tag:blogger.com,1999:blog-65271332064515306082024-03-14T11:46:30.456+05:30सागरिकाखुली डायरी के बिखरे पन्नों को सहेजने की कोशिशGurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.comBlogger415125tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-3265832934675475502023-12-18T22:44:00.004+05:302023-12-18T22:44:55.634+05:30गुमनामी के अँधेरे में से रा यात्री की यात्रा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGdAYCnGi8SU_tNRSsZGGCg6c5iSKy4s_8ZCrSOSl9sUMS7mqDJMluZDJX2f__zbubRVmtVkseez0ozegq_-ZcNlGB5CeZ3BmtAPWTUe1N1y5D4hggQI6kV05mKX7qL1IkFUB67u2p7spphxeghvHJjmso38cIG7mWwfVbR-BA-ruYlsO6PObLzE2UK8U/s645/se_ra-removebg-preview.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="645" data-original-width="387" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGdAYCnGi8SU_tNRSsZGGCg6c5iSKy4s_8ZCrSOSl9sUMS7mqDJMluZDJX2f__zbubRVmtVkseez0ozegq_-ZcNlGB5CeZ3BmtAPWTUe1N1y5D4hggQI6kV05mKX7qL1IkFUB67u2p7spphxeghvHJjmso38cIG7mWwfVbR-BA-ruYlsO6PObLzE2UK8U/s320/se_ra-removebg-preview.png" width="192" /></a></div><div style="text-align: justify;">साहित्यिक जगत में से रा यात्री के नाम से प्रसिद्ध सेवा राम अग्रवाल 17 नवंबर, 2023 को कभी न लौटने वाली महायात्रा पर प्रस्थान कर गए। उत्तर प्रदेश के जनपद मुज़फ़्फ़रनगर के गाँव जड़ोदा में 1933 में जन्मे सेवा राम की साहित्यिक यात्रा कविताओं के माध्यम से शुरू हुई थी। उसके बाद यह यात्रा तेज गति चलती रही। उनकी पहली कहानी है ‘गर्द गुबार’ जो प्रसिद्ध कहानी पत्रिका ‘नई कहानी’ में प्रकाशित हुई और पहला कहानी संग्रह है ‘दूसरे चहरे’ (1971)। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर में हुई। तत्पश्चात आगरा विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान (1955) और हिंदी साहित्य (1957) में एम.ए. की उपाधि अर्जित की। सागर विश्वविद्यालय से शोधकार्य संपन्न करके उन्होंने अपनी आजीविका अध्यापन से शुरू की।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">से रा यात्री प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, पंत, बच्चन और नरेंद्र शर्मा जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से प्रभावित थे। वे बेहद संवेदनशील कथाकार थे। समसामयिक सामाजिक एवं राजनैतिक परिदृश्य को देखकर वे चिंता व्यक्त करते थे। उनका व्यक्तिव बहुत सरल था। उनकी सरलता एवं सादगी का एकमात्र कारण यह है कि वे जमीन से जुड़े साहित्यकार थे। कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य और संस्मरण विधाओं में उन्होंने अपनी लेखनी चलाई।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">से रा यात्री सचमुच साहित्य के ‘सेरा’ (शेरा) थे। उनकी किताबों का संसार विशाल है। उनकी लेखनी से दराजों में बंद दस्तावेज, लौटते हुए, कई अँधेरों के पार, अपरिचित शेष, चाँदनी के आरपार, बीच की दरार, टूटते दायरे, चादर के बाहर, प्यासी नदी, भटका मेघ, आकाशचारी, आत्मदाह, बावजूद, अंतहीन, प्रथम परिचय, जली रस्सी, युद्ध अविराम, दिशाहारा, बेदखल अतीत, सुबह की तलाश, घर न घाट, आखिरी पड़ाव, एक जिंदगी और, अनदेखे पुल, कलंदर, सुरंग के बाहर जैसे उपन्यासों का सृजन हुआ। साथ ही केवल पिता, धरातल, अकर्मक क्रिया, टापू पर अकेले, दूसरे चेहरे, अलग-अलग अस्वीकार, काल विदूषक, सिलसिला, खंडित संवाद, नया संबंध, भूख तथा अन्य कहानियाँ, अभयदान, पुल टूटते हुए, विरोधी स्वर, खारिज और बेदखल, परजीवी जैसे कहानी संग्रहों में संकलित कहानियाँ पाठकों को सोचने पर बाध्य करती हैं। किस्सा एक खरगोश का, दुनिया मेरे आगे उनके प्रमुख व्यंग्य संग्रह हैं। लौटना एक वाकिफ उम्र का संस्मरण है। वे सफल संपादक भी थे। उन्होंने मासिक ‘वर्तमान साहित्य’ का सफल संपादन किया था। इतनी महत्वपूर्ण कृतियों से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के बावजूद यात्री जी कहते हैं कि ‘मैं मैं को नहीं लिख पाया। यहाँ आकर मेरी शक्ति खत्म हो गई। जहाँ मुझे स्वयं को लिखना था... ये जो मैंने सब लिखा है, ये तो दिशांतर है।’</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">से रा यात्री अनेक सम्मानों से सम्मानित हुए। जैसे राजस्थान पत्रिका, जयपुर द्वारा वर्ष 1998 में ‘विरोधी स्वर’ कहानी के लिए पुरस्कृत हुए। राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति, डूंगरगढ़, राजस्थान द्वारा 1993 में ‘साहित्यश्री’ सम्मान से अलंकृत हुए। सावित्री देवी चैरिटेबल ट्रस्ट, गाजियाबाद द्वारा 1986 में पुरस्कृत हुए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा कथा संग्रह ‘धरातल’ (1979), ‘सिलसिला’ (1980), ‘अकर्मक क्रिया’ (1980), ‘अभयदान’ (1979) तथा संस्मरण ‘लौटना एक वाकिफ उम्र का’ (1998) के लिए पुरस्कृत हुए। यात्री जी 2006 में साहित्य भूषण, 2007 में समन्वय द्वारा सारस्वत सम्मान, 2011 में महात्मा गांधी साहित्य सम्मान तथा 2017 में पीटरबर्ग्स अमेरिका के सेतु शिखर सम्मान से भी अलंकृत हुए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यात्री जी ने भले ही अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से शुरू की, लेकिन बहुत जल्दी ही उसकी सीमा को देखते हुए उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। उसके बाद उपन्यास, संस्मरण आदि एक के बाद एक लिखते रहे। उनके कवि रूप को उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी जीवित देखा जा सकता है। उन्होंने स्वयं इस बात की पुष्टि की है। यात्री जी का जीवन बहुत ही सरल और पारदर्शी रहा। उनके बाह्य व्यक्तित्व का रेखाचित्र रवींद्र कालिया ने कुछ इस तरह खींचा है – ‘ऊँचा कद, गोरा रंग, काले बाल, चोगे की तरह लंबा घुटनों से नीचे तक सफेद कुर्ता, ढीला पायजामा, कंधे पर समाजवादी झोला, पीछे-पीछे कुत्तों की लंबी कतार, गाजियाबाद की किसी सड़क पर लंबे-लंबे डग भरता हुआ ऐसा कोई आदमी दिखाई दे जाय तो समझ लेना लीजिए, वह कहानीकार से रा यात्री है।’ (रवींद्र कालिया, कॉमरेड मोनालिज़ा तथा अन्य संस्मरण, पृ. 178)। यात्री जी अपने झोले में रोटी के टुकड़े रखते और उन टुकड़ों को रास्ते में कुत्तों को खिलाते। यह उनकी आदत थी। इसीलिए उनके पीछे कुत्तों की लंबी कतार लगी रहती। रवींद्र कालिया उन्हें ‘एक खुली किताब’ मानते हैं। यात्री जी उन ‘अनसंग हीरोज़’ के समान हैं जिनके बारे में लोग बहुत ही कम चर्चा करते हैं। उन्होंने कभी भी यह नहीं चाहा कि लोग उनकी तारीफ के पुल बाँधें। उन्होंने तो मस्त कलंदर की तरह ज़िंदगी बिताई थी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यात्री जी की रचनाओं में समाज के हर तबके के दर्द को देखा जा सकता है। बच्चों की मानसिकता से लेकर वार्धक्य तक की स्थितियों को यात्री जी ने बखूबी उकेरा है। ‘दराजों में बंद दस्तावेज’ उनका पहला उपन्यास है। इसमें नायक-नायिका के मानसिक द्वंद्व का चित्रण है। ‘लौटे हुए’ में जीवन मूल्यों का निरूपण है। ‘दरारों के बीच’ में बेरोजगारी का चित्रण है। ‘कई अँधेरों के पार’ में मध्यवर्गीय मानसिकता है। ‘आत्मदाह’ में युवा पीढ़ी की पलायन करने की प्रवृत्ति को उजागर किया गया है। ‘उखड़े हुए’ शीर्षक कहानी में शिक्षण संस्था की आड़ में चल रहे शोषण-चक्र का खुलासा किया गया है। ‘किस्सा कोताह’ कहानी में अध्यापकों के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के प्रति कटाक्ष है तो ‘उजरत’ कहानी विद्यार्थी जीवन का दस्तावेज है। ‘जोंक’ में संकीर्ण मानसिकता का चित्रण है। इस प्रकार हर रचना में एक नई समस्या को देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं के पात्र हमारे इर्द-गिर्द घूमने लगते हैं। कभी-कभी तो हम स्वयं एक पात्र बनकर उपस्थित हो जाते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आज के रचनाकारों के संदर्भ में से रा यात्री का कहना है कि ‘...जोखिम नहीं है। लेखन के लिए एक प्रतिबद्धता होती है, कमिटमेंट होता है। विद आउट कमिटमेंट आप हैं कहाँ? ढोल है…। आज सबसे बड़ी कमी लेखन में कमिटमेंट की है। मैं जोखिम उठाता हूँ और अपने लेखन में रेखांकित करता हूँ। सारे आजादी के जमाने की जो जद्दोजहद स्टैंड करती है… व्हाई गांधी स्टुड… गांधी क्यों खड़े रहे गए? गांधी इसलिए खड़े रह गए कि उनका शायद मंत्र था। आज कोई मंत्र नहीं है।’</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आज संवेदनशून्यता हर दिशा में फैली हुई है। अपने काम के प्रति कमिटमेंट तो है ही नहीं। एक साक्षात्कार में जब उनसे यह पूछा गया कि क्या कोई और आप के बारे में उस तरह लिख सकते हैं जिस तरह आप चाहते हों तो उन्होंने कहा कि ‘मुझ पर 35 लोगों ने पीएचडी की है, लेकिन सब खोखलापन है। ‘उजरत’ कहानी का किसी ने कोई जिक्र नहीं किया। 35 स्कॉलर्स में से... एक ने भी जिक्र नहीं किया ‘उजरत’ का।’ ‘उजरत’ कहानी विद्यार्थी जीवन का जीवंत दस्तावेज है। ‘कितने बचने की कोशिश है, कितना सामने आने का जज्बा है, दोनों चीजें हैं इस कहानी में।’ उनकी बातों में एक संदेश और उनकी चिंता स्पष्ट रूप से मुखरित है। वह यह है कि आज के शोधार्थी महज उपाधि पाने के लिए काम कर रहे हैं, न कि कमिटमेंट से। फिर ऐसी उपाधि किस काम की! एक अलंकरण मात्र!!</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आज की पीढ़ी को संदेश देते हुए यात्री जी कहते हैं कि ‘खूब पढ़ना चाहिए। क्लासिक पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। रेणु को पढ़ना चाहिए। हिमांशु श्रीवास्तव को पढ़ना चाहिए। दिनकर की कविता पढ़नी चाहिए। 34 साल की उम्र में मेरी पहली कहानी छपी ‘धर्मयुग’ में। आज 34 साल की उम्र में 34 किताबें छप जाती हैं।’ हममें ऐसे कितने लोग हैं जो इन रचनाकारों को पूरा पढ़ पाए! पढ़ने का अर्थ यह नहीं कि किताबों के पन्नों को पढ़ लिया। यहाँ पढ़ने का अर्थ है उन किताबों में निहित संवेदनशील तत्वों को ग्रहण करना और अपने जीवन में उतारना। हम ऐसा नहीं करते। ऐसा करने के लिए समय किसके पास है! भागदौड़ की जिंदगी में हम अपने आपसे कटते जा रहे हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सामाजिक विसंगतियों से विचलित यात्री जी हमेशा बेचैन रहे। अपने अंतिम दिनों में भी उनके अंदर यही बेचैनी थी, यही चिंता थी। 16 नवंबर, 2023 को से रा यात्री को अपनी सृजन यात्रा के लिए ‘दीपशिखा’ सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा हुई। इस घोषणा के 24 घंटे में ही यात्री जी ‘कई अँधेरों के पार’ ‘गुमनामी के अँधेरे में’ ‘आखिरी पड़ाव’ पर पहुँचकर कभी वापस न लौटने की यात्रा पर निकल पड़े। जन सरोकारों के इस अप्रतिम यात्री को ‘स्रवंति’ की विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है! </div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-91306913563213942102023-12-06T22:55:00.006+05:302023-12-06T22:55:27.055+05:30'स्पैरो' की उड़ान का सम्मान <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTBrtHl_1UP0K4lMZePrbGkQv-q25NtSY_t4j6Tq0OZmuyuYDob1S8Wft7liXqSgrPekh3fB0avbuF1oyNqx1gixb_xKzJNmp1a80CvMyCPyQpzZDt9wV0JleJK1myTl_vJWmjxPge_jd-FBvdoOtXQT9GY1pLhUjBRWcCB2onWcabvinAs3DftP2UKtQ/s828/202310033064017.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="605" data-original-width="828" height="234" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTBrtHl_1UP0K4lMZePrbGkQv-q25NtSY_t4j6Tq0OZmuyuYDob1S8Wft7liXqSgrPekh3fB0avbuF1oyNqx1gixb_xKzJNmp1a80CvMyCPyQpzZDt9wV0JleJK1myTl_vJWmjxPge_jd-FBvdoOtXQT9GY1pLhUjBRWcCB2onWcabvinAs3DftP2UKtQ/s320/202310033064017.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">साहित्यिक क्षेत्र में अंबै के नाम से प्रसिद्ध तमिलनाडु की लेखिका सी. एस. लक्ष्मी (1944) को 2023 के “टाटा लिटरेचर लाइव! लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” से सम्मानित किया गया है। लक्ष्मी का जन्म कोयंबत्तूर में हुआ था। उनका अधिकांश समय मुंबई और बैंगलूर में बीता। उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से स्नातक की उपाधि अर्जित की। 1956 की असफल क्रांति के कारण हंगरी से पलायन कर रहे शरणार्थियों के प्रति अमेरिकी नीति पर उन्होंने अपना शोधप्रबंध प्रस्तुत किया और नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने अपना अकादमिक जीवन एक शिक्षक के रूप में शुरू किया। उन्होंने मुंबई में स्त्रियों के लिए “स्पैरो” नाम से एक संस्था की स्थापना की। स्पैरो (SPARROW - Sound Picture ARchives of Research on Women) की स्थापना का विचार उन्हें 1988 में आया। इसके पीछे स्त्रियों के लिए एक अलग अभिलेखागार स्थापित करना ही मुख्य उद्देश्य रहा। इसकी आवश्यकता उनके शोध अध्ययन के दौरान उभरी। उनका उद्देश्य महिला अभिलेखागार को मात्र एक संग्रह के रूप में स्थापित करना नहीं था, बल्कि एक ऐसा अभिलेखागार बनाने का था जो स्त्रियों की समस्याओं को दूर करने में सहायक हो। वर्तमान में आप ही इस संस्था की निदेशक हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अंबै बहिर्मुखी व्यक्तित्व की धनी रचनाकार हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं विद्रूपताओं के प्रति उन्होंने हमेशा आवाज उठाई। मूलतः स्त्री के अधिकारों के लिए। इसके लिए उन्होंने साहित्य को माध्यम बनाया। अंबै से परिचित लोगों का कहना है कि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं दीखता। उनकी अधिकांश रचनाओं में स्त्री विषयक मान्यताओं तथा उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए व्यक्तित्व को देखा जा सकता है। उनकी कहानियाँ रिश्तों को उजागर करती हैं। अंबै समकालीन जीवन के बारे में तीखी टिप्पणियाँ करने से भी पीछे नहीं हटती। वह विकट परिस्थितियों में कभी भी हार नहीं मानती।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सी. एस. लक्ष्मी ने 16 वर्ष की उम्र से ही कहानियों के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करना शुरू कर दिया था। 1962 में उनकी पहली कृति ‘नंदिमलै चारलिले’ (नंदी पर्वतों के समीप) प्रकाशित हुई। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - 'अंधि मलय’ (गोधूलि बेला), ‘सिरगुगल मुरियुम’ (पंख टूट जाते हैं), ‘वीट्टिन मूलयिल ओरु समयिलअरै’ (घर के कोने में एक रसोईघर), ‘काट्टिल ओरु मान’ (जंगल में एक हिरण) आदि। उनकी अधिकांश कृतियाँ अंग्रेजी में अनूदित हो चुकी हैं और वे खुद भी अंग्रेजी में लिखती हैं। उन्होंने अनेक नाटकों का भी सृजन किया है। वे सफल अनुवादक भी हैं। हिंदी और अंग्रेजी से तमिल में कविताओं का अनुवाद करती हैं, साथ ही तमिल से अंग्रेजी में।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अंबै की कहानियों का मूल स्वर स्त्री अस्मिता है। अपनी मातृभाषा तमिल में वे अंबै के नाम से लिखती हैं, जबकि अंग्रेजी में लक्ष्मी के नाम से। इसके संबंध में एक साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट किया कि सृजनात्मक लेखन के लिए विशेष रूप से अपनी मातृभाषा में वे अंबै नाम का प्रयोग करना ही पसंद करती हैं। तमिल में अंबै का अर्थ है देवी अर्थात पार्वती। अपनी युवावस्था में वे तमिल लेखक देवन से अत्यधिक प्रभावित थी। उनकी कृति ‘पार्वतियिन सबदम’ (पार्वती की शपथ) को पढ़कर वे सोचने को मजबूर हो गईं। उस कृति की मूल कथा एक स्त्री के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें यह बखूबी दिखाया गया है कि अपने पति द्वारा अपमानित स्त्री शपथ लेती है कि वह अपनी अस्मिता के लिए दुनिया से लड़ेगी। वह अपने अस्तित्व के संघर्ष में सफलता हासिल करती है। इससे प्रेरित होकर लक्ष्मी ने ‘अंबै’ नाम से सृजनात्मक लेखन शुरू किया था।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के लिए आगे बढ़ना, अपने अस्तित्व को बचाए रखना इतना आसान नहीं है। सदियों से स्त्री को यह कहकर हाशिये पर धकेला गया कि ‘न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।’ हर क्षेत्र में उसे पीछे ही रहना पड़ता है। यदि स्त्री घर की दहलीज लाँघकर समाज में कुछ बनने की इच्छा से किसी क्षेत्र में आगे आती है, तो उसे यह समाज जीने नहीं देता। तरह-तरह के नाम से भी उसे संबोधित किया जाता है। पुरुष तो उसे हर कदम पर टोकने के लिए तैयार रहता है। इतना ही नहीं पुरुष-मानसिकता से ग्रस्त स्त्रियाँ भी स्त्री की दुश्मन बन बैठती हैं। लक्ष्मी ने भी बहुत कुछ झेला है। उन्हें और उनके लेखन को धिक्कारने वालों की कमी नहीं है। इसकी पुष्टि करते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि उनके चरित्र पर भी तरह-तरह के लांछन लगाए गए थे। कुछ पुरुष लेखकों ने उनकी तथा उनकी रचनाओं की भर्त्सना की थी। उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया थ। वे एकदम अकेली पड़ गई थीं। फिर भी उन्होंने परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। सभी तरह की आलोचनाओं का अंबै ने डटकर सामना किया। इसके लिए उन्होंने लेखनी को हथियार बनाया।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अंबै के स्त्री पात्र हाड़-मांस से बने हैं और अपनी सभी इच्छाओं और कल्पनाओं को बिना किसी हिचकिचाहट के व्यक्त करते हैं। ‘सिरागुगल मुरियुम’ (पंख टूट जाते हैं) कहानी संग्रह की केंद्रीय कहानी में लेखिका ने बेमेल रिश्तों का खुलासा किया है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि जब पति का साथ न मिले तो उस पत्नी की जिंदगी नारकीय बन जाएगी। कहानी की केंद्रीय पात्र ऐसी परिस्थितियों में भी साहस के साथ आगे बढ़ती है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘वीट्टिन मूलयिल ओरु समयिलअरै’ (घर के कोने में एक रसोईघर) में कुल मिलाकर 20 कहानियाँ संकलित हैं। ये कहानियाँ सांस्कृतिक संदर्भों से युक्त हैं। प्रत्येक कहानी का एक अलग अहसास है। इन कहानियों के माध्यम से हम उस स्त्री की दयनीय स्थिति को समझ सकते हैं जो पारंपरिक रूढ़ियों के कारण पिसती है तथा घर और समाज में अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष करती है। अकसर यही सुनने को मिलता है कि स्त्री का साम्राज्य रसोईघर है। वह रसोईघर से कदम आगे नहीं रख सकती। यदि वह घर के निर्णयों में कुछ सलाह देने के लिए आगे आई, तो उसे चुप करा दिया जाता है यह कहकर कि- जा! रसोई का काम देख पहले। बड़ी आई पुरुष को सलाह देने वाली! रीति-रिवाजों के आगे स्त्री भी इतना दब जाती है कि वह भी अपने आपको रसोईघर तक सीमित कर लेती है। लेखिका यह टिप्पणी करती हैं कि जब तक स्त्री अपने लिए अपने अस्तित्व व अस्मिता के लिए स्वयं संघर्ष नहीं करेगी, तब तक कुछ नहीं हो सकता। उसे स्वयं ऊपर उठना होगा। उसकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आएगा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सी. एस. लक्ष्मी ‘अंबै’ एक सशक्त स्त्रीवादी लेखिका हैं। वे कोरी नारेबाजी करने वाली लेखिका नहीं हैं, अपितु ज़मीनी सच्चाई को पाठकों के सामने रखकर स्त्री की समस्याओं के निदान के लिए काम करने वाली सक्रिय कार्यकर्ता हैं। “टाटा लिटरेचर लाइव! लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” से सम्मानित होने के अवसर पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह सम्मान पाकर वे अत्यंत गौरव का अनुभव कर रही हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह सम्मान एक स्त्रीवादी रचनाकार का सम्मान नहीं है, अपितु यह साहित्य का सम्मान है। यह एक साहित्यकार का सम्मान है। साहित्य रचनेवाला सिर्फ साहित्यकार अथवा रचनाकार होता है, न कि स्त्रीवादी या पुरुषवादी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">------------------</div><div style="text-align: justify;"><br /></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-17951527240259145442023-12-06T22:25:00.000+05:302023-12-06T22:25:06.044+05:30 सरलता का अपनापन!<div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8e00T54E0APfSG7MOKm7eNcT3kes-FK3vNh21cSSEIbAGyvUNtfCGjc1Z4JUSmvCsB4hLqocm1-ouRhyuLZmfILfBXf_jPB2vttkOIgqWF98n5DnEPEtc6f8DqFoIbkMi2H08L1sdPpvZSlrbugtAgIYRmRyTGAJhQ71QWMah8Hjqvl61epPS5JMHgbY/s1920/image_processing20200410-24803-nhkd26.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1920" data-original-width="1920" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8e00T54E0APfSG7MOKm7eNcT3kes-FK3vNh21cSSEIbAGyvUNtfCGjc1Z4JUSmvCsB4hLqocm1-ouRhyuLZmfILfBXf_jPB2vttkOIgqWF98n5DnEPEtc6f8DqFoIbkMi2H08L1sdPpvZSlrbugtAgIYRmRyTGAJhQ71QWMah8Hjqvl61epPS5JMHgbY/w640-h640/image_processing20200410-24803-nhkd26.png" width="640" /></a></div><br /></div><div style="text-align: justify;">छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी, 1889 - 15 नवंबर, 1937) कवि के साथ-साथ नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंध लेखक तथा संपादक थे। रामविलास शर्मा के अनुसार वे छायावाद के पहले कवि हैं। प्रसाद एक ऐसे साहित्यकार हैं जो अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए साध्य को ही मुख्य मानते हैं। यही बात उन्होंने ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में चाणक्य के मुख से कहलवाई है। प्रसाद ने जहाँ एक ओर गंभीर ऐतिहासिक साहित्य का सृजन किया है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति, देशप्रेम आदि का चित्रण बखूबी किया है। उनकी कहानियों में साहस-युक्त बाल चरित्र को भी देखा जा सकता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हर मनुष्य को बचपन की स्मृतियाँ आह्लादित करती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से बात करें तो जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का समय बचपन कहलाता है। सामान्य रूप से कहें तो यह वह समय है जब मनुष्य बिना किसी भेद-भाव के, बिना किसी राग-द्वेष के हँसी-खुशी समय व्यतीत करता है। यह वह सुनहरा समय है जो जिंदगी को तनाव-मुक्त रखता है। इस अवस्था में न तो तनाव के बारे में पता रहता है और न ही सामाजिक विसंगतियों का ज्ञान रहता है। यदि कुछ होता है तो वह है सिर्फ और सिर्फ अल्हड़ खेल। उसी में नन्हे बच्चे भाव विभोर होकर नाचते हैं, गाते हैं, किलकते हैं, खिलखिलाते हैं। अपने चारों ओर खुशियों की सुगंध फैलाते हैं। यदि कहें कि बचपन सबसे मधुर और अविस्मरणीय क्षणों का पुंज है, तो गलत नहीं होगा। इसीलिए शायद जयशंकर प्रसाद भी कह गए - ‘तुम्हारी आँखों का बचपन!/ खेलता था जब अल्हड़ खेल,/ अजिर के उर में भरा कुलेल,/ हारता था हँस-हँस कर मन,/ आह रे वह व्यतीत जीवन!/ तुम्हारी आँखों का बचपन!/ साथ ले सहचर सरस वसंत,/ चंक्रमण करता मधुर दिगंत,/ गूँजता किलकारी निस्वन, पुलक उठता तब मलय-पवन/ तुम्हारी आँखों का बचपन!’ क्या आज भी ऐसा बचपन बचा हुआ है! यह तो सोचने की बात है। ‘आज भी है क्या नित्य किशोर-/ उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-/ सरलता का वह अपनापन-/ आज भी है क्या मेरा धन!/ तुम्हारी आँखों का बचपन!’</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सांसारिक दाव-पेंच के दबाव के कारण आज असमय ही बालकों का बचपन छिनता जा रहा है। बहुत बार परिस्थितियों के कारण किसी नन्ही सी जान को परिवार की जिम्मेदारी तक अपने कंधों पर उठानी पड़ जाती है। इस विसंगति को अपने समय में जयशंकर प्रसाद ने भी महसूस किया था। उनकी कहानी ‘छोटा जादूगर’ में यह दिखाया गया है कि एक छोटा सा बच्चा कितना हिम्मती है। वह परिस्थितियों का सामना साहस के साथ करता है। एक राहगीर से मेले में उसकी मुलाकात होती है। जब वह व्यक्ति उस छोटे से बच्चे के माता-पिता के बारे में पूछता है, तो वह कहता है कि ‘बाबूजी जेल में हैं’ देश के लिए और माँ बीमार। पिता के जेल जाने के बावजूद वह टूटता नहीं और अपनी बीमार माँ का भी ध्यान रखता है। जब वह राहगीर कहता है कि ऐसी परिस्थिति में वह तमाशा देख रहा है, तो वह झट से कहता है, ‘तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शर्बत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती!’ (जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली, भाग iv, पृ. 264)। ऐसा कह पाना सबके लिए आसान नहीं। यह वही बहादुर बच्चा कह सकता है जिसने जिंदगी के खट्टे-मीठे लम्हों को जिया हो।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आजकल परिस्थितियों के कारण बच्चे जल्दी ही चतुर और सांसारिक बनते जा रहे हैं। सोशल मीडिया के कारण बच्चों का बचपन गुम होता जा रहा है। मासूमियत कोसों दूर है। प्रसाद जी के ज़माने में सोशल मीडिया तो न था, लेकिन राष्ट्र और समाज की परिस्थितियाँ अति विषम थीं। इसीलिए उन्होंने लिखा, ‘बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।’ (वही)। छोटा जादूगर छोटी उम्र में बीमार माँ के इलाज के लिए रास्ते में लोगों को जादू दिखाकर पैसा कमाने का काम करता है। जब उसकी माँ अंतिम साँसें ले रही होती है, तब भी वह जादू दिखाने चल पड़ता है। यह अंश पढ़ते समय पाठक द्रवित हुए बिना नहीं रह सकते।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘छोटा जादूगर’ कहानी पढ़ते समय मानो ऐसा लगता है कि जयशंकर प्रसाद स्वयं पात्र बनकर उपस्थित हैं जो बाल मन को समझने का प्रयास कर रहे हैं। मेले में जब बच्चा जाता है, तो वहाँ चीजों को देखकर उसका मन ललचाता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन मेले में जाने के बावजूद बच्चा खिलौने या फिर मिठाइयों को खरीदने के बजाय, तमाशा देखने के बजाय घर-परिवार के बारे में, घर की जरूरतों के बारे में सोचता हो, तो तनिक रुक कर सोचना पड़ेगा। ‘छोटा जादूगर’ कहानी के बाल पात्र को भी मेले की चीजें अच्छी लगती हैं। वह कहता है - ‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नंबर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’ (वही, पृ. 266)। यह सब उस बच्चे ने बड़े गर्व और आत्मविश्वास के साथ कहा। जब वह बोल रहा था तब उसकी वाणी में कहीं भी रुकावट नहीं थी। यह उसके आत्मविश्वास का प्रतीक है। यह मातृ-प्रेम को दर्शाने वाली अद्वितीय कहानी है। इस कहानी में जयशंकर प्रसाद ने परोक्ष रूप से स्वाधीनता संग्राम में जेल जाने वाले एक पात्र का उल्लेख किया है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बच्चे मन के सच्चे होते हैं। छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाते हैं। उसी तरह छोटी सी बात पर दुखी भी हो जाते हैं, रूठते भी हैं, हंगामा भी करते हैं। कहने का अर्थ है कि बच्चे किसी एक मनोदशा में ज़्यादा देर तक नहीं टिकते। एक ही क्षण में उनकी इच्छाएँ बदल जाती हैं। बच्चे आसानी से किसी की ओर आकर्षित हो जाते हैं। उनके मन में अपार दया का भाव रहता है। कहा जाता है कि उनमें भगवान वास करते हैं। ‘गूदड़ साईं’ शीर्षक कहानी में प्रसाद जी ने साईं के माध्यम से यह कहा कि ‘मेरे पास, दूसरी कौन वस्तु है, जिसे देकर इस ‘रामरूप’ भगवान को प्रसन्न करता!’ (जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ, पृ.16)। इस कहानी का नन्हा मोहन साईं को ‘गरीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता।’ (वही)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जयशंकर प्रसाद मनुष्यता को प्रमुखता देने वाले साहित्यकार हैं। उनके समग्र साहित्य में इस तत्व को रेखांकित किया जा सकता है। उनके अनुसार जीवन की मुख्य संवेदनाएँ हैं मानवता और करुणा। ‘अनबोला’ एक ऐसी कहानी है जिसमें प्रसाद जी ने इन मानवीय संवेदनाओं को उकेरा है। इस कहानी में जग्गैय्या का मातृ-प्रेम दिखाया गया है। जग्गैय्या एक छोटा सा बालक है। पिता का साया बचपन में उठ गया था। उसके सिर पर तो सिर्फ ममतामयी माँ का हाथ था। “जग्गैय्या को केवल माँ थी, वह कामैया के पिता के यहाँ लगी-लिपटी रहती, अपना पेट पालती थी। कामैया की मछलियाँ ले जाकर बाजार में बेचना उसी का काम था।’ (जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली, भाग iv, पृ.312)। एक दिन जाल में मछलियों के साथ-साथ समुद्री बाघ भी आ गया। ‘जग्गैय्या की माँ अपना काम करने की धुन में जाल में मछलियाँ पकड़कर दौरी में रख रही थी। समुद्री बाघ बालू की विस्तृत बेला में एक बार उछला। जग्गैय्या की माता का हाथ उसके मुँह में चला गया। कोलाहल मचा; पर बेकार! बेचारी का एक हाथ वह चबा गया।’ (वही, पृ.313)। जग्गैय्या अपनी मूर्च्छित माँ को उठाकर झोंपड़ी में ले चलता है। उसके मन में कामैया के पिता के लिए असीम क्रोध भर जाता है। अपनी माँ को कष्ट में देखकर वह सोचने लगता कि यदि उसके पास खुद की नाव होती तो माँ को आज यह दिन देखना न पड़ता। वह चाहते हुए भी अपनी माँ को बचा नहीं पाता। छोटी उम्र में ही माता-पिता की छाया से वंचित न जाने कितने जग्गैय्या जीवन-संघर्ष में अग्रसर हैं! ऐसी स्थिति में अपने जीवन यापन के लिए उन्हें काम करना ही पड़ता है। सेठ-साहूकार काम तो करवा लेते हैं, लेकिन पगार तो उन्हें नाममात्र के लिए ही देते हैं। बालश्रम कानूनन अपराध है, पर वे बच्चे कर ही क्या सकते हैं! प्रसाद की कहानी का मधुआ एक ऐसा ही पात्र है जो ‘कुँअर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिनभर साथ रहा। सात बजे लौटा तो और भी नई भजे तक कुछ काम करना पड़ा।’ (जयशंकर प्रसाद, प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ. 91)। रोटी के बदले उसे लातें खाने को मिलीं। प्रसाद ने इस कहानी में यह दर्शाया है कि बालक मधुआ की ममता और निरीहता एक शराबी के भीतर क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘बालक चंद्रगुप्त’ एक छोटी सी ऐतिहासिक कहानी है। इस कहानी में उन्होंने रोचक ढंग से इतिहास के नायक चंद्रगुप्त के बचपन की झाँकी प्रस्तुत की है। बचपन में चंद्रगुप्त राजसी वैभव का अभिनय करता है। उस समय उसकी मुलाकात चाणक्य से होती है। भले ही यह दृश्य नाटकीय है, पर बहुत प्रभावी है। प्रसाद के बाल चरित्रों में जहाँ एक ओर प्रेम, करुणा, दया जैसी संवेदनाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें मातृप्रेम के साथ-साथ देशप्रेम जैसे राष्ट्रीय मूल्य भी निहित हैं।</div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-40095185986444244292023-09-14T08:00:00.003+05:302023-09-14T08:00:00.133+05:30देश को सिलने के लिए चाहिए एक सुई<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY5kCsAPgYQfaNDfLixgUoZkuTIEIBl2j2gRrUqr2LWSfUv3D2pBSZ1sqUHWFFVvy5bkP29z371ShpAC4uOgriJEtQ71xw10G4RAEc-pwBkxs5vnPRUfy7ApT7UTSCsP5rrXqqQ3e48a39VdwWlDJEQ9xv9cDBqk8UcVleIKZ6gJmcZcqBU3_Pb-djWnk/s637/world-page0001.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="523" data-original-width="637" height="526" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY5kCsAPgYQfaNDfLixgUoZkuTIEIBl2j2gRrUqr2LWSfUv3D2pBSZ1sqUHWFFVvy5bkP29z371ShpAC4uOgriJEtQ71xw10G4RAEc-pwBkxs5vnPRUfy7ApT7UTSCsP5rrXqqQ3e48a39VdwWlDJEQ9xv9cDBqk8UcVleIKZ6gJmcZcqBU3_Pb-djWnk/w640-h526/world-page0001.jpg" width="640" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सितंबर! हिंदी प्रेमियों के लिए उत्सव का माहौल। पाठशालाओं, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, स्वैच्छिक संस्थानों, बैंकों, राजभाषा विभागों आदि में चारों ओर कोलाहल। न जाने कितनी तरह की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। अवसर है ‘हिंदी दिवस’। आखिर हिंदी दिवस को इतना महत्व क्यों दिया जाता है! कभी सोचा है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">14 सितंबर, 1949 को हिंदी ने भारत की राजभाषा का पद संवैधानिक रूप से प्राप्त किया। पहली बार 14 सितंबर, 1953 को ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया। तब से लेकर आज तक यह एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भारत एक उत्सवधर्मी देश है। हर महीने कोई न कोई त्योहार होता ही है। छोटी-छोटी उपलब्धियों को भी उत्सव के रूप में मनाकर भारत के लोग आपस में भाईचारा कायम रखते हैं। ऐसे ही सितंबर में सभी हिंदी प्रेमी ‘हिंदी दिवस’ मनाने के लिए एकजुट हो जाते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं, इसके पीछे निहित कारण हम सब जानते ही हैं। मैं तो बस यही कहना चाहूँगी कि इसे केवल एक औपचारिकता न समझा जाए। वैसे भी, हम दूसरे तमाम त्योहार क्यों मनाते हैं? क्योंकि हमारे हर त्योहार के पीछे कोई न कोई मूल्य अवश्य जुड़ा हुआ होता है। चाहे वह दीवाली हो या दशहरा, ईद हो या होली, बैसाखी हो या बड़ा दिन, ये त्योहार हमारे लिए केवल औपचारिक नहीं हैं। इनका संबंध हमारे जीवन मूल्यों से है। 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्तूबर की तरह 14 सितंबर भी हमारा राष्ट्रीय पर्व है। और इस पर्व के मूल में जो मूल्य निहित है वह है ‘भारतीयता’ – ‘राष्ट्रीयता’। भारतवर्ष की भावात्मक एकता। हमारा यह देश बहु-सांस्कृतिक और बहु-भाषिक है। हिंदी भारत की सामासिक एकता को अक्षुण्ण रखने का एक आधार है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भौगोलिक रूप से हमारे बीच दूरियाँ बहुत हैं। लेकिन भावात्मक एकता के धरातल पर हम सब एक हैं। कहने का आशय है कि उत्तर के राज्यों और दक्षिण के राज्यों के बीच भौगोलिक दूर हो सकती है और है भी। इन भौगोलिक दूरियों के बावजूद यह पूरा देश भावात्मक रूप से एक सूत्र में जुड़ा हुआ है। इस भावात्मक एकता को मजबूत बनाने वाला तत्व है ‘भाषा’।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया और अंग्रेजों की दासता से भारत को मुक्त किया। विभिन्न भाषाएँ बोलने वाला और विभिन्न प्रांतों में बँटा हुआ भारत एक राष्ट्र बना और हिंदी इसकी राजभाषा बनी। उल्लेखनीय है कि भाषा के अभाव में न ही मनुष्य का अस्तित्व होता है और न ही देश का। इस संदर्भ में थोमस डेविड का कथन ध्यान खींचता है। उनका कहना है कि कोई भी देश राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र नहीं कहला सकता।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भाषा महज आदान-प्रदान या अभिव्यक्ति का साधन नहीं है अपितु वह मनुष्य की अस्मिता है। