बुधवार, 18 दिसंबर 2013

हवाएँ न जाने कहाँ ले जाएँ !

पिछला महीना हिंदी जगत के लिए पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने जैसे दुःसह अनुभव का महीना रहा. राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव,ओमप्रकाश वाल्मीकि और कैलाश चंद्र भाटिया जैसे दिग्गजों का अचानक सदा के लिए विदा हो जाना हिंदी भाषा और साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है. काल ने सँभलने का अवसर दिए बिना वार पर वार किए और सृजन, समीक्षा, विमर्श तथा भाषा चिंतन के इन विशिष्ट हस्ताक्षरों का अपहरण कर लिया. 

आलोचना क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘व्यास सम्मान’ और ‘भारत भारती’ पुरस्कारों से सम्मानित ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975) आदि के लेखक परमानंद श्रीवास्तव (9 फरवरी 1935-5 नवंबर 2013) का जन्म गोरखपुर जिले के बाँसगाँव में हुआ था. ‘आलोचना’ पत्रिका से वे काफी समय तक जुड़े रहे. पहले नामवर सिंह के साथ सह संपादक के रूप में उन्होंने अपना योगदान दिया और फिर संपादक के रूप में. 

परमानंद श्रीवास्तव ने अपने सृजनात्मक जीवन में काफी कुछ लिखा है. आलोचनात्मक पुस्तकों में ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975), ‘उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा’ (1976), ‘जैनेंद्र के उपन्यास’ (1976), ‘समकालीनता का व्याकरण’ (1980), ‘समकालीन कविता का यथार्थ’ (1988), ‘शब्द और मनुष्य’ (1988), ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’ (1995), ‘कविता का यथार्थ’ (1999), ‘कविता का उत्तर जीवन’ (2005), ‘दूसरा सौंदर्यशास्त्र क्यों’ (2005) उल्लेखनीय हैं. वे आलोचक ही नहीं बल्कि अच्छे कवि भी थे. उनके कविता संग्रहों में ‘उजली हँसी के छोर पर’ (1960), ‘अगली शताब्दी के बारे में’ (1981), ‘चौथा शब्द’ (1993), ‘एक अनायक का वृत्तांत’ (2004), ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (2008) और ‘इस बार सपने में’ (2008) उल्लेखनीय हैं. उनके निबंध संग्रह ‘अँधेरे कुँए से आवाज’ (2005) और ‘सन्नाटे में बारिश’ (2008) तथा 2005 में प्रकाशित उनके साक्षात्कारों की पुस्तक ‘मेरे साक्षात्कार’ उल्लेखनीय हैं. वे अनुवादक भी थे. उन्होंने पाब्लो नेरुदा की 70 कविताओं का अनुवाद भी किया था. इतना ही नहीं साहित्य अकादमी से निराला और जायसी पर उनके दो मोनोग्राफ भी प्रकाशित हो चुके हैं. उनके सफल संपादन में साहित्य अकादमी से ‘समकालीन हिंदी कविता’ (1990) और ‘समकालीन हिंदी आलोचना’ (1998) के संचयन भी प्रकाशित हैं. 

अपनी साहित्यिक यात्रा के बारे में स्पष्ट करते हुए परमानंद श्रीवास्तव ने कहा कि ‘एक लेखक के रूप में मेरी पहली रचना कहानी थी. पत्र शैली में कहानी जो किशोर वय के रागात्मक लगाव से प्रेरित अज्ञात प्रिय को देने के लिए लिखी गई थी. संकोचवश दी नहीं गई. जेब में रखे-रखे सील गई. काश दी होती, तो मैं अपने पहले कहानी संग्रह में शामिल करता. जो नहीं हुआ, अच्छा ही हुआ. एक उम्र का नास्टेल्जिया!’

नए लेखक के लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि उसकी रचना किस पत्रिका में छपी. यदि अपनी रचना के साथ किसी लब्धप्रतिष्ठित हस्ताक्षर की रचना हो तो क्या कहना. ऐसी ही घटना को याद करते हुए परमानंद श्रीवास्तव कहते हैं कि ‘कायदे से मेरी पहली रचना कविता थी, ‘सांझ : तीन चित्र’, एक टटका बिंब शाम का. तब मैं बीए पहले साल में था. ‘नई धारा’ के संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘नई धारा’ में छापी. बगल में प्रतिष्ठित कवि गिरिजाकुमार माथुर की कविता थी. वे बड़े कवि थे - तार सप्तक के कवियों में एक. रूमानी रंग के साथ. जैसे बछड़ा खूँटा तुड़ाकर भागता है, सूरज ऐसे ही औचक ढलता है. यह कस्बाई रंग था. अच्छा लगा. धर्मवीर भारती ने स्वरवेला (आकाशवाणी-इलाहाबाद) में कविता सुनी. सराहा. जगदीश गुप्त ने भी.’

परमानंद श्रीवास्तव कविता के मर्मज्ञ आलोचक थे. उन्होंने ‘कविता का उत्तर जीवन’ शीर्षक पुस्तक की भूमिका में इस प्रकार लिखा है कि ‘देखते देखते कविता को सस्तेपन की ओर, भद्दी तुकबंदियों की ओर और अश्लील मनोरंजन तक सीमित रखने का जो दुष्चक्र सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे पर है, उसे देखते हुए भी कहा जा सकता है कि कविता की जीवनी शक्ति असंदिग्ध है. यही समय है कि ग़ालिब, मीर, दादू, कबीर भी हमारे समकालीन हो सकते हैं.’ वे मानते हैं कि कविता वस्तुतः शब्दों में और शब्दों से लिखी तो जाती है पर साथ ही अपने आसपास वह स्पेस भी छोड़ती चलती है जिसे पाठक अपनी कल्पना और समय के अनुरूप भर सकता है. प्रमाणस्वरूप उनकी एक छोटी कविता ‘हवाएँ न जाने’ देखें – 

“हवाएँ, 
न जाने कहाँ ले जाएँ. 

यह हँसी का छोर उजला 
यह चमक नीली 
कहाँ ले जाए तुम्हारी 
आँख सपनीली 

चमकता आकाश-जल हो 
चाँद प्यारा हो 
फूल-जैसा तन, सुरभि-सा 
मन तुम्हारा हो 

महकते वन हों नदी-जैसी 
चमकती चाँदनी हो 
स्वप्न-डूबे जंगलों में 
गंध डूबी यामिनी हो 

एक अनजानी नियति से 
बँधी जो सारी दिशाएँ 
न जाने 
कहाँ .... ले ... जा .... एँ ?”

समकालीन युवा लेखकों के समक्ष चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं. इस संबंध में परमानंद श्रीवास्तव ने कहा था कि “समकालीन युवा लेखकों को एक लंबा संघर्ष करना होगा. कई पुरस्कार केवल 35 वर्ष तक के युवाओं के लिए हैं. मैंने ‘आलोचना’ के संपादन से जाना कि पूरन चंद्र जोशी, गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे, भालचंद्र नेमाड़े, अशोक केलकर तो ‘आलोचना’ के लेखक हैं. युवा आलोचकों में अपूर्वानंद, अरुण कमल, राजेश जोशी, आशुतोष, रघुवंश मणि, अनिल राय, भृगुनंदन त्रिपाठी, नीलाभ मिश्र ने अचानक लिखना बंद कर दिया. अपवाद हैं - पुरुषोत्तम अग्रवाल जिन्होंने आलोचना से शुरू किया और ‘अकथ कहानी प्रेम’ की जैसी बड़ी कृति लिखी. या विजय कुमार - आलाचेना के लिए अनिवार्य हो गए. साहित्य आसानी की राह नहीं चलता - वह नए समय की चुनौतियों का सामना करता है।“

ऐसे वरिष्ठ आलोचक और कवि 5 नवंबर 2013 को पंचतत्व में विलीन हो गए. उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए शीर्षस्थ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि “मैंने ही उन्हें ‘आलोचना’ का संपादक बनाया. वर्षों तक उन्होंने मेरे साथ काम किया. वह शरीर से लघु मानव थे लेकिन मन और विचार से बड़े थे.”

कवि डॉ. केदारनाथ सिंह ने कहा कि “एक आलोचक के रूप में उन्होंने नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ाने में जो योगदान दिया ऐसा योगदान देने वाला कोई दूसरा आलोचक शायद ही मिले. पूर्वांचल के पिछड़े क्षेत्र से उठकर उन्होंने देश स्तर पर हिंदी साहित्य का सम्मान बढ़ाया।“

कथाकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि ”परमानंद बुनियादी तौर पर एक प्रगतिशील आलोचक थे. हालांकि उन्होंने शुरूआत में कविताएँ लिखी, बाद में उनका मुख्य कार्य आलोचना से रहा.”

आलोचक ए.के.फातमी ने कहा कि “परमानंद श्रीवास्तव से हम लोगों ने वैसे ही सीखा जैसे अकील रिजवी से. वह मानवता, सूफीवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के पोषक थे. वह भारतीय संस्कृति और परंपरा में ढले हुए रचनाकारों की पीढ़ी के प्रतिनिधि थे. उनका जाना प्रगतिशील आंदोलन का बड़ा नुकसान है.”

ऐसे महान साहित्यकार को विनम्र श्रद्धांजलि. 

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ' प्रो. एन. गोपि को समर्पित


प्रो. ऋषभ देव शर्मा की सद्यःप्रकाशित समीक्षा पुस्तक 'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ' का समर्पण वाक्य तेलुगु के शीर्षस्थ समकालीन साहित्यकार प्रो. एन. गोपि को लक्ष्य करके लिखा गया है, जो इस प्रकार है - "समकालीन भारतीय कविता के उन्नायक 'नानीलु' के प्रवर्तक परम आत्मीय अग्रज कवि प्रो. एन. गोपि को सादर"

20 नवंबर 2013 को इस पुसतक की पहली प्रति समर्पित करने जब डॉ. ऋषभ देव शर्मा रात्रि 8 बजे डॉ. एन. गोपि के घर पहुँचे तो पुस्तक का समर्पण वाक्य पढ़कर प्रो. एन. गोपि रोमांचित और गदगद हो उठे. उल्लासपूर्वक उन्होंने अपनी अर्धांगिनी प्रतिष्ठित तेलुगु कवयित्री एन. अरुणा जी को आवाज लगाई और अभ्यागत लेखक को अंगवस्त्र द्वारा सम्मानित करने के लिए कहा. 

भावविभोर होकर बार बार प्रो. एन. गोपि कहते रहे - पुस्तक समर्पण और स्वीकार मेरे लिए कोई नई बात नहीं है लेकिन आपने यह पुस्तक मुझे समर्पित करके हिंदी की ओर से तेलुगु का जो सम्मान किया है उसे मैं आजीवन एक सुखद अनुभव की तरह याद रखूँगा. 

ऐसे अवसर पर प्रो. ऋषभ देव शर्मा का अवाक् रह जाना सहज ही था! 




