रविवार, 31 मई 2009

यादें

प्रेत सी छाया बन
यादें पीछा करती बार -बार।
भूलभुलैया - सा लगता है
मेरा यह जीवन संसार॥

शनिवार, 30 मई 2009

तेलुगु कविता : జీవన స్రవంతి

ప్రభాత తుషారంలో తడిచిన గులాబీ మొగ్గ
వికసించక మానుతుందా ?
నేలకోరుగుతానేమోనని అరటి చెట్టు
గెలవేయక మానుతుందా ?

వట్టి పోతానేమోనని మేఘమాల
వర్షించక మానుతుందా ?
చెదిరి పోతానేమోనని నా స్వప్న స్వరూపం
రూపాంతరం చెందక మానుతుందా ?

అతిధి స్వికరించనంత మాత్రాన
అమృతం విషంగా మరేన ?
ఎవ్వరు వాడనంత మాత్రాన , గుర్తించనంత మాత్రాన
మాణిక్యం మసి బొగ్గై పోతుందా ?

వెల వత్సరాలు భుగర్భంలో కూరుకుపాయి ఉన్నా
రాట్నం రాయిగా మారేన
ధగ ధగ లాడే పలుగు రాల్లయిన
రత్నలుగా మారేన ?

జీవన క్షేత్రం లో అహర్నిశలు ఏదో వెతుకుతూ
క్షణానికో నడక నడిచే జీవన స్రవంతి లో
మనో భావాలు ముఖ పద్మంపై
నీడలై నర్తించవా ?

అంధకార భందురమైన ఈ గహనంలో
స్వర్గ సౌఖ్యల మార్గం చూపుతామంటూ
నరక భయాలను రెచ్చగొట్టి బతికే
పరన్ను భుక్కులు అందినంత వరకు ప్రజల్ని దోచు కొంటున్నారు .

మతాలు , ఆచారాలు , వేదాలు , వేడంతాలని
దైవం పేరుతొ దగా చేసే
కుక్షింభర విష కీటకాలు
మానవ జీవితాన్ని తొలిచి డొల్ల చేస్తున్నాయి .

జిగేలు మంటూ , మరు క్షణం ఆరిపోయే మతాబులను చూసి
చంద్రుడో , సూర్యుడో అని భ్రమ పడుతూ
చీకటి ఊబిలో కూరుకు పోతున్న
ఈ ఆశిష్ జన వాహిని కి వెలుగు చూపించడం సాధ్యమా ?

नौकरी

आज के ख्वाबों की कसौटी
घर - परिवार की कोंपलें फूटती
सबकी नियति उस पर ही टिकी ...

तीन शब्द

तीन शब्द ....
हाँ ! तीन ही शब्द
नफरत !
शक !!
डर !!!
बोए और काटे जा रहे हैं हर वक्त
माँ की छाती का दूध बनकर !

गुरुवार, 28 मई 2009

उड़ती परियां

रंग बिरंगे पंखोंवाली
ओ मनभावन तितली!
किन कलियों की गलियों में
तू अपना रूप लुटाने निकली?

ओ बसंत की रानी तितली !
रंग बोलती तेरी भाषा ;
तेरे साथ थिरकती रहती
सबके मन की मंजुल आशा।

रंग मखमली, अंग पवन सा,
कली - कली की सगी सहेली;
ओ तितली! तू लगती सुंदर
परियों जैसी एक पहेली।

परी लोक की, परी भूमि पर
तितली बनकर आई;
धरती की बगिया में गाती, तू
चुपचाप बधाई।

किन कलियों का रस पीकर,
यह प्यारी छवि तूने पायी;
किरणों की है झूल सुनहरी, उस पर
लेती है अंगडाई ।

तितली! तुझसे स्वर्ग बन गई
धरती की फुलवारी;
तेरे पंखों पर यह किसकी
सरस कसीदाकारी?

जग को दिखलाती फिरती तू
इन मोहक रंगों की माया;
ओ तितली! किस चित्रकार ने
तेरा सुंदर रूप बनाया?

इस धरती की परी मनोहर
तेरे पर अलबेले;
बिन बोले ही सुलझा देती
जग के जटिल झमेले।




बुधवार, 27 मई 2009

श्रम संस्कृति के किसान कथाकार विवेकी राय








भोजपुरी के प्रथम ललित निबंधकार एवं आलोचक विवेकी राय ग्राम जीवन और लोक संस्कृति के प्रति समर्पित एक ऐसे कथाकार हैं जिनका कृतित्व वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी है। वे स्वयं अपने आपको ‘किसान साहित्यकार’ कहते हैं। वे अपनी ज़मीन से इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनकी रचनाओं में मिट्टी का सोंधापन पाठकों के मन-मस्तिष्क को सहज ही आप्लावित करता है। विवेकी राय के साहित्य में
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय गाँवों का सच्चा चित्र उपस्थित है। अपने अंचल के बीच पल्लवित होने के कारण वहाँ के संबंधों, समस्याओं, मूल्य संक्रमण, लोक गीतों, लोक मान्यताओं, संस्कारों व लोक-व्यापारों आदि की प्रामाणिक छवि उनके साहित्य में सहज ही उभरती है। आंचलिक उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ रेणु के पश्चात् विवेकी राय का नाम लिया जा सकता है। उन्होंने हिंदी शब्द भंडार को उनके नए
शब्दों से समृद्ध किया है।



विवेकी राय की पहचान वस्तुतः एक कथाकार के रूप में स्थापित हुई है, किंतु उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ कविता से हुआ। उनकी कविताओं में एक ओर प्रकृति है तो दूसरी ओर दर्शन, श्ाृंगार, रहस्य और राष्ट्रीय बोध। वे सिर्फ कवि या कहानीकार ही नहीं अपितु उपन्यासकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, समीक्षक, आलोचक आदि अनेकानेक रूपों में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं। उनके साहित्य के रसास्वादन के
लिए पाठक में भी एक विशेष प्रकार के संस्कार की आवश्यकता है और वह है ग्रामीण जीवन, ग्रामीण प्रकृति और ग्रामीण संस्कारों को समझने की प्रवृत्ति। स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण जनता की दयनीय दशा, लोक जीवन की सांस्कृतिक बनावट, ग्रामीण मानसिकता में व्याप्त रुग्णता, शोषण की नई शक्तियाँ, विघटित होते प्रजातांत्रिक मूल्य, हताशा, निराशा, मोहभंग आदि को उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम
से उकेरा है। सांस्कृतिक मूल्यों से ‘कट आफ’ होकर आधुनिकता के रंग में रंगे जा रहे ग्राम-जीवन की त्रासदी उनके साहित्य में दिखाई पड़ती है। उनके साहित्य को पाठकों और आलोचकों ने खूब सराहा है तथा अलग-अलग दृष्टिकोणों से उस पर अनुसंधान कार्य भी हुए हैं। डॉ. मान्धाता राय (1946) द्वारा संपादित पुस्तक ‘विवेकी राय और उनका सृजन-संसार’ (2007), उनके साहित्य की व्यापक स्वीकृति का सुष्ठु
प्रमाण है।