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो एक साथ अनेक भूमिकाएँ निभा सकती है और निभा भी रही है। अर्थात जनभाषा, संपर्क भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा की माध्यम भाषा, प्रौद्योगिकी की भाषा, बाजार-दोस्त भाषा, मीडिया भाषा आदि। साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में हिंदी की भूमिका निर्विवाद है। महात्मा गांधी ने हिंदी की इस ताकत को पहचाना और ‘स्वभाषा’ को स्वराज्य के लिए अनिवार्य घोषित किया। उनकी यह मान्यता थी कि हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी ही हो सकती है। क्योंकि अलग-अलग भाषा-भाषी भी हिंदी में आसानी से बातचीत कर सकते हैं। अपने भावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भाषा एक संवेदनशील वस्तु है। जरा सी गलती हो जाए, तो वह तोड़ने वाली शक्ति बन सकती है। आप जानते ही हैं, भाषा के नाम पर आपस में झगड़े होने से देश किस तरह टुकड़ों में बँट जाते हैं। इसीलिए कभी कभी ऐसा भी लगता है कि भाषा के नाम पर राज्य बनना भाषा की नकारात्मक भूमिका है। किंतु इसके विपरीत भाषा की एक सकारात्मक भूमिका भी है। वह है जोड़ने की ताकत। हम सबको नकारात्मकता को छोड़कर इसी सकारात्मक तत्व को ग्रहण करना होगा। यह उचित भी है। अतः कहा जा सकता है कि ‘हिंदी दिवस’ भाषा के संबंध में सकारात्मक सोच के प्रति अपने आपको समर्पित करने का दिन है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">14 सितंबर, 1949 को जब भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को ‘भारत संघ की राजभाषा’ बनाया, तो वे इसे केवल ‘राजकाज’ की भाषा नहीं बना रहे थे, बल्कि भावात्मक एकता की भाषा बना रहे थे। इसीलिए उन्होंने दो और विशेष प्रावधान रखे। एक प्रावधान यह रखा कि अलग-अलग प्रांत अपनी-अपनी राजभाषाएँ रखने के लिए स्वतंत्र हैं। दूसरे, इन अलग-अलग राजभाषाओं को भावात्मक एकता की दृष्टि से जोड़ने के लिए अनुच्छेद 351 का प्रावधान किया गया। यह कहा गया कि हिंदी का विकास इस तरह से हो कि वह सामासिक संस्कृति (मिश्रित संस्कृति) का प्रतिबिंब बने। अतः हम सबको यह समझना जरूरी है कि हिंदी केवल राजभाषा नहीं है, बल्कि अलग-अलग भाषा और बोलियाँ बोलने वाले इस महान देश के लोगों को आपस में जोड़ने वाली एक सुई है। यहाँ मुझे तेलुगु कवयित्री एन. अरुणा की एक कविता याद आ रही है –</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">इंसानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">फटे भूखंडों पर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पैबंद लगाना चाहती हूँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">रफ़ू करना चाहती हूँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">चीथड़ों में फिरने वाले लोगों के लिए</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">हर चबूतरे पर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सिलाई मशीन बनना चाहती हूँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">असल में यह सुई</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मेरी माँ की है विरासत</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">आत्मीयताओं के टुकड़ों से मिली</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">कंथा है हमारा घर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सीने का मतलब ही है जोड़ना</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सीने का मतलब ही होता है बनाए रखना</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">माँ अपनी नजरों से बाँधती थी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">हम सबको एक ही सूत्र में</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सुई की नोक चुभाकर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">होती थी कशीदाकारी भलाई के ही लिए</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">नस्ल, देश और भाषाओं में विभक्त</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">इस दुनिया को</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">कमरे के बीचों-बीच ढेर लगाकर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">प्रेम के धागे से सी लेना चाहती हूँ </span>(एन. अरुणा, मौन भी बोलता है)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सुई की तरह ही हिंदी भाषा किसी और भाषा की पहचान के लिए खतरा पैदा नहीं कर सकती। बल्कि यह उन सबको आपस में जोड़ती है। क्या आप बता सकते हैं कि घड़ी, गाड़ी, टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल, उपग्रह आदि चीजों को कैसे बनाया जाता है? जी हाँ, टुकड़ों में। टुकड़ों को असेम्बल करके जोड़ा जाता है। तभी उत्पाद तैयार होकर हमारे सामने आएगा। कहने का आशय है कि अलग-अलग टुकड़ों को असेम्बल करते हुए किसी भी उपकरण का निर्माण किया जाता है। अगर इन टुकड़ों को अलग-अलग ही रहने देंगे तो क्या उपकरण बनेगा! नहीं। इसी प्रकार राष्ट्र के निर्माण में वह जो प्राण तत्व है, आत्मा है जो दिखाई नहीं देती, वह है हमारी संपर्क भाषा। इस संपर्क भाषा के द्वारा ही सारी भाषाएँ जुड़कर ‘भारतीय चिंतन की भाषा’ का निर्माण करती हैं। इसी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। अतः हम सब मिलकर यह संकल्प लें कि असेम्बल करने वाले इस तत्व को कभी भी खत्म नहीं होने देंगे। हिंदी भाषा की सीमेंटिंग पावर को पहचानकर उसके साथ जुड़ेंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हिंदी के वैश्विक विस्तार हेतु विचारणीय बिंदुओं के संबंध में आज सोशल मीडिया के माध्यम से काफी कुछ कहा जा रहा है। वहाँ 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ (हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार का मंच) एक ऐसा सक्रिय मंच है जिसके माध्यम से आम जनता हिंदी भाषा के संबंध में अपने विचार व्यक्त कर पा रही है। हिंदी दिवस के हवाले से यहाँ विभिन्न लोगों द्वारा सुझाए गए कुछ बिंदु पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत हैं –</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• अनेक कंप्यूटर-साधित सॉफ्टवेयर बनाए जाएँ जिससे हिंदी का प्रचलन और भी आसान हो सके।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• विभिन्न संगठनों द्वारा विकसित भाषा-उपकरण न सिर्फ सरकारी दफ्तरों तक सीमित हों अपितु उन्हें जन-मानस के लिए सुलभ कराया जाए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• हिंदी सिर्फ एक सरकारी भाषा बनकर न रह जाए अपितु लोग उसे सहर्ष स्वीकारें। हिंदीतर भाषियों को इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए कि वे हिंदी को सहर्ष ही अपने आप स्वीकारें।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• इंडिया हटाओ ‘भारत’ बनाओ।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• भारत सरकार के सभी कार्यालयों, मंत्रालयों, विभागों आदि का कामकाज प्रथम राजभाषा हिंदी में नोट शीट से लेकर सभी विधेयक तक बिना विलंब प्रारंभ कर दिया जाय।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• न्याय के क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय तक अपील तथा बहस की सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध करा दी जाए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• सभी कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बिना विलंब बनाने का समय आ गया है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">• देश में देवनागरी लिपि के लिए अंग्रेजी भाषा की लिपि का उपयोग तेज़ी से बढ़ाया जा रहा है। यह हिंदी की लिपि देवनागरी के अस्तित्व पर संकट पैदा कर रहा है। इसे हतोत्साहित करना चाहिए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अंततः इतना ही कि अब समय आ गया है कि हिंदी को उसका सही सम्मानपूर्ण वैश्विक स्थान प्रदान कराने के लिए सभी भारतवासियों को नवीनतम भाषा प्रौद्योगिकी से सुसज्जित होकर भाषाभिमान का परिचय देना चाहिए।</div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-64695484643403091192023-08-08T23:41:00.006+05:302023-08-08T23:41:51.818+05:30भाषा के लक्षण<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvCZFdMSNqzULdH-1J53tCxFcXLMYrCu-TiaQLQ4dn0bMOETfcAwXBqh1ScYMRefyeYG7RdH55YiBIa0rIEoOFSq5r5f98tcmkYW4PR65ZNYR_K3U7QryZeX582aAtrLDpLj1pGLfCBQ_Cn-ky0XnYhYmRGdUDxMcZaELLEAb8oJgA3AWZHXmHG5ABTBc/s2160/Untitled3.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1406" data-original-width="2160" height="416" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvCZFdMSNqzULdH-1J53tCxFcXLMYrCu-TiaQLQ4dn0bMOETfcAwXBqh1ScYMRefyeYG7RdH55YiBIa0rIEoOFSq5r5f98tcmkYW4PR65ZNYR_K3U7QryZeX582aAtrLDpLj1pGLfCBQ_Cn-ky0XnYhYmRGdUDxMcZaELLEAb8oJgA3AWZHXmHG5ABTBc/w640-h416/Untitled3.png" width="640" /></a></div><div style="text-align: justify;">मानवेतर और मानव भाषा के बीच निहित भेद स्पष्ट करने की प्रक्रिया के कारण भाषा के लक्षण सामने आए। यहाँ भाषा के कुछ प्रमुख लक्षणों पर विचार किया जाएगा। यह पहले भी संकेत किया गया है कि मनुष्य ध्वनियों और प्रतीकों के माध्यम से भावों और विचारों को प्रकट करते हैं। भावाभिव्यक्ति के समस्त साधन भाषा के व्यापक अर्थ में सम्मिलित हो जाते हैं। भाषा के व्यापक अर्थ की सीमाएँ अत्यंत विस्तृत हैं। वस्तुतः व्यापक अर्थ उसकी सीमाओं को संकेतों से लेकर मूक भावाभिव्यक्तियों तक पहुँचा देता है तथा जिसके अंतर्गत केवल मानवीय भाषा ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के निरर्थक समझे जाने वाले स्वर भी सम्मिलित हो जाते हैं। लेकिन भाषाविज्ञान के अनुसार भाषा का आशय सिर्फ और सिर्फ मानव भाषा है. मानव भाषा के लक्षणों को ही भाषाविज्ञान मान्यता देती है. भाषाविज्ञान ने यह स्पष्ट कर दिया कि भाषा की संरचना हमेशा नियमबद्ध होती है. सस्यूर, जॉन लयोंस और चार्ल्स हॉकेट आदि ने भाषा के कुछ लक्षण निर्धारित किए. कुछ प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">अभिव्यक्ति की क्षमता </span></b>: अभिव्यक्ति वक्ता और श्रोता तथा लेखक और पाठक के बीच संबंध स्थापित करता है. इसे संप्रेषण क्रिया (कम्यूनिकेशन एक्ट) कहा जा सकता है. इससे सामाजिक संबंधों को स्थापित किया जा सकता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">अर्जित व्यवहार : </span></b>व्यवहार दो प्रकार का होते हैं – प्राकृतिक व्यवहार और अर्जित व्यवहार. प्राकृतिक व्यवहार वह है जो अनायास ही सीखा जा सकता है. अर्थात खाना, पीना, हँसना, रोना, चिल्लाना, चीखना, बैठना आदि. यह व्यवहार सभी प्राणियों में समान होते हैं. इसके विपरीत कुछ व्यवहार परिश्रमपूर्वक अर्जित किए जाते हैं. भाषा अर्जित व्यवहार है. इसे व्यवस्थित ढंग से सीखना पड़ता है. मातृभाषा अर्जन अनुकरण के माध्यम से अनायास ही हो जाता. द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा को सायास रूप से सीखना पड़ता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">अनुकरणशीलता </span></b>: यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि भाषा अर्जित व्यवहार है. मनुष्य भाषा को पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त नहीं कर सकता. जिस परिवार में वह जन्म लेता है वहीं से भाषा को अर्जित करता है. मनुष्य अनुकरण के माध्यम से ही भाषा सीखता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQtGUcX1HvdkIOUGI1l2oMbT2wxxCgTuZNM2901wXlA9OR6O5S72XLAOJY2ovcGQ33nYjXSAgxxI0XGv_Ysd_J09wwYKNF5PiKK2AnOuU26D8_wBFNWYxwZ3tqZ6oYn8Sidrs12HGSN_bAKIZrZtmotWIffckv-YoCgArosy1BvxFNwNa_fW6xWOnYYYI/s909/Untitled%204.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="169" data-original-width="909" height="118" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQtGUcX1HvdkIOUGI1l2oMbT2wxxCgTuZNM2901wXlA9OR6O5S72XLAOJY2ovcGQ33nYjXSAgxxI0XGv_Ysd_J09wwYKNF5PiKK2AnOuU26D8_wBFNWYxwZ3tqZ6oYn8Sidrs12HGSN_bAKIZrZtmotWIffckv-YoCgArosy1BvxFNwNa_fW6xWOnYYYI/w640-h118/Untitled%204.png" width="640" /></a></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">सामाजिक व्यवहार </span></b>: भाषा अर्जित व्यवहार होने का अर्थ है कि उसका संबंध समाज से है. समाज में रहकर ही इसे सीखा जा सकता है और समाज में ही इसका प्रयोग किया जाता है. वस्तुतः भाषा सामाजीकरण का सबसे महत्वपूर्ण घटक है. भाषा को सामाजिक संस्था भी कहा जाता है. वह इसलिए कि भाषा का निर्माण नहीं होता बल्कि विकास होता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">परिवर्तनशीलता :</span></b> भाषा की संरचना ऐसी होती है कि उसमें परिवर्तन आवश्यक होता है. परिवर्तन जीवंतता का परिचायक होता है. हिंदी भाषा को ही देखें तो उसके विकास क्रम में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी का क्रम दिखाई देता है. हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है. क्रमशः परिवर्तित होते हुए हिंदी का वह रूप आज समाने है जिसे हिंदी का आधुनिक रूप कहते हैं. हिंदी के संबंध में इस परिवर्तन को गृह > घर; चंद्र > चाँद आदि में देखा जा सकता है. ऐसे परिवर्तन को प्रायः ध्वनि परिवर्तन कहा जाता है. इसी प्रकार विदेशी भाषाओं के कारण हिंदी ध्वनियों का विकास हुआ. जैसे – ऑ, ग़, ज़, फ़ आदि ध्वनियाँ अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों को ग्रहण करके हिंदी में लाया गया है. संस्कृत में तीन वचन और लिंग हैं तो हिंदी में दो. इसी प्रकार शब्द के स्तर पर भी भाषा परिवर्तित होती है. जैसे हिंदी में अनके विदेशी शब्द ग्रहण कर लिए गए. समय के साथ-साथ भाषा में नए-नए शब्द आते रहते हैं. जैसे – छटाक, पाव, सेर आदि के स्थान पर ग्राम तथा किलोग्राम आ गए. अर्थात समय के साथ-साथ परिवर्तन करना पड़ता है. जिस भाषा में परिवर्तन के जितने स्तर होते हैं वह भाषा उतना ही विकास करती है. अतः आधुनिक भाषाविज्ञान में परिवर्तन को भाषा का मुख्य लक्षण माना गया है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">मानकता </span></b>: प्रत्येक भाषा का एक मानक रूप होता है. इसका प्रयोग औपचारिक वार्तालाप और लिखित अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है. इन दोनों स्थितियों में भाषा प्रयोक्ता भाषा के मानक रूप का यथासंभव प्रयोग करने का प्रयास करता है. मानक भाषा रूप को शिक्षा में, कामकाज में अपनाया जाता है. हिंदी के संबंध में कहें तो इसके अनके रूप समाज में प्रचलित हैं लेकिन उसके मानक रूप खड़ीबोली को ही शिक्षा के स्तर पर स्वीकार किया जाता है. भाषा के मानक रूप को विकसित करने की प्रक्रिया को मानकीकरण कहा जाता है. यह एक सामाजिक प्रक्रिया है क्योंकि समाज ही यह निश्चित करता है कि मानक भाषा की आवश्यकता है या नहीं. यह पूरी तरह से समाज केंद्रित संकल्पना है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div> <div style="text-align: justify;">पॉल गार्विन (1959) ने अपने आलेख ‘A Conceptual Framework for the study of the language standardization’ में यह प्रतिपादित किया है कि ‘किसी भी भाषा समुदाय के सदस्यों के लिए भाषा राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है.’ मानक भाषा के बारे में स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि ‘Standard Language is a codified variety of language that serves the multiple and complex communicative needs of a speech community that has either achieved modernization or has the desire of achieving it.’ उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मानक भाषा के लिए सतत लचीलापन (constant flexibility) और बौद्धीकरण (intellectualization) के गुण होने चाहिए.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div> <div style="text-align: justify;">फर्ग्यूसन (1962) ने मानकीकरण तथा लेखन के दो आयामों के आधार पर मानक भाषाओं के विकास को स्पष्ट करने का प्रयास किया है. उन्होंने लेखन के तीन बिंदु बनाए (0, 1, 2) और मानकीकरण के चार बिंदु (0, 1, 2, 3).</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlV9TugE-YMGbmCx9dC3EBjboq2ZM-i50O5dlowi3CG7155oNSRy9VJvUUlb4r-H2vVkUt7adjmQSdChOgf06I2LRWTDSieBOidyoqWcVmIZnqJGo0_cpGxjhHUF_jRLWmf1OajFnQrX6MGaSmJ2RTTY6A9swbSQNr4EfCjWB8gKjsNoMP3IVl-sSKs9w/s952/Untitled%205.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="671" data-original-width="952" height="453" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlV9TugE-YMGbmCx9dC3EBjboq2ZM-i50O5dlowi3CG7155oNSRy9VJvUUlb4r-H2vVkUt7adjmQSdChOgf06I2LRWTDSieBOidyoqWcVmIZnqJGo0_cpGxjhHUF_jRLWmf1OajFnQrX6MGaSmJ2RTTY6A9swbSQNr4EfCjWB8gKjsNoMP3IVl-sSKs9w/w640-h453/Untitled%205.jpg" width="640" /></a></div><div style="text-align: justify;">मानकीकरण की प्रक्रिया को दो स्तरों पर समझा जा सकता है –</div><div style="text-align: justify;"><br /></div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgncsUJzNOTSUD1mPVA8BL8LXpqBErZ5hArGUwcTqpJ36VJgpVGkRX9jqgp2deq52KJOIGpRTuXrRIzzUEkPUFEa8hagNcBxWXoEOEFAYb5FxNdA1ajOAQKGGf_F8em9O1zYKbEIXx5xG95Tm0F1XwcCuWofO58gCftniVg9wmMJQN6xl5AN4lJd97Okt0/s938/Untitled%206.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="641" data-original-width="938" height="438" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgncsUJzNOTSUD1mPVA8BL8LXpqBErZ5hArGUwcTqpJ36VJgpVGkRX9jqgp2deq52KJOIGpRTuXrRIzzUEkPUFEa8hagNcBxWXoEOEFAYb5FxNdA1ajOAQKGGf_F8em9O1zYKbEIXx5xG95Tm0F1XwcCuWofO58gCftniVg9wmMJQN6xl5AN4lJd97Okt0/w640-h438/Untitled%206.jpg" width="640" /></a></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">यादृच्छिकता :</span></b> इसका अर्थ है ‘इच्छानुसार’. भाषा में यादृच्छिकता हर स्तर पर पाई जाती है. यह समाज द्वारा स्वीकार्य लक्षण है. यदि ऐसा नहीं होता तो प्रायः संसार की सभी भाषाओं में एक वस्तु के लिए एक ही शब्द होता है. कहने का आशय है, ‘पानी’ के लिए सभी भाषाएँ ‘पानी’ का ही प्रयोग करतीं. जबकि ऐसा नहीं है. ‘पानी’ के लिए अंग्रजी में ‘वाटर’, तेलुगु में ‘नीरु’, तमिल में ‘तन्नीर’, मलयालम में ‘वेल्लम’, रूसी में ‘वदा’ आदि का प्रयोग किया जाता है. विभिन्न भाषाओं में सभी शब्दों में यादृच्छिकता द्रष्टव्य है. आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक सस्यूर ने यादृच्छिकता सिद्धांत का प्रतिपादन किया और कहा कि, “The link between signal and signification is arbitrary. The term arbitrary implies that the signal is unmotivated; that is to say arbitrary in relation to its signification, with which it has no natural connection in reality (de Saussure, 1983).” रवींद्रनाथ श्रावास्त्व (1997 : 58) कहते हैं कि यादृच्छिकता के कारण एक शब्द के लिए भिन्न भिन्न भाषाओं में अलग अलग शब्द पाए जाते हैं. एक भाषा में भी एक शब्द के लिए अनेक पारिभाषिक शब्द पाए जाते हैं.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">संरचना द्वैतता </span></b>: अपनी पुस्तक ‘द स्टडी ऑफ लैंग्वेज’ में जॉर्ज यूल ने कहा कि “Duality is a property of language whereby linguistic forms have two simultaneous levels of sound production and meaning; also called ‘double articulation’.” (George Yule, 2010). भाषा की प्रत्येक इकाई द्विपक्षीय होती है. एक ओर जहाँ इनका निर्माण कुछ निश्चित ध्वनियों के माध्यम से होता है वहीं दूसरी ओर ये इकाइयाँ कुछ विशिष्ट अर्थ प्रकट करती हैं.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">सृजनात्मकता</span></b> : मानव भाषा और मानवेतर भाषा को अलगाने की दृष्टि से चॉमस्की ने सृजनात्मकता को आधार बनाया. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वक्ता आवश्यकतानुसार भाषा में नए शब्द और वाक्यों का सृजन करता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">लचीलापन</span></b> : लचीलेपन को भाषा की जीवंतता का कारण तथा उसकी शक्ति माना जा सकता है.</div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-57802968612407981592023-08-08T23:16:00.000+05:302023-08-08T23:16:04.237+05:30भाषा और भाषाविज्ञान<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPT-b0jlrjQ2roCG9ngpdX4gUj6cDlSaJkxXfItnrtCcP0zekFz0CdQNCnRGHaY9IR4dWyoUQxLuzFqiDy1hWeiolx9b-zAFmMxmcSHPPkBt8S8OG_HScVytszA7P193qIlKWzUEVY4EjZmeWd_MhEaaZX13mVEruHtjrP3P68ASDTl_og5lTUYZmsz4A/s2160/Untitled3.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1406" data-original-width="2160" height="416" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPT-b0jlrjQ2roCG9ngpdX4gUj6cDlSaJkxXfItnrtCcP0zekFz0CdQNCnRGHaY9IR4dWyoUQxLuzFqiDy1hWeiolx9b-zAFmMxmcSHPPkBt8S8OG_HScVytszA7P193qIlKWzUEVY4EjZmeWd_MhEaaZX13mVEruHtjrP3P68ASDTl_og5lTUYZmsz4A/w640-h416/Untitled3.png" width="640" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;">भाषाविज्ञान भाषा का ही वैज्ञानिक अध्ययन है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा क्या है? उसका विकास और परिवर्तन कैसे और क्यों होता है? उसके क्या कारण हैं? आदि। अर्थात भाषाविज्ञान भाषा संबंधी सभी प्रश्नों एवं समस्याओँ का निदान करता है। भाषाविज्ञान से संबंधित पहलुओं पर विचार करने से पूर्व भाषा क्या है? भाषा की परिभाषा क्या है? भाषा के क्या लक्षण हैं? भाषा और अभिव्यक्ति का क्या अंतःसंबंध है? आदि प्रश्नों पर विचार करना समीचीन होगा। सबसे पहले मानवेतर और मानव संप्रेषण पर विचार करेंगे। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">मानवेतर और मानव संप्रेषण</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भाषा संप्रेषण का सशक्त साधन है। वह केवल विचार-विनिमय का साधन मात्र नहीं है अपितु मनुष्य का अस्तित्व इसके माध्यम से ही सिद्ध होता है। भाषा के अभाव में मनुष्य केवल जैविक जंतु (बायोलोजिकल ऑर्गानिज्म) है। भाषा ही वह साधन है जो मनुष्य को इस समाज से जोड़कर उसे समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करता है। </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNPw43Ot1TPkKvvw0sZDYQ5D7oexTui8Z5IdwqlrDFa9kyGFu1tj8LyhwZi87BKAzNIpxl9d8XlEjSzQIbyJHPJAS1zRfushEded_DgBBCVWikeiyr3uj-QUbRXzoA03vVxw2f09DdzbnX64KhMA8bCuZHbp1TGqDZiXVotM_g0XpfsQAtOLbwOPeDBEE/s853/Untitled.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="228" data-original-width="853" height="172" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNPw43Ot1TPkKvvw0sZDYQ5D7oexTui8Z5IdwqlrDFa9kyGFu1tj8LyhwZi87BKAzNIpxl9d8XlEjSzQIbyJHPJAS1zRfushEded_DgBBCVWikeiyr3uj-QUbRXzoA03vVxw2f09DdzbnX64KhMA8bCuZHbp1TGqDZiXVotM_g0XpfsQAtOLbwOPeDBEE/w640-h172/Untitled.jpg" width="640" /></a></div><div style="text-align: justify;">भाषा क्या है? इस पर विचार करने से पूर्व ‘भाषा’ शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान देना आवश्यक है। ‘भाषा’ शब्द संस्कृत की धातु <span style="color: #2b00fe;">‘भाष’</span> से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना। इस दृष्टि से <span style="color: #2b00fe;">‘जो बोला जाए वह भाषा है</span>।’ संसार के प्रायः सभी प्राणी बोलते तो हैं। प्रत्येक जीवधारी गाय, कुत्ता, बिल्ली, बंदर आदि परस्पर भावों के आदान-प्रदान हेतु किसी-न-किसी प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। ‘रामचरितमानस’ में खग भाषा का उल्लेख है – समुझै खग खग ही कै भाषा। पशु-पक्षियों की भाषा का अध्ययन करने वालों का मत है कि मनोदशा के अनुसार पशु-पक्षियों की ध्वनियाँ परिवर्तित हो जाते हैं। लेकिन भाषाविज्ञान की दृष्टि से उनके विचार-विनिमय को भाषा की संज्ञा नहीं दी जाती। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भाषाविज्ञान में <span style="color: #2b00fe;">मानव के मुख से उच्चरित ध्वनि व्यवस्था</span> को ही ‘भाषा’ की संज्ञा दी जाती है। मनुष्य कभी कभी आँख, हाथ, सिर आदि का प्रयोग करके अपना काम संकेतों से चलाता है। इसे <span style="color: #2b00fe;">सांकेतिक भाषा, इंगित भाषा</span> अथवा <span style="color: #2b00fe;">आंगिक भाषा</span> कहा जाता है। मनुष्य कई प्रकार के संकेत चिह्नों से भी काम चलाता है। चौराहे की बत्तियाँ, रेलवे गार्ड की झंडियाँ, झंडे का रंग, मोर्स कोड, कूट भाषा, सिक्के, राष्ट्रध्वज, विवाह में निमंत्रण के लिए हल्दी-सुपारी बाँटना आदि भी सांकेतिक भाषा के अंतर्गत ही आते हैं। सभ्यता और संस्कृति के अनेक उपादान प्रतीकात्मक होते हैं; जैसे – दाड़ी, पगड़ी आदि। स्वस्तिका, ईद का चाँद, क्रॉस आदि धार्मिक प्रतीक हैं तो × √ ∑ + = आदि गणित के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के बिना मनुष्य का जीवन यापन कठिन है। ये सारे प्रतीक सूक्ष्म संकेतात्मक और ध्वन्यात्मक हैं लेकिन भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन्हें भाषा नहीं कहा जा सकता। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">स्मरणीय है कि मानव भाषा केवल सांकेतिक न होकर लिखित है। अतः मनुष्य के भावों, विचारों और अभिप्रेत अर्थों को अभिव्यक्त करने का ध्वनि प्रतीकमय साधन भाषा है। भाषाविज्ञान में भाषा के इसी रूप का अध्ययन किया जाता है। भाषा शब्द का प्रयोग कृत्रिम भाषा के लिए भी होता है। <span style="color: #2b00fe;">कृत्रिम भाषा</span> उसे कहते हैं जिसे मनुष्य अपनी सुविधा या उद्देश्य से गढ़ लेते हैं. वस्तुतः कृतिम भाषा का प्रयोग उस भाषा के लिए किया जाता है जो सहज न होकर तोड़ी-मरोड़ी जाती है. देवेंद्रनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘भाषाविज्ञान की भूमिका’ में कृत्रिम भाषा को अंतरराष्ट्रीय भाषा की संज्ञा दी है और कहा है कि “भाषा भेद जनित असुविधाओं को दूर कर अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए एक सामान्य भाषा प्रस्तुत करना ही कृत्रिम भाषा के आविष्कार का उद्देश्य है। अतः चाहें तो कृत्रिम भाषा को अंतरराष्ट्रीय भाषा भी कह सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विगत दो शताब्दियों में सैकड़ों भाषाएँ बनाई गईं। किंतु उनमें अधिकतर उत्पत्ति के साथ ही गतायु हो गईं।” (देवेंद्रनाथ शर्मा, (2008), पृ. 52)। इस प्रकार की भाषा का प्रमुख उदाहरण है <span style="color: #2b00fe;">एस्पेरांतो</span> नाम की भाषा. कृत्रिम भाषा प्रयोग में कुछ समस्याएँ उत्पन्न होती हैं क्योंकि कृत्रिम भाषा दैनिक व्यवहार के लिए उपयुक्त कामचलाऊ भाषा है। अतः इसमें न ही गंभीर आलोचना संभव है न ही साहित्य रचना। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मानवेतर और मानव भाषा के संबंध में प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक चार्ल्स हॉकेट (1960) ने अपना आलेख ‘द ऑरिजिन ऑफ द लैंग्वेज’ में विचार प्रस्तुत किए। उनका कहना है कि “man is the only animal that can communicate by means of abstract symbols. Yet this ability shares many features with communication in other animals, and has arisen from these more primitive systems.” उन्होंने मानवेतर एवं मानव भाषा की तुलना सृजनात्मक यादृच्छिकता तथा द्वैतता के आधार पर की. इसके लिए उन्होंने 13 आधारों को कसौटियों के रूप में प्रयोग किया जो निम्नलिखित हैं –</div><div style="text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghQtL_IFH-rEIVRufGXPWn40ueL_DMjyMWVc_-bQEkQMzFlHRtfnSFZRm09YnbHNR5hEmlFu5si-b4yA8M1_dcfyQuEmh8M18zvJ1qgqd7MfyF9-Iv361A7nDULEehYZ_q4CQFABZOXYdYKKIW6KEJMArt5nyKS2-0o0AHkZSVh_HLtxrVdYeJP_S-SkY/s684/Untitled_2.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="684" data-original-width="492" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghQtL_IFH-rEIVRufGXPWn40ueL_DMjyMWVc_-bQEkQMzFlHRtfnSFZRm09YnbHNR5hEmlFu5si-b4yA8M1_dcfyQuEmh8M18zvJ1qgqd7MfyF9-Iv361A7nDULEehYZ_q4CQFABZOXYdYKKIW6KEJMArt5nyKS2-0o0AHkZSVh_HLtxrVdYeJP_S-SkY/w230-h320/Untitled_2.png" width="230" /></a> <span style="color: #2b00fe;">Vocal-auditory channel </span>(मौखिक श्रव्यता): मानव भाषा मुँह से बोली जाती है और कान से सुनी जाती है। यह मौखिक-श्रव्य सरणि है। भाषा की लिखित-पठित सरणि का आधार भी यही है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"> <span style="color: #2b00fe;"> Broadcast transmission</span> (प्रसारण संचरण) and <span style="color: #2b00fe;">directional reception</span> (दिशात्मक अभिग्रहण): जब मानव मुख से ध्वनियाँ निकलती हैं तो ध्वनि तरंग सभी दिशाओं में संचरण करता है तथा सुनने वाले श्रोता का ध्यान भी उसी दिशा की ओर जाता है.</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"> <span style="color: #2b00fe;">Rapid fading (Transitoriness)</span> (अनित्यता): नाम से स्पष्ट है कि ध्वनि अल्पकालिक है. कहने का आशय है कि ध्वनि मुँह से निकलने के बाद लुप्त हो जाती है। कहने का आशय है कि जैसे ही वक्ता बात करना बंद कर देता है तो ध्वनि तरंगे रुख जाती हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; text-align: justify;">Interchangeability</span><span style="text-align: justify;"> (परिवर्तनीयता) : मनुष्य जब संदेश को संप्रेषित करता है तो वह वक्ता की भूमिका में होता है और वह जब संदेश के ग्रहण करता है तो श्रोता की भूमिका में होता है. अर्थात वक्ता-श्रोता की भूमिकाएँ आपस में परिवर्तनशील हैं। </span></div></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"> <span style="color: #2b00fe;">Total feed back</span> (पूर्ण प्रतिक्रया): वक्ता अपने वक्तव्य को सुनकर यदि उसमें कोई कमियाँ निहित हैं तो उनका निराकरण कर सकता है। अनुतान, बालाघात आदि की सहायता से वह बोलने की पद्धति को बदल सकता है। </div><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"> <span style="color: #2b00fe;">Specialization</span> (विशेषीकरण): भाषिक संकेतों के माध्यम संप्रेषण संभव होता है। संकेतों के माध्यम से मौखिक भाषा को विशेषीकृत किया जाता है ताकि श्रोता संदेश को गरहन कर सके। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">Semanticity</span> (आर्थीयता)</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">Arbitrariness </span> (यादृच्छिकता)</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">Discreteness</span> (विविकत्ता)</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">Displacement</span> (अंतरणता)</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">Productivity</span> (उत्पादनशीलता)</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">Traditional transmission</span> (परंपरागत प्रेषण)</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">Duality of patterning</span> (अभिरचनात्मक द्वैतता)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इनमें से ज्यादातर प्रवृत्तियाँ मानवेतर प्राणियों की भाषा में दिखाई देती हैं लेकिन कुछ कुछ प्रवृत्तियाँ सिर्फ मानव भाषा में ही उपलब्ध होती हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">हॉकेट : मानवेतर और मानव भाषा के आधार</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसी तरह मैकनील (1972, हार्पर) ने ‘Aquisition of Language’ में यह स्पष्ट किया है कि संरचनात्मक दृष्टि से मानव भाषा में योजना व्यवस्था होती है अर्थात विभिन्न ध्वनियों के संयोजन से शब्द, वाक्य आदि का निर्माण होता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रकार्यात्मकता के आधार पर वस्तु, भाव एवं घटना को संकेत करने के प्रकार्य होते हैं। चॉमस्की (1966) ने अपनी पुस्तक ‘कार्टीसियन लिंग्विस्टिक्स’ में मानवेतर एवं मानव भाषा के बीच निहित भेद को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने यह कहा कि मानव भाषा के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त करता है जबकि मानवेतर प्राणी में इस शक्ति का अभाव है। उनका मत है कि “Language acquisition is a matter of growth and maturation of relatively fixed capacities, under appropriate external conditions.” मानव भाषा में किसी भी अज्ञात या नए-नए संदर्भों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है जबकि मानवेतर भाषा में नहीं होती। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मानवेतर और मानव भाषा के बीच निहित भेद को स्पष्ट करते हुए जॉन लयोंस (1991, पृ. 2) ने कहा कि “A Human Language is one that is attested as being used (or as having been used in the past) by human beings; and a non-human language is one that is (or has been) used by any non-human being (either an animal or a machine).” इससे यह स्पष्ट होता है कि भाषाविज्ञान का विषय ‘मानव भाषा’ है। भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है (सोशल फिनोमिना)। वक्ता और श्रोता के बीच विचार-विनिमय का साधन है भाषा। अर्थात वक्ता-श्रोता के बीच भाषा मौखिक व्यवहार का साधन है। भाषा मनुष्य के मुख से उच्चरित वह सार्थक ध्वनि समूह है जिसका विश्लेषण और अध्ययन भाषाविज्ञान में किया जाता है। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">संदर्भ</span></b></div><div style="text-align: justify;"><ul><li><span style="color: #2b00fe;">(सं) श्रीवास्तव, रवींद्रनाथ; सहाय, रमानाथ (1990, तृतीय संशोधित संस्करण), हिंदी का सामाजिक संदर्भ, आगरा : केंद्रीय हिंदी संस्थान</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">श्रीवास्तव, रवींद्रनाथ (1997), भाषाविज्ञान : सैद्धांतिक चिंतन, दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">शर्मा, देवेंद्रनाथ (2008), भाषाविज्ञान की भूमिका, नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">सिंह, दिलीप (2008), भाषा का संसार, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">सिंह, दिलीप (2009), हिंदी भाषा चिंतन, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Baker, Colin; Jones, Sylvia Pyrs (1998), Encyclopedia of Bilingualism Bilingual Education, USA : Multilingaul matters ltd.</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Bloomfield, Leonard (1985 Reprint), Language, New Delhi : Motilal Banarsi Dass</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Chomsky, Noam (1957), Syntactic Structures, The Hague : Mouton</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Chomsky, Noam (1966), Cartesian Linguistics, Harper</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Coartes, Jennifer (2003, Third edition), Women, Men and Language, London : Rouledge</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Fishnman, J.A., Ferguson (1968), The Sociology of Language in developing Countries, New York : John Wiley & Sons</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Halliday, M.A.K, (2007), Language and society, London : Continuum</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Lakoff, Robin Tolmch (2004 edition), Language and Women’s Place, Oxford</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Lyons, John (1991), Natural Language and Universal Grammar (Essays in Linguistics Theory, Vol1), Cambridge : Oxford</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Pierce, Charles sanders (1991), Writings on Semiotics, University of North California Press</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Sapir, Edward (1921), Language : An Introduction to the study of the speech, Harcourt : Brace</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Sassure, Ferdinand (1983), Course in General Linguistics, London : Bloomsberry</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Sharma, Gopal (2010), A Course Outline of General Linguistics, Delhi : Aman Prakashan</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Toomey, Stella Ting (1999), Communicating Across Cultures, London : Gulliford Press</span></li><li><span style="color: #2b00fe;">Yule, George (2010, Fourth Edition), The study of language, Cambridge : Cambridge University Press</span></li></ul></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-69889387603442001342023-04-07T23:47:00.000+05:302023-04-07T23:47:41.328+05:30परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता : प्रवीण प्रणव<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_zAYRqZ1bz26v_EK55iq9xfmTO3t4dfKoA4kFrdRlw003aw4198cAHhzwLGHp0GzbQWCe4vm1nKX3OT2t1K0sZZGR9nJ4yZyjuCC7EZ67sg3goOZvM3XLT088-gH5pQHthvaS6hJWBKLsg05DxVdZfIQZi4td__LGUy75UO1y5cI1Op4hjaThkCuI/s1280/WhatsApp%20Image%202023-03-31%20at%207.15.23%20PM.