राजेंद्र यादव को अंतिम प्रणाम

(28 अगस्त 1929-28 अक्टूबर 2013)
राजेंद्र यादव! हिंदी साहित्य जगत के लिए सुपरिचित एक नाम! ‘नई कहानी’ आंदोलन और स्त्री विमर्श के पुरोधा, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक तथा ‘हंस’ पत्रिका के संपादक के रूप में सब लोग इन्हें जानते हैं-पहचानते हैं. विवादों में घिरे रहने पर भी राजेंद्र यादव (28 अगस्त 1929-28 अक्टूबर 2013) ने कभी हार नहीं मानी. उनका जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा में हुआ था. 1951 से 2013 तक वे लगातार साहित्य सृजन करते रहे. 31 जुलाई 1986 का प्रेमचंद जयंती के अवसर पर उन्होंने ‘हंस’ के पुनःप्रकाशन का भार संभाला. तब से लेकर अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने इस पत्रिका के संपादन का दायित्व निभाया. (स्मरणीय है कि 1930 में प्रेमचंद ने ’हंस’ पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया था जो 1953 में बंद हो गई थी.)

राजेंद्र यादव की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं – (कहानी संग्रह) देवताओं की मूर्तियाँ (1951), खेल-खिलौने (1953), जहाँ लक्ष्मी कैद है (1957), अभिमन्यु की आत्महत्या (1959), छोटे-छोटे ताजमहल (1961), किनारे से किनारे तक (1962), टूटना (1966), चौखटे तोड़ते त्रिकोण (1987), श्रेष्ठ कहानियाँ, प्रिय कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियाँ, प्रेम कहानियाँ, चर्चित कहानियाँ, मेरी पच्चीस कहानियाँ, है ये जो आतिश ग़ालिब (प्रेम कहानियाँ; 2008), अब तक की समग्र कहानियाँ, यहाँ तक : पड़ाव-1, पड़ाव-2 (1989), वहाँ तक पहुँचने की दौड़, हासिल तथा अन्य कहानियाँ; (उपन्यास) सारा आकाश (1959; ‘प्रेत बोलते हैं’ के नाम से 1951 में), उखड़े हुए लोग (1956), कुलटा (1958), शह और मात (1959), अनदेखे अनजान पुल (1963), एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ, 1963), एक था शैलेंद्र (2007) आदि. (कविता संग्रह) आवाज तेरी है (1960). इनके अलावा अनेक समीक्षात्मक, आलोचनात्मक और संपादित पुस्तकें भी प्रकाशित हैं. उनमें कहानी : स्वरूप और संवेदना (1968), प्रेमचंद की विरासत (1978), अठारह उपन्यास (1981), औरों के बहाने (1981), काँटे की बात (बारह खंड, 1994), कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति (1996), उपन्यास : स्वरूप और संवेदना (1998), आदमी के निगाह में औरत (2001),वे देवता नहीं है (2001), मुड-मुडके देखता हूँ (2002), अब वे वहाँ नहीं रहते (2007), मेरे साक्षात्कार (1994), काश मैं राष्ट्रद्रोही होता (2008), जवाब दो विक्रमादित्य (साक्षात्कार, 2007), चेखव के तीन नाटक (सीगल, तीन बहनें, चेरी का बगीचा), देहरी भई बिदेस, काली सुर्खियाँ (अश्वेत कहानी संग्रह), उत्तरकथा आदि उल्लेखनीय हैं. 

राजेंद्र यादव हमेशा विवादास्पद टिप्पणियाँ करते थे शायद सुर्खियों में बने रहने के लिए.

वैसे एक साक्षात्कार में उन्होंने यह भी कहा था कि “इस तरह के विवादों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता तथा मैं समझता हूँ कि जो कह रहा है, वह बेवकूफ है.” दरअसल राजेंद्र यादव किसी तरह के बंधन को न मानने वाले रचनाकार थे (निरंकुशाः हि कवयः)! वे विवाह संस्था में भी यकीन नहीं करते थे. उन्हीं के शब्दों में सुनिए – “शादी एक बंधन हो, वहाँ तक तो ठीक है. लेकिन उसके साथ एक आचरण की जो आचार संहिता है, उसमें मेरा दम घुटता है, मैं वहाँ एडजस्ट नहीं कर पाता. **** जब मैं पढ़ता या लिखता हूँ तो पूरी तरह एक साहित्यिक आदमी होता हूं, लेकिन इसके बाद मैं कोशिश करता हूं कि एक आम आदमी की तरह हँसूँ, बर्ताव करूँ. आइ वांट टू बी लाइक ए कॉमन मैन. इसके लिए मुझे किसी तरह की कोशिश नहीं करनी पड़ती. मुझे यह नेचुरल लगता है. शाम को घर लौटने के बाद या तो दोस्तों से मिलना-जुलना होता है, अकेला होता हूँ तो कोई फिल्म देख लेता हूँ.” 

राजेंद्र यादव साहित्यिक व्यक्ति थे इसमें संदेह नहीं, पर आम आदमी बने रहे सारी साहित्यिकता के साथ. 

28 अक्टूबर 2013 को राजेंद्र यादव की कलम थम गई. उनका निधन साहित्य जगत के लिए क्षति है. राजेंद्र यादव को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रमुख साहित्यकार चित्रा मुद्गल ने कहा कि “वर्ष 1986 का दौर वह था जब सभी शीर्ष पत्रकाओं का पतन हो गया. लेखकों को तब एक मंच प्रदान करने का कार्य राजेंद्र यादव ने हंस पत्रिका को पुनर्जीवित कर किया. वह मुझसे हमेशा कहते थे की मैं जनसरोकारों पर नहीं लिखा पाया. अपनी अयह अधूरी इच्छा उन्होंने ‘हंस’ में पूरी की और स्त्री व दलित विमर्शों को उठाने के अलावा इन विमर्शों की नई पीढ़ी को भी खडा किया.”

शैलेंद्र सागर का कहना है कि “मुझे याद है कि आज से कई वर्ष पहले राजेन्द्र यादव ने मुझसे कहा था कि कवियों के तो बहुत सम्मलेन होते हैं, तुम कुछ ऐसा करो कि कहानीकारों के भी आयोजन हों. उनकी उस प्रेरणा से ही मैंने कथाक्रम की शुरूआत की.”

मैनेजर पांडेय ने कहा, “राजेंद्र यादव विचार और व्यवहार में लोकतांत्रिक आदमी थे. मतभेदों से न डरते थे, न घबराते थे और न बुरा मानते थे. उन्होंने स्त्री दृष्टि और लेखन को बढ़ावा दिया. स्त्री दृष्टि पर उनकी राय विवादस्पद लेकिन विचारणीय रही. ‘हंस’ के जरिए उन्होंने दलित चिंतन और दलित साहित्य को बढ़ावा दिया. दलित साहित्य को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में राजेंद्र यादव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हंस का संपादन उन्होंने उस समय शुरू किया, जब उनकी रचनात्मकता का सबसे अनुर्वर समय था. इसलिए रचनाकार राजेंद्र यादव को वह पीढ़ी नहीं जान पाई, जो ‘हंस’ पकर बड़ी हुई. ‘हंस’ का भविष्य अब अंधकारमय हो गया है.”

‘स्रवंति’ परिवार ऐसे महान साहित्यकार के निधन पर स्तब्ध है तथा उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता है! 

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

रावूरि भरद्वाज होने / न होने / का अर्थ



 ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित तेलुगु उपन्यासकार डॉ॰ रावूरि भरद्वाज का 18 अक्तूबर 2013 की रात  हैदराबाद के केयर हॉस्पिटल में निधन हो गया। उनके न रहने से भारतीय साहित्य में बड़ा शून्य उत्पन्न हो गया है। गत दिनों उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के अवसर पर लिखे गए आलेख को यहाँ पुनर्प्रकाशित करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित है। - नीरजा
रावूरि भरद्वाज होने का अर्थ 

आंध्रप्रदेश के गोदावरी जिले में एक छोटा-सा गाँव है मोगलतूरू. इस गाँव में कोटय्या और मल्लिकांबा दंपति रहते थे. जमीन-जायदाद तो थी नहीं पर कोटय्या छोटी-मोटी नौकरी करके गुजारा करता था. भगवान की कृपा से 5 जुलाई, 1927 को उनके घर एक बालक का जन्म हुआ जिसे रावूरि भरद्वाज के नाम से जाना गया. जी हाँ, वही रावूरि भरद्वाज जिन्हें 2012 ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया है. 

रावूरि के जन्म पर उनके माता-पिता बहुत ही खुश हुए. वे अपने बच्चे को सब सुख-सुविधाएँ देना चाहते थे और इसलिए वे मोगलतूरू से गुंटूर जिले के तरिगोंडा नामक गाँव में आकर बस गए. उनकी आर्थिक स्थिति कुछ सुधर गई. बालक बड़ा होता गया और आठवीं कक्षा तक पढ़ भी लिया. पर उसके बाद आर्थिक समस्या शुरू हो गई. रावूरि को स्कूल जाना बंद करना पड़ा और गुजारा करने के लिए छोटी-मोटी नौकरी करनी पड़ी. 15 वर्ष की आयु में कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी उठाई. खेलकूद की उम्र में कल-कारखाने, फैक्टरी, प्रिंटिंग प्रेस, खेतों-खलिहानों में काम करना पड़ा. नन्हे हाथों ने कलम छोड़कर औजार उठाए. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय तकनीशियन का काम भी किया. यह सब तकलीफदेह रहा, फिर भी जो भी काम करते पूरे लगन और ईमानदारी के साथ करते. जब वह बालक अपने दोस्तों को स्कूल जाते हुए देखता था तो अपनी स्थिति पर बहुत दुःखी और लज्जित होता था. उनके दोस्त उनकी अवहेलना करते थे कि ‘तुम पढ़कर क्या करोगे. जाओ जाओ, किसी कारखाने में या होटल में जाओ और साफ़-सफाई का काम करो.’ इससे उस बालक में पढ़ने की इच्छा प्रबल होती गई. परिणामस्वरूप यह हुआ कि उन्होंने दिन-दिन भर मजदूरी करने के बावजूद, रात को मंदिर में बैठकर पढ़ाई करना आरंभ कर दिया. 

मजे की बात सुनिए, बालक रावूरि से अक्सर लोग यही कहते थे कि ‘तुम पढ़कर क्या करोगे’ लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और वे 17 वर्ष की आयु में साहित्य सृजन की ओर प्रवृत्त हो गए. 1946 में नेल्लूर से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘जमीन रैतु’ (धरा कृषक) के संपादक ने उन्हें उप-संपादक के पद को संभालने के लिए चुना तो उन्होंने सहर्ष उसे स्वीकार किया. बाद में तेलुगु साप्ताहिक ‘दीनबंधु’ के प्रभारी बने. 1959 तक उन्होंने ‘ज्योति’, ‘अभिसारिका’, ‘समीक्षा’, ‘चित्रसीमा’, ‘सिनेमा’ जैसी फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाओं में भी काम किया. वहाँ भी उनके ‘हितैषी’ यही कहा करते थे कि ‘संपादक बनकर तुम क्या करोगे. बड़े आए संपादक. काम-वाम तो आता नहीं. बस हवा में तो पुल बनाते हो.’ फिर भी रावूरि ने हार नहीं मानी. वे अपना काम करते गए. अपनी जिम्मेदारी निभाते गए. 

