सोमवार, 23 मई 2011

शमशेर की कहानियाँ



शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 - 12 मई,1993) अपनी जटिल काव्य संवेदना और सूक्ष्‍म शिल्प के लिए जाने जाते हैं। बड़े बड़े आलोचकों का ध्यान स्वतः ही उनके कवि व्यक्‍तित्व पर पड़ा है, गद्‍य की ओर बहुत ही कम और विशेष रूप से कहानियों पर तो न के बराबर। आलोचकों ने शमशेर को कविता में जनोन्मुखी प्रगतिशील से लेकर ‘कवियों के कवि’ तक बना दिया है। इसका कारण यह है कि शमशेर एक ऐसी विलक्षण प्रतिभा है कि उनका समूचा रचना संसार भाषा, संवेदना, बिंब और संगीत आदि दृष्‍टियों से अपूर्व है और साथ ही गहरे अंतर्विरोधों से युक्‍त भी।

इसमें संदेह नहीं कि अपने समूचे सर्जनात्मक व्यवहार में शमशेर मूलतः कवि हैं और एक सच्चे कलाकार की उनकी सजीवता उनके गद्‍य में भी दिखाई देती है। ध्यान से देखा जाए तो यह स्पष्‍ट होता है कि गद्‍य रचनाओं में भी कवि शमशेर अपने पूरे वजूद के साथ उपस्थित हैं। वे गद्‍य और पद्‍य की भिन्न भावदशाओं और मुद्राओं में खुलेपन से बातचीत करते हैं। एक कहानीकार के रूप में उनकी विशेषता है - ठोस ज़मीन और स्वदेशी गहराई।

अपनी कहानियों के बारे में स्पष्‍ट करते हुए स्वयं शमशेर ने कहा है कि ‘वे कविता के भाव से वहाँ उत्पन्न हो सकती हैं जहाँ वह भाव किसी समस्या की उलझन हो और उसका दर्द सुलगता हुआ-सा चित्रपट बनना चाह रहा हो।’ (श्रीप्रकाश मिश्र; ‘शमशेर का गद्‍य’; (सं)विश्‍वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ.240)।

शमशेर के रचना व्यक्‍तित्व पर प्रकाश डालते हुए विष्‍णु चंद्र शर्मा ने कहा है कि "शमशेर का पूरा जीवन कलात्मक प्रयोगशाला में संघर्ष और चुनौती भरा खुला इतिहास है, जहाँ उर्दू-हिंदी एक नए सांस्कृतिक और भाषाई मुहावरे का व्यावहारिक रास्ता खोलती है। काल से होड़ लेते शमशेर का कवि और गद्‍य लेखक कई बार आपको सावधान करता है। यह सावधानी भावी भारत की कहानी कभी बनेगी।" (विष्‍णु चंद्र शर्मा; ‘शमशेर का अच्छा गद्‍य’;(सं)विश्‍वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप, पृ.81)।

यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि गद्‍य हो या पद्‍य - शमशेर की भाषा बनावटी नहीं है। शमशेर खड़ीबोली क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ठेठ तथा एक सीमा तक खुरदरा अंदाज उनकी भाषा में भी है। इसीलिए उनकी कहानी पढ़ते समय यह साफ दिखाई देता है कि उनका गद्‍य बातचीत की शैली का है। वे जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते भी हैं। लिखते समय भी वे बातचीत का खुलापन लाते हैं। स्वयं शमशेर की दृष्‍टि में उनकी कहानियाँ कविता के उनके अतियथार्थवादी प्रगतिशील बोध से भिन्न हैं। यह बात और भी प्रामाणिक हो जाती है जब हम उनकी कहानी ‘प्लाट का मोर्चा’ को देखते हैं।

उल्लेखनीय हैं कि भले ही शमशेर कवि के रूप में अधिक विख्यात हों लेकिन प्रकाशन क्रम में उनकी गद्‍य रचनाएँ पहले सामने आईं। उनका निबंध संग्रह ‘दोआब’ 1948 में प्रकाशित हुआ तो ‘प्लाट का मोर्चा : कहानियाँ और स्केच’ 1952 में । अपने और अपनी रचनाओं के संदर्भ में शमशेर बहुत ही संकोची अंदाज में ‘प्लाट का मोर्चा’ में पाठकों से शुरू में ही इस तरह कहते हैं कि "बहुत सी चीजें नींद में होती हैं या खुली हैं। कुछ कहानियाँ इन्हीं चीजों की छाया हैं। कहानियाँ कविता के भाव से भी पैदा हो सकती हैं। जहाँ वह भाव किसी समस्या की उलझन होता है और उसका दर्द केवल एक सुलगता हुआ-सा चित्रपट बनना चाहता है। कुछ कहानियाँ इस संग्रह में ऐसी ही हैं। सायद जी की बातें सी कहने की कोशिश, गो ये बातें खत्म तो नहीं होतीं कभी शायद।" (‘प्लाट का मोर्चा’, भूमिका; बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ, (सं) महेश दर्पण, हिंदी कहानी की कहानी : पाँच, पृ.19)। यही नहीं वे यह भी अपनी ओर से बताना नहीं भूलते कि "यह संग्रह कुल मिलाकार प्रगतिशील नहीं है। ... छायावादी युग के अंत का एक व्यक्‍तित्व इनमें बोल रहा है।"(वही; पृ.19)| महेश दर्पण ने इसे शमशेर बहादुर सिंह के संकोच का परिचायक माना है। 

कहानी ‘प्लाट का मोर्चा’ के बारे में यह कहना समीचीन होगा कि हिंदी साहित्य में अज्ञेय को छोड़कर महायुद्ध के प्रभाव को इतनी मार्मिकता से रेखांकित करनेवाले कहानीकार शमशेर बहादुर सिंह ही हैं। इस कहानी में मनोवैज्ञानिक परतें हैं। शमशेर का गद्‍य वहाँ उदत्त हो जाता है जहाँ व्यक्‍ति को अपनी बात अस्तित्व के धरातल पर कहनी है। जैसे : "आँसुओं का देश सूख गया है!’ वह कह उठा। ...वह एकाग्र मन और शांतिचित्त था। नगर का कोलाहल अभी मद्धिम नहीं हुआ था। लोग अभी बहुत आकुल जान पड़ते थे। वह कह उठा, ‘तुम इन नक्षत्र-राशियों को मिलाकर तो कोई कहानी बना नहीं सकते। मानो ये साफ स्पष्‍ट है और अपनी सरलता में बहुत... बहुत...ऊँची हैं। पर कोई कहानी तुम इन तारों की आत्मा से नहीं निकाल सकते..." (वही; पृ.102)|