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="782" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_zAYRqZ1bz26v_EK55iq9xfmTO3t4dfKoA4kFrdRlw003aw4198cAHhzwLGHp0GzbQWCe4vm1nKX3OT2t1K0sZZGR9nJ4yZyjuCC7EZ67sg3goOZvM3XLT088-gH5pQHthvaS6hJWBKLsg05DxVdZfIQZi4td__LGUy75UO1y5cI1Op4hjaThkCuI/w392-h640/WhatsApp%20Image%202023-03-31%20at%207.15.23%20PM.jpeg" width="392" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;"><b>परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता</b></span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: right;">- प्रवीण प्रणव</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बशीर बद्र का बहुत मकबूल शेर है "परखना मत परखने में<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4yknlPQSZedX0bGW-deKv1Z5Xa96TkfeTHwh1sNdmPDx6elqhrI7skl00VIPrY1Nbc-qJ4QAU660e9UpY157feimejHrqUYAqupbTyeL-hBVxGG5k8eiCwMRsNllsOMLmqmYJsT9EfBVzX0kbgZtdAQyE6gqHxWeSH3U6KQmn5BZL4iQblhxyzlRw/s640/praveen%20pranav.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="640" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4yknlPQSZedX0bGW-deKv1Z5Xa96TkfeTHwh1sNdmPDx6elqhrI7skl00VIPrY1Nbc-qJ4QAU660e9UpY157feimejHrqUYAqupbTyeL-hBVxGG5k8eiCwMRsNllsOMLmqmYJsT9EfBVzX0kbgZtdAQyE6gqHxWeSH3U6KQmn5BZL4iQblhxyzlRw/s320/praveen%20pranav.jpg" width="320" /></a></div> कोई अपना नहीं रहता/ किसी भी आइने में देर तक चेहरा नहीं रहता।/ बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना/ जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता।" हालांकि एक सत्य यह भी है कि बिना परख किए अपनेपन की पहचान नहीं हो सकती। समुद्र मंथन के बाद ही यह संभव है कि हम विष और अमृत को अलग कर सकें और और उनकी तासीर की पहचान भी। यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली ने 'परख और पहचान' (2022) शीर्षक से लेखिका गुर्रमकोंडा नीरजा (1975) की किताब प्रकाशित की है जिसमें छह खंडों में पैंतीस लेख संकलित हैं। किताब का कलेवर बहुत आकर्षक है और किताब के पन्ने और इसकी छपाई उत्तम है। प्रकाशक इस किताब को इस रूप में प्रकाशित करने के लिए बधाई के पात्र हैं। हालांकि 204 पृष्ठ की इस किताब (सजिल्द) का मूल्य 595/- रुपये रखा गया है जो एक आम पाठक के लिए ज्यादा है। इस किताब को पेपरबैक संस्करण में भी प्रकाशित कर इसे आम पाठकों के लिए कम मूल्य पर उपलब्ध करवाया जा सकता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">किसी और की परख करने से पहले अपनी परख आवश्यक है। लेखिका 'पुरोवाक्' में ही स्पष्ट कर देती हैं कि “छह खंडों में आपके सामने उपस्थित हो रही यह पुस्तक योजना बनाकर नहीं लिखी गई है, बल्कि समय-समय पर अलग-अलग प्रयोजन से लिखे गए छोटे-बड़े आलेखों को एक गुलदस्ते में सजाकर रख दिया गया है। इसलिए इन आलेखों के प्रतिपाद्य विषयों में एकसूत्रता न मिलना स्वाभाविक है। हाँ, विविधता मिलेगी।“ इस स्पष्टवादिता के कुछ नुकसान तो होंगे लेकिन पाठकों की अपेक्षाओं को यह सही दिशा देगी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">किताब का खंड एक कवि और कविताओं को समर्पित है। इस खंड में नौ लेख हैं जिनमें रसलीन, बालमुकुंद गुप्त, भगवतीचरण वर्मा, मुक्तिबोध, नरेश मेहता और रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सारगर्भित लेख तो हैं ही, समकालीन कविता के सहयात्रियों जैसे अहिल्या मिश्र, ऋषभदेव शर्मा और ईश्वर करुण के व्यक्तित्व और कृतित्व से भी पाठकों का परिचय करवाया गया है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘आख्यान की बुनावट’ शीर्षक खंड दो में पाँच आलेख हैं जिनमें ‘शमशेर की कहानियाँ’ और ‘श्रीलाल शुक्ल का व्यंग्य’ विशेष रूप से पठनीय है। ‘अर्थ की खोज’ शीर्षक तीसरे खंड में दो लेख हैं जिनमें आलोचक के तौर पर आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी और परमानंद श्रीवास्तव के आलोचना कर्म और इसी बहाने हिंदी साहित्य में आलोचना के महत्व पर महत्वपूर्ण चर्चा की गई है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बारह आलेखों से युक्त चौथे खंड का शीर्षक है ‘स्मरण और संदर्शन’। यह खंड विशेष है और इन्हें पढ़ते हुए स्मृति में कई संस्मरण जीवंत हो उठते हैं। खंड में हमारी कई धरोहरों जैसे - स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी (1909 में गुजराती में लिखी गई उनकी पहली पुस्तक 'हिंद स्वराज' के बहाने), अटल बिहारी वाजपेयी, हज़ार चौरासी की माँ के बहाने महाश्वेता देवी, रमणिका गुप्ता, राजेंद्र यादव और डॉ. धर्मवीर पर अच्छे लेख हैं। कई ऐसे साहित्यकारों को भी आलेखों के माध्यम से याद किया गया है जो हाल में ही हमसे बिछड़ गए। जगदीश सुधाकर, शशि नारायण 'स्वाधीन', मृदुला सिन्हा और मंगलेश डबराल पर आधारित आलेख इनमें शामिल हैं। विश्व साहित्य में वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड (1967) के माध्यम से अपना नाम दर्ज कराने वाले साहित्यकार गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ उर्फ़ गाबो, जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला, को स्मरण करते हुए एक लेख उनके नाम भी है। साहित्यकारों से संबंधित जानकारी में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह किताब इस खंड की वजह से विशेष रूप से संग्रहणीय है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘भारतीय साहित्य का क्षितिज’ शीर्षक से खंड पाँच में चार लेख संकलित हैं। दो लेख तमिल भाषा के योगदान से संबंधित हैं और दो कवींद्र रवींद्र नाथ ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हैं। तमिल भाषा का बहुत पुराना और बहुत समृद्ध इतिहास है। अनेक साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने अनुवाद के माध्यम से तमिल और हिंदी भाषा-समाजों के बीच पुल का काम किया है। कई तमिल साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने हिंदी में मौलिक लेखन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। इस किताब के लेख पाठकों के लिए इन मायनों में महत्वपूर्ण होंगे कि इनसे तमिल साहित्य और साहित्यकारों की एक संक्षिप्त जानकारी मिलती है। गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। इस किताब में भी दो लेख संकलित हैं जो गुरुदेव के बारे में सरल, सहज, और रोचक तरीके से पाठकों तक महत्वपूर्ण जानकारी पहुंचाते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">किताब का आखिरी खंड ‘संचार की शक्ति’ है जिसमें तीन लेख हैं। खंड का पहला लेख ‘चाँद का फाँसी अंक’ पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक है। 'चाँद' पत्रिका का गौरवशाली इतिहास रहा है। रामरख सिंह सहगल और महादेवी वर्मा जैसी हस्तियाँ इस पत्रिका की संपादक रही हैं। 1928 नवंबर में 'चाँद' पत्रिका का ‘फाँसी’ अंक प्रकाशित हुआ था। लेखिका ने पत्रिका के इसी अंक पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए अपनी बात रखी है। ‘फाँसी’ के पक्ष और विपक्ष में चर्चा वर्षों से होती आ रही है। फाँसी की सजा को अमानवीय और क्रूर मानते हुए कई देशों ने इसे प्रतिबंधित भी किया है। कहा जाता है कि अब तक 600 से भी अधिक तरीके/ यंत्र ईजाद किए गए हैं फाँसी देने के लिए। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस तरह क्रांति में भाग लेने वालों को फाँसी की सजा दी गई, वैसे में यह अंक बहुत महत्वपूर्ण है। इस अंक में हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ कुछ नहीं लिखा गया लेकिन प्रकाशित सामग्री को भड़काऊ मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने 'चाँद: पत्रिका के इस अंक को जब्त कर लिया था। रोचक तथ्य यह भी है कि पत्रिका में शहीद भगत सिंह ने छद्म नाम से कई लेख लिखे थे। पत्रिका के इस विशेषांक के बारे में लेखिका नीरजा ने संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित लेख लिखा है जो पाठकों को इस पत्रिका के बारे में खोज-पड़ताल करने के लिए प्रेरित करेगा। इस खंड के अन्य लेखों में मीडिया का महत्व, मीडिया पर बढ़ता बाज़ार का दबाव और राजनीतिक साँठ-गाँठ की वजह से मीडिया की गिरती साख जैसे कई महत्वपूर्ण विषयों पर लेखिका की पैनी नज़र गई है और उनकी कलम चली है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘परख और पहचान’ के लेखों को पढ़ते हुए कई चेहरे और कई कृतियाँ स्मृति के झरोखों में आती-जाती रहती हैं। इन शख्सियतों में से कई के साथ व्यक्तिगत और कई के साथ साहित्यिक राब्ता, पाठकों का होगा ही। ऐसे में इनसे जुड़ी सूचनाओंऔर जानकारियों को समेटे इस संग्रह के लेख पाठकों को प्रिय लगेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। अकबर इलाहाबादी ने कहा था- "बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है/ तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता।" लेकिन "परख और पहचान" को पढ़ने के बाद पाठक इसमें संगृहीत साहित्यकारों को इस कदर समझ सकेंगे कि वे दिल में भी आ बसें और उनकी कृति समझ में भी आए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: right;"><span style="color: #2b00fe;">प्रवीण प्रणव</span></div><div style="text-align: right;"><span style="color: #2b00fe;">सीनियर डायरेक्टर, माइक्रोसॉफ्ट, हैदराबाद</span></div><div style="text-align: right;"><span style="color: #2b00fe;">praveen.pranav@gmail.com</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><a href="https://www.jansandeshtimes.net/view/7421/lucknow-city/13">जनसंदेश टाइम्स </a></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><a href="https://telanganasamachar.online/review-of-the-book-parakh-aur-pehchan-by-author-gurramkonda-neerja/">तेलंगाना समाचार</a> </span></div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-39475873513278667452023-03-22T00:56:00.003+05:302023-03-22T00:56:00.168+05:30 बिन पानी सब सून...<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi10bg0e57fwt-ZpO8ORCW77KsGwenORfNyfAND0SKL1DXdZ1omvjPwM4fby7FUvBPEB7uFrwm2x_zo7A9h2HHC_yPWAC1YCHHDidi6N6m1SuKD7o7gRwpGaLXgTy8UEglCiu6-jx4RilVw07XZUnfHnqAqi8lGfDBLLrjjIA8DAt2cF0bcG3QgySbi/s516/world-water-day-2020-water-and-climate-change-impacts-of-climate-change-on-water-resources-water-issues_730X365.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="365" data-original-width="516" height="452" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi10bg0e57fwt-ZpO8ORCW77KsGwenORfNyfAND0SKL1DXdZ1omvjPwM4fby7FUvBPEB7uFrwm2x_zo7A9h2HHC_yPWAC1YCHHDidi6N6m1SuKD7o7gRwpGaLXgTy8UEglCiu6-jx4RilVw07XZUnfHnqAqi8lGfDBLLrjjIA8DAt2cF0bcG3QgySbi/w640-h452/world-water-day-2020-water-and-climate-change-impacts-of-climate-change-on-water-resources-water-issues_730X365.jpg" width="640" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">औद्योगीकरण के कारण देशों का विकास हो रहा है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची! विकास के अंधाधुंध में मनुष्य ने प्रकृति से छेड़छाड़ की। परिणामस्वरूप आज स्वच्छ वातावरण का अभाव है। प्रदूषण का दैत्य मुँह बाये खड़ा है। हवाएँ जहरीली हो चुकी हैं। इन जहरीली हवाओं के कारण आकाश भी मैला हो चुका है। पृथ्वी और जल भी प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं। हम सब जल संकट से जूझ रहे हैं। इसीलिए प्रति वर्ष 22 मार्च को 'विश्व जल दिवस' मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य है जल के महत्व को उजागर करना।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">विश्व के हर नागरिक को पानी के महत्व को समझाने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र ने ‘विश्व जल दिवस’ मनाने की शुरूआत 1992 में की थी। 1993 को पहली बार 22 मार्च के दिन पूरे विश्व में 'जल दिवस' के अवसर पर जल के संरक्षण पर जागरूकता फैलाने का कार्य आरंभ किया गया। हर वर्ष इसकी एक थीम होती है। जैसे शहर के लिए जल (1993), हमारे जल संसाधनों की देखभाल करना हर किसी का कार्य है (1994), महिला और जल (1995), प्यासे शहरों के लिए पानी (1996), विश्व का जल : क्या पर्याप्त है (1997), भूमि जल - अदृश्य संसाधन (1998), हर कोई प्रवाह की ओर जी रहा है (1999), 21वीं सदी के लिए पानी (2000), जल और दीर्घकालिक विकास (2015), जल और नौकरियाँ (2016), अपशिष्ट जल (2017), जल के लिए प्रकृति के आधार पर समाधान (2018), किसी को पीछे नहीं छोड़ना (2019), जल और जलवायु परिवर्तन (2020), पानी का महत्व (2021), भूजल : अदृश्य को दृश्यमान बनाना (2022)। और विश्व जल दिवस 2023 की थीम है ‘अक्सेलरेटिंग चेंज’ अर्थात परिवर्तन में तेजी। विश्व जल दिवस सिर्फ एक औपचारिकता भर न रह जाए। इसके लिए हमें हर दिन पानी बचाने के लिए संकल्प लेना होगा और उस पर अटल रहना होगा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पृथ्वी की 71% सतह जल से आच्छादित है। लेकिन पीने योग्य पानी की मात्रा बहुत ही कम है। आजकल पानी भी बंद बोतल में बिक रहा है। जल संरक्षण आज की जरूरत है। जल संकट की समस्या की ओर अनेक साहित्यकारों ने भी समय-समय पर ध्यान आकृष्ट किया है। एकांत श्रीवास्तव कहते हैं कि ‘जब वह जीवन और समाज के लिए संकट बनकर आती है - कभी भूकंप तो कभी बाढ़ के रूप में - तब आतंकित करती है।’ (पानी भीतर फूल, पृ.62)। ‘बाढ़ के कारण खाने के लाले पड़ गए हैं’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.40), ‘यहाँ आती है बाढ़, आती है महामारी, आती है भूख, ..... आती है, ... डॉक्टर क्यों आएगा?’ (रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, पृ.166)। बाढ़ पूरे गाँव को लील जाता है – ‘बेतवा में जो उफान आया वह न जाने कितने गाँव के गाँव लील गया।’ (वीरेंद्र जैन, डूब, पृ. 204)। बाढ़ का मार्मिक चित्र देखें – ‘रात के पिछले पहर में आंधी की सी हरहराहट गाँव में गरज उठी। आखिर वही हुआ जो होना था। पड़ोसी गाँव के लोगों ने रात को बाँध काट दिया क्योंकि इधर का पानी उधर फैल रहा था। घुर-घुर-घुर-घुर पानी की धारा गहरी में गिर रही है। गड़ही और खेत देखते-देखते एक हो गए। गाँव के चारों ओर छाती भर पानी घहरा उठा। पानी ही पानी। आदिगंत सफेद-सफेद फेन फैल रहा था। राप्ती और गोरा एक हो गए। ह-ह-ह-हास – ह-ह-ह-ह-हास – भेड़िया उछल रही है। तेज पुरवा हुहुकार रही है। ऊपर से पानी बरस रहा है और बाढ़ की ऊँची-ऊँची तरंगें हहास-हहास गरज रही हैं। किसान नदी-नालों को पार कर दूर-दूर के खेतों तक जा रहे हैं और फसलों को उखाड़-उखाड़ कर पशुओं के लिए ला रहे हैं। साँप, पशु, पक्षी और मुर्दे आदमी बहे जा रहे हैं।’ (रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, पृ.10)। इससे गंदगी फैल जाती है। सब कुछ नष्ट हो जाता है। “खेतों में बाढ़ का हाहाकार तड़पा था, इन्हीं खेतों से होकर कितनी लाशें बही थीं। बाढ़ इन खेतों की फसलें छीन कर इनमें बालू झोंक गई थी, इनके ऊपर तान गई थी रिक्तता का खाली आकाश।’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.76)। इतना होने के बावजूद किसान आशा नहीं छोड़ते। ‘खेत बोये जा रहे थे – यह समझते हुए भी कि बाढ़ आएगी, सब डूब जाएगा, फिर भी खेत बोये जा रहे थे। गरीब किसान अपने खेत के अन्न को बेच-बाच गए। बीज खरीद रहे थे – उन खेतों में डालने के लिए जहाँ बाढ़ आएगी, सब कुछ लूट ले जाएगी... फिर भी एक आशा थी, भविष्य के प्रति एक आस्था थी, जो उन्हें बीज बोने के लिए प्रेरित कर रही थी। सदियों से इनकी यह जिजीविषा इन्हें जीवन देती आई है, नहीं तो न जाने कब के खत्म हो गए होते।’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.159)। (हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह/ एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।/ नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,/ एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन – कामायनी, चिंता सर्ग)। पानी में घिरे हुए लोग किसी से कुछ प्रार्थना नहीं करते बल्कि ‘वे पूरे विश्वास के साथ देखते हैं पानी को/ और एक दिन/ बिना किसी सूचना के/ खच्चर बैल भैंस की पीठ पर/ घर-असबाब लादकर/ चल देते हैं कहीं और।’ (केदारनाथ सिंह, पानी में घिरे हुए लोग)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बाढ़ के कारण चारों ओर पानी ही पानी है लेकिन किसी काम का नहीं। जब अकाल पड़ता है तो भी मानव जीवन तहस-नहस हो जाता है। रांगेय राघव ने बंगाल के अकाल की भीषण त्रासदी को अपनी रिपोर्ताज ‘तूफ़ानों के बीच’ में चित्रित किया है तो रेणु (मैला आँचल), रामधारी सिंह दिवाकर (अकाल संध्या), शिवमूर्ति (आखिरी छलांग), पंकज सुबीर (अकाल के उत्सव), संजीव (फाँस), कमल कुमार (पासवर्ड) आदि अनेक साहित्यकारों ने मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। तेलुगु साहित्य में भी कंदविल्ली साम्बासिव राव (शिक्षा (दंड), पापीकोंडलु,), राजेश्वरी (वरदा – बाढ़), बंडी नारायण स्वामी (शप्तभूमि – श्राप ग्रस्त भूमि) जैसे साहित्यकारों ने इन समस्याओं का मार्मिक चित्र अंकित किया है। सिर्फ उपन्यास, कहानी या रिपोर्ताज ही नहीं बल्कि कविताओं में भी इस समस्या का चित्रण है। हिंदी में केदारनाथ सिंह ने ‘पानी की प्रार्थना’ के माध्यम से पाने के महत्व को रेखांकित किया है तो तेलुगु के प्रसिद्ध कवि एन. गोपि ने ‘जलगीतम’ (जलगीत) के माध्यम से इसका अंकन किया है। संपूर्ण भारतीय साहित्य में बाढ़ और अकाल की समस्याओं को देखा जा सकता है। बिन पानी सब सून।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पानी की समस्या अत्यंत गंभीर समस्या है। सदियों से समाज इससे पीड़ित है। नासिरा शर्मा लिखती हैं – ‘खालिस दूध नहीं मिलता – यह शिकायत तो पुरानी हो चुकी है। नई शिकायत है – खालिस पानी नहीं मिलता है, देखने को। पानी तो दूर, खालिस शब्द की तरह खालिस पानी को भी लोग बोतल में बंद रखेंगे, ताकि उसकी एक दो बूँद सूखे के समय चाटकर अमृत का स्वाद ले सकें। ऐसा दौर जल्दी ही आने वाला है, जब हीरे के मोल पानी मिलेगा और पूँजीपति उसको अपनी तिजोरी में बंद करके रखेंगे, तब डकैतियाँ पानी की बोतल के लिए पड़ेंगी। बैंक के लॉकर टूटे मिलेंगे, केवल खालिस पानी के लिए जिसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में करोड़ों में होगी। यह फैंटसी नहीं, बल्कि आने वाले समय में पानी की दुर्बलता की पूर्व घोषणा है। यह मजाक नहीं बल्कि पानी के बढ़ते महत्व का सच है। यह अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि भविष्य का यथार्थ है’। (कुइयाँजान, पृ. 271)। यह हमारा कर्तव्य है कि इस अनमोल वस्तु को सुरक्षित रखें और धरा का संरक्षण करें।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रिय पाठको! पानी की गुहार सुन लीजिए-</div><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>मेरा मूल्य जानो! मेरी कीमत समझो</div><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>मुझे प्रदूषित करते</div><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>फिर शुद्ध करते</div><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>फिर शुद्ध करते, मुझे</div><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>दुकान का सौदा मत बनाओ</div><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>पहले अपने हृदयों को</div><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>शुद्ध करो।'' (एन. गोपि, जलगीतम, पृ. 103)</div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-7266126139282458622023-02-25T09:43:00.002+05:302023-02-25T09:43:27.510+05:30विलोम शब्द <p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2EixvAD6iwkeVBSb4qJ717aesowRVkHshDgqxp6H2gMKCUsspCy0rRGjOrusXojhMiDUTiidd8-waDcY_5jntScfemdGRdSMYFagSTUHVQEbcgbFQAgKvgO_i0egy62Md6_2nTP2L2uRl1QDNk13kCPWMhJw68MKb1TV7vPeBgsktw9k2iVO0ha9M/s810/Important_Hindi_Vilom_Shabd-810x452.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="452" data-original-width="810" height="358" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2EixvAD6iwkeVBSb4qJ717aesowRVkHshDgqxp6H2gMKCUsspCy0rRGjOrusXojhMiDUTiidd8-waDcY_5jntScfemdGRdSMYFagSTUHVQEbcgbFQAgKvgO_i0egy62Md6_2nTP2L2uRl1QDNk13kCPWMhJw68MKb1TV7vPeBgsktw9k2iVO0ha9M/w640-h358/Important_Hindi_Vilom_Shabd-810x452.png" width="640" /></a></div><br />विलोम अर्थात उलटा, विपरीत, रीतिविरुद्ध। अतः विलोम शब्द ऐसे शब्दों को कहा जाता है जो एक-दूसरे का विपरीत अर्थ देते हों। उदाहरण के लिए - <p></p><p style="text-align: justify;"></p><ul style="text-align: left;"><li>अंशकालिक - पूनकालिक अंशतः - पूर्णतः </li><li>अकर्मक - सकर्मक अकारण - सकारण </li><li>अपयश - यश अविश्वास - विश्वास </li><li>आरंभ - अंत अनुत्तीर्ण - उत्तीर्ण </li><li>असंभव - संभव अगोचर - गोचर </li><li>अग्र - पश्च अचल - चल </li><li>अचेतन - चेतन अज्ञेय - ज्ञेय </li><li>अडिग - अस्थिर अतिवृष्टि - अनावृष्टि </li><li>अदृश्य - दृश्य अद्भुत - सामान्य </li><li>अधर्म - धर्म अधिक - थोड़ा </li><li>अधीन - स्वतंत्र अधूरा - पूरा </li><li>अनधिकार - साधिकार अभिज्ञ - अनभिज्ञ </li><li>अनहोनी - होनी आदि - अनादि </li><li>अनायास - सायास आवरण - अनावरण </li><li>आवृत्त - अनावृत्त आस्था - अनास्था </li><li>अनिवार्य - ऐच्छिक अनिश्चित - निश्चित </li><li>अग्रज - अनुज अनुपयुक्त - उपयुक्त </li><li>अनुपस्थित - उपस्थित अनैतिक - नैतिक </li><li>औपचारिक - अनौपचारिक अंधकार - प्रकाश </li><li>अंतरंग - बहिरंग अंतर्मुखी - बहिर्मुखी </li><li>अपकार - उपकार अपठनीय - पठनीय </li><li>अपना - पराया अपमान - सम्मान </li><li>अपशकुन - शकुन अपराध - निरपराध </li><li>अपरिचित - परिचित अप्रस्तुत - प्रस्तुत </li><li>अबला - सबला अमानुषिक - मानुषिक </li><li>अमीर - गरीब अमृत - विष </li><li>अर्थ - अनर्थ अपूर्ण - पूर्ण </li><li>अल्पायु - दीर्घायु आधुनिक - प्राचीन </li></ul><p></p>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-40198215174243520372023-02-23T13:47:00.000+05:302023-02-23T13:47:28.040+05:30वस्तुनिष्ठ प्रश्न : हिंदी साहित्य का इतिहास<div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXuM-YK1zuVLYilnzoESWdIJ1e3AY5lVrq4Qbh3Fu-RDCuxa_jH8pSyp5CgaR0nE5-NWqbEzKyukzS0BhJbk_GQcIG47m3ZZhGfrNzDTy5eC3zNX8FFnnc3befqUf5rYZyOb-tiYW6n3ES8on3s5Kfx8JIiEbm_TlATbXNUZcK4RxxH86Jeg0IaNdK/s602/book.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="335" data-original-width="602" height="356" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXuM-YK1zuVLYilnzoESWdIJ1e3AY5lVrq4Qbh3Fu-RDCuxa_jH8pSyp5CgaR0nE5-NWqbEzKyukzS0BhJbk_GQcIG47m3ZZhGfrNzDTy5eC3zNX8FFnnc3befqUf5rYZyOb-tiYW6n3ES8on3s5Kfx8JIiEbm_TlATbXNUZcK4RxxH86Jeg0IaNdK/w640-h356/book.jpg" width="640" /></a></div><br /><b style="color: #990000;"><br /></b></div><div style="text-align: justify;"><b style="color: #990000;">1. ‘उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिंदी है’ – यह किसका मत है?</b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">चंद्रधर शर्मा गुलेरी</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>2. आदिकाल के प्रथम कवि कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">सरहपाद</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>3. राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी के प्रथम कवि किसे माना?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">सरहपा</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>4. ‘पउम चरिउ’ के रचनाकार कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">स्वयंभू</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>5. ‘आल्हाखंड’ के रचयिता कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">जगनिक</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>6. आदिकाल को ‘वीरगाथा काल’ नाम किसने दिया?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">रामचंद्र शुक्ल</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>7. ‘चारण काल’ का दूसरा नाम क्या है?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">आदिकाल</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>8. आदिकाल को ‘बीजवपन काल’ किसने माना?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">महावीर प्रसाद द्विवेदी</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>9. प्रथम काल का नामकरण ‘आदिकाल’ किसने किया?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर इसे आदिकाल कहा</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>10. हिंदी साहित्य के इतिहास को ‘संधि काल एवं चारण काल’ किसने कहा?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">डॉ. रामकुमार वर्मा</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>11. आचार्य शुक्ल ने किस आधार पर प्रथम काल को वीरगाथा काल कहा?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">ऐतिहासिक सामाजिक वास्तविकता के आधार पर</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>12. ऐतिहासिकता के आधार पर गरियर्सन ने आदिकाल को क्या कहा?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"><br /></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">चारण काल</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>13. मिश्रबंधुओं ने आदिकाल को क्या नाम रखा?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"><br /></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">प्रारंभिक काल</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>14. ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ के रचनाकार कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">शालिभद्र सूरी</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>15. ‘मैथिल कोकिल’ कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">विद्यापति</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>16. हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">गार्सां द तासी। ‘इस्त्वार द ल लितरेत्युर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी’ नाम से उन्होंने हिंदी साहित्य का पहला इतिहास फ्रेंच में लिखा है।</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>17. हिंदी में लिखा गया हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास का नाम बताइए।</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">शिवसिंह सेंगर कृत ‘शिवसिंह सरोज’</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>18. अंग्रेजी में लिखा गया हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास का नाम बताइए।</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन कृत ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>19. चौरासी सिद्धों में आदि सिद्ध कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe;">सरहपा</span></b></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-72404722457342422232023-02-21T22:13:00.002+05:302023-02-21T22:13:31.554+05:30उन्नति भाषा की करहु...<div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGlhyc3GKV1wnuExC6yI2Y8DdbGk4UXmvcGYFU1xInQ0GXBXr9PUJ-SkB6SvqUy9naX9EQGy_Q2fujyll9cnWyJOLtgrcyLGAUIPwOHbFRzOioYHZOg3gCPEXMqsm7nJvHtdKnvfBBR_ONUdaBvOjVC1ah8gs_YQm8qCGsmHYGgtKQFPv7PxIwIaMk/s1920/InShot_20230221_220958783.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1920" data-original-width="1920" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGlhyc3GKV1wnuExC6yI2Y8DdbGk4UXmvcGYFU1xInQ0GXBXr9PUJ-SkB6SvqUy9naX9EQGy_Q2fujyll9cnWyJOLtgrcyLGAUIPwOHbFRzOioYHZOg3gCPEXMqsm7nJvHtdKnvfBBR_ONUdaBvOjVC1ah8gs_YQm8qCGsmHYGgtKQFPv7PxIwIaMk/w400-h400/InShot_20230221_220958783.png" width="400" /></a></div><br />हर वर्ष 21 फरवरी को 'अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' मनाया जाता है। स्मरणीय है कि यूनेस्को ने 17 नवंबर, 1999 को इसे स्वीकृति दी। यह 21 फरवरी, 2000 से पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है। वस्तुतः यह घोषणा बांग्लादेशियों (तब पूर्वी पाकिस्तानियों) द्वारा किए गए भाषा आंदोलन को श्रद्धांजलि देने के लिए की गई थी। यूनेस्को की इस घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति प्राप्त हुई। 1952 से ही बांग्ला देश में यह दिन मनाया जाता आ रहा है। भाषा आंदोलन के कारण ही अलग बांगलादेश का निर्माण हुआ। भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देने के उद्देश्य से ही अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा है। इससे बहुभाषिकता को निश्चित रूप से बढ़ावा मिलेगा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ध्यान देने की बात है कि 1947 में आजादी के साथ लोगों को देश विभाजन की त्रासदी को भी झेलना पड़ा। 1947 में जब पाकिस्तान बना तब उसके भौगोलिक रूप से दो अलग-अलग हिस्से थे - पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान में पाकिस्तान)। पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच भारत था। संस्कृति और भाषा के स्तर पर दोनों भाग एक दूसरे से बहुत भिन्न थे। 1948 में, पाकिस्तान सरकार ने उर्दू को पाकिस्तान की एकमात्र राष्ट्रीय भाषा घोषित किया, भले ही बांग्ला पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान को मिलाकर अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाती थी। पूर्वी पाकिस्तानियों ने इसका खुलकर विरोध किया, क्योंकि अधिकांश आबादी पूर्वी पाकिस्तान से थी और उनकी मातृभाषा बांग्ला थी। उन्होंने उर्दू के अलावा बांग्ला को राष्ट्रीय भाषा बनाने की माँग की थी। पाकिस्तान की संविधान सभा में 23 फरवरी, 1948 को पूर्वी पाकिस्तान के धीरेंद्रनाथ दत्ता ने यह माँग उठाई थी। विरोध को ध्वस्त करने के लिए, पाकिस्तान की सरकार ने जनसभा और रैलियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। 1952 में ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने आम जनता के सहयोग से रैलियों का आयोजन किया था। पुलिस की गोला-बारी में सैकड़ों लोग मारे गए। लोगों ने अपनी मातृभाषा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। इसलिए बांग्लादेश में इस दिन को शहीद दिवस के रूप में याद किया जाता है। फूट डालो और राज करो की नीति के तहत बांग्लादेश का विभाजन हुआ। विभाजन का उद्देश्य ही था देश में तनाव की स्थितियों को पैदा करना तथा सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उक्त घटना का उल्लेख महुआ माजी के उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ में भी है। यथा – “1951 के अक्तूबर महीने में सैयद अकबर नामक एक अफ़गान युवक की गोली से प्रधानमंत्री लियाकत अली की मृत्यु हो गई और उनके बाद ख्वाजा नाज़िमुद्दीन पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री बने। नाज़िमुद्दीन ने जिन्ना साहब की तरह उर्दू को पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया। उसकी मंशा भी बहुसंख्यक बंगालियों की स्वतंत्र सत्ता को, उनकी भाषा, साहित्य-संस्कृति को मिटाकर उन्हें नामहीन, परिचयहीन नकलनवीस दासों में परिणत करने की थी। इसीलिए तो उनके इस निर्णय के विरोध में 21 फरवरी, 1952 ई. को ढाका के छात्र समुदाय ने पूर्वी पाकिस्तान में हड़ताल की घोषणा कर दी। ढाका राजपथ पर विशाल जुलूस निकाला गया। उस विशाल जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे शेख मुजीबुर्रहमान। पुलिस तथा सेना ने जुलूस पर गोलियाँ चलाईं। नौ छात्र शहीद हो गए। फिर तो भाषा आंदोलन ने व्यापक रूप धारण कर लिया। अनेक छात्र गिरफ़्तार कर लिए गए। कारागार के लौह-कपाट आंदोलनकारी छात्रों के आक्रोश से झनझना उठे, ‘कॉमरेड शोन् बिगुल ओइ हांकछे रे/ कारार ओइ लौहो कॉपाट भेंगे फैल/ कोरबे लोपाट/ मोदेर गॉरोब/ मोदेर आशा/ आ मोरी बांग्ला भाषा...” [कॉमरेड सुनो – बिगुल बज रहा है/ कारागार के उस लौह कपाट को तोड़ डालो/ नहीं तो वे हमारी बांग्ला भाषा को/ जो हमारा गर्व है, हमारी आशा है, मिटाकर रख देंगे।]" (माजी : 2007 : 119-120)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">स्मरणीय है कि भाषा आंदोलनकारियों के साथ बर्बरतापूर्वक व्यवहार किया गया था। अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए खड़े होने वाले लोगों को बेरहमी से कुचला गया। हर तरह से उनका शोषण किया गया। तब पूर्वी पाकिस्तानी जनता स्वायत्त शासन के बारे में सोचने लगी। उनके मन में यह धारणा घर कर गई कि “आत्मनियंत्रण का अधिकार मिले बगैर पश्चिमी पाकिस्तानी शासकों के अत्याचार से मुक्ति मिलना संभव नहीं।” (माजी : 2007 : 121)। बांग्ला भाषा के अलावा किसी और भाषा को मातृभाषा के रूप में आत्मसात करने की बात वे सोच भी नहीं सकते थे। आंदोलन बड़े पैमाने पर होने लगा। 7 मई, 1954 में संविधान सभा ने उर्दू भाषा को आधिकारिक भाषा बनाया। 29 फरवरी, 1956 को बांग्ला भाषा को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। उर्दू और बंगाली पाकिस्तान की आधिकारिक भाषाएँ बन गईं। 23 मार्च, 1956 को पाकिस्तान का संविधान लागू किया गया था। इसका उल्लेख पाकिस्तान संविधान के अनुच्छेद 214(1) में है। आक्रोश से भरे बांग्लादेशियों ने अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष किया। बांग्ला देश के स्वतंत्रता संग्राम को मुक्ति संग्राम के नाम से जाना जाता है जो 1971 में शुरू हुआ था। 26 मार्च, 1971 से लेकर 16 दिसंबर, 1971 तक यह युद्ध चला। अंततः 16 दिसंबर, 1971 को बांगलादेश स्वतंत्र हुआ। बांग्लादेशियों ने अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए संघर्ष किया।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आशा करते हैं कि मातृभाषा प्रेम की यह भावना हमारे अंदर न केवल हमारी मातृभाषा के लिए, बल्कि दूसरी भाषाओं के लिए भी विकसित होगी। सभी प्रकार की बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक भाषाओं को सह-अस्तित्व में लाने का प्रयास करना चाहिए। एकाधिकार की भावना को जड़ से निर्मूल करना चाहिए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय।</div><div style="text-align: justify;">उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय॥” </div><div style="text-align: justify;"> (भारतेंदु हरिश्चंद्र)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-66586105507524845532023-02-06T21:43:00.000+05:302023-02-06T21:43:01.259+05:30वस्तुनिष्ठ प्रश्न : हिंदी साहित्य का इतिहास<div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqw03H8s_BrxsYZnMkg42IEh3vI76tMGtos5IREHcJtzpc1_Sp-IGwTFJx7ZDnzMMj4SCGqiqIgS5_6hJsIQQcavKcRL_HE9IjseXFqfTf8pwuCGd_DkF6y2pnjui_jtZYfy8R9zEJHFuofP1QWJSg072j9e2NOc7ohq8ge3m6T_ILBt9K9Y229-lK/s602/book.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="335" data-original-width="602" height="356" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqw03H8s_BrxsYZnMkg42IEh3vI76tMGtos5IREHcJtzpc1_Sp-IGwTFJx7ZDnzMMj4SCGqiqIgS5_6hJsIQQcavKcRL_HE9IjseXFqfTf8pwuCGd_DkF6y2pnjui_jtZYfy8R9zEJHFuofP1QWJSg072j9e2NOc7ohq8ge3m6T_ILBt9K9Y229-lK/w640-h356/book.jpg" width="640" /></a></div><br /><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b style="color: #990000;">1. ‘उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिंदी है’ – यह किसका मत है?