1959 में तेलुगु के प्रसिद्ध कथाकार त्रिपुरनेनि गोपीचंद की प्रेरणा से रावूरि ने आकाशवाणी में स्क्रिप्ट लेखक के रूप में कार्यभार ग्रहण किया. वहाँ भी लोगों ने उन्हें चैन से नहीं जीने दिया. अक्सर यही कहते थे ‘तुम्हारी आवाज माइक के लिए ठीक नहीं है. तुम दूसरा कोई काम क्यों नहीं करते.’ पर बच्चे रावूरि के कार्यक्रम को बहुत रुचि से सुनते थे. रावूरि ने सबको यह सिद्ध करके दिखा दिया कि वे कलम और ‘गळम’ (कंठ) दोनों के धनी हैं. लोगों ने यह कहकर भी उन्हें हतोत्साहित किया कि ‘तुम जिंदगी में कभी भी अंग्रेज़ी भाषा नहीं सीख सकते हो.’ पर उन्होंने अंग्रेज़ी से कई निबंधों का तेलुगु में अनुवाद कर डाला. कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने तो उन्हें यह कहकर अपमानित भी किया कि ‘तुम्हारी इस दरिद्र जिंदगी में साहित्य सृजन का सपना आकाश सुमन ही होगा.’ लेकिन गर्व का विषय है कि रावूरि ने साहित्य जगत को समृद्ध बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने 160-170 से भी अधिक पुस्तकें लिख डालीं. साहित्यकार बन गए. रावूरि ने अपने जीवनानुभवों और अनुभूतियों को ही साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त कर यह सिद्धि प्राप्त की. उन्होंने 17 उपन्यास, 36 कहानी संग्रह, 6 बाल साहित्य ग्रंथ और 8 नाटकों के साथ साथ सैकड़ों छुटपुट रचनाओं, रेखाचित्रों, जीवनियों, कविताओं, निबंधों, पटकथाओं, विज्ञान पुस्तकों आदि के रूप में अनेक विधाओं में सृजन किया है. अवहेलना और तिरस्कार करने वालों के सामने उन्होंने एक मिसाल कायम की है. उनकी कुछ रचनाएँ हिंदी, तमिल, कन्नड, मलयालम, गुजराती तथा अंग्रेज़ी भाषाओं में भी अनूदित हो चुकी हैं. सरल-सुबोध विज्ञान पुस्तकों के लेखक के रूप में भी उन्हें बड़ी ख्याति मिली है. 

अपनी पत्नी की स्मृति में रावूरि भरद्वाज ने ‘कांतम’ नाम से डायरी शैली में स्मृतिकाव्य का सृजन किया जिसका हिंदी अनुवाद डॉ. भीमसेन निर्मल ने 1997 में ‘फिर भी एक कांतम’ नाम से किया. उनके प्रथम उपन्यास ‘कादंबरी’ का 1981 में डॉ. बालशौरि रेड्डी ने ‘कौमुदी’ नाम से हिंदी में अनुवाद किया जो विद्या प्रकाशन मंदिर, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित है. रावूरि भरद्वाज को तेलुगु साहित्य के प्रसिद्ध स्त्रीवादी रचनाकार गुडिपाटि वेंकट चलम के अनुयायी के रूप में भी जाना जाता है. उनकी कहानियों में अवंति, नर(क) लोक, अनाथ शरणम नास्ति, अपरिचितुलु (अपरिचित), अर्धांगिनी, आहुति, कल्पना आदि उल्लेखनीय हैं. बाल साहित्य में कीलु गुर्रम (काठी का घोड़ा), मणि मंदिरम (मणि मंदिर), मायालोकम (मायालोक), परकाया प्रवेशम (परकाया प्रवेश) बहुत चर्चित हैं तो मनोरथम, दूरपु कोंडलू (दूर के पर्वत), भानुमूर्ति जैसे नाटक उल्लेखनीय हैं. उनके उपन्यासों में प्रमुख रूप से कादंबरी, चंद्रमुखी, चित्र ग्रहम, इदं जगत, करिमिंगिन वेलगपंडू (हाथी द्वारा निगला हुआ बेल का फल), मंचि मनिषी (अच्छा मानव), ओक रात्रि ओक पगलु (एक रात एक सुबह) और पाकुडु राल्लु (काई जमे पत्थर) उल्लेखनीय हैं. 


1965 में जब ‘पालपुंता’ (गेलेक्सी) नाम से उनकी लंबी कहानी ‘कृष्णा पत्रिका’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई थी तो अनेक विद्वानों ने अनेक तरह के आक्षेप भी लगाए. कहा गया कि इसमें कुछ वास्तविक व्यक्तियों के नामा और चरित्र सम्मिलित हैं और कि इसके विवरण उत्तेजक हैं. इस बहाने उस कहानी पर रोक लगाने का प्रयास भी किया गया था. लेकिन रावूरि टस से मस नहीं हुए. 1978 में उन्होंने इसी कहानी को बृहत उपन्यास का रूप दिया और इसका नामकरण ‘माया जलतारु’ (माया स्वर्णतार) के रूप में किया. इस उपन्यास को पढ़ने के बाद प्रमुख साहित्य समीक्षक सीला वीरराजू ने ‘पाकुडु राल्लु’ (काई जमे पत्थर) किया. यह उपन्यास मूलतः सिनेमा जगत की विसंगतियों, विडंबनाओं और समस्याओं को उजागर करता है. इसके केंद्र में एक स्त्री है जो अनेक पड़ावों को पार करके सिने जगत में अपना एक सुनिश्चित स्थान प्राप्त करने के प्रयत्न में अंततः आत्महत्या कर लेती है. इस उपन्यास का शीर्षक ‘पाकुडु राल्लु’ (काई जमे पत्थर) अत्यंत सटीक है क्योंकि सागर के किनारे पानी में पड़े हुए पत्थरों पर काई जम जाती है तो देखने में ये पत्थर सुंदर और मनमोहक तो लगते हैं लेकिन यदि कोई इन पत्थरों पर खड़ा होकर प्रकृति को निहारने का प्रयत्न करता है तो उसका फिसल कर नीचे गिरना निश्चित है. सिनेमा जगत का सच भी यही है. उसकी चकाचौंध से आकर्षित होकर गाँव से शहर की ओर पलायन करके इस दुनिया में कदम रखने वालों की स्थिति - विशेष रूप से स्त्रियों की स्थिति - भी यही है. 

अब देखिए, लोग रावूरि भरद्वाज की पग-पग पर अवहेलना करते रहे पर उन्होंने इतना कुछ लिख डाला. आपको याद होगा कि 1970 में तेलुगु साहित्य के लिए प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार विश्वनाथ सत्यनारायण को उनकी कृति ‘रामायण कल्पवृक्षमु’ पर प्रदान किया गया था. उसके 18 वर्ष पश्चात 1988 में यह पुरस्कार डॉ सी.नारायण रेड्डी को उनके महाकाव्य ‘विश्वंभरा’ के लिए प्रदान किया गया. उसके बाद 25 बरसों तक यह कशमकश चलती रही कि तेलुगु साहित्य के लिए किस साहित्यकार को ज्ञानपीठ के लिए चुना जाय. आज यह कशमकश समाप्त हो गई है और 2012 का ज्ञानपीठ पुरस्कार रावूरि भरद्वाज को उनकी कृति ‘पाकुडु राल्लु’ (काई जमे पत्थर) के लिए मिल रहा है. जिस उपन्यास को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया गया था आज उसी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हो रहा है! स्मरण रहे कि इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाला यह पहला तेलुगु उपन्यास है. 

रावूरि भरद्वाज बाहर जैसे दीख पड़ते हैं अंदर से भी वे वैसे ही हैं – सीधे सच्चे मनुष्य. कहने का अर्थ यह है कि उनका बाह्य एवं आतंरिक व्यक्तित्व दोनों ही सहज और सरल हैं. पके हुए बाल, सफ़ेद सफ़ेद लंबी दाढ़ी और मूँछें, खादी कुर्ता और धोती – वेशभूषा जितनी सहज है उनका मन भी उतना ही सहज, निर्मल और संवेदनशील है. वे अपने परिवारी जन और दोस्तों से अमित प्यार करते हैं. उनका सोच सकारात्मक है. इसीलिए तो उन्होंने लोगों की निंदा को भी सकारात्मक रूप से स्वीकार किया है और आज ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हो रहे हैं. यह गौरव और हर्ष की बात है. 

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

एम.फिल. 2013-14 : संभावित शोध विषयों की सूची


उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद

एम.फिल. पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के दिन से ही शोधार्थी लघुशोधप्रबंध के लिए उपयुक्त विषय और शीर्षक की तलाश में भटकना शुरू कर देते हैं. प्रायः देखा गया है कि विषय किस प्रकार चुने और शीर्षक की शब्दावली कैसी हो, इस संबंध में नवागत शोधार्थी काफी भ्रमित रहते हैं. बहुत बार तो उन्हें अपने रुचि क्षेत्र तक के संबंध में संदेह रहता है. साथ ही निर्धारित अवधि के भीतर विषय चयन से लेकर प्रस्तुतीकरण तक की सारी प्रक्रिया विधिवत संपन्न करने का दबाव उन्हें और भी तनावग्रस्त कर देता है. 

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक सत्र में हमारे संस्थान में संभावित शोध विषयों की सूची प्रकाशित की जाती है. विभागाध्यक्ष प्रो.ऋषभदेव शर्मा के निर्देशानुसार तैयार की गई इस वर्ष के संभावित शोध विषयों की सूची यहाँ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र के शोधार्थियों के लाभार्थ दी जा रही है. 