शीर्षस्थ कथाकार विवेकी राय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कंेद्रित इस पुस्तक में कुल 28 आलेख संकलित हैं। जिनमें उनके साहित्य के विविध आयामों को विवेचित किया गया है। संपादक ने ‘प्राकरणिकी’ में यह स्पष्ट किया है कि ‘‘विवेकी राय ने जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों को प्रस्तुत किया है, उनमें मेहनतकश वर्ग का अमानवीय शोषण एवं उत्पीड़न, गाँव की आपसी फूट के चलते
आत्मीयता और भाईचारा की समाप्ति, गाँव के सहज-सरल जीवन में कुटिल राजनीति का प्रवेश और उसकी खलनायिका सदृश भूमिका, दहेज, अस्पृश्यता आदि रूढ़ियों का दबाव मुख्य है। डॉ. राय की सहानुभूति अन्याय के पिसते वर्ग के साथ है। उन्होंने आर्थिक-सामाजिक शोषण के प्रति सुगबुगाते विद्रोह को रेखांकित करते समय अत्याचारों के प्रति अपनी नाराजगी और वितृष्णा को जरा भी छिपाया नहीं है। विवेकी
राय का रचना संसार बहुत ही फैलाव वाला है और वर्तमान जागतिक जीवन के बहुआयामी चिंताओं से समृद्ध है। हिंदी और भोजपुरी दोनों में उन्होंने एक नाटक विधा को छोड़ सारी विधाओं को अधिकारिक रूप से उठाया है तथा अपनी छाप छोड़ी है। इस विवेचन के परिपे्रक्ष्य में प्रस्तुत है यह कृति ‘विवेकी राय और उनका रचना संसार’।’’



डॉ. आनंद कुमार सिंह ने अपने आलेख में कहा है कि विवेकी राय का सारा साहित्य ‘‘अपने प्रियजन को संबोधित एक चिट्ठी की नाईं है जिसकी सारी राम कहानी अंतरात्मा का अछोर आह्लाद और सीमाहीन विप्लव है। किसी जाड़ोंवाली धंुधलाती रात का एकांत और खिड़की के बाहर कुहरीली लहर या फिर धू-धू जलती भू की लू बरसाती दुपहरी और निराला के शब्दों की ‘गर्द चिनगी’ वाली गर्मियाँ या धारासार मँडराकर
बरसनेवाली बरसात और डरावनी हवाएँ - किसी भुतहे बरगद-पीपल के नीचे से जानेवाली पगडंडी और ‘फिर बैतलवा डाल पर’ वाला डर। ‘गँवई-गंध-गुलाब’ का बेमेल-पन, पर, चुनरी रँगाने का बासंती आग्रह। गाँव का ग्राम्य विग्रह और उसके अर्धविकास का दारुण बोध विवेकी राय को साहित्यकार बना देता है।’’ (पृ.सं. 1)
डॉ. विवेकी राय ने विविध विधाओं में लेखन किया है। उनके इस लेखन के पीछे उनका गहन अध्ययन और जीवनानुभव विद्यमान है। अध्ययन की गहनता का ही यह परिणाम है कि आलोचनात्क लेखन में भी वे औरों से अलग दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने ‘कल्पना’ के आरंभिक अंकों के महत्व को जिस प्रकार अंका है, उसके संबंध में डॉ. राजमल बोरा लिखते हैं कि उन अंकों के विषयों पर डॉ. विवेकी राय ने संकेत
किया है। यह कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि इससे पे्ररणा लेकर अन्य विद्वानों को साहित्यिक पत्रिकाओं के इतिहास लेखन में प्रवृत्त होना चाहिए।



डॉ. वीरेंद्र सिंह की मान्यता है कि विवेकी राय सृजन और विचार के ललित निबंधकार हैं। यही स्थिति हमें उनके उपन्यासों, कहानियों, शोधात्मक रचनाओं तथा ललित निबंधों में कमोबेश रूप से प्राप्त होती है। विवेकी राय एक ऐसी ‘संवेदना’ को भिन्न रूपों में व्यक्त किया है जिसमें जीवन यथार्थ की धकड़नें व्याप्त हैं। इस यथार्थ को ‘श्रम संस्कृति का यथार्थ’ कहा जा सकता है।



आधुनिक भारतीय ग्रामों के जन जीवन की गहराई और व्यापकता को विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त करने में विवेकी राय को सफलता प्राप्त हुई है। मधुरेश का मत है कि विवेकी राय के साहित्य में किसान और दलित वर्ग की गहरी संवेदना एक साथ अंकित है। वे मानते हैं कि ‘‘विवेकी राय की कथा भूमि उस रूप में आंचलिक नहीं है, जैसे वह आंचलिकता के आंदोलन के दौर में दिखाई देती थी। उनके यहाँ आंचलिकता का
मतलब अपने सुपरिचित क्षेत्र से आत्मीयता और संवेदना के स्तर पर जुड़ा ही है। लोकतत्व और लोकभाषा के अप्रचलित रूपों के प्रति उत्साह जगाकर वे वस्तुतः इस अंचल को ही सजाने-सँवारने और उसे एक सुगढ़ व्यक्तित्व प्रदान करने की कोशिश करते हैं।’’(पृ.सं. 36)



इसी प्रकार डॉ. अजित कुमार का मानना है कि भोजपुरी साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का प्रणयन कर विवेकी राय ने मानो ‘साइबर युग’ की मनोरचना को चुनौती दी है। भले ही ऐसे लोग हिंदी को दूधवालों और सब्जीवालों की भाषा मानते रहे हैं। वे याद दिलाते हैं कि ‘‘डॉ. विवेकी राय ने अपने फीचर संग्रह ‘राम झरोखा बइठि के’ में इतना गुदगुदाया है कि हम हँसते-हँसते रो पड़ें।’’ (पृ.सं. 77)



डॉ. सत्यकाम विवेकी राय की लेखकीय प्रतिभा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘अनजाने ही हम अपनी भाषा की अवहेलना कर रहे हैं, कुचल रहे हैं ; हिंदी प्रचार-प्रसार की बात करते हैं और खुद अमल नहीं करते। निश्चित रूप में आज हिंदी जन जीवन से जुड़ी होने के कारण खड़ी है, हम हिंदी की रोटियों पर पलनेवाले लोग तो उसका सत्यानाश करने पर तुले ही हुए हैं। पर जिसके पास जनशक्ति है उसका मुट्ठी भर
‘एलिट’ क्या बिगाड़ सकते हैं। जिस भाषा के पास विवेकी राय जी जैसे लेखक हो उस भाषा के अवरुद्ध और स्थिर होने का भी खतरा नहीं। लोकभाषा के रूप में नित्य नए प्रपात इससे मिल रहे हैं और इसका बल बढ़ा रहे हैं। विवेकी राय जी के लेखन का रस वस्तुतः लोक रस है जो उनके लेखन में ही नहीं, उनके व्यक्तित्व में भी झलकता है।’’ (पृ.सं. 142)



