बुधवार, 27 मई 2009

श्रम संस्कृति के किसान कथाकार विवेकी राय








भोजपुरी के प्रथम ललित निबंधकार एवं आलोचक विवेकी राय ग्राम जीवन और लोक संस्कृति के प्रति समर्पित एक ऐसे कथाकार हैं जिनका कृतित्व वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी है। वे स्वयं अपने आपको ‘किसान साहित्यकार’ कहते हैं। वे अपनी ज़मीन से इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनकी रचनाओं में मिट्टी का सोंधापन पाठकों के मन-मस्तिष्क को सहज ही आप्लावित करता है। विवेकी राय के साहित्य में
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय गाँवों का सच्चा चित्र उपस्थित है। अपने अंचल के बीच पल्लवित होने के कारण वहाँ के संबंधों, समस्याओं, मूल्य संक्रमण, लोक गीतों, लोक मान्यताओं, संस्कारों व लोक-व्यापारों आदि की प्रामाणिक छवि उनके साहित्य में सहज ही उभरती है। आंचलिक उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ रेणु के पश्चात् विवेकी राय का नाम लिया जा सकता है। उन्होंने हिंदी शब्द भंडार को उनके नए
शब्दों से समृद्ध किया है।



विवेकी राय की पहचान वस्तुतः एक कथाकार के रूप में स्थापित हुई है, किंतु उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ कविता से हुआ। उनकी कविताओं में एक ओर प्रकृति है तो दूसरी ओर दर्शन, श्ाृंगार, रहस्य और राष्ट्रीय बोध। वे सिर्फ कवि या कहानीकार ही नहीं अपितु उपन्यासकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, समीक्षक, आलोचक आदि अनेकानेक रूपों में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं। उनके साहित्य के रसास्वादन के
लिए पाठक में भी एक विशेष प्रकार के संस्कार की आवश्यकता है और वह है ग्रामीण जीवन, ग्रामीण प्रकृति और ग्रामीण संस्कारों को समझने की प्रवृत्ति। स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण जनता की दयनीय दशा, लोक जीवन की सांस्कृतिक बनावट, ग्रामीण मानसिकता में व्याप्त रुग्णता, शोषण की नई शक्तियाँ, विघटित होते प्रजातांत्रिक मूल्य, हताशा, निराशा, मोहभंग आदि को उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम
से उकेरा है। सांस्कृतिक मूल्यों से ‘कट आफ’ होकर आधुनिकता के रंग में रंगे जा रहे ग्राम-जीवन की त्रासदी उनके साहित्य में दिखाई पड़ती है। उनके साहित्य को पाठकों और आलोचकों ने खूब सराहा है तथा अलग-अलग दृष्टिकोणों से उस पर अनुसंधान कार्य भी हुए हैं। डॉ. मान्धाता राय (1946) द्वारा संपादित पुस्तक ‘विवेकी राय और उनका सृजन-संसार’ (2007), उनके साहित्य की व्यापक स्वीकृति का सुष्ठु
प्रमाण है।



शीर्षस्थ कथाकार विवेकी राय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कंेद्रित इस पुस्तक में कुल 28 आलेख संकलित हैं। जिनमें उनके साहित्य के विविध आयामों को विवेचित किया गया है। संपादक ने ‘प्राकरणिकी’ में यह स्पष्ट किया है कि ‘‘विवेकी राय ने जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों को प्रस्तुत किया है, उनमें मेहनतकश वर्ग का अमानवीय शोषण एवं उत्पीड़न, गाँव की आपसी फूट के चलते
आत्मीयता और भाईचारा की समाप्ति, गाँव के सहज-सरल जीवन में कुटिल राजनीति का प्रवेश और उसकी खलनायिका सदृश भूमिका, दहेज, अस्पृश्यता आदि रूढ़ियों का दबाव मुख्य है। डॉ. राय की सहानुभूति अन्याय के पिसते वर्ग के साथ है। उन्होंने आर्थिक-सामाजिक शोषण के प्रति सुगबुगाते विद्रोह को रेखांकित करते समय अत्याचारों के प्रति अपनी नाराजगी और वितृष्णा को जरा भी छिपाया नहीं है। विवेकी
राय का रचना संसार बहुत ही फैलाव वाला है और वर्तमान जागतिक जीवन के बहुआयामी चिंताओं से समृद्ध है। हिंदी और भोजपुरी दोनों में उन्होंने एक नाटक विधा को छोड़ सारी विधाओं को अधिकारिक रूप से उठाया है तथा अपनी छाप छोड़ी है। इस विवेचन के परिपे्रक्ष्य में प्रस्तुत है यह कृति ‘विवेकी राय और उनका रचना संसार’।’’



