मंगलवार, 30 जुलाई 2019

तेलंगाना में देवी पूजा की परंपरा : बोनालु

22 जून, 2014 को भारत के 29 वें राज्य के रूप में तेलंगाना राज्य का पुनर्गठन हुआ था। विविध लोकोत्सव इस राज्य को विशिष्ट निजी सांस्कृतिक पहचान प्रदान करते हैं। खास तौर से 'बोनालु' पर्व को तेलंगाना का सांस्कृतिक प्रतीक कहा जा सकता है जिसका संबंध देवी पूजा से है। 

विदित ही है कि देश भर में देवी पूजा की परंपरा है। तेलंगाना भी इसका अपवाद नहीं है। विशेष बात यह है कि तेलंगाना में ग्राम देवियों को अनेक नामों से पुकारते हैं - एलम्मा, पोचम्मा, नल्लपोचम्मा, मैसम्मा, गंडिमैसम्मा, नानचारम्मा, नूकालम्मा, पोलेरम्मा, मारेम्मा, पेद्दम्मा, गंगालम्मा, मुत्यालम्मा, महांकालम्मा, अंकालम्मा आदि। लोकजीवन में इनकी पूजा-अर्चना की अनेकविध परिपाटी मिलती है। देवी पूजा की परिपाटी के उदाहरण के रूप में एडुपायला जातरा और समक्का-सारलम्मा जातरा का उल्लेख किया जा सकता है। 

मेदक जिला के नागासनपल्लि ग्राम में स्थित एडुपायला सात नदियों का संगम स्थल है। एडुपायला वन दुर्गा भवानी का मंदिर तेलंगाना में सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ प्रवाहित नदी की सात धाराएँ सात ऋषियों के नामों से बनी हैं - जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, विश्वामित्र, वसिष्ठ, भरद्वाज और गौतम। हर शिवरात्रि को यहाँ जातरा (मेला) का आयोजन होता है। एडुपायला जातरा के अवसर पर भेड़-बकरी और मुर्गियों की बलि दी जाती है। यह त्योहार शिवरात्रि के दिन से शुरू होकर तीन दिनों तक चलता है। आसपास के 32 गाँवों से सैकड़ों सजी-धजी बैलगाडियों की शोभायात्रा निकलती है। इसे ‘बंडि उत्सवम’ (गाड़ियों का उत्सव) कहा जाता है। इसके बाद देवी माँ की रथयात्रा निकलती है। इसी प्रकार समक्का-सारलम्मा जातरा वरंगल जिला में स्थित कन्नापल्लि जंगल में शुरू होकर वरंगल से 90 किमी दूरी पर स्थित मुलुगु जिले के तड़वई मंडल के मेडारम में समाप्त होती है। इसलिए इसे मेडारम जातरा भी कहा जाता है। इस उत्सव में चार दिनों तक भक्त देवी माँ को सोना (गुड़) चढ़ाते हैं और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। कोया आदिवासियों का यह विशेष त्योहार एशिया का सबसे बड़ा जनजातीय त्योहार माना जाता है। ये दोनों जातराएँ यह प्रतिपादित करने के लिए पर्याप्त हैं कि तेलंगाना का सामान्य लोक देवीपूजक लोक है। 

इसी का परिणाम है कि विशेष रूप से हैदराबाद में मनाए जाने वाले देवीपूजा के पर्व बोनालु को लोकपर्व से राजपर्व की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। तेलंगाना के राजकीय लोकपर्व बोनालु के जुलूस में महाकाली के विभिन्न अवतारों की अर्चना की जाती है। इसलिए इसे ‘महांकाली जातरा’ भी कहते हैं। पहले यह त्योहार मुख्य रूप से हिंदू समाज की हाशियाकृत जातियों में अधिक लोकप्रिय था। कालांतर में सभी जाति-वर्णों ने इसे अपना लिया। तेलंगाना के राजकीय पर्व के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद तो अब यह सबका पर्व हो चुका है। 

इस पर्व की मुख्य रीति है कि मन्नत माँगकर स्त्रियाँ देवी माँ को बोनम (भोजन) समर्पित करती हैं। बोनम अर्थात देवताओं को समर्पित किया जाने वाला भोजन या नैवेद्य। ‘बोनालु’ को हैदराबादी भाषा में ‘बोनाल’ कहा जाता है। ‘बोनालु’ शब्द ‘भोजनालु’ (भोजन) का बिगड़ा हुआ रूप है। आषाढ़ मास के पहले रविवार को शुरू होकर यह पर्व अंतिम रविवार को समाप्त होता है। अर्थात एक माह तक मनाया जाता है। त्योहार के पहले और अंतिम दिन गोलकोंडा एलम्मा के लिए विशेष पूजाएँ की जाती हैं। दो नए छोटे मटकों को हल्दी का लेप लगाकर कुमकुम से सजाया जाता है। नीम की टहनियाँ बाँधी जाती हैं। उन मटकों में बोनम रखा जाता है। दोनों मटकों को एक के ऊपर एक रखा जाता है। ऊपर के मटके पर तेल का दीपक जलाया जाता है। इसे ‘बोनाला ज्योति’ (बोनालु की ज्योति) कहा जाता है। श्रद्धा और भक्ति से स्त्रियाँ उन मटकों को सिर पर रखकर देवी माँ के मंदिर में बोनम चढ़ाने जाती हैं। पुरुष वाद्य यंत्र बजाते हुए, भक्ति गीत गाते हुए उनके साथ जाते हैं। बोनम के रूप में मुख्य रूप से मिष्टान्न चढ़ाया जाता है जो देवी माँ का अत्यंत प्रिय खाद्य पदार्थ है। नमक और काली मिर्च के साथ पका हुआ चावल और दही चावल भी चढ़ाया जाता है। मंदिर में देवी माँ के समक्ष जो चावल का ढेर लग जाता है उसे ‘बल्लम गल्ला’ कहा जाता है। बोनम के साथ माँ को ‘कल्लु’ (देशी शराब) और बलि भी चढ़ाने की परंपरा रही है। बहुत समय तक भैंस की बलि दी जाती थी। धीरे-धीरे भैंस के स्थान पर मुर्गी और बकरी की बलि चढ़ाने लगे। लेकिन अब अधिकतर प्रतीक बलि दी जाती है; अर्थात कद्दू, पेठा, नींबू आदि की बलि। वास्तव में बलि की प्रथा को रोकने के लिए ऐसा किया जाने लगा, क्योंकि गाँवों में कभी-कभी नर बलि भी दी जाती थी - दुश्मनी के कारण। इसमें शक नहीं कि तेलंगाना लोक में मांसाहार का अत्यधिक प्रचलन है। लेकिन बोनालु त्योहार के एक महीने तक वे लोग मांसाहार से दूर रहते हैं। शायद इसीलिए अंतिम दिन देवी माँ के समक्ष मुर्गी और बकरी की बलि चढ़ाकर उस दिन मांसाहार का सेवन करते हैं। 