इसी प्रकार और भी अनेक विद्वानों ने इस कृति में विवेकी राय के बहुआयामी जीवन और साहित्य पर प्रकाश डाला है। इनमें डॉ. दिलीप भस्मे, डॉ. रामखेलावन राय, डॉ.गिरीश काशिद, डॉ. प्रमोद कुमार श्रीवास्तव ‘अनंग’, डॉ. रामचंद्र तिवारी, डॉ. अमरदीप सिंह, डॉ. नीलिमा शाह, डॉ. अंजना भुवेल, डॉ. जयनाथमणि त्रिपाठी, महाकवि श्रीकृष्णराय ‘हृदयेश’, डॉ. सविता मिश्र, एल.उमाशंकर सिंह, रामावतार, डॉ.
चंद्रशेखर तिवारी, रामजी राय, डॉ. श्रीप्रकाश शुक्ल, डॉ. विजय तनाजी शिंदे, अचल, डॉ. कुसुम राय, शेषनाथ राय और डॉ. शिवचंद प्रसाद सम्मिलित हैं।



इन सब विद्वानों ने अपने आलेखों में सबसे पहले तो इस बात पर बल दिया है कि डॉ. विवेकी राय का लेखन ग्राम संस्कृति और श्रम संस्कृति को समर्पित है और बड़ी ललक से अपने पाठक से सहज संबंध स्थापित करने में समर्थ है। इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि विवेकी राय ने साहित्यकार के मूल धर्म का सर्वत्र निर्वाह किया है। अर्थात् मूल्य चिंतन से वे कहीं विमुख नहीं हुए हैं। विवेकी राय
स्त्री विमर्श और दलित विमर्श की घोषणाएँ करते गली-गली और मंच-मंच नहीं घूमते, लेकिन वास्तविकता यह है कि समाज के इन दोनों ही वर्गों के शोषण और दमन से विवेकी राय भीतर तक विचलित होते हैं और एक साहित्यकार के रूप में इनके साथ अपनी पक्षधरता लेखन के माध्यम से प्रमाणित करते हैं। कहानी हो या उपन्यास, निबंध हो या समीक्षा, संस्मरण हो या पत्र - उनके लेखन में लोक जीवन और लोक भाषा अपनी
पूर्ण ठसक के साथ विद्यमान है।



कुल मिलाकर ‘विवेकी राय और उनका सृजन संसार’ यह प्रतिपादित करने में समर्थ पुस्तक है कि यदि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है तो डॉ. विवेकी राय का व्यक्तित्व और कृतित्व यह बतलाता है कि भारत के गाँव उनकी आत्मा में बसते हैं।






विवेकी राय और उनका सृजन संसार@(सं.) डॉ. मान्धाता राय@विश्वविद्यालय प्रकाशन, चैक, वाराणसी-221 001@164 पृष्ठ (सजिल्द)@मूल्य 150 रु.

गुरुवार, 21 मई 2009

डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी हिंदी के आलोचकों में उस स्थान के अधिकारी हैं जिन्होंने आलोचना को मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर देखा-परखा है। आचार्य शुक्ल का ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ रामस्वरूप चतुर्वेदी के पूरे रचना-कर्म की बहुत भारी विशेषता है। उनकी मान्यता है कि ‘‘कवि का काम यदि ‘दुनिया में ईश्वर के कामों को न्यायोचित ठहराना है’ तो साहित्य के इतिहासकार का काम है कवि के कामों को साहित्येतिहास की विकास-प्रक्रिया में न्यायोचित दिखा सकता।’’1

आचार्य शुक्ल इसीलिए कहते हैं कि ‘इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना।’ यानि कवि, यदि अपने इर्द-गिर्द के संसार और जीवन को देख-परख कर उसे अर्थ देता है तो आलोचक और इतिहासकार कवि की इस रचना में अर्थ का संधान करता है और उसे संवद्धित करता है। रचना, आलोचना और साहित्येतिहास यों मानवीय जिजीविषा के, जीवन में अर्थ-संधान के क्रमिक चरण हैं। आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा रचित पुस्तक ‘आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना’ लोकभारती प्रकशन द्वारा सन् 2001 (प्रथम संस्करण) में प्रकाशित हुई। यह रचना वस्तुतः आचार्य शुक्ल पर केंद्रित है। यों तो आचार्य शुक्ल पर कई रोचक आलोचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। खासतौर पर नामवर सिंह द्वारा ‘चिंतामणि, भाग-3 की भूमिका’ (1983), डॉ. बच्चन सिंह द्वारा ‘आचार्य शुक्ल का इतिहास पढ़ते हुए’ (1989) तथा समीक्षा ठाकुर द्वारा ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास की रचना प्रक्रिया’ (1996)। ये सारे अध्ययन अपने क्रम में उत्तरोत्तर विकसित और संवद्र्धित होते गए हैं। तब इस क्रम को आगे बढ़ाने के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि इस सिलसिले में ‘‘यहाँ पूरी पुस्तक अपने आयोजन में व्यवस्थित इस दृष्टि से हुई है कि हिंदी के शीर्ष आलोचक के समग्र लेखन का सभी महत्वपूर्ण पक्षों की दृष्टि से विवेचन एक साथ हो, जिससे उनकी अपनी अंतरक्रिया अच्छे से स्पष्ट हो सके।’’2

इस पुस्तक में आचार्य शुक्ल की काव्य आलोचना और उनके बौद्धिक चरित्र पर पहली बार दृष्टि केंद्रित की गई है। यों तो बुनियादी यत्न है कि रामचंद्र शुक्ल का लेखक-आलोचक व्यक्तित्व समग्रतः उजागर हो सके। आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी अपनी इस रचना में आचार्य शुक्ल के आलोचना कर्म का सैद्धांतिक पक्ष देखते हैं। फिर इतिहास और व्यावहारिक आलोचना की संपृक्त दृष्टि पर विचार करते हैं। रामचंद्र शुक्ल के विविध गद्य रूप, उनकी भाषा-दृष्टि आदि पर प्रकाश डालते हुए अंत में आचार्य शुक्ल के समीक्षा-कर्म पर विचार-क्रम का विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। आलोचना के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल ने कई दिशाओं में कार्य किया है। उनके कार्य की एक दिशा है - भारतीय काव्य सिद्धांतों का पुर्नाख्यान या युग-प्रवृत्ति के संदर्भ में उनकी प्रनव्र्याख्या। दूसरी दिशा है पाश्चात्य सिद्धांतों का अनुशीलन और भारतीय काव्य संदर्भ में उनका विवेकपूर्ण संग्रह। तीसरी दिशा है - काव्य कृतियों एवं प्रवृत्तियों का विवेचन। कहना न होगा कि इन तीनों दिशाओं में उनका कार्य महनीय है। काव्य-कृतियों के विवेचन की भी तीन दिशाएँ हैं। एक है - कृतियों में अंतर्निहित विचारधारा को लक्षित करना और उसका स्वरूप स्पष्ट करना। दूसरी है - कृति के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिवेश की व्यापक पीठिका को उभार कर उसके संदर्भ में कृति का महत्व प्रतिपादन करना और तीसरी है - भाषिक विश्लेषण के द्वारा कृति में निहित भाव-सौंदर्य का उद्घाटन करना। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की समीक्षा दृष्टि में आचार्य शुक्ल के इन तीनों दिशाओं की विवेचन को लक्षित किया जा सकता है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आचार्य शुक्ल के साहित्य चिंतन में दो पक्षों का विशेष रूप से चिंतन किया है। एक साधारणीकरण और दूसरी बिंब-विधान। एक भारतीय काव्यशास्त्र का हृदय तो दूसरा पाश्चात्य आलोचना का केंद्रित स्थल है। वे लिखते हैं कि इन दोनों प्रसंगों में आचार्य शुक्ल का मैलिक चिंतन अप्रतिम है। ‘कविता क्या है?’ शीर्षक अपने प्रसिद्ध निबंध में आचार्य शुक्ल कविता की परिभाषा इस प्रकार दी हैं - ‘‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।’’3

