गुरुवार, 19 नवंबर 2009

Life in Economic Terms !

Life is the two Sector Economy !

Problems are the Traditional Sector

Solutions are the Organised Sector

Births are the Production

Deaths are the Consumption

Sorrows are the Distribution

Violence is the Exchange

Characters are the Enterpreneurs

Activities are the Labour

Happiness is the Hoarding

OVERALL LIFE IS FULL OF TWISTS AND TURNS.

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

कभी ज़मीन कभी आसमान की बातें : आठ नई किताबें



सलाखों के पीछे, कविता संग्रह / डॉ.अनंत काबरा / क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी, 28,शापिंग कॉम्प्लेक्स, कर्मपुरा, नई दिल्ली - 110 015 / 2009/ रु.350/- / 154 पृष्‍ठ.
अनंत काबरा ने इस कविता संग्रह में इस जीवन दर्शन को काव्यात्मक अभिव्यक्‍ति प्रदान की है कि अपराधी ही नहीं इस जगत में निरपराधी व्यक्‍ति भी किस-न-किसी प्रकार का कारावास भोग रहा है. इस कारागार की सलाखें मन की अपूर्ण इच्छाएँ, देह की आकांक्षाएँ, घुटती साँसें और बोझिल पलों से निर्मित हैं. 135 कविताओं के संकलन में पर्याप्‍त पठनीयता है. रचनाकार ने गद्‍यात्मकता, सूक्‍ति सृजन और परिभाषा गठन की तकनीक का अच्छा प्रयोग किया है. एक उदाहरण - "हम पेड़ को नहीं / तने को काटते हैं / इस आशा के साथ / नयी टहनियों पर / कोंपल फूटते ही / नया तना बन जाएगा / और वह अपनी दिशा का निर्धारण कर लेगा."


"कछु", ‘ना कहो-सब...है ’?, कविता संग्रह / डॉ.अनंत काबरा / क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी, 28,शापिंग कॉम्प्लेक्स, कर्मपुरा, नई दिल्ली - 110 015 / 2009/ रु.400/- / 170 पृष्‍ठ.
अनंत काबरा के इस नवीनतम संग्रह में 144 कविताएँ हैं जो समसामयिक प्रश्‍नों को संबोधित हैं. सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों के प्रति असंतोष और आक्रोश यहाँ मुखर है. कवि ने अराजकता पर व्यंग्य किया है, स्त्री प्रश्‍नों पर चर्चा की है, संपन्नता के अहंकार पर चोट की है और आज के आदमी के दोगले आचरण पर व्यंग्य किया है. संस्कृति के प्रति भी कवि की चिंता द्रष्‍टव्य है - "ढहने के कगार पर खड़े हैं / संस्कृति की संपदा / विरासत की धरोहर / सामर्थ्य के ऐतिहासिक गढ़ ! / हमारी शालीन भव्यता / पंथ से बड़े होते संप्रदाय / तैयार नहीं है झुकने को."


अवधान(म) / डॉ.म.लक्ष्मणाचार्य / अनुपमा प्रिंटर्स, शांति नगर, हैदराबाद / 2009 (प्रथम आवृत्ति) / रु.120/- / 104 पृष्‍ठ.
विश्‍व की समस्त भाषाओं में केवल तेलुगु भाषा ही गर्वपूर्वक यह कह सकती है कि मेरे पास अवधान जैसी अद्‍भुत एवं अनुपम साहित्यिक एवं साहित्येतर प्रक्रिया है. डॉ.म.लक्ष्मणाचार्य ने इस प्रक्रिया के अर्थ, स्वरूप, विकास और अंशों पर अच्छा प्रकाश डाला है. धारणेतर अंशों के अंतर्गत शास्त्रार्थ, चित्रकथा, छंदोभाषण, कीर्तन, आशुकविता आदि की भी चर्चा की है. घंटागणन, नाम समीकरण, पुष्‍पगणन, राग समीकरण और यांत्रिक गणित पर रोचक ढंग से प्रकाश डाला है. उपयोगी और पठनीय पुस्तक.


