बुधवार, 18 दिसंबर 2013

हवाएँ न जाने कहाँ ले जाएँ !

पिछला महीना हिंदी जगत के लिए पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने जैसे दुःसह अनुभव का महीना रहा. राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव,ओमप्रकाश वाल्मीकि और कैलाश चंद्र भाटिया जैसे दिग्गजों का अचानक सदा के लिए विदा हो जाना हिंदी भाषा और साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है. काल ने सँभलने का अवसर दिए बिना वार पर वार किए और सृजन, समीक्षा, विमर्श तथा भाषा चिंतन के इन विशिष्ट हस्ताक्षरों का अपहरण कर लिया. 

आलोचना क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘व्यास सम्मान’ और ‘भारत भारती’ पुरस्कारों से सम्मानित ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975) आदि के लेखक परमानंद श्रीवास्तव (9 फरवरी 1935-5 नवंबर 2013) का जन्म गोरखपुर जिले के बाँसगाँव में हुआ था. ‘आलोचना’ पत्रिका से वे काफी समय तक जुड़े रहे. पहले नामवर सिंह के साथ सह संपादक के रूप में उन्होंने अपना योगदान दिया और फिर संपादक के रूप में. 

परमानंद श्रीवास्तव ने अपने सृजनात्मक जीवन में काफी कुछ लिखा है. आलोचनात्मक पुस्तकों में ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975), ‘उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा’ (1976), ‘जैनेंद्र के उपन्यास’ (1976), ‘समकालीनता का व्याकरण’ (1980), ‘समकालीन कविता का यथार्थ’ (1988), ‘शब्द और मनुष्य’ (1988), ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’ (1995), ‘कविता का यथार्थ’ (1999), ‘कविता का उत्तर जीवन’ (2005), ‘दूसरा सौंदर्यशास्त्र क्यों’ (2005) उल्लेखनीय हैं. वे आलोचक ही नहीं बल्कि अच्छे कवि भी थे. उनके कविता संग्रहों में ‘उजली हँसी के छोर पर’ (1960), ‘अगली शताब्दी के बारे में’ (1981), ‘चौथा शब्द’ (1993), ‘एक अनायक का वृत्तांत’ (2004), ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (2008) और ‘इस बार सपने में’ (2008) उल्लेखनीय हैं. उनके निबंध संग्रह ‘अँधेरे कुँए से आवाज’ (2005) और ‘सन्नाटे में बारिश’ (2008) तथा 2005 में प्रकाशित उनके साक्षात्कारों की पुस्तक ‘मेरे साक्षात्कार’ उल्लेखनीय हैं. वे अनुवादक भी थे. उन्होंने पाब्लो नेरुदा की 70 कविताओं का अनुवाद भी किया था. इतना ही नहीं साहित्य अकादमी से निराला और जायसी पर उनके दो मोनोग्राफ भी प्रकाशित हो चुके हैं. उनके सफल संपादन में साहित्य अकादमी से ‘समकालीन हिंदी कविता’ (1990) और ‘समकालीन हिंदी आलोचना’ (1998) के संचयन भी प्रकाशित हैं. 

अपनी साहित्यिक यात्रा के बारे में स्पष्ट करते हुए परमानंद श्रीवास्तव ने कहा कि ‘एक लेखक के रूप में मेरी पहली रचना कहानी थी. पत्र शैली में कहानी जो किशोर वय के रागात्मक लगाव से प्रेरित अज्ञात प्रिय को देने के लिए लिखी गई थी. संकोचवश दी नहीं गई. जेब में रखे-रखे सील गई. काश दी होती, तो मैं अपने पहले कहानी संग्रह में शामिल करता. जो नहीं हुआ, अच्छा ही हुआ. एक उम्र का नास्टेल्जिया!’

नए लेखक के लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि उसकी रचना किस पत्रिका में छपी. यदि अपनी रचना के साथ किसी लब्धप्रतिष्ठित हस्ताक्षर की रचना हो तो क्या कहना. ऐसी ही घटना को याद करते हुए परमानंद श्रीवास्तव कहते हैं कि ‘कायदे से मेरी पहली रचना कविता थी, ‘सांझ : तीन चित्र’, एक टटका बिंब शाम का. तब मैं बीए पहले साल में था. ‘नई धारा’ के संपादक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘नई धारा’ में छापी. बगल में प्रतिष्ठित कवि गिरिजाकुमार माथुर की कविता थी. वे बड़े कवि थे - तार सप्तक के कवियों में एक. रूमानी रंग के साथ. जैसे बछड़ा खूँटा तुड़ाकर भागता है, सूरज ऐसे ही औचक ढलता है. यह कस्बाई रंग था. अच्छा लगा. धर्मवीर भारती ने स्वरवेला (आकाशवाणी-इलाहाबाद) में कविता सुनी. सराहा. जगदीश गुप्त ने भी.’