कहना न होगा, रामस्वरूप चतुर्वेदी यहाँ क्रमशः विकसित कविता की परिभाषा में ‘हृदय की मुक्तावस्था’ को केंद्रीय अवधारणा के रूप में देखते हैं। और वे आलोचक की इस अवधारणा को आचार्य शुक्ल के समकालीन विद्रोही कवि निराला की ‘परिमल’ की भूमिका से जोड़कर देखते हैं। उनके अनुसार आधुनिक हिंदी साहित्य में आचार्य शुक्ल का निबंध ‘कविता क्या है?’ और निराला के ‘परिमल’ की भूमिका का एक जैसा महत्व है। और दोनों का वैशिष्ट्य वे इस बात में देखते हैं कि दोनों कविता को बद्धावस्था से मुक्तावस्था की ओर ले जाना चाहते हंै।’ इसके लिए वे निराला का सुविख्यात वाक्य का हवाला देते हैं, ‘‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है, और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग ले जाना।’’4

रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार ‘‘कविता की बुनियादी समझ के प्रसंग में निराला और रामचंद्र शुक्ल को मिलाने पर दिखता है कि यहाँ कवि और आलोचक दोनों काव्य-प्रवाह में नैरंतर्य के लिए तरह-तरह के शास्त्रीय विधानों से मुक्ति आवश्यक मानते हैं। और जब हृदय मुक्तावस्था में होगा, कविता मुक्त रहेगी तो आलोचना, जो अपेक्षाकृत बहुत बाद में विकसित हुई है, बद्धावस्था में नहीं रह सकती।’’5

आचार्य शुक्ल न केवल हिंदी के पहले बड़े आलोचक ऐतिहासिक क्रम में हैं, अपितु चिंतन-क्रम में भी वे पहले बड़े स्वाधीनचेता आलोचक हैं। अर्थ की विशिष्ट विकसनशील प्रक्रिया को केंद्र में रखनेवाली आधुनिक हिंदी आलोचना को वे कई रूपों में पूर्वाशित करते हैं, संदर्भ चाहे काव्य भाषा का हो या कि साहित्य और सांस्कृतिक-संवेदनात्मक विकास के सामंजस्य का। भारतीय काव्यशास्त्र की सूक्ष्म से क्रमशः महीन होती वर्गीकरण-प्रणाली को संतुलित करने के लिए वे आधुनिक पश्चिमी साहित्य-चिंतन को दूसरी ओर रखते हैं और इस प्रक्रिया में जो आलोचना उनके यहाँ विकसित होती है वह शास्त्र के बजाय रचना की ओर अधिक उन्मुख है।6

रामस्वरूप चतुर्देदी कहते हैं ‘‘आधुनिक आलोचना द्वारा कवियों के वैशिष्ट्य को रेखांकित करने और रचना के अर्थ और आशय को कई कोणों से खोलने के यत्न का, यानी कि अर्थ की आलोचना का, सूत्रपात यहीं से होता है।’’7

इसलिए रामस्वरूप चतुर्वेदी सावधान करते हुए कहते हैं कि वैशिष्ट्य को प्रतिमानीकृत नहीं किया जा सकता और प्रतिमानों से वैशिष्ट्य की समझ नहीं बनती। आचार्य शुक्ल के साहित्यिक विचार-क्रम में समूची सृष्टि में परिव्याप्त संबंध सूत्रों की तलाश की बात केंद्र में उभरती है। आलोचक इसके लिए अट्ठाईसवें अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन साहित्य परिषद, काशी के 1939 में आचार्य शुक्ल के अध्यक्षीय भाषण का हवाला देते हैं। ‘‘इस संसार की हर एक बात और सब बातों से संबद्ध है। अपने-अपने मानसिक संघटन के अनुसार किसी का मन किसी संबंध-सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। ये संबंध-सूत्र पीपल के पत्तों के भीतर की नसों के समान एक दूसरे से नए हुए चारों ओर जाल की तरह अनन्तता तक फैले हैं। निबंध लेखक किसी बिंदु से चलकर तार्किकों के समान किसी एक ओर सीधान न जाकर अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति से कभी इधर कभी उधर मुड़ता हुआ नाना अर्थ-संबंध-सूत्रों पर विचरता चलता है। यही उसकी अर्थ संबंधी व्यक्तिगत विशेषता है। एक ही बात को कई लेखकों का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखना भी यही है।’’8

रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार आलोचक को शास्त्र मीमांसक की तरह किसी सामान्य तथ्य यया तत्व तक पहुँचने की जल्दी नहीं रहती वरन् वह अलग-अलग दृश्य देखने-दिखने में उलझना चाहता है। वह रचना का अर्थ एक बारगी निकालकर उसे निःशेष नहीं कर देना चाहता। उसका लक्ष्य है रचना को अर्थ का अक्षय स्रोत बनाए रखना। रचना यदि जीवन का अर्थ - विस्तार करती है तो भावक-आलोचक रचना का अर्थ - विस्तार करता है। यह भाषा की अपनी समान्य विषमरूपी प्रकृति एवं बहुस्तरीय अर्थ-क्षमता के कारण संभव होता है। कवि जीवन में अर्थ का संधान करता है तो आलोचक रचना में। यह अर्थ-संवद्र्धन की लगातार चलनेवाली प्रक्रिया है। हम भली-भाँति जानते हैं कि सामान्य भाषा व्याकरणों के नियमों से निर्धारित होती है और साहित्यिक भाषा अर्थ की श्रेणियों से बनती है। रामस्वरूप चतुर्वेदी स्पष्ट करते हैं कि ‘‘भाषा की अस्पष्ट तथा बहुअर्थी प्रकृति के अनुकूल रचना में अर्थ की व्युत्पत्ति रचना और भावक के सहयोग में होती है .... और यह अर्थ व्युत्पत्ति देश-काल के अनुरूप निरंतर विकसित होती चलती है।’’9