बोनालु उत्सव आषाढ़ माह के चार सप्ताह के लिए क्रमशः गोलकोंडा, सिंकदराबाद, लाल दरवाजा और पुराने शहर में मनाया जाता है। सबसे पहले हैदराबाद के गोलकोंडा किले के भीतर मंगलावरम नामक पहाड़ी पर स्थित जगदंबिका मंदिर में इस त्योहार की शुरूआत होती है। आषाढ़ मास के प्रथम रविवार से तीन दिन पहले गोलकोंडा के पास स्थित लंगर हाउस से देवी की रथयात्रा शुरू होती है। रंगबिरंगे कागजों से बने ऊँचे बेंत के झूले में माँ की तस्वीर सजाकर ज्योति के साथ गोलकोंडा तक शोभायात्रा निकलती है। इसे ‘तोट्टेल उत्सवम’ (झूले का उत्सव) कहा जाता है। सरकार की ओर से भेंट स्वरूप माँ को रेशमी कपड़े और सुहागिन के सिंगार की वस्तुएँ समर्पित की जाती हैं। 

उसके बाद सिकंदराबाद उज्जैनी महाकाली मंदिर, बलकम्पेट एल्लम्मा मंदिर, चिलकलगुडा पोचम्मा मंदिर और कट्टा मैसम्मा मंदिर, लाल दरवाजा सिंहवाहिनी श्रीमहाकाली मंदिर, हरिबावली अकन्ना मादन्ना मंदिर, शाह अली बंडा में स्थित मुत्यालम्मा मंदिर में बोनालु पर्व क्रमशः मनाया जाता है। फिर अन्य स्थानों में स्थित देवी माँ के मंदिरों में बोनम समर्पित किया जाता है। वापसी में गोलकोंडा के जगदंबिका मंदिर में अंतिम बोनम अर्पित करने के बाद ही यह उत्सव समाप्त होता है। 

बोनालु का पर्व रविवार को शुरू होता है। अगले दिन सोमवार को रंगबिरंगे कागजों से बने बेंत के ऊंचे झूले में प्रतिष्ठित देवी को प्रतिष्ठित कर जुलूस निकाला जाता जाता है। इस जुलूस का अर्थ है खुशी से माता को उनके मायके के लिए विदा करना। सुहागिन को ले जाने के लिए तो भाई ही आते हैं न! सो, देवी माँ की विदाई के लिए उनके भाई और अंगरक्षक ‘पोतुराजु’ आते हैं। नदी किनारे झूला और ‘बल्लम गल्ला’ रख दिए जाते हैं और नदी में दिया छोड़कर लोग वापस आ जाते हैं। लोक विश्वास है कि यह भोजन पाकर प्रेतात्माएँ तृप्त हो जाएँगी; अतः कोई अनिष्ट नहीं होगा और देवी माँ सबकी रक्षा करेगी। 

उल्लेखनीय है कि पोतुराजु को महाराष्ट्र में पोतराज, मरीआई अथवा कड़क लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है। असल में पोतराज इस अंचल की एक जनजाति है जो लुप्त होती जा रही है। वे देवी माँ के उपासक होते हैं। पोतुराजु का वेश धारण करने वाला व्यक्ति लाल धोती को घुटनों के ऊपर तक कसकर बाँधता है। पैरों में घुँघरू, हाथ में चाबुक, पूरे शरीर में हल्दी का लेप, माथे पर कुमकुम का टीका और गले में नींबू की माला पहनकर वह ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचता रहता है और अपने हाथ में लिए हुए चाबुक से अपनी ही पीठ पर प्रहार करता रहता है। यह माना जाता है कि पोतुराजु स्वयं पर चाबुक के प्रहार से लोगों की विपत्तियों को दूर करता है जिससे देवी माँ भक्तों पर कृपा करती है। पोतुराजु का वेश धारण करके नाचना भी एक जीवन-वृत्ति है। बच्चों को बहुत कम उम्र में जबरन इस वृत्ति का प्रशिक्षण दिया जाता ताकि वे बड़े होकर अपनी पीठ पर कोड़े सहते हुए नाच सकें। 

बोनालु के अगले दिन 'रंगम' का भी आयोजन किया जाता है। रंगम अर्थात भविष्यवाणी। एक स्त्री ‘गले’ (जोगिनी, मातंगी) कच्ची मिट्टी के घड़े पर खड़ी होकर भविष्यवाणी करती है। वह भविष्य के संकटों के प्रति लोगों को जागरूक करती है। भविष्यवाणी करने वाली इस स्त्री को साक्षात देवी का स्वरूप माना जाता है। हैदराबाद-सिकंदरबाद बोनालु में जोगिनी श्यामला और रंगम स्वर्णलता इस प्रक्रिया को संपन्न करती हैं। माँ की शोभायात्रा से पहले यह धार्मिक प्रक्रिया संपन्न होती है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है यह शोभायात्रा गोलकोंडा के जगदंबिका मंदिर से शुरू होकर सिकंदराबाद के उज्जैनी महांकाली मंदिर और उसके बाद लाल दरवाजा सिंहवाहिनी श्रीमहाकाली मंदिर में जाकर समाप्त होती है। इसे लोक आस्था का प्रताप ही कहा जा सकता है कि सामान्य जनता ही नहीं बल्कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के राजनीतिज्ञ और स्वयं मुख्यमंत्री भी प्रायः इस आयोजन में भविष्यवाणी जानने के लिए उपस्थित होते हैं। 

वर्तमान युग में धीरे-धीरे इस लोक पर्व का राजसीकरण भी होने लगा है। हैदराबाद और सिकंदराबाद के अलावा रंगारेड्डी जिले के लगभग 3 हजार मंदिरों को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। 2018 में तेलंगाना राष्ट्र समिति की सांसद के.कविता ने माँ को 3.8 किलो सोने से बने बर्तन में बोनम समर्पित किया था। अब मिट्टी के मटकों के स्थान पर लोग अपनी पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप या कहें कभी-कभी दिखावे के लिए सोने और चाँदी के बर्तनों में बोनम अर्पित करने लगे हैं। यह प्रवृत्ति भविष्य में इस पर्व के मूलभूत लोक चरित्र को क्षति पहुँचाने वाली सिद्ध हो सकती है। 

रंगम के बाद घटम का जुलूस निकलता है। इसके लिए घटम (तांबे का बर्तन) को देवी के रूप में सजाया जाता है। बोनालु उत्सव के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक घटम को जुलूस में ले जाया जाता है। अंतिम दिन इसे पानी में विसर्जित किया जाता है। घटम के विसर्जन के साथ उत्सव का समापन माना जाता है। हरिबावली के अक्कन्ना मादन्ना मंदिर से घटम को हाथी पर रखकर माँ की शोभायात्रा निकलती है तथा नयापुल के पास घटम का विसर्जन किया जाता है। 

