बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

चित्रा मुद्गल की कहानियों का सांगोपांग अध्ययन

चित्रा मुद्गल की कहानियों में यथार्थ और कथाभाषा
 डॉ. संगीता शर्मा/ 2019/ रु. 350/ पृष्ठ : 214 
सृजलोक प्रकाशन, बी-1, दुग्गल कॉलोनी, खानपुर, नई दिल्ली - 110062  
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों के लगभग पचास वर्ष के काल खंड में अपनी रचनाधर्मिता की अलग पहचान बनाने वाली लेखिका चित्रा मुद्गल कथासाहित्य के अध्येताओं के लिए एक चुनौतीपूर्ण रचनाकार रही हैं। वे एकांत अध्ययन कक्ष में बैठकर काल्पनिक संसार बुनने वाली लेखिका नहीं हैं। बल्कि एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता की तरह यथार्थ जगत में उपस्थित रहने वाली लेखिका हैं। वास्तविक जीवन से सजीव और सक्रिय रिश्ते के कारण उनके अनुभव बहुत गहरे, सूक्ष्म, विराट और व्यापक है। अनुभव की यह सच्चाई उनकी अभिव्यक्ति को भी धार प्रदान करती है। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ विषयवस्तु और भाषाशैली जैसे दोनों धरातलों पर यथार्थ से अनुप्राणित दिखाई पड़ती हैं।

चित्रा मुद्गल की कहानियों की इसी मूलभूत विशेषता को डॉ.संगीता शर्मा (1969) ने अपनी ताजा शोधपूर्ण कृति ‘चित्रा मुद्गल की कहानियों में यथार्थ एवं कथाभाषा’ (2019) में अत्यंत पैनीदृष्टि से प्रतिपादित, विवेचित और विश्लेषित किया है। यही कारण है कि स्वयं लेखिका चित्रा मुद्गल ने उन्हें साधुवाद और आशीर्वाद देते हुए 5 सितंबर, 2019 को लिखे पत्र में यह स्वीकार किया है कि “यह तो सच है कि कहानियाँ जीवन यथार्थ की ही अभिव्यक्ति होती हैं। कुछ अपने जिए-भोगे का यथार्थ होते हैं कुछ नजदीक से देखे जीवन के अनुभव जनित संसार का हिस्सा। तुमने अपने अध्यवसाय और गहन विश्लेषण विवेचन के माध्यम से इन कहानियों में मानव जीवन के यथार्थ और उसकी प्रासंगिकता को उसके पात्रों, घटनाओं और परिस्थितियों के आधार पर रेखांकित किया है, यह सराहनीय है।”

लेखिका डॉ.संगीता शर्मा ने ‘आदि-अनादी’ शीर्षक से तीन खंडों में प्रकाशित चित्रा मुगल की समस्त कहानियों का विहंगम परिचय कराने के बाद विस्तार से व्यक्तिपरक यथार्थ की दृष्टि से उनका विश्लेषण किया है। और दिखाया है कि अहं, द्वंद्व, घुटन, संत्रास, अकेलापन और आत्मनिर्वासन जैसी आधुनिक जीवन शैली से जुड़ी मनोविकृतियाँ आधुनिक मनुष्य के जीवन को नारकीय बनाए रही हैं।

इसके अलावा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक यथार्थ के विविध पहलुओं की अभिव्यक्ति की दृष्टि से इन कहानियों का विवेचन-विश्लेषण करते हुए लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि आधुनिक जीवन का कोई भी मार्मिक कोण चित्रा मुद्गल की कलम की नोक से अछूता नहीं रह सका है। कहना न होगा कि जीवन और जगत के यथार्थ के इस गहरी पहचान ने ही चित्रा मुद्गल को हमारे समय की महान लेखिका बनाया है।

इस पुस्तक का भाषा विश्लेषण विषयक अंश अपने आप में विशिष्ट ही नहीं स्वतःपूर्ण भी है। यथार्थपरक भाषा प्रयोग की पड़ताल करते हुए जहाँ परिवार और समाज में अलग-अलग स्तरों पर बदलती भाषा के रंग देखे और दिखाए गए हैं वहीं शैली के स्तर पर शब्दों के चुनाव और उक्तियों के गठन में निहित समाजशास्त्रीय दृष्टि और बुनावट के सौंदर्य को उजागर किया गया है। विश्वास और बुनावट के सौंदर्य को उजागर किया गया है। विश्वास किया जाना चाहिए कि विशेष रूप से कथाभाषा और शैलीविज्ञान को आधार बनाकर अनुसंधान करने वाले शोधर्थियों के लिए यह पुस्तक बड़े काम की चीज साबित होगी। साधारण पाठक भी चित्रा मुद्गल के कथाकार व्यक्तित्व के अलग-अलग आयामों से परिकित होने के लिए इस पुस्तक को उपयोगी पाएँगे।

हिंदी कुंज पर प्रकाशित

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

यथार्थ की खूँटी पर सपनों का आकाश

खूँटी पर आकाश (निबंध संग्रह)/ ज्ञानचंद मर्मज्ञ 
2018/ 112 पृष्ठ /  रु. 200/  
प्रकाशक : ज्ञानचंद मर्मज्ञ, नं.13, तीसरा क्रॉस, के.आर.लेआउट,
छठवाँ फेज, जे.पी.नगर, बेंगलूरू – 560078
मोबाइल : 9845320295. 