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि आचार्य शुक्ल के साहित्य चिंतन की दो दृष्टियाँ हैं - एक साधारणीकरण की और दूसरे बिंब-विधान की। रस सिद्धांत यदि भारतीय काव्यशास्त्र का प्राण तत्व है तो साधारणीकरण सिद्धांत उसका केंद्रीय प्रकरण कहा जा सकता है। हिंदी आलोचक और सिद्धांतकार अपनी चिंतन प्रक्रिया में इससे बचकर नहीं निकल सकता। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने आचार्य शुक्ल के काव्य में साधारणीकरण के प्रयास को सर्वथा मौलिक प्रयास माना है। शुक्ल जी ने अपने साधारणीकरण संबंधी विचार चिंतामणि तथा रस-मीमांसा में प्रस्तुत किए हैं। शुक्ल के इसी विवेचन क्रम को आधुनिक दृष्टि से आगे जोड़ते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हंै कि ‘‘तादात्म्य के साथ-साथ, श्रोता@पाठक स्वयं सर्जनात्मक होकर अपना अर्थ मूल रचना में जोड़ता है, जो प्रक्रिया दृश्य काव्य के दर्शक-सामाजिक को संपे्रषण-बोध की तात्कालिकता में सुलभ नहीं। भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ से आरंभ करके रस-चिंतन का मूलाधार दृश्य काव्य है, जहाँ दर्शक रंगमंच पर घटित होनेवाले व्यापार से एकबारगी आक्रांत रहता है। समाज में बैठकर देखने से जहाँ उसके मनोभाव संक्रामक क्षमता के कारण कई गुना वर्धनशील रहते हैं, वहीं सब कुछ दृश्यगोचर और तात्कालिक होने के कारण उसकी कल्पना वैसी सक्रिय नहीं हो पाती जैसी श्रोता और पाठक की प्रतिक्रिया के अंतराल में होती है।’’10

आलोचक का मानना है कि व्याख्या वह है जिसे रचना अपने सहज भाव से धारण कर सके। जिस बिंदु पर वह उसे धारण न कर सके वहीं से अतिव्याख्या का क्षेत्र आरंभ हो जाता है। सारांश के रूप में रामस्वरूप चतुर्वेदी एक पुरानी परी-कथा के संदर्भ को लेते हुए कहते हैं कि ‘रचना की राजकुमारी और उसका सारा वैभव तब तक सोया रहेगा, जब तक भावक-राजकुमार उसे चूमता नहीं, उसे स्पर्श नहीं करता। मुख-स्पर्श से ही रचना राजकुमारी जागकर बोलती है।’ यों साधारणीकरण दोनों ओर होता है, रचना एवं आस्वाद दोनों सिरों पर। अर्थात अनुभव के अनुभव का अनुभव कविता है। इसे आलोचक ‘राम की शक्ति-पूजा’ से जोड़कर दिखाता है। वह कहता है कि आलोचना की वास्तविक परख तो रचना की समझ और उसके विस्तार में ही है न कि महज सिद्धांत-कथन में। ‘शक्ति-पूजा’ में आलोचक अर्थ के तीन स्तर को देखता है जो परस्पर अंतरक्रिया करते चलते हैं। पहले और प्रत्यक्ष स्तर पर कविता के चरित नायक राम हैं - ‘रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत चरण’। दूसरे और सूक्ष्मतर स्तर पर कविता का संघर्ष स्वयं कवि निराला का भी है - ‘‘धिक जीवन जो पाता ही आया है विरोध@धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शो!’’ फिर एक तीसरे स्तर पर लगेगा कि कविता ब्रिटिश शासन से आक्रांत भारतीय जन-मन की कथा है जो कहती है ‘‘अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।’’ आलोचक की मान्यता है कि रचना की गँूज जितनी दूर होती जाती है उसका प्रभाव उतना ही सघन होता जाता है। यही साधारणीकरण की प्रक्रिया है जो रचना से आस्वाद की ओर क्रमशः उन्मुख होती है। साधारणीकरण की मुख्य चुनौती भी यही है ‘विशिष्ट को सामान्य बनाना’, पर सबका अलग-अलग सामान्य जहाँ से भावक उसे फिर अपने ढंग से रचता है, अपने लिए। साधारणीकरण के संदर्भ में आचार्य ने एक मूलतः आधुनिक पाश्चात्य अवधारणा बिंब-विधान का प्रसंग छेड़ा है। ‘साधारणीकरण और व्यक्ति-वैयित्र्यवाद’ में लिखते हैं - ‘‘काव्य का काम है कल्पना में बिंब (प्उंहमे) या मूर्त भावना उपस्थित करना, बुद्धि के सामने कोई विचार (बवदबमचज) लाना नहीं। ‘बिंब’ जब होगा तब विशेष या व्यक्ति का ही होगा, सामान्य या जाति का नहीं।’’11

रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि आचार्य शुक्ल ‘बिंब’ पद का प्रयोग वस्तुतः दो अलग-अलग अर्थों में करते हैं। यद्यपि इस अंतर का शुक्ल जी ने स्वयं कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। एक जगह वे बिंब का अर्थ लेते हैं साधारण चित्रात्मक वर्णन, जो अभिधामूलक है तो दूसरी जगह वे बिंब का प्रयोग अप्रस्तुत विधान के रूप में करते हैं। इस प्रकार आचार्य ने बिंब-ग्रहण और बिंब-स्थापना के बीच फर्क किया है। बिंब-ग्रहण भाषा में से सामान्य श्रोता या पाठक का कर्म है जबकि बिंब स्थापना उनके अनुसार काव्य भाषा के लिए कवि कर्म का प्रधान अंग है। इस उदाहरण के लिए आचार्य शुक्ल वाल्मीकि का हेमंत वर्णन को आधार बनाते हैं। वाल्मीकि का हेमंत वर्णन मूलतः इतिवृत्तात्मक वर्णन है जो कवि के सूक्ष्म पर्यवेक्षण की चित्रात्मकता उत्पन्न करती है। आचार्य शुक्ल की दृष्टि में यह चित्रात्मकता ही बिंब-विधान है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार आचार्य शुक्ल इस ओर ध्यान नहीं देते कि बिंब प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत का कैसे संपर्कित करके, अर्थ का आलोक व्युत्पन्न करता है, जो कि मूलतः आधुनिक आलोचना का केंद्रीय वैशिष्ट्य है। आचार्य शुक्ल के बिंब स्थापना को वे आधुनिक परिपे्रक्ष्य में तीन कवियों की कविताओं पर लागू करते हैं। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के काव्य ‘प्रियप्रवास’ का आरंभिक छंद है - दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला। तरु-शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा।। रामस्वरूप चतुर्वेदी इस वर्णन का पूरी तरह इतिवृत्तात्मक मानते हैं। सिर्फ प्रस्तुत संध्या को लेकर कुछ-कुछ जैसा वाल्मीकि ने हेमंत वर्णन में किया है। छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत के यहाँ संध्या के यही रंग दूसरी तरह अंकित होते हैं - तरु-शिखरों से वह स्वर्ण-विहग उड़ गया, खोल निज पंख सुभग, किस गुहा-नीड़ में रे किस मग! हरिऔध ने तरु-शिखर पर जो प्रभा सीधे-सीधे देखी थी अ बवह पंत के लिए तरु-शिखरों पर ‘स्वर्ण विहग’ के लाक्षणिक प्रयोग में संक्रांत हो गई है। इस कविता में पाठक-भावक की कल्पना को सक्रिय होने के लिए पूरी छूट मिलती है। शमशेर बहादुर सिंह संध्या के सुनहलेपन में लाल से अधिक पीलेपन की छाया देखते हैं तथा बिंब-प्रक्रिया को और सघन बनाते हैं - एक पीली शाम पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता ग् ग् ग् अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू सांध्य तारक-सा अतल में। रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘‘आचार्य शुक्ल का ‘बिंब-ग्रहण’ बहुत कुछ हरिऔध पर रुक जाता है, आगे पंत की अनेक लाक्षणिक संभावनाओं को देखने के बावजूद। बिंब के प्राथमिक चाक्षुष स्तर पर ही उनकी दृष्टि है, बिंब के जटिल अर्थ-संश्लेष तक वे नहीं पहुँचते, जहाँ भावक-ग्रहण की कल्पना को सक्रिय होने के लिए सबसे अधिक उत्साह और अवसर रहता है। और एक तरह से यह अच्छा ही है। अन्यथा नए साहित्य-चिंतन के लिए करने को कुछ ख़ास नहीं बचता। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने आचार्य शुक्ल की व्यावहारिक आलोचना पर भी दृष्टि केंद्रित की है। शुक्ल जी की व्यवहारिक आलोचना में उनकी साहित्यिक मान्यताओं का अत्यंत सफल विनियोग दिखाई पड़ता है। वस्तुतः सिद्धांत-मीमांसा एवं व्यावहारिक समीक्षा को उन्होंने इतना घुल-मिला दिया कि दोनों को अलग-अलग करना प्रायः असंभव है। सिद्धांत और प्रयोग का यह सामंजस्य ही उनके आलोचक-व्यक्तित्व की वास्तविक महत्ता प्रकट करता है। शुक्ल जी के पास एक ऐसी रस-दृष्टि है जो कार्य-श्ाृंखला की अपेक्षा नहीं रखती और सहज भाव से रचना के मूल तक जा पहुँचती है। व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में शुक्ल जी की उपलब्धियाँ नई पीढ़ी के पथ-प्रदर्शक हैं। आचार्य शुक्ल के विविध गद्य स्तर एवं उनकी आलोचना भाषा पर दृष्टि केंद्रित करते हुए चतुर्वेदी जी ने यह स्पष्ट किया कि शुक्ल द्वारा प्रयुक्त शब्दावली विशिष्ट होते हुए भी पारिभाषिक नहीं बनती। तभी वह रचना के अनुभव को नए एवं सार्थक ढंग से पकड़ पाती है। ‘संश्लिष्ट चित्रण’, ‘विरुद्धों का सामंजस्य’, ‘लोक-मंगल’ आदि अनेक कुछ ऐसे ही नए और विशिष्ट प्रयोग है। सामान्यतः कवियों द्वारा लिखित आलोचना का विशिष्ट महत्व रहा है। और ऐसे देखा जाय तो आलोचक की कविता भी अपने आप में विशिष्ट होती है। आचार्य शुक्ल के काव्य में प्रकृति-चित्रण एक विशिष्ट रूप लेता है। उनके प्रकृति-चित्रण से राष्ट्रीय भाव-धारा का रूप जुड़ा हुआ है। वे प्रकृति-प्रेम को भी देश-पे्रम का ही अधिक स्वच्छ, परिष्कृत और अंतरीण रूप मानते हैं। उनके अनुसार प्रकृति-वर्णन में मनुष्य की क्रियाओं और भावनाओं का आरोप एक निश्चित मर्यादा के भीतर ही हो सकता है। वस्तुतः रचनाकार एवं समीक्षक के रास्ते अलग-अलग हैं। एक के लिए व्यक्तिगत अभिशाप का अपार क्षेत्र खुला है, तो दूसरे के लिए उनकी गंुजाइश नहीं। उसे पूरी तरह से तटस्थ रहना पड़ता है। अतः रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार समीक्षा की तटस्थता से यह आशय न निकालना चाहिए कि उस समीक्षा का सामाजिक संपर्क छूटा हुआ है। शुक्ल जी की काव्य समीक्षा में बड़े समारोह के साथ इस सामाजिक संपर्क का आवाहन है। यह हिंदी आलोचना के लिए बड़े महत्व की बात सिद्ध हई। जिस प्रकार शुक्ल जी ने काव्य और कलाओं के सामाजिक संपर्क की आवाज उठाई उसी प्रकार उन्होंने रचनाकार की व्यक्तिगत मनःस्थिति का भी हवाला दिया। आचार्य शुक्ल ने भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों परंपराओं से विचार-सामग्री ली, पर वे किसी से आतंकित नहीं हुए। चतुर्वेदी जी ने यह स्पष्ट किया कि आचार्य शुक्ल की आलोचना प्रक्रिया, उन्हीं के शब्दों में ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ के अधिक निकट है। परवर्ती आलोचना के कुछ बीज उनके चिंतन में ऐसे मिल जाते हैं जैसे संपूर्ण विवेचन-क्रम में रचना का महत्व, काव्य भाषा का केंद्रीय आधार और बिंब-प्रक्रिया की विशिष्ट भूमिका। साहित्य की रचना यदि शाब्दिक कला है, तो अर्थ की संभावना भाषा में ही होती है। यों साहित्य का पाठक-श्रोता मूल रचना में अपना अर्थ ग्रहण करने में ही उस रचना में भी अपनी कुछ व्याख्या जोड़ता चलता है और आलोचक रचना की अपनी विशिष्ट क्षमता पर विचार करके उसे अर्थ-विस्तार प्रदान करता है। अतः रामस्वरूप चतुर्वेदी प्रस्तुत कृति का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि रचनाकार जीवन के अर्थ का विस्तार करता है तो आलोचक रचना का। इस क्रम में आलोचक की आलोचना बहुत महत्वपूर्ण है तथा आचार्य शुक्ल की आलोचना और उनका इतिहास-लेखन इसका महत्वपूर्ण साक्ष्य है।

.1. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - हिंदी साहित्य की संवदना का विकास - पृ.सं. 28

.2. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - आमुख .

3,डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 14

.4. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं.14

.5. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 15

.6. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 16

.7. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 16

.8, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 22-23

.9. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं.20-21

.1o. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं. 23 .

11 . डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी - आलोचना का अर्थ ः अर्थ की आलोचना - पृ.सं.24

हिंदी उपन्यासों में अल्पसंख्यक स्त्री

(राही मासूम रज़ा के ‘आधा गाँव‘ के विशेष संदर्भ में) 
मैं कामायनी की श्रद्धा नहीं इड़ा हूँ भावना नहीं प्रज्ञा हूँ। मात्र स्पंदनमयी नहीं, तर्कमयी भी हूँ मात्र समर्पिता नहीं, अधिकारमयी भी हूँ।।

यह नारी की नूतन मानसिकता का आलेख है। उसकी नई चेतना का शिलालेख है। उसके सबल व्यक्तित्व का प्रामाणिक दस्तावेज है। नारी की सजगता, समर्थता तथा उसकी शक्ति का प्रतिबिंब है। उसकी जागरूकता की प्रतिध्वनि है और उसकी अस्मिता का आईना। अपनी भावनाओं के प्रति वह ईमानदार है। स्वातंत्र्योत्तर काल की बदली हुई सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों ने उसके चिंजन में महान् परिवर्तन किया है। आर्थिक स्वतंत्रता ने नारी में आत्मविश्वास जगाया है। उसका जीवन अब कोरी भावनाओं से ही स्पंदित नहीं है, अपितु बुद्धि और तर्क से ज्योतित है।

