शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

गांधी जी और हिंदी प्रचार - रामधारी सिंह दिनकर

(इस लेख के लेखक डॉ रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं.)

गांधी युग से पूर्व तक हिंदी का प्रचार, साहित्यिक धरातल पर, प्रयाग का हिंदी साहित्य सम्मलेन करता था, काशी की नागरी प्रचारिणी सभा करती थी. स्वामी दयानंद हिंदी को आर्य भाषा कहते थे और उसका प्रचार उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में किया था. जहाँ तक हिंदी के शिक्षा का माध्यम होने का प्रश्न है, इस दिशा में भी आदिप्रयाग आर्यसमाजियों ने आरंभ किए थे तथा स्वामी श्रद्धानंद (पं.मुंशीराम) जी महाराज ने गुरुकुल की स्थापना करके इस कार्य का श्रीगणेश कर दिया था. किंतु, अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी के विधिवत प्रचार दिशा में तब तक कोई कदम उठाया नहीं गया था. तब हिंदी साहित्य सम्मलेन के इंदौर अधिवेशन (मार्च सन 1918 ई) के सभापति महात्मा गांधी चुने गए. 

इंदौरवाले सम्मलेन का भाषण तैयार करने के पूर्व गांधी जी ने रवींद्रनाथ, एनी बेसेंट, मालवीयजी, तिलकजी आदि देश के कुछ बड़े नेताओं से इस बारे में पत्र व्यवहार द्वारा राय-मशविरा किया था कि -

  1. क्या हिंदी (भाषा या उर्दू) अंतःप्रांतीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्यवाहियों के लिए उपयुक्त एकमात्र राष्ट्रीय भाषा नहीं है?
  2. क्या हिंदी कांग्रेस के आगामी अधिवेशनों में मुख्यतः उपयोग में लाई जानेवाली भाषा न होनी चाहिए?
  3. क्या हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों में ऊँची शिक्षा देशी भाषाओं के माध्यम से देना वांछनीय और संभव नहीं है? और क्या हमें प्रारंभिक शिक्षा के बाद हिंदी को अपने विद्यालयों में अनिवार्य द्वितीय भाषा नहीं बना देना चाहिए?
"मैं महसूस करता हूँ कि यदि हमें जन साधारण तक पहुँचना है और यदि राष्ट्रीय सेवकों को सारे भारतवर्ष के जन साधारण से संपर्क करना है, तो उपर्युक्त प्रश्न तुरंत हल किए जाने चाहिए." (सं.गां.वां., खंड 14, पृ. 149-150). 

सभी नेताओं ने गांधीजी को अनुकूल उत्तर भेजे. कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिका था - "वास्तव में भारत में अंतःप्रांतीय व्यवहार के लिए उपयुक्त राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही है. किंतु मैं समझता हूँ कि दीर्घकाल तक इसे हम लागू नहीं कर सकेंगे."

भाषा के संबंध में गांधी जी के अपने विचार पूर्णरूप से परिमार्जित और प्रौढ़ हो चुके थे. फिर भी इंदौर जाने से पहले उन्होंने अपने समकालीन नेताओं से मत लेकर अपने विश्वास को और भी पुष्ट बना लिया. 29 मार्च सन 1918 ई. को इंदौर में सभापति के मंच से गांधी ने जो भाषण दिया, उसके कुछ मुख्य अंश नीचे उद्धृत किए जाते हैं - 

"यह भाषा का विषय बड़ा भारी और बड़ा ही महत्वपूर्ण है. यदि सब नेता सब काम छोड़कर केवल इसी विषय पर लगे रहें, तो बस है."

"शिक्षित वर्ग, जैसा कि माननीय पंडितजी (मालवीयजी) ने अपने पत्र में दिखाया है, अंग्रेज़ी के मोह में पड़ गया है और अपनी राष्ट्रीय मातृभाषा से उसे असंतोष हो गया है."

"हमें ऐसा उद्योग करना चाहिए कि एक वर्ष में राजकीय सभाओं में, कांग्रेस में, प्रांतीय भाषाओं में और अन्य समाज और सम्मेलनों में अंग्रेज़ी का एक भी शब्द सुनाई नहीं पड़े. हम अंग्रेज़ी का व्यवहार बिलकुल त्याग दें. ... आप हिंदी को भारत की राष्ट्भाषा बनने का गौरव प्रदान करें."

:हिंदी भाषा की व्याख्या का थोड़ा-सा ख्याल करना आवश्यक है. मैं कई बार व्याख्या कर चुका हूँ कि हिंदी भाषा है, जिसको उत्तर में हिंदू व मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी अथवा फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है. यह हिंदी एकदम संस्कृतमयी नहीं है. न वह एकदम फ़ारसी शब्दों से लड़ी हुई है. देहाती बोली में मैं जो माधुर्य देखता हूँ, वह न लखनऊ के मुसलमान भाइयों की बोली में, न प्रयाग के पंडितों की बोली में पाया जाता है. भाषा वही श्रेष्ठ है, जिसको जनसमूह सहज में समझ ले."

"हिंदू-मुसलामानों के बीच जो भेद किया जाता है, वह कृत्रिम है. ऐसी ही कृत्रिमता हिंदी व उर्दू भाषा के भेद में है. हिंदुओं की बोली से फ़ारसी शब्दों का सर्वथा त्याग और मुसलमानों की बोली में संस्कृत का सर्वथा त्याग अनावश्यक है. दोनों का स्वाभाविक संगम गंगा-जमुना के संगम-सा शोभित और अचल रहेगा. मुझे उम्मीद है कि हम हिंदी-उर्दू के झगड़े में पड़कर अपना बल क्षीण नहीं करेंगे. लिपि की कुछ तकलीफ़ ज़रूर है. मुसलमान भाई अरबी लिपि में ही लिखेंगे, हिंदू बहुत करके नागरी में लिखेंगे. राष्ट्र में दोनों लिपियों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए. इसमें कुछ कठिनाई नहीं है. अंत में जिस लिपि में ज्यादा सरलता होगी, उसकी विजय होगी. 

"आज भी हिंदी से स्पर्धा करनेवाली कोई दूसरी भाषा नहीं है. हिंदू-उर्दू का जह्ग्दा छोड़ने से राष्टभाषा का सवाल सरल हो जाता है. हिंदुओं को फ़ारसी के शब्द थोड़े बहुत जानने पड़ेंगे. इस्लामी भाइयों को संस्कृत शब्दों का ज्ञान संपादन करना पडेगा. ऐसी लें-दें से इस्लामी भाषा का बल बढ़ जाएगा और हिंदू-मुसलामानों की एकता का एक बहुत बड़ा साधन हमारे हाथ में आ जाएगा. अंग्रेज़ी भाषा का मोह दूर करने के लिए इतना अधिक परिश्रम करना पडेगा कि हमें लाजिम है कि हम हिंदी-उर्दू का झगडा न उठावें." (सं.गां.वां., खंड 24, पृ. 279-280).

गांधी जी आरंभ से ही सोचते आ रहे थे कि जो भाषा उत्तर के हिंदुओं, मुसलामानों, सिक्खों, पारसियों और क्रिस्तानों की रूचि की भाषा होगी, उसी भाषा को सारे देश को ग्रहण करना चाहिए. इस बार उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मलेन के मंच से उसे भाषा की सिफारिश की और सम्मलेन ने उसे पसंद किया. 

जहां तक अंग्रेज़ी का सवाल है, गांधी जी ने अपने इंदौरवाले भाषण में कहा था - "कहना आवश्यक नहीं कि अंग्रजी भाषा से मैं द्वेष नहीं करता हूँ. अंग्रेज़ी साहित्य भंडार से मैंने भी बहुत रत्नों का उपयोग किया है. अंग्रेज़ी भाषा की मार्फ़त  हमें विज्ञान आदि का खूब ज्ञान लेना है. अंग्रेज़ी का ज्ञान भारतवासियों के लिए बहुत आवश्यक है. लेकिन इस भाषा को उसका उचित स्थान देना एक बात है, उसकी जड़-पूजा करना दूसरी बात है."

अंग्रेज़ी का उचित स्थान इस देश में ज्ञान की भाषा का स्थान (लैंग्वेज ऑफ कांप्रेहेंशन) ही हो सकता है, शिक्षा और शासन के कार्य तो इसी देश की भाषाओं में किए जाने चाहिए. और यह केवल इसलिए नहीं कि उससे हमारे स्वाभिमान की रक्षा होती है, बल्कि इसलिए कि शासन और न्याय के काम जब जनता की भाषा में चलते हैं, तब उनसे जनता की शिक्षा होती है.

"हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक प्रजा की राजनैतिक कार्यों में ठीक तालीम नहीं मिलती है. हमारे हिंदी अखबार इस कार्य को थोड़ा-सा करते हैं, लेकिन प्रजा को तालीम अनुवाद से नहीं मिल सकती है. हमारी अदालतों में ज़रूर राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषा का प्रचार होना चाहिए. न्यायाधीशों की मार्फ़त जो तालीम हमको सहज ही मिल सकती है, उस तालीम से आज प्रजा वंचित रह जाती है."

"जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं."

सन 1918 ई. वाले इंदौर सम्मलेन में दो बातें बड़े महत्त्व की रहीं. एक तो यह कि गांधीजी ने सम्मलेन के मंच से अपनी हिंदी विषयक कल्पना की व्याख्या प्रस्तुत की और सभा ने उसे पसंद किया. और दूसरा वह प्रस्ताव (इस प्रस्ताव का आशय यह था कि प्रति वर्ष छह दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने को प्रयाग भेजे जाएँ और हिंदी भाषा भाषी छह युवकों को दक्षिणी भाषाएँ सीखने तथा साथ साथ वहाँ हिंदी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजे जाए.) जिसके द्वारा दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की आवश्यकता पर जोर दिया गया था.  उस समय दक्षिण के चारों भाषा भाषी प्रदेश एक ही मद्रास प्रेसिडेंसी के अंग थे और गांधीजी राष्ट्रभाषा की कठिनाई को सबसे ऊपर मानते थे. "सबसे कठिन मामला द्राविड भाषाओं के लिए है. वहाँ तो कुछ प्रयत्न ही नहीं हुआ है. हिंदी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करना चाहिए."

दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार के लिए इंदौर सम्मलेन ने कुछ सदस्यों की एक समिति बनाई, जिसमें गांधी जी और टंडनजी भी थे. इसी सम्मलेन में दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के लिए महाराज होलकर और सेठ सर हुकुमचंद ने दस-दस हजार रुपयों के दान दिए. प्रचार के लिए सम्मेलन ने जो प्रस्ताव स्वीकृत किया, उसमें यह बात थी की हिंदी सीखने के लिए दक्षिण के छह नवयुवक उत्तर भारत बुलाए जाएँ.