</b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिंदी है। उन्होंने 'राजा मुंज' को पुरानी हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार किया। </b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;"><b>2. आदिकाल के प्रथम कवि कौन हैं?</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> सरहपाद </b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">3. राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी के प्रथम कवि किसे माना?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> सरहपा </b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">4. ‘पउम चरिउ’ के रचनाकार कौन हैं?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> स्वयंभू</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">5. ‘आल्हाखंड’ के रचयिता कौन हैं?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> जगनिक</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">6. आदिकाल को ‘वीरगाथा काल’ नाम किसने दिया?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> रामचंद्र शुक्ल</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">7. ‘चारण काल’ का दूसरा नाम क्या है?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> आदिकाल</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">8. आदिकाल को ‘बीजवपन काल’ किसने माना?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> महावीर प्रसाद द्विवेदी</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">9. प्रथम काल का नामकरण ‘आदिकाल’ किसने किया?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर इसे आदिकाल कहा</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">10. हिंदी साहित्य के इतिहास को ‘संधि काल एवं चारण काल’ किसने कहा?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> डॉ. रामकुमार वर्मा</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">11. आचार्य शुक्ल ने किस आधार पर प्रथम काल को वीरगाथा काल कहा?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> ऐतिहासिक सामाजिक वास्तविकता के आधार पर</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">12. ऐतिहासिकता के आधार पर गरियर्सन ने आदिकाल को क्या कहा?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> चारण काल</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">13. मिश्रबंधुओं ने आदिकाल को क्या नाम रखा?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> प्रारंभिक काल</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">14. ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ के रचनाकार कौन हैं?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> शालिभद्र सूरी</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">15. ‘मैथिल कोकिल’ कौन हैं?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> विद्यापति</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">16. हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार कौन हैं?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> गार्सां द तासी। ‘इस्त्वार द ल लितरेत्युर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी’ नाम से उन्होंने हिंदी साहित्य का पहला इतिहास फ्रेंच में लिखा है।</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">17. हिंदी में लिखा गया हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास का नाम बताइए।</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> शिवसिंह सेंगर कृत ‘शिवसिंह सरोज’</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">18. अंग्रेजी में लिखा गया हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास का नाम बताइए।</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन कृत ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">19. चौरासी सिद्धों में आदि सिद्ध कौन हैं?</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b> सरहपा</b></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #990000;">20. </span></b><span style="background-color: white; font-family: "Open Sans", sans-serif; font-size: 17px; font-weight: 700;"><span style="color: #990000;">भाट और चारण कवियों ने किस साहित्य की रचना की है?</span></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #212121; font-family: "Open Sans", sans-serif; font-size: 17px; font-weight: 700;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #212121; font-family: "Open Sans", sans-serif; font-size: 17px; font-weight: 700;"> </span><b><span style="color: #2b00fe;"><span style="background-color: white; font-family: "Open Sans", sans-serif; font-size: 17px;"> </span><span style="background-color: white; font-family: "Open Sans", sans-serif; font-size: 17px;">रासो-साहित्य </span></span></b></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-8540289430287147782023-02-02T08:04:00.000+05:302023-02-02T08:04:37.282+05:30 हिंदी प्रयोग<div style="text-align: justify;"><b><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJOWM3sM3DuuADYUjTwt5f9-dWF2voYrKxZFYQRY4Cux26r2GG2CUTnH8QqPTl_rZLkjA2ZikIKcR99U4Xagvf-sry0C05PcDW9uFca3-w7dFV0EBzze7T5gD7kWeSy89zM6nuWLDh8ommZxRP5kamyyBVZdx_sTNtxXSGr22ZSOJw6S9xjYUr_If9/s603/hindi-removebg-preview.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="603" data-original-width="413" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJOWM3sM3DuuADYUjTwt5f9-dWF2voYrKxZFYQRY4Cux26r2GG2CUTnH8QqPTl_rZLkjA2ZikIKcR99U4Xagvf-sry0C05PcDW9uFca3-w7dFV0EBzze7T5gD7kWeSy89zM6nuWLDh8ommZxRP5kamyyBVZdx_sTNtxXSGr22ZSOJw6S9xjYUr_If9/s320/hindi-removebg-preview.png" width="219" /></a></div><b><span style="color: #660000;">अंग-अंग</span><span style="color: #2b00fe;"> :</span></b><span style="color: #2b00fe;"> हर अंग। संज्ञा पदबंध. इसका प्रयोग सामान्य रूप से एकवचन में होता है।</span></div></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">(</span><span style="color: #990000;"><b>प्रयोग</b></span><span style="color: #2b00fe;"> : </span><span style="color: #990000;">उसका अंग-अंग दुखने लगा</span><span style="color: #2b00fe;">)<br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अंगारा हो जाना</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : आवेश या क्रोध के कारण लाल हो जाना। सामान्य रूप से इसका प्रयोग् व्यक्ति या उसके चेहरे या आँख के लिए होता है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">(</span><span style="color: #990000;"><b>प्रयोग</b></span><span style="color: #2b00fe;"> : </span><span style="color: #990000;">देखते ही देखते उसकी आँखें अंगारा हो गईं।</span><span style="color: #2b00fe;">)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अंगूठा चूसना</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : सामान्य रूप से अबोध बच्चों की अंगूठे को मुँह में डालकर चूसते रहने की क्रिया। मुहावरे के रूप में इसका अर्थ है – बचकानी हरकत।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">(</span><b><span style="color: #990000;">प्रयोग</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : </span><span style="color: #990000;">तुम्हारे अंगूठा चूसने के दिन गए।</span><span style="color: #2b00fe;">)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #660000;"><b>अंगूठा दिखाना</b></span><span style="color: #2b00fe;"><b> </b>: साफ इनकार करना।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">(</span><b><span style="color: #990000;">प्रयोग</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : </span><span style="color: #990000;">आश्रम के चंदा माँगा तो उन्होंने अंगूठा दिखा दिया</span><span style="color: #2b00fe;">।)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;"><br /></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;"><br /></span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अंगूठे पर मारना</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : अत्यंत उपेक्षित समझकर त्याग देना।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(<b>प्रयोग</b> : तुम्हारी पाप की कमाई नहीं चाहिए। ऐसे रकम को तो हम अंगूठे पर मारते हैं।)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अंत हो जाना</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : समाप्त हो जाना। उन्मूलन हो जाना।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">(</span><b><span style="color: #990000;">प्रयोग </span></b><span style="color: #2b00fe;">: </span><span style="color: #990000;">उसके जमाने में ही सती प्रथा का अंत हो गया।)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अंदर-ही-अंदर :</span></b><span style="color: #2b00fe;"> मन ही मन में</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(<b>प्रयोग</b> : वह अंदर-ही-अंदर घुटता रहा।)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अँधेरे में रखना </span></b><span style="color: #2b00fe;">: वस्तुस्थिति से परिचित न होना।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(<b>प्रयोग </b>: मझे अँधेरे में रखा गया।)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">आँखों के आगे अंधकार छा जाना</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : निराशापूर्ण स्थिति</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(<b>प्रयोग</b> : मेरे आँखों के आगे अंधकार छा गया।)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अंधा बना देना</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : घमंडी बना देना</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(</span><b><span style="color: #990000;">प्रयोग</span></b><span style="color: #990000;"> : सत्ता के मैड में वह अंधा बन गया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #660000;">अंधे की लकड़ी</span></b><span style="color: #2b00fe;"> : एकमात्र सेहरा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(<b>प्रयोग</b> : बुढ़ापे में अपने माता – पिता का सहारा बनकर राम यह सिद्ध कर दिया कि वह अपने माता – पिता के अंधे की लकड़ी है।)</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #660000;"><b>अगर-मगर</b></span><span style="color: #2b00fe;"> : बहाना</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(<b>प्रयोग</b> : काम करने करने के लिए अगर-मगर न करना।)</span></div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-56613024790269317582023-01-31T07:15:00.000+05:302023-01-31T07:15:29.452+05:30 रचनात्मक बाल साहित्य के प्रणेता : दिविक रमेश<div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYkDeYhBN-5OytY6QeGTYTSIxdnK6iQnS9fb0UaMt6SwwxM5v6qA02EusHE-y0xLQYrRiD2qYVZNkc7i6jFeg0B_zxnRYHbvaeDyQWEl5qJnVgloEmEh9mlM370k2l_K8InzUmiTkPBL7-2wOwImi1vsdw1Ooc_ZQxC4tFzxWsFz15E0s66_i0jdEj/s2048/divik.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1360" data-original-width="2048" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYkDeYhBN-5OytY6QeGTYTSIxdnK6iQnS9fb0UaMt6SwwxM5v6qA02EusHE-y0xLQYrRiD2qYVZNkc7i6jFeg0B_zxnRYHbvaeDyQWEl5qJnVgloEmEh9mlM370k2l_K8InzUmiTkPBL7-2wOwImi1vsdw1Ooc_ZQxC4tFzxWsFz15E0s66_i0jdEj/s320/divik.jpg" width="320" /></a></div>हिंदी साहित्य जगत में दिविक रमेश जाना-माना नाम है। उनका जन्म 28 अगस्त, 1946 को दिल्ली में नांगलोई के पास हरियाणा की सीमा पर बसे किराड़ी गाँव में हुआ था। लेकिन स्कूल में प्रवेश के समय जन्म तिथि 6 फरवरी, 1946 दर्ज की गई थी। उनका वास्तविक नाम है रमेश शर्मा। वे अपने बचपन के बारे में याद करते हुए कहते हैं, “मेरा गाँव सचमुच का गाँव होता था - बिना सड़क वाला, बिना बिजली और सरकारी पानी वाला। बस पकड़ने के लिए नांगलोई तक पैदल चलकर आने वाला। चौपाल में या पेड़ों के नीचे प्राइमरी शिक्षा की सुविधा रखने वाला। दूर-दूर तक खेतों-खलिहानों वाला। गाँव के घरों से लगते हुए ही खेत शुरू हो जाते थे। किराड़ और मंगोथर जोहड़-तालाबों वाला। नहर और धान्नों (नहर से खेत तक लाए छोटे नाले) वाला। बाग-बगीचे वाला। कुओं से पानी पिलाने वाला। भूतों वाले कुओं, पीपल और खास स्थानों वाला।” (setumag.com)।<br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बचपन से माता-पिता से प्राप्त संस्कार और जीवन मूल्यों को दिविक रमेश ने आत्मसात किया। उन्होंने अपने अनुभवों एवं अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए साहित्य को साधन बनाया। कवि, आलोचक और बाल-साहित्यकार के रूप में वे जाने जाते हैं। ‘गेहूँ घर आया है’,‘खुली आँखों में आकाश’, ‘रास्ते के बीच’, ‘छोटा-सा हस्तक्षेप’, ‘हल्दी-चावल और अन्य कविताएँ’, ‘बाँचो लिखी इबारत’, ‘वह भी आदमी तो होता है और फूल तब भी खिला होता’, ‘माँ गाँव में है’, ‘वहाँ पानी नहीं है’ उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं तो ‘खंड-खंड अग्नि’ काव्य नाटक है। ‘नए कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धांत’, ‘संवाद भी विवाद भी’, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात त्रिलोचन’, ‘समझा-परखा’ तथा ‘हिंदी बाल-साहित्य : कुछ पड़ाव’ प्रमुख आलोचना कृतियाँ हैं। ‘101 बाल कविताएँ’, ‘समझदार हाथी : समझदार चींटी’, ‘बंदर मामा’, ‘हँसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘बोलती डिबिया’, ‘देशभक्त डाकू’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘ओह पापा’, ‘गोपाल भांड के किस्से’, ‘त से तेनालीराम, ब से बीरबल’, ‘बल्लूहाथी का बालघर’, ‘मुसीबत की हार’, ‘मैं हूँ दोस्त तुम्हारी कविता’, ‘लू लू की सनक’, ‘मेरे मन की बाल कहानियाँ’, ‘फूल भी फल भी’ आदि बाल साहित्य है। बाल कविताओं को ‘101 बाल कविताएँ’ शीर्षक से संग्रहीत किया गया है। ‘बचपन की शरारत’ उनकी संपूर्ण गद्य रचनाओं का संग्रह है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">समकालीन कविता के क्षेत्र में दिविक रमेश का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उनके बाल साहित्य में भी समकालीन भावबोध को देखा जा सकता है। दिविक रमेश के संबंध में नामवर सिंह कहते हैं कि “दिविक रमेश हिंदी के वरिष्ठ कवियों - शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन, दोनों के निकट संपर्क में रहे और एक तरह से इन दोनों कवियों से उन्होंने कविता की दीक्षा ली। यही कारण है कि इनकी कविताओं पर शमशेर जी की नफासत और भाषा की कीनियागीरी का असर पड़ा है।” (सिंह : 2021)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">एक रचनाकार कभी-कभी अपने विशेष नाम के कारण प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पा जाते हैं। रमेश शर्मा दिविक रमेश कब और कैसे बने इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने स्वयं कहा है कि “इतना भर तो बता ही दूँ कि उस समय के एक बहुत ही सक्रिय रचनाकार सुखबीर सिंह ने अपने संपादन में एक कविता-संकलन ‘दिविक’ (दिल्ली विश्वविद्यालयी कविता में आए प्रथम तीन अक्षर) निकाला था जिसमें मेरी कविताएँ रमेश शर्मा के नाम से प्रकाशित हुई थीं। कुछ समय बाद सुखबीर सिंह ने मुझे भी संपादक के रूप में जोड़ते हुए ‘दूसरा दिविक’ निकाला था और अब मैं दिविक रमेश बन चुका था। यहाँ ‘क’ कवि के लिए अपना लिया गया था। या समझा जा सकता है - दिविक का रमेश। यह शब्द कोश में तो उपलब्ध है नहीं, यूँ इसका अर्थ निकाला जा सकता है।” (रमेश : 2016आ : 97)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दिविक रमेश भले ही दिल्ली जैसे शहर में बस चुके हैं, लेकिन वे अपनी जड़ों से जुड़े हुए साहित्यकार हैं। उनकी यादों में तथा उनकी रचनाओं में गाँव बसा हुआ है। इसीलिए नामवर सिंह यह कहने में नहीं हिचकते कि “एक कौरवी जनपद का आदमी, जिसके भीतर दिल्ली शहर में रहते हुए सहसा गाँव जाग गया तो अपने गाँव के शब्द, गाँव की शब्दावली की अनुभूतियाँ - उन चीजों को कविता में नए सिरे से प्रकट करने का विश्वास आया।” (सिंह : 2021)। नामवर सिंह इसे प्रौढ़ता का लक्षण मानते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसमें दो राय नहीं कि दिविक रमेश समकालीन कवि और आलोचक हैं, परंतु इस आलेख में उनके बाल साहित्यकार के रूप पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, क्योंकि बाल साहित्यकार के रूप में उन्होंने अपनी एक निजी पहचान बनाई है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बड़े, बच्चों को बच्चे समझकर उपदेश देने का कार्य करते हैं। लेकिन आजकल के बच्चे इंटरनेट और सोशल मीडिया के कारण जागरूक हो चुके हैं। पर बड़े, बच्चों से बात करते समय ‘प्रिमिटिव’ ही रहते हैं। पुरानी मान्यताओं और रीतियों को आसानी से छोड़ नहीं सकते। अतः बचपन से ही बच्चों को उपदेश की घुट्टी पिलाना शुरू कर देते हैं। लेकिन इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि बड़ों से ज्यादा बच्चों का ‘एक्सपोजर’ विस्तृत है। बच्चे अपने अनुभवों से स्वयं सीखना चाहते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कोरोना के कारण शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव आया। घर बैठे-बैठे संसाधनों के माध्यम से ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई। स्कूल ही घर आ चुका है। ऐसे में यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि बच्चों को क्या सूचना दी जाए और क्या नहीं। यह पहले बड़ों को समझ लेना चाहिए। सूचना प्रौद्योगिकी ने अनेक द्वार खोल दिए हैं। आज के बच्चे सिर्फ मुद्रित बाल साहित्य पर निर्भर नहीं हैं, बल्कि यूट्यूब और अनेक वेबसाइटों पर प्रकाशित एनीमेशन और बाल साहित्य से भी परिचित हो रहे हैं। उन्हें यदि रोचक न लगे तो वे देखेंगे नहीं और उस साहित्य को पढ़ेंगे भी नहीं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बाल साहित्य में रोचकता और गुणवत्ता का होना अनिवार्य है। यह भी ध्यान देने की बात है कि बाल साहित्य में सिर्फ मनोरंजन और काल्पनिकता का ही समावेश न हो। बच्चों को सामाजिक तथ्यों से अवगत कराना भी जरूरी है। आज के बच्चों को परी-लोक नहीं, बल्कि यथार्थ दुनिया से रू-ब-रू कराना होगा। आज के समय में जहाँ बच्चों का एक्सपोजर विस्तृत है, वहाँ बाल साहित्यकारों के समक्ष यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि, बाल साहित्य की विषय वस्तु की परिधि क्या होनी चाहिए? क्या हम आज की पीढ़ी को वही घिसी पिटी कहानियाँ ही सुनाएँगे? नहीं, यह नहीं हो सकता। हमें यह देखना होगा कि कहानी कितनी रोचक है और बच्चों को तथ्यों से परिचित कराने में कितनी सफल। इसे छोड़कर यदि उसमें यथार्थ को ही ढूँढ़ते रहेंगे और सिद्धांतों को प्रतिपादित करते रहेंगे तो वह बाल साहित्य न रहकर ‘कुछ और’ बन जाएगा। बच्चे फंतासी को पसंद करते हैं। वे खुद इस बात को तय करेंगे कि उनके लिए कौन सी कहानी सही है और कौन सी नहीं। वे खुद अपने लिए अच्छे और बुरे का मानक तय कर सकते हैं। यह कोई और नहीं कर सकता। आज का बाल साहित्य नटखट परी, चंचल तितली, चालाक लोमड़ी और पोटली बाबा की कहानियों से आगे जा चुका है। अतः बाल साहित्यकारों के समक्ष चुनौती है कि वे आखिर लिखें तो क्या लिखें? बाल साहित्य बाल-मन का व्यापक कैनवास होता है। (महाश्वेता देवी)। बड़ों के लिए लिखना आसान है लेकिन बच्चों के लिए लिखना, उनकी मानसिकता के अनुरूप लिखना कठिन है। यह वास्तव में चुनौती भरा कार्य है। बालसाहित्य लिखने के लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता होती है, क्योंकि केवल कल्पनाशक्ति के माध्यम से ही बाल साहित्य सृजन संभव है। यहाँ कल्पना का अर्थ यह कदापि नहीं कि बच्चों को हम वास्तविक दुनिया से दूर करके एक काल्पनिक जगत में जीने के लिए विवश करें। कल्पना के माध्यम से बच्चों में सृजनात्मक शक्ति का विकास संभव होता है। बच्चों के मन को आकर्षित करने के साथ-साथ उनकी सृजनात्मक क्षमता को विकसित करना बाल साहित्य का उद्देश्य होना चाहिए। बाल साहित्य के माध्यम से यदि बच्चे प्रेम, सौहार्द, भाईचारा जैसे गुणों को अनायास ही अपनाते हैं तो वह सही अर्थों में बाल साहित्य है। इसका यह अर्थ नहीं कि बाल साहित्य के बहाने हम नीति का ही उपदेश देते रहें। बच्चों में जिज्ञासा प्रवृत्ति सहज ही विद्यमान रहती है। अतः इस प्रवृत्ति को और बढ़ाने का काम करना होगा ताकि बच्चों की सृजनात्मक क्षमता का विकास हो सके। यह दायित्व बाल साहित्य का है। बाल साहित्यकार का है। ऐसे ही दायित्व बोध से युक्त बाल साहित्यकार हैं दिविक रमेश।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दिविक रमेश बाल साहित्य के दो वर्ग मानते हैं - उपयोगी बाल साहित्य और रचनात्मक बाल-साहित्य। जानकारीपूर्ण तथ्यात्मक बाल साहित्य को उपयोगी बाल साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है जबकि कविता, कहानी, नाटक आदि रचनात्मक बाल साहित्य है। दिविक रमेश रचनात्मक बाल साहित्य को ही मान्यता देते हैं। “बच्चों के लिए रचा गया साहित्य मूलत: बच्चों के आनंद के लिए होता है जिसे वे सहज रूप में अपनाने को अर्थात पढ़्ते चले जाने या सुनते चले जाने को उत्सुक हो जाएँ। वह उन्हें बोझ या ‘घर का काम’ न लगे।” (दिविक रमेश)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बाल साहित्य के माध्यम से बच्चों में मूल्यों की पौध लगाई जा सकती है। उन्हें सुसंस्कृत बनाया जा सकता है। संवेदनशील बनाया जा सकता है। ध्यान देने की बात है कि बाल साहित्य में मूल्यों और संवेदनाओं आदि को थोपा नहीं जाता, बल्कि रचना की बुनावट में ही इस तरह से पिरोया जाता है कि बच्चा खेल-खेल में सीख जाए। उदाहरण के लिए रोटी की महत्ता को दिविक रमेश इन पक्तियों के माध्यम से सहज रूप से समझाते हैं-</div><div style="text-align: justify;">मैं बोला -</div><div style="text-align: justify;">पर रोटी तुम तो</div><div style="text-align: justify;">बड़े काम की चीज़ हो प्यारी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div> <div style="text-align: justify;">रोटी बोली -</div><div style="text-align: justify;">अक्ल ठिकाने</div><div style="text-align: justify;">अब आई है अजी तुम्हारी</div><div style="text-align: justify;">मैं धरती की, तुम धरती के</div><div style="text-align: justify;">हम दोनों में पक्की यारी। (गपशप-1)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बाल साहित्य सिर्फ और सिर्फ बच्चों का साहित्य नहीं। दिविक रमेश के शब्दों में कहें तो वह ‘सबका साहित्य’ है। “बाल-साहित्य बच्चे से उसके बचपने और उसके अधिकारों को छीनने वाली तमाम ताकतों को सहज रूप से पराजित करता है। उसे एक सहज, अंकुठित, संवेदनशील और उचित मनुष्य बनाने की दिशा में सहजता के साथ खेता है।” (दिविक रमेश)। दिविक रमेश बच्चे को मनुष्यता की साँस समझते हैं। वे इस बात से चिंतित हो उठते हैं कि आज तक बाल साहित्य के नाम पर ‘बालक के लिए साहित्य’ लिखा जाता रहा, बल्कि ‘बालक का साहित्य’ लिखा जाना चाहिए था। आज लिखा भी जा रहा है एक हद तक। बच्चों पर लिखना, बच्चों के लिए लिखना और बच्चों द्वारा लिखना - अलग-अलग चीजें हैं। जब ‘बालक का साहित्य’ लिखा जाता है, तो साहित्यकार को एक बच्चा बनकर सोचना होगा। तभी जाना जा सकता है कि एक बच्चे के लिए क्या चाहिए। उसे महज उपदेश देने से काम नहीं बनता। बनता काम भी बिगड़ सकता है। निःसंदेह बाल साहित्य का सृजन वास्तव में चुनौती है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बच्चे हमेशा ही कल्पनाशक्ति का भरपूर प्रयोग करते हैं। जब तक उनकी जिज्ञासा शांत नहीं होगी तब तक वे उड़ान भरते रहते हैं। ऐसे ही एक बच्चे की कल्पना को दिविक रमेश ‘कैसे लगते भालू राम!’ शीर्षक कविता में इन शब्दों में उकेरते हैं -</div><div style="text-align: justify;">अच्छा, जरा सोचकर देखूँ</div><div style="text-align: justify;">कि कैसे लगते भालू राम,</div><div style="text-align: justify;">अगर जो होती उनके मुँह पर</div><div style="text-align: justify;">चोंच निराली, तोते जैसी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">और जो होती उनके सिर पर,</div><div style="text-align: justify;">कलगी प्यारी, मुर्गे जैसी।</div><div style="text-align: justify;">अच्छा, जरा सोचकर देखूँ</div><div style="text-align: justify;">कैसे लगते यदि दो छोटे</div><div style="text-align: justify;">सींग भी उनके सिर पर होते।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कैसे लगते, जो उड़ने को</div><div style="text-align: justify;">पंख भी होता, सारस जैसे।</div><div style="text-align: justify;">एक चित्र ही अच्छा ऐसा</div><div style="text-align: justify;">ज़रा बनाकर उनका देखूँ,</div><div style="text-align: justify;">कैसे लगते भालू राम! (रमेश : 2015अ : 62-63)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यह पहले भी कहा चुका है कि बच्चों को उपदेश देने से बनता काम भी बिगड़ सकता है। दिविक रमेश उपदेश नहीं देते बल्कि सहज रूप से बच्चों को घर और रिश्तों के महत्व को समझा देते हैं। वे माँ के रिश्ते को सबसे ऊँचा मानते हैं। ‘हरा मेंढक’ शीर्षक कोरियायी कहानी और कांगो लोककथा पर आधारित ‘माँ का अपमान’ शीर्षक कहानी में उन्होंने इसी बात को उजागर किया है। ‘हरा मेंढक’ कहानी में मेंढक अपनी माँ की एक भी बात सुनता ही नहीं था। हमेशा उल्टा ही करता रहता था। माँ ‘टर्रम-टर्रम’ कहने के लिए कहती तो वह ‘मर्रट-मर्रट’ करता। लेकिन वह क्या करती, आह भरने के अलावा! (रमेश : 2016अ : 252)। ‘माँ का अपमान’ शीर्षक कहानी में छोटा बेटा माँ की हर बात मानता है जबकि बड़ा बेटा “अक्सर अपनी माँ का अपमान करता है। उसे उसी में मजा आता था।” (रमेश : 2016अ : 337)। अंत में उसे माँ की बात न मानने का सजा भी मिल ही जाती है। इसी प्रकार ‘माँ कितनी प्यारी’ शीर्षक कविता का यह अंश भी देखें-</div><div style="text-align: justify;">माँ बोली, तू मेरा भालू,</div><div style="text-align: justify;">हाथी, बंदर, शेर सभी कुछ,</div><div style="text-align: justify;">मैं बोला, माँ इसीलिए तो</div><div style="text-align: justify;">मेरा भी तुम ही हो सब कुछ। (रमेश : 2015अ : 114)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘इनाम’ शीर्षक कहानी में एक पिता अपने ही बेटे को दुख पहुँचाता है, लेकिन बेटा अपने पिता की गलतियों को माफ कर देता है और कहता है, “सब कुछ भूल जाओ बापू। बीती बातों को अब मत दोहराओ। तुम्हारे लिए अब बस यही सजा है कि तुम अब कहीं नहीं जाओगे। हमारे पास रहोगे।” (रमेश : 2016अ : 344)। वस्तुतः बच्चों के विकास में घर-परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ‘बल्लू दादा को छुड़ा लिया गया’ शीर्षक कहानी में दिविक रमेश ने मिलजुलकर रहने की शक्ति को दर्शाया है। (रमेश : 2016अ : 74)। उन्होंने ‘घर’ शीर्षक कविता के माध्यम से यह चिंता व्यक्त की है कि जिनके पास घर ही नहीं है वे क्या कर सकते हैं -</div><div style="text-align: justify;">पर पापा, इक बात बताओ</div><div style="text-align: justify;">नहीं न होता सबका घर।</div><div style="text-align: justify;">क्या करते होंगे वे बच्चे</div><div style="text-align: justify;">जिनके पास नहीं है घर? (रमेश : 2015अ : 25)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बच्चों की सहज प्रवृत्ति है जिज्ञासा और सबसे घुल-मिल जाना। वे बहुत जल्दी ही नए-नए दोस्त बना लेते हैं। उन्हें ऐसा करना अच्छा भी लगता है। सच्चा दोस्त वही होता है, जो हमें अच्छे-बुरे से अवगत करा सके तथा बुरे वक्त में हमारा साथ निभाए। ऐसे दोस्त बहुत कम मिलते हैं। दोस्ती करना आसान है लेकिन उसे निभाना कठिन है। ‘सच्चा दोस्त’ शीर्षक कहानी भी इसका एक सुंदर उदाहरण है। ‘हर बच्चे को दोस्त बनाएँ’ शीर्षक कविता का यह अंश देखिए जिसमें इस बात को उजागर किया गया है -</div><div style="text-align: justify;">हम को तो अच्छा लगता है</div><div style="text-align: justify;">सबको दोस्त बनाना जी</div><div style="text-align: justify;">माँ कहती आसान नहीं पर</div><div style="text-align: justify;">सच्चा दोस्त बनाना जी। (रमेश : 2016अ : 44)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बच्चे इतने निर्मल होते हैं कि आस-पड़ोस के लोगों से रिश्ता जोड़ ही लेते हैं। इसी बात को ‘ताऊ-ताई’ शीर्षक कविता में देख सकते हैं -</div><div style="text-align: justify;">मैं पड़ोसी, लेकिन कहता</div><div style="text-align: justify;">उनको ताऊ-ताई</div><div style="text-align: justify;">कभी न देखी उनमें मैंने</div><div style="text-align: justify;">होती कभी लड़ाई। (रमेश : 2009 : 8)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दिविक रमेश लोक व्यवहार की बातें भी बहुत सहज और सरल शब्दों में बताते हैं। वे बच्चों को उपदेश नहीं देते, बल्कि ऐसा तरीका अपनाते हैं कि बच्चे खुद ब खुद समझ लें। ‘गिलहरी ने की मदद भालू की’ (यूक्रेन) शीर्षक कहानी में भालू अपने बड़े शरीर और ताकत के कारण घमंड से इतराता रहता था। लेकिन समय आने पर एक छोटी सी गिलहरी उसकी सहायता करती है। (रेमेश : 2016आ : 315)। जिन्हें हम छोटा, कमजोर और नासमझ समझकर हीन दृष्टि से देखते हैं, वे भी हमारे काम आ सकते हैं। अतः कभी भी किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। दिविक रमेश नन्हे बच्चे के मुँह से यह कहलवाते हैं कि एक ऐसे यंत्र का आविष्कार हो जिससे गाली को भी मीठी बातों में बदला जा सके -</div><div style="text-align: justify;">गाली को मीठी बातों में</div><div style="text-align: justify;">झट बदले, वह यंत्र बनाओ</div><div style="text-align: justify;">बुरा-बुरा सब अच्छा कर दे</div><div style="text-align: justify;">भैया, ऐसा यंत्र बनाओ।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दिविक रमेश खेल-खेल में प्रेरणात्मक बातें बताते हैं। ‘चतुराई का चमत्कार’ शीर्षक नाटक के माध्यम से वे यह संदेश देते हैं कि चोरी करके पेट पालने से अच्छा है मेहनत करके दो जून रोटी कमाना। (रमेश : 2016आ : 136)। मेहनत की कमाई शक्ति देती है। मेहनत करने से जो पसीना निकलता है, वह दुनिया का सबसे अनमोल रत्न है। ‘बौने के जूते’ (चेकोस्लोवेकिया) शीर्षक कहानी में भी उन्होंने रोचक ढंग से इसी बात को उजागर किया है। (रमेश : 2016आ : 303)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दिविक रमेश बहुत ही सरल शब्दों में खेल-खेल में बच्चों को मूल्य शिक्षा भी देते हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द इतने मधुर और कर्णप्रिय होते हैं कि कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वे उपदेश दे रहे हैं। कविताओं में लय, तुकबंदी का प्रयोग तो होता ही है, शब्दों तथा ध्वनियों की पुनरावृत्ति भी दिविक रमेश के बाल साहित्य में देखी जा सकती है। बाल कविताएँ ही नहीं बल्कि उनकी बाल कहानियाँ और नाटक भी रोचक लगते हैं। सब तरह के मनोभावों को भी वे सहज रूप से अभिव्यक्त करते हैं। चित्रात्मकता उनके बाल साहित्य की विशेषता है। उदाहरण के लिए ‘खरगोश का कलेजा’ (कोरिया) कहानी में वसंत ऋतु का मनोरम चित्रण देखें - “बसंत का समय था। पेड़-पौधे सब खुश थे। छिंयालय फूल (अज़ेलिया) मीठी महक उड़ेल रहे थे। तितलियाँ एक से दूसरे फूल पर मंडरा रही थीं। सुनहरे पीलक पक्षी अपने साथियों को पुकार रहे थे और घर की याद में बुलबुलें दिल को छूने वाला गीत गा रही थीं। अबाबील चहक रही थीं। मानो कह रही हो कि हम गरम दक्षिण से लौट आई हैं। (रमेश : 2016आ : 243)। उत्तरी अमेरिका और कोरिया में पाए जाने वाले अज़ेलिया के फूल के साथ-साथ पीलक पक्षी, बुलबुल, तितली, अबाबील चिड़िया आदि के बारे में रोचक जानकारी दी गई है। इसी वसंत को वे ‘आया वसंत’ शीर्षक कविता के माध्यम से इस तरह चित्रित करते हैं -</div><div style="text-align: justify;">हर पौधे को खूब सजाकर</div><div style="text-align: justify;">फूलों के झंडे फहराकर</div><div style="text-align: justify;">हमें नचाता, हमें झुमाता</div><div style="text-align: justify;">गीत गुनगुने हमें सुनाता</div><div style="text-align: justify;">आया वसंत, आओ नाचें</div><div style="text-align: justify;">प्रेम-भाव की पोथी बाँचें (रमेश : 2015आ : 30)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दिविक रमेश उपदेश नहीं देते पर कहीं न कहीं अपनी कविताओं और कहानियों में सूक्ति के रूप में इस बात को समझा ही देते हैं कि स्वस्थ चरित्र के निर्माण के लिए क्या करना चाहिए। उपर्युक्त कविता में उन्होंने अंत में इस ओर इंगित किया है कि प्रेम-भाव की पोथी पढ़ना चाहिए। यहाँ कबीर का दोहा याद आना स्वाभाविक है - ‘पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।‘ दिविक रमेश बाल साहित्य के माध्यम से रिश्ते-नातों की महत्ता के साथ-साथ बच्चों को वनस्पति और प्राणी जगत की सूचनाएँ भी देते हैं और चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक सीख भी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दिविक रमेश सृजन कार्य को बहुत महत्व देते हैं। उनकी बेचैनी को उन्हीं के शब्दों में जानना समीचीन होगा। वे कहते हैं, “मुझसे सृजन कभी भी ‘होमवर्क’ की तरह नहीं हुआ। कभी-कभार ऐसा समय भी आया जब मैं महीनों नहीं लिख सका। हालांकि लिखने की बेचैनी बनी रही। लिखा मुझसे तभी गया जब कोई रहस्यमय भीतरी दबाव अपने चरम पर पहुँचा। यह भीतरी रहस्यमय दबाव क्या है मैं नहीं जनता। यह कब क्यों बनता है, मैं नहीं कह सकता। हाँ, इतना जरूर है कि न लिख पाने की स्थिति मेरे लिए बहुत ही व्याकुल कर देने वाली भयावह स्थिति होती है।” (रमेश : 2016इ : 139)। वे यह मानते हैं कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निश्छलता, मासूमियत जैसी खूबियों की माँग करता है। इसे बाजारवाद की तरह प्राथमिक रूप से मुनाफे का काम समझ कर नहीं करना चाहिए। बाल साहित्यकार के सामने बाजारवाद के दबाव वाले आज के विपरीत माहौल में न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनौती है, बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की भी बड़ी चुनौती विद्यमान है। कोई भी अपने भीतर के शिशु को तभी बचा सकता है जब वह निरंतर बच्चों के बीच रहकर नए से नए अनुभव को खुले मन से आत्मसात कर सके। दिविक रमेश बाल साहित्य को मानव समाज के लिए अनिवार्य मानते हैं। बाल साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग और निष्ठा है। इसीलिए वे कहते हैं कि “बाल साहित्य सबके लिए होता है, केवल बच्चों के लिए नहीं। इसे मैं आज के मनुष्य के समाज के लिए अनिवार्य भी मानता हूँ, जैसे की साँस।” (रमेश : 2016आ : 7)। निष्कर्षतः दिविक रमेश के बाल साहित्य में बाल सुलभ मानसिकता को विविध रंगों में देखा जा सकता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><b>संदर्भ</b></span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1. रमेश, दिविक (2009). खूब ज़ोर से बारिश आई. दिल्ली : सरला</div><div style="text-align: justify;">2. रमेश, दिविक (2015 अ). एक सौ एक बाल कविताएँ. दिल्ली : मैट्रिक्स</div><div style="text-align: justify;">3. रमेश, दिविक (2015 आ). समझदार हाथी, समझदार चींटी. दिल्ली : ट्राइडेंट</div><div style="text-align: justify;">4. रमेश, दिविक (2016 अ). छुट्कुल-मुट्कुल बाल कविताएँ. नई दिल्ली : सस्ता साहित्य मंडल</div><div style="text-align: justify;">5. रमेश, दिविक (2016 आ). बचपन की शरारत. दिल्ली : आलेख</div><div style="text-align: justify;">6. रमेश, दिविक (2016 इ). यादें महकी जब. नई दिल्ली : किताबवाले</div><div style="text-align: justify;">7. सिंह, नामवर (2021). किताबनामा. सं. आशीष त्रिपाठी. नई दिल्ली : राजकमल</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9FnwKzmUYnHSZaI_RCXNyIi8O_F_cUMe8eVP45W2YGNhe76XDua_x5ke0bvHSNWylzw-HFzhMC6gfBryltEbPX9-b4KZbcLSooyRrHBhJYVMwWjY5sLQg11Z_nGpG-2mdaGpbOlBWxou0YTMe0ErKl-uHzPVRq1Lys-RASu8-hKdCd7utKIllzfa4/s1600/1.