स्त्रियों की समस्या और स्वरूप को लेकर अनेकानेक बातें की जा सकती है। चूँकि दोनों को लेकर एकदम भड़का हुआ माहौल है। स्त्री-पुरुष जैसे सनातन संबंध के बीच में भी और साहित्य में भी कंटीली रेखाएँ खींची जा रही हैं जैसे कि सारे झगड़े की जड़ इन दोनों के बीच शोषक और शोषित का रिश्ता ही हो। साहित्य के हृदय में समाज की धड़कने ही सुनाई देती हैं। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास-साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। नारी के दिल की हर धड़कन को उपन्यासकारों ने सुना है और बेहद बारीकी, गहराई एवं ईमानदारी के साथ उपन्यास के कैनवस पर अंकित किया है। यही वजह है कि इन उपन्यासों में नारी का जो रूप उभरा है, वह कलाकार की कल्पना से रंजित नहीं है, अपितु नारी की निजी भावनाओं से व्यंजित है। उसके नूतन व्यक्तित्व से सुसज्जित है और उसके अहं से दीप्त है। हिंदी साहित्य में अल्पसंख्यक स्त्रियों का चित्रण मार्मिक ढंग से किया गया है। राही मासूम रज़ा कृत उपन्यास ‘आधा गाँव‘ गंगौली गाँव के मुसलमानों का बेपर्द जीवन यथार्थ है। पाकिस्तान बनते समय मुसलमानों की विविध मनःस्थितियों, हिंदुओं के साथ उनके सहज आत्मीय संबंधों तथा द्वंद्वमूलक अनुभवों का अविस्मरणीय शब्दांकन है। ‘आधा गाँव‘ का समाज कई वर्गों में विभाजित है। यह वर्ग धर्म और जाति दोनों आधारों पर बँटे हुए है। धर्म के आधार पर हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग मिल-जुलकर एक ही परिवेश में रहते हैं। इस परिवेश में मुस्लिम समुदाय की बहुलता है। यह समुदाय भी अनेक वर्गों और धार्मिक मतों में बँटा हुआ है लेकिन सब मिलकर समाज की एक इकाई बनाते हैं और आत्मीयता की भावना को जागृत करते हैं। ‘आधा गाँव‘ में वर्णित पूरा समाज अपनी जड़ों से बँधा हुआ है। भिन्न वर्गों के बीच जो संबंध हैं उनमें रूढ़ियों के कारण पड़नेवाली दरारें भी इसमें बहुत साफ दिखाई देती है। गंगौली का समाज दक्षिण पट्टी और उत्तर पट्टी के रूप में विभाजित हो गई और दोनों के बीच तनाव बढ़ता गया जो उन दोनों घरों के औरतों में साफ-साफ दिखाई देता था। रूढ़ियों के कारण ही पे्रम संबंध टूटते हैं। आत्महत्याएँ होती हैं और परिवार में पत्नी के अतिरिक्त किसी दूसरी औरत को रखना भी बुरा नहीं समझा जाता। ‘‘गंगौली की औरतों को कोई शिकायत नहीं थी। दूसरा ब्याह कर लेना या रंडी डाल लेना बुरा नहीं समझा जाता था, शायद ही मियाँ लोगों का कोई ऐसा खानदान हो, जिसमें क़लमी लड़के और लड़कियाँ न हों। जिनके घर में खाने को भी नहीं होता, वे भी किसी-न-किसी तरह क़लमी आमों और क़लमी परिवार का शौक पूरा कर ही लेते हैं!‘‘ (आधा गाँव; पृ.सं. 17)। झंगोटिया-बो एक ऐसी ही नारी पात्र है जो चमाइन है। सुलैमान-चा ने उसे अपना रखैल बनाकर घर में रखा। जब झंगोटिया-बो का ब्याह हुआ था तो वह अठारह साल की थी और उसका पति चार साल का। पति के इंतकाल के बाद वह सुलैमान की रखैल बनी। वह उसके तीन बच्चों की माँ बनी। लेकिन विडंबना देखिए वह घर की बीवियों के साथ फर्श पर नहीं बैठ सकती। वह न ही मुसलमान बन सकी और न ही सुलैमान-चा ने उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की। कंुठित और हतोतसाहित झंगाटिया-बो अंत में अपनी जिं़दगी से हार मानकर कुँए में गिरकर जान दे देती है। नारी के भीतर कहीं-न-कहीं एक चिनगारी रहती है। हर देश और हर युग की नारी में, सदियों से सहा गया अपमान एक सोई चिनगारी के रूप में हर नारी में रहता है। पुराने ज़माने से ही नारी अपनी पहचान के लिए संघर्ष-रत रही है। अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की तलाश में वह पूरी तरह से निमग्न हो गई। लेकिन इस छटपटाहट में अक्सर हताशा, कंुठा और बेबसी ही हाथ लगी। परंपरा व समाज के पूर्व निर्धारित रूप-स्वरूप में ढली एक परंपरागत रूढ़ नारी एक ऐसी नारी है जिसका न ही अपना कोई स्वतंत्र अस्तितव है, न ही अस्मिता। अगर बुद्धिमान है भी तो घर परिवारों में उसके इस गुण की न कोई उपयोगिता है और न ही उसे स्वीकार किया गया है। किसी की पत्नी, बेटी, बहिन, प्रेमिका, माँ, बहु, सास, दादी आदि अनेकानेक भूमिकाएँ निभाते-निभाते वह खुद क्या है, उसका नाप क्या है, यह भी भूल गई। आम तौर पर स्त्री को फला की बेटी, फला की पत्नी, फला की माँ आदि कहकर संबोधित किया जाता है। उससे उसका नाम छीन लिया जाता है। इसी ओर इशारा करते हुए राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव‘ में इस तरह कहा है - ‘‘बेनाम होना तो बहुओं की तकदीर है। फ़र्क बस इतना हो जाता है कि वह अच्छे घरानों में वह या तो बहू कही जाती हैं या दुल्हन या दुलहिन। बहू अगर मालदार हुई तो उसे खिताब दिए जाते हैं - अज़ीज दुल्हन (चाहे ससुराल में उसे कोई मुँह न लगता हो) और नफ़ीस दुल्हन (चाहे वह निहायते फूहड़ हो) वगैरह .... वगैरह .... गरज़ कि हमारे समाज में या तो यह होता है कि मैकेवाले दहेज देकर बेटी से अपना दिया हुआ नाप छीन लेते हैं या फिर यह कहिए कि ससुरालवाले इसे गवारा नहीं करते कि उनके यहाँ किसी और घर का दिया हुआ नाम चले। बात जो हो, नतीजा यह निकलता है कि मसलन नौ साल या सत्रह साल तक रान्य ख़ातून उर्फ रब्बन या कनीज़ फ़ातमा उर्फ कुद्दन रहनेवाली लड़कियाँ एकदम से दुल्हन‘ बहू या सुलतान दुल्हन बनकर रह जाती है। भाभी, चाची, ममानी और कभी-कभी ब्याह होते ही दादी और नानी भी बन जाती हैं। मगर नहीं रह जाती तो रान्या ख़ातून या कनीज़ फ़ातमा। बेनाम रहना तो इन लडकियों के तक़दीर में है। कभी-कभी यह बेनामी उन लड़कियों से ऐसी चिपक जाती है कि मरते-मरते पिंड नहीं छोड़ती।‘‘ (आधा गाँव ; पृ.सं. 23)। भारतीय मुस्लिम समाज के वर्गीय ढाँचे के भीतर छोटे-छोटे जातिगत और समुदायिक ढाँचे सक्रिय रहते हैं। इस वर्गीय और जातिगत ढाँचे की वहज से एक ही समस्या को लेकर विरोधाभासी रुख अपनाया जाता है। आम-तौर पर माँ-बाप लड़की के ब्याह को लेकर चिंतित रहते हैं। लड़कियों को भोज समझते हैं और किसी-न-किसी तरह से उस भोज को हल्का करना चाहते हैं। रज़ा ने सकीना के माध्यम से इस बात को यूँ व्यक्त किया - ‘‘ब्याह माँ-बाप का काम है। आगे लड़कियाँ जानें और उनकी तक़दीर जाने, और कौन जाने, ई लड़ाई कभऊ ख़त्मो होइहे कि नाहीं। हर चीज़ में न आग लग गयी है। टाट का दुपट्टा आढे़-ओढ़े कंधे दुक्खे लगा।‘‘ (आधा गाँव ; पृ.सं. 110)। समाजिक मर्यादाएँ एवं रूढ़िगत मान्यताओं के तहत मुस्लिम लड़कियों को अपने प्यार का इज़हार करने की इज़ाज़त नहीं होती। शराफ़त के मुखौटे पहनाकर उन्हें दबाया जाता है और हालात के आगे मजबूर किया जाता है। अतः रज़ा कहते हैं कि ‘‘शरीफों में प्यार ज़ाहिर नहीं किया जाता। क्या पता किसी बीवी के दिल की राख कुरेदी जाय तो किस मियाँ की मुहब्बत की चिनगारी निकल आए।‘‘ (आधा गाँव ; पृ.सं.237-248)। जहाँ संुदर फूल खिलते हैं वहाँ शूल भी पनपते हैं। घर की दहलीज पार करके नारी ने जहाँ बहुत कुछ पाया है तो इस पाने के लिए उसे कहीं कुछ खोना भी पड़ा है। उसकी भावनाएँ लहू-हुलान हुई हैं, उसका दामन काँटों से उलझा है, जिल्लत भी उठानी पड़ी। सईदा एक ऐसा ही पात्र हो जो पढ़-लिखकर अलिगढ़ में नौकरी करती है और अविवाहित है। बेटी की कुँवारी जवानी आसेब की तरह माँ-बाप के सिर पर चढ़ी खेल रही थी, क्योंकि लोगों ने काफ़ी बातें बनाईं। सईदा कई लोगों से फँसायी गई। उसके दो-एक पेट गिराए गए।‘‘ ((आधा गाँव ; पृ.सं. 296)। सर्वत्र शरीर संबंध है और इस संबंध के पीछे सवाल आर्थिक हैं। परदे के भीतर भी स्त्री का संघर्ष और उसका आत्मसंघर्ष चलता रहता है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी चल रहा है। संघर्ष में ही राह निर्मित होती है और स्त्री विमर्श के नए गवाक्ष खुलते हैं |

