गुरुवार, 21 मई 2009

हिंदी उपन्यासों में अल्पसंख्यक स्त्री

(राही मासूम रज़ा के ‘आधा गाँव‘ के विशेष संदर्भ में) 
मैं कामायनी की श्रद्धा नहीं इड़ा हूँ भावना नहीं प्रज्ञा हूँ। मात्र स्पंदनमयी नहीं, तर्कमयी भी हूँ मात्र समर्पिता नहीं, अधिकारमयी भी हूँ।।

यह नारी की नूतन मानसिकता का आलेख है। उसकी नई चेतना का शिलालेख है। उसके सबल व्यक्तित्व का प्रामाणिक दस्तावेज है। नारी की सजगता, समर्थता तथा उसकी शक्ति का प्रतिबिंब है। उसकी जागरूकता की प्रतिध्वनि है और उसकी अस्मिता का आईना। अपनी भावनाओं के प्रति वह ईमानदार है। स्वातंत्र्योत्तर काल की बदली हुई सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों ने उसके चिंजन में महान् परिवर्तन किया है। आर्थिक स्वतंत्रता ने नारी में आत्मविश्वास जगाया है। उसका जीवन अब कोरी भावनाओं से ही स्पंदित नहीं है, अपितु बुद्धि और तर्क से ज्योतित है।