इंदौर सम्मलेन 29 मार्च को हुआ था. 31 मार्च को गांधीजी ने समाचार पत्रों को एक छोटा-सा लेख भेजा, जिसमें  उन्होंने हिंदी प्रचार समिति की रचना का जिक्र किया और कहा कि "हम ऐसे छह तमिल और तेलुगु भाषी होनहार और सच्चरित तरुणों के नाम चाहते हैं, जो तमिल और तेलुगु भाषी जनता में हिंदी का प्रचार करना ही जीवन का ध्येय बनाने की दृष्टि से हिंदी सीखना शुरू करें. प्रस्ताव के अनुसार इन्हें इलाहाबाद या बनारस में रखकर हिंदी सिखाई जाएगी. वैसे तो देश में एक बड़ा प्रबल आंदोलन खड़ा होना चाहिए, जो हिंदी को द्वितीय भाषा के रूप में पब्लिक स्कूलों में लागू कराने पर शिक्षा अधिकारियों को विवश कर दे. परंतु सम्मलेन ने महसूस किया कि मद्रास प्रांत में हिंदी का प्रचार तुरंत ही आरंभ किया जाना चाहिए. इसीलिए उपर्युक्त प्रस्ताव रखा गया है. .... समिति हिंदी सिखाने के लिए इच्छुक लोगों को निःशुल्क पढ़ाने के लिए तमिल और आंध्र जिलों में हिंदी अध्यापक भेजने की बात सोच रही है." (सं.गां.वा., खंड 14, पृ.284).

गांधी जी गर्म लोहे को ठंडा होने देनेवाले आदमी नहीं थे. सम्मलेन के बाद उन्होंने दक्षिण के कुछ प्रमुख नेताओं से लिखा-पढ़ी की और अखबारों में लेख भी लिखे. 'गांधी जी के उक्त विचारों को पढ़कर दक्षिण के कुछ उत्साही, देशप्रेमी युवकों का ध्यान हिंदी की ओर आकृष्ट हुआ. उन्होंने हिंदी पढ़ने की इच्छा प्रकट करते हुए गांधी जी से प्रार्थना की कि हिंदी पढ़ाने के लिए एक सुयोग्य अध्यापक को दक्षिण में भीजा जाए.' इस प्रार्थना पर गांधी जी चुप नहीं रह सकते थे, न वे इस बात का इंतज़ार कर सकते थे कि दक्षिण जाने को तैयार युवक कब और कहाँ मिलेंगे. निदान, हिंदी की सेवा के लिए उन्होंने अपने सबसे छोटे बेटे और मेधावी पुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेज दिया. देवदास की उम्र उस समय केवल अठारह वर्ष की थी. यह 12 मई, सन 1918 ई. की बात है.

मद्रास में हिंदी का पहला वर्ग ता. 12 मई, 1918 ई. में ही खुला और उसका उदघाटन समारोह होमरूल लीग के दफ्तर ब्राडवे में मनाया गया. इस समारोह की अध्यक्षता डॉ.सी.पी.रामस्वामी ऐय्यर ने की थी. अध्यक्ष और उद्घाटिका, दोनों ने दक्षिण में हिंदी प्रचार योजना की भूरि भूरि प्रशंसा की और लोगों का आह्वान किया कि वे इस योजना को हर तरह से सफल बनाएँ.

हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो, यह बात बोली तो बहुत दिनों से जा रही थी, किंतु अब तक किसी भी नेता ने इस विचार को सक्रीय बनाने का प्रयास नहीं किया था. यह गांधी जी के व्यक्तित्व की महिमा थी कि वे जिस कार्य का शुभारंभ करते थे, देश उसे अपना पुनीत कार्य मानकर अपना लेता था. गांधी जी के उत्साह का प्रभाव एनी बेसेंट पर इस जोर से पड़ा कि अपने दैनिक पत्र 'न्यू इंडिया' में वे अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ हिंदी लेख भी प्रकाशित करने लगीं. "वे हिंदी का राष्ट्रभाषा होना अत्यंत आवश्यक और अंग्रेज़ी का इस देश की राष्ट्रभाषा बन जाना देश के लिए खतरनाक समझती थीं. उनका कहना था कि जिस दिन अंग्रेज़ी हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हो जाएगी, उस दिन समझ लेना चाहिए कि हमारी बरबादी शुरु हो गई. उनकी राय में एक देश के मुट्ठी-भर लोगों का दूसरे देश के करोड़ों लोगों पर हुकूमत करना देश की भारी मुसीबत है, तिसपर भी उस देश की भाषा को मिटाकर विदेशी भाषा को वहाँ की जनता पर ज़बर्दस्त थोप देना अत्यंत विनाशकारी कार्य है." (दक्षिण में हिंदी प्रचार आंदोलन का समीक्षात्मक इतिहास, लेखक : श्री पी.के.केशवन नायर).

इंदौर सम्मलेन के प्रस्ताव के अनुसार दक्षिण के छह युवकों को हिंदी सीखने को प्रयाग जाना था. ठीक छह तो नहीं, किंतु पांच युवक और युवतियाँ गांधी जी से प्ररित होकर हिंदी सीखने को प्राय्ग गए. ये पाँच व्यक्ति थे, पंडित हरिहर शर्मा और उनकी सहधर्मिणी, श्री बंदेमातरम सुब्रह्मण्यम और उनकी सहधर्मिणी तथा पंडित शिवराम शर्मा. और जो शिक्षक इन्हें हिंदी पढ़ाते थे, उनके नाम थे श्री हरिप्रसाद द्विवेदी (वियोगी हरि) और पंडित गणेशदीन त्रिपाठी.

गांधी जी का पुण्य प्रताप इतना बड़ा था कि जब देवदास जी ने मद्रास में  हिंदी वर्ग आरंभ किया, उसमें  हिंदी पढ़ने को मद्रास के कुछ बहुत अच्छे लोग आ गए, जिनमें से सर्वश्री सदाशिव ऐय्यर (हाईकोर्ट के न्यायाधीश), श्री वेंकटराम शास्त्रीय (सुप्रसिद्ध वकील), श्री के.भाष्यम अय्यंगार, श्री एन.सुन्दर ऐय्यर, श्रीमती अम्बुजम्माल, श्रीमती दुर्गाबाई, श्रीमती रुक्मिणी लक्ष्मीपति आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. मद्रास में जो हिन्दी कार्य आरम्भ हुआ, उसका समर्थन केवल एनी बेसेंट की 'न्यू इंडिया' ही नहीं , मद्रास के सुप्रसिद्ध दैनिक 'हिन्दू' आदि भी करते थे.

इंदौर सम्मेलन के प्रस्तावानुसार तथा गांधी जी की प्रेरणा से उत्तर भारत के जो युवक धीरे धीरे दक्षिण गए, उनमें से पं.रामानंद शर्मा श्री क्षेमानंद राहत, हरी रामभरोसे श्रीवास्तव, पं.हृषकेश शर्मा, पं.अवधनंदन, पं.रघुवरदयाल मिश्र, श्री जमुनाप्रसाद, पं.देवदूत विद्यार्थी, पं.रामगोपाल शर्मा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. सन 1918 ई. में परिव्राजक स्वामी सत्यदेव भी हिन्दी प्रचारक बनकर मद्रास पहुँच गए थे.

मद्रास में हिन्दी प्रचार का कार्य ज्यों ज्यों बढ़ता गया, त्यों त्यों धन की आवश्यकता भी बढ़ती गई. इंदौर से सेठ हुकुमचंद और महाराज होलकर से बीस हजार की रकम गांधी जी को मिली थी और गांधी जी ने उसे सम्मलेन को दे दिया था, क्योंकि मद्रास का कार्य सम्मलेन का ही कार्य समझा जाता था. सन 1920 ई. में अग्रवाल महासभा ने 50 हजार और श्री घनश्यामदास बिड़ला  ने 10 हजार रूपए इस कार्य के लिए गांधी जी को दी. आरम्भ में इसी धनराशि से दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार का कार्य चलता रहा.

सन 1920 ई. तो भारतीय क्षितिज पर महामा गांधी रूपी सूर्य के उदय का वाढ बन गया. उस समय से गांधी जी ने हिन्दी प्रचार के कार्य को देश के तीन सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में स्थान दे दिया. जब वे होमरूल लीग से सम्बद्ध हुए, अपने वक्तव्य में उन्होंने घोषणा की कि "मेरी राय में स्वराज्य शीघ्र प्राप्त करने का साधन स्वदेशी, हिन्दू-मुस्लिम- ऐक्य, हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा मानना और प्रान्तों का भाषाओं के अनुसार नए सिरे से निर्माण करना है. इसलिए लीग को मैं इन कामों में लगाना चाहता हूँ. (कांग्रेस का इतिहास, 151).

सन  1921 ई. में असहयोग आन्दोलन के चलते सारा देश राष्ट्रीयता के आवेश से हिलने लगा और प्रायः प्रत्येक प्रांत में राष्ट्रीय विद्यापीठ, कॉलेज और स्कूल खुल गए, जिनमें प्रधानता अंग्रेज़ी की नहीं वरन हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं की थी. शिक्षा के क्षेत्र में यह नया आन्दोलन था तथा उससे हिन्दी का पक्ष, आपसे आप, प्रबल हो गया.

तमिलनाडु का सर्वप्रथम हिन्दी प्रचारक विद्यालय सन 1922 ई. में इरोड में खुला. उसका उदघाटन पं.मोतीलाल नेहरु ने किया था. और वह विद्यालय द्रविड़ कळकम के प्रसिद्ध नेता श्री ई.वी.रामस्वामी नायकर के मकान पर खोला गया था.

दक्षिण में हिन्दी का जो प्रचार कार्य चल रहा था, उसका निरीक्षण करने को बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन सन 1925 ई. में दक्षिण भारत गए. उसी अवसर पर उनकी भेंट कामकोटि (कांची के) शंकराचार्यजी से हुई. स्वामी ने हिन्दी, कार्य करने के लिए एक सौ रूपए का दान किया.

गांधी जी अपनी भाषा नीति का प्रचार बहुत पहले से ही करते आ रहे थे, किन्तु इंदौर सम्मलेन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया और हर मौके पर लोगों को वे यह समझने लगे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना हमारा राष्ट्र कुंठित रहेगा.

हिन्दी शिक्षक की मांग करनेवाले तमिल भाइयों को उन्होंने 19.04.1918 को लिखा - "हम हिन्दी भाषा को हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक परस्पर व्यवहार की आम भाषा बना दें, तो फिर राष्ट्र सेवा करने की हमारी शक्ति कोई भी सीमा स्वीकार नहीं करेगी." (सं.गां.वा., खंड 14, पृ. 340).

26 मार्च, सन 1919 ई. को मदुराई में स्तयाग्रह आन्दोलन पर भाषण करते हुए उन्होंने कहा - "आप में से जिन लोगों को पर्याप्त शिक्षा प्राप्त हुई है, वे यदि यह समझ लेते कि हिन्दी और केवल हिंदी ही भारत की राष्टभाषा बन सकती है, तो आप इस समय तक इसे किसी न किसी तरह सीख लेते. लेकिन हम अपनी गलतियों को अब भी सुधार सकते हैं." (सं. गां. वा., खंड 15, पृ. 161).

28 मार्च सन 1919 ई. को तूत्तुक्कुडि में बोलते हुए उन्होंने कहा - 'जब आप भारत की राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी सीख लेंगे, तो आपके सामने हिन्दी में भाषण करने में मुझे बहुत खुशी होगी. यह आपके ऊपर है कि यदि चाहें तो मद्रास और अन्य स्थानों पर हिन्दी सीखने की जो सुविधा है, उसका लाभ उठाएँ. जब तक आप हिन्दी नहीं सीखते, तब तक आप शेष भारत से अपने को बिलकुल अलग रखेंगे." (सं. गां. वा., खंड 15, पृ. 164).