यह सब तो हुआ बोनालु के कर्मकांड का विवरण। अब ज़रा इसके इतिहास में भी झांक लिया जाए। बोनालु पर्व की शुरूआत 19वीं शताब्दी में हुई। इसकी कहानी हैदराबाद-सिकंदराबाद जुड़वा शहर के रेजिमेंटल बाजार से जुड़ी है। हैदराबाद-सिकंदराबाद के इतिहास से यह पता चलता है कि वर्ष 1813 में आषाढ़ मास अर्थात वर्षा आरंभ होते ही यहाँ प्लेग की भयानक महामारी फैल गई थी। इससे हजारों लोगों की मृत्यु हुई। संयोगवश इससे ठीक पहले हैदराबाद से एक सैन्य बटालियन को उज्जैन में तैनात किया गया था। जब इस हैदराबादी मिलिट्री बटालियन को महामारी के बारे में पता चला, तो उन सिपाहियों ने उज्जैन के महाकाली मंदिर में देवी से प्रार्थना की कि वे हैदराबाद तथा सिकंदराबाद को इस महामारी से बचाएँ। उन्होंने यह मनौती भी मानी कि यदि देवी माँ ऐसा करेंगी, तो यहाँ लौटने पर वे शहर में देवी महाकाली की मूर्ति स्थापित करेंगे। ऐसा माना जाता है कि महाकाली ने महामारी को नष्ट कर दिया। सैन्य बटालियन शहर लौट आई और देवी की एक मूर्ति स्थापित की तथा भक्ति और श्रद्धा भाव से माँ को बोनालु समर्पित किया। तब से, यह एक परंपरा बन गई जिसका पालन आज तक किया जा रहा है। इस दौरान देवी माँ को प्रसन्न करने के लिए पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार, मेले-ठेले का आयोजन किया जाता है। 

लोक पर्वों के साथ लोक कथाएँ भी जुड़ जाती हैं। बोनालु के साथ भी ऐसा ही है। लोक विश्वास है कि आषाढ़ मास के दौरान महाकाली अपने माता-पिता के घर आती हैं। अतः ससुराल से मायके आई हुई माँ के स्वागत में बोनालु पर्व मनाया जाता है। माँ से घर और समाज की सुख-समृद्धि की प्रार्थना की जाती है। आषाढ़ में नई नवेली दुल्हन को एक महीने तक मायके भेज दिया जाता है। एक महीने के बाद श्रावण में माता-पिता बेटी को भेंट देकर ससुराल विदा करते हैं। उस समय भाई उसके अंगरक्षक बनकर उसको विदा कराने आते हैं। इसी लीला को हर वर्ष दोहराया जाता है। 

लेकिन लोक की प्रथाएँ केवल अंधविश्वास नहीं होतीं। उनमें भी कुछ न कुछ वैज्ञानिकता निहित होती है। इस दृष्टि से भी बोनालु उत्सव की सार्थकता असंदिग्ध है। आषाढ़ में बीमारियाँ फैलती हैं। इसलिए इस महीने में बोनालु उत्सव मनाया जाता है जिसमें नीम और हल्दी की प्रचुरता रहती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि नीम की पट्टियों और हल्दी में कीटनाशक तत्व निहित हैं। इसके अलावा बीमारियों को दूर करने के साथ-साथ यह त्योहार सारे समाज के भाईचारे का भी प्रतीक है। 

बोनालु के अवसर पर लोग अपनी खुशियों को लोक गीतों – विशेषकर भक्ति गीतों - के माध्यम से व्यक्त करते हैं। उदाहरण के तौर पर दो गीतों के मुखड़े द्रष्टव्य हैं- 


  • सूर्युने बोट्टुगा पेट्टुकोनि/ भल्लान्ने चेतिलो पट्टुकोनि/ महामारि तलने नरिकिनावु पेद्दम्मा/ कैलासम वद्दनि विडिचिनावु/ कलियुग्म लो माकै वच्चिनावु/ माँ पिल्ललिनी सल्लागा चूसिनावु मायम्मा/ पुलिपै सवारी चेसिनावु ओ यम्मा/ अंदुके नीकु बोनालु एत्तुतमु। 
(सूरज को माथे की बिंदी बनाकर/ भाले हो हाथ में लेकर/ महामारी का सिर कुचल डाला/ हे माँ! दुष्टों को नरक भेज दिया/ कैलास छोड़कर/ कलियुग में हमारे लिए यहाँ आकर/ हमारे बच्चों रक्षा करती हो हे माँ!/ हे माँ, सिंहवाहिनी!/ तेरे लिए हम नैवेद्य लाएँगे।) 


  • पल्लेलु पट्नालन्नि पच्चगा चूसे तल्लि/ ऊरी पोलिमेरलो उंडि ऊरंता कासे तल्लि/ पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महांकालम्मा, मुत्यालम्मा, पोलेरम्मा/ एडुगुरु अक्का-चेल्लेल्लु नीकु/ एडु अंतस्तुला बोनमे अम्मा!
(गाँवों और शहरों को हरा-भरा रखने वाली माँ!/ गाँव की सीमा पर रहकर गाँव की रक्षा करने वाली माँ!/ पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महांकालम्मा, मुत्यालम्मा, पोलेरम्मा/ सात बहनें हैं तेरी,/ सात भवन के नैवेद्य हैं माँ।) माना जाता है कि महाकाली की सात बहनें हैं - पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महंकालम्मा, मुत्यालम्मा और पोलेरम्मा। 

इस महान लोक पर्व ने आधुनिक तेलुगु साहित्य में भी पर्याप्त जगह पाई है, जो इसकी व्यापक स्वीकृति का प्रतीक है। दाशरथी रंगाचार्य की कृति ‘माया जलतारु’ (मायाजरतार, 1973, विशालांध्रा पब्लिशिंग हाउस) में बोनालु का चित्रण प्राप्त होता है – “चेंबु मीदा मरोका चेंबु पेट्टारु। अदि बोनाम। आड़ुवारंता तललकु बोनालु एत्तुकोनि तयारुकागा मगवारु डप्पुलु तीसुकोनि बायिलुदेरारू।” (मटके के ऊपर एक और मटका रख दिया। वही है बोनम। स्त्रियाँ बोनालु को सिर पर रखकर तैयार हुईं और पुरुष ढोल लेकर उनके साथ चल पड़े।) 

तेलुगु के क्रांतिकारी कवि गद्दर (गुम्मडी विट्ठल राव, 1949) ने अपनी रचना ‘प्रति पाटकु ओका कथा उंदा?’ (हर गीत के लिए एक कथा है क्या?, 1991) में यह स्पष्ट किया है कि बोनालु त्योहार विशेष रूप से तेलंगाना के लोगों द्वारा मनाया जाता है। इस त्योहार का बहुत महत्व है। चाहे कुछ भी हो जाए, कर्ज में डूबे रहने पर भी इस त्योहार को जरूर मनाएँगे क्योंकि तेलंगाना की जनता यह मानती है कि देवी माँ को संतुष्ट रखना जरूरी है अन्यथा उनके क्रोध का शिकार होना पड़ेगा। 

अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए भोजन (नैवेद्य) अर्पित करना एक प्राचीन परंपरा है। यही कारण है कि ताल्लपाक अन्नमाचार्य के कीर्तनों में भी बोनालु का उल्लेख मिलता है – “विंदगु वेंकटा विभुनि प्रेमचे बोंदुगा बेट्टेनु बोनालु।” (श्री वेंकटेश्वर स्वामी को प्रेम से बोनालु समर्पित करें। - अन्नमाचार्य, शृंगार संकीर्तन, तालपत्र 53)। इस कीर्तन से यह स्पष्ट होता है कि बोनालु की परंपरा सिर्फ तेलंगाना में ही नहीं बल्कि संपूर्ण आंध्र प्रदेश में रही है। नन्नैया कृत ‘आंध्र महाभारतम’ और कृष्णदेवराय की ‘आमुक्तमाल्यदा’ में भी इसका उल्लेख है। वस्तुतः ‘बोनालु’ का अर्थ है श्रद्धा और भक्ति से देवी-देवताओं को भोजन समर्पित करना ताकि उनकी कृपा बनी रहे। अतः आज भी लोक कल्याण की सामूहिक कामना ही इस पर्व का परम अभीष्ट है।

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

तेलुगु साहित्य : 2017 : एक सर्वेक्षण

आधुनिक तेलुगु साहित्य अपने आरंभिक काल से ही सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से अत्यंत चेतना संपन्न साहित्य रहा है। समकाल की धड़कनों को समझने और अंकित करने विभिन्न विधाओं के माध्यम से तेलुगु साहित्यकार भारत में अग्रणी रहे हैं। अपनी इस सामाजिक-राजनैतिक संचेतना के कारण आज का साहित्यकार इस बात से अत्यंत विचलित प्रतीत होता है कि इक्कीसवीं सदी में भी जाति और वर्ण के नाम पर समाज में अराजकता और अमानुषिकता का बोलबाला है। समकालीन साहित्यकार इन विसंगतियों की ओर ध्यान केंद्रित कर रहा है। यही कारण है कि 2017 में तेलुगु साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और अल्पसंख्यक विमर्श से संबंधित स्वानुभूति पर आधारित अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई हैं। 

यद्यपि दलित विमर्श का प्रचलन बहुत बाद का है तथापि यह तथ्य उल्लेखनीय है कि ‘माकोद्दु नल्ल दोरतनम’ (हमें नहीं चाहिए ये काले अंग्रेज़) के कवि के रूप में प्रसिद्ध कुसुम धर्मन्ना (1900-1946) तेलुगु के प्रथम दलित कवि थे जिन्होंने वर्ण व्यवस्था का खंडन किया था। वे ‘जयभेरी’ के संपादक भी थे। आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए संघर्ष किया। उन्होंने ‘हरिजन शतक’, ‘नल्ल दोरतनम’ (काले अंग्रेज़), ‘निम्नजाति तरंगिणी’, ‘मद्यपान निषेधम’ (शराब निषेध), ‘अंटरानिवाल्लम’ (छुआछूत) आदि कविता और निबंध संग्रहों के माध्यम से जनता को चेताया था। अब मद्दुकूरि, पुट्ल हेमलता और अन्य ने कुसुम धर्मन्ना के संपूर्ण साहित्य को ‘कुसुम धर्मन्ना रचनलु’ (कुसुम धर्मन्ना की रचनाएँ) नाम से सात खंडों में संपादित किया है। 

तेलुगु साहित्य में शिखामणि के नाम से प्रसिद्ध कवि और आलोचक डॉ. कर्रि संजीव राव ने दलित विमर्श से संबंधित अनेक काव्य संग्रह और आलोचना ग्रंथों की रचना की है। उनके कविता संग्रह ‘चूपुडुवेलु पाडे पाटा’ (तर्जनी के गीत) में संकलित कविताओं का मुख्य स्वर दलित की व्यथा-कथा है। 

‘दग्धम कथलु’ (दग्ध कथाएँ) शीर्षक कहानी संग्रह में बूतम मुत्यालु ने दलितों के मानवाधिकारों के हनन का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। ‘जालि’ (दया) शीर्षक कहानी में दलित समुदाय में मानव संबंधों की गरिमा का अंकन किया गया है। ‘मीना’ शीर्षक कहानी दलित बाल मजदूर की आशाओं एवं आकांक्षाओं की कहानी है। पर-स्त्री के कारण पति अपनी पत्नी की हत्या करता है। ऐसे पिता के प्रति प्रतीकार की भावना से पीड़ित पुत्र की कहानी है ‘दग्धम’ (दग्ध)। बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कहानी उल्लेखनीय है। धर्म और अंधविश्वासों के नाम पर दलितों पर होने वाले अत्याचारों का पर्दाफाश करने वाली कहानी है बलिमर्मम (बली का मर्म)। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियों में दबे हुए और कुचले हुए व्यक्ति की पीड़ा निहित है। 

धर्म की आड़ में ढोंगी बाबाओं का राज्य चल रहा है। राजनैतिक दल-बल से जनता के विश्वास को लूटकर कुछ धोखेबाज़ अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और दिगंबर पूजा के नाम पर अविवाहित स्त्रियों की अस्मत लूट रहे हैं। मोलकपल्लि कोटेश्वर राव ने अपने उपन्यास ‘स्वामुलोरु’ (स्वामीजी) में ऐसे धोखेबाज़ों का पर्दाफाश करते हुए भक्ति और अंधविश्वास के अंतर को स्पष्ट किया है। धर्म, वर्ग, वर्ण, जाति, लिंग, प्रांत आदि के भेदभाव के कारण होने वाले मनुष्य के शोषण का चित्रण अनवर के कहानी संग्रह ‘बकरी’ में सम्मिलित कहानियों में प्रभावी ढंग से किया गया है। अल्पसंख्यक विमर्श की दृष्टि से ये कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। 

आज भी भारत के अन्य प्रांतों की भाँति तेलुगु भाषी राज्यों में भी बाल मजदूरी प्रथा विद्यमान है। यह भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर कलंक की तरह है। भारत सरकार ने बाल श्रम के उन्मूलन के लिए अनेक सकारात्मक कदम उठाए हैं, लेकिन आज तक भी बाल मजदूरी को रोक पाना संभव नहीं हो पाया है। आर. शशिकला के कहानी संग्रह ‘माँ तुझे सलाम’ में बाल श्रम, बाल शोषण और बाल मानवाधिकारों से संबंधित मार्मिक कहानियाँ संकलित हैं। ‘चिट्टी चिट्टी मिरियालु’ (छोटी छोटी काली मिर्च) शीर्षक कविता संग्रह में पालपर्ती इंद्राणी ने बाल कविताओं के माध्यम से जीवन मूल्यों को उकेरा है। 