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1258" height="400" 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src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEHWmWgZP6Rgx35-mq45KCQ7_lRZgX7vL-bOpEPFoENa5YeSikxdk8IEAjMjI1EaCIzQpGg7WV3ohiqgnnh1lcOYv3jlHA4_fgUYAzxLgAzwvdlTydN3eYC00r9-ps5yJ_3b5CCy0YDl4EAemZ0igwAQvHfCm2HRWY-Hq4k_M0fyzjf4Q9fMYFr5y-/w300-h400/4.jpeg" width="300" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9mDcN5awXL_Ch3MO5mplLeCUzJqC-LrNRpH4hc0i268SfEwvG5_cAcLNtBFimCHHDKD7sUx6J3qjyolz8nO8j9rbZ47NI2eWkAUikg9A9wjN0GYbPQk4aZFbGadFPZRfAkyB1CuagRbGETkjH-QEiH2joo2Ed8K0DT47F2-fx5jwC2UyO3iiIV5Pd/s1600/5.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1239" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9mDcN5awXL_Ch3MO5mplLeCUzJqC-LrNRpH4hc0i268SfEwvG5_cAcLNtBFimCHHDKD7sUx6J3qjyolz8nO8j9rbZ47NI2eWkAUikg9A9wjN0GYbPQk4aZFbGadFPZRfAkyB1CuagRbGETkjH-QEiH2joo2Ed8K0DT47F2-fx5jwC2UyO3iiIV5Pd/w310-h400/5.jpeg" width="310" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br />Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-83551777586241662992023-01-29T21:50:00.000+05:302023-01-29T21:50:02.636+05:30 भारत की एकता की भाषा है हिंदी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglE_SvbAIM_TxquJSdiIqFCwGkui0pO66a8JuUNXv9mSFMSNHKvDWfLGAzi54J1aZXymKVxeuYgyB42ggK3T4KrUSsBhfc_3Ti4l4bWi6ifMO9qGTWot84D6n9nVFr-ELoZMDH-g7nKhBytMN4bA9B8AzW7p8Ot__zSZ9si4CFtlQiumh6HJ3usEQh/s1000/hindi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1000" data-original-width="1000" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglE_SvbAIM_TxquJSdiIqFCwGkui0pO66a8JuUNXv9mSFMSNHKvDWfLGAzi54J1aZXymKVxeuYgyB42ggK3T4KrUSsBhfc_3Ti4l4bWi6ifMO9qGTWot84D6n9nVFr-ELoZMDH-g7nKhBytMN4bA9B8AzW7p8Ot__zSZ9si4CFtlQiumh6HJ3usEQh/s320/hindi.jpg" width="320" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भाषा सिर्फ आदान-प्रदान का साधन नहीं है, बल्कि वह प्रयोक्ता समाज की अस्मिता है। भाषा के अभाव में तो हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। भाषा ही वह माध्यम है जिसके कारण हम समाज से जुड़ते हैं। हिंदी भाषा ने आज अपना स्वरूप ऐसा बनाया है कि उसे सबको स्वीकारना ही पड़ा। ‘वह एक कोने की खड़ीबोली नहीं है। वह पुरइन के खड़े पत्ते की तरह से पूरे सरोवर में छा जाने वाली भाषा बन गई है।’ (विद्यानिवास मिश्र, साहित्य के सरोकार पृ.154)। भाषा व्यवहार में एकरूपी या समरूपी नहीं होती। भाषा की यह विविधता उसकी सजीवता का लक्षण है। इसी सजीवता का प्रयोग करके रचनाकार अपनी रचना में रंग लाता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ध्यान देने की बात है कि हिंदी की शक्ति उसकी जनपदीय भाषाएँ हैं। इनसे हिंदी निरंतर समृद्ध होती रहती है। हिंदी को सींखचों में जकड़कर रखना संभव नहीं है। शुद्धतावादी सिद्धांत काम नहीं करेगा। ‘भाषा की प्रवाहमयता की कीमत चुकाकर शुद्धता की बात’ सोचना मूर्खता है (विद्यानिवास मिश्र)। ऐसी शुद्धता किस काम की जिसमें न कोई प्रवाह है और न ही संप्रेषण। हिंदी में वह शक्ति निहित है जिसके कारण वह अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करती चलती है। इससे हिंदी की अस्मिता विस्तृत होती जा रही है। इतना ही नहीं, हिंदी में वह शक्ति है जो एक भाषा को दूसरी भाषा से और एक प्रांत को दूसरी प्रांत से जोड़ती है। हिंदी की एक सीमा में राजस्थान और पंजाब है तो दूसरी सीमा में बिहार। राजस्थान से बिहार तक के लोग अपने घरों में राजस्थानी, ब्रज, बुन्देली, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि क्षेत्रीय भाषाएँ बोलते हैं, लेकिन व्यापक रूप से इनकी मातृभाषा हिंदी है। इन सबकी सामाजिक भाषा हिंदी है। शिक्षा से लेकर कामकाज तक हिंदी में ही होता है। यही विलक्षण बात है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे आसानी से सब समझ सकते हैं। मिथिला का कोई आदमी पंजाब जाए तो उसे पंजाबी समझने में दिक्कत हो सकती है और इसी प्रकार गुजरात का कोई आदमी असम जाए, तो असमिया समझने में दिक्कत हो सकती है और असम के लोगों को गुजराती समझने में, लेकिन हिंदी से काम चला सकते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है, जहाँ उद्योग फैलता है, वहाँ अलग भाषा समुदाय के लोग आकर बस जाते हैं। इन सबके बीच व्यवहार की भाषा हिंदी बन सकती है। इसीलिए महात्मा गांधी ने भी हिंदी को अपनाने पर बल दिया था। यह एक ऐसी भाषा है जो दूसरी भाषाओं को भी साथ लेकर चलती है। इसीलिए आजादी से पहले हिंदी को अंतःप्रांतीय संपर्क के लिए प्रयोग करने की बात भी आई। अनेक नेताओं ने इसका समर्थन भी किया। उनमें वे नेता प्रमुख थे, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं बल्कि बांग्ला थी। ‘हिंदी भारत की एकता की भाषा’ (रामधारी सिंह 'दिनकर') है। यह इस बात से भी प्रमाणित हो जाता है कि भारत में एक भाषा का साहित्य दूसरी भाषा में अनुवाद के माध्यम से आसानी से पहुँच रहा है और यह काम सबसे ज्यादा हिंदी के माध्यम से हो रहा है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हिंदी प्रचार-प्रसार आंदोलन का अपना एक महत्व है। यह स्वतंत्रता आंदोलन का ही एक प्रमुख अंग रहा। उस समय महात्मा गांधी ने यह महसूस किया कि जब तक देश के सभी नागरिक एक नहीं होंगे, आपस में संप्रेषण स्थापित नहीं करेंगे तथा समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर नहीं करेंगे तब तक आजादी की लड़ाई सफल नहीं हो सकती। समाज की विसंगतियों को दूर करने के लिए उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह का रास्ता अपनाया तो आम जनता के बीच संप्रेषण स्थापित करने के लिए एक ऐसी भाषा को सीखने पर बल दिया जिसे सब आसानी से समझ सकते हैं और बोल सकते हैं। यह भाषा संपूर्ण हिंदुस्तान की भाषा है – ‘हिंदी’। उन्होंने हिंदी का आंदोलन प्रारंभ किया। वस्तुतः वे हिंदी के माध्यम से देशवासियों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द कायम करना चाहते थे। गांधी जी से काफी लोग प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप हिंदीतर क्षेत्रों में लाखों लोगों ने हिंदी सीखकर हिंदी का परचम फहराया। “हिंदी प्रचार का काम देशभक्ति का ही काम है। हिंदी को हम इसलिए ऊपर उठा रहे हैं कि उसके साथ सभी भाषाओं का उत्थान हो। हिंदी एक प्रतीक है। असल में हमारा उद्देश्य सभी भाषाओं को ऊपर उठाना है, जिससे यह पूरा देश अपनी भाषाओं में सोच सके और सारी मनुष्य-जाति के लिए भारत की परंपरा में जो संदेश निहित है, उसे अपनी भाषाओं में उछाल सके।” (रामधारी सिंह 'दिनकर', संस्कृति, भाषा और राष्ट्र, पृ. 200)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पड़ने लगती है पीयूष की शिर पर धारा।</div><div style="text-align: justify;">हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।</div><div style="text-align: justify;">बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।</div><div style="text-align: justify;">कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।</div><div style="text-align: justify;">आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नाम ही।</div><div style="text-align: justify;">इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही। (अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’)</div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-89663338730579837482023-01-29T21:21:00.002+05:302023-01-29T21:21:32.433+05:30 मधुकरी के कवि : नरेश मेहता<div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinM2oWmv1ixpl4eDq_GQh29Wmgf-ntAKRvll0L-XIoEJMqQB2iFsmXERwxtvAbZvKaMUFs3DwWplDrMiRbSanUQKBLMkipRia8aSjan8vnxLpyRZPU-wdD05gfAf93l1lPVC0ifGWCXnhZFt7tpetoJIy-zd_RVzEn3XpZQ1Yi4-VrdVBnIWTXl1P9/s192/naresh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="192" data-original-width="192" height="192" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinM2oWmv1ixpl4eDq_GQh29Wmgf-ntAKRvll0L-XIoEJMqQB2iFsmXERwxtvAbZvKaMUFs3DwWplDrMiRbSanUQKBLMkipRia8aSjan8vnxLpyRZPU-wdD05gfAf93l1lPVC0ifGWCXnhZFt7tpetoJIy-zd_RVzEn3XpZQ1Yi4-VrdVBnIWTXl1P9/s1600/naresh.jpg" width="192" /></a></div><br />वहन करो</div><div style="text-align: justify;">ओ मन! वहन करो,</div><div style="text-align: justify;">सहन करो पीड़ा!!</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सृष्टिप्रिया पीड़ा है</div><div style="text-align: justify;">कल्पवृक्ष–</div><div style="text-align: justify;">दान समझ, शीश झुका</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">स्वीकारो–</div><div style="text-align: justify;">ओ मन करपात्री! मधुकरि स्वीकारो!!</div><div style="text-align: justify;">वहन करो, सहन करो,</div><div style="text-align: justify;">ओ मन! वरण करो पीड़ा!!</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">ये पंक्तियाँ मधुकरी के कवि नरेश मेहता के अवचेतन को अंकित करने में सक्षम हैं। नरेश मेहता की कविताओं में इस बिंब को अनेक स्तरों पर देखा जा सकता है। वे परंपरा और आधुनिकता को एक साथ लेकर चलने वाले कवि हैं। वे एक सजग प्रयोगशील सर्जक के रूप में अपने आपको प्रतिष्ठित कर चुके थे। करुणाशंकर उपाध्याय का कहना है कि “नरेश ने काव्य के क्षेत्र में ‘दूसरा सप्तक’ से लेकर ‘मेरा समर्पित एकांत’ तक की यात्रा की है तो उपन्यास में ‘प्रथम फाल्गुन’ से लेकर ‘वह नदी यशस्वी है’ के किनारे तक जा पहुँचा है।” (आधुनिक कविता का पुनर्पाठ, पृ.175)। इस यात्रा के दौरान नरेश मेहता कहानियों और नाटकों से भी गुजरे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘बनपाखी सुनो’, ‘बोलने दो चीड़ को’ में संकलित कविताओं में कवि मन प्रकृति के निकट दिखाई देता है। प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक उपमान उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं। ‘बाँसों के अनंत वृक्षों वाले/ उस अरण्य में’ कवि अपने आपको एक अनाम वानीर-वृक्ष घोषित करता है। उनकी कविताओं में जहाँ पीले फूल कनेर के दिखाई देते हैं वहीं दूसरी ओर नीलम वंशी से कुंकुम के स्वर गूँज उठते हैं। वसुधा मंत्रोच्चार से वासंती रथ का आह्वान करती है तो अमराई में दमयंती-सी पीली पूनम काँप उठती है। शॉल-सा कंधों पर पड़ा फाल्गुन चैत्र-सा तपने लगता है तो बैलों की घंटियाँ बोलने लगती हैं। पिघलते हिमवानों के बीच दूब का वर्ण खिल उठता है, इंद्रलोक की सीमा केसर के जल से सिंचित हो उठतीहै। उदयाचल से किरन-धेनुओं को हाँकता हुआ प्रभात का ग्वाला दीखता है। उनकी कविताओं में वैश्वानरी-गंध, गायत्री छंद, सावित्रियों के अरण्य-रास, औषधियों का आचमन, हिरण्यगर्भ, आकाशगंगा, पराब्रह्माण्ड, महापिण्ड आदि अनेक दार्शनिक एवं मिथकीय बिंबों को भी देखा जा सकता है। वे वस्तुतः प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से मनुष्य को गतिशील होने की प्रेरणा देते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मनुष्यता की रक्षा कवि नरेश मेहता का परम कर्तव्य है। वे हर व्यक्ति के भीतर के क्रंदन को लिपिबद्ध करना चाहते हैं। कमल किशोर गाइन्का से बात करते हुए उन्होंने कहा कि “विज्ञान और राजनीति ने मनुष्य को अकेला छोड़ दिया है। आज मनुष्य की जगह उत्पादन को ‘रिफाइंड’ करने की चेष्टा की जा रही है। इस तथाकथित आधुनिकता ने मनुष्य को न तो उदात्त बनाया है और न आनंद प्रदान किया है।” (मेरे साक्षात्कार, पृ. 173)। वे यही मानते थे कि सभी मानवीय दुखों का मूल कारण भ्रष्ट राज्य व्यवस्था है – “मानवीय उदात्तताओं और करुणा के प्रतीक/ धर्म के प्रतिपालक नहीं हो सकते।”<br /></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-92070923582078498282023-01-29T21:00:00.001+05:302023-01-29T21:01:08.273+05:30प्रतीक्षा करो पुनः मनुष्य होने की : नरेश मेहता<div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: right;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUTTIinPGzMI5UQ7_i6lHIo404ugqJOuywNgwsSGxV8miozQn0wjnOsKUfA3h3r2EVt5iSuSNnmmybHNBv0uA0Q7kR6QiqWgi0Zkw2M9lMFlctz2h_3T_CLsRybnKvhCHNRtrcAmO4QmIxclQ6JZXHIFug2UIhZoP80elmDz0XMqZl1pdoh7ziJ17o/s192/naresh.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="192" data-original-width="192" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUTTIinPGzMI5UQ7_i6lHIo404ugqJOuywNgwsSGxV8miozQn0wjnOsKUfA3h3r2EVt5iSuSNnmmybHNBv0uA0Q7kR6QiqWgi0Zkw2M9lMFlctz2h_3T_CLsRybnKvhCHNRtrcAmO4QmIxclQ6JZXHIFug2UIhZoP80elmDz0XMqZl1pdoh7ziJ17o/w200-h200/naresh.jpg" width="200" /></a></div>सामने वाला यदि आवेग में</div><div style="text-align: justify;">पशु हो गया हो</div><div style="text-align: justify;">तो विवेक के रहते<br /></div><div style="text-align: justify;">प्रतीक्षा करो</div><div style="text-align: justify;">उसके पुनः मनुष्य होने की</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यह विचार नरेश मेहता का है। वे पीड़ित और शोषित मानव के बारे में सोचते थे। महलों में रहने वालों से उनके कवि का नाता नहीं। वे अपनी अनुभूतियों और अनुभवों के विस्तृत फलक को अपनी कृतियों में अंकित करते हैं। उनकी रचनाओं में मानवता के प्रति प्रेम और जीवन की वास्तविकताओं को देखा जा सकता है। उनके अनुसार ‘विवेकहीनता मनुष्य को पशु बना देता है’। विवेकशून्यता व्यक्ति के भीतर विचारशून्यता का अंधा कारागार निर्मित कर देती है। विडंबना है कि ‘व्यवस्था का मुकुट धारण करते ही किसी भी व्यक्ति का मनुष्यत्व नष्ट हो जाता है’।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">नरेश मेहता मानवीय गुणों को महत्व देने वाले रचनाकार थे। वे इस बात पर बल देते थे कि इतिहास मानवीय उदात्तता से लिखा जाना चाहिए, न कि खड़ग से। उन्होंने ‘प्रवाद पर्व’ में कहा है कि ‘मानवीय स्वातंत्र्य/ मानवीय भाषा और/ मानवीय अभिव्यक्ति के/ प्रतिइतिहास का सामना/ वैसे ही/ मानवीय प्रतिगरिमा के साथ/ करना होगा, लक्ष्मण!/ प्रतिइतिहास को इतिहास से नहीं/ विनय से स्वीकारना होगा।’ यदि कहें कि नरेश मेहता मानववादी रचनाकार हैं तो गलत नहीं होगा। वे ‘प्रतिबद्धता’ शब्द को महज एक नारेबाजी के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि प्रतिबद्धता एक राजनैतिक शब्द है। अतः वे इस शब्द से जुड़ने के लिए तैयार ही नहीं थे। डॉ. कमल किशोर गोयनका से बात करते समय उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि “मनुष्य की नियति यही है कि वह मनुष्यता और मिट्टी के आकर्षण में बँधा रहे। पृथ्वी और उस पर रहने वाला हमारा मानवीय समाज हमारी नियति है, अतः उसके लिए ‘प्रतिबद्धता’ जैसी एकांगी नारेबाजी की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं किसी भी कीमत पर ‘प्रतिबद्धता’ शब्द से जुड़ने को तैयार नहीं हूँ।” (नरेश मेहता, मेरे साक्षात्कार, पृ. 173)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">हम नरेश मेहता के कवि रूप से भली भाँति परिचित हैं। उनके गद्यकार रूप के बारे में प्रायः बहुत कम चर्चा होती है। जिस प्रकार कवि के रूप में वे सफल हुए, उसी प्रकार गद्यकार के रूप में भी वे सफल थे। वे लेखन को अनभिव्यक्त आइसबर्ग की टिप मानते हैं जो हमें दिखाई देती है। उनकी मान्यता है कि “जीवन की अनुभूति या अनुभवों के अतल जल के अंधकार में गहरे पैठे आइसबर्ग का वह विशाल वास्तविक स्वत्व हम कभी नहीं देख पाते हैं जो उस टिप को निरभ्र व्यक्त किए होता है। निश्चित ही वह टिप नहीं बल्कि ठंडे, अगम जलों में डूबा पसरा हिमखंड ही आइसबर्ग का वास्तविक सृजनात्मक स्वत्व है।” (नरेश मेहता, हम अनिकेतन, पृ.9)। सृजनात्मक क्षमता मनुष्य के भीतर जल में डूबा हुआ वह हिमखंड है जो दिखाई नहीं देता। उसे व्यक्त होने के लिए सही वातावरण चाहिए। ‘जीवन से अनाविल रूप में निबद्ध यह सृजनात्मकता’ ही नरेश मेहता के लेखे जीवन है जिसे धारण करना मनुष्य की नियति है, और भोगना प्रकृति। लेकिन जीवन की सृजनात्मक सत्ता या स्वरूप को ‘पूर्ण रूप’ से अभिव्यक्त करना असंभव है। सृजन और लेखन के बीच निहित सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि “जीवन की अनभिव्यक्त तथा अकथनीय सत्ता या स्वरूप, सृजन है। सृजन अनभिव्यक्त सत्ता है। लेखन, सृजन का संलाप रूप है। इसलिए सृजन को नहीं बल्कि लेखन को भाषा, अभिव्यक्ति, श्रोता, देश और काल सभी कुछ चाहिए होता है।” (वही, पृ.28)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मनुष्य का जीवन अनुभव आधारित है। अनुभव देश-काल-वातावरण से परे होता है। वह तो बस घटित होता है। “वह तो एक निपात की भाँति केवल घटित होना जानता है। वह न तो सांसारिक है, न किसी प्रकार का निषेध।” (वही, पृ.25)। नरेश मेहता साहित्य को अपनी दृष्टि से समझना चाहते थे और अपना एक अलग पथ निर्मित करना चाहते थे। उनका जीवन संघर्षमय रहा। अतः वे जीवन के मूल्य को पहचानते थे। उनकी रचनाओं से गुजरते समय इस बात को महसूस किया जा सकता है।</div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-90974050574676646722022-12-23T23:27:00.001+05:302022-12-23T23:27:07.149+05:30 चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ - रामावतार त्यागी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjql8Tw1fUAjXJpdWOwxBokBSHOpIYBUBGYGouUxFSlveTRuI9jD2bI8P9H_bAcCga49zLcIqU7pymSKEmXXYhXY4om2c6dsnXxJW8bGCNv09IPChYGCw5weTVdBZwJMuYhDB5VLEduhzBQbvVrmAS6l2pM20UoLhhaAIW1Agy_0jUSmpd68BwSIts2/s230/ram%20.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="230" data-original-width="223" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjql8Tw1fUAjXJpdWOwxBokBSHOpIYBUBGYGouUxFSlveTRuI9jD2bI8P9H_bAcCga49zLcIqU7pymSKEmXXYhXY4om2c6dsnXxJW8bGCNv09IPChYGCw5weTVdBZwJMuYhDB5VLEduhzBQbvVrmAS6l2pM20UoLhhaAIW1Agy_0jUSmpd68BwSIts2/w310-h320/ram%20.jpg" width="310" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #990000;">(ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है, रामावतर त्यागी)</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इन पंक्तियों के रचनाकार हैं सुप्रसिद्ध गीतकार रामावतार त्यागी (17 मार्च, 1925-12 अप्रैल 1985)। उनका जन्म मुरादाबाद जिले (उत्तर प्रदेश) के कुरकावली ग्राम में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा 10 साल की उम्र में शुरू हुई थी। हिंदी साहित्य जगत में वे ‘पीड़ा के गायक’ के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन वे आस्था और जिजीविषा के कवि भी हैं, जो इस दुनिया को बेहतर बनाने के सपने देखा करते थे। रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि “दर्द की छोटी-सी टीस, मगर, पता नहीं, वह कहाँ से उठती और कहाँ जाकर विलीन हो जाती है। उमंग का एक मतवाला झोंका जो आता तो बड़ी नरमी से है, मगर, सारी वाटिका के भीतर एक सिहरन-सी दौड़ जाती है। किसी नन्हीं उंगली की एक हल्की-सी चोट पड़ती तो एक तार पर है, किंतु जीवन-वीणा के सारे तार एक साथ झनझना उठते हैं।” (रामधारी सिंह दिनकर, भूमिका, आठवाँ स्वर, रामावतार त्यागी, पृ. 6)। जी हाँ, रामावतार त्यागी की कविताओं में वह शक्ति है जो पाठकों के हृदय को झंकृत कर देती है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी की काव्य कृतियों में नया खून (1953), आठवाँ स्वर (1958), मैं दिल्ली हूँ (1959), सपना महक उठे (1965), गुलाब और बबूल वन (1973), गाता हुआ दर्द (1982), लहू के चार कतरे (1984), गीत बोलते हैं (1986, मरणोपरांत प्रकाशित) आदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने महाकवि कालिदास रचित ‘मेघदूत’ का काव्यानुवाद भी किया और कविता के अलावा उन्होंने उपन्यास (समाधान और राम झरोखा), पत्र साहित्य (चरित्रहीन के पत्र) और कहानियाँ (राष्ट्रीय एकता की कहानियाँ) भी रचीं। समाज (मासिक) और प्रगति (त्रैमासिक) पत्रिकाओं का संपादन भी किया।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भावुक गीतकार रामावतार त्यागी अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे। उनके गीतों में उनके जीवन के अनुभवों को देखा जा सकता है। वे अपनी अनुभूतियों को गीतों में पिरोते हैं। उनके व्यक्ति रूप और कवि रूप में से किसी एक की उपेक्षा करके दूसरे को समझ ही नहीं सकते। कहने का अर्थ है कि दोनों एक-दूसरे में इस तरह समाहित हैं कि एक के अभाव में दूसरा अधूरा लगेगा। उनके व्यक्तित्व के संबंध में डॉ. शेरजंग गर्ग लिखते हैं कि “पहली मुलाकात में कठिन-सा लगने वाला व्यक्तित्व जब खुल जाता था, तो बहुत जल्दी आत्मीय बन जाता था। बात-बात पर जुमले कसना, बहुत धीमे-धीमे मुस्कराते हुए हँसना और वेशभूषा में कतई सामान्य-सा लगना त्यागी के व्यक्तित्व को बहुत असामान्य बनाते थे।” (सं. शेरजंग गर्ग, भूमिका, हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी, पृ.11)। वे यह भी कहते हैं कि उनके काव्य पाठ में भी कोई विशेष आकर्षण नहीं होता था, लेकिन उनकी कविताओं और गीतों में निहित भावुकता, पीड़ा और संघर्ष की बानगी अंतर्मन को झकझोरने में समर्थ थीं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी हमेशा नए प्रयोग करते हैं। डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय यह मानते हैं कि त्यागी की कविताओं में मानव मूर्ति मुस्कुराकर उभरती है। वे आगे यह कहते हैं कि इसके निर्माण में समष्टिमूलक नए मानव मूल्य हैं। (अति-आधुनिक हिंदी काव्य में यथार्थवाद, विश्वंभरनाथ उपाध्याय, समालोचक, फरवरी 1959, पृ.117)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">त्यागी जी कह उठते हैं कि-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मेरे गीत रहें जीवन भर कारावास भोगतें,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">लेकिन मैं गुमराह स्वर्ण को अपनी कलम नहीं बेचूँगा!</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उक्त पंक्तियों को पढ़ते समय भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ’ अनायास ही स्मरण हो आई। उसमें मिश्र जी कहते हैं - 'जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।/ मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ;/ मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ।’ कहा जाता है कि मिश्र जी ने पश्चात्ताप स्वरूप इन पंक्तियों को रचा था। साहित्य की दुनिया में यह कविता आत्म व्यंग्य का उदाहरण बन गई। त्यागी जी भी आहत होकर पलटवार के रूप में लिखा है -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सुन लो गीत बेचने वाले</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">ओ सौदागर, ओ व्यापारी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">अपने भरे भरे लोचन से तुमने कितने गीत लिखे हैं?</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">शब्दों के रेशमी नमूने</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">देख लिए अब माल दिखाओ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">कोई गीत जड़ें हो तुमने</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जिस पर तीनों कला दिखाओ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">बातें करते हुए पवन से तुमने कितने गीत लिखे हैं?</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी को जो नजदीक से जानते हैं, वे उनके व्यक्तित्व के बारे में सटीक रूप से कह सकते हैं। वे अक्खड़, तुनक मिजाज और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अतः वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मेरी खुशियों को चाहे जब जिंदा मरघट में दफना दो,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">लेकिन मैं बदचलन पतन को अपना जनम नहीं बेचूँगा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">दीपक बिक सकता है जिसका</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">अंतर ज्योतिर्मान नहीं है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पर अंगारे को खरीदना</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">दुनिया में आसान नहीं है।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ यह स्वीकार करते हैं कि उन्हें रामावतार त्यागी के गीत बेहद पसंद हैं। “उसके रोने, उसके हँसने, उसके बिदकने और चिढ़ने, यहाँ तक कि उसके गर्व में भी एक अदा है, जो मन को मोह लेती है।” (भूमिका, आठवाँ स्वर, रामावतार त्यागी, पृ. 6)। त्यागी की कविताओं पर चर्चा करते हुए दिनकर जी ने तीन बातों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। निःसंदेह ये बातें रामावतार त्यागी की कविता को समझने में सहायक सिद्ध होंगी -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">● महादेवी और बच्चन ने जो परंपरा चलाई वह जनता को अब भी पसंद है। वही परंपरा नीरज, त्यागी, वीरेंद्र, राही आदि कवियों के भीतर से अपना प्रसार कर रही है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">● बच्चन तक हिंदी गीतों के छंद केवल हिंदी के छंद से लगते थे, अब वे उर्दू के पास पहुँच रहे हैं। भाषा भी इन गीतों की हिंदुस्तानी रूप ले रही है। कहाँ है हिंदी में रिवाइवलिज़्म? यह तो रिवाइवलिज़्म के ठीक विपरीत चलने वाली धारा है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">● तीसरी बात यह है कि जिस ओर से प्रयोगवादी कवि अपना नूतन प्रयोग कर रहे हैं, उसी ओर से इस पीढ़ी के अनेक नव कवि गीतों में अपना अंतर उंडेल रहे हैं। यह ठीक है कि नए आलोचकों ने अपनी आशा प्रयोगवाद से बाँध रखी है, किंतु, जनता का प्रेम आज भी इन गीतों पर ही बरस रहा है। (रामधारी सिंह दिनकर, भूमिका, आठवाँ स्वर, रामावतार त्यागी, पृ.6-7)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी के गीतों को ध्यान से पढ़ने पर यह बात स्पष्ट होती है कि वे दुनिया वालों को चुनौती दे रहे हैं। वे समाज के जटिल बंधनों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध हैं। वे कहते हैं -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मैं तो तोड़ मोड़ के बंधन</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">अपने गाँव चला जाऊँगा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">तुम आकर्षक संबंधों का,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">आँचल बुनते रह जाओगे।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">वस्तुतः हम सब प्रेम के दो पक्ष - वियोग और संयोग - के बारे में काफी पढ़ चुके हैं। मध्यकालीन कविताओं में इन दोनों रूपों को देख भी चुके हैं। पर प्रेम का एक और पक्ष है - विश्व शांति का। जिंदगी से प्रेम करने वाला व्यक्ति युद्ध का विरोध अवश्य करेगा, लेकिन जहाँ युद्ध अनिवार्य है वहाँ वह जरूर गुहार लगाएगा, जनता को चेताएगा यह कहकर कि ‘लेकिन युद्ध तो अनिवार्य है।’ रामावतार त्यागी का संवेदनशील हृदय उस जन-मानस के साथ है जो सबके लिए अन्न पैदा करता है, पर खुद दो जून रोटी के लिए कर्ज के तले दब जाता है। ‘किसान दिवस’ (23 दिसंबर) पर लिखी उनकी एक कविता का अंश देखें -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जुलूसों और नारों से।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">प्रदर्शन या प्रचारों से,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">न कोई देश जीता है,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सभाएँ बंद कर, चल खेत में या कारखानों में,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सिपाही के लिए कपड़े, जवानों के लिए रोटी,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सभाएँ बन नहीं सकती, लगी है जान की बाजी,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">यह तो वक्त है कुछ काम कर, कुछ काम कर प्यारे,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">विवादों को उठाने से,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">न कोई देश जीता है</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी अपने अनूठे तेवर और अंदाज के लिए जाने जाते हैं। वे निराशा की स्थिति में भी आशा का संचार करवाना चाहते हैं। इसीलिए कह गए -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">इक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी के गीतों में उनके जीवन-दर्शन को भी देखा जा सकता है। इनके अलावा किसी और कवि या गीतकार यह कहने का साहस नहीं कर पाया कि</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">और बर्बाद किया क़ौम के अय्याशों ने</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">तेरे दामन में बस मौत से ज़्यादा क्या है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘जिंदगी और तूफान’ फिल्म के गीत ‘ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है’ ने रामावतार त्यागी की प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए थे। कहा जाता है कि त्यागी ने इसके बाद फिल्मों के लिए गीत लिखना स्वीकार नहीं किया। फिक्र तौंसवी का यह कथन उल्लेखनीय है कि “त्यागी ने फिल्मी दुनिया को एक हसीन और दिलचस्प गीत देकर तलाक दे दिया। कहने लगा, हम शायर हैं भड़भूँजे नहीं है। और बंबई का फिल्म स्टार सौदागरों का स्टार है। वह गुड, बेसन, चीनी, मूँगफली और शायरी सबको मार्केट का माल समझते हैं। मैं अब कभी उधर का रुख नहीं करूँगा।” (सं. शेरजंग गर्ग, हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी, पृ. 7)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कहने की जरूरत नहीं कि दर्द किसी भी व्यक्ति को इस तरह माँजता है कि वह औरों के दुख-दर्द को समझने में समर्थ हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे उनकी पीड़ा के सामने अपनी पीड़ा बहुत छोटी नजर आती है-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">हारे थके मुसाफिर के चरणों को धोकर पी लेने से</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मैंने अकसर यह देखा है मेरी थकन उतर जाती है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">कोई ठोकर लगी अचानक जब-जब चला सावधानी से</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पर बेहोशी में मंजिल तक जा पहुँचा हूँ आसानी से</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">रोने वाले के अधरों पर अपनी मुरली धर देने से</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मैंने अकसर यह देखा है, मेरी तृष्णा मर जाती है॥</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने रामावतार त्यागी को ‘गीतों के राजकुमार’ कहकर संबोधित किया है। सच में वे गीतों के राजकुमार ही हैं। उन्होंने नए समाज के निर्माण में अपनी भूमिका को पहचान लिया था -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ;</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मत बुझाओ!</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">×××</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मैं जहाँ धर दूँ क़दम वह राजपथ है;</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मत मिटाओ!</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">×××</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मत सुखाओ!</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मैं खिलूँगा, तब नई बगिया खिलेगी!</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी के गीतों के संबंध में रमेश गौड़ कहते हैं कि “त्यागी के गीत किसी व्यक्ति विशेष का विलाप न होकर पूरे समाज की आज की स्थिति को वाणी देते हैं। और जो लोग मुझसे सहमत नहीं हैं, उनसे अत्यंत विनम्र शब्दों में पूछना चाहता हूँ कि जब वह कहता है, ‘ठोकर सह बोलूँ नहीं इतना मुझे संयम न दो’ या ‘मेरे अधर न कम झुलसे हैं मेरी प्यास न हरगिज कम हैं’ तो क्या वह एक व्यक्ति के रूप में बोलता है?” (सं. शेरजंग गर्ग, हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी, पृ.9)। सच भी है, उनके गीत व्यक्तिगत गाथा नहीं, बल्कि ‘जिंदगी निर्माण की जीवन-कथा है।’</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी के गीतों में मानव जीवन से जुड़े तमाम आयामों को देखा जा सकता है। एक ओर उनके गीतों में शहर का कोलाहल है तो दूसरी ओर गाँव की स्मृतियाँ -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">तन बचाने चले थे कि मन खो गया</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">एक मिट्टी के पीछे रतन खो गया</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">घर वही, तुम वही, मैं वही, सब वही</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">और सब कुछ है वातावरण खो गया</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">यह शहर पा लिया, वह शहर पा लिया</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">गाँव का जो दिया था वचन खो गया</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">रामावतार त्यागी यह जानते हैं कि इस संसार में मनुष्य को भी बेजान वस्तु की तरह खरीदने की होड़ लगी हुई है। ऐसे में मनुष्य का ईमान डगमगाने लगेगा तो आश्चर्य की बात नहीं है। पर त्यागी जी कहते हैं -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">दूकानों में होड़ लगी है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">ईमानों को खरीदने की</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">रेगिस्तानों ने जिद पकड़ी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">उद्यानों को खरीदने की</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मेरे दर्पण को यदि संभव हो तो खंड खंड कर डालो</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">लेकिन मैं तन की इच्छा पर मन का नियम नहीं बेचूँगा।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">त्यागी जी के गीतों में जहाँ एक ओर पर-दुख कातरता है, मनुष्यता है, संवेदनशीलता है, वहीं दूसरी ओर उनके गीतों में आस्था और जिजीविषा है। कवि का आत्मविश्वास यह कहने में संकोच नहीं करता कि-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">काम अपने पाँव ही आते सफर में</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नजर में</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">हर लहर का कर प्रणय स्वीकार</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">त्यागी जी की कविताओं में जीवन संघर्ष के साथ-साथ भ्रष्ट तंत्र के प्रति विद्रोह भी मुखरित है। जहाँ मानव विरोधी शक्तियाँ प्रबल होती जा रही हैं वहाँ गीतकार बेईमान समय के सामने अपना अहं नहीं बेचना चाहता और दृढ़ संकल्प लेता है, यह कहकर कि-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मेरे सपनों को सूली पर लटका दो तुम बड़ी खुशी से</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पर मैं बेईमान समय को अपना अहं नहीं बेचूँगा।