मंगलवार, 15 सितंबर 2015

नहीं रहे उत्कट जीवट के धनी साहित्यकार बालशौरि रेड्डी

हिंदी-तेलुगु का एक सुदृढ़ सेतु गिर गया 

1 जुलाई, 1928 - 15 सितंबर, 2015
यह अत्यंत दुखद समाचार है कि तेलुगु और हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, ‘चंदामामा’ के पूर्व संपादक और बालसाहित्यकार, उत्कट जीवट के धनी बालशौरि रेड्डी हमारे बीच नहीं रहे. 15 सितंबर, 2015 को सुबह लगभग 10 बजे के आस-पास फोन की घंटी बजी और उठाते ही यह दुखद समाचार सुनने को मिला. अपने कानों पर यकीन नहीं कर पाई क्योंकि 8 सितंबर को उनसे फोन पर बात हुई थी तो कह रहे थे - बेटी भोपाल जा रहा हूँ विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने. आने के बाद बात करेंगे. वे मुझे बेटी कहकर संबोधित करते थे 

चूंकि रड्डी जी और मेरे पिताजी अच्छे दोस्त थे. बचपन में तो मैं उनकी गोद में खेली थी. उनकी जिजीविषा इतनी सक्षम थी कि वे दो बार मौत से जीत चुके थे. संकोच करते हुए रड्डी जी के घर फोन किया. उधर से भैया (उनके सुपुत्र) ने फोन उठाया और जब मैंने उनसे यह कहा कि ‘भैया यह मैं क्या सुन रही हूँ?’ तो उन्होंने कहा – ‘ठीक ही सुना है. सुबह 8.30 बजे चाय पी रहे थे और हम सबसे बात करते करते अचानक ही लुढ़क गए.’ बस इतना ही कह पाए. उनकी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी. 

बालशौरि रेड्डी का जन्म आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिला में स्थित गोल्लल गूडूर में 1 जुलाई, 1928 को हुआ था. उनकी मातृभाषा तेलुगु थी. अपनी मातृभाषा के साथ साथ हिंदी के लिए भी वे समर्पित थे. वे हमेशा यही कहा करे थे कि मेरी दो-दो मातृभाषाएँ हैं - तेलुगु और हिंदी. तेलुगु के साथ साथ हिंदी में भी उन्होंने अनेक मौलिक रचनाओं का सृजन किया. बालसाहित्य के साथ साथ उपन्यास, कहानी, नाटक निबंध, समीक्षा, आलोचना आदि विधाओं के माध्यम से उन्होंने दक्षिण भारत की संस्कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का काम किया. मौलिक लेखन के साथ साथ अनुवादों के माध्यम से भी उन्होंने दक्षिण और उत्तर के भेद को मिटाने का प्रयास किया. 

पाश्चात्य देशों की तुलना में भारत में आज भी बालसाहित्य की कमी है. इस क्षेत्र में बालशौरि रेड्डी का प्रयास सराहनीय है. ‘चंदामामा’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बालसाहित्य लेखन को आगे बढ़ाया. उनकी मान्यता थी कि देश का भविष्य बच्चों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर होता है. इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदी के बालपाठकों के लिए ‘तेलुगु की लोक कथाएँ’, ‘आंध्र के महापुरुष’, ‘तेनाली राम के लतीफे’, ‘तेनाली राम के नए लतीफे’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ’, ‘तेनाली राम की हास्य कथाएँ’, आदर्श जीवनियाँ’, ‘आमुक्तमाल्यदा’ जैसी बालोपयोगी रचनाएँ कलात्मक रूप से प्रस्तुत की. बालसाहित्य के संबंध एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि “बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य मनोरंजक हो. उनका हित करने वाला हो. साहित्य का कार्य है मानव मात्र को योग्य नागरिक एवं उत्कृष्ट सामाजिक बनाना, जीवन यात्रा में सही दिशा में बोध कराना. साहित्य मनोरंजन भी करे, साथ ही परोक्ष रूप से उसमें सामाजिक और नैतिक मूल्यों से युक्त मानदंड स्थापित करने की क्षमता भी हो.” उल्लेखनीय है कि उनकी पहली रचना बालसाहित्य की ही रचना थी. 

