शुक्रवार, 1 मई 2020

रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की कहानियों में सुधारवादी दृष्टिकोण

साहित्यकार समाज से जुड़ा हुआ उत्तरदायी प्राणी होता है। कोई भी उत्तरदायी साहित्यकार जागरूक होता है और वह अपने समय के यथार्थ से असंतुष्ट रहता है चूँकि समाज में चारों ओर विसंगतियाँ और विकृतियाँ होती हैं। ऐसी स्थिति में साहित्य अपने आप में सुधारवादी होता है। यदि यह कहा जाए कि आदर्श और मूल्य सुधारवादी दृष्टिकोण के आधार तत्व हैं या प्रतिरूप हैं तो गलत नहीं होगा। एक तरह से आदर्श समाज की इच्छा करना सुधारवादी दृष्टिकोण का ही परिचायक है। रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ एक ऐसे ही जागरूक तथा उत्तरदायी साहित्यकार हैं। उनके साहित्य में पग-पग पर सुधारवादी दृष्टिकोण को भलीभाँति देखा जा सकता है। इसीलिए वे कहते हैं 
“लक्ष्य उसका क्या निहित, गंतव्य उसका कहाँ है, 
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ हैं।
सोच कोरी रह गई
हर श्वास दूषित हो गई,
आज तो बस हर कदम पर 
मनुजता भी रो रही।
आज तो सब छोड़ कर, इनसान ढूँढ़ो कहाँ है?
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
आदर्श का चोला लिए/ अब बात लंबी हो गई,
मतलब नहीं इस बात का, कि
क्या गलत है क्या सही।
खो गया क्यों सत्य ढूँढ़ो, सत्यवादी कहाँ है?
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
बंधु-बांधव को समझना 
अब दिखावा रह गया,
प्रेम था वह है कहाँ
स्वार्थ में सब बह गया।
कहाँ है आत्मीयता,बंधुत्व खोया कहाँ है?
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।” (इनसान ढूँढ़ो कहाँ हैं?)।



उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जनपद के ग्राम पिलानी में 15 अगस्त, 1959 को जन्मे रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने पत्रकारिता में एम.ए. तथा पीएच.डी. की उपाधियाँ अर्जित की हैं। वे कवि के साथ-साथ उपन्यासकार, कहानीकार, बाल साहित्यकार, यात्रावृत्तकार, निबंधकार और संपादक हैं। वे अनेक सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं। समर्पण, नवांकुर, मुझे विधाता बनना है, तुम भी मेरे साथ चलो, मातृभूमि के लिए, जीवन पथ में, कोई मुश्किल नहीं, प्रतीक्षा, ए वतन तेरे लिए आदि उनके कविता संग्रह हैं तो रोशनी की एक किरण, बस एक ही इच्छा, क्या नहीं हो सकता, भीड़ साक्षी है, खड़े हुए प्रश्न, विपदा जीवित है, एक और कहानी, मेरे संकल्प, टूटते दायरे, मील का पत्थर, केदारनाथ आपदा की सच्ची कहानियाँ आदि कहानी संग्रह हैं। निशांत, मेजर निराला, बीरा, पहाड़ से ऊँचा, छूट गया पड़ाव, अपना पराया, पल्लवी, प्रतिज्ञा, भागोंवाली, शिखरों से संघर्ष और कृतघ्न उनके उपन्यास हैं। मेरी व्यथा-मेरी कथा पत्र संकलन है। सफलता के अचूक मंत्र, भाग्य पर नहीं परिश्रम पर विश्वास करें, संसार कायरों के लिए नहीं और सपने जो सोने न दें आदि व्यक्तित्व विकास से संबंधित कृतियाँ हैं। उनके साहित्य को देश-विदेश में विश्व की विभिन्न भाषाओं जैसे- जर्मन, अंग्रेजी, फ्रेंच, तेलुगु, मलयालम, मराठी, कन्नड आदि में अनूदित किया जा चुका है।

रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की दृष्टि सुधारवादी है। वे मनुष्यता को कायम रखने की बात करते हैं। उनकी कहानियों में आदर्श की स्थिति को देखा जा सकता है। वे यथार्थ की परिस्थितियों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं, उन्हें सोचने के लिए बाध्य करते हैं और उन परिस्थितियों को सुधारने के लिए राह भी सुझाते हैं। वे मानवीय मूल्यों एवं आदर्श परिवार को प्रमुखता देते हैं। ‘दे सको तो’ शीर्षक कहानी में कामिनी नितिन को उसके परिवार से अलग करना चाहती है। लेकिन नितिन यह सहन नहीं कर सकता। वह किसी भी हालत में अपने भाई से अलग नहीं होना चाहता। माता-पिता, भाई और छोटी बहन को वह पहले ही खो चुका था और शेष बचा हुआ है उसका एक मात्र भाई जिससे भी कामिनी दूर करना चाहती है। लेकिन नितिन “उससे अलग रहना तो दूर अलग होने की कल्पना तक नहीं कर सकता।” (निशंक : 2007. पृ. 8)। ज्यादा खुशियाँ पाकर नितिन सहम जाता है कहीं “ये खुशियाँ गम के बादल न बन जाएँ।” (वही)। इसीलिए वह कामिनी से कहता है कि “दे सको तो मुझे वचन दो कि मुझे भाई से अलग होने की बात नहीं कहोगी।” (वही)। यहाँ निशंक एक आदर्श परिवार की कल्पना करते हैं और यह दर्शाते हैं कि एक बार रिश्तों से दूर हो जाएँगे तो वापस मिल नहीं सकते। ‘दरार कहाँ पड़ी’ शीर्षक कहानी में भी परिवार के महत्व को दर्शाया गया है। मंगल की पत्नी कंपनी में नौकरी करती है। अहं की टकराहट के कारण छोटी-छोटी बातों पर दोनों झगड़ते रहते हैं। रिश्तों में कड़ुवाहट आ जाती है। मंगल अपने दोस्त से आक्रोश में कह उठता है - “इसने तो वर्षों पहले मुझे जीते जी मार डाला, सबसे संबंध तोड़ डाला, मेरे माँ-बाप, भाई-बहन किसी से भी तो रिश्ता नहीं रहा मेरा।” (2007 : 36)। निशंक ऐसी स्थितियों से दूर रहने की सलाह देते हैं और बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि मिलजुलकर रहने में ही सबकी भलाई है चूँकि इन सबका बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। रिश्तों के बीच कड़ुवाहट अहं के कारण ही बढ़ती है। नौकरी करने वाली स्त्री के बारे में पुरुष यह सोचता है कि “सर्विस वाली लड़की का मतलब पूरा परिवार अस्त-व्यस्त।” (2007 : 12)। निशंक मानते हैं कि इस दकियानूसी सोच में बदलाव आना जरूरी है; तभी परिवार का वातावरण स्वस्थ रहेगा और बच्चों का सर्वांगीण विकास संभव होगा।

स्त्री को अपने से कमतर और कमजोर समझने वाले पुरुष उसकी सत्ता को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। ऐसी मानसिकता से ग्रस्तपति पत्नी पर अधिकार जमाता है और गुस्से में उस पर हाथ भी उठाता है। ‘दरार कहाँ पड़ी’ शीर्षक कहानी का मंगल गुस्से में पत्नी को ज़ोर से पेट पर लात मारता है। (2007 : 34)। मंगल की पत्नी स्वावलंबी है। वह मंगल के व्यवहार से आहत हो उठती है और कहती है कि “किसी की भीख पर नहीं जी रही हूँ। नौकरी करती हूँ नौकरी! ठाठ से रहूँगी और अलग रहूँगी तो कम से कम ये रोज-रोज का सिर दर्द तो मेरा दूर होगा।” (2007 : 35)। निशंक अपने स्त्री पात्रों को कमजोर नहीं पड़ने देते बल्कि अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तथा अभद्र पुरुष व्यवहार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित करते हैं।

समाज में चारों ओर भष्ट तंत्र पनप चुका है। लोकतंत्र इतना भ्रष्ट हो चुका है कि ईमानदार व्यक्ति चारों तरफ़ से पिस रहा है। “अब तो ठीक काम करने वाले दंडित होते हैं, उन्हें सजा मिलती है।” (2007: 23)। ईमानदार व्यक्ति को ही दर दर भटकना पड़ता है। अधिकारियों की चापलूसी न करें तो उसकी सजा भुगतनी पड़ती है स्थानांतरण के रूप में। ‘किसे दोष दूँ’ शीर्षक कहानी के धर्मेंद्र को नौकरी में कभी भी इच्छित स्थान नहीं मिल पाता। हर बार आवेदन पत्र देता है पर उसे आश्वासन के सिवाय कुछ नहीं मिलता। और तो और तीन-चार साल में इतना जरूर होता है कि यदि वह पश्चिम माँगता तो उसका पूरब दिशा में स्थानांतरण कर दिया जाता । अपनी इस हालत पर आक्रोश व्यक्त करते हुए वह कहता है कि “कुछ भ्रष्ट और क्रूर लोगों के कारण मुझे यह खामियाजा भुगतना पड़ा”। (2007 : 29)। निशंक अपने पाठक को सचेत करते हैं कि भले ही मुसीबतों का सामना करना पड़ जाए पर कभी भी ईमानदारी की राह से न हटें क्योंकि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं।

