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योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण (7 जनवरी, 1941-9 मई, 2025) |
प्रतिष्ठित कवि, कथाकार, बाल साहित्यकार, समीक्षक, शिक्षाविद, स्तंभ लेखक और मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं प्राकृत तथा अपभ्रंश के विशेषज्ञ के रूप में प्रसिद्ध योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ (7 जनवरी, 1941) का निधन 9 मई, 2025 को हो गया।
डॉ. ‘अरुण’ ने अपभ्रंश भाषा और जैन साहित्य के गहन अध्येता तथा व्याख्याकार के रूप में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतविद्या (इंडोलॉजी) के क्षेत्र में उल्लेखनीय तथा अविस्मरणीय योगदान किया है। इस दृष्टि से उनकी ‘अपभ्रंश’, ‘पुष्पदंत’, ‘जैन रामकाव्य और महाकवि स्वयंभूदेव प्रणीत पउमचरिउ’, ‘जैन रामायण की कहानियाँ’, ‘जैन कहानियाँ’, ‘स्वयंभू एवं तुलसी के नारी पात्र’ तथा ‘प्राकृत-अपभ्रंश इतिहास दर्शन’ जैसी कृतियाँ अपना सानी नहीं रखतीं। उनका निधन साहित्यिक जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।
एम.ए. (हिंदी), साहित्य रत्न, पीएच.डी. और डी.लिट्. की उपाधियों से अलंकृत डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जीवट व्यक्तित्व के धनी थे। जैन रामकथा के अंतर्गत स्वयंभू एवं तुलसी के नारी पात्र : तुलनात्मक अनुशीलन, स्वयंभू प्रणीत ’पउमचरिउ’ में समाज, संस्कृत एवं दर्शन की अभिव्यंजना पर उन्होंने पीएचडी और डीलिट की उपाधियाँ अर्जित कीं। शंभू दयाल कॉलेज, ग़ाज़ियाबाद (मेरठ विश्वविद्यालय), बी.एस.एम. (स्नातकोत्तर) कॉलेज, रुड़की (मेरठ विश्वविद्यालय), पोस्ट ग्रैजुएट कॉलेज, पीलीभीत (एम.जे.पी. रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली) आदि में अध्यापन कार्य से जुड़े रहे। उनके निर्देशन में अनेक विद्यार्थियों ने शोधोपाधियाँ अर्जित कीं।
डॉ. ‘अरुण’ की सतत साधना का सम्मान करते हुए 1975 में उन्हें थियोसोफ़िकल सोसायटी, अड्यार (चेन्नई) ने यूनिवर्सल ब्रदरहुड अवार्ड प्रदान किया। अन्य अनेक सम्मानों-पुरस्कारों के अतिरिक्त उन्हें 2006 में अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर ने ‘स्वयंभू सम्मान’ से तथा 28 जनवरी, 2019 को केंद्रीय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ने ‘भाषा सम्मान’ से अलंकृत किया। 2010 में दूसरी बार ‘स्वयंभू सम्मान’ से अलंकृत हुए। साथ ही, भारतविद्या के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा ने ‘स्वामी विवेकानंद पुरस्कार’, ‘तुलसी सम्मान’ और ‘विद्यानिवासमिश्र स्मृति सम्मान’ भी प्रदान किए। अन्य अनेक संस्थानों ने भी उन्हें सम्मानित कर गौरव का अनुभव किया।
अपभ्रंश साहित्य के विद्वान के रूप में प्रख्यात ‘अरुण’ जी ने मौलिक पुस्तकों के साथ-साथ अनेक संपादित पुस्तकें, अनूदित पुस्तकें और शोध पत्र प्रकाशित करके पाठकों का मार्गदर्शन किया। ‘आशा कभी न छोड़िए’, ‘आशा जीवित है’, ‘अक्षर अक्षर हो अमर’, ‘अँधियारों से लड़ना सीखें’, ‘बहती नदी हो जाइए’, ‘जीवन-अमृत’, ‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’ आदि उनकी काव्य कृतियाँ उल्लेखनीय हैं।