मंगलवार, 19 मई 2009

MY LOVE

Upon this river bank I sat
And you were on the other side.
But you came flying straight to me
B'coz I cried and cried and cried.

Is not wrong you had so long
Forgotten me ? But now you say
That you remembered me , who lay
A graveyard while you were away.

They say both bird and travaller,
Being fickle , never come to stay
Is it to prove this proverb , you,
Love of me ! have gone away ?

Your absence on my garden cast
The lingering shadow of a curse ,
Tell me , my love ! while you were far
away , with whom could I converse ?

The flowers that you touch and go ,
They are bound while you are free ,
The angels clap to watch you flap
Your painted wings from Tree to Treee.

Gambol with all the hues of life
And leave no room to pick and choose ,
Come ! let us gather in our lap
Its galaxy of magic hues.

Young buds enquire : do you tire
Of wandering with wings unfurled ?
They do not know your kingdom
Lives in every garden of the world.

You came adorned in Rainbow hues
On Rainbow splendour you are fed :
Violet , Indigo and Blue ;
And Green , and Yellow , Orange , Red.

शुक्रवार, 15 मई 2009

A LONELY HOUR

I cannot say who planted
those shadows in the Sun.
Whence, tempest- wild, upon the fine
torrid gaze of sunny day,
The sullen fist, silent mist
Coughing up a starry spray.
Those dark hooves of silent air
seen to crate suddenly
From that razor- sleek Sparrow- way
Where Sea and Sky touch rarely.
There is grief in twilight's undoing
grief of an ignorant tale;
Of loneliness that may never end
and tomorrow always far away.

रविवार, 10 मई 2009

ENCHANTRESS

O Butterfly who flutter by thru glade
And glen and dale and grove!
I long to see the whole world with you;
With you I long to roam and rove!
Together we have winged the woods
Day after day,week after week,
Across your heart so one with mine
Sweet love hath drawn a honey-streak.
Enchantress! Wither! are you bound,
Towards what villagers stained with light,
Leaving behind a glimmering trail
Of tremendous colors in your flight.
You are a damsel of the spring,
To gaudy gardens you belong:
Both buds and rays keep chanting
Praise of you in never-ceasing song!
Frail dreams of wings ! your beauty brings
Warm news to woods of hues and scents:
You,wrought of filigree, have brought
For Earth what delicate ornaments?
Buds open into petals which
Resemble Butterflies, and sing:
'O when you come,with hue and hum,
Will come the season of the Spring!
Above all shades,that dazzle glades
And glens and painted woods,above
The shades of color reigns the warm
Deep color of the heart in love.
What artist's hand has dipped his brush of rays
And drawn the hues of flowers
To paint your restless wings in flight
A fluttering in painted bowers.
Your body,rich beyond compare,
Seems carven of what shimmering air
For hours and hours ,wooing flowers
You roam from there to here to there.
Laden with tints and glints, you seem
A Princess rich in the extreme.
You are a wonderful dream;
Dream within a dream!

शुक्रवार, 1 मई 2009

फ़रिश्ते का आश्वासन

नदिया के इस पार मैं
प्रिय ! तुम थे उस पार ;
आए , मन के गाँव में
सुनकर प्रेम पुकार ।
नीर बहाते ही गए
कितने ही दिन - रैन ,
इतने दिन के बाद में
सुन पाए तुम बैन ।
यह फल - फूली वाटिका
यह सपनों की झूल ;
जीवन भर के साथ को
हाय ! गए क्यों भूल ?
ये उपवन , ये डालियाँ
ये कलियाँ , ये शूल ;
बचपन के ये मीत हैं
इन्हें न जाना भूल !
पंछी , परदेसी नहीं
कभी किसी के मीत ;
इसी बात को मानकर
तोड़ गए यह प्रीत !
सुख के दिन हैं फूल से
दुःख के दिन हैं शूल ;
सुख - दुःख में हम साथ हैं
इसे न जाना भूल ।