‘प्लाट का मोर्चा’ में एक ओर महायुद्ध की विभीषिका का प्रभाव अंकित है तो दूसरी ओर कहानी के प्लाट की खोज में निकला हुआ एक लेखक हैं। यह लेखक एक महान कहानी की खोज में निकला है। उसे अपना जीवन कहानी के दृष्‍टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं लगता है। लेकिन अचानक लुइसा से मुलाकात होने के बाद कहानी में तनाव उत्पन्न हो जाता है। शत्रु सेना के गुप्‍त विभाग में काम करनेवाली एक महिला अपने साथ एक शिशु को लेकर आती है, नेरेटर के पास। जब वह महिला उस बच्चे को अपने साथ रखने के लिए नेरेटर से कहती है तो वह एकदम गंभीर हो जाता है, महत्वपूर्ण पात्र में बदल जाता है। यहाँ कहानीकार की टिप्पणी है - "स्त्री मर्द को जब सहसा डरा देती है, तो मन में क्रोध उठता है।" (वही, पृ.102)|

कहानीकार ने संकेतों के माध्यम से यह स्पष्‍ट किया है कि यह महिला शत्रु पक्ष के पुरुषों को अपने जाल में फँसाकर अपने सैनिकों को सौंप देती है और उस बच्चे के पिता का भी वही हाल है। लेकिन युद्ध मोर्चे के 70 मील दूर अपनी कोख से जने इस बच्चे को वह खत्म होने से बचाना चाहती है। इसलिए वह नेरेटर से कहती है - "लोग कहते हैं, तुम हमारे नए कलाकार हो। केवल एक मनुष्‍य को जो कुछ करना चाहिए वह तुम करो - और मैं तुमसे कुछ नहीं चाहती।"(वही)। यहाँ कहानिकार ने मनुष्यता को सबसे आगे खड़ा कर दिया है। एक दूसरे के प्रति मानवीय विश्‍वास को दिखाया है और बच्चा मानवता का प्रतीक बन गया है। नेरेटर सब कुछ जानकर भी लुइसा पर प्रहार या उससे घृणा नहीं कर पाता बल्कि उसे अपने आलिंगनपाश में कसकर उसे चूम लेता है। एकाएक उसके मुँह से निकल्ता है - "लुइसा, तुम इतनी सुंदर हो, मैं नहीं जानता था।" (वही; पृ.103)। पर उसके मन के अंदर अनेक भीषण विरोधी भावों का झंझावात चल रहा होता है।

कहानीकार ने नेरेटर के माध्यम से यह सवाल उठाया है कि हम क्यों एक सरल प्लाट को अपने जीवन का हिस्सा नहीं बना सकते हैं? नेरेटर को वस्तुतः शांति का प्लाट चाहिए। पर वह लुइसा के जीवन के बारे में सोचता रह जाता है। यह कहानी युद्ध के विरुद्ध आवाज उठाती है, पर बिना शोर मचाए।

 इस कहानी के अंत में दो पत्र हैं। एक में उस बच्चे के न रहने की खबर है तो दूसरा लुइसा का जिससे यह जाहिर होता है कि बच्चा स्वस्थ और सुरक्षित है, और वह कहती है कि "मेरे जीवन का एक सुखी, महान दिन आपने सफल किया।" (वही; पृ.104)।

शमशेर की यह कहानी अत्यंत मार्मिक है। कहीं कहीं कहानीकार ने मात्र संकेतों से बड़ी बड़ी सूचनाएँ दी हैं। इस संदर्भ में महेश दर्पण कहते हैं कि "आकार में छोटी-सी यह कहानी शमशेर की कला बखूबी सामने रखती है, जहाँ अनावश्‍यक विवरणों के लिए कोई जगह नहीं है।" ((सं) महेश दर्पण; बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियाँ-५; हिंदी कहानी की कहानी-५;पृ.20)। इसके स्थान पर कहानी में निहित सांकेतिकता इस कहानी को सतर्कता के साथ पढ़ने की डिमांड करती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि यदि गद्‍य कवि की कसौटी है तो ‘प्लाट का मोर्चा’ कहानी का गद्‍य इस कसौटी पर खरा उतरता है और गद्‍य में कविता की सी बिंबात्मकता तथ सांकेतिकता के करण कथा भाषा का नितांत निजी मुहावरा बनता दिखाई देता है।

शनिवार, 21 मई 2011

वीरशलिंगम्‌ पंतुलु : आंध्र के भारतेंदु



आधुनिक तेलुगु साहित्य के ‘गद्‍य ब्रह्‍मा’ के नाम से विख्यात कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु (16 अप्रैल, 1848 - 27 मई, 1919) का जन्म राजमहेंद्रवरम्‌ (अब राजमंड्री) में हुआ। उनका बाल्यकाल विपन्नता में गुजरा जिससे उन्होंने विषम परिस्थितियों का सामना करना सीखा। इतना ही नहीं उन्होंने अपने अंदर की जिजीविषा को हमेशा जगाए रखा। 

वीरेशलिंगम्‌ के युग में अर्थात 19 वीं शती के अंतिम चरण में संपूर्ण देश में सांस्कृतिक जागरण की लहर दौड़ रही थी। सामंती ढाँचा टूट चुका था। देश में संवेदनशील मध्यवर्ग तैयार हो गया था जो व्याप्क राष्‍ट्रीय और सामाजिक हितों की दृष्‍टि से सोचने लगा था। इस वर्ग ने यह अनुभव किया कि सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में सुधार की आवश्‍कता है। जिस तरह हिंदी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु हरिश्‍चंद्र इस प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि हैं उसी तरह कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु तेलुगु साहित्य के इतिहास में प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि हैं। उन्होंने समाज सुधार के कार्यों, भाषणों और साहित्य के माध्यम से जागरण का संदेश दिया।