कांग्रेस जब गांधी जी के प्रभाव में आने लगी, वे यह कोशिश करने लगे कि कांग्रेस के मंच से अधिक से अधिक भाषण हिन्दी में हों.

सन 1919 ई. के दिसंबर में हुई कांग्रेस में ज्यादा भाषण हिन्दी में हुए थे. गांधी जी को यह मलाल था कि इस कांग्रेस के अध्यक्ष का भाषण हिन्दी में क्यों नहीं हुआ. किन्तु श्रीमती एनी बेसेंट ने अपने पत्र में यह लिख डाला कि इस बार की कांग्रेस राष्ट्र्रीय धरातल से उतरकर प्रांतीय धरातल पर चली गई थी, क्योंकि उसमें दिए गए भाषण अंग्रेज़ी में नहीं थे. श्रीमती एनी बेसेंट की इस टिप्पणी आ जवाब देते हुए गांधी जी ने 21 जनवरी सन् 1920 ई. को 'यंग इंडिया' में लिखा - "मुझे उनके (श्रीमती बेसेंट के) इस विचार से कि हिन्दुस्तानी के व्यवाह से कांग्रेस प्रांतीय हो जाती है, सार्वजनिक रूप से मतभेद प्रकट करने में दुःख होता है. कांग्रेस की लगभाग समस्त कार्यवाही पिछले दो सालों के सिवा अब तक अंग्रेज़ी में किए जाने के कारण राष्ट्र को सचमुच काफी हानि पहुँची है. मैं यह तथ्य भी बताना चाहता हूँ कि मद्रास प्रेसिडेंसी के अतिरिक्त अन्य सभी प्रान्तों के राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधियों और दर्शकों में से अधिकाँश अंग्रेज़ी की अपेक्षा हिन्दुस्तानी ही अधिक अमझ सके हैं. इसलिए इसका एक बड़ा ही विचित्र-सा परिणाम यह हुआ है कि इन समस्त वर्षों में कांग्रेस जैसी महती संस्था केवल देखने में राष्ट्रीय रही है, किन्तु वह अपने वास्तविक शैक्षणिक महत्त्व के कारण कभी राष्ट्रीय नहीं रही. इसलिए प्रश्न यह है कि इस प्रेसिडेंसी (मद्रास) के 3 करोड़ 80 लाख लोगों का कर्तव्य है. क्या भारत उनके कारण अंग्रेज़ी सीखे? या वे सत्ताईस करोड़ सत्तर लाख भारतीयों के लिए हिन्दुस्तानी सीखेंगे? स्वर्गीय न्यायमूर्ति कृष्णस्वामी, जिनकी गहनदृष्टि अचूक थी, यह मानते थे कि भारत के विभिन्न भागों के बीच विचारों के आदान-प्रादान का एकमात्र संभावित माध्यम हिन्दुस्तानी ही हो सकती है." (सं. गां. वा., खंड 26, पृ. 511-512).

गांधी जी जो होमरूल लीगवालों ने अपना नेतृत्व करने को कहा, तब भी गांधी जी ने यह शर्त रखी थी कि मैं किसी संस्था में शरीक तभी हो सकता हूँ, जब उसके सदस्य मेरे साथ सहमत हों. इस संबंध में श्री वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री को 18 मार्च, 1920 ई. को उन्होंने जो पत्र लिखा था, उसमें एक प्रमुख शर्त यह रखी थी, कि "हिन्दी और उर्दू के मिश्रण से निकली हुई हिन्दुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में निकट भविष्य में स्वीकार कर लिया जाए. अतएव भावी सदस्य इम्पीरियल काउन्सिल में इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे, जिससे वहां हिन्दुस्तानी का प्रयोग प्रारम्भ हो सके और प्रांतीय कौंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध होंगे जिससे वहां, जब तक हम राष्ट्रीय कामकाज के लिए अंग्रेज़ी को पूरी तरह छोड़ देने की स्थिति में नहीं जाते, तब तक के लिए, कम से कम वैकल्पिक माध्यम के रूप में प्रांतीय भाषाओं का उपयोग प्रारम्भ हो सके. वे हमारे स्कूलों में हिन्दुस्तानी को देवनागरी लिपि या वैकल्पिक रूप में,, उर्दू लिपि के साथ, अनिवार्य द्वितीय भाषा की तरह दाखिल कराने के लिए भी वचनबद्ध होंगे. अंग्रेज़ी को साम्राजीय संपर्क, राजनीतिक संबंध तथाअंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा के रूप में मान्यता दी जाएगी." (सं. गां. वा., खंड 17, पृ. 100-108).

मद्रास में हिंदी प्रचार को बढ़ावा देने के लिए गांधी जी भाषणों और लेखों का प्रयोग करते ही रहते थे. 16 जून सन् 1920 ई. की 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा था - "मुझे पक्का विशवास है कि किसी दिन हमारे द्राविड भाई-बहन, गंभीर भाव से हिंदी का अध्ययन करने लगेंगे. आज अंग्रेज़ी भाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवाँ हिस्सा भी हिंदी सीखने में करें, तो बाकी हिंदुस्तान, जो आज उनके लिए बंद किताब की तरह है, उससे वे परिचित होंगे और हमारे साथ उनका ऐसा तारतम्य स्थापित हो जाएगा, जैसा पहले कभी नहीं था. कोई भी साधारण आदमी एक साल में हिंदी सीख सकता है. मैं अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि द्राविड बालक बहुत आसानी से हिंदी सीख लेते हैं. यह बात शायद ही कोई जानता हो कि दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले सभी तमिल-तेलुगु भाषी लोग हिंदी में खूब अच्छी तरह बातचीत कर सकते हैं." (सं. गां. वा., खंड 17, पृ.534).

सन् 1920 ई. से राष्ट्रीय आंदोलन ज्यों ज्यो जोर पकडता गया, हिंदी का आंदोलन भी उसी अनुपात में बढ़ता गया. सन् 1925 ई. में कानपुर कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पास किया कि "यह कांग्रेस तय करती है कि कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का कामकाज, आम तौर पर, हिंदुस्तानी में चलाया जाएगा. जो वक्ता हिंदुस्तानी में नहीं बोल सकते, उनके लिए या जब जब जरूरत हो तब, अंग्रेज़ी का या किसी प्रांतीय भाषा का इस्तेमाल किया जा सकेगा." (राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी से).

गांधी जी ने अपने सतत चलनेवाले प्रचार से देश में वः हवा पैदा कर दी कि राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में वक्ता जब अंग्रेज़ी में भाषण शुरू करते, तब अहिंदी भाषी श्रोता भी 'हिंदी हिंदी' का नारा लगाने लगते थे. इस नई हवा का असर देश के बड़े लोगों पर भी पड़ने लगा. 6 अप्रैल, सन् 1920 ई. को भावनगर (सौराष्ट्र) में जुग्राती साहित्य परिषद का छठा अधिवेशन हुआ, जिसके सभापति श्री रवींद्रनाथ ठाकुर थे. इस सम्मलेन में पाना अध्यक्षीय भाषण गुरुदेव ने हिंदी में दिया था. भाषण के मुखबंध में उन्होंने कहा था कि "आपकी सेवा में खडा होकर विदेशीय भाषा कहूँ, यह हम चाहते नहीं. पर जिस प्रांत में मेरा घर है, वहाँ सभा में कहने लायक हिंदी का व्यवहार है नहीं. महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिंदी में कहने के लिए. यदि हम समर्थ होता, तब इससे बड़ा आनंद कुछ होता नहीं. असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिंदी में बोलूंगा." (यह सम्पूर्ण भाषण उस समय प्रकाशित 'शांतिनिकेतन' पत्रिका में बंगाक्षरों में छपा था.).

सन् 1925 ई. में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन का अधिवेशन भरतपुर में हुआ था. गुरुदेव श्री रवींद्रनाथ ठाकुर ने उस सम्मलेन में भी पधारने की कृपा की थी और हिंदी में बोलकर हिंदी का पक्ष समर्थन किया.

गांधी जी के प्रचार से तमिलनाडु में हिंदी के प्रति ऐसा उत्साह प्रवाहित हुआ कि प्रांत के सभी बड़े लोग हिंदी का समर्थन करने लगे. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के आजीवन अध्यक्ष स्वयं गांधी जी थे. राजाजी उसके उपाध्यक्ष थे. श्री ई.वी. रामस्वामी नायक्कर हिंदी प्रचार के अत्यंत उत्साही समर्थक थे. तमिल के विख्यात कवी श्री सुब्रह्मण्य भारती भारत की राष्ट्रीय चेतना के जाज्वल्यमान प्रतीक थे और हिंदी प्रचार के प्रति उनकी पूरी सहानुभूति थी. तमिल के दूसरे प्रकांड कवी श्री मुरुगनार, जो अब साधक के रूप में, रमणाश्रम (तिरुवण्णामलै) में रहते हैं, राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने हिंदी के समर्थन में तमिल में एक छोटी-सी कविता भी लिखी थी, जिसका कच्चा-पक्का अनुवाद नीचे दिया जाता है -

जिस जिस भारत के सभी लोग,
अपनी पसंद से चुनी हुई सबकी बोली
हिंदी को अपनी जानेंगे,
जानेंगे केवल नहीं, वरन् आसानी से
हिंदी में करके काम-काज सुख मानेंगे,
बस, उसी दासत्व न रहने पाएगा,
बस, उसी रोज सच्चा स्वराज्य आ जाएगा.

तमिल के महाकवि श्री सुब्रह्मण्य भारती राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रभाषा के पूरे समर्थक थे. अपनी छात्रावस्था में वे सन् 1898 ई. से लेकर 1902 ई. तक काशी में रहे थे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की प्रवेश परिक्षा मे संस्कृत और हिंदी का विशेष अध्ययन करके प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे.

श्री राजगोपालाचारी, जो अब राजभाषा हिंदी के कट्टर विरोधी बन गए हैं, उन दिनों हिंदी के भारी समर्थक थे. जनवरी सन् 1930 ई. के 'हिंदी प्रचारक' नामक मासिक पत्र में उन्होंने 'छात्रों से अपील' नामक एल लेख में यों लिखा था - "अगर हिंदुस्तानी भाषा सीखने की आवश्यकता के बारे में अब भी आपको संदेह हो, तो जो लोग पिछली कांग्रेस में गए थे, उनमें से किसी से भी बात करके देख लीजिए. जो प्रतिनिधि लाहौर गए थे और जिन्होंने कांग्रेस को देखा है, वे इस बात की गवाही भरेंगे कि हिंदुस्तानी के ज्ञान के बिना राष्ट्रीय सम्मेलनों में उपयोगी भूमिका अदा करना किसी के लिए भी संभव नहीं है. इस कांग्रेस में सबसे अधिक असुविधा तमिलनाडु के प्रतिनिधियों को हुई, क्योंकि राष्ट्भाषा की जानकारी उन्हें नहीं है. वे आपको बताएँगे कि भारत के किसी भी भाग में यात्रा, वाणिज्य या व्यापार करने के लिए हिंदुस्तानी का ज्ञान कितना जरूरी है. प्रत्येक छात्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने अवकाश के समय का उपयोग राष्ट्रभाषा सीखने के लिए करे. राष्ट्भाषा की शिक्षा स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग होना चाहिए. मगर इसके लिए तब तक इंतज़ार करना बेकार अहि, जब तक शिक्षा के अधिकारियों को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं होता. शिक्षा के अधिकारी जब तक यह नहीं समझते कि भारत के सभी प्रांतों में, लड़कों और लड़कियों के स्कूली पाथ्य्कर्मों में भारत की सामान्य भाषा का स्थान नहीं होना भारी गलती है, तब तक अपनी मदद हमें आप करनी चाहिए. यह भाषा बड़ी आसानी से सीखी जाती है. आप संस्कृत की लिपि सीखकर हिंदुस्तानी तुरंत आरंभ कर सकते हैं." (दक्षिण के हिंदी प्रचार आंदोलन का समीक्षात्मक इतिहास से).