तेलुगु साहित्यकार जहाँ एक ओर मानवाधिकारों की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर अपनी संस्कृति को भी उजागर करते हैं। उदयमित्र के कहानी संग्रह ‘दोसेडु पल्लीलु’ (मुट्ठी भर मूँगफली) में संकलित 17 कहानियों में तेलंगाना की सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक स्थितियों का मार्मिक अंकन देखा जा सकता है। इन कहानियों में स्त्री शोषण और संघर्ष के विविध आयाम भी बखूबी उभरे हैं। तेलंगाना के भीमदेवरपल्लि मंडल के आंदोलन के इतिहास को डॉ. एरुकोंडा नरसिंहस्वामि और डेगल सूरय्या ने ‘मा पोराटम : भीमदेवरपल्लि मंडल उद्यम चरित्र’ (हमारा आंदोलन : भीमदेवरपल्लि मंडल के आंदोलन का इतिहास) शीर्षक कृति में विस्तार से विवेचित किया है। इसी प्रकार मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत के. बालगोपाल ने अपने निबंध संग्रह ‘नक्सलइट उद्यमम : वेलुगु नीडलु (नक्सलइट आंदोलन : प्रकाश और परछाई) में 40 निबंधों तथा एक साक्षात्कार के माध्यम से तेलंगाना क्षेत्र के नक्सलइट आंदोलन के भविष्य और उससे संबंधित अनेक मुद्दों पर वैचारिक मंथन किया है। 

तेलंगाना की सांस्कृतिक पहचान है बतुकम्मा। 2014 से यह त्योहार राजकीय लोकपर्व के रूप में मनाया जाने लगा है। इस देवी पूजन से संबंधित अनेक लोककथाएँ प्रचलित हैं। कूतुरु रामरेड्डी के कहानी संग्रह ‘बतुकम्मा कथला संपुटि’ (बतुकम्मा कहानियों का संग्रह) में सम्मिलित 18 कहानियों में बतुकम्मा से संबंधित लोककथाओं के साथ-साथ तेलंगाना आंदोलन का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और मद्य निषेध आंदोलन आदि का चित्रण है। सुरवरम प्रताप रेड्डी के संपादन में प्रकाशित ‘गोलकोंडा’ पत्रिका में तेलुगु साहित्य और संस्कृति के साथ-साथ सामाजिक और राजनैतिक चेतना, तेलंगाना के परिवेश और संस्कृति से ओत-प्रोत कहानियाँ प्रकाशित हुईं थीं। इनमें से 52 कहानियों को यामिजाल आनंद ने ‘गोलकोंडा पत्रिका कथलु’ (गोलकोंडा पत्रिका की कहानियाँ) शीर्षक से संकलित किया है। आचार्य एस.वी. रामाराव की कृति ‘तेलंगाना सांस्कृतिक वैभवम’ (तेलंगाना का सांस्कृतिक वैभव) में तेलंगाना संस्कृति की विशेषताओं का वर्णन है। आमगोत वेंकट पवार ने ‘मरो लदणि’ (दूसरा लदणि) में बंजारा संस्कृति का चित्रण किया है। उल्लेखनीय है कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में तेलुगु भाषा के अलग-अलग रूपों का प्रचलन है। यहाँ तक कि पृथक तेलंगाना राज्य की माँग के पीछे निहित कई कारणों में से एक कारण इस क्षेत्र की तेलुगू की निजता की प्रतिष्ठा की माँग भी थी। इस संदर्भ में डॉ. कालुव मल्लय्या का ‘तेलंगाना भाषा, चदुवला तल्लि’ (तेलंगाना की भाषा, ज्ञान की देवी) शीर्षक निबंध संग्रह उल्लेखनीय है। 

समकालीन तेलुगु साहित्यकारों ने निम्न और मध्यवर्गीय जीवन शैली और समाज-आर्थिक तथा राजनैतिक स्थितियों को अंकित करने के लिए कथा साहित्य को माध्यम बनाया है। गुंडु सुब्रह्मण्य दीक्षितुलु के ‘अम्मा अज्ञानम’ (माँ का अज्ञान), गुडिपाटि कनकदुर्गा कृत ‘अनुबंधालु-आत्मीयुलु’ (सहयोगी-आत्मीयजन), डॉ. वी. आर. रासानी कृत ‘मुल्लुगर्रा’ (काँटों की छड़ी) शीर्षक कहानी संग्रहों में आम आदमी की कथा अंकित है। आज व्यक्ति भीड़ में भी अकेला होता जा रहा है। संबंध विच्छेद हो रहे हैं। वैवाहिक संबंधों में दरारें आ रही हैं। सुखी दांपत्य जीवन के लिए पति-पत्नी के बीच समंजस्य की आवश्यकता होती है। सफल वैवाहिक जीवन के लिए आवश्यक जानकारियाँ डॉ. गोडवर्ती सत्यमूर्ति के निबंध संग्रह ‘विवाहालु-विभेदालु’ (विवाह-विभेद) में सम्मिलित हैं। 

माइग्रेशन के कारण उत्पन्न सांस्कृतिक संक्रमण और समाज-आर्थिक विसंगतियों का चित्रण के. सदाशिव राव के ‘क्रासरोड्स’ शीर्षक कहानी संग्रह में सम्मिलित कहानियों में देखा जा सकता है। उन्होंने वैज्ञानिक फिक्शन के आधार पर कहानियाँ बुनी है जो ‘आत्माफैक्टर’ शीर्षक संग्रह में सम्मिलित हैं। 

विरिंची नाम से प्रसिद्ध तेल्लाप्रगडा गोपाल कृष्ण के कहानी संग्रह ‘सहनाववुतु’ में शामिल 24 कहानियों में मध्यवर्गीय मानसिकता, मध्यवर्ग की जीवन शैली, सामाजिक विसंगतियाँ, आर्थिक संकट, स्त्री शोषण और पुरुष मानसिकता से त्रस्त स्त्री का चित्रण है। 

बुनकरों पर केंद्रित साहित्य कम देखने को मिलता है। बुनकरों की जीवन शैली, उनकी परंपरागत कला, आर्थिक संकट आदि को कथावस्तु बनाकर रचित 58 कहानियों को डॉ. मेडिकुर्ति ओबुलेसु, वेल्लंदि श्रीधर और सिंगिशेट्टि श्रीनिवास ने ‘पडुगु पेकलु’ (ताना-बाना) शीर्षक से संकलित किया है। 

रजक (धोबी) जाति का मुख्य कार्य कपड़े धोना, रंगना और इस्त्री करना है। आंध्र प्रदेश के मेडुलमिट्टा नामक स्थान के रजकों की जीवन शैली, आर्थिक और सामाजिक स्थिति, संस्कृति और विभिन्न संस्कारों को विंजमूरि मस्तानबाबु ने अपनी कहानियों की विषयवस्तु बनाया है। इन कहानियों को ‘मेडुलमिट्टा कथलु’ (मेडुलमिट्टा की कहानियाँ) शीर्षक संग्रह के रूप में प्रकाशित किया गया है। 

विकास के नाम पर मनुष्य विनाश कर रहा है। प्रकृति का दोहन कर रहा है। उर्वर कृषि मैदानों की छाती पर कंक्रीट भवनों का निर्माण कर रहा है। झोंपड़पट्टियों में रहने वालों की स्थिति और भी दयनीय है। यदि ऐसी ही स्थिति रहेगी तो भविष्य में जल, जमीन और जंगल की अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। सलीम ने अपने कहानी संग्रह ‘नीटिपुट्टा’ (पानी का बिल) में इन स्थितियों को उजागर किया है और यह आशा व्यक्त की है कि भविष्य में मनुष्य कंक्रीट जंगलों को ध्वस्त करके कृषि प्रधान भूमि निर्मित करेगा। 