सनातनपंथी ब्राह्‍मण परिवार में जन्मे वीरेशलिंगम्‌ जाति-पांति के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने जाति विरोध  आंदोलन का सूत्रपात किया। जिस तरह राजा राम मोहन राय ने ब्राह्‍म समाज की स्थापना की उसी तरह आंध्र प्रदेश में सर्वप्रथम कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु ने ब्राह्‍म समाज की स्थापना की। उन्होंने 1887 में राजमंड्री में ‘ब्राह्‍मो मंदिर’ की स्थापना की।

तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर वीरेशलिंगम्‌ ने जनता को  चिर निद्रा से जगाया, चेताया, स्त्री सशक्‍तीकरण को प्रोत्साहित किया, स्त्री शिक्षा पर बल दिया, बाल विवाह का खंडन किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और जमींदारी प्रथा का विरोध किया। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। उन्होंने 11 दिसंबर, 1881 को प्रथम विधवा पुनर्विवाह संपन्न करवाया जिसके कारण उनकी कीर्ति देश-विदेश में फैल गई। उनके सेवा कार्यों से प्रभावित होकर ईश्‍वरचंद्र विद्‍यासागर ने भी उन्हें बधाई दी।

वीरेशलिंगम्‌ का जीवन लक्ष्य आदर्श नहीं बल्कि आचरण है। इसीलिए उन्होंने विधवा आश्रमों की स्थापना की। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए 1874 में राजमंड्री के समीप धवलेश्‍वरम्‌ में और 1884 में इन्निसपेटा (राजमंड्री) में बालिकाओं के लिए पाठशालाओं की स्थापना की। इतना ही नहीं, स्त्री को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए ‘विवेकवर्धनी’ (1874), ‘सतीहितबोधनी’, ‘सत्यवादी’, ‘चिंतामणि’ आदि पत्र-पत्रिकाएँ आरंभ कीं। वस्तुतः ‘विवेकवर्धनी’ पत्रिका का मुख्य उद्‍देश्‍य ही था - समाज में व्याप्‍त राजनैतिक विसंगतियों, भ्रष्‍टाचार, घूसखोरी, वेश्‍या वृत्ति, जात-पांत, छुआछूत, बाल विवाह, सांप्रदायिकता और सती प्रथा का उन्मूलन।

वीरेशलिंगम्‌ की अपार समाज सेवा से प्रभावित होकर राजगोपालाचारी (राजाजी) ने यह कहा कि "वीरेशलिंगम्‌ अवतरिंचि आंध्र जातिनि चैतन्यवंतम्‌ चेयकपोते आंध्र देशम्‌, आंध्र प्रजलु ईनाडुन्ना स्थितिलो उंडेवारु कारु। क्रियाशीलता, महासाहसम्‌, दूरदृष्‍टिगल जातीय महनीयुल्लो आयना ओकडु। असत्यान्नि धैर्यंगा एदुरुकोनडम्‌लो अभ्यूदय मार्गम्‌लो वीराधिवीरुलै साहसन्नि प्रदर्शिंचाडु।" (वीरेशलिंगम्‌ ने आंध्र की जनता को यदि चेताया नहीं होता तो शायद वह इस स्थिति में नहीं रहती जिस स्थिति में वह आज है। वीरेशलिंगम्‌ क्रियाशीलता, साहस और दूरदृष्‍टि से युक्‍त महनीयों में से एक हैं। उन्होंने असत्य का खुलकर विरोध किया और प्रगतिशील मार्ग पार चल पड़े।)। वेंकट रघुपति के शब्दों में यदि कहें तो "वीरेशलिंगम्‌ बहुमेधावुला समैक्‍यमूर्ति।" (वीरेशलिंगम्‌ अनेक विद्वानों का समुच्चय है।)। मादेव गोविंद रानडे के अनुसार तो ‘वीरेशलिंगम्‌ दक्षिण के ईश्‍वरचंद्र विद्‍यासागर हैं।’

वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु अपने परिवेश से जुड़े साहित्यकार के रूप में समादृत हैं। समाज सुधार के लिए उन्होंने साहित्य को साधन के रूप में अपनाया। उनकी मान्यता है कि "केवलम्‌ पुस्ताकुलु व्रासि प्रचुरिंचडम्‌लो प्रयोजनम्‌ लेदु। मनम्‌ नम्मिना सत्यान्नि लोकानिकि चाटि कार्यरूपमलो चूपगल धैर्यसाहसान्‍नी प्रदर्शिंचडम्‌ चाला अवसरम्‌।" (केवल किताबें लिखकर प्रकाशित करने से कोई लाभ नहीं होगा। जिस सत्य को हम मानते हैं उसे धैर्य और साहस के साथ आचरण में रखना अनिवार्य है।)।

वीरेशलिंगम्‌ ने अपनी साहित्यिक यात्रा प्रबंध काव्यों से शुरू की। उनकी प्रमुख प्रारंभिक प्रबंध रचनाएँ हैं - मार्कंडेय शतकम्‌ (1868-69), गोपाल शतकम्‌ (1868-69), रसिक जन मनोरंजनम्‌ (1879-71), शुद्धांध्र निर्‌‍ओष्ठ्य निर्वचन नैषधम्‌ (1871), शुद्धांध्र उत्तर रामायण (1872) आदि उल्लेखनीय हैं। ‘शुद्धांध्र निर्‌‍ओष्ठ्य निर्वचन नैषधम्‌’ में ओष्‍ठ्‌य ध्वनियों (प,फ,ब,भ,म) का प्रयोग नहीं किया गया है। 1895 में उन्होंने ‘सरस्वती नारद विलापमु’ (सरस्वती नारद संवाद) में वाक्‌देवी सरस्वती और देव ऋषि नारद के बीच काल्पनिक संवाद का सृजन लघुकाव्य के रूप में किया। इसमें उन्होंने सरस्वती और नारद के बीच संवादों के माध्यम से वाग्विदग्धता, कृत्रिम अलंकार, झूठे आडंबर आदि पर विचार विमर्श किया। इस काव्य को पढ़ने से स्पेंसर कृत ‘टियर्स आफ दी म्यूसस’ की याद दिलाने वाला माना जाता है। उन्होंने शृंगार परक काव्यों का भी सृजन किया है।