हिंदी प्रचार का कार्य राष्ट्र के रचनात्मक कार्यक्रम का अत्यंत प्रमुख अंग था. हिंदी प्रचारक होना अपने आप में गौरव की बात थी, क्योंकि जो हिंदी प्रचारक होता था, वह गांधी जी का सीधा अनुचर समझा जाता था. समाज में हिंदी प्रचारकों की बड़ी इज्जत थी और वे जो कुछ कहते थे, समाज पर उसका असर पड़ता था.
 
मद्रास की दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा सन् 1926 ई. तक प्रयाग के हिंदी साहित्य सम्मलेन से संबद्ध रही. सन् 1927 ई. में साहित्य सम्मलेन से सभा का संबंध विच्छेद हो गया और वह स्वतंत्र संस्था के रूप में पंजीकृत करा दी गई.

हिंदी साहित्य सम्मलेन का चौबीसवाँ अधिवेशन भी सन् 1935 ई. में इंदौर में ही हुआ और संयोग ऐसा हुआ कि इस बार भी सम्मलेन के सभापति महात्मा गांधी ही हुए. इस समय तक दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की जो प्रगति हुई थी, उसके आंकड़े बताते हुए गांधी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा - "दक्षिण में हिंदी प्रचार सबसे कठिन कार्य है, तथापि अठारह वर्ष से हम वहाँ व्यवस्थित रूप में जो कार्य करते आए हैं, उसके फलस्वरूप इन वर्षों में छह लाख दक्षिणवासियों ने हिंदी में प्रवेश किया, 42,000 परीक्षाओं में बैठे, 3200 स्थानों में शिक्षा दी गई, 600 शिक्षक तैयार हुए और आज 450 स्थानों में कार्य हो रहा है. वहाँ हिंदी की 70 किताबें तैयार हुईं और मद्रास में उनकी आठ लाख प्रतियां छापीं. सत्रह वर्ष पूर्व दक्षिण के एक भी हाई स्कूल में हिंदी की पढ़ाई नहीं होती थी, पर आज सत्तर हाई स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है. और आज तक इस प्रयास में चार लाख रुपए कह्र्च हुए हैं, जिनमें से आधे से कुछ कम रुपए दक्षिण में ही मिले हैं." (राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी).

इस बीच बंगाल, असं और उड़ीसा में भी हिंदी प्रचार का कुछ थोड़ा काम शुरू हो गया था. गांधी जी ने उन प्रांतों की स्थिति का भी पर्यवेक्षण किया और कहा कि सम्मलेन को इन प्रांतों में भी हिंदी के प्रचार पर ध्यान देना चाहिए.

मद्रास में जहाँ तहाँ जो शंका खादी हो गई थी कि हिंदी के प्रचार से प्रांतीय भाषाओं के विकास में बाधा नहीं पड़ेगी, उसका खंडन करते हुए गांधी जी ने कहा कि "कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हम प्रांतीय भाषाओं को नष्ट करके हिंदी को सारे भारत की एकमात्र भाषा बनाना चाहते हैं. गलतफहमी से भ्रमित होकर वे हमारे प्रचार का विरोध करते हैं. मैं हमेशा से यह मानता रहा हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को मिटाना नहीं चाहते. हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिन्द्र्र भाषा सीखें."

बंगाल और दक्षिण भारत का नाम लेकर गांधी जी ने कहा कि "बंगाल और दक्षिण भारत को ही लीजिए, जहाँ अंग्रेज़ी का प्रभाव सबसे अधिक अहि. यदि वहाँ जनता की मार्फत हम कुछ भी काम करना चाहते अहिं, तो वह आज हिंदी के द्वारा भले ही न कर सकें, पर अंग्रेज़ी द्वारा कर ही नहीं सकते."

साहित्य सम्मलेन के चौबीसवें अधिवेशन का सबसे बड़ा महत्त्व यह था कि उसने गांधी जी की कल्पना की हिंदी-हिंदुस्तानी को प्रस्ताव द्वारा स्वीकार कर लिया. सम्मलेन के मंच से गांधी जी अपना हिंदी-हिंदुस्तानी विषयक मत सन् 1918 ई. में ही प्रकट कर चुके थे, किंतु उस समय सम्मलेन से इस विषय में कोई प्रस्ताव नहीं किया था. सन् 1935 ई. में गांधी जी ने अपने उसी मत को और भी स्पष्ट करके रखा.

'हिंदी उस भाषा अका नाम अहि, जिसे हिंदू और मुसलमान, कुदरती तौर पर, बगैर प्रयत्न के बोलते हैं. हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फ़र्क नहीं अहि. देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और अरबी में लिखी जाने पर वह उर्दू कही जाती है. जो लेखक या व्याख्यानदाता चुन-चुनकर संस्कृत या अरबी शब्दों का ही प्रयोग करता है, वह देश का अहित करता है. हमारी राष्ट्रभाषा में वे सब प्रकार के शब्द आने चाहिए, जो जनता में प्रचलित हो गए हैं.'

सम्मलेन ने गांधी जी की व्याख्या स्वीकार कर ली, इस बात से उन्हें ख्गुशी हुई. हरिजन सेवक के 10 मई, 1935 वाले अंक में लिखते हुए गांधी जी ने कहा - "पहला प्रस्ताव इस तथ्य पर जोर देता है कि हिंदी प्रांतीय भाह्साओं को नष्ट नहीं करना चाहती, किंतु उनकी पूर्तिरूप बन्ना चाहती है और अखिल भारतीयता के सेवा क्षेत्र में हिंदी बोलनेवाले कार्यकर्ताओं के ज्ञान तथा उपयोगिता बढ़ाती है. वः भाषा  भी हिंदी है, जो लिख्र्र उर्दू में जाती है, पर जिसे मुसलमान और हिंदू, दोनों समझ लेते हैं. इस बात को स्वीकार करके सम्मलेन ने इस संदेह को दूर कर दिया है कि उर्दू में लिपि के प्रति सम्मलेन की कोई दुर्भावना है. तो भी सम्मलेन तो मुसलमानों के इस अधिकार को स्वीकार करता है कि अब तक जिस उर्दू लिपि में वे हिंदुस्तानी भाषा लिखते आ रहे हैं, उसमें अब भी लिख सकते हैं."

गांधी जी यह महसूस करने लगे थे कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के लिए यह काफी है कि वह दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार को बढ़ाए. जहां तक अन्य अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी के प्रचार का सवाल था, इस काम के लिए गांधी जी साहित्य सम्मेअलं की एक अलग शाखा कायम करना चाहते थे. सम्मलेन के इंदौर वाले चौबीसवें अधिवेशन में उन्होंने इस विशाल कार्य क्षेत्र की थोड़ी चर्चा की थी, जो लगभग खाली पड़ा था. दुसरे वर्ष, यानी सन् 1936 ई. में सम्मलेन का पच्चीसवाँ अधिवेशन नागपुर में हुआ, जिसके सभापति श्री राजेंद्र प्रसाद जी थे. इसी सम्मलेन में गांधी जी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव स्वीकार किया गया कि हिंदी प्रचार का कार्य करने के लिए हिंदी प्रचार समिति का गठन किया  जाए और इसका कार्यालय वर्धा में रखा जाए. इसी प्रस्ताव के अनुसार राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा का संगठन किया गया. यह समिति दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की ही तरह दक्षिण भारत के चारों प्रदेशों को छोड़कर भारत के लगभग सभी प्रदेशों में काम कर रही है. इसके सिवा, विदेशों में भी अनेक स्थानों पर समिति के परीक्षा केन्द्र हैं और वहाँ हिंदी की पढ़ाई की व्यवस्था है.

(दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा प्रकाशित 'अमृत स्मारिका' (2012) से साभार)

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

महात्मा गांधी की हिंदी निष्ठा : दिनकर की दृष्टि से

गत दिनों (14 अक्टूबर 2012 को) दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (मद्रास) का 75 वाँ दीक्षांत समारोह चेन्नई में संपन्न हुआ. इस अवसर पर ‘अमृत स्मारिका’ का प्रकाशन किया गया है. हिंदी के प्रचार-प्रसार में दक्षिण भारत के लोगों एवं दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के योगदान को रेखांकित करने वाले आलेखों को इस स्मारिका में संकलित किया गया है. यह स्मारिका वास्तव में संग्रहणीय बन पड़ी है. इस दस्तावेजी संकलन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इसका प्रथम आलेख ‘गांधीजी और हिंदी प्रचार’ जिसके लेखक डॉ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं. 

राष्ट्रकवि दिनकर ने इस निबंध में यह याद दिलाया है कि गांधी युग से पूर्व स्वामी दयानंद और स्वामी श्रद्धानंद ने हिंदी को राष्ट्रभाषा और शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया था. 1918 में जब महात्मा गांधी हिंदी साहित्य सम्मलेन के इंदौर अधिवेशन के सभापति चुने गए तो उन्होंने दक्षिण में हिंदी के प्रचार के बारे में गहराई से विचार-विमर्श किया. उन्होंने महसूस किया कि अंतःप्रांतीय व्यवहार, राष्ट्रीय गतिविधि, कांग्रेस के अधिवेशन और उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी को स्वीकार करना अपरिहार्य है क्योंकि ऐसा करके ही भारत के जनसाधारण तक पहुँचा जा सकता है. गांधी जी इस विषय में कितने गंभीर थे इसका पता 29 मार्च 1918 के उनके भाषण से लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि यह भाषा का विषय बड़ा भारी और बड़ा ही महत्वपूर्ण है; यदि सब नेता सब काम छोड़कर इसी विषय पर लगें तो बस है. उन्होंने आगे जो बात कही उसे आज भी व्यावहारिक रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा था, ‘हमें ऐसा उद्योग करना चाहिए कि एक वर्ष में राजकीय सभाओं में, कांग्रेस में, प्रांतीय भाषाओं में और अन्य समाज और सम्मेलनों में अंग्रेज़ी का एक भी शब्द सुनाई नहीं पड़े. हम अंग्रेज़ी का व्यवहार बिलकुल त्याग दें. आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें.’ 