समकालीन समाज में व्याप्त सामाजिक एवं राजनैतिक विद्रूपताओं पर प्रहार करने के लिए साहित्यकार हास्य-व्यंग्य का सहारा ले रहा है क्योंकि व्यंग्य पाठक को गुदगुदाने के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विसंगतियों के उद्घाटन द्वारा पाठक को विचलित करता है। तेलुगु के हास्य-व्यंग्य लेखक यासीन ने अपनी व्यंग्य कृति ‘हा... हा... कारालु’ (हाहाकार) में सामाजिक एवं राजनैतिक विद्रूपताओं का पर्दाफाश करने के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य संक्रमण को भी उजागर किया है। हास्यब्रह्म शंकरनारायण ने ‘इंगलीशुकु तल्लि तेलुगु?!’(इंगलिश की जननी तेलुगु?!) में उदाहरणों के साथ यह कहा है कि तेलुगु के शब्दों को तोड़ मरोड़कर अंग्रेजी में प्रयोग किया जा रहा है। उदाहरण के लिए तेलुगु शब्द ‘मनिषी’ (मनुष्य) को तोड़ने से अंग्रेजी के शब्द बनते हैं – ‘मनी’ और ‘शी’। शंकर नारायण की एक और हास्य कृति है ‘तीपिगुर्तुलु’ (मीठी स्मृतियाँ)। 

यात्रा साहित्य में मुत्तेवि रवींद्रनाथ कृत ‘मा कश्मीर यात्रा’ (हमारी कश्मीर यात्रा), जीवनी साहित्य में सी. भवानी देवी कृत ऊटुकूरि लक्ष्मीकास्तम्मा, संजय किशोर कृत फिल्म अभिनेता अक्किनेनी नागेशवरराव के जीवन पर आधारित ‘मना अक्किनेनी’ (हमारा अक्किनेनी), कूनपराजु कुमार कृत फिल्म के हास्य-व्यंग्य कलाकार एम.एस. नारायण की जीवनी, वेंकट सिद्दारेड्डी कृत सिनेमा का आलोचनात्मक संग्रह ‘सिनीमा ओका आल्केमी’ (सिनेमा एक आल्केमी), डॉ. के. किरण कुमार कृत ‘जी.एस.टी. गाइड’, ममता वेणु के काव्य संग्रह ‘मल्लेचेट्टु चौरस्ता’ (चमेली का चौराहा), श्रीनागास्त्र के काव्य संग्रह ‘गायपड्डा गुंडे भाषा’ (घायल हृदय की भाषा) आदि विभिन्न विधाओं की कृतियाँ सामने आई हैं। वांड्रंगी कोंडल राव कृत ‘ऊरु-पेरु : आंध्र प्रदेश’ (गाँव-नाम : आंध्र प्रदेश) में आंध्र के 13 जिले के कुछ चयनित गाँव और शहरों के नाम, स्थान विशेष की जानकारी, ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विरासत आदि सम्मिलित हैं। यह पुस्तक क्षेत्र कार्य पर आधारित है। विन्नकोटा रविशंकर कृत आलोचनात्मक कृति ‘कवित्वमलो नेनु’ (कविता में मैं) में कोकानी, श्रीश्री जैसे प्रतिष्ठित कवियों के विचार और उनसे से जुड़ी स्मृतयों को सँजोया गया है। 

तेलुगु साहित्य में मौलिक लेखन के साथ-साथ अनुवाद का कार्य भी चल रहा है। अष्टम अनुसूची में उल्लिखित 22 भारतीय भाषाओं की प्रमुख कहानियों को तेलुगु में अनूदित करके काकानी चक्रपाणि ने ‘भारतीय कथा भारती’ नामक महाकाय ग्रंथ में सम्मिलित किया है। कहानी के साथ-साथ मूल लेखक का परिचय भी सम्मिलित है। अनुवादों के माध्यम से भारत की सामासिक संस्कृति को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। 

वर्ण व्यवस्था आज भी समाज में व्याप्त है। पश्चिमी तमिलनाडु के कोंगुनाडु में स्थिति तोलूर गाँव में दो प्रेमियों को जाति के नाम पर मौत के घाट उतार दिया गया। इसका सशक्त चित्रण पेरुमाल मुरुगन ने अपने तमिल उपन्यास ‘पूकुलि’ में किया है। के. सुरेश ने तेलुगु में ‘चिति’ (चिता) शीर्षक से इसका अनुवाद किया है। इसमें मजदूर शोषण और स्त्री शोषण को भी दर्शाया गया है। इसमें शोषण के प्रसंग अत्यंत मार्मिक बन पड़े हैं जो पाठक की चेतना को झकझोरती हैं। 

कोलूरि सोमशंकर ने हिंदी, उर्दू, बांग्ला और अंग्रेजी की कहानियों को तेलुगु में रूपांतरित करके ‘नान्ना तोंदरगा वच्चेई’ (पापा जल्दी आ जाना) शीर्षक कहानी संग्रह में प्रकाशित किया है। अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी पर आधारित विजय त्रिवेदी की कृति ‘हार नहीं मानूँगा’ का आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद ने ‘वोटमिनि अंगीकरिंचनु’ के रूप में रूपांतरित किया है। नगराजु रामस्वामी ने ‘ई पुडमि कवित्वम आगदु : जॉन कीट्स कविता वैभवम’ (इस धरती की कविता रुकेगी नहीं : जॉन कीट्स का काव्य वैभव) के रूप में जॉन कीट्स की कविताओं का काव्यानुवाद प्रस्तुत किया है। के. सदाशिवराव ने ‘काव्य कला’ शीर्षक से स्पेन, जर्मनी, फ्रांस, अफ्रीका, हंगेरी, क्यूबा और रूस की कविताओं का काव्यानुवाद प्रस्तुत किया है। 

उपर्युक्त सर्वेक्षण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2017 में तेलुगु साहित्यकारों की दृष्टि मुख्य रूप से हाशियाकृत समूहों और हाशियाकृत प्रश्नों पर केंद्रित रही। यदि यह कहा जाए कि इस वर्ष सभी विधाएँ हाशिए पर फोकस रहीं तो अनुचित न होगा। इस वर्ष विभिन्न विधाओं की कृतियों में दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक, उपेक्षित श्रमिक, बालक, किसान और पारिस्थितिकी से जुड़े प्रश्न मुख्य विषयवस्तु बनते दिखाई दिए। यह तेलुगु साहित्य की सटीक समकालीनता का ज्वलंत प्रमाण है। 

संदर्भ  
[1] कुसुम धर्मन्ना रचनलु (कुसुम धर्मन्ना की रचनाएँ)/ (सं) मद्दुकूरि, पुट्ल हेमलता और अन्य/ प्रजाशक्ति पब्लिकेशन्स 