वीरेशलिंगम्‌ आशु कविता की ओर भी उन्मुख हुए। तेलुगु साहित्य में आशु कविता अवधान विधा के रूप में उपलब्ध है। यह विधा तेलुगु साहित्य की अनुपम और विलक्षण देन है। इस प्रक्रिया में कवि एक ही समय में अनेक अंशों/प्रश्‍नों का समाधान छंदोबद्ध काव्य के रूप में करता है। यह एक तरह से बौद्धिक व्यायाम है। इस विधा के अनेक प्रकार हैं -  अष्‍टावधान, शतावधान, सहस्रावधान, द्विसहस्रावधान, पंच सहस्रावधान, नवरस नवावधान, अलंकार अष्‍टावधान और समस्या पूर्ति आदि।

चेन्नई से प्रकाशित पत्रिका ‘दि पब्लिक ओपीनियन’ (मासिक) में वीरेशलिंगम्‌ कृत ‘उत्तर रामायण’ की समीक्षा प्रकाशित हुई जिसमें उनके वाक्‌ वैचित्र्य, ग्रांथिक तेलुगु पर अधिकार, कवि प्रतिभा, मधुर शैली और औदात्य भाव की खुलकार प्रशंसा की गई। द्रष्टव्य है कि वीरेशलिंगम्‌ ने कभी भी अपने से पहले की रचनाओं को लेकर असंतोष व्यक्‍त नहीं किया, पर ऐसा लगता है कि उनका कवि हृदय तत्कालीन परिस्थितियों से उद्वेलित और असंतुष्‍ट है। इसीलिए वे छंदोबद्ध कविता को त्यागकर गद्‍य की ओर मुड़े और व्यावहारिक शैली को अपनाकर तत्कालीन परिस्थितियों को अपने साहित्य में सशक्‍त रूप में उकेरा।

वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु संस्कृत, तेलुगु और अंग्रेजी के विद्वान थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि संस्कृतनिष्‍ठ और छंदोबद्ध रचनाएँ आम जनता की समझ से परे हैं। जिस तरह भारतेंदु हरिश्‍चंद्र और ईश्‍वरचंद्र विद्‍यासागर ने व्यावहारिक भाषा प्रयोग पर बल दिया था, ठीक उसी तरह वीरेशलिम्गम्‌ पंतुलु ने भी व्यावहारिक भाषा प्रयोग पर बल दिया। इतना ही नहीं, वे आम बोलचाल के प्रचलित शब्दों के साथ साथ नई शब्दावली की खोज की ओर भी प्रवृत्त हुए। उनकी मान्यता है कि "भाषा योक्का मुख्य प्रयोजनम्‌ भाव व्यक्‍तीकरणम्‌। रचनलो भाषा एंता सरलंगा, एंता स्पष्‍टंगा उंटे भाव व्यक्‍तीकरण अंते सूटिगा वुंटुंदि।" (भाषा का मुख्य प्रयोजन भाव की अभिव्यक्‍ति है। अतः सरल और स्पष्‍ट भाषा प्रयोग से भावाभिव्यक्‍ति भी स्पष्‍ट होगी।)।

वीरेशलिंगम का रचना संसार व्‍यापक है। प्रबंध काव्यों के अतिरिक्‍त उनकी अन्य प्रमुख रचनाओं में नीति चंद्रिका (पंचतंत्र का अनुवाद, 1874), नीति दीपिका (100 कविताओं का संकलन; 1875), कामडी आफ एरर्स (शेक्सपीयर के नाटक का पद्‍यानुवाद, 1875), अभाग्योपाख्यानम्‌ (अभाग्य का आख्यान, व्यंग्य रचना, 1876), पदार्थ विवेक शास्त्रमु (रसायन शास्त्र, प्रश्‍नोत्तर शैली में, 1877-78), ब्रह्‍म विवाह (तेलुगु साहित्य का प्रथम सामाजिक नाटक, 1878), चमत्कार रत्‍नावली (कामडी आफ एरर्स का गद्‍यानुवाद,1880), वेनीस वर्तक चरित्र्मु, (द मर्चेंट आफ वेनीस का अनुवाद, असंपूर्ण, 1880), शाकुंतलम्‌ (अभिज्ञान शाकुंतल का नाटकानुवाद, 1883), राजशेखर चरित्रमु ( राजशेखर का इतिहास, तेलुगु साहित्य का प्रथम उपन्यास, 1880), चंद्रमति चरित्र (चंद्रमति का इतिहास, स्त्री विमर्श की दृष्‍टि से लिखी गई कहानी, 1884), मालविकाग्नि मित्रमु (मालविकाग्नि मित्र का नाटकानुवाद, 1885), सत्य हरिश्‍चंद्र (पौराणिक नाटक, 1886), शरीर शास्त्रमु (शरीर विज्ञान, संग्रहीत, 1884), हास्य संजीवनी (1888),  सत्यराजा पूर्व देशी यात्रलु (सत्यराज के पूर्वी देशी यात्राएँ, गुलिवर्स ट्रावलस् का अनुवाद, 1893-94), ज्योतिष शास्त्र संग्रह (1895), सरस्वती नारद विलापमु (सरस्वती नारद संवाद, 1895), राजा राममोहन राय चरित्रमु (राजा राममोहन राय का इतिहास,1896), स्वीय चरित्रमु (आत्मकथा, 1913)  आदि कृतियाँ शामिल हैं।

