोठरी में बंद करके आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं, लेकिन उसके स्वास्थ्य का मूल्य देकर। उसकी आत्मा इतनी बलवान बनाइए कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ्य दोनों की ही रक्षा कर सके। *** हमारा आदर्श तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें।" (नमिता सिंह, 'प्रेमचंदोत्तर कथा साहित्य और भाषा के मंतव्य'; साहित्य और संवेदना, (सं) पी.वी.विजयन, पृ. 268 से उद्धृत)। भाषा एक तरफ व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करती है तो दूसरी तरफ वह सामाजिक संबंधों को व्यक्त करती है। प्रेमचंद की भाषा इन दोनों कर्तव्यों को बखूबी निभाना जानती है, इसीलिए वह आज भी सर्वाधिक अनुकरणीय और प्रासंगिक कथाभाषा के रूप में स्वीकृत है।

समाज में हिंदी की तीन शैलियाँ प्रचलित हैं – उच्च हिंदी, उच्च उर्दू और हिंदुस्तानी। प्रेमचंद पहले तो उर्दू में लिखते थे, लेकिन बाद में वे हिंदी – बोलचाल की हिंदुस्तानी में लिखने लगे। वे हिंदुस्तानी के प्रबल पक्षधर बने।उन्होंने यह महसूस किया था कि हिंदी का यह शैलीभेद प्रायः राजनीतिक था। उनकी भाषा-चेतना बहुत गहरी थी। इसलिए उन्होंने बार बार यह लिखा कि "बंगाल का मुसलमान बंगला बोलता है और लिखता है, गुजरात का गुजराती, मैसूर का कन्नड़ी, मद्रास का तमिल और पंजाब का पंजाबी आदि। यहाँ तक कि उसने अपने अपने सूबे की लिपि भी ग्रहण कर ली है। उर्दू लिपि और भाषा से यद्यपि उसका धार्मिक-सांस्कृतिक अनुराग हो सकता है, लेकिन नित्य प्रति के जीवन में उसे उर्दू की बिलकुल आवश्यकता नहीं पड़ती।" (प्रो.दिलीप सिंह, 'प्रेमचंद की भाषाई चेतना', प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 23 से उद्धृत)। इतना ही नहीं उनके मतानुसार हिंदुओं और मुसलमानों की भाषा में कोई अंतर नहीं है तथा हिंदुस्तानी बोलचाल की हिंदी का सहज और सरल रूप है। ध्यान से देखा जाए तो प्रेमचंद के लिए हिंदुस्तानी केवल एक भाषा-शैली ही नहीं थी, बल्कि उनके लिए तो वह जातीय अस्मिता का एक प्रतीक थी। इसलिए उन्होंने कहा था कि "बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्रायः एक-सी हैं. उर्दू-हिंदी के सर्वनाम एक हैं – वह, तुम, मैं, हम इत्यादि। हिंदी-उर्दू की क्रियाएँ एक ही हैं – जाना, सोना, खाना, पीना, करना, मरना, जीना, लिखना, पढ़ना इत्यादि. उर्दू के संबंधवाचक शब्द – पर, का, में, से आदि वही हैं जो हिंदी के। दोनों का मूल शब्दभंडार भी एक है, लेकिन यहाँ बहुत दिनों तक फारसी के राजभाषा रहने से हिंदी शब्दों के फारसी या अरबी पर्यायवाची शब्द भी प्रचलित हो गए हैं। जैसे : देश – मुल्क, आकाश – आसमान, नदी – दरिया, रोगी – बीमार आदि। इन शब्दों का व्यवहार बोलचाल की हिंदी-उर्दू में बिना किसी भेदभाव के होता है।" (वही, पृ. 25 से उद्धृत)। उनकी मान्यता थी कि "बोलचाल की हिंदी समझने में न तो साधारण मुसलमानों को कोई कठिनाई होती है और न बोलचाल की उर्दू समझने में हिंदुओं को ही।" (वही, पृ. 24 से उद्धृत)। अभिप्राय यह कि इस दुष्प्रचार के खंडन का प्रेमचंद ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया कि हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएँ हैं तथा इनका किसी धर्म-मजहब से कुछ लेना देना है।