[2] चूपुडुवेलु पाडे पाटा (तर्जनी के गीत)/ शिखामणि/ मूल्य : रु. 150/ नवोदया बुक हाउस, हैदराबाद 
दग्धम कथलु (दग्ध कथाएँ)/ बूतम मुत्यालु/ पृष्ठ 116/ मूल्य : रु. 80 

[3] स्वामुलोरु (स्वामीजी)/ मोलकपल्लि कोटेश्वर राव/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 120/ विशालांध्रा पब्लिशिंग हाउस, विजयवाडा 

[4] बकरी/ अनवर/ पृष्ठ 140/ मूल्य रु. 80 

[5] माँ तुझे सलाम/ आर. शशिकला/ पृष्ठ 104/ मूल्य रु. 60 
[6] चिट्टी चिट्टी मिरियालु (छोटी छोटी काली मिर्च)/ पालपर्ती इंद्राणी/ पृष्ठ 80/ मूल्य : रु. 50/ जे. आई. पब्लिकेशन्स 

[7] दोसेडु पल्लीलु (मुट्ठी भर मूँगफली)/ उदयमित्र/ पृष्ठ 175/ मूल्य : रु. 120 

[8] मा पोराटम : भीमदेवरपल्लि मंडल उद्यम चरित्र (हमारा आंदोलन : भीमदेवरपल्लि मंडल के आंदोलन का इतिहास)/ एरुकोंडा नरसिंहस्वामि, डेगल सूरय्या/ पृष्ठ 264/ मूल्य : रु. 200 

[9] नक्सलइट उद्यमम : वेलुगु नीडलु (नक्सलइट आंदोलन : प्रकाश और परछाई)/ के. बालगोपाल/ पृष्ठ 306/ मूल्य : रु. 200 

[10] बतुकम्मा कथला संपुटि (बतुकम्मा की कहानियों का संग्रह)/ कूतुरु रामरेड्डी/ पृष्ठ 180/ मूल्य : रु. 120 

[11] गोलकोंडा पत्रिका कथलु (गोलकोंडा पत्रिका की कहानियाँ)/ (सं) यामिजाल आनंद/ पृष्ठ 252/ मूल्य : रु. 190 

[12] तेलंगाना सांस्कृतिक वैभवम (तेलंगाना संस्कृति का वैभव)/ आचार्य एस.वी. रामाराव/ पृष्ठ 252/ मूल्य : रु. 252 

[13] मरो लदणि (दूसरा लदणि)/ आमगोत वेंकट पवार/ पृष्ठ 149/ मूल्य : रु. 100 

[14] तेलंगाना भाषा, चदुवला तल्लि (तेलंगाना की भाषा, ज्ञान की देवी)/ कालुव मल्लय्या/ पृष्ठ 106/ मूल्य : रु. 100 

[15] अम्मा अज्ञानम (माँ का अज्ञान)/ गुंडु सुब्रह्मण्य दीक्षितुलु/ पृष्ठ 248/ मूल्य : रु. 125 

[16] अनुबंधालु-आत्मीयुलु (सहयोगी-आत्मीयजन)/ गुडिपाटि कनकदुर्गा/ पृष्ठ 251/ मूल्य अंकित नहीं 

[17] मुल्लुगर्रा (काँटों की छड़ी)/ डॉ. वी. आर. रासानी/ पृष्ठ 252/ मूल्य : 170 

[18] विवाहालु-विभेदालु (विवाह-विभेद)/ डॉ. गोडवर्ती सत्यमूर्ति/ पृष्ठ 219/ मूल्य : रु. 150 

[19] क्रासरोड्स/ के. सदाशिव राव/ पृष्ठ 152/ मूल्य : रु. 75 

[20] आत्माफैक्टर/ के. सदाशिव राव/ पृष्ठ 480/ मूल्य : रु. 250 

[21] सहानाभवुतु/ विरिंची/ पृष्ठ 264/ मूल्य : रु. 150 

[22] पडुगु पेकलु (ताना-बाना)/ (सं) मेडिकुर्ति ओबुलेसु, वेल्लंदि श्रीधर और सिंगिशेट्टि श्रीनिवास/ पृष्ठ 568/ मूल्य : रु. 300 

[23] मेडुलमिट्टा कथलु’ (मेडुलमिट्टा की कहानियाँ)/ विंजमूरि मस्तानबाबु/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 50 

[24] नीटिपुट्टा (पानी का बिल)/ सलीम/ पृष्ठ 184/ मूल्य : रु. 150 

[25] हा... हा... कारालु (हाहाकार)/ यासीन/ पृष्ठ 206/ मूल्य : रु. 160 

[26] ‘इंगलीशुकु तल्लि तेलुगु?!’(इंगलिश की जननी तेलुगु?!)/ हास्यब्रह्म शंकरनारायण/ पृष्ठ 186/ मूल्य : रु. 144 

[27] तीपिगुर्तुलु’ (मीठी स्मृतियाँ)/ हास्यब्रह्म शंकरनारायण/ पृष्ठ 200/ मूल्य : रु. 150 

[28] मा कश्मीर यात्रा (हमारी कश्मीर यात्रा)/ मुत्तेवि रवींद्रनाथ/ पृष्ठ 216/ मूल्य : रु. 250 

[29] ऊटुकूरि लक्ष्मीकास्तम्मा/ सी. भवानी देवी/ पृष्ठ : 132/ मूल्य : रु. 50/ साहित्य अकादमी 

[30] मना अक्किनेनी (हमारा अक्किनेनी)/ संजय किशोर/ पृष्ठ 335/ मूल्य : रु. 2000 

[31] एम.एस. नारायण जीवित कथा (एम.एस. नारायण की जीवनी)/ कूनपराजु कुमार/ पृष्ठ 208/ मूल्य : रु. 175 

[32] सिनीमा ओका आल्केमी (सिनेमा एक आल्केमी)/ वेंकट सिद्दारेड्डी/ पृष्ठ 272/ मूल्य : रु. 130 

[33] जी.एस.टी. गाइड/ डॉ. के. किरण कुमार/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 125 

[34] मल्लेचेट्टु चौरस्ता (चमेली का चौराहा)/ ममता वेणु/ पृष्ठ 100/ मूल्य अंकित नहीं 

[35] गायपड्डा गुंडे भाषा (घायल हृदय की भाषा)/ श्रीनागास्त्र/ पृष्ठ 132/ मूल्य : 100 

[36] ऊरु-पेरु : आंध्र प्रदेश (गाँव-नाम : आंध्र प्रदेश)/ वांड्रंगी कोंडल राव/ पृष्ठ 280/ मूल्य : रु. 100 

[37] कवित्वमलो नेनु (कविता में मैं)/ विन्नकोट रविशंकर/ पृष्ठ 275/ मूल्य : रु. 100 

[38] भारतीय कथा भारती/ (अनुवाद) काकानी चक्रपाणि/ पृष्ठ 800/ मूल्य : रु. 400 

[39] चिति (चिता)/ (अनुवाद) के. सुरेश/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 100 