आधुनिक तेलुगु गद्‍य साहित्य के प्रवर्तक वीरेशलिंगम्‌ ने प्रथम उपन्यासकार, प्रथम नाटककार और आधुनिक पत्रकारिता के प्रवर्तक के रूप मे ख्याति अर्जित की है। हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रथम उपन्‍यास और उपन्यासकार के बारे में काफी मतभेद है। उसी तरह तेलुगु साहित्य के इतिहास में भी प्रथम उपन्यास और उपन्यासकार के बारे में मतभेद है। कुछ विद्वान नरहरि गोपाल कृष्‍णम्‌ शेट्टी कृत ‘श्री रंगराज चरित्रमु’ (श्री रंगराज का इतिहास, 1872) को तेलुगु का प्रथम उपन्यास मानते हैं, लेकिन लेखक ने अपनी रचना के संबंध में स्वयं कहा है कि "ई रचना हिंदुवुला आचारमुलनु तेलुपु नवीन प्रबंधम्‌। ई रचना कुला मतालकु अतीतंगायुंडि प्रेमकु प्राधान्यतनु इच्चिंदी।" (यह रचना वस्तुतः हिंदुओं के रीति रिवाजों को व्यक्‍त करनेवाली नवीन प्रबंध काव्य है तथा जाति-पांति के विरुद्ध प्रेम भावना को प्रधानता देनेवाली है।)। इसका दूसरा नाम है ‘सोनाबाई परिणयमु’ (सोनाबाई का परिणय)। इसके विपरीत कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु कृत ‘राजशेखर चरित्र’ (राजशेखर का इतिहास, 1880) में आधुनिक उपन्यास के तत्व विद्‍यमान हैं। अतः इस उपन्यास को ही तेलुगु के प्रथम उपन्यास माना गया है। इसके माध्यम से लेखक ने तत्कालीन हिंदुओं की जीवन शैली, उनकी संस्कृति, रीति रिवाज, अंधविश्‍वास, स्त्रियों की मनोदशा आदि को उकेरा है। यह उपन्यास अंग्रेजी में ‘फार्च्यून्स आफ दी व्हील’ के नाम से अनूदित है।

तेलुगु का प्रथम नाटक किसे माना जाए, इस विषय में भी काफी मतभेद हैं। कुछ विद्वान कोराडा रामचंद्र शास्त्री कृत ‘मंजरी मधुकरीयम्‌’ (1861) को तेलुगु साहित्य के प्रथम नाटक मानते हैं, लेकिन इसमें आधुनिक नाटक के तत्व नहीं हैं अतः वीरेशलिंगम्‌ कृत ‘ब्रह्‍म विवाहमु’ (ब्रह्‍म विवाह, 1876) को यह ख्याति प्राप्‍त है। यह एक व्यंग्यपूर्ण सामाजिक नाटक है। तत्कालीन समाज में यह प्रथा प्रचलित थी कि किसी भी विधि विधान या अनुष्‍ठान को संपन्न करने के लिए पत्‍नी के सहयोग की आवश्‍यकता होती है। इस नाटक का मुख्य पात्र पेद्‍दैया (बड़े साहब) विधुर है। तीसरी पत्‍नी के देहांत के पश्‍चात्‌ वह तीन साल की मासूम बच्ची से विवाह करता है। माँ-बाप भी धन के लालच में अपनी बच्ची का सौदा करते हैं। नाटककार ने इन सब पर करारा प्रहार किया है।

आधुनि तेलुगु साहित्य के गद्‍य ब्रह्‍मा, प्रथम उपन्यासकार, प्रथम नाटककार, प्रथम आत्मकथाकार, व्यावहारिक भाषा आंदोलन के प्रवर्तक कंदुकूरी वीरेशलिंगम्‌ पंतुलु के बारे में चिलकमर्ति लक्ष्मी नरसिंहम्‌ ने निम्नलिखित उद्‍गार व्यक्‍त किए थे जो आज भी उनकी समाधी पर चिह्‍नित है - 
"तना देहमु, तना गेहमु,
तना कालमु तना धनम्‌भु तना विद्‍या
जगज्जनुलके विनियोगिंचिना
घनुडी वीरेशलिंगकवि जनुलारा!"
(अपना तन, मन, धन, निवास, समय और विद्‍या सब कुछ जनता के हित के लिए निछावर करनेवाले महापुरुष हैं वीरेशलिंगम्‌।)।


अतिरिक्त जानकारी के लिए देखें -




शुक्रवार, 13 मई 2011

आरिगपूडि रमेश ‘चौधरी’ की हिंदी को देन


आरिगपूडि रमेश ‘चौधरी’ (26 नवंबर, 1922 - 28 अप्रैल, 1983) ऐसे रचनाकारों में प्रथम स्थान के अधिकारी हैं जिन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से हिंदी पाठकों को आंध्र प्रदेश की संस्कृति, सभ्यता, जीवन, रीति-रिवाज, खान-पान और आचार-व्यवहार से परिचित करवाया। वे यथार्थवादी साहित्यकार थे। उनके मतानुसार साहित्य जन चेतना का माध्यम है। 

आंध्र के कृष्‍णा जिले के वुय्यूरु नामक गाँव में जन्मे आरिगपूडि का वास्तविक नाम रामेश्‍वर वनजसन गांधी था। उनके पिता वेंकटराम चौधरी माहात्मा गांधी से प्रभावित थे और वे यह भी चाहते थे कि उनका बेटा ‘वनजासन’ अर्थात ब्रह्‍मा के समान समृद्ध हो। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध तीर्थस्थल रामेश्‍वरम से लौटने के बाद बेटे का जन्म हुआ। अतः उन्होंने अपने पुत्र का नाम रामेश्‍वरम वनजासन गांधी रखा। आरिगपूडि उनका उपनाम है जबकि चौधरी जातिवाचक है। दोस्तों के बीच वे रमेश के नाम से जाने जाते थे और साहित्य के क्षेत्र में अपने उपनाम ‘आरिगपूडि’ से।

आरिगपूडि बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। वे कवि के साथ साथ उपन्यासकार, नाटककार, एकांकीकार, अनुवादक और आलोचक भी थे, लेकिन उन्होंने ख्याति उपन्यासकार के रूप में अर्जित की। आरिगपूडि ने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्‍त विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं ज्वलंत समस्याओं का चित्रण किया है। मध्यवर्गीय व्यक्‍ति की यातनाओं एवं कुंठाओं को उन्होंने बखूबी उजागर किया है। उनके साहित्य में आंध्र की संस्कृति और जन जीवन का चित्र प्रमुख रूप से उभरा है।