I. स्त्री विमर्श

1. मैत्रेयी पुष्पा कृत ‘पियरी का सपना’ में स्त्री विमर्श (सामयिक प्रकाशन, मूल्य - रु. 300)

2. ‘देहरी भई विदेस’ में स्त्री विमर्श (किताब घर, मूल्य: रु. 400/-)

3. नीलेश रघुवंशी के उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ में स्त्री विमर्श (राजकमल प्रकाशन, 2013, मूल्य: रु. 250/)

4. परवेज अहमद के उपन्यास ‘मिर्जावाडी’ में स्त्री विमर्श/ मुस्लिम समाज /परिवेश /यथार्थ (शिल्पायन प्रकाशन, 10295, लेन नं. 1, वेस्ट गोरखपुर, शाहदरा, दिल्ली, मूल्य: रु. 150)

II. दलित विमर्श

1. ओम प्रकाश वाल्मीकि के कविता संग्रह ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’ में दलित चेतना (अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रिब्यूटर्स लि., 4697/3, 21- ए अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, मूल्य: रु. 200)

2. प्रतापराव कदम के कविता संग्रह ‘उसकी आँखों में कुछ’ में उपभोक्ता संस्कृति (राधाकृष्ण प्रकाशन,7/31 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, मूल्य: रु. 200)

3. दलित कहानियों में स्त्री जीवन (‘यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियाँ’/(सं.) अनिता भारती और बजरंग बिहारी तिवारी, लोकमित्र प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली - आलोक शर्मा: 09910343376/ पेपरबैक: रु. 100/-)

4. दलित कविताओं में स्त्री जीवन (‘यथास्थिति से टकराते हुए : दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएँ’/(सं.) अनिता भारती और बजरंग बिहारी तिवारी, लोकमित्र प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली - आलोक शर्मा : 09910343376/ पेपरबैक: रु. 160/-)

III. भाषा विमर्श

1. विष्णु प्रभाकर का भाषा चिंतन: ‘राष्ट्रीय एकता और हिंदी’ के विशेष संदर्भ में (किताब घर, मूल्य: 250/- समकालीन साहित्य, मई 2013)

2. गीतांजलि श्री के कहानी संग्रह ‘यहाँ हाथी रहते थे’ में शैली-शिल्प (राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) 

3. विमलेश त्रिपाठी के कहानी संग्रह ‘अधूरे अंत की शुरूआत’ का समाजभाषिक अध्ययन (ज्ञानपीठ प्रकाशन) 

4. मलिक मोहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ में पाक कला की प्रयुक्ति

5. सी सी एम बी द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘जिज्ञासा’ में वैज्ञानिक प्रयुक्ति

6. डॉ. रामदरश मिश्र के काव्य संग्रह ‘आग की हँसी’ का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन (इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य: रु. 200/-)

7. कीर्ति केसर के कविता संग्रह ‘अस्तित्व नए मोड़ पर’ का पाठ विश्लेषण (यूनिस्टार, सेक्टर 34/ए, (चंडीगढ़ - 160022/मूल्य रु. 150/-) 

8. अद्यतन हिंदी फिल्म गीतों का भाषिक वैशिष्ट्य

9. ऐतिहासिक टीवी धारावाहिकों का समाजभाषिक वैशिष्ट्य

IV. अनुवाद विमर्श

1. मुदिगोंडा शिवप्रसाद के तेलुगु उपन्यास ‘रेजिडेंसी’ के हिंदी अनुवाद का समीक्षात्मक अध्ययन

2. महेंद्र भटनागर कृत ‘चाँद, मेरे प्यार’ के अंग्रेजी अनुवाद का समीक्षात्मक अध्ययन

V. काव्य

1. मलय के कविता संग्रह ‘इच्छा की डूब’ में समाज (परिकल्पना प्रकाशन, डी/68, निराला नगर, लखनऊ, मूल्य - रु.90)

2. नीरज के प्रेम गीतों का सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन (नीरज के प्रेम गीत, किताब घर, मूल्य - 150/-)

3. हिंदी फिल्म गीतों में राष्ट्रप्रेम

4. डॉ.योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ कृत प्रबंधकाव्य ‘वैदुयमणि विद्योत्तमा’: परंपरा और आधुनिकता (हिंदी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर, मूल्य - 200/-)

VI. कथा साहित्य

1. रजनी गुप्त के उपन्यास ‘कुल जमा बीस’ में यथार्थ ( सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाडा, दरियागंज, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली. मूल्य: रु. 395)

2. प्रेम भारद्वाज के कहानी संग्रह ‘इंतजार पांचवे सपने का’ में सामाजिक यथार्थ (सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाडा, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली, मूल्य: रु. 200)

3. काशीनाथ सिंह कृत ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ में सामाजिक यथार्थ (किताब घर, मूल्य: 300/-)

4. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के उपन्यास ‘घंटा’ में इतिहासबोध (किताब घर, मूल्य: 160/-)

5. उदयभानु पांडेय के कहानी संग्रह ‘हर्ता कुँवर का वसीयतनामा’ में पूर्वोत्तर भारत (ज्ञानपीठ प्रकाशन)

6. नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘पारिजात’ में परिवेश चित्रण (किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली)

7. असगर वजाहत के कहानी संग्रह ‘डेमोक्रेसिया’ में समकालीनता एवं व्यंग्य (राजकमल, मूल्य - 250/-)

8. मलिक राजकुमार के उपन्यास ‘बाइपास’ में यथार्थ (श्रीनटराज प्रकाशन, मूल्य रु. 350/-)

9. गंगा प्रसाद विमल के उपन्यास ‘मानुषखोर’ में सामाजिक चेतना: विस्थापन की त्रासदी (किताबघर, मूल्य रु. 595/-)

10. कर्मेंदु शिशिर के कहानी संग्रह ‘लौटेगा नहीं जीवन’ में संघर्ष और जिजीविषा (शिल्पायन, दिल्ली/2012/ रु. 325/-)

11. ‘आओ पेपे घर चलें’ (प्रभा खेतान) और ‘अंतर्वंशी’ (उषा प्रियंवदा) में चित्रित अमेरिकी परिवेश : तुलनात्मक अध्ययन

VII. गद्य विधाएँ

1. ‘विस्मय का बखान’ (निबंध संग्रह) में यतींद्र मिश्र की वैचारिकता (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य रु. 395)

2. पुष्पपाल सिंह के निबंध संग्रह ‘वैश्विक गाँव: आम आदमी’ में चित्रित भूमंडलीकरण (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, मूल्य रु. 180)

3. प्रदीप पंत के उपन्यास ‘ऐसे हमारे हर्दा’ में व्यंग्य (किताब घर, नई दिल्ली, मूल्य: 350/-)

4. कमलेश्वर के साक्षात्कारों में लेखकीय व्यक्तित्व और वैचारिकता (मेरे साक्षात्कार, कमलेश्वर, किताब घर, मूल्य: 300/-)

5. मैत्रेयी पुष्पा के साक्षात्कारों में लेखकीय व्यक्तित्व और वैचारिकता (मेरे साक्षात्कार, मैत्रेयी पुष्पा, किताब घर, मूल्य: 275/-)

6. श्रीलाल शुक्ल के संस्मरणों में चित्रित परिवेश (अगली शताब्दी का शहर/यह घर मेरा नहीं, किताब घर, मूल्य: 75/-, 75/-) 

7. उदय प्रकाश के साक्षात्कारों का विश्लेषणात्मक अध्ययन (आधार ग्रंथ: उनकी अपनी बात) 

8. अरुण कमल के साक्षात्कार ‘कथोपकथन’ में व्यंजित व्यक्तित्व और वैचारिकता 

9. बाबू राजेंद्रप्रसाद की वैचारिकता: ‘साहित्य, शिक्षा और संस्कृति’ के विशेष संदर्भ में (प्रभात प्रकाशन, दिल्ली)

10. कैलाश बुधवार के पत्रों में समकालीनबोध (आधार ग्रंथ: ‘लंदन से पत्र‘/मेधा बुक्स)

11. महेश दर्पण कृत ‘चरित्र और चेहरे’ में समकालीन बोध (सामयिक बुक्स, दरियागंज, नई दिल्ली - 2/2013 / मूल्य: 595/-)

VIII. अन्य

1. नामवर सिंह की ‘प्रारंभिक रचनाएँ’: विश्लेषणात्मक अध्ययन (राजकमल, मूल्य: 450/-)

2. आंध्रप्रदेश की साहित्यिक हिंदी पत्रकारिता में ‘पुष्पक’ का योगदान 

3. ‘द्वीप लहरी’ के बालसाहित्य चिंतन अंक का समीक्षात्मक अध्ययन

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

(शताब्दी विशेष)

जब तक बहती है जीव नदी, जीवित हैं कालोजी


प्रजाकवि कलोजी 
“काल को चुनौती देती हुई 
निरंतर बहती है, संघर्षशील है 
समुद्र पर घेरा डालने वाली 
नदियों से भी टकराने वाली 
आगे ही आगे तैरती, उफनती, लुढ़कती
ऊँचाई की ओर बढ़ती 
मेरी आवाज है न 
कालोजी है न.

न केवल काल के समक्ष 
महाकाल के समक्ष भी 
मुँहजोरी करने के कलेजे के साथ 
कालोजी है न 
मेरी आवाज है न. “

यह आवाज है ‘कालन्ना’ की. यह वर्ष ‘कालन्ना’ या ‘कालोजी’ के नाम से प्रसिद्ध ‘प्रजाकवि’ कालोजी नारायण राव (9 सितंबर 1914 – 13 नवंबर 2002) की शताब्दी है. पथप्रदर्शक, स्वतंत्रता सेनानी, जनपक्षधर कवि कालोजी का जन्म 9 सितंबर 1914 को कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में स्थित रट्टिहल्ली नामक गाँव में हुआ था. उनके पिता कालोजी रंगाराव मराठी भाषी थे और माता रमाबाई कन्नड़ भाषी थीं. बचपन से ही कालोजी मराठी और कन्नड़ के संस्कारों को रचा-पचा कर आगे बढे. उनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा वरंगल जिले में स्थित मदिकोंडा नामक गाँव में हुई थी. उच्च शिक्षा उन्होंने हैदराबाद में प्राप्त की. 1939 में उन्होंने एल.एल.बी. की उपाधि अर्जित की.

कालोजी अपने विद्यार्थी जीवन से ही अनेक आन्दोलनों में हिस्सा लेते रहे. वे आर्यसमाज के सिद्धांतों से प्रभावित थे. उन्होंने 1930 में ‘पुस्तकालय आंदोलन’ चलाया. गाँव-गाँव में पुस्तकालयों की स्थापना करवाई. इतना ही नहीं वे आंध्र महासभा आंदोलन से भी जुड़े रहे. उनके बड़े भाई रामेश्वर राव कालोजी उर्दू के अच्छे कवि थे. कालोजी पर उनका काफी प्रभाव था. दोनों ने हैदराबाद मुक्ति संग्राम में सक्रीय रूप से भाग लिया था. कालोजी ने अपनी व्यथा, दर्द, खीझ, चिंता, आक्रोश, संघर्ष, विद्रोह चेतना, आकांक्षा और जिजीविषा आदि को साहित्य की अनेक विधाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया. 

कालोजी प्रगतिवादी काव्यांदोलन और विरसम (विप्लव रचयितल संघम) के सशक्त स्तंभ थे. उन्होंने तेलुगु के अलावा मराठी, उर्दू और हिंदी में साहित्य सृजन किया. उन्होंने अपनी पहली किविता 1931 में भगतसिंह की मृत्यु पर विचलित होकर लिखी थी. तब से वे लगातार प्रत्येकमहत्वपूर्ण राजनैतिक घटना पर अपने विचार बेबाकी से व्यक्त करते रहे. निजाम के रजाकारों और ब्रिटिश सैनिकों द्वारा जनगामा तालुका के माचिरेड्डी पल्ले और आकुनूर गाँवों की स्त्रियों पर किए गए अत्याचार का विरोध करते हुए उन्होंने लिखा कि –
“दायित्वहीन सरकार के 
सिपहसालारों का अत्याचार, अब और नहीं 
दायित्वपूर्ण व्यवस्था के बिना 
जीवन, अब और नहीं 
सत्ताधारियों के निरंकुश 
खेल, अब और नहीं. 
**** ****
माचिरेड्डी और आकुनूर में 
अस्मत की लूट, अब और नहीं. 
शासन के नाम पर गाँव-गाँव में 
पापाचार, अब और नहीं. 
रक्षण के नाम पर 
भक्षण, अब और नहीं. 
पैसे वालों की दुनिया में 
गरीब का क्रय-विक्रय, अब और नहीं.”