‘दिनकर’ जी ने आगे बताया है कि महात्मा गांधी हिंदी और उर्दू को दो अलग भाषाएँ नहीं मानते थे. उन्हें हिंदी न तो एकदम संस्कृतमयी स्वीकार थी और न एकदम फारसी से लदी ही. उनके लिए आदर्श हिंदी वह थी जिसे जनसमूह सहज में समझ लें. इसीलिए उन्होंने देहाती बोली को मधुर और अकृत्रिम माना. वे चाहते थे कि लिपि चाहे अरबी रहे अथवा नागरी, भाषा का रूप देहाती बोली वाला ही रहना चाहिए जो गंगा-यमुना के संगम सा शोभित और अचल रह सकता है. ‘दिनकर’ जी ने यह भी याद दिलाया है कि गांधी जी चाहते थे कि इस भाषा में फारसी और संस्कृत के प्रचलित शब्द सहज भाव से स्वीकार किए जाएँ ताकि यह हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन सके. इसे उन्होंने भारतवासियों की अंग्रेज़ी के मोह से मुक्ति के लिए भी आवश्यक माना. गांधी जी मानते थे कि अंग्रेज़ी का ज्ञान भारतवासियों के लिए बहुत आवश्यक है लेकिन किसी भाषा को उसका उचित स्थान देना एक बात है और उसकी जड़-पूजा करना दूसरी. इस संदर्भ में ‘दिनकर’ जी जोर देकर कहते हैं कि अंग्रेज़ी का उचित स्थान इस देश में लैंग्वेज ऑफ काम्प्रिहेंशन अथवा ज्ञान की एक भाषा भर का हो सकता. इसके अलावा शिक्षा और शासन के सारे कार्य भारतीय भाषा (जनता की भाषा) में होने चाहिए. आगे उन्होंने पुनः गांधी जी को उद्धृत किया है कि जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं. 

दरअसल 1918 का इंदौर सम्मलेन हिंदी आंदोलन के लिए ही नहीं भारतीय संस्कृति की सामासिकता की दृष्टि से भी ऐतिहासिक महत्व का है. इस सम्मलेन में गांधी जी ने राष्ट्रभाषा की अपनी अवधारणा तो प्रस्तुत की ही यह प्रस्ताव भी रखा कि प्रति वर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने को प्रयाग जाएँ और हिंदी भाषा-भाषी 6 युवकों को दक्षिणी भाषाएँ सीखने तथा साथ साथ वहाँ हिंदी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएँ.  दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना पर कुछ वर्ष तक इस प्रकार का आदान-प्रदान चला भी, लेकिन बाद में रुक गया. लगभग एक शताब्दी बाद आज भी यह योजना उतनी ही प्रासंगिक और जरूरी है. अब इस आदान-प्रदान योजना में पूर्वोत्तर भारत को भी शामिल करना जरूरी है और संख्या को भी 6 के बजाय 60 से 600 तक बढ़ाया जा सकता है. इस प्रकार हिंदी के जो स्वयंसेवक तैयार होंगे वे भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रचारक बन सकेंगे. 

अपने आलेख में डॉ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने एक रोचक वाकये का जिक्र करते हुए लिखा है कि गांधी जी ने अपने सतत चलने वाले प्रचार से देश में वह हवा पैदा कर दी कि राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में वक्ता जब अंग्रेज़ी में भाषण शुरू करते, तब अहिंदी-भाषी श्रोता भी ‘हिंदी-हिंदी’ का नारा लगाने लगते थे. इस नई हवा का असर देश के बड़े लोगों पर भी पड़ने लगा. 6 अप्रैल सन 1920 ई. को भावनगर (सौराष्ट्र) में गुजराती साहित्य परिषद का छठा अधिवेशन हुआ, जिसके सभापति श्री रवींद्रनाथ ठाकुर थे. इस सम्मेलन में अपना अध्यक्षीय भाषण गुरुदेव ने हिंदी में दिया था. भाषण के मुखबंध में उन्होंने कहा था कि “आपकी सेवा में खड़ा होकर विदेशीय भाषा कहूँ, यह हम चाहते नहीं. पर जिस प्रांत में मेरा घर है, वहाँ सभा में कहने लायक हिंदी का व्यवहार है नहीं. महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिंदी में कहने के लिए. यदि हम समर्थ होते, तब इससे बड़ा आनंद कुछ होता नहीं. असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिंदी में बोलूँगा.” यही नहीं, यह सूचना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि 1925 में हिंदी साहित्य सम्मलेन के भरतपुर अधिवेशन में भी गुरुदेव पधारे थे और हिंदी में बोलकर हिंदी के पक्ष का समर्थन किया था. इतना ही नहीं ‘दिनकर’ जी ने इस आलेख में यह भी रेखांकित किया है कि ऐनी बसंट, महाकवि सुब्रह्मण्य भारती, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और ऐसी ही अनेक महापुरुषों की भाँति ई.वी.रामस्वामी नायकर (पेरियार) भी हिंदी प्रचार के अत्यंत उत्साही समर्थक रहे हैं. 

हम पुनः कहना चाहेंगे कि ‘दिनकर’ जी का उक्त आलेख ऐतिहासिक धरोहर के समान है जिसे ‘अमृत स्मारिका’ में प्रकाशित करके दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने आज की पीढ़ी की आँख खोलने का काम किया है. इस हेतु अमृत स्मारिका के प्रधान संपादक श्री आर.एफ.नीरलकट्टी एवं प्रबंध संपादक श्री आर. राजवेल अभिनंदनीय हैं. हमारे विचार से इस सामग्री का प्रचार-प्रसार भारत भर में किया जाना चाहिए. 

महात्मा गांधी का भाषा-विमर्श


”भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जनसमूह सहज में समझ ले. देहाती बोली सब समझते हैं. भाषा का मूल करोड़ों मनुष्य रूपी हिमालय में मिलेगा और उसमें ही रहेगा. हिमालय में से निकलती हुई गंगाजी अनंतकाल तक बहती रहेगी, ऐसे ही देहाती हिंदी का गौरव रहेगा और छोटी-सी पहाड़ी से निकलता हुआ झरना सूख जाता है, वैसे ही संस्कृतमयी और फ़ारसीमयी हिंदी की दशा होगी.” - महात्मा गांधी 

गांधी जी ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जिसमें न कोई हिंदू होगा, न मुसलमान, न सिख, न ईसाई और न दलित. होंगे तो केवल इंसान होंगे जिनका धर्म होगा इंसानियत. इंसानियत को व्याख्यायित करने की या परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है चूंकि वह स्वयं सिद्ध है. लेकिन आज उस इंसानियत को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, राष्ट्र के नाम पर, भाषा के नाम पर टुकड़ों में, खेमों में बाँट दिया गया है. आज प्रजातंत्र ‘For the people, Of the people and By the people’ न होकर ‘Far the people, Off the people and Buy the people’ बनता जा रहा है. एक हद तक बन भी गया है. गांधी जी का सपना (रामराज्य स्थापित करने का) महज सपना बनकर रह गया है.

महात्मा गांधी के विचारों की जड़ें भारतीय संस्कृति से रस ग्रहण करती हैं. उनके व्यक्तित्व में एक विलक्षणता और अद्भुत शक्ति थी जिससे देश-विदेश के लोग प्रभावित थे. वे अक्सर यह कहा करते थे कि गांधीवाद जैसा कोई वाद नहीं है. और यह सही भी है क्योंकि उनके व्यावहारिक चिंतन को वाद की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता. इस संदर्भ में उनका कथन द्रष्टव्य है – “गांधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है और न ही मैं अपने पीछे कोई संप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ. मैं कदापि यह दावा नहीं करता कि मैंने किन्हीं नए सिद्धांतों को जन्म दिया है. मैंने तो अपने निजी शाश्वत सत्यों को दैनिक जीवन और उसकी समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्न मात्र किया है. मैंने जो समितियाँ बनाई हैं और जिन परिणामों पर मैं पहुँचा हूँ वे अंतिम नहीं है. मैं उन्हें बदल भी सकता हूँ. मुझे संसार को कुछ नया नहीं सिखाना है. सत्य और अहिंसा इतने ही पुराने हैं जितनी ये पहाडियाँ. मैंने तो केवल व्यापक आधार पर सत्य और अहिंसा के आचारण में जीवन और उसकी समस्याओं का अनेक विधियों से परीक्षण किया है. अपनी सहज जन्मजात प्रकृति से मैं सच्चा तो रहा हूँ और अहिंसक नहीं. सत्य तो यह है कि सत्य मार्ग की खोज में ही मैंने अहिंसा को ढूँढ़ निकाला. मेरा दर्शन जिसे आपने गांधीवाद का नाम दिया है सत्य और अहिंसा में निहित है, आप इसे गांधीवाद के नाम से न पुकारें, क्योंकि इसमें ‘वाद’ तो नहीं है.” (डॉ.लक्ष्मी सक्सेना, समकालीन भारतीय दर्शन, पृ.89 से उद्धृत).

अपने सत्य और अहिंसा के इस व्यावहारिक चिंतन को महात्मा गांधी ने सूत्र रूप में 'हिंद स्वराज' में बहुत बेबाकी से व्यक्त किया है। उन्होंने अन्य विषयों के साथ अपने भाषा चिंतन की भी व्याख्या इसमें की है। स्मरणीय है कि राजनेता के अलावा एक पत्रकार और भाषा चिन्तक के रूप में भी गांधी जी ने भारतीयों को गहरे प्रभावित किया। वे हिंदी साहित्य सम्मलेन और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कार्यकलापों से बराबर सक्रिय रूप में जुड़े रहे तथा उनके भाषा विमर्श का स्वतंत्र भारत के भाषा नियोजन पर गहरा प्रभाव है, “मात्र हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के साहित्येतिहास और कालविभाजन में ‘गांधी युग’ अपनी अलग पहचान और अपना व्यापक प्रभाव लिए हुए व्याख्यायित है.” (प्रो.दिलीप सिंह, गांधी, प्रेमचंद और हम; ‘स्रवन्ति’, अक्टूबर 2010; पृ.4). गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ में पाठक-संपादक की शैली में स्वराज्य, इंग्लैंड की हालत, सभ्यता का दर्शन, हिंदुस्तान की दशा, उसकी आजादी की संभावनाएँ, हिंदू-मुस्लिम संबंध, राजनैतिक और आर्थिक विकेंद्रीकरण, पत्रकारों की आचार संहिता, शिक्षा, भाषा, सत्य और अहिंसा जैसे अनेकानेक विषयों का खुलासा किया है. मैं यहाँ विशेष रूप सेगांधी जी की भाषा संबंधी मान्यताओं पर प्रकाश डालना चाहूँगी.

गांधी जी ने हिंदी भाषा के विकास के लिए जो कुछ भी किया है वह अतुलनीय है. उन्होंने यह महसूस किया कि पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए तथा स्वराज्य प्राप्त करने के लिए एक ऐसी भाषा की जरूरत है जो 'हिंद' की होगी – हिंदुस्तान की होगी. इस संबंध में वे कहते हैं कि “हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेज़ी नहीं बल्कि हिंदी है. वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे.” (महात्मा गांधी, हिंद स्वराज, नया ज्ञानोदय, अंक 82, दिसंबर 2009 (101 वीं वर्षगाँठ पर ‘हिंद स्वराज’ की अविकल प्रस्तुति), पृ. 112). उन्होंने देश के साथ साथ हिंदी सेवा के लिए अपने आपको समर्पित किया. हिंदी के प्रचार-प्रसार करने और उसे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने चेन्नई (मद्रास) में 1918 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की. “’राष्ट्रभाषा’ को राष्ट्रीय एकात्मकता और स्वतंत्रता संग्राम का एक हथियार बनाकर पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का जो स्वप्न महात्मा गांधी ने देखा था, उनके इसी स्वप्न की परिणति दक्षिण भारत में सभा की स्थापना से हुई. इसकी भूमिका 1918 (इंदौर के आठवें अधिवेशन) में बनी, जिसमें महात्मा गांधी ने हिंदी के विस्तार का व्रत अपने विधायक कार्यक्रम में उसे राष्ट्रभाषा बनाकर लिया और इसके लिए उन्होंने व्यापक पैमाने पर देशव्यापी प्रयत्न किए.” (प्रो.दिलीप सिंह, ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’, हिंदी भाषा चिंतन, पृ.265).