हिंदी प्रचार-प्रसार में बालशौरि रेड्डी का योगदान उल्लेखनीय है. यदि उन्हें राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत व्यक्ति कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. नेताओं की कथनी और करनी में अंतर देखकर वे चिंतित हो जाते थे. इसीलिए वे कहा करते थे - “हमारे राष्ट्रीय नेता तथा शासन तंत्र से जुड़े हुए लोग मंच पर अथवा हिंदी दिवस, सप्ताह या पखवाड़े के समारोहों में उत्तेजित स्वर में हिंदी के प्रति जोश प्रकट करते हैं तथा प्राचीन सांस्कृतिक वैभव का गुणगान करते थकते नहीं. किंतु व्यावहारिक रूप में कार्यान्वयन का जब प्रश्न उठता है, तब नाना प्रकार की समस्याओं की दुहाई देकर अपने को अधिक उदार होने की, प्रशस्ति पाने का नाटकीय अभिनय करते हैं. हमारे यहाँ कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर दर्शित होता है.” जो लोग यह मानते हैं कि हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाएँ बाधक बनती हैं उनकी धारणा को खंडित करते हुए वे कहा करते थे कि “मातृभाषा कभी भी राष्ट्रभाषा के मार्ग में बाधक नहीं बन सकती. सभी क्षेत्रीय भाषाएँ पुष्प हैं जो राष्ट्र रूपी हार की शोभा बढ़ाते हैं. हिंदी के विकास के पड़ाव में अंतर्धारा के रूप में मातृभाषा कार्य कर सकती है.” 

बालशौरि रड्डी क्रियाशील व्यक्ति थे. वे यह मानते थे कि आराम हराम है. महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और उनके विचारों से वे प्रभावित हुए तथा अपने जीवनकाल में उनके विचारों का पालन करते रहे. उनसे जब भी मुलाकात होते थी तो वे कहा करते थे – मुझे तो 100 साल तक जीने की उम्मीद है. उनकी जिजीविषा को देखकर हम सब आश्चर्य व्यक्त करते थे. हिंदी-तेलुगु का एक सुदृढ़ सेतु गिर गया. आज 13 साल पहले ही उनके सौ साल पूरे हो गए. ऐसे महान व्यक्तिव को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि. 

रविवार, 13 सितंबर 2015

भाषाभिमान जगाने के लिए......

सितंबर का महीना आते ही हर शिक्षण संस्थान, निगम, सरकारी कार्यालय आदि में ‘हिंदी दिवस’ के प्रसंगवश त्योहार का माहौल देखा जा सकता है. 14 सितंबर, 1949 को हिंदी ने भारत की राजभाषा का संवैधानिक पद प्राप्त किया और 14 सितंबर, 1954 को पहला ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया. तब से यह सिलसिला जारी है. उल्लेखनीय है कि भाषा के अभाव में न ही मनुष्य का अस्तित्व होता है और न ही देश का. इस संदर्भ में थोमस डेविड का कथन ध्यान खींचता है. उनका कहना है कि कोई भी देश राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र नहीं कहला सकता. गोपालराव एकबोटे ने अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रभाषा विहीन राष्ट्र’ (हिंदी प्रचार सभा, 1984) में इसी बात पर जोर दिया है. इस वर्ष यह महीना इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो गया है कि 10 से 12 सितम्बर 2015 को भोपाल में 10वाँ विश्व हिंदी सम्मलेन संपन्न हुआ.

भाषा महज आदान-प्रदान या अभिव्यक्ति का साधन नहीं है अपितु वह मनुष्य की अस्मिता है. हिंदी एक ऐसी भाषा है जो एक साथ अनेक भूमिकाएँ निभा सकती है और निभा भी रही है. अर्थात जनभाषा, संपर्क भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा की माध्यम भाषा, प्रौद्योगिकी की भाषा, बाजार-दोस्त भाषा, मीडिया भाषा आदि. सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में हिंदी की भूमिका निर्विवाद है. 