कालोजी ने अनेक विधाओं के माध्यम से जनता की आवाज को, जनता की पीड़ा को व्यक्त किया है. उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं ‘कालोजी कथलु’ (1943, 2000), ‘पार्थिव व्ययम’ (पार्थिव नाम संवत्सर का व्यय, 1946), ‘ना गोडवा’ (मेरी आवाज, 1953), ‘तुदि विजयम’ (प्रथम विजय, 1962), ‘जीवन गीता’ (1968), ‘तेलंगाना उद्यम कवितलु’ (1969), ‘इदि ना गोडवा’ (यह मेरी आवाज है (आत्मकथा), 1995),’बापू! बापू!! बापू!!!’ (1995) आदि.

कालोजी देशभक्त थे. उन्होंने अपने आपको सक्रिय रूप से जनता की आजादी की हर लड़ाई के साथ जोड़ा. वे अन्याय को न तो सह सकते थे और न ही चुपचाप देख सकते थे. इसलिए वे कहते हैं कि 
“मन में ममता हो तो 
समता का भाव जन्म लेता है. 
मैं मिट्टी का लोंदा नहीं 
मन वाला मानव हूँ. 
ममताविहीन जीवन जी नहीं सकता. 
इसके लिए मन मेरा मानता नहीं. 
मैं रो सकता हूँ, हँस सकता हूँ 
मैं मनुष्य हूँ, हाँ! मैं मनुष्य हूँ.”

कालोजी ने जनता की पीड़ा को अपनी पीड़ा बनाया. इसी पीड़ा को उन्होंने अपना काव्य विषय बनाया. इसीलिए वे ‘प्रजाकवि’ बने. उनकी हर साँस में प्रजा की वेदना निहित है, प्रजा की आस्था-अनास्था, आशा-निराशा, आक्रोश, आवेग, शोषण के प्रति विद्रोह मुखरित है. उनकी आवाज जनता की वह आवाज है जिसने अन्याय का डटकर विरोध किया. उन्होंने निजाम के निरंकुश शासन के खिलाफ आवाज बुलंद की- 
“लोकतांत्रिक संस्था से प्रतिशोध लेने का नतीजा 
प्रकट होगा अवश्य बहुत जल्दी ही.
इठलाती-अकड़ती तानाशाही 
टिक नहीं सकती, गिर जाएगी जमीन पर, 
मजाक में भी छेद कर देने से 
पक्का बाँध तक टूट जाता है जैसे.” 

कालोजी परिस्थितियों के सामने घुटने टेकना नहीं जानते थे. वे हर विषम परिस्थिति का डटकर मुकाबला करते थे. वे सत्तालोलुप राजनीति से समझौता करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को देख कर दुःख से कराहते हैं – 
“क्या हुआ? मुझे क्या हुआ?
अत्याचार को देशीय समझ 
दया की क्या मैंने?
अंग्रेजों का विरोध कर 
काले लोगों की सेवा करना; 
किसलिए? क्या हुआ? 
मुझे क्या हुआ?
उस समय के रजाकारों को 
मिटाने की तरह मैं
आज के रजाकारों का 
‘नायक’ बन आया हूँ 
क्यों? क्या हुआ? मुझे क्या हुआ? 
हृदय बकरी, चित्त लोमड़ी, 
मन भेडिया. 
कुत्ते की तरह जी रहा हूँ 
क्यों? मुझे क्या हुआ? 
इससे भला 
कोई और पशु होता 
तो अच्छा होता.”

कालोजी ने ‘जय तेलंगाना’ आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था. कालोजी यह प्रश्न करते हैं कि क्या तेलंगाना के अलग हो जाने से देश पर विपत्ति आएगी? क्या लोग तेलुगु भाषा भूल जाएँगे? होशियारी कम हो जाएगी? जलस्रोत सूख जाएँगे? दोस्ती कम हो जाएगी? 

हैदराबाद के स्वतंत्रता आंदोलन में सशस्त्र भागीदारी और बाद में ‘जय तेलंगाना’ आंदोलन की अगुवाई करने वाले कालोजी नारायण राव ने भूमिहीन किसानों को जमीन दिलवाने के लिए अथक संघर्ष किया. उनका पूरा जीवन ही संघर्ष है. मानव अधिकारों के प्रति वे जागरूक थे. जब 1973 में प्रगतिशील रचनाकार वरवर राव और कुछ अन्य लोगों के खिलाफ सरकार द्वारा ‘सिकंदराबाद का झूठा मुकदमा’ दर्ज किया गया तो उसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने लिखा – 
“चालीस लोगों ने या चार नक्सलियों ने 
अत्यंत गोपनीय ढंग से 
रची साजिश, 
असल में भूमिगत – प्रकट में रहस्य !
साजिश ! 
प्रधानमंत्री इंदिरा की सरकार को 
जड़ से उखाड़ फेंकने की साजिश! 
सरेआम सशस्त्र संघर्ष चलाने की साजिश! 
फिर भी गाय-बछड़े की सरकार के 
जासूसों ने सूँघ ही लिया 
षड्यंत्र.
दर्ज किया कोर्ट में केस 
गवाह हैं पाँच सौ;
पाँच सौ गवाहों के समक्ष 
रहस्यमय साजिश ! 
भयंकर खतरनाक साजिश ! 
पाँच सौ गवाह;
कैसी साजिश ! सरकारी साजिश
झूठे मुक़दमे की सुनवाई 
चल सकती है कोर्ट में चार-पाँच सालों तक.
मृत्युदंड या उम्रकैद की धाराओं के तहत 
दोष का अभियोग.
क्या कुछ लोगों को हो नहीं सकती फाँसी – 
और कुछ को उम्रकैद की सजा – 
बाकी के बरी हो जाने पर भी 
धाराओं के तहत चार पाँच बरस का कारावास तो तय है. 
भयंकर साजिश – सरकारी साजिश का मुकदमा 
प्रजाहित के लिए – साजिश ! 
श्रेष्ठ राज्य के लिए – साजिश !!”

1949 में हैदराबाद पुलिस एक्शन के बाद स्टेट कांग्रेस के संस्थागत चुनाव के समय जब अपराधी तत्व चुनाव लड़ रहे थे तब कालोजी ने अपनी व्यथा और आक्रोश को इस तरह व्यक्त किया है – 
“कहाँ कहाँ घूमे? क्या क्या किया?
कितने बरसों बाद घर वापस लौटे? 
बहुत चालाकी से अपने हिस्से को स्वाहा कर 
पुराना उधार चुकाने के वक्त भाग खड़े हुए क्या? 
चोरी के माल को चोरी से बेचकर 
नकदी अपनी पत्नी के नाम जमा कर ली क्या? 
*****                             *****
भूल गई जनता – अब कैसा डर,
यह सोच तुम आज उम्मीदवार बन प्रकट हो गए?
ठगे गए थे कल – ठगे जाएँगे न आज 
हर बार तुम्हारा खेल नहीं चलेगा. 
दुष्कर्मी! वोटों का क्या कहना 
जूतों की, लातों की कमी नहीं रहेगी!”

कालोजी राष्ट्रभक्त के साथ साथ मातृभाषा के भी भक्त थे. वे उन लोगों का खुलकर निंदा करते थे जो पर-भाषा को अपनाकर निज-भाषा की उपेक्षा करते हैं – 
“भाषा तेरी क्या है? वेशभूषा तेरी क्या?
भाषा, वेशभूषा यह किसके लिए है? 
अंग्रेजी में बतियाकर तू 
नाज-नखरे क्यों करता है? 
सूट-बूट और हैट पहनकर 
शौक दिखा क्या पाया तूने? अकड़ किस लिए?
**** ****
तेलुगु सुत होकर तेलुगु बोलने में 
संकोच क्यों करता है? बात क्या है? 
अन्य भाषाएँ सीख, अपनी भाषा में न बोल 
क्यों हिनहिनाता है? मरता क्यों नहीं तू?” 

कालोजी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चाहते थे जो वास्तव में जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन हो. वे हमेशा यही कहते थे कि ‘मेरे हाथ में वोट है.’ वे वोट को बहुत महत्व देते थे. वोट-बैंक की राजनीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा है- 
“अपना वोट बैंक बनाकर 
हर मर्ज की दवा पा लो 
इस पथ पर जो गुजर गए 
उन जैसी सफलता पा लो.”

कालोजी के बारे में स्पष्ट करते हुए दाशरथी रंगाचार्य ने कहा है कि “ कालोजी कवि निरंकुशुडु. अतनिकि दुराशलु लेवु. आशल वुच्चुलु लेवु. कालोजी मंदि मनीषी. कालोजी कविता प्रजल परुवम“ (कवि कालोजी निरंकुश व्यक्ति हैं. कोई दुराशा नहीं. उन्हें कोई आशा भी नहीं. कालोजी जनपक्षधर हैं. कालोजी की कविता जनता के लिए वरदान है.) 

कालोजी ने समाज की विडंबना को बखूबी रेखांकित किया है – 
“रोगों को देख डर रही हैं दवाइयाँ 
अपमानजनक है गुंडों के हाथों पुलिस की पिटाई 
टिकट चेकर कर रहे हैं सलाम बेटिकटों को 
इनविजिलेटर दे रहे हैं प्रश्नपत्रों के समाधान 
लिखे हुए उत्तर पर कितने अंक लुटाएँ - पूछ रहे हैं परीक्षक 
कंडक्टर को देख डर रहे हैं पैसेंजर 
गुंडों को देख डर रही है सरकार, 
जनता खरीद रही है दैनंदिन सुरक्षा
स्थानीय बाहुबलियों से” 

कालोजी ने जनसाधारण की भाषा को ही काव्यभाषा बनाया. उनकी कविताओं में भारतीय संस्कृति, मिथक, प्रतीक और बिंब विधान निहित है. उनकी कविता ऊपर से जितनी सरल और सहज लगती है वास्तव में वह उतनी सरल नहीं है. उनकी कविताओं में मराठी, कन्नड़, तेलुगु, हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं के शब्द सम्मिलित हैं. कुछ विद्वानों ने कालोजी को वेमना और कबीर के साथ जोड़ा है तो कुछ लोगों ने जनकवि नागार्जुन और महाश्वेता देवी के साथ.

कालोजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं दिखाई देता. कालोजी ने मनुष्य की जिजीविषा को अभिव्यक्ति दी. उन्होंने कभी मृत्यु की भी परवाह नहीं की. उनकी इच्छा यही थी कि 
“मेरी है एक इच्छा 
कि मेरी आवाज तुझे लिखे हुए खत के समान हो
****                        ****
लुप्त हो रही दोस्ती को संजीवनी लगे
जलती आँखों को ठंडक पहुंचाने वाला लगे 
भटके हुए सांड को गले में बंधा गलगोड्डा-सा लेग
****                      ***** 
राष्ट्र को नीति सा लगे 
शत्रु को भीति सा लगे 
सरहद को रक्षा सा लगे
शिबि के शरीर सा लगे
बलि के त्याग सा लगे
सैनिकों के प्राण सा लगे” 

कालोजी ने अपने आपको प्रजा के हित के लिए समर्पित कर दिया था. वे जब तक जीवित रहे तब तक जनता के लिए ही काम करते रहे. मृत्यु के बाद भी जनता के काम आने की दृष्टि से उन्होंने अपनी वसीयत में यह अंतिम इच्छा प्रकट की कि मृत्यु के बाद अनका पार्थिव शरीर काकतीय मेडिकल कॉलेज को तथा आँखें हैदराबाद के प्रसिद्ध एल.वी.प्रसाद इंस्टीट्यूट को दे दी जाएँ. वे मर कर भी अमर हुए. उन्हीं के शब्दों में – 
“ज़िंदा ही रहूँगा मैं 
जब तक आर्द्रता झरती रहेगी 
मित्रता के झरने से 
हरती हुई पराएपन को; 
ज़िंदा ही रहूँगा मैं. 

जीवन की सँकरी राहों पर 
प्रतिकूल परिस्थितियों से टकराकर 
सारे पाप-ताप हरती 
जब तक बहती रहेगी जीव-नदी; 
ज़िंदा ही रहूँगा मैं. 

तमाम दुष्टताओं के बीच 
जब तक बचाता रहेगा 
मेरा षड्वर्ग अपने शील को; 
ज़िंदा ही रहूँगा मैं. 

वाद्यवृंद की विषम ध्वनियों के लिए 
समश्रुति सा मेरा स्वर 
जब तक उखड़ने न लगे; 
ज़िंदा ही रहूँगा में.” 

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हिंदी दिवस पर ‘आधुनिक रामायण’

सितंबर का महीना आते ही हिंदी से जुड़े सब अध्यापक, प्राध्यापक, प्रोफेसर और हिंदी अधिकारी आदि बहुत ही व्यस्त हो जाते हैं हिंदी दिवस के कार्यक्रमों में. आज मुझे निर्णायक के रूप में ‘ग्लेंडेल अकादमी इंटरनेशनल’ जाने का सुअवसर मिला. वहाँ जाने के बाद मुझे यह पता चला कि ‘ग्लेंडेल अकादमी इंटरनेशनल’ के तत्वावधान में हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में द्विदिवसीय हिंदी उत्सव – ‘उमंग 2013’ का आयोजन किया गया. इस आयोजन का उद्घाटन 12 सितंबर को हुआ था. उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद की विभा भारती उपस्थित रहीं. ‘ग्लेंडेल अकादमी इंटरनेशनल’ की प्राचार्या क्षमा गोस्वामी के निर्देशन में कार्यक्रम की शुरुआत हुई. हिंदी विभाग की वरिष्ठ अध्यापक मीरा ठाकुर और अन्य साथियों के मार्गदर्शन में बच्चों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए. 

आज (13 सितंबर 2013) कार्यक्रम के दूसरे दिन अनेक प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया - हास्य-व्यंग्य नाटक, नुक्कड़ नाटक, भाषण और निबंध लेखन. हास्य-व्यंग्य और नुक्कड़ नाटक के निर्णायकगण थे विक्रम सूर्यवंशी (इंटरनेशनल स्कूल, शेक्पेट) और आयशा बेगम (इनसाइट स्कूल). प्रीति सिंह (आर्मी स्कूल, गोलकोंडा) और मैं भाषण और निबंध प्रतियोगिता के निर्णायक थे. हमारे साथ ‘ग्लेंडेल अकादमी इंटरनेशनल’ की अंग्रेजी अध्यापक प्रीति भी निर्णायक के रूप में उपस्थित रही. 

भाषण प्रतियोगिता शुरू होने में समय था तो हम भी हास्य-व्यंग्य प्रतियोगिता देखने के लिए बैठ गए. सिर्फ एक ही नाटक देख पाई क्योंकि उसके बाद भाषण प्रतियोगिता शुरू. मैं उस नाटक के बारे में आप से शेयर करना चाहती हूँ. 

आर्मी स्कूल, गोलकोंडा के पांचवी सेसातवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने हास्य-व्यंग्य नाटक ‘आधुनिक रामायण’ का मंचन किया. वनवास का दृश्य. सीता राम से पिज्जा और बर्गर की जिद कर रही थी. राम सीता को समझाने में व्यस्त थे और लक्ष्मण मोबाइल फोन में. सीता की जिद को पूरा करने के लिए राम और लक्ष्मण पिज्जा और बर्गर को दूँढ़ने के लिए जाते हैं तो रावण मोबाइल की भिक्षा मांगते हुए आ जाता है और सीता का अपहरण करके लंका ले जाता है. राम और लक्ष्मण सीता को मोबाइल सिग्नल्स के माध्यम से खोज निकालते हैं. वानर सेना के साथ राम-लक्ष्मण लंका पहुँच जाते हैं. उनके बीच युद्ध होता है. स्टेनगन के साथ युद्ध करते हैं. रावण को मारने के लिए लक्ष्मण गूगल सर्च इंजन में समाधान दूंढ़ता है – रावण को कैसे मारा जा सकता है? रावण को मार कर सीता के साथ अयोध्या वापस जाते हैं और जाते समय राम सीता को बर्गर भेंट के रूप में देते हैं. नाटक का अंत हुआ इस पंच लाइन के साथ – ‘नई टेकनोलॉजी का कमाल! जय मोबाइल!!’ 

सभी बाल कलाकरों ने बहुत आत्मविश्वास के साथ मंचन किया. वहाँ उपस्थित सभी ने खूब मजा लिया. इस नाटक ने प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल किया. 

भाषण प्रतियोगिता में आठवीं से लेकर बारहवीं कक्षाओं तक के विद्यार्थियों ने भाग लिया. सभी ने आत्मविश्वास के साथ परफोर्म किया. निर्णय लेना कठिन हो गया था कि किसको प्रथम दें और किसको द्वितीय. खैर प्रतियोगिता है तो एक को ज्यादा और एक को कम अंक देना ही पड़ता है. लेकिन सभी प्रतिभागी विजेता ही हैं.

निबंध प्रतियोगिता में भी वही हुआ. तीनों निर्णायकों के अंकों को मिलाकर प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कारों की घोषणा हुई. 

समापन समारोह में विजेताओं को पुरस्कार दिया गया. 

आज का दिन बहुत अच्छा बीता.

बुधवार, 21 अगस्त 2013

प्रो. ऋषभदेव शर्मा की हिंदी कविताओं का तमिल अनुवाद -1

अकादमिक प्रतिभा, नई दिल्ली - 100 059
2011/  INR 250/=
आईएसबीएन : 978-93-80042-59-6.
प्राप्ति स्थान -
 डॉ. ऋषभ देव शर्मा, 208 - ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, 
गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद - 500 013 . 
फोन :  +91 8121435033.
गुड़िया–गाय–गुलाम (मूल : ऋषभ देव शर्मा)

परसों तुमने मुझे
चीखने वाली गुड़िया समझकर
जमीन पर पटक दिया
और पैरों से रौंद डाला पर मैंने कोई शिकायत नहीं की.

कल तुमने मुझे
अपने खूँटे की गाय समझकर
मेरे पैरों में रस्सी बाँध दी
और मेरे थनों को दुह डाला पर मैंने कोई शिकायत नहीं की.

आज तुमने मुझे
अपने हुक्म का गुलाम समझ कर
गरम सलाख से मेरी जीभ दाग दी है और अब भी चाहते हो
मैं कोई शिकायत न करूँ

नहीं!
मैं गुड़िया नहीं,
मैं गाय नहीं,
मैं गुलाम नहीं!! 
(देहरी: 2011: पृष्ठ1)


तमिल अनुवाद (नीरजा)

போம்மை-பஸு-அடிமை 


ரொம்ப காலமாய நீ ஏந்நை
சத்தமபோடும் பொம்மை என்று நிநைத்து
தீரையில நிர்லாக்ஷ்யமாஈ விஸிரிநாய
காலால மிதைத்தாய ஆநாலும நாந வாய் அஸைக்யவில்லை.

நேட்ரு நீ ஏந்நை
உந கம்புக்கு கட்டிய பஸு என்று நிநைத்து 
ஏந காலில கயிரை மாட்ரீநாய
ஏந பால மடியை கரைத்திநாய ஆநாலும நாந வாய் அஸைக்யவில்லை.

இன்று நீ என்னை
உன் அடிமை என்று நினைத்து
ஏன் நாக்கை இரும்பு ஈட்டியால் ஸுட்ரிவிட்டாய ஆனாலும் நீ நினைக்கிறா
நான் வாய் அசைக்யமாட்டேன் என்று! 

இல்லை!
நான் பொம்மை இல்லை!
நான் பசுவும் இல்லை!! 
நான் அடிமை இல்லை!!!


हिंदी लिप्यंतरण


बोम्मै-पसु-अडिमै


रोंभ कालमाय नी एन्नै 
चत्तमपोडुम बोम्मै एंड्रु निनैत्तु 
तिरैयिल निर्लाक्ष्यमाई विसिरिनाय 
कालाल मिदैत्ताय आनालुम नान वाई असैक्यविल्लै. 

नेट्रु नी एन्नै 
उन कम्बुक्कु कट्टिय पसु एंड्रू निनैत्तु 
एन कालिल कयिरै माट्रीनाय 
एन पाल मडियै करैत्तिनाय आनालुम नान वाई असैक्यविल्लै. 

इंद्रु नी एन्नै 
उन अडिमै एंड्रु निनैत्तु 
एन नक्कै इरुम्बु ईट्टीयाल सुट्रिविट्टाय आनालुम नी निनैक्कराया 
नान वाई असैक्यमाटेन एंड्रू ! 

इल्लै ! 
नान बोम्मै इल्लै ! 
नान पसुवुम इल्लै !! 
नान अडिमै इल्लै !!!



गुरुवार, 18 जुलाई 2013

पुरस्कार से बड़ा सम्मान

राधाकृष्ण मिरियाला ने 2011-2012 में मेरे निर्देशन में एम.फिल. का शोधकार्य संपन्न किया था. विषय : "हिंदी ब्लॉगिंग में महिला ब्लॉगरों का योगदान". ज्यादातर शोधार्थी उपाधि प्राप्त होने के बाद अपने रास्ते चले जाते हैं. लेकिन राधाकृष्ण मिरियाला उसके बाद भी निकटता बनाए हुए हैं. वे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रचारक प्रशिक्षण महाविद्यालय में प्रवक्ता हैं - इस नाते भी मिलते रहते हैं.