प्रेमचंद ने अपनी बातों को सिर्फ सैद्धांतिक स्तर तक सीमित नहीं रखा बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी उन्हें लागू किया। उनकी रचनाओं में घटना और अनुभव की बहुलता है। वे अपनी रचनाप्रक्रिया में भाषा का संपूर्णतः दोहन कर लेते हैं। (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास)। इसीलिए वे कहा करते थे कि "साधारण वकीलों की तरह साहित्यकार अपने मुवक्किल की ओर से उचित-अनुचित सब तरह के दावे नहीं पेश करता, अतिरंजना से काम नहीं लेता, अपनी ओर से बातें गढ़ता नहीं। वह जानता है कि इन युक्तियों से वह समाज की अदालत पर असर नहीं डाल सकता। उस अदालत का हृदय परिवर्तन तभी संभव है, जब आप सत्य से तनिक भी विमुख न हों, नहीं तो अदालत की धारणा आपकी ओर से खराब हो जाएगी और वह आपके खिलाफ फैसला सुना देगी।" (नंदकिशोर नवल, 'प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र', प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 13)।

विद्वानों ने यह लक्षित किया है कि मृदु और ललित शब्दयोजना, गूढ़शब्दार्थहीनता और जनपद सुखबोध्यता वास्तव में काव्यभाषा के लक्षण हैं लेकिन प्रेमचंद ने अपने साहित्य को व्यापक जनता से जोड़ने के लिए जनपद की भाषा को अपनाया। जब वे यह कहते हैं कि "साहित्य न चित्रण का नाम है, न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का" तो वे निस्संदेह बोलचाल की हिंदुस्तानी – देशजता की बात कर रहे होते हैं। प्रेमचंद अपनी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं। इसलिए उनकी रचनाओं में ठेठ देहाती शब्द पाए जाते हैं। उन्होंने "ग्रामीण जन की बोली-बानी में निहित ऊर्जा का दोहन करके ही अपनी कथाभाषा का गठन किया है।" (प्रो.ऋषभ देव शर्मा, 'प्रेमचंद दे देसिल बयना : संदर्भ 'गुल्ली डंडा' का", प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ.36)।

प्रेमचंद की भाषा - विशेष रूप से ग्रामीण पात्रों की भाषा - को देखने से यह स्पष्ट होता है कि "देहाती बोली और हिंदी के एकीकरण में उन्हें इतनी सफलता मिली है कि गाँव का रहने वाला पाठक भी प्रेमचंद के किसानों की बात सुनकर उसे अस्वाभाविक नहीं कह सकता। *** परंतु प्रेमचंद किसानों की बातचीत के लिए ही देहात से शब्द नहीं लेते; उनकी भाषा का गठन ही उस देहाती बोली की भूमि पर हुआ है। जो सुंदर मुहावरे, कहावतें, उपमाएँ और हास्य के पुट उनके गद्य में हमें मिलते हैं उन्हें प्रेमचंद ने अपने गाँव की बोली से सीखा था। अपनी उपमाएँ उन्होंने बहुधा ग्रामीण जीवन से ली हैं। *** प्रेमचंद की भाषा के अलंकार उसके प्रवाह में सहज ही सज जाते हैं। सारी बात अनुभव और सचाई की है। प्रेमचंद जनता को जानते थे, उसकी भाषा को जानते थे; वहीं से उन्हें शक्ति मिली है।" (डॉ.रामविलास शर्मा, प्रेमचंद, पृ.138)।

'गोदान' का ही एक उदाहरण देखें – प्रेमचंद का होरी अपने विद्रोही पुत्र गोबर को समझाता है–
  • "फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है. मजूरी मजूरी है, किसानी किसानी है। मजूर लाख हो, तो मजूर ही कहलाएगा। सर पर घास रखे जा रहे हो, कोई इधर से पुकारता है, ओ घासवाले, कोई उधर से। किसी की मेड पर घास धर लो तो गालियाँ मिलें। किसानी में मरजाद है।" 
होरी 'मरजाद' अर्थात मर्यादा के लिए अपने आपको समर्पित/ होम कर देता है।