अलीगढ़ का क़ैदी / पुनत्तिल कुंज़ु अब्दुल्ला / अनुवाद : संतोष अलेक्‍स / साहित्य प्रतिष्‍ठान, ए-2 रामैया रेसिडेंसी, कृष्‍णा कॉलेज के आगे, मद्‍दिलिपालम, विशाखपट्टणम - 22 / 2009 / रु. 50/- / 47 पृष्‍ठ.
कवि और बहुभाषा अनुवादक संतोष अलेक्स ने कुंज़ु अब्दुल्ला के मलयालम लघु उपन्यास को हिंदी में प्रस्तुत किया है. अलीगढ़ के बहाने इस उपन्यास में एक ऐसे नारकीय परिवेश को साकार किया गया है जहाँ अनिश्‍चितता और अपराध का भयावह अंधेरा है. संबंधों के तड़ककर टूटने तथा गरीबी के इज्जत से बड़ी होने के दृश्‍य मार्मिक बन पड़े हैं. अच्छा अनुवाद.


एहसास / कविता संग्रह / मीना खोंड / गीता प्रकाशन, 4-2-771/ए, प्रथम तल, रामकोट, हैदराबाद - 500 001 / 2009 / रु. 75/- / 80 पृष्‍ठ.
मराठी भाषी मीना खोंड की 64 कविताएँ उनकी रचनाधर्मिता को प्रमाणित करती हैं. वाक्य रचना और वर्तनी की त्रुटियाँ न होतीं तो ये कविताएँ कुछ और पठनीय हो सकती थीं. विवरणात्मकता और पारंपरिकता के बावजूद कुछ कविताओं में आकर्षक बिंब निर्मित हुए हैं. कहीं आत्मालाप और कहीं वार्तालाप शैली का अच्छा प्रयोग है. कुछ स्थलों पर स्त्री जीवन की यातना को तीखी अभिव्यक्‍ति मिली है - "क्या पसंद, क्या नापसंद, बेमतलबी सवाल रहे. / वो कहते रहे / हम सुनते रहे. / अपने लिए, अपने मर्जी से कैसे जीते ? / आखिर औरत हूँ. / कन्यादान में जो मिली हूँ. / स्वतंत्र देश की गुलाम नागरिक हूँ."


ज्योति कलश / ज्योति नारायण / हिंदी अकादमी, हैदराबाद; प्लॉट नं. 10, रोड नं.6, समतापुरी कॉलोनी, न्यू नागोल के पास, हैदराबाद -500 035 / 2008 / रु.125/- / 74 पृष्‍ठ.
ज्योति नारायण के ‘ज्योति कलश ’ में दो तरह की रचनाएँ हैं - गीत और गज़ल. पारंपरिक सरस्वती वंदना से आरंभ होनेवाले इस संकलन में कवयित्री ने इंकलाब का नारा भी लगाया है - "जो भी मिल रहा गले, कर रहा वो वार है. / आज इंकलाब को, किसका इंतजार है." कई गीत उद्‍बोधनात्मक हैं. आत्मपरक अधिक हैं - मैं तुम्हें ही गुनगुनाऊँ / मैं कविता बन जाऊँ / प्रेम पथ पर बढ़ चली मैं / मैं थिरकने लगी प्रेम में / तुम भी गाओ, मैं भी गाऊँ / तेरी काया की मैं छाया. प्रकृति गीत भी कई हैं. गज़लें छोटे और बड़े दोनों प्रकार के छंदों में हैं. गीतों में तत्समप्रधान कवियित्री गज़लों में उर्दूदाँ हो जाती हैं - "कभी ज़मीन, कभी आसमान की बातें / बहुत करते हैं वो दुनियाँ जहान की बातें."


व्यक्‍तित्‍व और कवित्व / कन्हैयालाल शर्मा / मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, सुल्तान बाजार, हैदराबाद - 500 095 / 2006 / रु.150/- /110 पृष्‍ठ.
एक अलग तरह की किताब. कवि और कलाकार कन्हैयालाल शर्मा ने गायन, वादन, अभिनय, चित्रकला, खेल जगत, अर्थव्यवस्था और राजनीति आदि क्षेत्रों से जुडे़ और वहाँ चमके व्यक्‍तित्वों को अपने कवित्व में ढाला है और सचित्र इस किताब में जिल्दबंद किया है. प्रशंसा करना, प्रशस्ति लिखना और वह भी इतने लोगों की एक साथ - कुछ आसान काम तो नहीं रहा होगा.