अप्रैल 2013 में जब मुझे आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी ने युवा रचनाकार के रूप में पुरस्कृत किया, तभी से राधाकृष्ण मिरियाला सभा में सम्मान समारोह आयोजित करने की रट लगाए हुए थे. गर्मियों की छुट्टियों के बाद अब महाविद्यालय के खुलते ही उन्होंने आंध्र सभा की अध्यक्ष से अनुमति लेकर कार्यक्रम तय कर लिया. 

बुधवार 17 जुलाई, 2013 को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में इनके संयोजन में 'शुभकामना समारोह' संपन्न हुआ. अध्यक्षता प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने की. मुख्य अतिथि के रूप में आंध्र सभा की अध्यक्ष श्रीमती एम.सीतालक्ष्मी मंचासीन हुईं. आंध्र सभा के सचिव श्री सी.एस.होसगौडर विशेष अतिथि थे. 

पहले तो खूब आशीर्वचनों और शुभकामनाओं की वर्षा हुई - श्रीमती एम.सीतालक्ष्मी, श्री सी.एस.होसगौडर, डॉ.के.बी.मुल्ला, डॉ.ए.जी.श्रीराम, डॉ.गोरखनाथ तिवारी, प्रमोद बालकृष्ण परीट, शंकर सिंह ठाकुर, वी.अजय कुमार, वेंकटेश्वर राव, संपत देवी मुरारका, मंजु शर्मा और आशीष नैथानी ने प्रशंसापूर्ण वाक्यों की झडी लगा दी. इसके बाद शुरू हुआ शाल, अंगवस्त्र और स्मृति चिह्नों का सिलसिला. वास्तव में मैं पुरस्कार मिलने पर भी इतनी रोमांचित और गद्गद नहीं हुई थी जितनी इस सम्मान से हुई. मैंने फूल की एक एक पंखुड़ी तक कंजूस के धन की तरह बटोर ली. 

प्रस्तुत हैं इस अविस्मरणीय कार्यक्रम के कुछ चित्र ...



शुभकामना समारोह by Slidely - Slideshow maker

सोमवार, 24 जून 2013

विष्णु प्रभाकर के साहित्य में लोक और भारतीयता




“मेरे उस ओर आग है, 


मेरे इस ओर आग है, 

मेरे भीतर आग है, 

मेरे बाहर आग है, 

इस आग का अर्थ जानते हो ? 

क्या तपन, क्या दहन,

क्या ज्योति, क्या जलन,

क्या जठराग्नि-कामाग्नि,

नहीं! नहीं!!!

ये अर्थ हैं कोष के, कोषकारों के

जीवन की पाठशाला के नहीं,

जैसे जीवन, 

वैसे ही आग का अर्थ है, 

संघर्ष, 

संघर्ष - अंधकार की शक्तियों से 

संघर्ष - अपने स्वयं के अहं से 

संघर्ष - जहाँ हम नहीं हैं वहीं बार-बार दिखाने से 

कर सकोगे क्या संघर्ष ? 

पा सकोगे मुक्ति, माया के मोहजाल से ? (विष्णु प्रभाकर, आग का अर्थ



अपनी इस कविता में विष्णु प्रभाकर (21 जून, 1912 – 11 अप्रैल, 2009) ने इंसानियत और जीवन संघर्ष का चित्र प्रस्तुत किया है. उन्होंने समकालीन समाज पर व्यंग्य कसते हुए कहा है कि आज का मनुष्य प्रतिपल ‘रघुपति राघव राजा राम’ का भजन तो करता है लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में उसका अर्थ हो गया है ‘चोरी हिंसा तेरे नाम’ – 

“हम नेताओं के वंशज 

हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में 

हम प्रतिपल भजते 

रघुपति राघव राजा राम 

होते हैं जिसके अर्थ 

चोरी हिंसा तेरे नाम.” (वही) 


आज निर्विकार निरपेक्ष भाव से जातिवाद का पोषण किया जा रहा है. इसी दोगले आचरण का एक उदाहरण यह भी है कि एक ओर बलात्कार बढते जाते हैं तो दूसरी ओर ब्रह्मचर्य की गुहार लगाई जाती हैं. इसी बात पर विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि – 

“हम 

हम प्रतिभा के वरद पुत्र 

हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में 

हम दिन भर करते बलात्कार 

देते उपदेश ब्रह्मचर्य का 

हर संध्या को” (वही) 

विष्णु प्रभाकर आक्रोश व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि मनुष्य माया के मोहजाल से मुक्ति नहीं पा सकेगा तो ज्वालामुखियों की लपलपाती लपटें आदमी और आदमीयत के वजूद को लील जाएँगी – 

“पा सकोगे तो आलोक बिखेरेंगी ज्वालाएँ 

नहीं कर सके तो 

लपलपाती लपटें-ज्वालामुखियों की 

रुद्ररूपा हुंकारती लहरें सातों सागरों की, 

लील जाएँगी आदमी 

और 

आदमीयत के वजूद को. 

शेष रह जाएगा, बस वह 

जो स्वयं नहीं जानता 

कि 

वह है, या नहीं है ।“ (वही) 

‘आवारा मसीहा’ के लेखक के रूप में प्रसिद्ध विष्णु प्रभाकर को भारतीय वाग्मिता और अस्मिता को व्यंजित करने वाला साहित्यकार माना जाता है. उनके लेखन में और रहन-सहन में भारतीय समाज और संस्कृति मुखरित है. उन्हें भारतीय साहित्य के महान स्रष्टा कह सकते हैं. इसमें दो राय नहीं. वे प्रखर आस्थावादी थे. अतः मानव के प्रति आस्था उनके साहित्य का विशिष्ट स्वर है. उनके सामने शताब्दियों से पराधीन तथा पिछड़े भारतीय जन की टूटती अस्मिता थी. उनकी दृष्टि में व्यक्ति की स्वाधीनता की सुरक्षा ही महत्वपूर्ण है. इसीलिए वे कहते हैं, “प्रत्येक राष्ट्र को अपनी स्वतंत्रता के लिए युद्ध करने का अधिकार है. उस जन्मजात अधिकार को संसार का कोई नियम, कोई कानून, कोई विधान नहीं छोड़ सकता.” (विष्णु प्रभाकर, स्वाधीनता का संग्राम (नाटक), पृ.112). 

विष्णु प्रभाकर ने निरंतर भारतीयता को ही ध्यान में रखकर साहित्य सृजन किया. इसीलिए भारत का वर्तमान और भविष्य, उसकी सुरक्षा और सम्मान, भारतीय जनता के हित-अहित के प्रति सतर्क दृष्टि विष्णु प्रभाकर के साहित्य में परिलक्षित है. उन्होंने देशविभाजन की त्रासदी को निकट से देखा और भोगा था अतः उनके साहित्य में इस भीषण त्रासदी की पृष्ठभूमि में इंसानियत की तलाश दिखाई देती है. अपनी कहानी ‘धरती का स्पर्श’ में उन्होंने यह प्रश्न किया है कि देशविभाजन के बाद भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को क्या मिला? यह कहानी बताती है कि ऐसे लोगों को बरसों तक रिफ्यूजी बन कर रहना पड़ा फिर भी वे दिल का सुकून नहीं पा सके. उन्होंने अपने एक पाकिस्तान गए पात्र के माध्यम से इस यथार्थ को बखूबी उजागर किया है. देखें – 

“बताया गया था कि पाकिस्तान जन्नत है. .... कैसी है यह जन्नत ! उस जन्नत में हम वर्षों रिफ्यूजी रहे. उसके बाद कुछ साँस आई तो हमारे सियासी-रहनुमा आपस में लड़ने लगे. लड़ना जैसे कोई इंसानी फर्ज हो. हर सरकार ने उम्मीद दिलाई कि अब हालात अच्छे होंगे. और हर बार वे बद से बदतर होते चले गए. हमारे रहनुमा हमें लड़ने को, भारत को कुचलने को उकसाते रहे. हम अलग हुए थे, क्योंकि मिलकर रह नहीं सकते थे. लेकिन क्या अलग होकर भी अमन चैन से रह सके? दिल का सुकून पा सके?” (विष्णु प्रभाकर, धरती का स्पर्श, मेरा वतन, पृ.10-11). 

विष्णु प्रभाकर यह प्रश्न करते हैं कि ‘इंसान जब इंसानियत को समझ लेता है तो जानने के लिए रहता ही क्या है?’ (ईश्वर का चेहरा, मेरा वतन, पृ.26) लेकिन खेद का विषय है कि भारत की इस मनुष्य को सर्वोपरि मानने वाली दृष्टि को कोई भी देश अपनाने को तैयार नहीं; और इसीलिए नित्य मनुष्य मनुष्य की हत्या में रत है – युद्धोन्माद से भरकर एक जाती दूसरी जाति के निर्मूल करने पर आमादा है. कहने की ज़रूरत नहीं कि विष्णु प्रभाकर इंसानियत के पक्षधर थे. उन्होंने अपनी साहित्य साधना की प्रेरक शक्तियों के बारे में बताते हुए स्वयं कहा है, “मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति मनुष्य है. अपनी समस्त महानता और हीनता के साथ, अनेक कारणों से मेरा जीवन मनुष्य के विविध रूपों से एकाकार होता रहा और उसका प्रभाव मेरे चिंतन पर पड़ता रहा. कालांतर में वही भावना मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति बनी. त्रासदी में से ही मेरे साहित्य का जन्म हुआ.”(संकल्य, अक्टूबर-दिसंबर – 2006). 

भारतीय जीवन-दर्शन के अनुरूप विष्णु प्रभाकर सह-अस्तित्व को मानवता का आधार मानते थे. वे ‘स्व’ को उतना महत्व नहीं देते थे जितना ‘पर’ को देते थे. उनकी मान्यता थी कि वर्गविहीन समाज के अभाव में मानवता का कल्याण संभव नहीं है. उन्होंने स्वयं इस बात को कहा कि “ सह-अस्तित्व में मेरा पूर्ण विश्वास है. यही सह-अस्तित्व मानवता का आधार है. इसलिए गांधी जी की अहिंसा में मेरी पूरी आस्था है. मैं मूलतः मानवतावादी हूँ अर्थात उत्कृष्ट मानवता की खोज ही मेरा लक्ष्य है. वर्गहीन अहिंसक समाज किसी दिन स्थापित हो सकेगा या नहीं, लेकिन मैं मानता हूँ कि उसकी स्थापना के बिना मानवता का कल्याण नहीं है.” (वही). वे भयंकर दंगों, रक्तपातों और हत्याओं के साक्षी भी रहे. इसलिए वे कहते हैं, “भयंकर दंगों, रक्तपातों और हत्याओं का मैं साक्षी हूँ. मैं मानवता में विश्वास करता था, मैंने मानव को मानव का रक्त उलीचते देखा है.” (विष्णु प्रभाकर : अपनी निगाह में, कुछ शब्द : कुछ रेखाएँ, पृ.167). वे बार बार मानव मूल्यों की स्थापना और भारतीयता की बात करते हैं. वे यह भी कहते हैं कि “सभ्यता ने इंसान को समझदार नहीं बनाया है, केवल नासमझी के कारण को कुछ संशोधन कर दिया है.” (दो शब्द, श्वेत कमल). 