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">×××</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">सूनी काल कोठारी में ही सारी उम्र बिता दूँगा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">लेकिन किसी मोह को अपने कवि का धरम नहीं बेचूँगा।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">समाज में चारों ओर व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं को देखकर रामावतार त्यागी आक्रोश से भर उठते हैं और घोषित करते हैं -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">देश के समुद्र में बूँद-बूँद डाल दो</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">दुश्मनों को देश की जमीन से निकाल दो</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">तेज और भाइयो तेज करो आग को</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">आंधियाँ न सोख लें देश के चिराग को</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">भाल से खरोंच दो स्याह-स्याह दाग को</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">नाच-नाच युद्ध में झूम-झूम ताल दो,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">दुश्मनों को देश की जमीन से निकाल दो</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मानव मन की गहन अनुभूतियों को गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाले रामावतार त्यागी जिजीविषा और आस्था के कवि हैं। वे आत्मविश्वास के साथ मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे और आजीवन एक ऐसे इंसान की तलाश करते रहे जो-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मन समर्पित, तन समर्पित</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">और यह जीवन समर्पित।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कहना ही होगा कि रामावतार त्यागी आस्था, जिजीविषा, संवेदना, स्वाभिमान, देशप्रेम, मानवीय गंध की प्यास, मूल्य, गाँव, शहर, प्रेम, विरह, पीड़ा, संघर्ष, रूढ़िवादी मानसिकता के प्रति विद्रोह आदि सुंदर मानकों को गीत-माला में पिरोने वाले रचनाकार हैं। समझौतों के शहर में रहने के बावजूद उन्होंने अपने अंदर गाँव को जीवित रखा। वे भाग्य पर नहीं, कर्म पर विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार ‘बनाने के लिए हमने स्वयं किस्मत बनाई है’ और इस राह में ‘विफलता मात्र पूँजी है, निराशा ही कमाई है’ तथा ‘जलन से दोस्ती है’ और ‘उलझनों से आशनाई’। उनकी लड़ाई किसी और से नहीं बल्कि अपने अस्तित्व से ही है। उनका कवि मन न विरोधों की चिंता करता है और न ही बाधा के पग पर शीश धरता है। वह उन हमदर्दों से डरता है जो पीठ पीछे वार करता है। साफ दिखाई देने वाले शूलों से भयभीत नहीं है, पर ‘फूलों की उत्कंठित मुसकानों से डरता’ है; ‘राम के तन से मिट्टी नोचकर रावण की मूर्ति गढ़ने वालों’ से डरता है! ‘दर्द तो वह अनमोल धन है, जो सबके भाग्य में नहीं होता।’ त्यागी जी ऐसे दर्द को गले लगाते हैं जो इंसान को इंसान बनाए रखने में सहायक हो। वे बार-बार यह कहते हैं कि-</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पूरी तरह टूटे बिना</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">दुख का मजा आता नहीं</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">आधी तड़प से गीत भी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पूरा लिखा जाता है।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">000</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">संदर्भ ग्रंथ</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1. त्यागी, रामावतार (1958 प्रथम आवृत्ति). आठवाँ स्वर. दिल्ली : फ्रैंक ब्रदर्स एंड कंपनी</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">2. त्यागी, रामावतार (1959). मैं दिल्ली हूँ. दिल्ली : साहित्य संस्थान</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">3. त्यागी, रामावतार (1986 ). गीत बोलते हैं. दिल्ली : आत्माराम एंड संस</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">4. सं. गर्ग, शेरजंग (2006). हमारे लोकप्रिय गीतकार रामावतार त्यागी. नई दिल्ली : वाणी</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">5. प्र. सं. शर्मा, रामविलास (फरवरी 1959). समालोचक. द्वितीय वर्ष. अंक 1. जयपुर</div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-36819800917561059782022-07-19T00:20:00.004+05:302022-07-19T00:26:08.840+05:30 संपादकीय... साहित्य सृजन की समकालीनता <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhG4_lFKjdcURM9giJBBcLTC5IUIh_mkUnYWxrZAjQYg9GPPMrre_T_ngvJsBAnnEMfnCwQFMTAz5mDHCQ7g-GMCDXGmU-HjNpwiEuGt991gb7f5ty-Q-yBn_AN88oFX9-NTddk-VtkmnHMxHFFfs_yygsTba6zyBVZX-nXoG0lx6vPF6pyphGHWVVv/s3986/IMG_20220718_215200.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="3986" data-original-width="2600" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhG4_lFKjdcURM9giJBBcLTC5IUIh_mkUnYWxrZAjQYg9GPPMrre_T_ngvJsBAnnEMfnCwQFMTAz5mDHCQ7g-GMCDXGmU-HjNpwiEuGt991gb7f5ty-Q-yBn_AN88oFX9-NTddk-VtkmnHMxHFFfs_yygsTba6zyBVZX-nXoG0lx6vPF6pyphGHWVVv/w418-h640/IMG_20220718_215200.jpg" width="418" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #990000;"><b>साहित्य सृजन की समकालीनता (ईश्वर करुण अभिनंदन ग्रंथ)</b> </span><br /> <b><span style="color: #2b00fe;">संपादन : डॉ. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा </span></b><div class="separator" style="clear: both;"><b><span style="color: #990000;">2022 </span></b></div><div class="separator" style="clear: both;"><b><span style="color: #2b00fe;">नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन</span></b> </div><div class="separator" style="clear: both;"><b><span style="color: #990000;">ISBN : 978-81-7965-343-2</span></b></div></td></tr></tbody></table><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: justify;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;">यों तो अमरत्व मनुष्य की चिरकालिक अभिलाषा है तथा मानव संस्कृति के विकास की तमाम यात्रा देश और काल की सीमाओं के पार जाने की इसी इच्छा का परिणाम है, लेकिन इस इच्छा की सिद्धि कोई भी व्यक्ति अथवा समाज अपने देशकाल से बद्ध और विद्ध हुए बिना शायद ही कर पाया हो । साहित्य सहित समस्त सृजनात्मक गतिविधियाँ काल के बीच से होकर ही उसके पार जाती हैं। इसका अर्थ है कि कालजयी होने से पहले किसी भी साहित्यकार और साहित्यिक कृति को समकाल की कसौटी पर खरा उतरना होता है। साहित्य-सृजन समकाल की सिद्धि के द्वारा अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। इसी में उसकी कृतार्थता और चरितार्थता निहित है। अतः समकालीनता वह प्रक्षेपण बिंदु है, जहाँ से कोई रचना कालमुक्त होने की दिशा में उड़ान भरती है। हमारा तो विचार है कि अमर और कालजयी होने की चिंता ही नहीं की जानी चाहिए- कभी कहीं कोई समानधर्मा मिलेगा तो रचना अपनी उत्तरजीविता सिद्ध करेगी ही! देखने वाली असली बात तो यही है कि अपने समय में किसी रचना और रचनाकार ने अपनी ज़िम्मेदारी किस हद तक निभाई और अपने देशकाल को कौन-सी दिशा देने का प्रयास किया।</div><p style="text-align: justify;">बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी के संधिकाल में सृजनरत और इस ग्रंथ 'साहित्य सृजन की समकालीनता' के चरितनायक ईश्वर करुण समकालीनता की कसौटी पर खरे उतरने वाले रचनाकार हैं। इस ग्रंथ में उनके मित्रों, हितैषियों, पाठकों, समीक्षकों और प्रशंसकों ने अपने-अपने ढंग से उनके व्यक्तित्व, कृतित्व, सेवा और प्रदेय का खुलासा और मूल्यांकन किया है। हमें विश्वास है कि यह ग्रंथ ईश्वर करुण के बहुआयामी साहित्यिक योगदान से हिंदी के व्यापक जगत को अवगत करा सकेगा और हिंदी साहित्य के इतिहास में उनके नाम को सही स्थान पर दर्ज कराने में सफल होगा।</p><p style="text-align: justify;">इस ग्रंथ की प्रारंभिक योजना से लेकर वर्तमान रूप में प्रस्तुतीकरण तक अनेक मित्रों का भरपूर सारस्वत सहयोग और आशीष प्राप्त हुआ। इस हेतु सभी सम्मिलित रचनाकारों के प्रति हम हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। स्वयं चरितनायक ने हमारे आग्रह पर कृपापूर्वक बहुत सारी सामग्री उपलब्ध कराई, जिसके लिए धन्यवाद काफी छोटा शब्द है। ग्रंथ की सीमा के कारण काफी सामग्री को हम चाहकर भी शामिल नहीं कर सके। इसका मलाल तो है, पर यह उम्मीद भी है कि वह भी किसी अन्य ग्रंथ के रूप में भविष्य में पाठकों के सामने अवश्य आ सकेगी।</p><p style="text-align: justify;">इस महत्वाकांक्षापूर्ण, अत्यंत उपादेय और पूर्णतः प्रासंगिक ग्रंथ को सुरुचिपूर्ण ढंग से, अत्यंत कम समय के भीतर, प्रकाशित करने के लिए तक्षशिला प्रकाशन, विशेष रूप से प्रिय बंधु कमल विष्ट बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं। प्रेम बना रहे !</p><p style="text-align: right;"><span style="color: #2b00fe;">-संपादकद्वय</span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhc6Q0iFxFg7kJfOIDmFkARSoFqLNSuCeeNME4x_OhBTveBmBXSkWu0jYAE4I7bhZoHp5iGq1fc0lijXwDVAmAijAJ5QLx0pDu8JO8AfDMbkLZBOksBcjs7Fip6qoIZycrbM0nNTTq70-ZLfFMgrpk888Adg0G-8Gr_yY6puRRz3PAtWm4IaEvxu9_1/s1267/flap.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1267" data-original-width="909" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhc6Q0iFxFg7kJfOIDmFkARSoFqLNSuCeeNME4x_OhBTveBmBXSkWu0jYAE4I7bhZoHp5iGq1fc0lijXwDVAmAijAJ5QLx0pDu8JO8AfDMbkLZBOksBcjs7Fip6qoIZycrbM0nNTTq70-ZLfFMgrpk888Adg0G-8Gr_yY6puRRz3PAtWm4IaEvxu9_1/w460-h640/flap.jpg" width="460" /></a></div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-76578868727745442032022-04-15T23:31:00.008+05:302022-04-15T23:31:54.970+05:30और जितने दीप हैं, मैं सभी में हूँ!<div style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt-2Cvt3EMS_FEqs3Qpr4BYAANGLGlGvgSHfxuLj9YqSkMy7c__OpERxQyXmCLzv1_52FdOlecUgiG40WZgQ_UbtzyaN5_M9g29rM4qhUEjBbrifEqCv8fUHgzNepFLTr-I6dhXoGE_FUstdA2KUA7TfZ2hUy9ycafXZ0kPJj8Orhlf3Qv5qVPXvtM/s320/itihas.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="320" data-original-width="214" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgt-2Cvt3EMS_FEqs3Qpr4BYAANGLGlGvgSHfxuLj9YqSkMy7c__OpERxQyXmCLzv1_52FdOlecUgiG40WZgQ_UbtzyaN5_M9g29rM4qhUEjBbrifEqCv8fUHgzNepFLTr-I6dhXoGE_FUstdA2KUA7TfZ2hUy9ycafXZ0kPJj8Orhlf3Qv5qVPXvtM/w268-h400/itihas.jpg" width="268" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe;">[1]</span></b></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>“मैं चला नजीबाबाद -</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>नसीबाबाद समझकर आया</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>सर्वत्र प्रेम ही पाया</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>'गर मिलता भी है गरल</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>उसे जगदीश निगल जाते हैं।” </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"> </span><span style="color: #2b00fe;"> </span><span style="color: #2b00fe;"> </span><span style="color: #2b00fe;"> </span><span style="color: #2b00fe;"> </span><span style="color: #2b00fe;"> </span><span style="color: #2b00fe;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span> </span><span style="color: #990000;">(प्रेमचंद्र जैन, गरल जगदीश निगल जाते हैं)।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सच में नजीबाबाद धन्य है। धन्य क्यों नहीं होगा, उसने ‘गुरु जी’ का असीम प्रेम जो पाया! ‘गुरु जी’! हाँ, इसी नाम से जाने जाते हैं डॉ. प्रेमचंद्र जैन जी - मेरे गुरु के गुरु के गुरु। इस अर्थ में वे मेरे परदादा गुरु हुए। इस गुरु-शिष्य परंपरा के कारण ही मुझे परदादा गुरु का अहेतुक स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हुआ।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जब 2015 में गुरु जी के सम्मान में ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’ ग्रंथ की तैयारी हो रही थी, तो मुझे भी उस सारस्वत यज्ञ में गिलहरी के समान सहयोग करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 2016 में जब ग्रंथ प्रकाशित होकर आया, तो उन्हें समर्पित करने का निश्चय किया गया था। 3 दिसंबर, 2016 को अभिनंदन समारोह का आयोजन दिल्ली में हुआ था। सुबह 8 बजे दिल्ली पहुँचना था। लेकिन मेरा भाग्य का खेल कि गाड़ी रात को 8 बजे दिल्ली स्टेशन पहुँची। मैं विचलित होती रही कि गुरु जी से मिले बिना ही मुझे वापस लौटना पड़ेगा। लेकिन देवराज जी और ऋषभदेव शर्मा जी ने मुझे हिम्मत नहीं हारने दी। जब आयोजन स्थल पहुँची तो देखा, गद्दी बिछे हुए मंच पर गुरु जी शांत मुद्रा में बैठे हुए थे, लेकिन चेहरे पर थोड़ी सी परेशानी दिखाई दी। मेरे कारण गुरु जी को परेशानी जो झेलनी पड़ी। पहली बार गुरु जी का साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ। (अखण्डमण्डलाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम्। तत्पदम् दर्शितम् येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">गुरु जी का भरपूर आशीर्वाद बटोरकर मैं वापस हैदराबाद लौटी। उसके बाद से समय-समय पर गुरु जी से फोन पर बात हो ही जाती थी। त्योहार के दिन तो गुरु जी के फोन से नींद खुलती थी। उनके आशीर्वाद और स्नेह की वर्षा में मैं भीग चुकी हूँ। <span style="color: #2b00fe;">(कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।/ अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराइ</span>।) आज भले ही गुरु जी भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्मा हमारे साथ है और हमें असीसती रहती है। पग-पग पर उनकी उपस्थिति का अहसास होता है, क्योंकि गुरु जी के साथ आत्मिक रिश्ता जो बन गया था- जो अटूट है। गुरु जी के शब्दों में कहूँ तो -</div><div style="text-align: justify;"> <span style="color: #2b00fe;"><b> </b><b>‘भावनाओं से जुड़ा प्रेम</b></span></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>अटूट होता है’ (प्रेमचंद्र जैन, प्रेम)</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;"><b>[2]</b></span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #990000;">प्रेम के पीर</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">डॉ. प्रेमचंद्र जैन स्वाभिमानी, कर्मठ और अदम्य साहसी थे। उनके स्वभाव के संबंध में डॉ. देवराज का यह कथन उल्लेखनीय है- “स्वभाव से खिलंदड़ और हँसोड़।” (शर्मा:2016:61)। नित्यानंद मैठाणी कहते हैं कि शरीर से तो वे दुबले-पतले थे किंतु उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि सभी उनसे डरते थे। उनसे एक बार यदि कोई मिलते तो उन्हें आजीवन भूल नहीं सकते। ऐसे थे गुरु जी। अपरिचित व्यक्ति से भी ऐसे मिलते जैसे उन्हें बरसों से जानते हों। उनके व्यक्तित्व में विद्वत्ता और वत्सलता के संगम को देखा जा सकता है। उन्हें यदि प्रेम का 'पीर’ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जैन परंपरा के मर्मज्ञ विद्वान थे डॉ. प्रेमचंद्र जैन। जैन धर्म अपनी मान्यताओं, स्थापनाओं, कर्मकांड और रूढ़ियों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन वे इस धर्म में घुस आए पाखंडों और रूढ़ियों का खुलकर विरोध करते थे। इतना ही नहीं, वे जैन लोगों के जीवन में जमी कुरीतियों की धज्जियाँ भी उड़ाते थे। वे धर्म को लोकहित-कारक के अर्थ में स्वीकारते थे। उनके अनुसार धर्म कर्तव्य है। वे बार-बार यही कहते थे कि “धर्म का लोकहित-कारक अर्थ ‘कर्तव्य’ को ही स्वीकार करना चाहिए। हिंदू-मुस्लिम-ईसाई आदि संप्रदाय या मत मानने से विवादों को विराम देने का मार्ग प्रशस्त नहीं होता है। मेरा इसी प्रकार का विश्वास है। कर्तव्य और धर्म शब्द प्रायः एक ही संदर्भ में प्रयुक्त करने से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।... मैं अपने अनुभव के आधार पर कहूँगा कि वर्तमान में धर्म और कर्तव्य की व्याख्या ही बदल गई। इसी के कारण व्यक्ति अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति घनघोर उपेक्षा के लिए लेशमात्र शर्मसार होने को तैयार नहीं है।” (शर्मा:2016:406)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रेमचंद्र जैन जीवन भर ढाई आखर प्रेम को ही महत्व देते रहे। उनके अनुसार “प्रेम सदैव अनुभूति परक रहा है, अतएव प्रेम को किसी परिभाषा के घेरे में अनुकूलित नहीं किया जा सकता। प्रेम मानव-स्वभाव की ही संपत्ति हो ऐसी बात नहीं है। वह तो पशु-पक्षियों में भी विद्यमान है और यदि प्रेम की सत्ता को प्राणिमात्र में भी स्वीकार किया जाए तो वह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।” (शर्मा:2016:139)। उनके अनुसार जिस व्यक्ति में प्रेम की पीर जागृत हो गई, उसका जीवन सार्थक है। वे भावनाओं से जुड़े हुए प्रेम को ही महत्व देते थे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">डॉ. प्रेमचंद्र जैन मानवता के पक्षधर थे। धर्म और संप्रदाय के कटघरे में वे फिट ही नहीं होते। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वे सही अर्थों में सामाजिक थे। उनके गुणों के बारे में उन्हीं के शब्दों से जान लें - “ज़मीन का आदमी था, समाज से जुड़ा था। तमाम सारे छात्र-छात्राओं की समस्याएँ, उनके निदान और दूर करने के उपाय; विविध शैक्षणिक सामाजिक संस्थाओं में होने वाले समारोहों-आयोजनों में शिरकत करने के लिए; अपने अध्ययन-अध्यापन के उत्तरदायित्व को मनसा-वाचा-कर्मणा निभाते हुए समय देना - हर किसी के लिए संभव नहीं होता। मुझमें इसी प्रकार के बहुचर्चित गुण-दोष थे।” (शर्मा:2016:404)। अपने इन्हीं गुण-दोषों के कारण वे अपने विद्यार्थियों और नजीबाबाद वासियों के निकट थे और उन्हें बहुत प्रिय थे। नजीबाबाद में न ही उनका जन्म हुआ और न ही शिक्षा-दीक्षा। यह तो उनकी कर्मभूमि थी। लेकिन वे नजीबाबाद के ही होकर रह गए - उनका काबा और काशी यही नजीबाबाद था। उन्होंने इस बात को स्पष्ट किया कि “यहाँ मेरे बस जाने या रुक जाने के निजी कारण हैं और पूर्णतः स्वांतः सुखाय हैं।” (शर्मा:2016:406)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe;">[3]</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #990000;"><b>सदैव तत्परता</b></span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">डॉ. प्रेमचंद्र जैन एक ऐसे व्यक्ति थे जिनमें अदम्य जिजीविषा और कुछ करके दिखाने की भरपूर इच्छा शक्ति थी। यह बात उनके गुरु डॉ. शिवप्रसाद सिंह के कुछ पत्रों से भी स्पष्ट होती है- “तुम संकल्प को यथासमय सही ढंग से पूरा करने में सदैव तत्पर रहे हो।” (शर्मा:2016:330)। प्रेमचंद्र जैन कहते तो कुछ नहीं, बल्कि करके अवश्य दिखा देते थे। वे बहुत ही साहसी थे। वे जो कार्य हाथ में लेते थे, उसे पूरा करने तक दिन-रात एक कर देते थे। शिवप्रसाद सिंह के अभिनंदन ग्रंथ के लिए आलेख संग्रहीत करते समय उन्हें बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ा होगा। गुरु अपने शिष्य को परेशान होते नहीं देख सकते, इसीलिए शायद शिवप्रसाद सिंह ने उन्हें एक पत्र (8.8.88) लिखा था- “तुम इतना अस्वस्थ रहते हुए भी शिवप्रसाद नामक व्यक्ति के लिए क्यों छटपटा रहे हो? क्या किया शिवप्रसाद सिंह ने? पूरी ज़िंदगी बस एक अपढ़ गँवार व्यक्ति के अनुभव ही तो मिले- वह भी सिर्फ उन्हें जो अपने को पाठक कहते हैं।” (शर्मा:2016:331)। लेकिन प्रेमचंद्र जैन जिद्दी भी कम नहीं थे। उसी जिद के परिणाम स्वरूप हिंदी साहित्य जगत को शिवप्रसाद सिंह का अभिनंदन ग्रंथ ‘बीहड़ पथ के यात्री’ प्राप्त हुआ। (जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहिं न कछु संदेहू। - मानस)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe;">[4]</span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #990000;"><br /></span></b></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #990000;">गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रेमचंद्र जैन शिष्य वत्सल गुरु थे। माता-पिता से प्राप्त सुलभ संस्कारों के साथ-साथ गुरुजनों द्वारा प्रदत्त ज्ञानराशि से वे आजीवन बँधे रहे। उन्होंने स्वयं यह स्वीकृत और घोषित किया कि “गुरुवर डॉ. शिवप्रसाद सिंह और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व के नैकट्य से जो मूल मंत्र ग्रहण किए थे, वे मेरे अंतिम समय तक साथ रहेंगे।” (शर्मा:2016:406)। इन मंत्रों में एक मूल मंत्र है- “अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक सर्व के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता, तब तक स्वार्थ खंड सत्य है, मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय कृपण बना देता है। कार्पण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहृत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है, वह स्पष्ट नहीं देखा पाता, वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।” (शर्मा:2016:406)। इन मंत्रपूत वाक्यों से प्रेमचंद्र जैन हमेशा ही सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने की शक्ति प्राप्त करते रहे। इसीलिए शिष्यों के लिए दलित द्राक्षा की तरह अपने आपको निचोड़कर प्रस्तुत कर सके। वे शिक्षकों से यह प्रश्न करते थे कि “यदि वे स्वयं गहन अध्ययन पूर्वक कृपणता और पक्षपातयुक्त व्यवहार छोड़कर अपने उत्तरदायित्व का ईमानदारी से पालन करेंगे तो उन्हें उनके कार्य में क्यों बाधा आएगी?” (शर्मा:2016:407)। उनका मानना था कि शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच शिष्टाचार के मर्यादित आचरण के अतिरिक्त अन्य दूरियाँ नहीं होनी चाहिए। तभी एक स्वस्थ परंपरा पनपेगी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रेमचंद्र जैन की कथनी और करनी में कहीं कोई अंतर नहीं दीखता। अपने शिष्यों के लिए वे कैसे गुरु थे, यह तो उन लोगों के वक्तव्यों से ही जाना जा सकता है। “गुरु जी के अध्यापन के समय कक्षा का वातावरण कभी बोझिल या उबाऊ नहीं रहता था। विषय को इतना रोचक बना देते थे कि कोई छात्र विषय से भटक नहीं सकता था। ... सारा ज्ञान छात्रों के मस्तिष्क में उड़ेलने का प्रयत्न करते थे और छात्र भी पूरे मनोयोग के साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। छात्र दूसरे अध्यापकों की कक्षा अवश्य छोड़ देते थे किंतु गुरु जी की कक्षा छोड़ने का दुःसाहस कभी नहीं करते थे। दूसरी कक्षा के छात्र भी गुरु जी की कक्षा में बैठने का प्रयास करते थे।” (डॉ. निर्मल शर्मा)। “मैंने गुरु जी को कभी गुरु जी नहीं कहा, एक इकलौती शिष्या मैं ही हूँ, जिसने हमेशा उन्हें अंकल कहा।” (डॉ. हेमलता राठौर)। देवराज जी और गुरु जी तो हमेशा एक साथ ही पाए जाते थे। “नजीबाबाद के लोग बरसों यह विश्वास करते हुए रहे कि देवराज का पता करना है, तो गुरु जी से पूछो और गुरु जी के बारे में कुछ जानना है, तो देवराज से पूछो।” प्रेमचंद्र जैन की इस शिष्य वत्सलता को गुरु मंत्र की तरह डॉ. देवराज जैसे उनके शिष्यों ने भी अर्जित किया है। (गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रेमचंद्र जैन माता-पिता और गुरुओं से प्राप्त संस्कारों का पालन आजीवन करते रहे। वे भविष्य की चिंता नहीं करते थे। शिष्यों की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त गुरु के पास भविष्य के संबंध में सोचने का अवसर कहाँ होता! “अध्यापन में भी तीनों कालों में वर्तमान को सँवारने के लिए अधिकतम क्षमताओं का उपयोग करने पर बल दिया। मजबूत नींव, भूतकाल में तलाशने के बाद ही वर्तमान पर ध्यान केंद्रित कर लिया जाए तो भविष्य की चिंताओं को लादे रखना बुद्धिमत्ता नहीं है।” (शर्मा:2016:404)। यह उनकी दृढ़ मान्यता थी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe;">[5]</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #990000;">चश्म नम हैं मुफ़लिसों को देखकर</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">प्रेमचंद्र जैन परिवार और रिश्तों को महत्व देते थे। उनकी मान्यता है कि जब व्यक्ति आत्मिक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं तो किसी भी तरह की समस्याएँ नहीं होतीं। एक समय ऐसा था जब भारत भर में संयुक्त परिवार की परंपरा को सामाजिक मान्यता मिली थी। लेकिन “अब उसके समाप्तप्राय हो जाने से पारिवारिक, कौटुंबिक, यहाँ तक कि वैयक्तिक समस्याएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। उधार ली गई व्यक्तिवादी संस्कृति स्वार्थपरता, असहिष्णुता, हिंसा तथा पाशविक आचरण को बढ़ावा देने में सहायक ही हुई है।” (शर्मा:2016:405)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">व्यक्ति स्वार्थलोलुप होता जा रहा है। मोह-माया में पड़कर इतना अंधा होता जा रहा है कि वह सही और गलत की पहचान ही नहीं कर पा रहा है। काला धन, चोर बाजारी, रिश्वत, महंगाई, बलात्कारियों की दुनिया है चारों ओर। प्रेमचंद्र जैन इस दुनिया को छोड़ आने की बात करते हैं। आदमी को आदमी की तरह जीने पर बल देते हैं। उनका मन विद्रूपताओं को देखकर व्यथित हो जाता है। उनकी दृष्टि में कोई हिंदू-मुस्लिम-ईसाई-जैन नहीं है, बल्कि सब केवल मनुष्य हैं। जब इन पर विपत्ति आती है, तो उनका मन द्रवित हो जाता है। राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के बाद जब अयोध्या में मंदिर तोड़ने की अघटनीय घटना हुई, तब नजीबाबाद में भी नाजुक स्थितियाँ पैदा हुईं। गुरु जी ने अपनी सूझबूझ से वहाँ शांति का वातावरण कायम किया। “फिरकापरस्त और सांप्रदायिक ताकतों को अहसास हो गया कि इस नगर में दंगा करवाना आसान काम नहीं है। .... नजीबाबाद हिंदू- मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों की आग में बरबाद होने से बच गया।” (शर्मा:2016:66)। वे आदमी को इनसान के रूप में बदलने के लिए आग्रह करते हैं। हैवानियत छोड़कर इनसानियत को अपनाने की अपील करते हैं। (शर्मा:2016:127)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe;">[6]</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #990000;">इष्ट फल</span></b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;">डॉ. प्रेमचंद्र जैन अपने दायित्व को बखूबी जानते थे। उन्होंने न ही अपने दायित्वों से मुँह मोड़ा और न ही पलायन का रास्ता अपनाया। शिक्षक- शिक्षार्थियों के बिगड़ते रिश्तों के बात जब आती, तो वे डंके की चोट पर कहते थे कि “हम सबको मिलकर इन परिवर्तनों पर गंभीरता से सोचने- विचारने और चर्चा करने की आवश्यकता है। साथ ही जागरूक होना और जागरूक करना है। अब भी बिगड़ा कुछ नहीं है। अलबत्ता अपनी- अपनी स्वार्थपरता एवं प्रलोभन का नियंत्रण करना है। अपने सामाजिक तथा व्यक्तिगत दायित्वों को ईमानदारी से निभाने की आवश्यकता है। हमें राष्ट्रीय भावनाओं को शून्य होते देख वेदना होनी चाहिए और एक नागरिक के कर्तव्यों से विमुख नहीं होना चाहिए। विद्यार्थी, अभिभावक और शिक्षक का आपसी संबंध निकटता का रहेगा और वे अपने- अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहेंगे तो समस्याएँ स्वतः नज़र नहीं आएँगी। निःसंदेह शिक्षकों का उत्तरदायितव अपेक्षाकृत बड़ा है। प्रथमतः उन्हें कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ एवं सच्चरित्र होने की अनिवार्यता है।” (शर्मा:2016:434)। यदि कहीं भी कभी भी एक शिक्षक दुराचार में लिप्त पकड़ा जाएगा, तो समाज की निगाहें संपूर्ण शिक्षक जगत पर ही उठती हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">साहित्यकारों के दायित्व के संबंध में भी प्रेमचंद्र जैन का यह कथन उल्लेखनीय है कि 'जो उपेक्षित है, वह साहित्य का विषय होना ही चाहिए।' उनकी मान्यता थी कि “संवेदना ही कविता की जननी है। अपनी रचना को कवि संतानवत सँवारता, दुलारता और सहेजता है। न केवल इतना ही बल्कि उन्हें संरक्षित करना भी निजधर्म मानता है।” (शर्मा:2016:389)। शोषक की व्यथा से शोषित की व्यथा भिन्न और विकट होती है। इसलिए प्रेमचंद्र जैन सहृदयों से यह अपील करते हैं कि “इसी विकटता का, दो टूक उत्तर - / साहित्यकार का दायित्व है।” (प्रेमचंद्र जैन, अहसास)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">संवेदनाओं के अभाव में तो रचनाएँ जन्म ले ही नहीं सकतीं। संवेदना से ही साहित्यकार का अनुभूति कोश समृद्ध होगा। प्रेमचंद्र जैन का अनुभूति कोश बहुत समृद्ध था। वे कोरे भाग्यवाद में विश्वास नहीं रखते थे। उनकी माँ की सीख उनके साथ चलती थी- ‘होकर सुख में मगन न फूले, दुख में कभी न घबरावे।’ वे अकेले चलते गए और लोग उनके साथ चलते गए और कारवां बनता गया -</div><div style="text-align: justify;"> <span style="color: #2b00fe;"> </span><span style="color: #2b00fe;">आएगा सवेरा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>अब नहीं हूँ मैं अकेला</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>और जितने दीप हैं</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>मैं सभी में हूँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>पी रहा हूँ सब अँधेरा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>थको तुम मत मीत</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>मृत्यु से भयभीत</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>अमरत्व की श्रम की -</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>सदा ही जीत। </span></div><div style="text-align: justify;"> <span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #990000;">(नेह बाती चुक रही है)</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘गुरु जी’ अपने गुरु शिवप्रसाद सिंह द्वारा प्राप्त गुरुमंत्र को हमें विरासत में दे गए- “चिंताएँ छोड़कर नियति से लड़ो ... लड़ना ही धर्म है। सारा जीवन बन जाए युद्ध। ... तभी मृत्यु का भय भाग जाता है।” 000</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">संदर्भ ग्रंथ-</span></div><div style="text-align: justify;"><ul><li>शर्मा, ऋषभदेव सं. (2016). निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक. नजीबाबाद : परिलेख</li></ul></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">द्रष्टव्य: इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 159-167.</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-22706469211355135492022-04-06T21:05:00.001+05:302022-04-06T21:21:23.408+05:30युद्ध के विरुद्ध 'तीसरी दुनिया'<div class="separator"><div class="separator" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1226" data-original-width="769" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgePPbCzh6EecmuwdsLqmFj8Tm5ckJfzSg1FPIsGzIBfGws3E0VRrkL9S9-YeiH8X5a8lhN2OuJtMVbnWPzbwus8PdmT3RkDBVtNVggrq_W-w4eTVZuPw6CthesUZ7CiSL7eRuM-9u5BEqQpQgjpDzjyhbC4iGLGCgrWT7e0J73Szq82w2uBbt3SJ4g/w251-h400/Tisri%20Duniya.jpg" width="251" /></div></div><div class="separator"></div><div style="text-align: justify;">आम तौर पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया को विकास के आधार पर तीन श्रेणियों में बाँट कर देखने का चलन रहा है - पहली विकसित, दूसरी विकासशील और तीसरी अविकसित। इसके अलावा 1990 से पहले तक दुनिया के दो शक्ति केंद्र थे - पूँजीवादी और साम्यवादी। गुट निरपेक्ष देश तीसरी दुनिया कहे जाते थे। लेकिन इन सब बातों से अनंत काबरा के ‘तीसरी दुनिया’ शीर्षक विवेच्य काव्य संग्रह की कविताओं को समझने में कोई खास सहायता नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि कविताएँ रची जाने के बाद संग्रह के नामकरण को तर्कसंगत दिखाने के लिए एक दार्शनिक भूमिका जोड़ दी गई। जिसका सार यह है कि इस संग्रह की कविताओं के केंद्र में ‘युद्ध’ है। इस सार का प्रसार ही कवि की ‘तीसरी दुनिया’ का अभिप्राय है। इससे पहले कि इस संग्रह की कविताओं पर आगे विचार किया जाए, यह कहना जरूरी है कि रूस के यूक्रेन पर हमले ने जिस तरह पूरी दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने लाकर खड़ा कर दिया है, उसे देखते हुए ‘तीसरी दुनिया’ की ये युद्ध केंद्रित कविताएँ आज बेहद प्रासंगिक प्रतीत होती हैं, भले ही इनका प्रकाशन 1988 में हुआ हो। किसी रचना और रचनाकार की रचनाधर्मिता की कसौटी यही है कि वह अपने रचना-काल के बाद भी प्रासंगिक रहे। इस दृष्टि से कवि अनंत काबरा जी के इस संग्रह की कविताएँ देश-काल का अतिक्रमण करने वाली सार्थक कविताएँ सिद्ध होती हैं। उदाहरण स्वरूप हम कुछ कविताएँ देखेंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इतिहास के पन्नों को पलटने से स्पष्ट होता है कि अनादिकाल से युद्ध की विभीषिका चलती आ रही है। युद्ध के बाद चारों ओर विनाश के अलावा कुछ नहीं बचता। हर नया युद्ध विगत युद्ध से भयंकर होता है। परिणाम भी उसी तरह अधिक घातक होते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कवि यह बार-बार कहते हैं कि युद्ध के आग्रह ने असंतोष का बीज बो दिया है। खुशहाल धरती बंजर बन गई है। चारों ओर कंकाल ही कंकाल नज़र आते हैं। विश्व में जितने भी युद्ध हुए हों, हार तो इंसान की ही हुई है। कवि कहते हैं -</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पचास वर्ष पूर्व का आदमी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">असमंजस है! आज (</span>तीसरी दुनिया, पृ.23)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">युद्ध की यह विभीषिका संपूर्ण मानव जाति को नष्ट कर देगी। विश्व के नक्शे से कुछ देश गायब भी हो सकते हैं। इस संदर्भ में कवि कहते हैं कि -</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">विश्व के नक्शे पर से</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">कर जाएँगे कई हाशिये देश -</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">समर्पण की कई करुण संवेदनाएँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">घिरा देंगी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">विश्व को दुखों के बादलों से</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">विकृति संघर्ष का संशय</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">फँस जाएगा युद्धों के दलदल में -</span> (पृ. 20)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">युद्ध के इस नृशंस तांडव के बाद मनुष्य भयभीत होकर दौड़ रहा है। मौत का डर उसे निगल रहा है। अपने अंदर की मानवता का गला घोंटकर वह नरसंहार कर रहा है। उसके लिए रिश्ते-नाते कोई मायने नहीं रखते। वह तो ‘पत्थर की मूर्ति’ बन बैठा है। कहीं कोई संवेदना नहीं बची है। वह ‘अविश्वास और तनाव भरे परिवेश’ में जी रहा है। ऐसे में कवि दम तोड़ती संवेदनाओं को बचाने की बात करते हैं -</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">संवेदना के सोपान</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जिस उफनती नदी में</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">नाव पर सवार हैं</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">काश!