महात्मा गांधी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक संगठन और संस्थाओं की स्थापना की. वे वस्तुतः 'हिंदुस्तानी' के पक्षधर थे. उन्होंने अंग्रेज़ी मोह के आवरण को हटाकर हिंदी का - विशेष रूप से हिंदुस्तानी का पक्ष लिया और कहा कि “हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं. यह राष्ट्रीय होने लायक है. वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है जिसे अधिक संख्यक लोग जानते और बोलते हों और सीखने में सुगम हो.” (गोपाल शर्मा, ‘हिंदी और गांधी’, राजभाषा हिंदी : विचार और विश्लेषण, पृ.98 से उद्धृत). 

हिंदी गांधी जी की मातृभाषा नहीं थी. परन्तु उन्होंने यह महसूस किया कि भारतीय जनता हिंदी का प्रयोग अधिक करती है तो अत्यंत तत्परता से उन्होंने हिंदी सीखी. उनका मत था कि जिस देश की अपनी भाषा नहीं उसे जीने का अधिकार क्या हो सकता है! इसीलिए उन्होंने भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही यह सन्देश दिया था कि दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेज़ी नहीं जानता. उन्होंने कहा कि ''अपनी भाषा को तोतली बोलोगे तो भी वह मीठी लगेगी. विदेशी भाषा में न कभी सच्ची स्वाभाविकता पा सकोगे न सही तेजस्विता. हिंदी के बिना राष्ट्र गूंगा है.” लेकिन भारतीय जनगण का दुर्भाग्य रहा कि गांधी के बाद हमें उनके जैसा कोई भारतीय भाषाओं से प्रेम अर्ने वाला या भारतीय ज़मीन से जुडा नेता नहीं मिला; और हिंदी राजभाषा होकर भी अंग्रेज़ी की गुलामी से मुक्त नहीं हो सकी। 

गांधी जी मातृभाषा के पक्षधर थे. उनका मत था कि स्वदेशी भाषा और संस्कृति की बलि देकर अंग्रेज़ी नहीं सीखनी चाहिए. उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को आगे बढ़ाया . उनके अनुसार बुनियादी शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए . उनका यह कथन भाषा विषयक उनकी तड़प का द्योतक है – “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए दी जाने वाली हमारे लड़कों और लड़कियों की शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरंत बदलवा दूँ या उन्हें बर्खास्त कर दूँ. मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इंतज़ार नहीं करूँगा. वे तो माध्यम के पीछे पीछे अपने आप चली आएंगी. यह एक ऐसी बुराई है जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए.” गांधी जी इस बात पर बल देते थे कि “जो लोग अंग्रेज़ी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए, उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिए. ... हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए. ... जो अंग्रेज़ी पुस्तकें काम की हैं उनका अपनी भाषा में अनुवाद करना होगा. ... हर एक पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फ़ारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए. कुछ हिंदुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए. उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए. सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिंदी ही होनी चाहिए. उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए. हिंदू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए बहुत से हिन्दुस्तानियों का इन दोनों लिपियों को जान लेना ज़रूरी है. ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार से अंग्रेज़ी को निकाल सकेंगे.” (महात्मा गांधी, हिंद स्वराज, नया ज्ञानोदय, अंक 82, दिसंबर 2009 (101 वीं वर्षगाँठ पर ‘हिंद स्वराज’ की अविकल प्रस्तुति), पृ. 109).

गांधी जी बार बार हिंदी पर जोर देते थे. अंग्रेज़ी के बारे में तो उनका स्पष्ट मत था कि वह भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती. 20 अक्टूबर 1917 को भरूच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा परिषद में राष्ट्रभाषा के लिए उन्होंने पाँच लक्षणों का होना अनिवार्य बताया था –
1. अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए.
2. उस भाषा के द्वरा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए.
3. यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत-से लोग उस भाषा को बोलते हो.
4. राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए.
5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अल्प स्थायी स्थिति पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए.” 

गांधी जी ने यह भी बताया कि ये लक्षण अंग्रेज़ी में नहीं है बल्कि हिंदी में है तथा हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं. यह राष्ट्रीय होने लायक है. हिंदी भाषा के बारे में स्पष्ट करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि “हिंदी मैं उसे कहता हूँ जिसे उत्तरी भारत में हिंदू तथा मुसलमान बोलते हैं तथा जो नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है. हिंदी तथा उर्दू दो अलग अलग भाषाएँ नहीं हैं. शिक्षित लोगों ने उनमें अंतर कर रखा है.” 

निष्कर्षतः महात्मा गांधी के भाषा संबंधी कतिपय सूत्र  –
  • हिंदी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है. हमने वर्षों पहले उसका राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग किया है. उर्दू भी हिंदी की इस शक्ति से पैदा हुई है. (20 अक्टूबर 1917 को भरूच में संपन्न दूसरी गुजरात शिक्षा परिषद का अध्यक्षीय भाषण.)
  •  हमें एक मध्य भाषा की भी जरूरत है. देशी भाषाओं की जगह पर नहीं परंतु उनके सिवा. इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होना चाहिए, जो हिंदी और उर्दू के मेल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की और न फारसी और अरबी की ही बरमार हो. (वही).
  •  हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देशी भाषाओं की कई लिपियाँ है. अगर एक सामान्य लिपि अपनाना संभव हो, तो एक सामान्य भाषा का हमारा जो स्वप्न है (अभी तो यह स्वप्न ही है) उसे पूरा करने के मार्ग की एक बड़ी बाधा दूर हो जाएगी. (वही).
  • भिन्न भिन्न लिपियों का होना कई तरह से बाधक है. वह ज्ञान की प्राप्ति में एक बड़ी रुकावट है. (वही).
  • मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिन्दुस्तानी की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए. (वही).
  • हमें एक सामान्य भाषा की वृद्धि करनी होगी. अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रांतीय लिपि के साथ साथ मैं सब प्रान्तों में देवनागरी लिपि और उर्दू लिपि का सीखना अनिवार्य कर दूँ और विभिन्न देशी भाषाओं की मुख्य मुख्य पुस्तकों को उनके शब्दशः हिन्दुस्तानी अनुवाद के साथ देवनागरी में छपवा दूँ. (वही). 
  •  करोड़ों लोगों को अंग्रेज़ी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी. (हिंद स्वराज्य)
  •  जिस शिक्षा को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया है वह हमारा सिंगार बनती है, यह जानने लायक है. उन्हीं के विद्वान कहते रहते हैं कि उसमें यह अच्छा नहीं है, वह अच्छा नहीं है. वे जिसे भूल-से गए हैं, उसी से हम अपने अज्ञान के कारण चिपके रहते हैं. उनमें अपनी अपनी भाषा की उन्नति के कोशिश चल रही है. वेल्स इंग्लैंड का एक छोटा-सा परगना है; उसकी भाषा धूल जैसी नगण्य है. ऐसी भाषा का अब जीर्णोद्धार हो रहा है. वेल्स के बच्चे वेल्श भाषा में ही बोलें, ऐसी कोशिश वहाँ चल रही है. इसमें इंग्लैंड के खजांची लॉयड जॉर्ज बड़ा हिस्सा लेते हैं. और हमारी दशा कैसी है? हम एक-दूसरे को पत्र लिखते हैं तब गलत अंग्रेज़ी में लिखते हैं. एक साधारण एम.ए. पास आदमी भी ऐसी गलत अंग्रेज़ी से बचा नहीं होता. (वही).
  • अंग्रेज़ी शिक्षा को लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है. अंग्रेज़ी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैराह बढ़े हैं. अंग्रेज़ी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है. (वही).
  • हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेज़ी जानने वाले लोग ही हैं. राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी. (वही).
  • हिंदी सुधार (सभ्यता) सबसे अच्छा है, और यूरोप का सुधार तो तीन रोज का तमाशा. (वही).
  •  भारत के गाँवों में हिंदी भाषा के द्वारा ही सेवा संभव है. आज लोगों को राष्ट्रभाषा हिंदी सीख लेने की प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए. (वही).
  • मैं अंग्रेज़ी से नफरत नहीं करता पर मैं हिंदी से अधिक प्रेम करता हूँ. इसलिए मैं हिन्दुस्तान के शिक्षितों से कहता हूँ कि वे हिंदी को अपनी भाषा बना लें. (वही).
  • लिपियों में मैं सबसे आला दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ. यह कोई छिपी बात नहीं है फिर नागरी लिपि यदि संपूर्ण है तो उसी का साम्राज्य अंत में होगा. (वही).
यह आलेख 'भास्वर भारत' के प्रवेशांक (अक्टूबर 2012) में 'गांधी जी की राय में एक राष्ट्रभाषा से अधिक एक राष्ट्रलिपि की आवश्यकता' शीर्षक से प्रकाशित  हुआ है.

शनिवार, 10 नवंबर 2012

कथाकार अशोक भाटिया का ''कथा-कथन'' 11 नवंबर को



हैदराबाद, 10 नवंबर 2012.
कुरुक्षेत्र [हरियाणा] से हैदराबाद पधारे कवि एवं लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया के सम्मान में नवोदित मासिक पत्रिका ''भास्वर भारत'' के तत्वावधान में रविवार, 11 नवंबर को अपराह्न 3 बजे से खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में ''कथा-कथन'' कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. कार्यक्रम की अध्यक्षता अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व-हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. एम. वेंकटेश्वर करेंगे तथा नगरद्वय के विशिष्ट साहित्यकार उपस्थित रहेंगे.आयोजकों ने सभी साहित्यप्रेमियों से अनुरोध किया है  यथासमय पधार कर ''कथा-कथन'' का रसास्वादन करें और अपनी गरिमामयी उपस्थिति से कार्यक्रम को सफल बनाएँ.

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

शिक्षा में भाषा और भाषा में शिक्षा

संप्रेषण की बहुमुखी व्यवस्था का नाम है – भाषा. वह सोचने-विचारने का माध्यम है और सामाजिक संस्था भी है. साहित्यिक साधन के साथ साथ वह शिक्षा का भी साधन और साध्य दोनों है. उसमें जहाँ संपूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधने की शक्ति है वहीं देश को टुकड़ों में, खेमों में तोड़ने की शक्ति भी है. इस संदर्भ में सर्वप्रथम स्मरणीय तथ्य यह है कि भाषा हमारी धरोहर है. हर व्यक्ति सहज रूप से दैनंदिन जीवन में पल पल भाषा का प्रयोग करता है. मातृभाषा के रूप में हो या प्रथम भाषा के रूप में, द्वितीय भाषा के रूप में हो या विदेशी भाषा के रूप में. मनुष्य को जैविक जंतु से सामाजिक-सांस्कृतिक प्राणी बनाने का माध्यम वस्तुतः भाषा ही है. भाषा के बिना मानव अस्तित्व की कल्पना करना भी असंभव है. अतः किसी भी सभ्य-संस्कृत समाज में भाषा के प्रति व्यापक दृष्टिकोण अपनाना अपरिहार्य होता है. 