यहाँ यह बात याद रखने लायक है कि विष्णु प्रभाकार ऐसे शिविर-निरपेक्ष कालजयी रचनाकार हैं जिन्हें किसी वाद के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता. उन्होंने अपने आपको तमाम तरह की गुटबंदियों से अलग रखा. बस इतना उनके लिए काफी है कि वे मिट्टी से जुड़े साहित्यकार हैं. उनके साहित्य में भारतीय परिवेश, दर्शन, संस्कृति, जीवन शैली, जीवन मूल्य आदि मुखरित हैं. इसलिए वे अपने पात्रों का चयन भी उसी तरह करते हैं. लोक चेतना की दृष्टि से वे प्रेमचंद की परंपरा के कथाकार हैं. उन्होंने प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का नाट्यरूपांतर ‘होरी’ नाम से किया. इसमें ज़रा धनिया की भाषा पर ध्यान दें जिसमें पग-पग पर लोक द्रष्टव्य है – ’’घर में परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंजुली भर रुपए लेकर चला है इज्जत बचाने ! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत ! जिसके घर में चूहे लोटें, वह भी इज्ज़तवाला है ! दरोगा तलासी ही तो लेगा. ले लें जहां चाहे तलासी. एक तो सौ रुपए की गाय गई, उस पर यह पलेथन. वाह री तेरी इज्जत !” (होरी, पृ.46). 

विष्णु प्रभाकर भारतीय लोक और जनमानस के रस में पगे साहित्यकार थे. लोक के प्रति उनकी आसक्ति ने उनकी भाषा को लोक का खास रंग दिया. उन्होंने जो सूक्तियाँ रची हैं तथा जिन उपमानों और प्रतीकों का प्रयोग किया है उनकी ताजगी का रहस्य लोक भाषा अथवा मातृबोली से प्राप्त दीक्षा में निहित है. बिना टिप्पणी के यहाँ उनके कुछ ऐसे भाषिक प्रयोग देखे जा सकते हैं – 

तोपों से गनगनाती धरती भी अब शांत हो गई थी. (‘धरती का स्पर्श’, मेरा वतन, पृ.7) 

स्मृति की परतों के साथ साथ ईंटों का भुरभुरापन (पृ.9) 

एक एक ईंट इसी तरह झुर जाएगी (वही) 

और फिर साँझ पड़े, यहीं से आकार पकड़ ले जाते थे. (वही) 

फिर चिहुँक उठता है (वही) 

श्यामा बार बार कुनमुना उठती थी (‘शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ. 49) 

वह अचकचा कर उठ बैठी (वही) 

शेख साहब सकपका गए (वही, पृ. 50) 

आज का सूरज नहीं देख पाऊँगा. (वही, पृ.52) 

राहत की साँस खींची (अगम-अथाह, मेरा वतन, पृ.54) 

जैसे उन्होंने ततैयों के छत्ते में हाथ डाल दिया (वही) 

आँखें ऐसे बंद होती हैं कि हरहराकर फिर खुल जाती हैं (वही) 

ऐसे लगता है जैसे कोई उसे आरी से चीरने लगा है (वही) 

ऐसे देखा जैसे स्वयं पानी पानी हो चले (वही) 

हल्की चिपचिपाहट थी (वही) 

लोक जीवन के प्रामाणिक चित्र तो विष्णु प्रभाकर जी की रचनाओं में भरे पड़े हैं. साथ ही लोक विश्वास और लोक शिष्टाचार के भी अनेक संदर्भ उनकी कहानियों और नाटकों में देखे जा सकते हैं. 

लोक जीवन – 

नई चौपाल है और उसके चारों तरफ ये ऊँचे ऊँचे दरख़्त. इन दरख्तों के पास ही तो रहट है और उसके दूसरी तरफ नाला है. (धरती का स्पर्श, मेरा वतन, पृ.9) 

यह कैसी खुशबू है? क्या यह ईख के खेतों से तो नहीं आ रही? हाँ, यह वहीं से आ रही. यह भीनी भीनी गंध और वह, उधर मकई के खेतों से आने वाली मीटी मीटी महक. (वही, पृ.10) 

*** ज्यों ज्यों आगे बढ़ता हूँ एक अजीब सी महक मेरे दिमाग की परतों को खोलती चली जा रही है. अनाज की महक, पानी की महक, भीगी भीगी मिट्टी की महक. अरे लो, यह तो पौ फट चली. चिड़िया चहचहाने लगी हैं. *** आहा ! उधर खेतों में कोई गीत गा रहा है. (वही) 

लोक विश्वास – 

प्रयाग हमारा बहुत बड़ा तीर्थ है. गंगा-यमुना का संगम होता है यहाँ. पहले सुप्रसिद्ध सरस्वती भी यहीं बहती थी. **** संगम में स्नान करने से बहुत पुण्य मिलता है. और काशी तो है ही भगवान शिव का स्थान. कहते हैं कि वह भगवान शिव के त्रिशूल पर ठहरी हुई है. (शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ.47) 



लोक शिष्टाचार – 

अपरिचित व्यक्ति को भी सम्मान से पुकारनाशेख साहब ! शेख साहब ! **** क्या बात है बहन? **** कैसी तबियत है भाई जान? ( शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ.50) 

अंतरंग होने पर अनौपचारिक संबोधनओय लाला जी.**** ओय लाला साहब. (वही, पृ.51) 

आयु के अनुसार संबंधसूचक संबोधन का प्रयोगक्या बताऊँ भइया *** हाँ बेटा (अगम-अथाह, मेरा वतन, पृ.55) 

दुवा और शुभकामना“या अल्लाह, खुदाबंद ताला, भाईजान की जान बचाइए (शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ.51) 

भगवान तुम्हें सुखी रखे भइया (अगम-अथाह, मेरा वतन, पृ.54) 

विष्णु प्रभाकर ने अपने साहित्य में पग-पग पर भारतीयता और मानवीय मूल्यों की स्थापना की.संपूर्ण वसुधा को अपना कुटुंब मानना और मनुष्यमात्र को आत्मवत देखना भारतीयता का निजी मूल्य है.इसे उन्होंने स्वयं कहा है, ‘मेरा राजनीति से कोई सीधा संबंध नहीं है और न ही धर्म से. मैं तो एक इंसान और एक संसार का उपासक हूँ.’ वे यह मानते थे कि भारतीयता के अंतर्गत सारा भारत और भारतीय जनता की दिनचर्या, उनसे जुड़ी छोटी-छोटी घटनाएँ, तौर-तरीके, उनके व्यवहार समाहित हैं. स्त्री-पुरुष के आपसी वैमनस्य, सवर्ण-अवर्ण का अंतर, छुआछूत, ऊँच-नीच, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, धर्म और जाती के नाम पर समाज का बँटवारा आदि भारतीयता के बाधक तत्व हैं. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘हमारे सामने आदर्श, त्याग और बलिदान जैसे मूल्य थे, लेकिन आजादी के बाद स्थिति तेजी से बदली. हमारे नेताओं ने आजादी का सुख भोगना शुरू कर दिया. उन्होंने सत्ता का एक प्रकार से दुरुपयोग किया. इस कारण नैतिक मूल्यों में गिरावट आई और इससे नई पीढ़ी का बुरी तरह से मोहभंग हुआ. आदर्श, त्याग और बलिदान जैसे मूल्यों के आगे प्रश्नचिह्न लग गए. मूल्यों का संकट, नेताओं का संकट पूरे विश्व में है. प्रेमचंद ने भी कहा है, ‘अपनी लड़ाई स्वयं लड़ो.’ यही हम सभी को करना चाहिए. लेकिन इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि व्यक्ति अपने में सिमट जाए. व्यक्ति कभी अपनी निजता में धन्य नहीं होता, परिवेश से जुड़कर सार्थक होता है. हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति के प्रति उत्तरदायी होता है.’ (http://www.rachanakar.org/2009/03/blog-post_21.html). 

भारतीय संस्कृति कुटुंब-संस्कृति है. विष्णु प्रभाकर भी कौटुम्बिकता को मान्यता देते हैं. यह उनके साहित्य में भलीभाँति मुखरित है. ‘सर्वोदय’ शीर्षक नाटक में वे कहते हैं, ‘’“हर एक व्यक्ति दूसरे की चिंता रखे और अपनी चिंता भी ऐसी रखे कि जिससे दूसरे को कष्ट न हो. यही कुटुंब में होता है. कुटुंब का यह न्याय समाज पर लागू करना कठिन नहीं होना चाहिए, बल्कि आसान होना चाहिए. इसी को सर्वोदय कहते हैं.”’’ (सर्वोदय, विष्णु प्रभाकर के नाटक, भाग – 6, पृ.467). इतना ही नहीं, उन्होंने अपने कालजयी उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’[1992] के माध्यम से भारतीय संस्कृति के सबसे मनोरम मिथक ‘अर्द्धनारीश्वर’ का अत्यंत सटीक और सामयिक प्रयोग किया है. उन्होंने यह कहा है, “नारी की स्वतंत्र सत्ता का, नारी की सैक्स-इमेज से कोई संबंध नहीं है. उसका अर्थ है समान अधिकार, समान दायित्व. एक स्वस्थ समाज के निर्माण के दोनों समान रूप से भागीदार हैं. अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक इस कल्पना का साकार रूप है, एक-दूसरे से विसर्जित नहीं, एक-दूसरे से स्वतंत्र, फिर भी जुड़े हुए.” (अर्द्धनारीश्वर, पृ.321). आगे वे यह भी कहते हैं कि ‘’नारी को बस नारी बनना है, सुंदरी और कामिनी नहीं.”(वही). 

चाहे ‘निशिकांत’ हो या ‘स्वप्नमयी’, ‘अर्द्धनारीश्वर’ हो या ‘मैं नारी हूँ’, ‘एक और कुंती’, ‘श्वेत कमल’, ‘गांधार की भिक्षुणी’, ‘ज्योतिपुंज हिमालय’, ‘होरी’. ‘सूरदास’, ‘धरती अब भी घूम रही है’, ‘तट के बंधन’, ‘जन, समाज और संस्कृति’, ‘हिमशिखरों की छाँव में’, ‘संकल्प’, ‘पानी की जाति’, ‘सत्ता के आर-पार’ – अपने सारे लेखन के माध्यम से विष्णु प्रभाकर ने भारतीय लोक और भारतीयता को समग्र रूप से उजागर किया है. 

अपनी बात का समाहार विष्णु प्रभाकर के इन शब्दों से करती हूँ – “’’सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक है. प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायी है. यही सबसे बड़ा बंधन है और यह प्रेम का बंधन है. 

पर जब तक जिऊँ वाणी स्वर में बोलती रहे, 

वह मेरी ही नहीं सबका दर्द खोलती रहे।“