[40] नान्ना तोंदरगा वच्चेई (पापा जल्दी आ जाना)/ कोलूरि सोमशंकर/ पृष्ठ 66/ मूल्य : 80 

[41] वोटमिनि अंगीकरिंचनु : अटलबिहारी वाजपेयी जीवन गाथा (हार नहीं मानूँगा : अटलबिहारी वाजपेयी जीवन गाथा)/ यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद/ पृष्ठ 420/ मूल्य : 399 

[42] ई पुडमि कवित्वम आगदु : जॉन कीट्स कविता वैभवम (इस धरती की कविता रुकेगी नहीं : जॉन कीट्स का काव्य वैभव)/ नगराजु रामस्वामी 

[43] काव्य कला/ के. सदाशिवराव/ पृष्ठ 308/ मूल्य : रु. 150 

रविवार, 14 जुलाई 2019

आचार्य पी. आदेश्वर राव अभिनंदन ग्रंथ

समीक्षित कृति : ॐ आदेश्वराय नमः 
(आचार्य पी.आदेश्वर राव जी का अभिनंदन ग्रंथ)
संपादक : आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद 
प्रकाशक : माया प्रकशन, कानपुर
पृष्ठ : 250, मूल्य : 625 रुपये 

प्रो.पी.आदेश्वर राव (ज. 20 दिसंबर, 1936) दक्षिण भारत के उन वरिष्ठ हिंदी साहित्यकारों में अग्रणी हैं जिन्होंने हिंदी की भाषिक संस्कृति को प्रयाग और वाराणसी जैसे हिंदी के गढ़ में रहकर आत्मसात किया। यही कारण है कि वे सार्वदेशिक और अखिल भारतीय हिंदी के प्रतीक और उन्नायक दोनों है। उन्होंने 1961 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए की उपाधि अर्जित की और 1965 में श्रीवेंकटेश्वर विश्वविद्यालय से पीएचडी। 1964 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान की स्थापना के समय वे चेन्नै में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। बाद में आंध्र विश्वविद्यालय के अतिरिक्त बेल्जियम के स्टेट विश्वविद्यालय में आचार्य के रूप में हिंदी का अध्यापन और शोध निर्देशन किया। 85 वर्षीय आचार्य आदेश्वर राव आज भी निरंतर हिंदी में अनुवाद और सृजनात्मक लेखन में व्यस्त रहते हैं। यदि यह कहा जाए कि अपने मौलिक साहित्य सृजन द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर पहचान बनाने वाले दक्षिण भारत के गिने चुने हिंदीतरभाषी हिंदी साहित्यकारों में उनका नाम पहली पंक्ति में आता है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। सच तो यह है कि अपनी विद्वत्ता और सृजनशीलता के बल पर उन्होंने जो निजी पहचान अर्जित की है, वह ‘हिंदीतर’ जैसे किसी रेजीमेंटेशन की मोहताज नहीं। वे हिंदी, तेलुगु और अंग्रेजी साहित्य का चलता फिरता विश्वकोश हैं और अपनी स्मृति तथा वाग्मिता में अद्वितीय हैं। 

ऐसे अप्रतिम आचार्य और अतुल्य हिंदी-सेवी के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ का शीर्षक "ॐ आदेश्वराय नमः" पूर्णतः सटीक है। विश्व भर में अपनी हिंदी-चेतना के लिए समादृत आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद के संपादकत्व में प्रकाशित इस ग्रंथ से आचार्य आदेश्वर राव के व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक संस्मरणीय, अविस्मरणीय और अछूते पहलुओं का पता चलता है। संपादक का यह कथन अत्यंत विचारणीय है कि कवि के रूप में प्रो.आदेश्वर राव हिंदी के छायावादी कवि चतुष्टय के समकक्ष प्रतिभा से संपन्न है। अंतराल, धार के आरपार और वातायन ये प्रेम सौध के – कवि आदेश्वर राव की छायावादी काव्य साधना के प्रतीक हैं तो तुलनात्मक साहित्य तथा अनुवाद के क्षेत्र में किए गए उनके कार्य उनकी गहन समीक्षादृष्टि और भावप्रवणता के मानदंड हैं। हिंदी जगत ने उनकी इस प्रतिभा और साधना का लोहा माना और खूब स्नेह लुटाया, इसमें भी कोई शक नहीं। साहित्य अकादमी के दो पुरस्कार और गंगाशरण सिंह पुरस्कार सहित आपको इक्कीस राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हैं। 

"ॐ आदेश्वराय नमः (आचार्य पी. आदेश्वर राव का अभिनंदन ग्रंथ)" बड़े आकार का 250 पृष्ठ का ग्रंथ है। इसमें जहाँ एक ओर हिंदी जगत के प्रतिष्ठित विद्वानों और साहित्यकारों ने अभिनंदनीय व्यक्तित्व के प्रति स्नेह और श्रद्धा व्यक्त की है, वहीं दूसरी ओर तटस्थ भाव से उनके आलोचनाकर्म और सृजनधर्म का मूल्यांकन भी किया है। इनमें प्रो.शिवरामी रेड्डी, प्रो.ए.अरविंदाक्षन, प्रो.गिरीश्वर मिश्र, प्रो.ऋषभदेव शर्मा, प्रो.एम.वेंकटेश्वर, प्रो.निर्मला एस. मौर्य और प्रो.एस.ए. सूर्यनारायण वर्मा आदि प्रतिष्ठित नाम सम्मिलित हैं। इनके अलावा डॉ. सी.जयशंकर बाबू से लेकर डॉ. अनुपमा तिवारी तक अपेक्षाकृत नई पीढ़ी के लेखकों ने भी मुक्त भाव से गुरुओं के गुरु आदेश्वर राव के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया है।

इस अभिनंदन ग्रंथ में सम्मिलित आचार्य पी.आदेश्वर राव का आत्मकथ्य ‘मेरी कविताओं की रचना प्रक्रिया’ बार-बार पढ़ने और गुनने योग्य है। उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना है कि हिंदी और तेलुगु के दिग्गज कवि आलूरि बैरागी चौधरी तथा शीर्षस्थ साहित्यकार आचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन्हें भाषा, साहित्य, सृजन और समीक्षा के संस्कार प्रदान किए। ग्रंथ के एक खंड में आदेश्वर राव के कुछ प्रतिनिधि गीत भी उद्धृत किए गए हैं। अगर यह खंड कुछ और बड़ा होता तो कुछ और रसमय हो जाता! अस्तु; फिलहाल इस चर्चा को उनकी इन पंक्तियों के साथ विराम दिया जा सकता है –

"पंख लगा दो प्राणों में।
उड़ जाऊँ मैं मुक्त गगन में,
लेकर तुझ को बाहों में॥ 
भय से मत हो जाओ कंपित
नय से मत हो जाओ पुलकित
मुझ से मत हो जाओ शंकित
विचरेंगे मेघों के वन में।
पंख लगा दो प्राणों में॥