अंग्रेज़ी-हिंदी कार्यालयीन पत्राचार : व्यतिरेकी विश्‍लेषण / डॉ.वी.एल.नरसिंहम शिवकोटि / मिलिंद प्रकाशन,4-3-178/2, कंदास्वामी बाग, सुल्तान बाजार, हैदराबाद - 500 095 / 2009 / रु.150/- /94 पृष्‍ठ.
यह पुस्तक कार्यालयीन पत्राचार के तुलनात्मक और व्यतिरेकी अध्ययन को समर्पित है. अर्थात्‌ अनुवाद समीक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है जो लघु शोध प्रबंध के रूप में है. शोधकर्ता ने पर्याप्‍त सामग्री का संकलन किया है और विश्‍लेषण के लिए काफी व्यापक आधार ग्रहण किया है. मशीनी अनुवाद संबंधी अध्याय विशेष रूप से पठनीय है.
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रविवार, 15 नवंबर 2009

My Strange Thoughts


My blood tingled
and my heart ached
with a strange, exquiste pain.

I was in constant expectation and
fear of something, marvelling at everything,
ready for anything.

My imagination played and hovered
around the same set of ideas all the time,
Like swifts hovering over
a Belfry at Dawn.

I loved walking at dawn
watching the graceful bambles
growing all around
dropping dew drops to the ground.

The river running to the sea
conjured my strange thoughts,
And its song filled my Heart
with strange foreboding;

The sound of the waves
striking the boulders
lingered in my ears.

I fell into reveries, grew melancholy,
sometimes even shed tears;
But, through all these tears and
sudden fits of sadness...

... The sound of the waves
striking the boulders
lingered in my ears.

Whether occasioned by some melodious line, or
by the beauty of the evening,
The joyous sensation of youthful life,
turbulent and seething,
Made itself felt, like the grass sending up its blades
through the Earth in the Spring.

Yellow blossoms hung high from the lower branches
of the tree in small lifeless clusters
with every branch is sweet scent
forced its way deep into my lungs.

The distance beyond the river,
to the very horizon
was all shimmering and glowing.

An occasional puff of wind
would break up the shimmer,
Making it all the more intense
a radiant haze billowed above the Earth.

यही है महानगर !

अजीब है यह जिंदगी का सफर
नहीं है हमें मंजिल की ख़बर
चारों ओर हैं कंक्रीट का जंगल
वाह रे भाई, क्या यही है महानगर !

लाखों-करोड़ों गगनचुंबी अट्टालिकाएँ
मगर नहीं दीखता है घर
इस तिकड़मी संसार में
बिछे हैं काँटे हर कदम पर
डगर डगर पर

दुनिया की भीड़ में लाखों अजीज हैं
ढूँढे बहुत पर कोई अपना नहीं मिला
दोस्ती करने आख़िर जाएँ हम कहाँ
पत्थरों के बने आदमी हैं यहाँ

सभी आसमान को छूना चाहते हैं
उन्मुक्त गगन में पंछी बन उड़ना चाहते हैं
मगर मंजिल तक पहुँचने से पहले ही भटक जाते हैं
भटकते भटकते पता नहीं कहाँ पहुँच जाते हैं

शहर की इस भीड़ में हम खो गए ऐसे
रात दिन नयनों से अश्रु बहते रहे
कैसे बयाँ करूँ अपने इस दर्द को
अपनों के बीच ही अजनबी बनके रहे

झोंपड़ी में अंधेरे का राज्य है
महलों में रोशनी का साम्राज्य है
मेहनतकश भूखों मरते हैं
शासक वर्ग ताज पे मोती जड़ते हैं

खून पसीना बहाने के बाद भी
गरीब की रीढ़ की हड्डी जुड़ी नहीं
माटी भी अपना रंग बदलने लगी
भूख से पेट की अंतडियां कराहने लगीं

टूटते संबंधों के इस दौर में
आदमी बँट गया है टुकड़ों में / खेमों में
टूटे दिलों को जोड़कर
ऊँच-नीच की दीवार तोड़कर
अपना तकदीर ख़ुद बनाएँगे
एक नया इतिहास रचेंगे

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

प्रलय तांडव !