'कर्मभूमि' का अमरकांत कहता है –
  • “काम की कौन कमी है घास भी काट लो, तो एक रुपए रोज की मजूरी हो जाए। नहीं जूते का काम है। बल्लियाँ बनाओ, चरसे बनाओ। मेहनत करने वाला आदमी भूखों नहीं मरता। धेली की मजूरी कहीं नहीं गई।"
ऐसे कथन स्वतः सिद्ध करते हैं कि प्रेमचंद की भाषा में देसी मुहावरे सहज रूप से उभरते हैं जो उसे जनभाषा बनाते हैं।

'गुल्ली-डंडा' कहानी बहुत ही छोटी है पर प्रेमचंद की भाषा के इस देशज पक्ष को उजागर करने में सक्षम है। इस कहानी में देशजता के साथ आभिजात्यता भी निहित है। इस कहानी में पग पग पर प्रेमचंद का ठेठ देसीपन झलकता है। यहाँ प्रेमचंद भारतीय खेल गुल्ली-डंडा के हवाले से यह कहते हैं – "हमारे अँग्रेजीदां दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। *** न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहाँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाएँ, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो?" खेल से लेकर शिक्षा तक का जो महँगा अंग्रेजीपन आज भी हम अपने सिर पर ढो रहे हैं प्रेमचंद ने उसके खतरे को अपने समय में भली प्रकार भाँप लिया था। यदि गुल्ली-डंडा को प्रतीक मान लें तो कहना होगा कि उन्होंने इस महँगे अंग्रेजीपन का विकल्प भी यहाँ सुझाया है – गुल्ली-डंडा अर्थात देहातीपन या देसीपन के वरण के रूप में।

अंततः डॉ.रामविलास शर्मा के शब्दों में कहे तो "प्रेमचंद की कला का रहस्य एक शब्द में उनका देहातीपन ही है; ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृदय में पैठकर उसके सभी तारों से संबंध स्थापित कर सके हैं।"

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा

भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य,
समाज, संस्कृति और भाषा
(सं) डॉ. प्रदीप कुमार सिंह
2016, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन,
पृष्ठ 528, मूल्य : रु. 950
भूमंडलीकरण ने समूचे विश्व के समक्ष अनेक चुनौतियाँ खड़ी की हैं. वास्तव में इसका संबंध अर्थतंत्र से है. इस आर्थिक संबंध के कारण ही पूरा विश्व एक बाजार बन चुका है. बाजार पूरे विश्व को नियंत्रित कर रहा है. स्कॉटिश अर्थशास्त्री एडम स्मिथ (16 जून, 1723 – 17 जुलाई, 1790) ने अपनी पुस्तक ‘ऐन इन्क्वायरी इंटू द नेचर एंड कॉसस ऑफ द वेल्थ आफ नेशंस’ (1976) में यह प्रतिपादित किया था कि जब आर्थिक प्रक्रिया स्वायत्त होगी तो देशों का विकास निश्चित है और इसके लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होना अनिवार्य है. उन्होंने आर्थिक दृष्टि से मुक्त बाजार की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया था कि बाजार पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं होगा क्योंकि एकाधिकार बढ़ने का ख़तरा है. 

भूमंडलीकरण ने विश्व बाजार को प्रभावित किया. यदि कहा जाए कि इसके कारण अमीरी-गरीबी की खाई और बढ़ गई तो गलत नहीं होगा क्योंकि बाजार में उत्पादों की कमी नहीं है लेकिन उन्हें खरीदने की शक्ति भी हर किसी के पास नहीं है. स्थानीय लघु उद्योग आम आदमी की औसतन आय को बढ़ाने के लिए जुटे हुए हैं पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आपसी समझौतों के कारण बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का लोप हो रहा है. परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एवं लघु उद्योगों का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है. अतः यह कहा जा सकता है कि महाजनी सभ्यता का विस्तार है यह भूमंडलीकरण और बाजारीकरण.