यह सर्वविदित है कि भाषा एकरूपी न होकर विषमरूपी है. समाज में अनेक भाषाएँ तो हैं ही, एक भाषा भी अनेक रूपों में प्रचलित होती है. लचीलापन उसका एक प्रमुख गुण है. भाषा के बारे में अनेक विचार प्रचलित हैं. मानव शिशु सहज रूप से भाषा अर्जित करता है. इसी प्रवृत्ति के आधार पर उसे ‘इन्नेट टेंडेंसी’ कहा गया है. भाषा वस्तुतः समाज की संस्कृतिवाहिनी है. 

सस्यूर ने अपने भाषा चिंतन में कई मूलभूत प्रश्न उठाए थे. उनकी मान्यता थी कि ‘भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है अतः उसको समझने के लिए प्रतीकों से संबंधित विज्ञान के अध्ययन का रास्ता अपनाना होगा.’ सस्यूर का दृष्टिकोण भाषा को ‘मानवीय व्यवहार’ के रूप में देख सका. चॉम्स्की ने भाषा और उसके अध्ययन को संज्ञानवाद (Cognitism) अर्थात मनुष्य की ज्ञान अर्जन की प्रकृति से जोड़ा. उनके अनुसार 'भाषा अपनी आतंरिक प्रवृत्ति में मानव मन का दर्पण है और सार्वभौमिक व्याकरण का अध्ययन इसीलिए मानव मन की बोधात्मक क्षमता का अध्ययन है.' उन्होंने भाषा व्यवस्था (Language Competence, Lang) को भाषा व्यवहार (Language Performance, Parole) से अधिक महत्व दिया है.

लेबॉव ने भाषा को 'शुद्ध भाषिक प्रतीकों की व्यवस्था न मानकर, सामाजिक प्रतीकों की एक उपव्यवस्था' के रूप में परिभाषित किया. उन्होंने भाषिक विकल्पन (Language Variation) की संकल्पना को समझाया. हैलिडे ने वाक् भेद (Speech Variety) का व्यापक अध्ययन किया. उन्होंने इसके कुछ प्रकार भी निर्धारित किए - सामाजिक वाक् भेद (Social Dialect or Sociolect), क्षेत्रीय वाक् भेद (Regional Dialect or Regional Style), प्रयोजनमूलक वाक् भेद (Functional Styles - Domains & Registers). डेल हाइम्स ने 'भाषा में संस्कृति का संबंध' प्रतिपादित करते हुए यह स्थापित किया कि 'भाषा का संबंध भाषा समाज के मनोविज्ञान से भी होता है अतः भाषा व्यवहार तो सांस्कृतिक होता ही है, भाषा द्वारा संपन्न सांस्कृतिक व्यवहार का भी मनोविज्ञान होता है.' उन्होंने भाषा में संस्कृति की संकल्पना को सुदृढ़ करने के लिए 'होम मेड मॉडल' (लोक संस्कृति) को महत्व दिया.  

कहने का मतलब है कि भाषा समाज और संस्कृति से जुड़ी है, इसमें दो राय नहीं. शिक्षा और भाषा की बात करते समय याद रखने की बात यह भी है कि भारत बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश है. इस देश में लंबी अवधि से हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियाँ भाषा संपर्क से जुड़ी हैं. इन दोनों संस्कृतियों के समन्वय का परिणाम ही हिंदी भाषा की हिन्दुस्तानी शैली में देखा जा सकता है. भाषा पढ़ते-पढ़ाते समय यदि साहित्य भाषा के सांस्कृतिक शैली भेदों पर भी ध्यान दिए जाए तो यह पद्धति सांस्कृतिक एकता के बोध का आधार बन सकती है. 

इस संबंध में प्रो.दिलीप सिंह की मान्यता है कि "किसी भी मनुष्य के लिए दर्शन, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आवश्यक होता है. किसी समाज में जन्म लेते ही वह इनसे स्वतः बंध जाता है. भाषा क्योंकि मानव समाज की संपत्ति है अतः उसमें भी ये तीनों अंतर्भुक्त होते हैं - भाषा दर्शन, भाषा का समाजशास्त्र और भाषा समाज का मनोविज्ञान भाषा के व्यावहारिक विकल्पों में गुंथे होते हैं. इसलिए भाषा एक बहुआयामी यथार्थ है, एक सामाजिक यथार्थ. साहित्य भी क्योंकि भाषाबद्ध होता है, इसलिए उसमें भी ये तीनों घुले-मिले रहते हैं. रचनाकार सामान्य भाषा को हीरे की तरह तराश कर एक ऐसा बहुकोणीय आकार देता है कि भाषा में निहित ये तीनों पक्ष प्रकाशित होने लगते हैं. हम एक शिक्षक के रूप में भाषा संरचना और भाषा सिद्धांत की जानकारी रख सकते हैं या साहित्यिक पाठ की विषयवस्तु जान सकते हैं. पर उद्देश्य बाधित भाषा-२ शिक्षण की मूलचिंता यह है कि हम शिक्षार्थी को यह सब पूर्णता में कैसे दें. कोई भी भाषा कभी न तो निःसंगत (Isolation) में पैदा होती है और न ही निःसंगत में हम उसका प्रयोग करते हैं. अतः साहित्यिक भाषा को निःसंगत में डाल कर प्रस्तुत करना शिक्षार्थी की दक्षता को अधूरा और सीमित बनाना है. भाषा महत्वपूर्ण है, पर भाषा शिक्षण में जयादा महत्वपूर्ण यह है कि हम भाषा को पढ़ाएँ कैसे? इसी तरह साहित्य की विषयवस्तु महत्वपूर्ण है पर साहित्य शिक्षण की दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम यह कैसे दिखाएँ कि वह गठित कैसे हुई तथा उसमें कौन कौन से समाज-सांस्कृतिक तत्व मथे हुए हैं. साहित्य शिक्षण प्रक्रिया में भी अनुदेश (Instruction), संज्ञान (Cognition) और आभ्यंतरीकरण (Internalization), ये तीनों चरण महत्वपूर्ण होने चाहिए. भाषा शिक्षण के अधुनातन चिंतन में 'क्या, कैसे और कब' पढ़ाया जाए, इस बात को पाठ्य सामग्री और शिक्षण गतिविधि में अपनाने की अच्छी स्थिति आज बन चुकी है, पर साहित्य शिक्षण में हम आज भी 'क्या' पर तो जोर देते है (वह भी लेखक के नाम, पाठ की विषयवस्तु और विधागत प्रतिनिधित्व के आधार पर ही ज्यादा, पाठों के अनुस्तरण और शिक्षण बिंदु के आधार पर कम) लेकिन 'कैसे और कब' पर लगभग नहीं के बराबर. शिक्षक की सजगता का अर्थ है यह जानना कि प्रत्येक भाषा अपने अनुभव संसार को ढंग से संयोजित और व्यक्त करती है. भौतिक धरातल पर ये तथ्य भले ही एक हों किंतु बोधन के धरातल पर किसी भाषा समाज द्वारा अपनी विशिष्ट सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि के कारण ये नए संदर्भ में ग्रहण किए जाते हैं. अर्थात संसार को देखने की प्रत्येक भाषा समाज की जीवन जगत के प्रेरित दृष्टि एवं उसकी समग्र जीवन पद्धति की जानकारी के अभाव में प्रायः असंभव है." 

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम बात को समझें कि स्वभाषा की शिक्षा के साथ ही स्वभाषा के माध्यम से शिक्षा हमारे व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए परम आवश्यक है. अतः फिर से ऐसा आंदोलन छेड़ा जाना चाहिए जिसका लक्ष्य शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को प्रतिष्ठित करना हो. साथ ही द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषी छात्रों को दक्षिण या पूर्वोत्तर की भाषाएँ पढ़ाई जाएँ ताकि सांस्कृतिक ऐक्य की लक्ष्य-सिद्धि हो सके. तीसरी भाषा के रूप में अंग्रेज़ी अथवा अन्य विदेशी भाषाएँ पढ़ी-पढ़ाई का सकती हैं.

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

रामविलास शर्मा का भाषा विमर्श

गत वर्षों से तेलुगु, हिंदी, उर्दू और अन्य कई भारतीय भाषाओं के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की जन्मशताब्दियाँ मनाई जा रही हैं. यह वर्ष आधुनिक हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ आलोचक, समीक्षक, कवि, निबंधकार, आत्मकथाकार, जीवनीकार तथा भाषा और संस्कृतिचेता रामविलास शर्मा (10 अक्टूबर 1912 – 30 मई 2000) का जन्मशताब्दी वर्ष है. 

रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘भारत की भाषा समस्या’ पढ़ते समय यह स्पष्ट होता है कि वे भाषा के प्रति बहुत सजग थे. शायद इसीलिए उन्होंने कहा कि ’भाषा जनता के लिए है, जनता भाषा के लिए नहीं.’ भारत जैसे बहुभाषिक देश में एक ऐसी भाषा की जरूरत है जो केंद्रीय राजकाज की भाषा बन सकती है. रामविलास शर्मा मानते हैं कि वह भाषा हिंदी ही है और वह ‘पूर्ण रूप से शासन और संस्कृति की भाषा बन सकती है.’ कुछ राजनैतिक शक्तियों ने हिंदी-उर्दू विवाद खड़ा कर दिया लेकिन रामाविलास शर्मा उर्दू को हिंदी की ही एक शैली मानते हैं और जोर देकर कहते हैं कि ‘हिंदी और उर्दू मूलतः एक ही भाषा हैं और आगे चलकर दोनों घुल-मिलकर एक होंगी, बोलचाल की भाषा के आधार पर एक ही साहित्यिक भाषा का विकास होगा.’ न तो हिंदी केवल हिंदुओं की भाषा है और न ही उर्दू मुसलमानों की. बुनियादी तौर पर तो ये दोनों एक ही भाषा के दो रूप हैं. दोनों का आधार भी जनसाधारण की बोलचाल की भाषा ही है. ये दोनों तो बोलचाल की एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं. बोलचाल के स्तर पर हिंदी-उर्दू में भेद दिखाई नहीं पड़ते. अगर भेद है तो सिर्फ लेखन के स्तर पर है, उनकी उच्चस्तरीय शब्दावली में है, लिपि में है. 

रामविलास शर्मा अपनी भाषा के प्रति इतने सजग थे कि उन्हें हिंदी की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं होती. इस कारण उन्हें घोर विरोध भी सहना पड़ा. उनके इस भाषाप्रेम के बारे में स्पष्ट करते हुए अमृतलाल नागर ने कहा कि ‘हिंदी के प्रति उर्दू हिमायतियों, ‘काले साहबों’ और दूसरी भाषाओं के ‘स्नॉबी स्कॉलरों’ की बगैर पढ़ी-समझी अन्यायपूर्ण आलोचनाओं से वे तड़प उठते हैं. सेर के जवाब में यदि वे सवा सेर फेंकते तो शायद इतने बदनाम कभी न होते, लेकिन सेर पर ढैया, पसेरी या दस सेरा बटखरा खींच मारना रामविलास का स्वभाव है.’ 