समाज में गरीबी और आर्थिक समस्या के कारण बेरोजगारी, रिश्वतख़ोरी, मौकापरस्ती और भ्रष्टाचार का साम्राज्य है। यदि मंत्री की सिफ़ारिश न हो तो पैसे खिलाने की हिम्मत होनी चाहिए। यदि वह भी न हो तो प्रतिभा होने के बावजूद नौकरी नहीं मिलेगी। आज तो ईमानदार लोगों को उँगलियों पर गिना जा सकता है। स्थिति यह है कि “पैसा दो और नौकरी लो, सब बिके हुए हैं।” (2007 : 14)। लेकिन इस भ्रष्ट तंत्र से ऊब कर आत्महत्या करने के लिए सोचने वाले युवाओं को निशंक यह संदेश देते हैं कि ईमानदार रहकर मेहनत करने से क्या नहीं हो सकता। नौकरी के चक्कर में पड़कर मालिक बनने की इच्छा रखते हैं तो लघुउद्योग शुरू करके भी तो अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। इस प्रकार निशंक युवा पीढ़ी में सकारात्मक सोच को विकसित करते हैं।

नेता भी भ्रष्ट होते जा रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए शहर में हड़ताल करवाते हैं, दुकानें बंद करवाते हैं और तोड़-फोड़ करवाते हैं। इन सबसे जनता को नुकसान झेलना पड़ता है। गरीब मजदूरों की स्थिति तो और भी दयनीय होती है। दंगे-फसाद में बच्चे भूखों मरते हैं और जनता को जान से हाथ धोना पड़ जाता है। निशंक अपने पात्रों के माध्यम से इस भ्रष्ट तंत्र पर टिप्पणी करते हैं कि “एक तरफ राजनीतिक पार्टियाँ बंद और चक्का-जाम करती हैं, दूसरी ओर ट्रेड यूनियनों के नेता आए दिन हड़ताल करवाते हैं, बचे थे सरकारी कर्मचारी तो वे भी अब इससे अछूते नहीं रहे। रोज-रोज का चक्कर हो गया है ये। सबको अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने से मतलब है। जरा मेहनत करें तो पता चले इनको।” (2007 : 19)। मेहनत करने वाले ज़िंदगी के महत्व को समझते हैं अतः वे इस तरह के ओछे काम नहीं करते। यह तो कम दिमाग वालों का काम होता है। ऐसे व्यक्तियों से न तो दोस्ती अच्छी है और न ही दुश्मनी। इसलिए रहीम भी कह गए –‘रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।/ काटे चाटे स्वान के, दोउभाँति विपरीत।’

महँगाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। उसके विरोध में हड़ताल की जाती है।लेकिन उस हड़ताल के कारण आम जनता को पिसना पड़ता है। इस पर निशंक का पात्र यह कहकर टिप्पणी करता है कि “महँगाई ने भी तो आसमान छू लिया है। रोज़मर्रा की चीजों के दाम तो इतने बढ़ गए हैं कि सामान्य वर्ग की तो कमर ही टूट जाएगी।” (2007 : 20)। पर हड़ताल और बंद से महँगाई घट तो नहीं जाएगी न! ऐसे बंद और हड़ताल से काम-काज ठप्प पड़ेगा। इससे देश को करोड़ों का नुकसान भुगतना पड़ेगा।निशंक व्यंग्य कसते हैं कि “आने वाला बच्चा पैदा होने से पहले ही विदेशी कर्जवान बना है।” (2007 : 20)।

लालच और लोभ के चक्कर में पड़कर आदमी अपनी बात से मुकर जाता है। पहले यह स्थिति थी कि दुष्ट और अपराधियों को सजा मिलती थी लेकिन आज यह स्थिति है कि अपराधी और हत्यारे चिल्ला-चिल्लाकर हत्याएँ कर रहे हैं और खुले आम सीना चौड़ा करके घूम रहे हैं। पुलिस कुछ नहीं कर पा रही है। भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारियों की अधिक से अधिक सजा निलंबन है।जेल में सरकार महीनों तक उन्हें मेहमान बनाकर खिलाती-पिलाती है। (2007 : 22)। निशंक भारतीय रेल व्यवस्था पर भी टिप्पणी करते हैं। टी.टी.बीस-तीस रुपए के आरक्षण पर खुलकर लोगों से सौ-सौ रुपए लेता है। लोगों की मजबूरी का फायदा उठाता है। यदि गरीब के पास पाँच रुपया कम मिले तो उसे डिब्बे से बेरहमी से उतार देता हैऔर ऊपर से ईमानदारी का पाठ पढ़ाता है!

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि डॉ. निशंक अपनी कहानियों में समाज की वास्तविकताओं का चित्रण करते हुए भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाते हैं और श्रेष्ठ मानवीय गुणों से युक्त आदर्श की स्थापना की दिशा में अपने पाठक को प्रेरित करना चाहते है। इस प्रकार उनकी कहानियाँ स्वस्थ समाज के निर्माण के प्रति उनके सकारात्मक दृष्टिकोण की परिचायक हैं।