धरती कराह रही थी
बूँद बूँद के लिए तरस रही थी
उसकी छाती फट गई थी
और वह बंजर बन गई थी

सभी वैज्ञानिक मिल गए
मेघमंथन करने के लिए
पंडित पादरी जुट गए
वरुण देव को प्रसन्न करने के लिए

पता नहीं भयभीत वरुण देव किस कोने में जा बैठे
बच्चे बूढे सभी पानी के लिए तरस गए
नेता भी एक जुट हो गए
अकाल की घोषणा करने के लिए

इतने में अचानक
आकाश चमक उठा
सिंहगर्जन सुनाई दिया
बिजली कड़कने लगी
आसमान को चीरकर
बारिश की एक बूँद सहसा बरस पड़ी
प्यारी वसुधा पुलकित हुई

लेकिन यह कया! क्षण में ही दृश्य बदल गया !
सबकी खुशी मटियामेट हो गई
आँख झपकते ही प्रकृति प्रलय तांडव करने लगी
मेरा प्यारा कर्नूल भी जल प्रपात में डूब गया

घुप्प अँधेरा
कड़ाके की सर्दी
चारों ओर अथाह पानी
प्राण को हथेली पर धरे
खड़े हैं प्राणी

एक ही क्षण में हम बेघर हो गए
अपनों से दूर होकर अनाथ हो गए
खाने के लिए अन्न नहीं
तन ढकने के लिए कपड़ा नहीं
सोने के लिए मकान नहीं
रहने का ठिकाना नहीं

जीवन और मृत्यु के बीच
तड़प रही है मेरी आत्मा
हे वरुण देवता ! अब तो शांत हो जा
इस महातांडव को रोककर
इस अवनी पर अमन कायम कर

आशियाना

मैंने कुछ कहा
उसने कुछ सुना
दोनों ने एक दूसरे को
कुछ कहते सुना

एक - दूसरे के साथ
जीने मरने की कसमें खाई
एक - दूसरे के बीच
फासले मिटा दिए

मैंने तो अपना सब कुछ
उसके नाम कर दिया
उसीको अपना कर्ता धर्ता मान लिया

उसके लिए दुनिया को पीछे छोड़ दिया
अपना घर - परिवार, भाई - बहन,
रिश्ते - नाते और अपनों का अपनापन
लेकिन उसने मुझे क्या दिया !

दिन बीतते गए और
मैं सपनों में खो गई
नींद टूटी तो
एक तरफ कुँआ दूसरी तरफ खाई

उसके लिए मैंने सारी दुनिया से टक्कर ली
लेकिन उसने मुझे बैसाखियों के सहारे छोड़ दिया

हवा में हिलता रहा मेरा घोंसला
बिखर गया मेरा सपना
लेकिन हिम्मत नहीं हारी
मैं बनूँगी, कुछ करके दिखाऊँगी...
एक एक तिनका जोड़कर
फिर अपना आशियाना सजाऊँगी
संवारूंगी

माँ !

माँ !
नौ महीने कोख में अपने रक्त मांस से सींचकर
मुझे जन्म दिया है
और अपनी छाती को चीरकर
दूध पिलाया है

रात भर अपलक जागती रही
हर पल हर लम्हा मेरे बारे में सोचती रही

ख़ुद तो कष्ट झेलती रही
कंटीली राह पर चलती रही
पर मेरी खुशी के लिए
भगवान से हर पल याचना करती रही

अपना खून पसीना बहाकर
एक एक तिनका जोड़कर
मुझे पढ़ाया लिखाया
और काबिल बनाया

आज वह मेरी राह देख रही है
मेरा माथा चूमने के लिए तरस रही है
आख़िरी बार मुझसे बात करने के लिए
आँखों में सपने संजोए है

लेकिन
मैं सात समंदर पार बैठी हूँ
होकर लाचार
मन तो पहुँच चुका है तेरे पास
सारे बंधन तोड़कर
पर यह तन लाचार बन
बैठा है लेकर आस

हे माँ !
नहीं चुका पाऊँगी मैं
दूध का कर्ज
पर माँ मैं तो हूँ अंश तुम्हारा
रग रग में है संस्कार तुम्हारा

सोमवार, 2 नवंबर 2009

आज की हिंदी कविता में पर्यावरण

"हैलो, मनुष्य,
मैं आकाश हूँ.
कल सृजन था, निर्माण था,
आज प्रलय हूँ, विनाश हूँ.