आरिगपूडि की प्रमुख रचनाओं में भूले भटके (1956), दूर के ढोल (1957), खरे-खोटे (1957), धन्‍यभिक्षु (1958), अपवाद (1959), पतित पावनी (1959), अपनी करनी (1959), मुद्राहीन (1960), यह भी होता है (1961), सांठ-गांठ (1962), सारा संसार मेरा (1962), झाड़ फानूस (1964), निर्लज्ज (1965), उल्टी गंगा (1965), चरित्रवान (1966), उधार के पंख (1967), नदी का शोर (1975), सब स्वार्थी हैं (1981) और ‘अंतिम उपाय’ (1984) आदि उपन्यास सम्मिलित हैं। कोई न पराया (1961), उनका एकमात्र सामाजिक नाटक है जिसमें जमींदारी प्रथा का विवरण है। इनके अलावा अनेक सामाजिक कहानियाँ, बालोपयोगी कहनियाँ और आलोचनात्माक कृतियाँ भी प्रसिद्ध हैं। भगवान भला करे (1952), जीने की सजा (1960), बंद आँखें(1979) , विचित्र नादान (1973), कला पोषक (1980), एक पहिए की गाड़ी (1979), `मयसूद’ (1984) (कहानी संग्रह), नेपथ्य (एकांकी) तथा आंध्र प्रदेश, जवाहर ज्योति, आंध्र संस्कृति और साहित्य (आलोचना) आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं।

1956 में प्रकाशित ‘भूले भटके’ आरिगपूडि का प्रथम उपन्यास है। दक्षिण भारत में उस समय जो ब्राह्‍मण विरोधी आंदोलन चला था उसका यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में अंकित है। लेखक ने तत्कालीन समाज में व्याप्‍त वर्ण व्यवस्था पर तीखा प्रहार किया था। उपन्यास का नायक सत्यम्‌ ब्राह्‍मण है। वह जात-पांत का विरोधी है। वह वेश्‍या की बेटी नलिनी से बेहद प्यार करता है। सत्यम्‌ के पिता सनातनपंथी हैं। वे इस विवाह का विरोध करते हैं पर सत्यम्‌ नलिनी के साथ मद्रास भाग जाता है और एक नई जिंदगी शुरू करता है। इस संदर्भ में लेखक टिप्पणी करता है कि ‘सब एक ही धरती के निवासी हैं। यह जात-पांत मनुष्‍य के द्वारा बनाया गया एक ऐसा जाल है कि मनुष्‍य आज तक भी उससे बाहर निकल नहीं पाया है।’ इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने तत्कालीन समाज में व्याप्‍त परंपरागत रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया है तथा जनता को भी चेताया है। 

भारतीय जनता अत्यंत भोली भाली है और प्रायः कुछ स्वार्थी लोग उसे धर्म के नाम पर ठगते रहते हैं। आरिगपूडि ने अपने उपन्यास ‘दूर का ढोल’ (1957) में इसी बात को उकेरा है। 1958 में प्रकाशित उपन्यास ‘धन्यभिक्षु’ ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास में सातवाहन कालीन (आदिकालीन) वास्तुकला का चित्रण है। इसमें लेखक ने अग्निवर्मा नामक पात्र के माध्यम से यह स्पष्‍ट किया है कि पुरातत्ववेत्ताओं का जीवन कितना संघर्षमय होता  है। इस संदर्भ में लेखक कहते हैं कि ’कलाकार का जीवान काल और देश से प्रभावित हो सकता है, पर उसकी आधारभूत प्रेरणाएँ सदा से एक ही रही हैं अतः अग्निवर्मा का जीवन किसी भी कलाकार का जीवन हो सकता है।"

अपवाद(1959), पतित-पावनी(1959), अपनी करनी(1959), अपने पराए(1959), मुद्राहीन(1960), सारा संसार मेरा(1962) और निर्लज्ज(1965) आदि उपन्यासों के माध्यम से आरिगपूडि ने स्त्री जीवन से संबंधित समस्याओं, उनके संघर्ष, उनकी जागरूकता के साथ साथ आधुनिकता के नाम पर बढ़ रही विशृंकलता को भी उजागर किया है।

आरिगपूडि की कहानियों में बदलते जीवन मूल्य, मध्यवर्गीय व्यक्‍ति की आकांक्षाओं, मनुष्य की मनोवृत्तियों और मानसिक उत्पीड़न आदि के साथ साथ प्राकृतिक सौंदर्य का भी अंकन है। उनके मरणोपरांत 1984 में प्रकाशित ‘अंतिम उपाय’ (उपन्यास) और ‘मयसूद’ (कहानी संग्रह) उनकी अंतिम कृतियाँ हैं। ‘अंतिम उपाय’ में लेखक ने नक्सलवाद का जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है। इस कृति के प्रतिपाद्‍य को रेखांकित करते हए उन्होंने कहा कि "भारतीय परिस्थितियों में राजनैतिक उद्‍देश्यों के लिए हिंसा का प्रयोग अनावश्यक है, अनुचित है - यही सत्य इस उपन्यास में निरूपित किया गया है। ‘मयसूद’ में संकलित कहानियाँ मध्यवर्ग, निम्नवर्ग और दलितों की समस्याओं पर केंद्रित हैं।

आरिगपूडि ने अपनी कृतियों में आँध्र प्रदेश की ग्रामीण संस्कृति को भी उकेरा है। बच्चे के जन्‍म से लेकर मृत्युपर्यंत विविध संस्कारों का पालन किया जाता है। लेखक ने उन सभी विधानों का चित्रण अपनी रचनाओं में अंकित किया है। इतना ही नहीं उन्होंने ‘एरुकला’, ‘लंबाडी’, ‘एनादी’ आदि जनजातियों की जीवन शैली को भी हिंदी पाठकों के समक्ष रखा है।