‘अरुण’ जी आशावादी थे। जीवन को हमेशा एक नई दृष्टि से देखते थे। परेशानियाँ हर किसी के सामने उपस्थित होती हैं। ‘अरुण’ जी ने भी इन परेशानियों का सामना किया, पर हँसते-हँसते कहते हैं – ‘परेशानियाँ बहुत हैं/ हँस कर टालो यार/ कुछ को डालो वक़्त पर/ यह जीवन का सार।’ उनके भीतर की जिजीविषा को उनकी कविताओं में तथा उनकी छोटी-छोटी टिप्पणियों में भी देखा जा सकता है। वे हमेशा अपने आप पर भोरसा रखने के लिए कहते हैं क्योंकि ‘हैं जिन्हें खुद पर भरोसा, पाते हैं मंजिल वही,/ उनकी हिम्मत तो कभी, मिटती नहीं है दोस्तो।'
‘अरुण’ जी हमेशा ही मानवीय संबंधों और मूल्यों को महत्व देते थे। वे जहाँ भी जाते थे वहाँ के लोगों से एक आत्मीय रिश्ता बना लेते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। वे सबके दुख-दर्द में शामिल हो जाते थे। वे अपने दिल का दरवाजा खोलकर सबके दर्द को अपना समझकर आगे बढ़ते थे और लोगों को ढाढ़स बँधाते थे – ‘दिल का दरवाजा खुला है, आइए, आ जाइए/ हम भी बंदे आपके हैं, यह यकीं ले आइए।’ ‘सबका दर्द समझकर् अपना, सहते आए सदा से हम/ नश्वर जग को अपना ही घर, कहते आए सदा से हम।’
‘अरुण’ जी अपने आसपास के वातावरण को प्रेममय बना ही डालते थे। वे कबीर की इस उक्ति को बार-बार दोहराते थे और आज के इस अमानवीय संसार को देखकर चिंतित होते हुए कहते थे– ‘पढ़ी किताबें सारी हमने, ‘ढाई आखर’ भूल गए/ दौलत कर झूले पर देखो, दुनिया वाले झूल गए।’ वे ढाई आखर प्रेम को अत्यंत महत्व देते हैं, क्योंकि आज दुनिया में हर व्यक्ति मुखौटा पहनकर जी रहा है, ऐसे में सच्चा प्यार मिलना मुश्किल है। अतः अरुण जी कहते हैं कि ‘प्यार जहाँ मिलता सखे,/ जाएँ वहाँ जरूर।/ प्यार अनूठी चीज़ है,/ तोड़े व्यर्थ गुरूर।’
आज दुनिया लोभ और स्वार्थ से भरी हुई है। ऐसी स्थिति में प्रेम, भाईचारा आदि गायब ही हो जाते हैं। ‘अरुण’ जी लोभ को मनुष्य का परम शत्रु मानते थे और धैर्य को अस्त्र बनाने के लिए कहते थे, ताकि इस लोभ को जीता जा सके – ‘लोभ महा शत्रु मनुज का,/ इससे लड़ा न जाय।/ लोभ शत्रु को जीतो सखे,/ धैर्य को अस्त्र बनाय।’
आज सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हर एक के पास धन-दौलत, सोना-चाँदी, ऐश्वर्य के अनेकानेक साधनों की बाढ़ है, लेकिन संवेदनाएँ खो गई हैं, लगता है मर-सी गई हैं। ‘अरुण’ जी इससे चिंतित रहते थे। अतः उनकी रचनाएँ हमें इस संकट से रू-ब-रू कराती हैं। वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि ‘अब बचाना आदमीयत, हो गया अनिवार्य-सा/ वरना सब कुछ खत्म खुद ही, आदमी कर जाएगा।’
यह नफ़रतों का दौर है। मूल्यों का ह्रास चरम पर है। नफरत, छल, कपट, बेईमानी, ईर्ष्या आदि का साम्राज्य चारों तरह फैल रहा है। ‘अरुण’ जी यह प्रश्न उठाते हैं कि ‘नफ़रतों का दौर ये कब तक चलेगा/ आदमी खुद को भला कब तक छलेगा?’ इस तरह की स्थितियों में सामान्य जनता का निराश होना स्वाभाविक है। कहा जाता है कि भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। इसी तर्ज पर निराशा की घड़ी में भी आशा को जगाए रखने की हिम्मत देते हुए वे कहते हैं कि ‘हो निराशा की घड़ी गहरी भले ही/ दृढ़ इरादा है तो हर रास्ता फलेगा।’ अरुण जी के भीतर अपार आत्मविश्वास और जिजीविषा गुँथी हुई मिलती हैं। अपने जीवनकाल में उन्होंने तमाम उलझनों को हँसते हुए झेला। विकट परिस्थितियों में भी वे टूटे नहीं बल्कि कुंदन की तरह तपकर सोना बन गए – ‘तपकर ही कुंदन बनता है, सोना इस दुनिया में,/ आ जाती वो आभा दुनिया जिसकी दीवानी है।’