मेरी छाती में जो छेद हो गए हैं काले काले,
ये तुम्हारे भालों के घाव हैं,
ये कभी नहीं भरनेवाले."
(मैं आकाश बोल रहा हूँ, ऋषभ देव शर्मा, ताकि सनद रहे, पृ. ५२)


इक्कीसवीं शती की प्रमुख चिंताओं में से एक है पर्यावरण संरक्षण की चिंता. पर्यावरण अर्थात्‌ हमारे आस-पास का वातावरण. वात्‌ (हवा) का आवरण. यह सर्वविदित है कि हवा विभिन्न गैसों का मिश्रण है जिसमें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा सल्फर-डाई-ऑक्साइड प्रमुख हैं. गुरुत्वाकर्षण के कारण भारी गैसें पृथ्वी की सतह पर रहती हैं और हल्की गैसें ऊपरी वातावरण में. गुरुत्वाकर्षण के साथ साथ ताप एवं सघनता के कारण भी गैसों की परतें बनती हैं. वस्तुतः वायुमंडल में 79% नाइट्रोजन, 20% ऑक्सीजन, 0.3% कार्बन-डाई-ऑक्साइड और शेष में पानी तथा अन्य गैसें होती हैं. इनकी मात्रा कम या ज्यादा होने से पर्यावरण का संतुलन परिवर्तित होता है.


पर्यावरण में उपस्थित ऑक्सीजन गैस प्राणदायक है. प्राणी श्‍वास द्वारा ऑक्सीजन (प्राणवायु) अंदर लेते हैं और कार्बन-डाई-ऑक्साइड को बाहर निकालते हैं. इस कार्बन-डाई-ऑक्साइड को पेड़-पौधे भोजन बनाने के लिए उपयोग करते हैं और ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं. रात में सूर्य की रोशनी न होने के कारण पेड़-पौधे कार्बन-डाई-ऑक्साइड बाहर निकालते हैं. पर्यावरण में वायु के साथ साथ जल, पृथ्वी, जीव जंतु, वनस्पति तथा अन्य प्राकृतिक संसाधान भी शामिल हैं. ये सब मिलकर संतुलित पर्यावरण की रचना करते हैं.


प्रकृति की रमणीयता हर एक को अपनी ओर आकर्षित करती है. सहृदय साहित्यकार भी पर्यावरण के प्रति सहज रूप से आकर्षित होते हैं. अतः आदिकालीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में पर्यावरण / प्रकृति चित्रण दिखाई देता है. आज की कविता में पर्यावरण के रमणीय दृश्‍यों के साथ साथ प्राकृतिक विपदाओं के भी हृदय विदारक चित्र अंकित हैं.


प्रकृति मानव जीवन का अटूट अंग है. प्रकृति से वह सब कुछ प्राप्त होता है जो आरामदायक हैं. अतः कवयित्री कविता वाचक्नवी कहती है कि "प्रकृति / सर्वस्व सौंपती / लुटाती - रूप रंग / पूरती है चौक मानो / फैलाती भुजाएँ स्वागती." (पर्यटन - प्रेम / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ.146)


वन विभिन्न जातियों और प्रजातियों के वृक्षों, वनस्पतियों तथा जीव जंतुओं का समूह है. वन मूल रूप से सूर्य ताप, आँधी और सॉइल इरोशन को रोकते हैं. वनों में उगे वृक्ष और वनस्पतियाँ निरंतर ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जो समस्त जीवधारियों के लिए हितकर है. हरे भरे वनों को देखकर सबका मन पुलकित होता है - "जंगल पूरा / उग आया है / बरसों - बरस / तपी / माटी पर / और मरुत्‌ में / भीगा-भीगा / गीलापन है / सजी सलोनी / मही हुमड़कर / छाया के आँचल / ढकती है / और हरित - हृदय / पलकों की पांखों पर / प्रतिपल / कण - कण का विस्तार... / विविध - विध / माप रहा है / ... गंध गिलहरी / गलबहियाँ / गुल्मों को डाले." (आषाढ़ / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 53)