परमानंद श्रीवास्तव कविता के मर्मज्ञ आलोचक थे. उन्होंने ‘कविता का उत्तर जीवन’ शीर्षक पुस्तक की भूमिका में इस प्रकार लिखा है कि ‘देखते देखते कविता को सस्तेपन की ओर, भद्दी तुकबंदियों की ओर और अश्लील मनोरंजन तक सीमित रखने का जो दुष्चक्र सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे पर है, उसे देखते हुए भी कहा जा सकता है कि कविता की जीवनी शक्ति असंदिग्ध है. यही समय है कि ग़ालिब, मीर, दादू, कबीर भी हमारे समकालीन हो सकते हैं.’ वे मानते हैं कि कविता वस्तुतः शब्दों में और शब्दों से लिखी तो जाती है पर साथ ही अपने आसपास वह स्पेस भी छोड़ती चलती है जिसे पाठक अपनी कल्पना और समय के अनुरूप भर सकता है. प्रमाणस्वरूप उनकी एक छोटी कविता ‘हवाएँ न जाने’ देखें – 

“हवाएँ, 
न जाने कहाँ ले जाएँ. 

यह हँसी का छोर उजला 
यह चमक नीली 
कहाँ ले जाए तुम्हारी 
आँख सपनीली 

चमकता आकाश-जल हो 
चाँद प्यारा हो 
फूल-जैसा तन, सुरभि-सा 
मन तुम्हारा हो 

महकते वन हों नदी-जैसी 
चमकती चाँदनी हो 
स्वप्न-डूबे जंगलों में 
गंध डूबी यामिनी हो 

एक अनजानी नियति से 
बँधी जो सारी दिशाएँ 
न जाने 
कहाँ .... ले ... जा .... एँ ?”

समकालीन युवा लेखकों के समक्ष चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं. इस संबंध में परमानंद श्रीवास्तव ने कहा था कि “समकालीन युवा लेखकों को एक लंबा संघर्ष करना होगा. कई पुरस्कार केवल 35 वर्ष तक के युवाओं के लिए हैं. मैंने ‘आलोचना’ के संपादन से जाना कि पूरन चंद्र जोशी, गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे, भालचंद्र नेमाड़े, अशोक केलकर तो ‘आलोचना’ के लेखक हैं. युवा आलोचकों में अपूर्वानंद, अरुण कमल, राजेश जोशी, आशुतोष, रघुवंश मणि, अनिल राय, भृगुनंदन त्रिपाठी, नीलाभ मिश्र ने अचानक लिखना बंद कर दिया. अपवाद हैं - पुरुषोत्तम अग्रवाल जिन्होंने आलोचना से शुरू किया और ‘अकथ कहानी प्रेम’ की जैसी बड़ी कृति लिखी. या विजय कुमार - आलाचेना के लिए अनिवार्य हो गए. साहित्य आसानी की राह नहीं चलता - वह नए समय की चुनौतियों का सामना करता है।“

ऐसे वरिष्ठ आलोचक और कवि 5 नवंबर 2013 को पंचतत्व में विलीन हो गए. उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए शीर्षस्थ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि “मैंने ही उन्हें ‘आलोचना’ का संपादक बनाया. वर्षों तक उन्होंने मेरे साथ काम किया. वह शरीर से लघु मानव थे लेकिन मन और विचार से बड़े थे.”

कवि डॉ. केदारनाथ सिंह ने कहा कि “एक आलोचक के रूप में उन्होंने नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ाने में जो योगदान दिया ऐसा योगदान देने वाला कोई दूसरा आलोचक शायद ही मिले. पूर्वांचल के पिछड़े क्षेत्र से उठकर उन्होंने देश स्तर पर हिंदी साहित्य का सम्मान बढ़ाया।“

कथाकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि ”परमानंद बुनियादी तौर पर एक प्रगतिशील आलोचक थे. हालांकि उन्होंने शुरूआत में कविताएँ लिखी, बाद में उनका मुख्य कार्य आलोचना से रहा.”

आलोचक ए.के.फातमी ने कहा कि “परमानंद श्रीवास्तव से हम लोगों ने वैसे ही सीखा जैसे अकील रिजवी से. वह मानवता, सूफीवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के पोषक थे. वह भारतीय संस्कृति और परंपरा में ढले हुए रचनाकारों की पीढ़ी के प्रतिनिधि थे. उनका जाना प्रगतिशील आंदोलन का बड़ा नुकसान है.”

ऐसे महान साहित्यकार को विनम्र श्रद्धांजलि.