ग्रामीण सभ्यता के साथ साथ आरिगपूडि ने महानगरीय जीवन शैली को भी उकेरा है। उन्होंने यह भी स्पष्‍ट किया है कि किस तरह ग्रामीण जनता जमींदारों के पंजों से अपने आपको बचाने हेतु नगरों की ओर भागती है। ‘ये छोटे बड़े लोग’ उपन्यास में लेखक ने निम्नवर्ग के संघर्ष का चित्रण किया है। लेखक ने कृष्णस्वामी नामक पात्र के माध्यम से इस समाज को वर्ग विहीन समाज बनाने के लिए प्रेरित किया है। उन्होंने अपने पात्र के मुख से यह कहलवाया है कि "जिस व्यक्‍ति में आदर्शवाद है, आदर्शों के प्रति निष्‍ठा है, अपने मूल्य हैं, मूल्य नैतिकता है और उन पर ‘अडिग रहने का’ विश्‍वास है, शक्‍ति है, समाज के लिए उदाहरण बन जाता  है। वह व्यक्‍ति अपने उदाहरण से समाज को नई दिशा देता है, असली मायने में व्यक्‍ति ही उदाहरण बनता है, न कि समाज। ऐसे व्यक्‍ति विरले होते हैं और वे समाज पर अपनी छाप छोड़ते हैं।"

वस्तुतः आरिगपूडि ने अपनी रचनाओं में पारिवारिक संबंधों, जीवन से संबंधित समस्याओं, परंपरागत और आधुनिक स्त्री छवि, सामाजिक विसंगतियाँ, जन आंदोलन, आतंकवाद, नक्सलवाद, मूल्यह्रास, कुंठा, ऊब, अकेलापन और संत्रास आदि अनेक विषयों को बखूबी उकेरा है।

आरिगपूडि लंबे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे। उन्होंने मद्रास से प्रकाशित अंग्रेज़ी दैनिक पत्र ‘हिंदू’ से अपना कैरियर शुरू किया थ। बाद में वे ‘इंडियन रिपब्लिक’ (अंग्रेज़ी दैनिक), ‘स्वराज्य’ (अंग्रेज़ी दैनिक), ‘पथेरम’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ (अंग्रेज़ी) तथा ‘नवभारत टाइम्स’ (हिंदी) आदि पत्र-पत्रिकाओं के संपादक एवं विशेष संवाददाता रहे। उनकी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर मोटूरि सत्यनारायण ने उन्हें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई की ओर से प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ‘दक्षिण भारत’ का संपादक बनाया। इतना ही नहीं उन्होंने काफी समय तक बाल पत्रिका ‘चंदामामा’ के हिंदी संस्करण का संपादन कार्य भी संभाले। वे अक्सर यह कहा करते थे कि "लेखक वह है जो जनसाधारण की भावनाओं को तथा अनुभवों को संदर्भानुसार वाणी देता है। उनके सुख-दुखों को कलात्मक रूप में अभिव्यक्‍त करता है। जनता को जागृत करता है।"

शनिवार, 7 मई 2011

गुरु ऋणमु

(श्रद्धेय गुरुदेव प्रो.दिलीप सिंह जी को सादर समर्पित)

भाषा परिज्ञानमु,
वाक्‌ चातुर्युमु,
क्रंगुना म्रोगे कंठमु,
चिरुनव्वु तो कूडिना मोमु।

आप्यायंगा पलकरिंचि
नेनुन्नाननि अभयमिच्चे हस्तमु।
आरबाटमु लेनि सहज जीवनमु।
शत्रुवुनैना क्षमिंचि अक्कुना चेर्चुकोने व्यक्‍तित्वमु।

इवन्नी कलबोसिना तेजोमूर्तिवि नीवु।
मा मार्गदर्शीवि नीवु।

नी षष्‍ठिपूर्ति वेडुकलु
अंभरान्नि अंटिते,
मा मदिलोनि संभरालु
एल्लुवलु दाटाते
कोट्‍लादि अभिमानुल शुभाकांक्षलतो
भुवि मारुम्रोगिते,
दिविनुंचि देवतल दीवेनलु
एरुलै प्रवहिस्तायि।

नी चिरुनव्वे माकु दीवेना।
नी अभयहस्तमे माकु दिक्सूची।
नी वक्‌कु माकु वेदमु।
नी अनुरागमे माकु कोंडंत बलमु।

भाषा शास्त्रानिके मारुपेरु नीवु।
माकु नडकनेर्पिन गुरुवु नीवु।
जीवितांतम्‌ ऋणपडि वुन्नामु मेमु।
नी ऋणम्‌ तीर्चुकोवटम्‌
ई जन्मलो साध्यमा माकु!!

(तेलुगु कविता - लिप्यंतरण)

शुक्रवार, 6 मई 2011

पोस्टर प्रदर्शनी : अज्ञेय और उनका साहित्य




(चित्र : लिपि भारद्वाज)

30 अप्रैल, 2011 को उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद के साहित्य-संस्कृति मंच के तत्वावधान में ‘अज्ञेय जन्मशती समारोह’ संपन्न हुआ। संगोष्‍ठी की योजना के समय संगोष्‍ठी निदेशक प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने सुझाव दिया था कि अज्ञेय के जीवन और साहित्य से संबंधित पोस्टर प्रदर्शनी का भी आयोजन किया जा सकता है। इस सुझाव को क्रियान्वित करने के लिए सभी प्राध्यापक, एम.ए. छात्र एवं एम.फिल. और पीएच.डी. शोधार्थियों ने मिलकर काम किया जिसका अच्छा परिणाम सामने आया। पूजा, चंद्रभूषण, टी.सुभाषिणी, अंजू कुमारी, मंजू, जे.श्रीनिवास राव, गायकवाड भगवान विश्‍वनाथ, संध्या रानी, एम.राधाकृष्‍णा, एस.वंदना, हेमंता बिष्‍ट, चंदन कुमारी, एन.अप्पल नायडु और दिवेश कुमार आदि ने विभाग के अध्यापकों की देखरेख में पूरे उत्साह से पोस्टर तैयार किए।

पोस्टर प्रदर्शनी में अज्ञेय और उनके कृतित्व के विविध पहलुओं को उजागर करने के उद्‍देश्‍य से 64 पोस्टरों के साथ उन पर केंद्रित कुछ शोध प्रबंध और प्रमुख पुस्तकें भी प्रदर्शित की गईं।