डॉ. आनंद कुमार सिंह ने अपने आलेख में कहा है कि विवेकी राय का सारा साहित्य ‘‘अपने प्रियजन को संबोधित एक चिट्ठी की नाईं है जिसकी सारी राम कहानी अंतरात्मा का अछोर आह्लाद और सीमाहीन विप्लव है। किसी जाड़ोंवाली धंुधलाती रात का एकांत और खिड़की के बाहर कुहरीली लहर या फिर धू-धू जलती भू की लू बरसाती दुपहरी और निराला के शब्दों की ‘गर्द चिनगी’ वाली गर्मियाँ या धारासार मँडराकर
बरसनेवाली बरसात और डरावनी हवाएँ - किसी भुतहे बरगद-पीपल के नीचे से जानेवाली पगडंडी और ‘फिर बैतलवा डाल पर’ वाला डर। ‘गँवई-गंध-गुलाब’ का बेमेल-पन, पर, चुनरी रँगाने का बासंती आग्रह। गाँव का ग्राम्य विग्रह और उसके अर्धविकास का दारुण बोध विवेकी राय को साहित्यकार बना देता है।’’ (पृ.सं. 1)
डॉ. विवेकी राय ने विविध विधाओं में लेखन किया है। उनके इस लेखन के पीछे उनका गहन अध्ययन और जीवनानुभव विद्यमान है। अध्ययन की गहनता का ही यह परिणाम है कि आलोचनात्क लेखन में भी वे औरों से अलग दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने ‘कल्पना’ के आरंभिक अंकों के महत्व को जिस प्रकार अंका है, उसके संबंध में डॉ. राजमल बोरा लिखते हैं कि उन अंकों के विषयों पर डॉ. विवेकी राय ने संकेत
किया है। यह कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि इससे पे्ररणा लेकर अन्य विद्वानों को साहित्यिक पत्रिकाओं के इतिहास लेखन में प्रवृत्त होना चाहिए।



डॉ. वीरेंद्र सिंह की मान्यता है कि विवेकी राय सृजन और विचार के ललित निबंधकार हैं। यही स्थिति हमें उनके उपन्यासों, कहानियों, शोधात्मक रचनाओं तथा ललित निबंधों में कमोबेश रूप से प्राप्त होती है। विवेकी राय एक ऐसी ‘संवेदना’ को भिन्न रूपों में व्यक्त किया है जिसमें जीवन यथार्थ की धकड़नें व्याप्त हैं। इस यथार्थ को ‘श्रम संस्कृति का यथार्थ’ कहा जा सकता है।



आधुनिक भारतीय ग्रामों के जन जीवन की गहराई और व्यापकता को विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त करने में विवेकी राय को सफलता प्राप्त हुई है। मधुरेश का मत है कि विवेकी राय के साहित्य में किसान और दलित वर्ग की गहरी संवेदना एक साथ अंकित है। वे मानते हैं कि ‘‘विवेकी राय की कथा भूमि उस रूप में आंचलिक नहीं है, जैसे वह आंचलिकता के आंदोलन के दौर में दिखाई देती थी। उनके यहाँ आंचलिकता का
मतलब अपने सुपरिचित क्षेत्र से आत्मीयता और संवेदना के स्तर पर जुड़ा ही है। लोकतत्व और लोकभाषा के अप्रचलित रूपों के प्रति उत्साह जगाकर वे वस्तुतः इस अंचल को ही सजाने-सँवारने और उसे एक सुगढ़ व्यक्तित्व प्रदान करने की कोशिश करते हैं।’’(पृ.सं. 36)



इसी प्रकार डॉ. अजित कुमार का मानना है कि भोजपुरी साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का प्रणयन कर विवेकी राय ने मानो ‘साइबर युग’ की मनोरचना को चुनौती दी है। भले ही ऐसे लोग हिंदी को दूधवालों और सब्जीवालों की भाषा मानते रहे हैं। वे याद दिलाते हैं कि ‘‘डॉ. विवेकी राय ने अपने फीचर संग्रह ‘राम झरोखा बइठि के’ में इतना गुदगुदाया है कि हम हँसते-हँसते रो पड़ें।’’ (पृ.सं. 77)