सतपुडा़ की पर्वत श्रेणियाँ और वन्य प्राणियों से भरपूर जंगल की रमणीयता से मुग्ध होकर आर.के.पालीवाल कहते हैं कि "सतपुडा़ की, बूढ़ी पर्वत शृंखलाओं की / तलहटी में स्थित मड़ई का जंगल / सिर्फ़ निवास स्थान नहीं हैं वन्य जीवों का / इस जंगल की रमणीयता / क़लम बयानी के सीमित संशोधनों के बाहर है. /.../ तवा नदी की सहायक / एक सदानीरा नदी के तट से होती है / मड़ई के खूबसूरत जंगल की शुरुआत / यहाँ पूरब की दो छोटी पहाड़ियों के / ऐन बीच से उगता है सूरज / मानों उग रहा है / किसी षोडशी के उन्न्त उरोजों के बीच" (मड़ई का जंगल / आर.के.पालीवाल / समकालीन भारतीय साहित्य / जुलाई - अगस्त 2008 / पृ. 155)


पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में वृक्षों और वनस्पतियों का महत्वपूर्ण योगदान है. इसके कारण ही हमारे देश की संस्कृति को ‘अरण्य संस्कृति ’ के नाम से पुकारा जाता था. विकास के नाम पर मनुष्य पर्यावरण से छेड़छाड़ कर रहा है. उसका संतुलन बिगाड़ रहा है. वनों की रक्षा करने के बजाय वह उनका विनाश कर रहा है. अवैध रूप से वृक्षों को काटकर वन संपदा को लूट रहा है. इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक विपदाएँ घटित हो रही हैं. कवयित्री कविता वाचक्नवी ने धरती की इस पीड़ा एवं वेदना को अपनी कविता में इस तरह उकेरा है - "मेरे हृदय की कोमलता को / अपने क्रूर हाथों से / बेध कर / ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया/उखाड़ कर प्राणवाही पेड़-पौधे/बो दिए धुआँ उगलते कल - कारखाने / उत्पादन के सामान सजाए / मेरे पोर-पोर को बींध कर / स्‍तंभ गाड़े / विद्‍युत्वाही तारों के / जलवाही धाराओं को बाँध दिया. / तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावडों, / मशीनों, आरियों, बुलडोज़रों से / कँपती थरथराती रही मैं. / तुम्हारे घरों की नींव / मेरी बाहों पर थी / अपने घर के मान में / सरो-सामान में / भूल गए तुम. / ... मैं थोड़ा हिली / तो लो / भरभराकर गिर गए / तुम्हारे घर. / फटा तो हृदय / मेरा ही." (भूकंप / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 119)


उद्‍योगीकरण के फलस्वरूप पर्यावरण में हरित गैस (Green gas) बढ़ रही है और पृथ्वी हरित गृह (Green House) के रूप में परिवर्तित हो रही है. कार्बन-डाई-ऑक्साइड, फ्रिओन, नाइट्रोजन ऑक्साइअड और सल्फर-डाई-ऑक्साइड जैसी हरित गैसों की मात्रा दिन ब दिन बढ़ रही है जिसके कारण पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ रहा है. ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होने के कारण ओजोन परत (Ozone Layer) में छेद हो रहे हैं. अतः दिन ब दिन तापक्रम बढ़ रहा है. वस्तुतः ओजोन परत सूर्य से आनेवाली 90% घातक अल्ट्रा वॉयलेट किरणों (UV Rays) को सोखने का काम करती है. यह परत वातावरण का कवच है. मनुष्य इसी कवच को नुकसान पहुँचाकर अनेक चर्म रोगों का शिकार हो रहा है. अतः ऋषभ देव शर्मा आकाश की वेदना को उजागर करते हैं - "हैलो, मनुष्य, / मैं आकाश हूँ. / कल तक रस था. आनंद था, / आज घुटन हूँ, संत्रास हूँ. / रस का जो स्रोत था / जिससे धरा थी रसवन्ती / उसमें तो घोल दिया तुमने / रेडियम और यूरेनियम, / जिस औंधे कुएँ में से / फूट पड़ता था / आनंद का पातालतोड़ फव्वारा, / काट डाला तुमने उसकी जड़ों को / रेडियोधर्मी विकिरणों के फावड़ों और नाभिकीया ऊर्जा की पलकटी से." (मैं आकाश बोल रहा हूँ / ऋषभ देव शर्मा /ताकि सनद रहे / पृ. ५७)
प्रेमशंकर मिश्र भी कहते हैं कि "ताप के ताए दिन हैं / तोल तोल मुख खोलो मैना / बड़े कठिन पल-छिन हैं / ताप के ताए दिन हैं. / आँगन की गौरैया / चुप है / चुप है / पिंजरे की ललमुनिया / हर घर के चौबारे / चुप हैं / चुप है / जन अलाव की दुनिया. / दुर्बल साँसों की धड़कन है / बदले सूरज के दुर्दिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं" (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर -2009/पृ. 7)