</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">बच जाए वह</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">तभी तो</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मेरे अधूरी इच्छा की तस्वीर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">भर पाएगी</span>। (पृ. 16)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">यह सच है कि भयंकर विनाश के बाद भी कुछ देश अपने पूर्व वैभव को वापस निर्मित कर पाए। वैज्ञानिक प्रगति कर पाए। पर तीसरी दुनिया के उस प्राणी की स्थिति क्या है जो ‘हर पल जान हथेली पर लेकर सड़क के चौराहों पर घूम रहा है’ -</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">औद्योगिक वायु प्रदूषणों की गंध</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">साँसों में समेटा जा रहा है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">तीसरी दुनिया में </span>(पृ. 27)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इन कविताओं के माध्यम से कवि-मन यह प्रश्न उठा रहा है कि हम भावी पीढ़ी को कैसा वातावरण प्रदान कर रहे हैं? इन कविताओं में एक ओर ‘अणुबमों की खतरनाक होड़’ है तो दूसरी ओर ‘विषैला धुआँ’, ‘प्राणों का आर्तनाद’, ‘लाशों का ढेर’, ‘निराशा की बंदिश’, ‘हत्याओं का नृशंस दौर’, ‘शवों की सड़ांध’, ‘श्मशान बनते घर और बस्तियाँ’, ‘अत्याचार की वारदातें’, ‘संघर्ष का परिवेश’, ‘अभिलाषाओं की अर्थी’, ‘मौत की तनी हुई रस्सी’, ‘सांप्रदायिकता का विष’, ‘मानसिक कुंठाएँ’, ‘षड्यंत्र का स्रोत’, ‘गलतफहमियों की पगडंडी’, ‘सर्वत्र जीवन का आतंक’ द्रष्टव्य है। क्या ऐसा कोई देश है जहाँ युद्ध न लड़ा गया हो? क्या ऐसा कोई देश है जहाँ अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग न किया गया हो? क्या ऐसा कोई देश हैं जहाँ बच्चे सुरक्षित हों? ऐसे वातावरण में जन्म लेने के लिए भी बच्चा डर जाएगा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कवि कहते हैं कि हथियारों के साथ-साथ मनुष्य का मस्तिष्क भी <span style="color: #2b00fe;">विस्फोटक हो गया है। ‘दिमाग में फैलती जा रही है/ उस शव की बदबू/ जो बंद कमरे में/ कब मरा पता तक नहीं/ सड़ते विचार/ क्रियाकर्म के भी लायक नहीं।</span>’ (पृ.112)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">मेरा मानना है कि अनंत काबरा आस्था और सकारात्मकता के कवि हैं। वे इस विडंबना से भली भाँति परिचित हैं कि -</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मनुष्य के अंतर्संबंध तोड़ने के लिए</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">युद्ध का होना जरूरी है</span> (पृ.133)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसके बावजूद वे यही आशा करते हैं कि एक न एक दिन युद्ध की विकृतियाँ समाप्त हो जाएँगी और सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी। संवेदनशील कवि-मन युद्ध के भीषण उन्माद की परिस्थिति से मानव समाज को बचाना चाहता है; युद्ध को रोकना चाहता है। इसीलिए तो अनंत काबरा कहते हैं -</div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">आगामी युद्ध रोका जा सकता है</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">भावी युद्ध टाला जा सकता है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">लेकिन हम रोकेंगे नहीं, टालेंगे नहीं,</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पहुँचेंगे जब तक हम</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">किसी निश्चित निष्कर्ष पर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">×××</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">युद्ध के बाद</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">जीवित होंगी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">गर्भवतियाँ</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">अपंग बच्चों को जनने के लिए</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पता नहीं -</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">कैसे जिएँगे वे आश्रयहीन बेचारे।</span> (पृ.5)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इन कविताओं में सिर्फ युद्ध की विभीषिका ही नहीं, बल्कि शांत वातावरण में जीने की इच्छा को भी अभिव्यक्ति प्राप्त हुई। 000</div> <div style="text-align: justify;"><br /></div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-45055807909326628832022-01-01T15:21:00.000+05:302022-01-01T15:21:28.746+05:30 भारतीय संस्कृति का शीर्षासन<div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgKQLHbNKmWOboYS4lzQ6nxUT4XomP2PFetMvxPK4LPbihEOrWR3zmWXQn05eOP51d1Ztaj4xWaIo319QLYoVkrI0SzSSWpCJEezmIrt0W-ogKRwFJoeygTZ43TgNluiQ-HC8yroD2HgWQ5Hd2tSPdzeIZVzUKyBnO1eQuSOs_Ff57RDIVRaWYq9a1k=s808" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="676" data-original-width="808" height="536" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgKQLHbNKmWOboYS4lzQ6nxUT4XomP2PFetMvxPK4LPbihEOrWR3zmWXQn05eOP51d1Ztaj4xWaIo319QLYoVkrI0SzSSWpCJEezmIrt0W-ogKRwFJoeygTZ43TgNluiQ-HC8yroD2HgWQ5Hd2tSPdzeIZVzUKyBnO1eQuSOs_Ff57RDIVRaWYq9a1k=w640-h536" width="640" /></a></div><br />हिंदी साहित्य जगत में श्रीलाल शुक्ल और 'राग दरबारी' <span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 12pt;">(1968) </span>के एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्होंने कुछ और लिखा ही नहीं। उन्होंने '<span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 12pt;">सूनी घाटी का सूरज' (1957) को देखते-देखते कुछ दिनों तक 'अज्ञातवास' (1962) किया। उस समय उन्हें यह पता चला कि 'आदमी का जहर' (1972) क्या होता है तथा 'सीमाएँ
टूटती हैं' (1973) तो घर केवल 'मकान' (1976) बन जाता है। 'पहला पड़ाव' (1987) के बारे में सोचते हुए जब 'बिस्रामपुर का संत' (1998) </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 12pt;">'</span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 16px;">यहाँ से वहाँ' </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 12pt;">आगे बढ़ता है '</span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 16px;">अगली शताब्दी का शहर' की खोज में </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 12pt;">तो उन्हें 'बब्बरसिंह और उसके साथी' (1999) मिल जाते हैं। तो वे सोचते हैं कि '</span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 16px;">आओ बैठ लें कुछ देर'। जब </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 12pt;">'राग-विराग' (2001) हो जाता है तो 'अंगद का पाँव' और </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 16px;">'कुंती देवी का झोला' </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif; font-size: 12pt;">लेकर 'उमराव नगर में कुछ दिन' 'मम्मीजी
का गधा' 'कुछ जमीन पर कुछ हवा में' 'ख़बरों
की जुगाली' करते हुए घूमता रहता है। </span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अब 'राग दरबारी' पर हम थोड़ी सी चर्चा करेंगे। </div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1. पहले ‘राग दरबारी’ क्या है, यह देखें।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">राग दरबारी तानसेन द्वारा बनाया हुआ राग है। तानसेन अकबर के दरबारी संगीतकार थे। शायद इसीलिए उनके बनाए हुए राग के साथ ‘दरबारी’ शब्द जुड़ गया। दरबार अर्थात राजा-महाराजा का दरबार। यह एक बहुत ही गंभीर राग है और इसे धीमी गति से गाया जाता है। संगीत के क्षेत्र में इसे बहुत ही कठिन राग माना जाता है। हर कोई इस राग में गा नहीं पाते। इसके लिए परिश्रम की आवश्यकता होती है। तेलुगु और तमिल भाषा की अनेक धार्मिक फिल्मों के गाने इसी राग में हैं। ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ फिल्म के टाइटल सॉन्ग का राग भी ‘दरबारी’ है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">2. यह तो हुई राग की चर्चा। अब हम श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ को भी देख लें।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस उपन्यास का नाम तो ‘राग दरबारी’ है, लेकिन संगीत से इसका दूर-दूर तक भी कोई रिश्ता नहीं। तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि संगीत से कोई रिश्ता ही नहीं, तो इस उपन्यास का नामकरण राग दरबारी क्यों किया गया है?</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इसका उत्तर हमें तभी मिलेगा जब हम ‘दरबार’ के बारे में जानेंगे। इस उपन्यास में चित्रित दरबार किसी राजा-महाराजा का नहीं है, बल्कि वैद्य जी का दरबार है। और वैद्य जी उस दरबार के सर्वेसर्वा है। उनकी आज्ञा के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता, क्योंकि वे गाँव की तमाम राजनीति के पीछे उपस्थित मास्टरमाइंड है। बहुत सोच समझकर तोल-तोल कर बात करने में माहिर हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">दरबारी राग धीमी गति से चलता है, लेकिन यह उपन्यास धीमी गति से नहीं चलता। श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य का सहारा लेकर कथा को आगे बढ़ाया है। उपन्यास का शीर्षक भी दूसरा ही अर्थ देता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">2010 में ‘उत्तर आधुनिकता और समकालीन विमर्श’ पर जब उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के हैदराबाद केंद्र में संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, उस समय श्रद्धेय प्रो. गोपाल शर्मा जी ने देरिदा के अनेक सूत्र बताए थे। उसी प्रकार 2017 में ‘अँधेरे में : पुनर्पाठ’ शीर्षक पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा था, तो उन्होंने ‘अँधेरे में’ की जगत समीक्षा देरिदा की दृष्टि से की थी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सहज शब्दों में कहना हो तो, देरिदाई सूत्रों में एक सूत्र है ‘सिर के बल खड़ा करना’। शीर्षासन करना। जब आप शीर्षासन करते हैं तो सिर जमीन पर टिका रहता है और पैर आसमान में लटकते रहते हैं। ज़रा कल्पना करके तो देखिए जब हम सब सिर के बल खड़े होंगे तो कैसा लगेगा। जी हाँ, विकृत लगेगा। श्रीलाल शुक्ल ने भारतीय संस्कृति को सिर के बल खड़ा कर दिया है अपने इस उपन्यास में।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भारतीय संस्कृति से मेरा अभिप्राय उन तमाम मूल्यों से है जो हमारे लिए आदर्श हैं। लेकिन आज ये मूल्य विकृत हो चुके हैं। इन विकृतियों से ही विडंबनाएँ पैदा होती हैं। इस उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने इन विकृतियों को उजागर किया है, लेकिन व्यंग्य रूपी मिश्री की कोटिंग लगाकर। व्यंग्यकार सत्य की खोज नहीं, बल्कि झूठ और पाखंड की खोज करता है। व्यंग्य के टेढ़े-मेढ़े रास्ते से गुज़र कर ही व्यंग्यकार उन मूल्यों तक पहुँचता है, जो उत्कृष्ट साहित्य का अंतिम लक्ष्य हैं। इस उपन्यास के केंद्र में शिवपालगंज गाँव है और वैद्य जी का दरबार, जो पूरी तरह से छल और छद्म का अखाड़ा बना हुआ है। शिवपालगंज कोई गाँव नहीं है, यह तो भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक है। व्यवस्था में निहित विकृतियों को कहे बिना श्रीलाल शुक्ल नहीं रह पाए। इन विकृतियों के एकाध उदाहरण देखें -</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><ul><li>पहले के डाकू नदी-पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कि कोई उन्हीं के घर जाकर रुपया दे आवे। (पृ. 16)</li></ul></div><div style="text-align: justify;"><ul><li>एक तो अछूतों के लिए चंदा कमाने की इमारत बनेगी। दूसरे, अस्पताल के लिए हैज़े का वार्ड बनेगा। वहाँ ज़मीन की कमी है। कॉलिज ही के आसपास टिप्पस से ये इमारतें बनवा लें ... फिर धीरे से हथिया लेंगे। (पृ.27)</li></ul></div><div style="text-align: justify;">आखिर यह कथा किसी शिवपालगंज की ही क्यों, किसी दिल्ली या किसी हैदराबाद की भी तो सकती है। लेकिन यदि ऐसा होता तो IAS या IPS या किसी उच्च अधिकारी या नेता को आलंबन बनाना पड़ता। लेखक को मालूम है कि व्यवस्था से लड़ने से कोई फायदा नहीं होगा, और तो और उल्टा लेने के देने पड़ सकते हैं। शायद इससे बचने के लिए ही श्रीलाल शुक्ल ने शिवपालगंज नामक एक काल्पनिक गाँव को गढ़ा और अपने समय की तमाम विकृतियों को उस पर आरोपित कर दिया। एक तरह से यह लेखकीय चतुराई है।</div>Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-49435990349044524632021-12-22T23:22:00.001+05:302021-12-22T23:22:19.717+05:30 'समकालीन साहित्य विमर्श' से गुजरते हुए डॉ गोपाल शर्मा<h2></h2><h2 style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">'समकालीन साहित्य विमर्श' से गुजरते हुए<br /></span><span style="color: #2b00fe;">डॉ गोपाल शर्मा</span></h2><div style="text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEg-Qexa6s9LZeTLWF6HMFQ619rqG-3fv3p48dzw4wchVd-XkvnJF-M9AQYybBQ_nOFxt2WBk8L-JUBVrMUz40J_-qdgmAyU-H5jMFhBF-0cl7qp-mQpwfS2ZKfadQZVX7DMiH00__6uRf1tWUxzzMBfBm4UoRo9aPNrXC0AKISSNKWsuGoLXXZuA_NO=s3811" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="3637" data-original-width="3811" height="306" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEg-Qexa6s9LZeTLWF6HMFQ619rqG-3fv3p48dzw4wchVd-XkvnJF-M9AQYybBQ_nOFxt2WBk8L-JUBVrMUz40J_-qdgmAyU-H5jMFhBF-0cl7qp-mQpwfS2ZKfadQZVX7DMiH00__6uRf1tWUxzzMBfBm4UoRo9aPNrXC0AKISSNKWsuGoLXXZuA_NO=w320-h306" width="320" /></a></div><span style="font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">गुर्रमकोंडा नीरजा की पुस्तक ‘समकालीन साहित्य विमर्श’ में क्या है? कोई भी विषय क्रम देखकर पता लगा सकता है। कोई विद्योत्तमा पूछे “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः” तो वह इस पुस्तक में प्रथमतः प्रस्तुत की गईं रमेश चन्द्र शाह की शुभाशंसा और दिविक रमेश की भूमिका पढ़कर जान सकती है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">यह युग विमर्शों का है। यह युग उन विमर्शों का है जिनको अब तक विमर्श के बाहर रखा जाता रहा। इस दृष्टि से यह पुस्तक उन विमर्शों का सोदाहरण प्रस्तुतीकरण है। 24 आलेख हैं और लगभग सभी इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में लिखे या प्रकाशित हुए हैं। पुस्तक में कुल पाँच खंड हैं – हरित, किन्नर, स्त्री, लघुकथा और विविधा। यदि कोई इन्हें कविता के शिल्प में रखे तो कहेगा –</span></div><br /><span style="font-weight: normal;"><span style="color: #2b00fe;">हरित किन्नर स्त्री विविधा लघुकथा। <br />विमर्शों से पुस्तक को इस तरह बांधा।</span></span></span>
<span style="font-size: small;"><br /><br /><span style="font-weight: normal;">कविता बनाई है तो बने बनाए एक शेर को पेश करने में क्या हर्ज़ है ? </span><br /><br /><span style="color: #2b00fe;"><span style="font-weight: normal;">ये दुनिया है यहाँ असली कहानी पुश्त पर रखना।</span><br /><span style="font-weight: normal;">लबों पर प्यास रखना और पानी पुश्त पर रखना॥ </span></span><br /><br /><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">पता नहीं कौन लिख कर चला गया किंतु लगता है कि ठीक ही लिखा था। पुस्तक है ही ऐसी संज्ञा, इसके आने से पुश्त दर पुश्त विचारों का संचरण जो होता है। क्या ‘पुस्तक’ इसका ही स्वरूप है?</span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhNoaISlcr0uWbxzcv024_yDCfLAwLn5avt2UYpkA_tM43L8hoANT4YYD37dgmO7fVa5a2s62ZaxOd0ZPNvCRT0tcgLX_6s_hWegtqRTzmKgmun3pZRVg8QOAtJHenlRndbiZtubWWZK0taLShR98jRvkG3_buNq7Hfwg5r8ieNd8Awe7iC6-ihD3Xb=s899" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="899" data-original-width="684" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhNoaISlcr0uWbxzcv024_yDCfLAwLn5avt2UYpkA_tM43L8hoANT4YYD37dgmO7fVa5a2s62ZaxOd0ZPNvCRT0tcgLX_6s_hWegtqRTzmKgmun3pZRVg8QOAtJHenlRndbiZtubWWZK0taLShR98jRvkG3_buNq7Hfwg5r8ieNd8Awe7iC6-ihD3Xb=w243-h320" width="243" /></a></div></div><br /><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">नहीं, पुस्तक में विचार होते हैं और ये विचार ही तो सब कुछ हैं। जैसा लेखिका आभार प्रकट करते समय कहने से चूकती नहीं, "यह आलेखों का समुच्चय है।" और इस वाक्य को पूर्ण अर्थ देता है, यह कथन – सभी में अध्येता के सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक मुद्दों पर विशेष आग्रह है।</span></div><br /><div style="font-weight: normal; text-align: justify;">इसलिए लेखिका के द्वारा चाहे ‘हरित विमर्श’ की बात की गई हो या ‘किन्नर विमर्श’ की ये तीन मुद्दे रेखांकित किए जा सकते हैं – सामाजिक, भाषिक और सांस्कृतिक। क्रम कुछ भी हो कमल की पंखुड़ियों की तरह जब ज्ञान का शतदल कमल खिलता है तब उनका प्रकाशन इसी तरह पुस्तकाकार में होता है। लेखिका में सैद्धांतिक विवेचन के अनुप्रयोग की अद्भुत और अनूठी क्षमता है यह तो उनकी पूर्व प्रकाशित कृति 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख' (2015) से पता चल ही गया था। अब उन्होंने यह भी दिखा दिया है कि वे भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के अनुप्रयोग में ही सिद्धहस्त नहीं हैं वे साहित्य के विविध विमर्शों को भी उसी शिद्दत और सहजता से कलमबंद कर सकती हैं ।</div><div style="text-align: justify;"><br /><span style="font-weight: 400;"><br /></span></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;">यहाँ मैं कुछ सूत्र सूक्तियों में पहले लेखिका के सैद्धांतिक आग्रह को प्रस्तुत करूँगा -</div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">हरित विमर्श</span><span style="color: #2b00fe;"> – </span>जब तक मनुष्य प्रकृति पर्यावरण के साथ घनिष्ठ आत्मीय संबंध का निर्वाह करता है तब तक पर्यावरण के लिए कोई खतरा नहीं होता। ( पृष्ठ 20)</div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;">यदि प्रदूषण को नहीं रोका गया तो प्राकृतिक संपदा के साथ-साथ मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी से मिट सकता है। ( पृष्ठ 28)</div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">किन्नर विमर्श </span></div><div style="text-align: justify;">21 वीं सदी की पूर्वोक्त कृतियों को किन्नर विमर्श का नया उत्थान कह सकते हैं। इस दौर की इन रचनाओं में समाजशास्त्रीय शोध पद्यति का प्रयोग किया गया है। और कहीं-कहीं तो ये रचनाएँ रिसर्च की रिपोर्ट जैसी लगती हैं। ( पृष्ठ 42)</div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;">लेकिन जब बात आती है किन्नरों की, तो सभी आदर्शवादी बातें हाशिये पर चली जाती हैं । (पृष्ठ 55)</div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">स्त्री विमर्श</span><span style="color: #2b00fe;"> </span></div><div style="text-align: justify;">सिद्धान्त और सोच को किस प्रकार विवेचन और विश्लेषण में बदलकर प्रस्तुत किया जा सकता है इसका सर्वोत्तम उदाहरण लेखिका नीरजा का ‘स्त्री विमर्श’ विषयक खंड है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ खुलकर और स्वतंत्र रूप से मत व्यक्त किया गया है। रचनाओं के विवेचन से आगे जाकर जब जब वे अपनी टीका-टिप्पणी करती हैं तो ‘स्त्री’ के मर्म को ही उद्घाटित नहीं करतीं बल्कि उसे पुरुष के समक्ष और समकक्ष भी खड़ा करती हैं । ‘समकालीन स्त्री प्रश्न’ (पृष्ठ 75-78) इस दृष्टि से कई बार पढ़ा जा सकता है। विमर्शों की पुस्तक में ऐसा भी लिखा मिलेगा, यह सोचा न था –</div></span></span><p class="MsoNormal" style="line-height: 125%; margin-left: 40.5pt; text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">आज
की स्त्री चाहती है कि पुरुष समय-असमय अपना </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">पति-पना</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">
न दिखाया करे। स्त्री को भी गाहे बगाहे प्रति पल अपना </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">पत्नीपना</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">
दिखाने की प्रवृत्ति से बाज़ आना होगा। वह
जमाना गया जब पति-पत्नी </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">दो
शरीर एक प्राण</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;">
होते थे क्योंकि इस एक प्राणता के लिए दो
में से किसी एक को अपना व्यक्तित्व दूसरे के व्यक्तित्व में विलीन करना होता था।
आज की स्त्री अपने व्यक्तित्व को इस तरह पुरुष के व्यक्तित्व में विलीन करने के
लिए तैयार नहीं है। उसे अपनी स्पष्ट पहचान और परिवार तथा समाज में अपना स्थान व
सम्मान चाहिए। (पृष्ठ 77) </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif; line-height: 125%;"><o:p></o:p></span></span></span></p>
<span style="font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">स्पष्ट है पुस्तक में सबसे ज्यादा पृष्ठ इसी विमर्श को मिले हैं। हरित विमर्श के लिए कुल छह पृष्ठ है, किन्नर के लिए भी इतने नहीं पर स्त्री विमर्श के लिए सबसे ज्यादा। आधे में हम, और आधे में सब। ठीक भी है “हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास” लिखकर अमर हो गए शुक्ल जी के बाद यदि अब कोई सुमन राजे इसको पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाती है तो उसे डॉ नीरजा की पुस्तक के विमर्श से राह मिलेगी। ‘मिश्र बंधु विनोद' से अब हम बहुत आगे निकल आए हैं। कहना चाहिए कि अब अपनी परंपराओं को शुद्ध करने का समय भी निकल चुका है। अब तो बक़ौल नीरजा जी के “आज स्त्री जागरूक हो गई है। अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। पुरुष पक्षीय परंपराओं को तोड़ना सीख गई है।” (पृष्ठ 83 )। इन ‘जगी हुई आहटों का सम्मान’ क्यों किया जाना चाहिए? क्योंकि – “पुराने विधि विधान और पुरानी स्मृतियाँ आज के संदर्भ में अर्थहीन हो गए हैं। आज नई स्मृतियों और नई संहिताओं की जरूरत है। सब कुछ बदलना होगा, सारे समाज की मानसिकता को बदलना होगा।” (पृष्ठ 95)।</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">लघुकथा विमर्श </span></div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">इस खंड में लेखिका का भाषा-अध्येता रूप खिलकर आया है। लघुकथा की गुरुता का भाषाई पक्ष वे खूब खंगाली हैं। साथ में बहुत सी सूत्र पंक्तियाँ भी हैं , जैसे –</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;">लघुकथाकार संक्षिप्त फ़लक पर भाव ,घटना, या विचार की बीज बोता है और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के माध्यम से उसे पल्लवित करता है। वह अपनी बात को दो टूक कहने के लिए व्यंजना का सहारा लेता है। समय की माँग और विषय के चयन के अनुरूप लघुकथाकार ‘पंच’ का प्रयोग करते हुए अपनी बात को अभिव्यक्त करता है और पाठक को उद्वेलित करता है। (पृष्ठ 156) </div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">विमर्श विविधा</span></div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ के समान विमर्श अनंत हैं और उनकी गाथा हनुमान की पूंछ सी बढ़ती ही चली जाती है। पुस्तक में पृष्ठों की सीमा होती है, यहाँ भी है। खैर यह है कि विविधा में वैविध्य दर्जन की संख्या पार नहीं करता। फिर भी यह क्या कम है? विस्थापन विमर्श और वृद्धावस्था विमर्श तो अपने नाम से भी नवीन लगते हैं। इन विमर्शों पर अभी लेखन हुआ ही कितना है? हाँ, उत्तर आधुनिक विमर्श के नाम पर बहुत कुछ परोसा जाता रहा है। नीरजा जी स्त्री, दलित, आदिवासी, किन्नर, अल्पसंख्यक आदि के साध साथ ‘वृद्धावस्था’ को भी अपने विमर्श में स्थान दिया है। अंत में ही दिया है, पर खूब दिया है। यह बात नहीं कि यह विमर्श पहले नहीं था। उदाहरण के लिए केशव सफ़ेद होते बालों की चिंता में कठिन काव्य के प्रेत हो गए थे। इस चिंता ‘जो आ के न जाये वो बुढ़ापा देखा’ को चिंतन में शामिल करते हुए नीरजा जी ‘वृद्धावस्था विमर्श’ को एक वाक्य में परिभाषित करती हैं – वृद्धावस्था विमर्श इस उपेक्षित समुदाय की दृष्टि से, अथवा वृद्धावस्था को केंद्र में रखते हुए, समाज, साहित्य और संस्कृति की नई व्याख्या करने वाला विमर्श है । (पृष्ठ 212)</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;">जब यह पुस्तक ‘समकालीन साहित्य विमर्श’ नाम से है तो इसमें विमर्श और भी होंगे ही। हैं भी। पर उन पुस्तकों और उन रचनाकारों का उल्लेख करने से बचते हुए मैं यह कहकर आगे बढ़ूँगा कि इस पुस्तक में ‘सर्वथा अपूर्वानुमेय – किंतु अत्यंत आत्मीय और गहरी संवेदना के साथ खोजी और प्रस्तुत की गई सामग्री मिलती है’ (शुभाशंसा – रमेशचंद्र शाह)। और यह भी कि लेखिका ने अपनी साहित्यिक खोज को केवल तथाकथित मशहूर हस्तियों तक सीमित नहीं रखा है। उनके साथ-साथ कम चर्चित रचनाकारों की ओर भी उनका ध्यान गया है। (दिविक रमेश)।</div></span><div style="text-align: justify;"><br /></div><span style="font-weight: normal;"><div style="text-align: justify;">‘कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है’ कहकर जिस लेखन को बड़ी विनम्रता से लेखिका ने यहाँ सँजोया है उसका हिंदी के उन अध्येताओं को तुरत फायदा पहुँचेगा जो समकालीन साहित्य के सजग पाठक और अध्येता हैं। उनको भी यह पुस्तक रुचेगी जो शोध की नवीन दिशाओं की खोज में हैं। एंड्रू बेनेट और निकोलस रॉयल ने ‘एन इंट्रोडक्शन टू लिटरेचर, क्रिटिसिज़्म एंड थियरि’ में जिस प्रकार विविध विमर्शों पर लिखकर उसे विश्वविद्यालयों के लिए वांछित पुस्तक के रूप में पेश किया और उसके छह संस्करणों में विमर्शों की संख्या लगातार बढ़ी है, ऐसा ही इस पुस्तक के साथ भी हो। यही कामना और आशा है कि इसके आगामी प्रत्येक संस्करण में विमर्शों की संख्या बढ़ती जाए और हिंदी पाठ क जगत लाभान्वित हो।</div></span></span> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-12245577934744384862021-12-22T11:22:00.000+05:302021-12-22T11:22:30.863+05:30 बारह मसाले तेरह स्वाद : समकालीन साहित्य विमर्श<div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;"><b><a href="https://www.hindikunj.com/2021/12/barah-masala-terah-swad.html">बारह मसाले तेरह स्वाद : समकालीन साहित्य विमर्श</a></b></span></div><div style="text-align: right;"><span style="color: #2b00fe;">- प्रवीण प्रणव</span></div><div style="text-align: justify;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgOPCwpPUAO8QyIJzm_7p38C7OBgIP6HfVgC-CSn9L7KM74NE74XzKlA_97yfgiu6iZtJLjUpbKecQB-OrdIgQ4Tcl1qQvzhjxRCfjdGclq4uuVHC4PqBc9lcVJj9fAgV3BSH-kW0Y-u1eW2HucjF3lORKXmmrNuiTNA6zK8Ro4L2EBlSEVaDnqzsYB=s2454" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2294" data-original-width="2454" height="187" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgOPCwpPUAO8QyIJzm_7p38C7OBgIP6HfVgC-CSn9L7KM74NE74XzKlA_97yfgiu6iZtJLjUpbKecQB-OrdIgQ4Tcl1qQvzhjxRCfjdGclq4uuVHC4PqBc9lcVJj9fAgV3BSH-kW0Y-u1eW2HucjF3lORKXmmrNuiTNA6zK8Ro4L2EBlSEVaDnqzsYB=w200-h187" width="200" /></a></div><div style="text-align: justify;"><div>लेखिका गुर्रमकोंडा नीरजा की किताब ‘समकालीन साहित्य विमर्श’, वर्तमान समय के कई ज्वलंत मुद्दे, जो नए नहीं हैं, पर एक नई दृष्टिकोण डालने का प्रयास है। हालांकि लेखिका ने लिखा है कि इस किताब में संकलित लेख 2008 से 2020 के बीच अलग-अलग संदर्भों में लिखे गए हैं लेकिन इससे न तो क्रमबद्धता और न ही पठनीयता प्रभावित होती है। हम सब साक्षी हैं कि कुछ वर्षों पहले जब किसी पुल का निर्माण होता था, महीनों, सालों तक मजदूर काम करते थे और आरंभ से अंत तक पुल का निर्माण वहीं होता था। लेकिन आज पुल बनाने की प्रक्रिया में बदलाव आया है। पुल के कई भाग अलग-अलग जगहों पर बनते हैं और अंत में उन्हें जहाँ पुल बनना होता है, वहाँ ला कर जोड़ा जाता है। साहित्य की दृष्टि से पहले पुल बनाने की प्रक्रिया को आधुनिक काल कह सकते हैं और वर्तमान तरीके को उत्तर आधुनिक काल। उत्तर आधुनिक साहित्य जिसे समकालीन साहित्य भी कहा जाता है, के विभिन्न विमर्शों को जी. नीरजा ने पुल के अलग-अलग भागों की तरह एक साथ ला कर इस तरह जोड़ा है कि इस किताब के स्वरूप में लेख, अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgImqS56vx6JdoXiok05B2XjE-nUGE1Zr8wkz9Ibf6iWSD-r8O8whB7Ggmi603Ki14ywFov3vd8qXlIr0T1vr-ZPYTjVIYz0nNRyUGdj619SK26frUiklK_cci-YGcx8WwFHF-LI1gowUTqi-S430SW965atXEOqoaxYnOsRRj1uCuZ-YdtSxoo0a5j=s899" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="899" data-original-width="684" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgImqS56vx6JdoXiok05B2XjE-nUGE1Zr8wkz9Ibf6iWSD-r8O8whB7Ggmi603Ki14ywFov3vd8qXlIr0T1vr-ZPYTjVIYz0nNRyUGdj619SK26frUiklK_cci-YGcx8WwFHF-LI1gowUTqi-S430SW965atXEOqoaxYnOsRRj1uCuZ-YdtSxoo0a5j=w152-h200" width="152" /></a></div></div></div><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आज के दौर में विमर्शों का बोलबाला है। हर साल-दो साल के बाद कोई नया विमर्श ‘चलन’ में आता है और साहित्यकारों की लेखनी उस विमर्श पर ऐसे-ऐसे लेख लिखती है कि भविष्य में इस विमर्श से जनित किसी भी क्रांति के लिए ‘गंगा की गंगोत्री’ उनके ही लेख को ठहराया जा सके। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर साहित्यकारों की दृष्टि पूर्वाग्रहों से प्रेरित रही है। अज्ञेय ने कहा “अगर मैं मानता भी हूँ कि समाज को बदलने में साहित्य का योग होता है, कि उसमें साहित्यकार की भी कुछ जिम्मेदारी होती है, तो भी आज साहित्यिक रचना और सामाजिक परिवर्तन में जैसा सीधा समीकरण बनाया जा रहा है, उसे मैं बिल्कुल स्वीकार नहीं करता। मैं समझता हूँ कि पिछले लगभग 50 वर्षों से इस तरह का सीधा संबंध बनाने और सिद्ध करने का जो एक प्रयत्न होता रहा है, उसने साहित्य का बहुत अहित किया है। आलोचना को, जिसका लोचन से संबंध ही स्पष्ट करता है कि उसे स्वच्छ प्रकाश की अनिवार्य आवश्यकता है, उसने एक धुंधलके में भटका दिया है। रचना की दृष्टि को एक रंगीन चश्मा पहनाकर उसने एकांगी और असमर्थ बना दिया है।“ संतोषप्रद है कि जी. नीरजा साहित्यिक विश्लेषण और विमर्श के लिए किसी रंगीन चश्मे का इस्तेमाल न करते हुए, अपने लेखों के माध्यम से, इन विमर्शों में पूर्व में स्थापित और सत्यापित तथ्यों से इतर कुछ नये आयाम जोड़ती हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस किताब में 24 लेख हैं जिन्हें पाँच खंडों में संकलित किया गया है। पहला खंड ‘हरित विमर्श’ है। यूं तो इस खंड में सिर्फ दो लेख हैं लेकिन लेखिका इन दो लेखों के माध्यम से पर्यावरण और इससे जुड़ी समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट करने में सफल रही हैं। बिहारी सतसई का दोहा “देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर”, इन दोनों लेखों के लिए सटीक बैठता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“हरित विमर्श की प्रस्तावना” शीर्षक लेख में लेखिका ने पर्यावरण विमर्श को स्त्री विमर्श के साथ जोड़ते हुए लिखा है कि “सामान्यतः धरती को स्त्री के समान और स्त्री को धरती के समान माना जाता रहा है। लेकिन अधिकार और सत्ता की अपार इच्छा पुरुषवादी व्यवस्थाओं के चरित्र को शोषण की मनोवृत्ति से संपन्न करती रही है। इस मनोवृत्ति के कारण ही पुरुष केंद्रित समाज का विकास, पर्यावरण और स्त्री के निरंतर दोहन पर टिका है। इस दोहन के पीछे पुरुष की आधिपत्य की भावना है।“ केरल की प्रसिद्ध साहित्यकार के. वनजा भी स्त्री और धरती में समानता की बात करती हैं। दुनिया की प्रकृति पर पितृसत्ता के अधिकार के खिलाफ़ स्त्री एवं प्रकृति केंद्रित इको फेमिनिज्म की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। के. वनजा ने अपने तीन किताबों की शृंखला - “साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन”, “इकोफेमिनिज्म”, और “हरित भाषा वैज्ञानिक विमर्श” में इस विषय पर महत्वपूर्ण काम किया है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“पर्यावरण के प्रश्न और कविता” शीर्षक लेख में लेखिका ने समकालीन कवियों की कविताओं के माध्यम से पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं की बात की है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की कविता की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए लेखिका सशंकित हैं कि पर्यावरण प्रदूषण की तरफ हम इतनी दूर आ गए हैं जहाँ से वापसी का रास्ता सरल नहीं। <span style="color: #2b00fe;">"हैलो, मनुष्य,/ मैं आकाश हूँ। /कल सृजन था, निर्माण था,/ आज प्रलय हूँ, विनाश हूँ।/ मेरी छाती में जो छेद हो गए हैं काले काले,/ ये तुम्हारे भालों के घाव हैं,/ ये कभी नहीं भरने वाले।"</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पेड़ों की कटाई और कंक्रीट के जंगल बसाए जाने से संभावित खतरों की बात करते हुए लेखिका, कविता वाचक्नवी की कविता उद्धृत करती हैं <span style="color: #2b00fe;">"मेरे हृदय की कोमलता को / अपने क्रूर हाथों से / बेध कर / ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया/ उखाड़ कर प्राणवाही पेड़-पौधे/ बो दिए धुआँ उगलते कल - कारखाने / उत्पादन के सामान सजाए / मेरे पोर-पोर को बींध कर / स्तंभ गाड़े / विद्युत्वाही तारों के / जलवाही धाराओं को बाँध दिया। / तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावडों, / मशीनों, आरियों, बुलडोज़रों से/ कँपती थरथराती रही मैं। / तुम्हारे घरों की नींव / मेरी बाहों पर थी / अपने घर के मान में / सरो-सामान में / भूल गए तुम। / ... मैं थोड़ा हिली / तो लो / भरभराकर गिर गए / तुम्हारे घर। / फटा तो हृदय / मेरा ही।"</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पर्यावरण ने सदा हमारे अस्तित्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और हमारे पूर्वजों ने इसे भली -भांति समझा। विकास की अंधी दौड़ में शामिल हो कर आज हम प्रकृति से दूर होते गए और परिणाम स्वरूप समय-समय पर हमने इसके दुष्परिणाम भी झेले हैं। पेड़ लगाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा कि वनवास के दौरान सीता और लक्ष्मण वृक्षारोपण कर रहे हैं<span style="color: #2b00fe;"> "तुलसी तरुवर विविध सुहाए/ कहुं कहुं सिया कहुं लखन लगाए।"</span> यही नहीं जब राम वनवास से वापस आते हैं तब भी इस उपलक्ष्य में अयोध्या में वृक्षारोपण किया जाता है <span style="color: #2b00fe;">"सफल पूगफल कदलि रसाला। /रोपे बकुल कदम्ब तमाला।।"</span> गोस्वामीजी ने यह भी लिखा कि प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का विवेक पूर्ण उपयोग ही उचित है। पेड़ से फल तोड़ कर खाना तो उचित है लेकिन पेड़ को काटना अनुचित – <span style="color: #2b00fe;">“रीझि-खीझी गुरूदेव सिष सखा सुसाहित साधु।/ तोरि खाहु फल होई भलु तरु काटे अपराधू ।।"