स्मरणीय है कि विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा 1973 में की गई थी और 10-12 जनवरी, 1975 में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा' के तत्वाधान में नागपुर में किया गया. इस सम्मलेन का बोधवाक्य था 'वसुधैव कुटुंबकम्'. द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन मोरिशस में 28-30 अगस्त, 1976 में संपन्न हुआ. तदुपरांत नई दिल्ली (तीसरा सम्मेलन, 28-30 अक्टूबर, 1983), मोरिशस (चौथा सम्मलेन, 2-4 दिसंबर, 1993), त्रिनिडाड व टोबेगो (पांचवा सम्मेलन, 4-8 अप्रैल, 1996), लंदन (छठा सम्मेलन, 14-18 सितंबर, 1999), सूरीनाम (सातवाँ सम्मेलन, 6-9 जून, 2003), न्यूयॉर्क (आठवाँ सम्मेलन, 13-15 जुलाई, 2007), जोहानसबर्ग (नौवाँ सम्मेलन, 22-24 सितंबर, 2012) और भोपाल (दसवाँ सम्मेलन, 10-12 सितंबर, 2015) आदि देशों में विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन किया गया.

सम्मेलन का मूल उद्देश्य इस बात पर विचार विमर्श करना था कि ‘हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश पाकर विश्व भाषा के रूप में समस्त मानव जाति की सेवा की ओर अग्रसर हो. साथ ही यह किस प्रकार भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र 'वसुधैव कुटुंबकम' विश्व के समक्ष प्रस्तुत करके 'एक विश्व एक मानव परिवार' की भावना का संचार करे.' नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए अब समुचित और समयबद्ध कार्रवाई की जाएगी. 

हिंदी के वैश्विक विस्तार हेतु विचारणीय बिंदुओं के संबंध में आज सोशल मीडिया के माध्यम से काफी कुछ कहा जा रहा है. यहाँ 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ (हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार का मंच) एक ऐसा मंच सक्रिय है जिसके माध्यम से आम जनता हिंदी भाषा के संबंध में अपने विचार व्यक्त कर पा रही है. हिंदी दिवस और विश्व हिंदी सम्मलेन के हवाले से यहाँ विभिन्न लोगों द्वारा सुझाए गए कुछ बिंदु पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत हैं – 

  • अनेक कंप्यूटर-साधित सॉफ्टवेयर बनाए जाएँ जिससे हिंदी का प्रचलन और भी आसान हो सके. 
  • विभिन्न संगठनों द्वारा विकसित भाषा-उपकरण न सिर्फ सरकारी दफ्तरों तक सीमित हो अपितु उसे जन-मानस के लिए सुलभ कराया जाए. 
  • हिंदी सिर्फ एक सरकारी भाषा बन के न रह जाए अपितु लोग उसे सहर्ष स्वीकारें. अहिंदी भाषियों को इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए कि वो हिंदी को सहर्ष ही अपने आप स्वीकारें.
  • इंडिया हटाओ ‘भारत’ बनाओ. 
  • भारत सरकार के सभी कार्यालयों, मंत्रालयों, विभागों आदि का कामकाज प्रथम राजभाषा हिंदी में नोट शीट से ले कर सभी विधेयक तक बिना विलम्ब प्रारम्भ कर दिया जाय. 
  • न्याय के क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय तक अपील तथा बहस की सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध करा दी जाए. 
  • सभी कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बिना विलंब बनाने के समय आ गया है. 
  • देश में देवनागरी लिपि के लिये अंग्रेजी भाषा की लिपि का उपयोग तेज़ी से बढ़ाया जा रहा है. यह हिंदी की लिपि देवनागरी के अस्तित्व पर संकट पैदा कर रहा है. इसे हतोत्साहित करना चाहिए. 
अंततः इतना ही कि अब समय आ गया है कि हिंदी को उसका सही सम्मानपूर्ण वैश्विक स्थान प्रदान कराने के लिए सभी भारतवासियों को नवीनतम भाषा प्रौद्योगिकी से सुसज्जित होकर भाषाभिमान का परिचय देना चाहिए.