पोस्टर प्रदर्शनी का उद्‍घाटन ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डॉ.राधेश्‍याम शुक्ल ने किया। उन्होंने छात्रों और शोधार्थियों की सराहना की और सुझाव दिया कि सभी पोस्टरों की छाया प्रतियों को स्पाइरल बाइंडिंग के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए ताकि भविष्‍य के लिए भी काम आ सके।

प्रो.गोपाल शर्मा ने विभाग को बधाई दी और कहा कि सामूहिक प्रयास ही सफलता की कुंजी है। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भविष्‍य में स्लाइड प्रेजेंटेशन भी किया जा सकता है।

मुंबई से पधारे प्रो.त्रिभुवन राय ने पोस्टरों का आद्‍यंत अवलोकन किया और कहा कि इसमें विभाग के अध्यापकों और छात्रों की  लगन द्रष्‍टव्य है।

कुल सचिव प्रो.दिलीप सिंह ने इस सफल आयोजन के लिए ‘साहित्य-संस्कृति मंच’ को बधाई दी।

हैदराबाद विश्‍वविद्‍यालय से पधारे प्रो.सच्चिदानंद चतुर्वेदी, प्रो.आलोक पांडेय और डॉ.भीम सिंह ने छात्रों के इन्वाल्वमेंट की सराहना की।

कवयित्री ज्योति नारायण, अहिलया मिश्र, रूबी मिश्र और विनीता शर्मा ने कहा कि इन पोस्टरों के माध्यम से अज्ञेय के बारे में  काफी नई जानकारी प्राप्‍त हुई।

क्रांतिकारी कवि शशि नारायण स्वाधीन ने भी पोस्टर प्रदर्शनी की सराहना की और विभाग को बधाई दी।

इफ्लू के रूसी विभाग के प्रो.जे.पी.डिमरी और हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.एम.वेंकटेश्‍वर तथा मानू के डॉ.करण सिंह ऊटवाल ने भी पोस्टर प्रदर्शनी का अवलोकन किया और भूरि भूरि प्रशंसा की।

डॉ.बी.बालाजी ने कहा कि भाषा शिक्षण के चारों कौशल यानी सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना यहाँ देखने को मिले। उन्होंने यह भी कहा कि इस प्रदर्शनी के माध्यम से प्राध्यापकों और विद्‍यार्थियों का आपसी तालमेल देखने का सुअवसर प्राप्‍त हुआ जो प्रायः उच्च शिक्षा संस्थाओं में दुर्लभ होता जा रहा है।

संपत देवी मुरारका, डॉ.अर्चना झा, डॉ.सुपर्णा, डॉ.शक्ति द्विवेदी, डॉ.पी.श्रीनिवास राव, डॉ.घनश्याम, डॉ.सीता नायुडु, भगवंत गौडर, शिवकुमार राजौरिया आदि 200 आगंतुकों ने पोस्टर प्रदर्शनी का अवलोकन किया| दर्शकों ने पोस्टरों की  सराहना करते हुए  यह सलाह दी कि  कम से कम एक सप्‍ताह तक प्रदर्शनी को जारी रखा जाए।

प्रदर्शनी में विभिन्न पोस्टरों में अज्ञेय के जीवन वृत्त, रचना यात्रा, साहित्य, भाषा और संस्कृति विषयक मान्यताओं, कहानियों और उपन्यासों के अंशों तथा कविताओं को सम्मिलित किया गया। विशेष रूप से सूक्‍तियों तथा ‘शरणार्थी शृंखला’ की कविताओं के पोस्टरों के समक्ष दर्शक अधिक देर तक रुकते देखे गए।

- जी.नीरजा

सोमवार, 2 मई 2011

‘रसानुभूति का स्वरूप’ पर विशेष व्याख्यान संपन्न


"भारतीय दृष्‍टि से साहित्य की आत्मा रस है जिसका आधार मनुष्य के हृदय में स्थित विभिन्न भाव होते हैं। जन्मजात संस्कार के रूप में प्राप्‍त प्रेम और हास जैसे भाव ही परिपक्व होकर रस के रूप में अभिव्यक्‍त होते हैं। हमारे दार्शनिकों ने रस को आनंद रूप और रसानुभूति को ब्रह्‍म की अनुभूति के समक्ष माना है। इसके लिए यह भी स्पष्‍ट किया है कि रस का अधिकारी अथवा पात्र वह सामान्य मनुष्य होता है जिसके भीतर आस्वादन की आकांक्षा होती है। ऐसा सहृदय ही रस का मानसिक साक्षात्कार करता है और रसानुभूति के क्षण में अपनेपन, पराएपन और तटस्थता से परे निर्वैयक्‍तिकता जैसी चौथी स्थिति में रहता है। इस तनमयता से ही लोकोत्तरता प्राप्त होती है जिससे निर्मल मन वाले सहृदय को आनंद का अनुभव होता है। यह अवस्था चित्त के द्रवित होने की अवस्था होती है।"

ये विचार मुंबई से पधारे वरिष्‍ठ काव्यशास्त्रीय विद्वान प्रो.त्रिभुवन राय ने यहाँ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अंतर्गत सक्रिय दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के क्षेत्रीय कार्यालय में आयोजित विशेष व्याख्यानमाला के क्रम में ‘रसानुभूति का स्वरूप’ विषय पर दूरस्थ माध्यम के स्नातकोत्तर के अधयेताओं को संबोधित करते हुए प्रकट किए। विशेष व्याख्यान की अध्यक्षता प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने की तथा संचालन सहायक निदेशक डॉ.पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव ने किया। 

इस अवसर पर निदेशालय की ओर से अध्यक्ष और मुख्य वक्‍ता का सम्मान किया गया। व्याखान पर परिचर्चा में डॉ.पूर्णिमा शर्मा, डॉ.मृत्युंजय सिंह, डॉ.जी.नीरजा, डॉ.गोरखनाथ तिवरी, डॉ.साहिरा बानू, डॉ.लक्ष्मीकांतम, अकबर, संगीता, राज्यलक्ष्मी, हेमंता बिष्ट, संध्या रानी ने  सक्रिय रूप से भागीदारी निभाई।