</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">पर्यावरण और इससे जुड़ी चिंताओं पर बहुत काम हुआ है लेकिन ज्यादातर काम वैज्ञानिक है। इस समस्या पर साहित्य में कम ही काम हुआ है और ऐसे में लेखिका के दोनों लेख महत्वपूर्ण हैं। एन्नी लेमोट (Annie Lamott) जो अमेरिका की प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं ने एक प्रसिद्ध पंक्ति लिखी “ ‘No’ is a complete sentence.” यानि ‘नहीं’ एक सम्पूर्ण वाक्य है। सरकार ने धूम्रपान रोकने के लिए न जाने कितने प्रयास किए, न जाने कितने बड़े-बड़े आलेख लिख कर इसके दुष्प्रभावों की चर्चा की गई, लेकिन हम सब जानते हैं कि सिगरेट के डब्बे पर लिखा सिर्फ दो शब्द “Smoking Kills” या “धूम्रपान जानलेवा है” से ज्यादा प्रभावी कुछ भी साबित नहीं हुआ। ऐसे ही लेखिका के पर्यावरण पर दोनों लेख संक्षिप्त लेकिन बहुत ही प्रभावी है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">किताब का खंड दो ‘किन्नर विमर्श’ है जिसमें पाँच लेख संकलित हैं। ‘जो नर है न नारी’ शीर्षक लेख में लेखिका महेंद्र भीष्म द्वारा लिखे गए उपन्यास ‘किन्नर कथा’ और प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘तीसरी ताली’ की समीक्षात्मक आलोचना करते हुए किन्नरों की पीड़ा, उनकी पहचान, उनकी पूजा पद्धति आदि के बारे में विस्तृत विवरण देती हैं जो आम पाठकों के लिए रुचिकर और महत्वपूर्ण है। महेंद्र भीष्म के उपन्यास ‘किन्नर कथा’ की कहानी को लेखिका ने संक्षेप में लेकिन इतने प्रभावी ढंग से लिखा है कि पाठक इस कहानी का शब्द-चित्र अपनी आँखों के सामने बनता हुआ महसूस करेंगे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“इक्कीसवीं सदी और किन्नर विमर्श” शीर्षक लेख में लेखिका ने नीरजा माधव कृत ‘यमदीप’, निर्मला भुराडिया कृत ‘गुलाम मंडी’, महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’, प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ आदि किताबों के उद्धरण के साथ किन्नरों के साथ होने वाले भेद-भाव, सामाजिक अस्वीकार्यता, और रोजगार की समस्या के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए वांछित कदम उठाने की आवश्यकता पर बल दिया है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“एक समांतर दुनिया: ‘तीसरी ताली’ ” शीर्षक लेख प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘तीसरी ताली’ की विस्तृत समीक्षा समेटे हुए है। प्रदीप सौरभ के लेखन की प्रशंसा में लेखिका लिखती है “लेखक ने छानबीन के बाद हिजड़ों की जीवन शैली, उनके बीच गद्दियों, इलाकों और गद्दी के वारिस को लेकर होने वाले खूनखराबे, किसी को जबरदस्ती हिजड़ा बनाने, चुनरी की रस्म, गुरु परंपरा का निर्वाह, मूंछों वाले गिरिया रखने, हिजड़ों के अंदर छिपी स्त्रीत्व की भावना, उनकी मानवीय संवेदना और ममत्व, हिजड़े होने के दर्द, उनके आक्रोश और संघर्ष आदि को विस्तार से परत-दर-परत खोला है। हिजड़ों के जीवन के साथ-साथ इस उपन्यास में एक समांतर दुनिया है समलैंगिकों की, विकृत प्रवृत्ति वालों की। इतना ही नहीं, लेखक ने राजनैतिक पैंतरेबाज़ी को भी उजागर किया है। उनकी मारक टिप्पणी देखिए – ‘असली हिजड़े तो वे हैं जो जनता के वोटों से संसद और विधानसभा में जाकर उन्हीं का खून चूसने की योजनाएँ बनाते हैं और अपना पेट भरते हैं।’ ” किन्नर समुदाय अपनी स्थिति से किस कदर निराश है इसे लेखिका के इस कथन से समझा जा सकता है “दिल्ली में आमतौर पर हिजड़े के शव को रात को डंडों से मारते, उस पर चप्पल-जूते बरसाते और सड़क पर खींचते हुए श्मशान घाट ले जाते हैं। इस तरह शव को श्मशान में ले जाने के पीछे मान्यता है कि मरने वाला दोबारा तीसरी योनि में जन्म नहीं लेगा।” तीसरी ताली उपन्यास की समीक्षा के साथ ही लेखिका ने किन्नर होने के वैज्ञानिक कारणों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखिका का विज्ञान की पृष्ठभूमि से होना सहायक सिद्ध होता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“सम्मान की ज़िंदगी जीने की चाहत : नाला सोपारा” शीर्षक लेख चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ (2016) पर आधारित है जिसके लिए उन्हें 2018 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह उपन्यास पत्रात्मक शैली में लिखा गया है जिसमें एक पुत्र का बेबस माँ से संवाद है। उपन्यास में कुल मिलाकर सत्रह पत्र और उपसंहार में दो समाचार सम्मिलित हैं। उपन्यास के पात्र विनोद, जो एक किन्नर है, द्वारा लिखे गए पत्र इतने मार्मिक हैं जिसे पढ़ते समय पाठक भी अपने आप को विनोद के दर्द से जुड़ा हुआ पाते हैं। आज-कल किसी भी विमर्श पर किसी भी लेखक द्वारा आनन-फ़ानन में कुछ लिख देने की परंपरा चल पड़ी है लेकिन ऐसे लेखों में विश्वसनीयता का अभाव झलकता है। यह उसी तरह है कि कोई लोहार, हलवाई को सुझाव दे कि अच्छे रसगुल्ले कैसे बनाए जाते हैं। किसी विमर्श पर लेख या तो स्वयं के अनुभव जनित होने चाहिए या उसे लेखक ने किसी और के माध्यम से इस तरह आत्मसात किया हो कि आप प्रभावी ढंग से उस विषय पर कुछ कह सकें। प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने ‘देहरी’ शीर्षक से जो स्त्री-पक्षीय कविताएं लिखी हैं, उनमें स्त्रियों की पीड़ा इस तरह उभर कर सामने आती है जिसे शायद कोई स्त्री भी इस रूप में न लिख पाती। चित्रा मुद्गल भी इस उपन्यास में किन्नर की भावनाओं के इतने यथार्थ विवरण के पीछे के कारणों का उल्लेख करते हुए कहती हैं “जब मैं मुंबई के नाला सोपारा में रहती थी, तब मैं एक ऐसे ही युवक से मिली थी। उसे किन्नर होने की वजह से घर से निकाल दिया गया था। यह उपन्यास उसी युवक के विद्रोह की कहानी है। मैंने उसे अपने घर पर बहुत दिनों तक साथ रखा।”</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“समसामयिक हिंदी साहित्य : किन्नर विमर्श” लेख, किन्नर विषय पर लिखे गए कई उपन्यासों, कहानियों और कविताओं के माध्यम से इस चर्चा को आगे बढ़ाने का प्रयास है। यह लेख लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ (2015) की भी बात करता है जिसमें लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने अपने खुद के अनुभव के आधार पर किन्नर समुदाय के सच को उजागर किया है। यह देखना सुखद है कि साहित्यकारों का ध्यान किन्नर विमर्श की ओर गया है और इस दिशा में बहुत प्रयास हुए हैं लेकिन असली बदलाव तब होगा जब लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की ही तरह इसी समुदाय से और लेखक/लेखिका सामने आएं और अपने खुद के अनुभव और सत्य को सामने रखें।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">स्त्री विमर्श खंड में छः लेख हैं। विमर्शों में सबसे ज्यादा शायद स्त्री विमर्श पर ही लिखा गया है लेकिन आज भी समस्या बनी हुई है। इन लेखों में लेखिका किसी किताब और किताब की समीक्षा के माध्यम से स्त्री विमर्श के विभिन्न आयामों को एक बार फिर से पाठकों के सामने लाती हैं और उम्मीद जताती हैं कि परिस्थितियाँ जल्द बदलें।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“कविता में स्त्री” शीर्षक लेख में लेखिका लिखती हैं ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी स्त्री को पग-पग पर अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। घर की दहलीज पार करके जहाँ स्त्री समाज में पुरुषों से कदम मिलाकर आगे चल रही है वहीं उसे जिल्ल्त भी उठानी पड़ रही है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की कविता ‘प्रशस्तियाँ’, स्त्रियों के इस दर्द को भली-भांति दर्शाती है -<span style="color: #2b00fe;"> "मैंने जब भी कुछ पाया /मर खप कर पाया /खट खट कर पाया /अग्नि की धार पर गुज़र कर पाया /पाने की खुशी /लेकिन कभी नहीं पाई /***शिक्षा हो या व्यवसाय /प्रसिद्धि हो या पुरस्कार /हर बार उन्होंने यही कहा- /चर्म-मुद्रा चल गई! /[चर्म-चर्वणा से परे वे कभी गए ही नहीं!]”</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“सनातन स्त्री : देह भी विदेह भी” शीर्षक से लेख में लेखिका ने दिनकर के काव्य उर्वशी के माध्यम से प्रेम की व्याख्या की है। “स्त्री-पुरुष की परस्पर-आश्रयता” शीर्षक से लेखिका यह स्थापित करती है कि भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष एक दूसरे के विरोधी या प्रतिबल नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। ‘अर्द्धनारीश्वर’ के देश में.... शीर्षक लेख में विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ के बहाने लेखिका ने निर्भया और अन्य कई स्त्रियों के शारीरिक, मानसिक यातना और बलात्कार जैसी घटनाओं की चर्चा की है और न्याय मिलने में विलंब या न्याय न मिल पाने को इस समस्या की जड़ माना है। पुरुष प्रधान इस समाज में स्त्रियाँ या तो अपने साथ हुए अन्याय को बता ही नहीं पातीं और यदि बताया तो सामाजिक लांछन और न्याय न मिल पाने की वजह से ताउम्र बदनामी का दंश झेलने पर विवश होती हैं। गोस्वामी जी ने लिखा <span style="color: #2b00fe;">“कामिहि नारि पिआरि जिमि”</span> यह पुरुष प्रधान समाज की सोच को दर्शाता है। काम के अधीन औरत यदि सिर्फ प्यार की बात सोचती है तो काम के अधीन पुरुष क्या सोचता है? या पुरुष काम के अधीन होता ही नहीं? लेखिका ने इस सोच को बदले जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा है “पुराने विधि-विधान और पुरानी स्मृतियाँ आज के संदर्भ में अर्थहीन हैं। आज नई स्मृतियों और नई संहिताओं की जरूरत है। सब कुछ बदलना होगा, सारे समाज की मानसिकता को बदलना होगा।”</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“अल्पसंख्यक स्त्री का आधा गाँव “ शीर्षक लेख राही मासूम रज़ा कृत उपन्यास ‘आधा गाँव‘ पर आधारित है जो गंगौली गाँव के मुसलमानों का बेपर्द जीवन यथार्थ है। राही मासूम रज़ा ने गाँव के हिन्दू और मुस्लिमों के बीच पहले भाईचारे और उसके बाद बदलते हालात में आए परिवर्तन को बड़े ही प्रभावी ढंग से लिखा है। आम तौर पर स्त्री को फला की बेटी, फला की पत्नी, फला की माँ आदि कहकर संबोधित किया जाता है। उससे उसका नाम छीन लिया जाता है। इसी ओर इशारा करते हुए राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव‘ में कहा - ‘‘बेनाम होना तो बहुओं की तकदीर है। फ़र्क बस इतना हो जाता है कि अच्छे घरानों में वह या तो बहू कही जाती हैं या दुल्हन या दुलहिन। हमारे समाज में या तो यह होता है कि मैकेवाले दहेज देकर बेटी से अपना दिया हुआ नाम छीन लेते हैं या फिर यह कहिए कि ससुराल वाले इसे गवारा नहीं करते कि उनके यहाँ किसी और घर का दिया हुआ नाम चले। कभी-कभी यह बेनामी उन लड़कियों से ऐसी चिपक जाती है कि मरते-मरते पिंड नहीं छोड़ती।‘‘ इस संबंध में मुझे राजम पिल्लई की कविता याद आती है जिसका शीर्षक है "गांधारी तुम्हारा नाम क्या है?" और गौर करने पर अचानक हम पाते हैं कि उस दौर में स्त्रियों के अपने नाम गुम हो गए। केकय देश की राजकुमारी केकई बन गईं तो कोशल देश की राजकुमारी कौशल्या। स्त्रियों को अपने नाम से भी अलग कर दिए जाने से ज्यादा अन्याय उनके साथ और क्या होगा। राही मासूम रज़ा झंगोटिया-बो और सईदा दो पात्रों के बारे में लिखते हैं जिन्हें आर्थिक परेशानियों की वजह से अपने शरीर से समझौता करना पड़ा। नीरजा लिखती हैं "सर्वत्र शरीर संबंध है और इस संबंध के पीछे सवाल आर्थिक हैं। परदे के भीतर भी स्त्री का संघर्ष और उसका आत्मसंघर्ष चलता रहता है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी चल रहा है।"</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">लघुकथा विमर्श खंड में लेखिका ने श्याम सुंदर अग्रवाल, कमल चोपड़ा और सीमा सिंह की लघुकथाओं का विस्तृत विश्लेषण और विवेचन किया है। लेखिका का कहना है कि आज की लघुकथाओं को देखने से यह स्पष्ट होता है कि पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक विसंगतियों को लघुकथाकारों ने अपना कथ्य बनाया है। लघुकथा आंदोलन से जुड़कर अनेक साहित्यकारों एवं पत्र-पत्रिकाओं ने इस विधा को सशक्त बनाया। विष्णु प्रभाकर ने अपने लघुकथा संग्रह ‘आपकी कृपा है’ की भूमिका में लिखा कि “विकास की एक सुनिश्चित परंपरा आज की लघुकथा के पीछे देखी जा सकती है। न जाने किस काल-खंड में मनीषियों ने अपने सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में स्पष्ट करने के लिए दृष्टांत देने की आवश्यकता अनुभव की, इसी अनजाने क्षण में लघुकथा का बीजारोपण हुआ। तब उसका नाम दृष्टांत या ऐसा ही कुछ रहा होगा।” लेखिका ने कहा है कि 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधवराव सप्रे की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली लघुकथा माना जाता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">श्याम सुंदर अग्रवाल की कई लघु कथाओं का विश्लेषण करते हुए लेखिका ने उनकी लघुकथाओं में सामाजिक कुरीति पर प्रहार, व्यवस्था पर व्यंग्य, गरीबी आदि को तो रेखांकित किया ही है, वैज्ञानिक समालोचना करते हुए लघु कथा शिल्प, कथाओं में संवाद, विवरण, निपातों का प्रयोग, स्थानीय भाषा प्रयोग, विस्मयादिबोधक/ प्रश्न चिन्ह/ पुनरावृति/ अल्पविराम आदि के प्रयोगों को उदाहरण के साथ पाठकों के सम्मुख रखा है जो पाठकों को लघु कथा के स्वरूप, औचित्य, शिल्प और महत्व को समझने में सहायक सिद्ध होगी। श्याम सुंदर अग्रवाल की लघु कथाओं के बारे में लेखिका ने लिखा है “श्याम सुंदर अग्रवाल अपनी लघुकथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मानवाधिकारों के हनन और सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व नैतिक विडंबनाओं पर सीधे-सीधे प्रहार करते हैं। गरीबी और भूख के अमानुषिक सच को उन्होंने इस तरह उकेरा है कि व्यंजनापूर्ण शब्दावली पाठक के हृदय को छील देती है। वे सरल संप्रेषणीय भाषा प्रयोग द्वारा भ्रष्ट शासन व्यवस्था पर व्यंग्य कसते ही हैं अनेक लघुकथाओं के अंत में झिड़की भी देते हैं।“</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कमल चोपड़ा के लघुकथाओं का भी नीरजा साहित्यिक और वैज्ञानिक विश्लेषण तो करती ही हैं, साथ ही लघु-कथा के बारे में कई साहित्यकारों के कथन के माध्यम से लघु कथा की परिभाषा और लघु कथा के महत्व को स्थापित करती हैं। कमल चोपड़ा की लघु कथाओं में अच्छी कथा होने के सभी अवयव होने की बात करते हुए लेखिका लिखती हैं “अपनी लघुकथाओं में कमल चोपड़ा सामाजिक विसंगतियों पर सीधा प्रहार करते हैं और कथा के अंत में ‘पंच’ के साथ उनकी धज्जियाँ उड़ाते हैं। इनकी भाषा बोधगम्य तथा परिवेश और पात्र के अनुरूप है। इनकी लघुकथाओं में व्यंग्य भी है और फटकार भी; आक्रोश भी है और चेतना तथा जागरूकता भी।“ सीमा सिंह की लघु कथाओं के बारे में लेखिका का यह कथन द्रष्टव्य है “सीमा सिंह ने स्त्री जीवन के विविध पक्षों पर लेखनी चलाई है। सरल, सहज और संप्रेषणीय भाषिक प्रयोग से स्त्री-प्रश्नों को उकेरा है और साथ ही उनका निदान किया है। वे सड़ी-गली मान्यताओं को तोड़ कर नवीन जीवन मूल्यों को स्थापित करने में विश्वास रखती हैं और यह आशा करती हैं कि स्त्री को खुलकर जीने का अधिकार प्राप्त हो।"</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“विमर्श विविधा” इस किताब का पाँचवां और आखिरी खंड है जिसमें अलग-अलग विमर्शों के आठ लेख संकलित हैं। डॉ. रमेशचंद्र शाह को उनके उपन्यास ‘विनायक’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किए जाने की बात से आरंभ करते हुए “सृजन के आयाम : रमेशचंद्र शाह” शीर्षक से लेख में नीरजा ने लेख के पहले भाग में डॉ. रमेश चंद्र शाह का परिचय और उनके साहित्य का परिचय दिया है, भाग दो में लेखिका के डॉ. रमेश चंद्र से मुलाकात से संस्मरण है जिनमें लेखिका के प्रति डॉ. रमेश चंद्र शाह का कथन दक्षिण भारत में हिंदी की सेवा में लगे साहित्यकारों के लिए भी महत्वपूर्ण है “मैं जहाँ भी जाता हूँ वहाँ हमेशा यही कहता हूँ कि हिंदी का उद्धार दक्षिण भारतीय ही करते हैं और वे ही यह काम कर सकते हैं। क्योंकि वे अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी को भी आगे ले जाने का काम कर रहे हैं।” इसी लेख में लेखिका ने साहित्यकार डॉ. रमेश चंद्र की एक आलोचक के तौर पर, एक कवि के रूप में, एक दार्शनिक के रूप में मीमांसा की है। उनके उपन्यास ‘विनायक’ के माध्यम से लेखिका ने उनके गद्य लेखन पर भी विस्तृत चर्चा की है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“समाज विमर्श : रमेश पोखरियाल ‘निशंक’” शीर्षक से लेखिका ने डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के बारे में परिचय देते हुए उनकी कविताओं और कहानियों के माध्यम से परिवार और समाज के प्रति उनके विचारों को सामने रखा है। डॉ. निशंक ने खुद कहा है कि एक राजनेता होने से पहले वे साहित्यकार और समाजसेवी हैं। लेखिका ने लिखा है “रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की दृष्टि सुधारवादी है। वे मनुष्यता को कायम रखने की बात करते हैं। उनकी कहानियों में आदर्श की स्थिति को देखा जा सकता है। वे यथार्थ की परिस्थितियों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं, उन्हें सोचने के लिए बाध्य करते हैं और उन परिस्थितियों को सुधारने के लिए राह भी सुझाते हैं। वे मानवीय मूल्यों एवं आदर्श परिवार को प्रमुखता देते हैं।”</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">वरिष्ठ हिंदी कवि केदारनाथ सिंह को सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार (2013) से सम्मानित किए जाने के संदर्भ में “लोकतंत्र और लोक विमर्श : केदारनाथ सिंह” शीर्षक से लेख में लेखिका ने केदारनाथ सिंह की कविताओं में ज़मीन से जुड़ाव और मिट्टी की खुशबू की बात की है। लेखिका ने लिखा है कि केदारनाथ सिंह की कविताओं में गाँव की प्राकृतिक आभा की अनेक छवियाँ दिखाई देती हैं। इनकी कविताओं के बिंब में नदी, नाले, फूल, जंगल, तट धूप, सरसों के खेत, धानों के बच्चे, बन, सांध्यतारा, बसंत, फागुनी हवा, पकड़ी के पात, कोयल की कूक, पुरवा-पछुवा हवा, शरद प्रात, हेमंती रात, चिड़िया, घास, फुनगी आदि बार-बार आते हैं जो इनके मिट्टी से जुड़ाव का परिचायक है। बिंब के बारे में केदारनाथ सिंह का कथन महत्वपूर्ण है “बिंब पाठक को रोकता-टोकता चलता है और एक हद तक उसे विवश करता है कि वह रुके और सोचे और समग्र कविता के बारे में तुरत-फुरत कोई फैसला न दे। यह रचनात्मक बाधा शायद एक ऐसी कसौटी है जिस पर हम कविता का श्रेणी विभाजन कर सकते हैं।”</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“समकालीन कविता : उत्तरआधुनिक विमर्श” शीर्षक लेख में लेखिका ने संप्रेषणीयता को कविता की मुख्य चुनौती माना है। आज की नई पीढ़ी जिनकी पहुँच विश्व साहित्य तक है और इंटरनेट के माध्यम से विश्व घर जैसा है, की कविताओं के बिंब वैश्विक परिदृश्य से प्रभावित हैं। लेखिका ने कुमार लव की कविता का उल्लेख किया है “प्रोमेथ्यूज़ का कलेजा/ हर रोज़ नोचती चील/ सोचती होगी/ कैसा मूर्ख है यह,/ देवताओं से लड़ता है भला कोई!!” यहाँ प्रोमेथ्यूज़ के बारे में जाने बिना इस बिंब को समझा नहीं जा सकता। दूसरी तरफ वह पीढ़ी है जो आज भी गाँव को याद करते हुए अपने को उस मिट्टी से जुड़ा हुआ पाती है और उनकी कविताओं के बिंब में यह भाव आयातित होता है। लेखिका ने प्रो. ऋषभदेव शर्मा की कविता का उल्लेख किया है “चिकनी पीली मिटटी को/ कुएँ के मीठे पानी में गूँथकर/ बनाया था माँ ने वह चूल्हा/ और पूरे पंद्रह दिन तक/ तपाया था जेठ की धूप में/ दिन दिन भर/ उस दिन/ आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,/ हमारे घर का बगड़/ बूंदों में नहा कर महक उठा,/ रसोई भी महक उठी थी –/ नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था।/ गाय के गोबर में/ गेहूँ का भुस गूँथ कर/ उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से/ और आषाढ़ के पहले/ बिटौड़े में सजाती थी उन्हें/ बड़ी सावधानी से।” आज की युवा पीढ़ी अपने आप को इन कविताओं से तारतम्य बिठाने में सहज नहीं पाती। डॉ. नीरजा ने हालांकि यह नहीं लिखा कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा और कुमार लव पिता-पुत्र हैं लेकिन फिर भी यह न सिर्फ कविता के स्तर पर बल्कि दो पीढ़ियों के बीच आपसी संवाद के स्तर पर भी संप्रेषणीयता के संकट को दर्शाती है। दो चुंबक के ध्रुव जब समान दिशा में हों तो उनमें विकर्षण होता है। कविता और वर्तमान पीढ़ी दोनों ही इस विकर्षण के दौर से गुजर रही है जहाँ संप्रेषणीयता एक बड़ी समस्या है। अगली पीढ़ी तक आते-आते जब दोनों ही पीढ़ी के लोग वैश्विक समझ रखने वाले होंगे तब शायद चुंबक के दोनों ध्रुव आसमान दिशा में हों जाएं और यह दूरी मिट जाए । ‘वक्तव्य प्रधानता’ और ‘अभिव्यक्ति का खतरा’ को लेखिका ने कविता की अन्य चुनौतियों में शामिल किया है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">“नई सदी की कविता का दलित परिप्रेक्ष्य” शीर्षक लेख में लेखिका विभिन्न कविताओं के माध्यम से दलित विमर्श पर चर्चा करती हैं तो “विस्थापन विमर्श : भाषा की आजादी” शीर्षक लेख से महुआ माजी के उपन्यास 'मैं बोरिशाइल्ला' की समीक्षा करते हुए लेखिका ने विस्थापन के दर्द को उकेरा है। “संताल संस्कृति की संघर्ष महागाथा : बाजत अनहद ढ़ोल” शीर्षक लेख संताल आदिवासियों के संघर्ष को याद करते हुए उनकी समस्याओं को सामने लाने का प्रयास है। किताब का आखिरी लेख “वृद्धावस्था विमर्श” है। जिस तरह जीवन का आखिरी पड़ाव वृद्धावस्था है वैसे ही सभी विमर्शों की चर्चा के बाद लेखिका ने वृद्धावस्था विमर्श की बात की है, हालांकि यह last but not the least है। इस महत्वपूर्ण विमर्श में वृद्ध लोगों के साथ स्नेह और सद्भाव बनाए रखने के आह्वान के साथ लेखिका लिखती हैं “वास्तव में वृद्धों को चाहिए थोड़ा सा स्नेह और आत्मीयता। उन्हें आश्वासन चाहिए कि वे सुरक्षित हैं। बस यही उनकी अपेक्षाएँ हैं।” और इतना तो हम उन्हें दे ही सकते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">जी. नीरजा के इन लेखों को पढ़ते हुए अनायास ही मेरे ज़ेहन में बचपन में की गई रेल यात्रा उभरती है जिसमें खट्टी-मीठी चौकलेट बेचने वाला ‘बारह मसाले तेरह स्वाद’ की आवाज़ लगाता था। ये सभी लेख अलग-अलग समय में लिखे गए हैं इसलिए इनकी अपनी अलग पहचान तो है ही लेकिन इस किताब में संकलित हो जाने और इन्हें एक साथ पढ़ने से पाठक इन लेखों के ‘तेरहवें स्वाद’ से भी परिचित हो सकेंगे। जी. नीरजा अपने लेखों में, स्थापित किताबों के माध्यम से मजबूत तटबंध बनाती हैं और फिर इन तटबंधों के बीच अपनी बात प्रखरता से रखती हैं इस बात से आश्वस्त कि ये तटबंध उन्हें विषयांतर से बचाते हुए अपनी बात रखने की आज़ादी देंगे। लेखिका के शब्दों की सरलता सुनिश्चित करती है कि इन तटबंधों के बीच इनके विचारों का प्रवाह अवरुद्ध न हो। हालांकि यह किताब आधुनिक साहित्य की बात करती है लेकिन इसमें संकलित कई विमर्श हमें इस परिधि से परे देखने का आग्रह करते हैं। अज्ञेय ने भी लिखा “आधुनिक हिंदी साहित्य की परंपरा अथवा उसका परिदृश्य उतना लंबा नहीं है कि कुछ बातों की परीक्षा हम उसी की सीमा के भीतर रहते हुए कर सकें। लेकिन यह बिल्कुल जरूरी भी नहीं है, उचित भी नहीं है, कि हम अपने को उसी सीमा से बांध कर रखें।“ मितभाषी नीरजा, जो बहुत ही कम बोलती हैं, के आसपास शब्दों का सन्नाटा रहता है लेकिन उनके लिखे शब्द राष्ट्रीय परिदृश्य पर कोलाहल मचा रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि यह कोलाहल थमेगा भी नहीं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><ul><li><a href="https://www.hindikunj.com/2021/12/barah-masala-terah-swad.html">हिंदी कुंज पर प्रकाशित </a></li></ul></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6527133206451530608.post-45795256173832964272021-12-21T23:57:00.004+05:302021-12-21T23:58:50.336+05:30कविता को समझने के लिए ....<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgabCyV3oJ1yNdoFKD-_hYpYItLp8vw6S_cMOQUIKcZZZM_B0ehG2D0P9hT1limJc0PfaX9_S0k666slkiw3_bWk7u_W_EEW7eb1UN2RjbLghxa5dEJx5g_N6_3JqPn02IFysEnWXJBHTvFJLpZdeA48OMwgyCYk1ijcQ-U0sfAkHsookEr1kbw_3Ac=s1080" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="570" data-original-width="1080" height="338" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgabCyV3oJ1yNdoFKD-_hYpYItLp8vw6S_cMOQUIKcZZZM_B0ehG2D0P9hT1limJc0PfaX9_S0k666slkiw3_bWk7u_W_EEW7eb1UN2RjbLghxa5dEJx5g_N6_3JqPn02IFysEnWXJBHTvFJLpZdeA48OMwgyCYk1ijcQ-U0sfAkHsookEr1kbw_3Ac=w640-h338" width="640" /></a></div><br /><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">तू काव्य :</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">सदा-वेष्टित यथार्थ</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">चिर-तनित,</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">भारहीन, गुरु,</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">अव्यय।</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">तू छलता है</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">पर हर छल में</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">तू और विशद, अभ्रान्त,</span></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">अनूठा होता जाता है। (अज्ञेय)</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कविता सहृदय और संवेदनशील मनुष्य के मन की उपज है। इसे एक निश्चित परिभाषा में बाँधना कठिन कार्य है। फिर भी अनेक विद्वानों ने इसे पारिभाषित करने का प्रयास किया है। कविता को पारिभाषित करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है?’ में कहा है कि ‘कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है।’ काव्यशास्त्र में इन्हीं मनोवेगों को रस कहा जाता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">भारतीय काव्यशास्त्रियों ने कवि और कविता को उदात्त माना है। भारतीय काव्यशास्त्र में कवि को महत्व दिया गया है। भरतमुनि समेत अनेक आचार्यों ने काव्य के गुणों की चर्चा की है। आनंदवर्धन ने तो कवि को प्रजापति कहा है (अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति)। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने कविता को उन्माद कहा है, तो विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को तीव्र मनोभावों का सहज उच्छलन कहा है। चाहे कोई भी कुछ भी कहे, साहित्य अथवा कविता व्यक्ति के आंतरिक मनोभावों की अभिव्यक्ति है। सृजनात्मकता का परिचायक है। कविता की शक्ति का एक बड़ा उदाहरण यह है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय कविता ने जनमानस को जागृत करने का कार्य किया है। कवि के सामने अनेक तरह की चुनौतियाँ रहती हैं। जब तक पाठक काव्य-वस्तु में नहीं डूबेंगे, तब तक कविता के अर्थ को समझ नहीं पाएँगे। इस ‘डूबने’ की प्रक्रिया को विद्यानिवास मिश्र शब्दार्थ-व्यापार कहते हैं, ‘क्योंकि शब्द ही डूबने का प्रेरक भी है, शब्द ही तिरने का साधन भी।’ (विद्यानिवास मिश्र, रीतिविज्ञान, पृ. 35)। वे आगे यह कहते हैं कि ‘कविता बोलचाल की भाषा से ही नहीं, एकदम भदेसी एवं अंतरंग अनगढ़ बोलचाल की भाषा से शब्द लेने के लिए लाचार हो जाती है।’ (वही, पृ. 47)। कहने का तात्पर्य है कि कवियों की मानसिकता में जैसे-जैसे परिवर्तन होगा, वैसे-वैसे कविता के प्रतिमान बदलने लगेंगे। कविता को समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है। मेरे हाथ एक ऐसी पुस्तक लगी जो कविता को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। <span style="color: #2b00fe;">‘हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान’ (2021)</span> शीर्षक यह पुस्तक कविता को समझने के लिए सहायक सिद्ध होगी। साहित्य रत्नाकर, कानपुर से प्रकाशित इस पुस्तक के रचनाकार हैं प्रसिद्ध तेवरीकार <span style="color: #2b00fe;">प्रो. ऋषभदेव शर्मा</span>। इस पुस्तक को पढ़ते समय पाठकों में सहज जिज्ञासा जागृत होगी, क्योंकि इस पुस्तक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कवि महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण है प्रवृत्तियाँ; और वे परिस्थितियाँ जिनके कारण प्रवृत्तियों का जन्म होता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इस पुस्तक में कुल आठ सोपान हैं। पहला सोपान है ‘नींव का परिवेश और विचारों की यात्रा’, जो विशेष रूप से 1950 के बाद की कविता को समझने में सहायक है। इसमें यह देखने को मिलता है कि 1950 से लेकर 1970 तक की काव्य-यात्रा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है लोक जीवन और लोक संस्कृति तथा प्रकृति के साथ कविता का रागात्मक संबंध। इस कालखंड में अनेक काव्यांदोलन उभर कर सामने आए। इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में परिस्थितियों के प्रति आक्रोश और नए रास्ते खोजने की चाहत को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है, जिनके कारण काव्य-स्थितियाँ बदलीं और नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। परिवर्तनों को प्रोत्साहन मिला। कवियों की मानसिकता बदलने लगी। ‘परंपरा और परिवेश के बीच संवाद-सेतु के रूप में कार्य करने वाला कवि जब दोनों को ही आत्मसात कर लेता है, तब उस युग की सच्ची कविता पैदा होती है।’ (पृ. 38)। सो, हुई।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">कविता और राष्ट्रीयता का गहरा संबंध होता है। दोनों को अलग करके देखना कठिन कार्य है। ‘कविता जिस परंपरा से जीवन ग्रहण करती है, वह किसी समाज और राष्ट्र की सांस्कृतिक परंपरा ही होती है।’ (पृ. 48)। साहित्य के विद्यार्थी यह भलीभाँति जानते हैं कि आठवें-नवें दशक की कविता का मूल स्वर यही ‘राष्ट्रीय चेतना’ है। इसे लेखक ने ‘देश के सिर से बहते हुए रक्त से कविता की बातचीत’ शीर्षक दूसरे सोपान में बखूबी उकेरा है। इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘कविता ने व्यक्ति को देश के एकदम निकट ले जाने की कोशिश की है, क्योंकि उसकी निकटता प्राप्त किए बिना निर्माण की संभावनाएँ क्षीण हो जाती हैं। ... राष्ट्र-निर्माण के लिए गाँव को समझना और उसके जीवन को पहचानना अनिवार्य है।’ (पृ. 57)।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">आधुनिक समाज को नियंत्रित करने वाले दो प्रमुख तत्व हैं - विज्ञान और परंपरागत सामाजिक मान्यताएँ तथा मूल्य। स्वस्थ समाज के निर्माण में इन दोनों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। 1970 के बाद की परिस्थितियों पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक मूल्य तेजी से बदलने लगे। मूल्य-ह्रास की प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई। इन परिस्थितियों ने कवि की रचनाशीलता को भी प्रभावित किया। परिणामस्वरूप कविता की प्रवृत्तियाँ बदलने लगीं। नई सभ्यता विकसित होने लगी। मनुष्य का जीवन दबावों के बीच फँस गया। ‘पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति और परिचय के अभाव ने मनुष्य को एक कैलेंडर की शक्ल दे दी है, जिसमें वर्ष भर के समय का लेखा-जोखा तो होता है किंतु जीवंतता नहीं होती’ (पृ. 72), तो कवि पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित हुआ। जनपक्षधरता का गुण उभरकर सामने आने लगा। इसका खुलासा ‘सामाजिकता, परंपराबोध और कविता’ शीर्षक तीसरे सोपान में हुआ है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">‘कविता और राजनीति का आमना-सामना’ शीर्षक चौथे सोपान में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘कविता ने जनपक्षीय राजनैतिक मूल्यों को ग्रहण करके राजनीति के यथार्थ तथा जनता के मन के आक्रोश को मुख्य रूप से अभिव्यक्ति दी है।’ (पृ. 99)। आज़ादी के बाद देश में धीरे-धीरे कुर्सीधर्मी राजनीति पनपने लगी। ‘हिंसा’ इस कुर्सीधर्मी राजनीति का दूसरा चरित्र है। सन सत्तर के बाद देश भर में जो हिंसक घटनाएँ हुईं उनके पीछे राजनीति का हाथ है। जन-प्रतिनिधि ‘रक्षक’ के बदले ‘भक्षक’ बनने लगे। व्यक्ति केंद्रित राजनीति पनपने लगी। तानाशाही का उदय होने लगा। जनता का मोहभंग होने लगा। उनके स्वप्न बिखरने लगे। निरंकुशता बढ़ने लगी। ऐसी स्थिति में संघर्ष अनिवार्य था। 1970 के बाद की कविता ने इन परिस्थितियों को चित्रित ही नहीं किया, बल्कि इनके कारण उत्पन्न असंतोष और आक्रोश को भी अभिव्यक्त किया।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1960 के आस-पास हिंदी कविता के क्षेत्र में अनके काव्यांदोलन हुए। जैसे नवगीत, अकविता, अभिनव कविता या एण्टी कविता, ताजी कविता, सांप्रतिक कविता, अस्वीकृत कविता, सचेतन कविता, बीट कविता, विद्रोही कविता, युयुत्सावादी कविता, साठोत्तरी कविता, सहज कविता, सनातन सूर्योदयी कविता, अगीत, ग़ज़ल, तेवरी, मंत्र कविता आंदोलन आदि। इनमें से कुछ आंदोलन आठवें-नवें दशक की कविता के साथ भी चलते देखे जा सकते हैं। ‘आंदोलनों के मंच पर बोलती कविता’ शीर्षक पाँचवे सोपान में इन आंदोलनों और परिस्थितियों का परिचय सम्मिलित है, जो हर पाठक को जानना बेहद जरूरी है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">1970 के बाद कविता जिन सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित हुई उनसे ‘कविता की समग्र दृष्टि से साक्षात्कार’ शीर्षक सोपान में परिचित हुआ जा सकेगा। सत्तर के बाद की कविता के संबंध में कुछ आक्षेप हैं। जैसे वक्तव्य की प्रधानता, शहरी वातावरण की प्रधानता, भारतीय जीवन की ठोस चुनौतियों का अभाव आदि। परंतु इस सोपान में यह स्पष्ट किया गया है कि ‘इस काल की कविता में जनवादी काव्यांदोलन नए तेवर और तैयारी के साथ उभरा। इन कविताओं में संघर्ष का तेवर मुख्य है और राजनीतिक तथा आर्थिक शोषण इनका उपजीव्य है।’ (पृ. 182)। उपलब्धियों की दृष्टि से इस दशक की कविता संपन्न कविता है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">इक्कीसवीं सदी की कविता में एक बार फिर कथात्मकता, छंद और लय की वापसी हुई। समकालीन रचनाधर्मिता के मर्म को जानना हो, तो ‘कविता की रचनाधार्मिता : जनपद और लोक’ शीर्षक सोपान से गुजरना काफ़ी है। लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि विश्वसनीयता, लोकचित्त, विचार, नई भाषा की तलाश आदि समकालीन रचनाधार्मिता के प्रमुख बिंदु हैं। उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि इस कविता में स्थानीयता और तात्कालिकता के बावजूद सार्वभौमता और विश्वदृष्टि को साधा जा सका है।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उत्तर आधुनिक विकेंद्रीकरण के कारण समाज, राजनीति, साहित्य, कला और दर्शन आदि सभी क्षेत्रों में नए-नए खंड बन रहे हैं- स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, किन्नर, किसान, वृद्ध आदि। कहने का आशय है कि हाशिये के भीतर धकेले गए समुदाय अब अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ‘उत्तर आधुनिकता के क्षितिज पर विमर्शों का इंद्रधनुष’ शीर्षक अंतिम सोपान में इस बात की गहन चर्चा करते हुए लेखक ने विशेष रूप से दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श पर केंद्रित कविता का आकलन किया है और निरूपित किया है कि बहुकेंद्रीयता नई सदी के आरंभिक दशकों की मुख्य परिस्थिति भी है, और प्रवृत्ति भी।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">अंततः कहना ही होगा कि कविता के क्षेत्र में अनुसंधानरत शोधार्थियों और शोध निर्देशकों के लिए ‘हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान’ निश्चित रूप से एक आकर ग्रंथ सिद्ध होगा। यह पुस्तक बहुत ही प्रासंगिक है। इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ेंगे तो आप अनेक प्रवृत्तियों और उप-प्रवृत्तियों को जरूर चिह्नित कर सकेंगे। लेकिन इसके लिए परिश्रम करना ही होगा। जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ! (कबीर)। लेखक ने समकालीन कविता के सागर में गहरा गोता लगाकर ही ये मोती खोजे हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">***</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">समीक्षित पुस्तक : हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान तक</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">लेखक : ऋषभदेव शर्मा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">प्रकाशन वर्ष : 2021</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">प्रकाशक : साहित्य रत्नाकर, कानपुर</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">पृष्ठ : 224</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="color: #2b00fe;">मूल्य : रु. 495/-</span></div> Gurramkonda Neerajahttp://www.blogger.com/profile/15380939804304000823noreply@blogger.com0