ज्ञानचंद मर्मज्ञ (1959) पिछले तीन दशक से अधिक समय से कर्नाटक में रहकर हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। कवि, पत्रकार और निबंधकार के रूप में उन्होंने वहाँ अच्छी ख़ासी ख्याति अर्जित की हैं। उनकी गद्य और पद्य रचनाएँ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं तथा वे स्वयं भारत सरकार के संचार मंत्रालय के तहत बैंगलूर टेलिकॉम डिस्ट्रिक्ट की सलाहकार समिति के सदस्य के रूप में मनोनीत हैं। ‘मिट्टी की पलकें’ काव्य संग्रह, ‘बालमन का इंद्रधनुष’ बाल कविता संग्रह और ‘संभव है’ निबंध संग्रह के बाद अब उनकी चौथी पुस्तक के रूप में एक और निबंध संग्रह आया है ‘खूँटी पर आकाश’ (2018)। 

इस संग्रह में लेखक के कुल 22 निबंध संकलित हैं जिन्हें व्यक्तिव्यंजक अथवा ललित निबंध कहा जा सकता है। इन निबंधों के विषय अत्यंत विविधतापूर्ण है जिनसे लेखक के सरोकारों की व्यापकता का पता चलता है। समसामयिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए लेखक यथास्थान कटाक्ष भी करता चलता है – कभी मीठी चुटकी के रूप में तो कभी तीखी चोट के रूप में। 

कुछ स्थानों पर ज्ञानचंद मर्मज्ञ हिंदी के आरंभिक लेकिन कालजयी निबंधकार प्रताप नारायण मिश्र की मुहावरेदानी और वाक् चातुरी की याद दिलाते हैं तो कुछ अन्य स्थानों पर हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र के काव्यात्मक गद्य का स्मरण कराते हैं। बीच-बीच में किस्सागोई और संसमरणात्मकता के कारण ये निबंध कभी रामचंद्र शुक्ल तो कभी महादेवी वर्मा के गद्य की स्मृतियों को ताजा करते हैं। इसका अर्थ न तो यह है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने इन गद्यकारों का अनुकरण किया है और न ही यह कि वे इनके समान हैं। बल्कि कहने का अभिप्राय इतना ही है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने हिंदी निबंध की पूरी परंपरा को आत्मसात करके अपने गद्य लेखन को अपने व्यक्तित्व की धार प्रदान की है। इसीलिए खूँटी, झुर्री, शून्य, बेंच, चप्पल, बाल और रंग जैसे प्रत्यक्ष विषयों से लेकर अस्तित्व, सत्य और स्वतंत्रता जैसे अमूर्त विषयों पर वे समान कुशलता और सफलता से लेखनी चला सके हैं। 

इन निबंधों में लेखक की मान्यताएँ बड़े स्पष्ट रूप में मुखरित हुई हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य के प्राकृतिक भोलेपन की मिठास उसकी सच्छी पहचान की गरिमा में छिपी हुई होती है (पृ.14), बिना मतलब के सबसे लिपट-लिपटकर प्यार लुटाना शहर की सभ्यता नहीं है (पृ.15), झुर्री के रूप में बदन की दरारों में जीवन के शाश्वत संदर्भों की परिभाषाएँ अंकुरित होती हैं (पृ.21), उजाला सबको प्रिय है परंतु आँखें होते हुए भी ‘अँधेरा’ देखने वालों की भी कमी नहीं है (पृ.31), जिस भूख ने कभी आदमी को जानवर से मनुष्य बनाया, वही भूख आज मनुष्य को जानवर बना रही है (पृ.38), आकाश और खूँटी का संदर्भ उन लोगों के लिए निरर्थक है जो अपना आकाश दूसरों की खूँटी पर टाँग देते हैं और सफलता की ऊँची-ऊँची मीनारों पर चढ़कर अपनी पीठ स्वयं थपथपाते है (पृ.44)। ऐसी अनुभवजन्य उक्तियाँ इन निबंधों के हर एक पृष्ठ की खूँटी पर करीने से टंगी हुई हैं। 

इन ललित निबंधों में मनुष्यता और संस्कृति के संबंध में हमारे समय की चिंताओं को केवल अभिव्यक्ति ही नहीं मिली है बल्कि उनके समाधान भी उजागर हुए हैं। लेखक ज्ञानचंद मर्मज्ञ की इन चिंताओं में भाषा का प्रश्न भी बहुत बेचैनी पैदा करने वाला है। ‘मेरी मारीशस यात्रा’ में इसीलिए उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है कि हिंदी के नाम पर कुछ कर देना और हिंदी के लिए कुछ ठोस करना, दोनों में बहुत अंतर है। वे मानते हैं कि हिंदी के वर्तमान परिदृश्य में विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता उलझी हुई दिखाई देती है। उनके ये प्रश्न बहुत कुछ कह जाते हैं कि “प्रश्न उठता है कि क्या हम हिंदी को इसी तरह घसीटते हुए लेकर आगे बढ़ेंगे? हिंदी तो अपने बलबूते पर विश्व-पटल पर विस्तार पा रही है। क्या यह आवश्यक नहीं कि पूरे विश्व का ढिंढोरा पीटने से पूर्व हम अपने घर को व्यवस्थित कर लें? क्या यह उचित है कि जिस हिंदी का शृंगार दुल्हन की तरह करके हम विश्व के सामने प्रदर्शित कर रहे हैं वह अपने ही देश में अनुवाद के कारावास में पड़ी सिसकती रहे?” (पृ.111)

अभिप्राय यह है कि ‘खूँटी पर आकाश’ के माध्यम से ज्ञानचंद मर्मज्ञ अपने पाठकों को रसानुभूति तो कराते ही है, वैचारिक उत्तेजना और ऊर्जा भी जगाते हैं। इसलिए इस पुस्तक को सुधी पाठकों का भरपूर आशीर्वाद मिलेगा, इसमें संदेह नहीं।