भूमंडलीकरण ने एक ओर बाजार तंत्र को प्रभावित किया है तो दूसरी ओर व्यक्ति, समाज, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य और भाषा आदि अधिरचनाओं को भी प्रभावित किया है. इस ओर लेखक ही नहीं अपितु संवेदनशील सहृदय चिंतक दृष्टि केंद्रित कर रहे हैं और चिंतन-मनन कर रहे हैं कि यदि भूमंडलीकरण के प्रभाव के कारण हमें बहना-ढहना नहीं, बल्कि रहना है तो क्या करना चाहिए? महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र का कहना है कि “देशों के बीच की सीमाएँ सहयोग के लिए पारगामी हो रही हैं. अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय और व्यापार में दृष्टि के साथ अन्य देशों में प्रवासन की प्रक्रिया भी तीव्र हुई है. अर्थतंत्र अब वैश्विक हो रहा है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भी प्रसार हो रहा है, जिसके लिए स्वदेशी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के प्रयोग के अवसर बढ़ रहे हैं. भारत में उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश भी हो रहा है. इस तरह के बदलते संदर्भ में भाषा और संस्कृति के अनेक अंतरराष्ट्रीय आयाम उभर रहे हैं, जिनकी ओर ध्यान देना आवश्यक है.” (गिरीश्वर मिश्र (2016), ‘संदेश,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 9). 

भूमंडलीकरण के प्रभाव और चुनौतियाँ आदि से संबंधित अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं. यह भी बाजारतंत्र का ही एक हिस्सा है. हाल ही में, डॉ. प्रदीप कुमार सिंह द्वारा संपादित पुस्तक ‘भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा’ (2016, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृष्ठ 528, मूल्य : रु. 950) को पढ़ने का अवसर मिला. इसमें देश-विदेश के विद्वानों के 76 आलेख सम्मिलित हैं. हिंदी का सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य (गिरीश्वर मिश्र), देश-विदेश में हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य (डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव), इक्कीसवीं शताब्दी की कहानी और मनुष्य : वैश्वीकरण का यथार्थ (प्रो. ऋषभदेव शर्मा), भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य में अर्वाचीन स्त्री विमर्श (प्रो. गोविंद मुरारका), मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम तथा कृष्ण का प्रभाव (डॉ. अलका धनपत), रामायण की वैश्विक यात्रा (डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह), रामायण के प्रति नायक रावण तथा प्रमुख स्थान (डॉ. ई.जी. डबल्यू.पी. गुणसेना) और आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा (गुर्रमकोंडा नीरजा) आदि शीर्षकों से ही इन ग्रंथ के बहुआयामी विस्तार का अनुमान किया जा सकता है.