स्त्रियों की समस्या और स्वरूप को लेकर अनेकानेक बातें की जा सकती है। चूँकि दोनों को लेकर एकदम भड़का हुआ माहौल है। स्त्री-पुरुष जैसे सनातन संबंध के बीच में भी और साहित्य में भी कंटीली रेखाएँ खींची जा रही हैं जैसे कि सारे झगड़े की जड़ इन दोनों के बीच शोषक और शोषित का रिश्ता ही हो। साहित्य के हृदय में समाज की धड़कने ही सुनाई देती हैं। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास-साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। नारी के दिल की हर धड़कन को उपन्यासकारों ने सुना है और बेहद बारीकी, गहराई एवं ईमानदारी के साथ उपन्यास के कैनवस पर अंकित किया है। यही वजह है कि इन उपन्यासों में नारी का जो रूप उभरा है, वह कलाकार की कल्पना से रंजित नहीं है, अपितु नारी की निजी भावनाओं से व्यंजित है। उसके नूतन व्यक्तित्व से सुसज्जित है और उसके अहं से दीप्त है। हिंदी साहित्य में अल्पसंख्यक स्त्रियों का चित्रण मार्मिक ढंग से किया गया है। राही मासूम रज़ा कृत उपन्यास ‘आधा गाँव‘ गंगौली गाँव के मुसलमानों का बेपर्द जीवन यथार्थ है। पाकिस्तान बनते समय मुसलमानों की विविध मनःस्थितियों, हिंदुओं के साथ उनके सहज आत्मीय संबंधों तथा द्वंद्वमूलक अनुभवों का अविस्मरणीय शब्दांकन है। ‘आधा गाँव‘ का समाज कई वर्गों में विभाजित है। यह वर्ग धर्म और जाति दोनों आधारों पर बँटे हुए है। धर्म के आधार पर हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग मिल-जुलकर एक ही परिवेश में रहते हैं। इस परिवेश में मुस्लिम समुदाय की बहुलता है। यह समुदाय भी अनेक वर्गों और धार्मिक मतों में बँटा हुआ है लेकिन सब मिलकर समाज की एक इकाई बनाते हैं और आत्मीयता की भावना को जागृत करते हैं। ‘आधा गाँव‘ में वर्णित पूरा समाज अपनी जड़ों से बँधा हुआ है। भिन्न वर्गों के बीच जो संबंध हैं उनमें रूढ़ियों के कारण पड़नेवाली दरारें भी इसमें बहुत साफ दिखाई देती है। गंगौली का समाज दक्षिण पट्टी और उत्तर पट्टी के रूप में विभाजित हो गई और दोनों के बीच तनाव बढ़ता गया जो उन दोनों घरों के औरतों में साफ-साफ दिखाई देता था। रूढ़ियों के कारण ही पे्रम संबंध टूटते हैं। आत्महत्याएँ होती हैं और परिवार में पत्नी के अतिरिक्त किसी दूसरी औरत को रखना भी बुरा नहीं समझा जाता। ‘‘गंगौली की औरतों को कोई शिकायत नहीं थी। दूसरा ब्याह कर लेना या रंडी डाल लेना बुरा नहीं समझा जाता था, शायद ही मियाँ लोगों का कोई ऐसा खानदान हो, जिसमें क़लमी लड़के और लड़कियाँ न हों। जिनके घर में खाने को भी नहीं होता, वे भी किसी-न-किसी तरह क़लमी आमों और क़लमी परिवार का शौक पूरा कर ही लेते हैं!‘‘ (आधा गाँव; पृ.सं. 17)। झंगोटिया-बो एक ऐसी ही नारी पात्र है जो चमाइन है। सुलैमान-चा ने उसे अपना रखैल बनाकर घर में रखा। जब झंगोटिया-बो का ब्याह हुआ था तो वह अठारह साल की थी और उसका पति चार साल का। पति के इंतकाल के बाद वह सुलैमान की रखैल बनी। वह उसके तीन बच्चों की माँ बनी। लेकिन विडंबना देखिए वह घर की बीवियों के साथ फर्श पर नहीं बैठ सकती। वह न ही मुसलमान बन सकी और न ही सुलैमान-चा ने उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की। कंुठित और हतोतसाहित झंगाटिया-बो अंत में अपनी जिं़दगी से हार मानकर कुँए में गिरकर जान दे देती है। नारी के भीतर कहीं-न-कहीं एक चिनगारी रहती है। हर देश और हर युग की नारी में, सदियों से सहा गया अपमान एक सोई चिनगारी के रूप में हर नारी में रहता है। पुराने ज़माने से ही नारी अपनी पहचान के लिए संघर्ष-रत रही है। अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व की तलाश में वह पूरी तरह से निमग्न हो गई। लेकिन इस छटपटाहट में अक्सर हताशा, कंुठा और बेबसी ही हाथ लगी। परंपरा व समाज के पूर्व निर्धारित रूप-स्वरूप में ढली एक परंपरागत रूढ़ नारी एक ऐसी नारी है जिसका न ही अपना कोई