‘अरुण’ जी बच्चों को बहुत पसंद करते थे। अपने बचपन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि ‘मेरा बचपन संघर्षों का साक्षी रहा, जिन्होंने कभी-कभी तो मेरी कल्पनाओं को चूर-चूर करके रख दिया, लेकिन बचपन में ही सौभाग्य से मुझे स्वामी विवेकानंद का जीवन-दर्शन पढ़ने को मिला, जिसने मेरी लहूलुहान हुई कल्पनाओं में कब हिम्मत, साहस और आशा को अमृत-सा मरहम लगाकर मुझमें जूझने की ताकत भर दी, मुझे पता ही नहीं चला। मुझे हर सफलता संघर्षों के बाद, निराशा के जंगल में बिछे कष्ट के नुकीले काँटों से जूझ कर ही मिली है।’ इसीलिए उनकी रचनाओं का मूल स्वर हिम्मत से आगे बढ़ने और निराशा के घटाटोप में एक दीपक जलाए रखने की उत्कट अभिलाषा का रहा है। इसीलिए वे कहते हैं – ‘जीवन में अब अभाव को, अड़चन न मानिए/ साधन अगर नहीं हैं तो साधन बनाइए।’ ‘कोई काम नहीं है मुश्किल, अगर इरादा पक्का/ पर्वत झुक जाते हैं आगे, मंजिल सब मिल जाएँ।’
‘अरुण’ जी कहा करते थे कि मृत्यु जीवन का परम सत्य है। जिस तरह जीवन को खुशी-खुशी अपनाते हैं, उसी तरह मृत्यु को भी अपनाना चाहिए। भारतीय संस्कृति का सूत्र ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय...’ उनके लिए प्रेरणा का स्रोत है। बहुत बार मृत्य उनके निकट आई लेकिन उनकी जिजीविषा के कारण हार मानकर चुपचाप चली गई। परंतु इस बार 9 मई को मृत्यु दबे पाँव आई और जीत हासिल करके चली गई। ‘अरुण’ जी ने मृत्यु को भी हँसते-हँसते स्वागत किया।
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा विशेष रूप से हैदराबाद शाखा के प्रति ‘अरुण’ जी का रुझान अविस्मरणीय है। 2015 में जब ‘मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' : अर्धशती समारोह' विषयक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हैदराबाद शाखा द्वारा किया गया था, उस वक्त हृदयाघात से पीड़ित होने के बावजूद, डॉक्टरों से अनुमति लेकर वे उस समारोह में पहुँचे और अपने साथ डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को भी हैदराबाद ले आए। तीनों दिन सुबह से लेकर शाम तक चर्चा-परिचर्चा में भाग लिए और विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किए। ऐसे जीवट व्यक्ति थे ‘अरुण’ जी। उनके मार्गदर्शन में हैदराबाद सभा में अनेक ऐसी संगोष्ठियों का आयोजन किया गया है।
‘स्रवंति’ पत्रिका के साथ ‘अरुण’ जी का विशेष लगाव था। पत्रिका में उनकी रचनाएँ नियमित प्रकाशित हुईं हैं। कविता, गीत, गजल आदि के साथ-साथ उनके समसामयिक विचार समय-समय पर प्रकाशित हुए। ‘स्रवंति’ का नया अंक मिलते ही वे एक संदेश अवश्य भेजते थे उस अंक से संबंधित। उनकी टिप्पणी बहुत ही महत्वपूर्ण होती थी, पत्रिका की गुणवत्ता को बनाए रखने में। यदि अंक प्रकाशित होने में विलंब हो जाता, तो फोन करके विलंब का कारण पूछ ही लेते थे।
‘अरुण’ जी सही अर्थों में ‘स्रवंति’ पत्रिका के परामर्शदाता हैं। ‘स्रवंति’ परिवार की ओर से दिवंगत आत्मा को उनकी ही बातों से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ –
मर गए तो किसने देखा, बादशाहों की तरफ
गीत लेकिन हम फकीरों का जमाना गाएगा
मौत उनकी है जो दुनिया लूटने को आए हैं
बाँट कर अमृत जगत में तू अमर हो जाएगा
इक नया इतिहास रचना है तो कोई काम कर
बाद तेरे नाम तेरा यह जहाँ दोहराएगा