भूमंडलीकरण ने बाजार के साथ-साथ मनुष्य को इतना प्रभावित किया है कि वह ‘कॉमोडिटी’/ वस्तु बन चुका है. आज बाजार इतने व्यापक रूप से फैल चुका है कि “विश्व बाजार के लिए राष्ट्रों की सीमाएँ कोई अर्थ नहीं रखतीं. ऐसा होने पर ही तो पूँजी का मुक्त विचरण संभव है. xxx भारत ने 1990 के बाद अपनी आर्थिक नीति में यही बदलाव किया, जिससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के दरवाजे तो खुल गए, लेकिन ‘न्याय पर आधारित समानता’ के स्थान पर ‘संपन्नता पर आधारित समानता’ ने समाज में नई खाइयाँ भी खोद डालीं. तरह-तरह के संकटों ने भी जन्म लिया.” (प्रो. ऋषभदेव शर्मा (2016), ‘इक्कीसवीं शताब्दी की कहानी और मनुष्य : वैश्वीकरण का यथार्थ,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 202). प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने यह भी स्पष्ट किया है कि बाजार को वैविध्य पसंद नहीं है. उसे न तो भाषा वैविध्य पसंद है और न ही अलग-अलग सांस्कृतिक पहचानें. “बाजार ‘मॉल’ और ‘माल’ का विस्तार करते हुए रोजगार की गारंटी जैसी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. बाजार बुद्धिजीवियों से लेकर शिल्पियों तक के विदेश पलायन को बुरा नहीं मानता, पर ये सारी चीजें भारत जैसे किसी भी देश के लिए संकट तो खड़ा करती ही हैं.” (वही). भूमंडलीकरण ने जहाँ बाजार और व्यक्ति को प्रभावित किया है वहीं उसने साहित्य को भी प्रभावित किया है. केंद्र, महावृत्तांत और आदर्श टूट रहे हैं. बहुकेंद्रीयता को नई तकनीक के साथ जोड़कर देखा-परखा जा रहा है. साहित्य के नए-नए पाठ निर्मित हो रहे हैं. बाजार “रीमिक्स करके परंपरा और लोक के व्यावसायिक संस्करण तैयार कर रहा है, महावृत्तांतों के टूटने की उत्तर वेला में प्रस्तुति की भव्यता और आदर्श के अभाव के बीच पैरोडी और विडंबना को सिरज रहा है. साहित्य पर भी मीडिया हावी है, बाजार का दबाव है, इसलिए न रस महत्वपूर्ण है, न चेतना महत्वपूर्ण है.” (वही, पृ. 203). ऐसी स्थिति में केवल सूचना महत्वपूर्ण रह गई है.

इस ग्रंथ में यह तथ्य भी कई स्थलों पर उभरा है कि भाषा-परिदृश्य भी भूमंडलीकरण से प्रभावित है. भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी के कारण भाषा में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है. शुद्धतावादियों को इस परिवर्तन से कष्ट हो रहा है. लेकिन भाषा परिवर्तन भाषा विकास का सूचक है. भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार वैश्विक स्तर पर हो रहा है. प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने यह याद दिलाया है कि ‘सूरीनाम, मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में गिरमिटिया लोगों के लिए हिंदी संस्कृति की वाहिका बनी. अब इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, इटली, नीदरलैंड, कोरिया, पोलैंड, रूस, बुल्गारिया, फिनलैंड आदि में हिंदीभाषी हैं और भारत के बाहर विदेशों में आज सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन और शोध हो रहा है.’ (प्रो. गिरीश्वर मिश्र (2016), ‘संदेश,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 9). इस संदर्भ में डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव का आलेख ‘देश-विदेश में हिंदी प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य’ उल्लेखनीय है. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि “उज्बेक और हिंदी भाषाओँ में कई हजार की संख्या में पाई जाने वाली आम शब्दावली के अतिरिक्त, ध्वनि विचार, व्याकरण और वाक्य विन्यास के क्षेत्रों में भी बहुत-सी समान विशेषताएँ दृष्टिगोचर हैं.” (डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव (2016), ‘देश-विदेश में हिंदी प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 60). उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उज्बेक और हिंदी भाषाओं की सामाजिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं में भी समानता है. 

भूमंडलीकरण ने संस्कृति को भी प्रभावित किया है. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध ‘भारतीय संस्कृति की देन’ में भारतीय संस्कृति के संबंध में कहा है कि “भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न-भिन्न जातियों के अनुभूत और साक्षात्कृत अन्य अविरोधी धर्मों की भाँति वह मनुष्य की जययात्रा में सहायक है. वह मनुष्य के सर्वोत्तम को जितने अंश में प्रकाशित और अग्रसर कर सका है, उतने ही अंश में वह सार्थक और महान है. वही भारतीय संस्कृति है, उसको प्रकट करना, उसकी व्याख्या करना या उसके प्रति जिज्ञासा भाव उचित है.” (हजारी प्रसाद द्विवेदी (2007 अट्ठाईसवाँ संस्करण), भारतीय संस्कृति की देन, अशोक के फूल, इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन, पृ. 69).