स्वतंत्र अस्तितव है, न ही अस्मिता। अगर बुद्धिमान है भी तो घर परिवारों में उसके इस गुण की न कोई उपयोगिता है और न ही उसे स्वीकार किया गया है। किसी की पत्नी, बेटी, बहिन, प्रेमिका, माँ, बहु, सास, दादी आदि अनेकानेक भूमिकाएँ निभाते-निभाते वह खुद क्या है, उसका नाप क्या है, यह भी भूल गई। आम तौर पर स्त्री को फला की बेटी, फला की पत्नी, फला की माँ आदि कहकर संबोधित किया जाता है। उससे उसका नाम छीन लिया जाता है। इसी ओर इशारा करते हुए राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव‘ में इस तरह कहा है - ‘‘बेनाम होना तो बहुओं की तकदीर है। फ़र्क बस इतना हो जाता है कि वह अच्छे घरानों में वह या तो बहू कही जाती हैं या दुल्हन या दुलहिन। बहू अगर मालदार हुई तो उसे खिताब दिए जाते हैं - अज़ीज दुल्हन (चाहे ससुराल में उसे कोई मुँह न लगता हो) और नफ़ीस दुल्हन (चाहे वह निहायते फूहड़ हो) वगैरह .... वगैरह .... गरज़ कि हमारे समाज में या तो यह होता है कि मैकेवाले दहेज देकर बेटी से अपना दिया हुआ नाप छीन लेते हैं या फिर यह कहिए कि ससुरालवाले इसे गवारा नहीं करते कि उनके यहाँ किसी और घर का दिया हुआ नाम चले। बात जो हो, नतीजा यह निकलता है कि मसलन नौ साल या सत्रह साल तक रान्य ख़ातून उर्फ रब्बन या कनीज़ फ़ातमा उर्फ कुद्दन रहनेवाली लड़कियाँ एकदम से दुल्हन‘ बहू या सुलतान दुल्हन बनकर रह जाती है। भाभी, चाची, ममानी और कभी-कभी ब्याह होते ही दादी और नानी भी बन जाती हैं। मगर नहीं रह जाती तो रान्या ख़ातून या कनीज़ फ़ातमा। बेनाम रहना तो इन लडकियों के तक़दीर में है। कभी-कभी यह बेनामी उन लड़कियों से ऐसी चिपक जाती है कि मरते-मरते पिंड नहीं छोड़ती।‘‘ (आधा गाँव ; पृ.सं. 23)। भारतीय मुस्लिम समाज के वर्गीय ढाँचे के भीतर छोटे-छोटे जातिगत और समुदायिक ढाँचे सक्रिय रहते हैं। इस वर्गीय और जातिगत ढाँचे की वहज से एक ही समस्या को लेकर विरोधाभासी रुख अपनाया जाता है। आम-तौर पर माँ-बाप लड़की के ब्याह को लेकर चिंतित रहते हैं। लड़कियों को भोज समझते हैं और किसी-न-किसी तरह से उस भोज को हल्का करना चाहते हैं। रज़ा ने सकीना के माध्यम से इस बात को यूँ व्यक्त किया - ‘‘ब्याह माँ-बाप का काम है। आगे लड़कियाँ जानें और उनकी तक़दीर जाने, और कौन जाने, ई लड़ाई कभऊ ख़त्मो होइहे कि नाहीं। हर चीज़ में न आग लग गयी है। टाट का दुपट्टा आढे़-ओढ़े कंधे दुक्खे लगा।‘‘ (आधा गाँव ; पृ.सं. 110)। समाजिक मर्यादाएँ एवं रूढ़िगत मान्यताओं के तहत मुस्लिम लड़कियों को अपने प्यार का इज़हार करने की इज़ाज़त नहीं होती। शराफ़त के मुखौटे पहनाकर उन्हें दबाया जाता है और हालात के आगे मजबूर किया जाता है। अतः रज़ा कहते हैं कि ‘‘शरीफों में प्यार ज़ाहिर नहीं किया जाता। क्या पता किसी बीवी के दिल की राख कुरेदी जाय तो किस मियाँ की मुहब्बत की चिनगारी निकल आए।‘‘ (आधा गाँव ; पृ.सं.237-248)। जहाँ संुदर फूल खिलते हैं वहाँ शूल भी पनपते हैं। घर की दहलीज पार करके नारी ने जहाँ बहुत कुछ पाया है तो इस पाने के लिए उसे कहीं कुछ खोना भी पड़ा है। उसकी भावनाएँ लहू-हुलान हुई हैं, उसका दामन काँटों से उलझा है, जिल्लत भी उठानी पड़ी। सईदा एक ऐसा ही पात्र हो जो पढ़-लिखकर अलिगढ़ में नौकरी करती है और अविवाहित है। बेटी की कुँवारी जवानी आसेब की तरह माँ-बाप के सिर पर चढ़ी खेल रही थी, क्योंकि लोगों ने काफ़ी बातें बनाईं। सईदा कई लोगों से फँसायी गई। उसके दो-एक पेट गिराए गए।‘‘ ((आधा गाँव ; पृ.सं. 296)। सर्वत्र शरीर संबंध है और इस संबंध के पीछे सवाल आर्थिक हैं। परदे के भीतर भी स्त्री का संघर्ष और उसका आत्मसंघर्ष चलता रहता है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी चल रहा है। संघर्ष में ही राह निर्मित होती है और स्त्री विमर्श के नए गवाक्ष खुलते हैं |

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