वैश्‍विक गर्मी (Global Warming) के कारण अनेक जलस्रोत सूख रहे हैं. पेयजल और प्रकृति के लिए आवश्‍यक जल की कमी के कारण कृषि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संगठन विश्‍व वन्य जीव कोश द्वारा जारी तथ्यों के अनुसार "ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हिमाचल में स्थित हिमनदियों का दुनिया भर में सबसे तेजी से क्षरण हो रहा है. इसके परिणामस्वरूप हिमनदियों से जल प्राप्त करनेवाली नदियाँ सूखने लगेंगी और भारतीय उपमहाद्वीप में जल संकट उत्पन्न होने की आशंका उत्पन्न होगी." अतः कविता वाचक्नवी उद्वेलित होकर पूछती हैं कि "यह धरती / कितना बोएगी / अपने भीतर / बीज तुम्हारे / बिना खाद पानी रखाव के ? / सिर पर सम्मुख / जलता सूरज / भभक रहा है / लपटों में घिर देह बचाती / पृथ्वी का हरियाला आंचल / झुलस गया है / चीत्कार पर नहीं करेगी / इसे विधाता ने रच डाला था / सहने को / भला-बुरा सब / खेल-खेल में अनायास ही, / केवल सब को / सब देने को." (धरती / कविता वाचक्‍नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 139)


घटते हुए वन, बढ़ती हुई जनसंख्या, उद्‍योगीकरण, नगरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण प्रदूषण तेजी़ से बढ़ रहा है. जल और वायु के साथ साथ मिट्टी भी प्रदूषित हो गई है. "बहुत-सी चीजें थीं वहाँ / मिट्टी के ढेर के नीचे, दबीं / वर्षों से, समय की परतों को / हटाने पर देखा - / महानगरीय कचरे में / पंच महाभूतों के ऐसे-ऐसे सम्मिश्रण / नए सभ्य उत्पाद-रासायनिक / और पॉलिथीन / धरती पचा नहीं पाई / इस बार. / ... / इतने वर्षों बाद भी / असमंजस, असमर्थ, अपमान में / अपना धरती होने का धर्म / निभा नहीं पाई... / मनुष्य जीवन के आधुनिक / आयामों के सामने / लज्जित थी धरती / हाँ ! इतना जरूर हुआ / कि उस ठिठकी हुई धरती पर / मिट्टी के ढेर पर / अब कुछ कोमल कोंपलें / सगर्व लहरा रहीं थीं." (कूड़ा कचरा और कोंपलें / बलदेव वंशी /समकालीन भारतीय साहित्य /जुलाई-अगस्त 2008/ पृ. 147)


प्रदूषण इतना बढ़ रहा है कि "सरवर के अधिवासी पंछी / जाने कहाँ उड़े जाते हैं / मंजिलवाली पगडंडी के / रास्ते / स्वयं मुड़े जाते हैं / कदम -कदम / पतझड़ में छिपकर / विष काँटे / बिखरे अनगिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं," (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर-2009 / पृ. 07)


चारों ओर व्याप्त प्रदूषण के कारण पशु-पक्षियों की अनेक जातियों एवं प्रजातियों का अस्तित्व मिट चुका है और मिटने की खतरा भी मंडरा रहा है. चिड़ियों की चहचहाट से तथा गौरैयों के अंडों को छूने से जो रोमांच का अनुभव होता है उससे शायद आनेवाली पीढ़ियाँ वंचित रह जाएँगी. इसलिए राजेंद्र मागदेव कहते हैं कि "हमने गौरैयों के घोंसले / रोशनदानों में देखे थे / हमने गौरैयों के घोंसले / लकड़ी की पुरानी अलमारी पर देखे थे / हमने वहाँ गौरैयों के अंडे / पंखों, तिनकों और सुतलियों के बीच रखे देखे थे / हमने अंडों को चुपचाप छूकर देखा था / हम छूते ही अजीब रोमांच से भर गए थे / वह रोमांच, आनेवाली पीढ़ियों को / किस तरह से समझाएँगे हम?" (गौरैया नहीं आती अब / राजेंद्र मागदेव /समकालीन भारतीय साहित्य / मई-जून 2009 / पृ.39)