डॉ. सत्यकाम विवेकी राय की लेखकीय प्रतिभा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘अनजाने ही हम अपनी भाषा की अवहेलना कर रहे हैं, कुचल रहे हैं ; हिंदी प्रचार-प्रसार की बात करते हैं और खुद अमल नहीं करते। निश्चित रूप में आज हिंदी जन जीवन से जुड़ी होने के कारण खड़ी है, हम हिंदी की रोटियों पर पलनेवाले लोग तो उसका सत्यानाश करने पर तुले ही हुए हैं। पर जिसके पास जनशक्ति है उसका मुट्ठी भर
‘एलिट’ क्या बिगाड़ सकते हैं। जिस भाषा के पास विवेकी राय जी जैसे लेखक हो उस भाषा के अवरुद्ध और स्थिर होने का भी खतरा नहीं। लोकभाषा के रूप में नित्य नए प्रपात इससे मिल रहे हैं और इसका बल बढ़ा रहे हैं। विवेकी राय जी के लेखन का रस वस्तुतः लोक रस है जो उनके लेखन में ही नहीं, उनके व्यक्तित्व में भी झलकता है।’’ (पृ.सं. 142)



इसी प्रकार और भी अनेक विद्वानों ने इस कृति में विवेकी राय के बहुआयामी जीवन और साहित्य पर प्रकाश डाला है। इनमें डॉ. दिलीप भस्मे, डॉ. रामखेलावन राय, डॉ.गिरीश काशिद, डॉ. प्रमोद कुमार श्रीवास्तव ‘अनंग’, डॉ. रामचंद्र तिवारी, डॉ. अमरदीप सिंह, डॉ. नीलिमा शाह, डॉ. अंजना भुवेल, डॉ. जयनाथमणि त्रिपाठी, महाकवि श्रीकृष्णराय ‘हृदयेश’, डॉ. सविता मिश्र, एल.उमाशंकर सिंह, रामावतार, डॉ.
चंद्रशेखर तिवारी, रामजी राय, डॉ. श्रीप्रकाश शुक्ल, डॉ. विजय तनाजी शिंदे, अचल, डॉ. कुसुम राय, शेषनाथ राय और डॉ. शिवचंद प्रसाद सम्मिलित हैं।



इन सब विद्वानों ने अपने आलेखों में सबसे पहले तो इस बात पर बल दिया है कि डॉ. विवेकी राय का लेखन ग्राम संस्कृति और श्रम संस्कृति को समर्पित है और बड़ी ललक से अपने पाठक से सहज संबंध स्थापित करने में समर्थ है। इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि विवेकी राय ने साहित्यकार के मूल धर्म का सर्वत्र निर्वाह किया है। अर्थात् मूल्य चिंतन से वे कहीं विमुख नहीं हुए हैं। विवेकी राय
स्त्री विमर्श और दलित विमर्श की घोषणाएँ करते गली-गली और मंच-मंच नहीं घूमते, लेकिन वास्तविकता यह है कि समाज के इन दोनों ही वर्गों के शोषण और दमन से विवेकी राय भीतर तक विचलित होते हैं और एक साहित्यकार के रूप में इनके साथ अपनी पक्षधरता लेखन के माध्यम से प्रमाणित करते हैं। कहानी हो या उपन्यास, निबंध हो या समीक्षा, संस्मरण हो या पत्र - उनके लेखन में लोक जीवन और लोक भाषा अपनी
पूर्ण ठसक के साथ विद्यमान है।



कुल मिलाकर ‘विवेकी राय और उनका सृजन संसार’ यह प्रतिपादित करने में समर्थ पुस्तक है कि यदि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है तो डॉ. विवेकी राय का व्यक्तित्व और कृतित्व यह बतलाता है कि भारत के गाँव उनकी आत्मा में बसते हैं।






विवेकी राय और उनका सृजन संसार@(सं.) डॉ. मान्धाता राय@विश्वविद्यालय प्रकाशन, चैक, वाराणसी-221 001@164 पृष्ठ (सजिल्द)@मूल्य 150 रु.

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