भारतीय संस्कृति पुरानी है. हमारा स्वभाव रामायण और महाभारत की कथाओं के माध्यम से फैली है. इनके सहारे से ही हम जुड़े हुए हैं. भारत में ही देश-विदेश में भी रामायण और महाभारत की कथाएँ प्रचलित हैं. डॉ. अलका धनपत ने यह स्पष्ट किया है कि मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम एवं कृष्ण का प्रभाव दृष्टिगोचर है. उन्होंने इस तथ्य को उजागर किया कि ‘मानस तथा गीता ने हिंदी शिक्षण को प्रेरणा दी और राम तथा कृष्ण के चरित्र ने मजबूत किया.’ (डॉ. अलका धनपत (2016), ‘मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम एवं कृष्ण का प्रभाव,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 39).

लोगों में यह धारणा है कि श्रीलंका रावण की राजधानी है. पुरातत्वविद इसी प्राक्कल्पना के आधार पर श्रीलंका में रामायण से संबंधित अनेक ऐतिहासिक स्थलों की खोज कर चुके हैं. डॉ. ई.जी.डब्ल्यू.पी. गुणसेना ने अपने शोधपरक आलेख में यह बताया है कि “श्रीलंका में रामायण के स्थानों संबंधी पुरातात्विक खोजों से तथा ऐतिहासिक सूचना के अनुसार ऐसा विश्वास है कि रावण का समय लगभग 5000 वर्ष के पूर्व ठहरता है. xxx [परंतु] श्रीलंका के पारंपरिक विश्वासों, मान्यताओं तथा बौद्ध साहित्य के लंकावतार मसुत्त के अनुसार माना जाता है कि रावण, भगवान बुद्ध का बड़ा भक्त था तथा उसने काश्यप बुद्ध भगवान की पूजा एवं उपासना भी की थी.” (डॉ. ई.जी.डब्ल्यू.पी. गुनसेन (2016), ‘रामायण के प्रति नायक रावण तथा प्रमुख स्थान,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 91). इसे भारत में प्रचलित जैन और बौद्ध रामायणों की भाँति राम कथा के सम्प्रदाय विशेष के लिए उपयोग के रूप में देखा जा सकता है. तेलुगु में उपलब्ध अनेक रामायणें भी बहुपाठीयता की प्रवृत्ति के अनुरूप ठहरती हैं. अनुसंधान के आधार पर तेलुगु भाषा में लगभग रामकथा के 146 पाठ उपलब्ध हैं. उनमें से 60 लोकरामायण के पाठ हैं तो 85 के आसपास संस्कृत से अनुवादित विविध पाठ. यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है. ‘आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा’ में विश्वनाथ सत्यनारायण (रामायण कल्पवृक्षम), रंगनायकम्मा (रामायण विषवृक्षम) और ओल्गा (विमुक्ता) की कृतियों के विशेष संदर्भ में यह स्पष्ट किया गया है कि “आधुनिक तेलुगु साहित्य में एक ओर रामायण के आदर्श पाठ उपस्थित हैं, तो वहीं दूसरी ओर उसके विमर्शात्मक पाठ भी उपस्थित हैं. समकालीन पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों को उजागर करने के लिए भी आधुनिक साहित्यकारों ने रामकथा का प्रतीकात्मक प्रयोग किया है.” (गुर्रमकोंडा नीरजा (2016), ‘आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा’, भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 396)

कुल मिलाकर इस ग्रंथ से यह स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के कारण समाज, साहित्य, संस्कृति और भाषा आदि अधिरचनाएँ प्रभावित हुई हैं. समाज में बदलाव है और बदलते समाज की इस बदलती मानसिकता को अंकित करने में साहित्य सक्षम है. संस्कृति भी प्रभावित हो रही है लेकिन भारतीय संस्कृति एवं स्वभाव रामायण और महाभारत की कथाओं के माध्यम से विश्व भर में फैले हैं, जिन्हें भूमंडलीकरण के प्रतिवाद के रूप में प्रस्तुत करके इसकी धारा को मोड़ा जा सकता है. इतने विचारपूर्ण आलेखों से सुसज्जित इस ग्रंथ के लिए इसके संपादक डॉ. प्रदीप कुमार सिंह बधाई के पात्र हैं.