राजनेता प्रदूषण नियंत्रण और वन संरक्षण की बातें करते हैं. उनकी बातें महज भाषण तक ही सीमित हैं...........
"जिसने भी लिया हो मुझसे बदला / वह उसे दे जाए / वनमंत्री ने कहा उत्सव की ठंड में / जंगल जल रहा है उत्तराखंड में / जनता नहीं समझती / कितना कठिन है इस जाड़े में / राज चलाना / आँकडेवाली जनता, समस्यावाली जनता / और स्थानीय जनता तो क्या चीज है / अब तो और भी महान हो गई है / भारतीय जनता. / .... / किस जनता से किस जनता तक जाने में / किस जनता को किस जनता तक लाने में / कितनी कठिनाई होती है इस जाड़े में." (कार्यकर्ता से / कवि ने कहा :लीलाधर जगूड़ी / पृ. 63)


पर्यावरण का संबंध संपूर्ण भौतिक एवं जैविक व्यवस्था से है. यदि प्रदूषण को नहीं रोका गया तो प्राकृतिक संपदा के साथ साथ मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी से मिट सकता है -
"बचाना है तो बचाए जाने चाहिए गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों में घोंसलें, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी"
(बचाओ/कवि ने कहा : उदय प्रकाश/पृ. 93)


( "तीसरा विमर्श" में प्रकाशित )
तीसरा विमर्श / (सं) विश्रांत वसिष्ठ / संवाद भवन, ई-३, जगन्नाथ चौक (६० फुटा रोड), श्रीराम कालोनी, खजूरी ख़ास, दिल्ली- ११० ०९४ (अथवा) दक्षिण विकास नगर, एलम, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) - २४७ ७७१

[''स्रवंति,जून२०१० अंक में प्रकाशित].

रविवार, 1 नवंबर 2009

एक ही तत्व

हम दोनों एक दूसरे से
ऐसे अलग हुए
जैसे पेड़ से पत्ते
और मेघ से पानी


जब हम मिले
तो यह अहसास हुआ
की हम अलग नहीं हैं



हम एक ही तत्व हैं
जैसे फूल और खुशबू
जैसे सागर और लहरें
जैसे सूरज और किरणें

मेरे साजन

तुम सच भी हो
और सपना भी
अजनबी भी हो
और अपना भी


तुम मेरे दिल के करीब भी हो
और दूर भी
तुम कायनात भी हो
और खुदा की करामात भी


हे मेरे साजन
कहूँ तो क्या कहूँ !
करूँ तो क्या करूँ !

टैलेंट

यादों के रिजर्व बैंक से
कागज़ पे जरा कंटेंट उतार लूँ


यांत्रिक सभ्यता के पुर्जे हैं हम
सही टैलेंट का नाम सुना है कम


क्या सभागारों में माइक पकड़कर
भाषण झाड़ना टैलेंट है !
या छोटे - बड़े परदों पर
हाव भाव दिखाना टैलेंट है !

हिंसा को हीरोइज्म बनाकर
टीनेज लव को मेन स्टोरी का रूप देकर
आवार्डों के बारिश में भीगना टैलेंट है !


सो काल्ड ब्यूरोक्रेट्स के बीच
रैंप पर कैट वाक करके
विश्व सुंदरी का मुकुट हासिल करना टैलेंट है !


नहीं !
हे मानव पहचानो !
पहचानो असली टैलेंट को !

खून टपकती अंगुलियों से
टोकरियाँ बनाना टैलेंट है
कच्ची मिट्टी को आकार देना टैलेंट है


ग्रीष्म ताप की परवाह किए बिना
नीड़ का निर्माण करना टैलेंट है
मोची, बढई और किसानों का
श्रम असली टैलेंट है .