हम अक्सर यह कहते हुए गर्व महसूस करते हैं कि हिंदी आम जनता की भाषा है जिसका प्रयोग सभी जातियों और धर्मों के लोग करते हैं. बोलने, लिखने और समझने में वह सरल है. हिंदुस्तान की अधिकांश जनता उसे बोलती और समझती है. यद्यपि हिंदी का रूप बदलता रहा है, लेकिन उसकी एकता नष्ट नहीं हुई. लेकिन एक ओर भाषा के नाम पर और राष्ट्रीयता के नाम पर देश को टुकड़ों में, खेमों में बाँटा जा रहा है तथा सांप्रदायिकता का ज़हर फैलाया जा रहा है. इसलिए रामविलास शर्मा कहते हैं कि ‘राष्ट्रीयता के नाम पर सांप्रदायिकता का ज़हर फैलाने वाला यह नया हिंदू राष्ट्रवादी दल भाषा को धर्म के साथ जोड़कर हिंदी को जनता की भाषा के पद से हटा देना चाहता है.’ वे इस बात पर बल देते हैं कि जब तक ‘अहिंदी भाषी प्रदेशों में वहाँ की भाषाएँ अपने पूर्ण अधिकार नहीं पातीं, तब तक उनके बीच हिंदी भी पूरी तरह परस्पर व्यवहार का माध्यम नहीं बन सकती.’ 

रामविलास शर्मा के ही शब्दों में कहा जाए तो ‘देश की भाषाएँ समान अधिकार पाकर विकसित हों और इनके बोलने वाले अंतरजातीय व्यवहार के लिए हिंदी अपनाएँ; साहित्य के क्षेत्र में बड़प्पन की होड़ लगाने के बदले भारतीय साहित्य की सामान्य विशेषताओं को भी पहचानें और एक-दूसरे से सीखने की बात सोचें.’ 

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

మానవ మనుగడ

చంద్రుడనే కవి పుడమి కాగితంపై 
కిరణమనే కలంతో 
విరచించిన వెన్నెల కవిత్వం. 

సూర్యుడు పడమరవైపు జారుకుంటే 
ప్రపంచాన్ని చీకటి ఆక్రమించుకుంటుందా ?
సముద్రగర్భంలో కూరుకుపోయినంత మాత్రాన 
ముత్యాలు నీటి బిందువులవుతాయా ?

నాగరికత, ప్రకృతి, విజ్ఞానం ఎంత పెరిగినా 
మానవుడు నిస్సహాయుడై నిలిచెను.
ఈర్ష్యా ద్వేషాలు, కక్షలు కార్పణ్యాలు 
మనిషిని కాటువేసే కాలసర్పాలైయాయి.

అవనిలో దౌర్జన్యపరులు రేకెత్తిస్తున్న రక్తపాతం 
మానవ మనుగడపై ప్రభావం చూపుతుంటే 
చేతి రేఖలకు బ్రతుకులు బానిసలై 
జీవిత ప్రణాళికను సూచిస్తున్నాయి.

రకరకాల మనుజులు, వివిధ మనస్తత్వాలు 
బాధలతో విలవిలలాడుతూ 
అసూయ తప్ప ఆత్మీయత తెలియని 
వర్తమానంలోకి కూరుకుపోతున్నారు.

మానవ హృదయాలను 
ఆవరించిన కరిమేఘాలు మాయమై 
ఉషోదయపు ధవళ రేఖలు  ఉదయించేడెప్పుడు ?
గుర్రంకొండ నీరజ 



हिंदी लिप्यन्तरण 

मानव मनुगड
 [मानव जीवन ]

चंद्रुडने कवि पुडमि कागितंपै 
किरणमने कलंतो 
विरचिंचिन वॆन्नॆल कवित्वं. 

सूर्युडु पडमरवैपु जारुकुंटे 
प्रपंचान्नि चीकटि आक्रमिंचुकुंटुंदा ?
समुद्रगर्भंलो कूरुकुपोयिनंत मात्रान 
मुत्यालु नीटि बिंदुवुलवुताया ?

नागरिकत, प्रकृति, विज्ञानं ऎंत पॆरिगिना 
मानवुडु निस्सहायुडै निलिचॆनु.
ईर्ष्या द्वेषालु, कक्षलु कार्पण्यालु 
मनिषिनि काटुवेसे कालसर्पालैयायि.

अवनिलो दौर्जन्यपरुलु रेकॆत्तिस्तुन्न रक्तपातं 
मानव मनुगडपै प्रभावं चूपुतुंटे 
चेति रेखलकु ब्रतुकुलु बानिसलै 
जीवित प्रणाळिकनु सूचिस्तुन्नायि.

रकरकाल मनुजुलु, विविध मनस्तत्वालु 
बाधलतो विलविललाडुतू 
असूय तप्प आत्मीयत तॆलियनि 
वर्तमानंलोकि कूरुकुपोतुन्नारु.

मानव हृदयालनु 
आवरिंचिन करिमेघालु मायमै 
उषोदयपु धवळ रेखलु  उदयिंचेडॆप्पुडु ?

 - नीरजा 

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

अक्षर मेरा अस्तित्व




‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ [2011] तेलुगु कवयित्री डॉ. सी. भवानीदेवी की हिंदी में अनूदित कविताओं का पहला संग्रह है. इस संकलन में 41 कविताएँ और 10 नानीलु (नन्हे मुक्तक) सम्मिलित हैं. तेलुगु में डॉ.भवानीदेवी के 7 कविता संग्रहों और 2 नानीलु संग्रहों के साथ साथ अनेक समीक्षात्मक आलेख, कहानियां और यात्रावृत्त प्रकाशित हैं. ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ के माध्यम से अनुवादिका श्रीमती आर.शांता सुंदरी ने डॉ.भवानीदेवी की रचनाओं से हिंदी साहित्य जगत को परिचित कराया है. ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ के लोकार्पण के अवसर पर मैं कवयित्री डॉ.सी.भवानीदेवी और अनुवादिका श्रीमती आर. शांता सुंदरी को हार्दिक शुभकामनाएँ देती हूँ. 

तेलुगु कविता के क्षेत्र में ‘नानीलु’ के प्रवर्तक के रूप में प्रो.एन.गोपि को जाना जाता है. भवानीदेवी ने प्रो.एन.गोपि के कवित्व से प्रेरणा पाकर इस काव्य विधा को अपनाया. जहां तक मेरा सीमित ज्ञान है, तेलुगु कवयित्रियों में इस विधा को अपनाने वाली प्रथम कवयित्री भवानीदेवी ही हैं. विवाह से संबंधित उनका एक ‘नानी’ इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि बड़े सहज रूप में लोग उसका प्रयोग करते रहते हैं – “विवाहमा/ एंता पनि चेसावु/ ना पुट्टिंटिकि/ नन्ने अतिथिनि चेसावु.” (विवाह/ तुमने यह क्या किया/ मायके में मुझे/ मेहमान बना दिया). 

भवानीदेवी संवेदनशील कवयित्री हैं. उनकी कविताओं में मूर्त-अमूर्त और जड़-चेतन सब निहित हैं. महाकवि श्रीश्री ने कहा है कि कविता के लिए कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं है. उनके अनुसार तो यह जगत पद्मव्यूह है और कविता एक अनबुझी प्यास है. इसीलिए शायद भवानीदेवी ने तकिया से लेकर गुड़िया, पत्थर, लालटेन, ताजमहल, विज्ञापन, घड़ी के फ्रेम,किताब, मोर पंख आदि के माध्यम से नए नए बिंब गढे – 

“मेरा बचपन/ किताबों में मोर पंख-सा छिपा हुआ है/ पत्तों के बीच में से छलकती चांदनी की तरह/ मेरी आत्मा खिलती रही उसी छत पर/ एकांत घड़ी के फ्रेम में/ काल गमन सूचक पेंडुलम की राह में/ उसी घर के दर्पण में/ वयरूप होने का पाउडर लगाया था/ मैंने घड़ी घड़ी.” (प्रतीक्षा) 

भवानीदेवी की कविताओं को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि कवयित्री को समाज की चिंता है. उनकी मूलभूत चिंता व्यक्ति, वर्ग या वर्ण नहीं है बल्कि मनुष्य है. इसीलिए वे कहती हैं कि “मानवी बनूँ/ प्यूपा को तोड़कर/ तितली बनकर हवा के संग-संग उड़ जाऊं...” (नौकरी). 

कवयित्री परिवेश के प्रति संवेदनशील हैं. वे कहती हैं – “गुर्तुलेनि नेस्तम!/ भूतद्दानिकिकूडा दोरकनि नल्लपूसवैयावु/ कांक्रीटु जन्गिल्स, सेलफोनल प्रकंपनालु/ मी पसिडिगूल्लनु काटेयटम/ ना उरुकू परुगुल जीवितमलो/ ओक्कसारैना तलवलेनि विषादम” (गूडू). इस अंश का अनुवाद बहुत ही सहज और लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप है – “कहाँ खो गई कि नज़र ही नहीं आती!/ कांक्रीट जंगलों में सेलफ़ोन के प्रकम्पनों का/ तेरे सुनहरे घोंसले को डसना एक विषाद है/ मेरी दौड़ धूप वाली ज़िंदगी में” (उन दिनों का घोंसला). यह अंश पढ़ते समय मुझे प्रो.एन.गोपि की कविता का वह अंश याद आया जिसमें वे कहते हैं कि - “कम्युनिकेशन के शोर से घबराकर/ कबूतर उड़ते चले जा रहे हैं/ उन्हें पकड़कर रोकिए/ ‘हैलो’ के एक ही तीर से/ रसार्द्र जीवन के खजाने को मत नष्ट कीजिए.” (एन.गोपि, मरती हुई चिठ्ठी, समय को सोने नहीं दूंगा). 

भवानीदेवी मानव संबंधों को ज्यादा महत्व देती हैं. आज की संवेदनहीन दुनिया को देखकर वे विचलित होकर कहती हैं – “मानव संबंधालनु/ की बोर्ड मीद ओत्तलेम कदा!” [मानव संबंधों को/ की-बोर्ड पर दबाया तो नहीं जा सकता है न! (अक्षर मेरा अस्तित्व)]. आज का मनुष्य भीड़ में भी अकेला है. वह जीवन की आपाधापी में अपने आप तक से कटता जा रहा है. बाज़ार ने मानवीय संबंधों को अपने कब्जे में कर लिया है. “ओक्टोपस सौंदर्य के बाज़ार में/ कपड़ों और मूल्यों का शिकार करनेवाला तो/ वर्तमान विज्ञापनों का अंकों का संसार ही है!” (एक सौंदर्य वेदना-गीत). 

इसी संदर्भ में एक और उदाहरण देखिए – “मानवीय संबंधों को समाप्त करके/ घर की बोली को चबाकर रख देनेवाली/ पराई भाषा/ अमेरिका की मिट्टी के लिए/ भूखी बनी हुई है/ टूटे उजड़े घर.” (छोटा सा दीया). बाज़ार हमें अपनी मिट्टी से संबंध तोड़ने पर मजबूर कर रहा है. दिन-ब-दिन अमानुषता हमारे अंदर घर कर रही है. “भूमि मीद विस्तरिस्तुन्न येडारिला/ प्रति मनस्सुलो अमानवीयता.” (धरती पर फैलते रेगिस्तानों की तरह/ हर एक दिल में अमानुषता.). स्वार्थ ने मानव की कोमल संवेदनाओं को निगल लिया है. इस बात को कवयित्री ने नन्हे मुक्तक के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया है – “ दक्खन नेलकि/ पडमरा गालि/ मध्यतरगतिनि/ मिन्गेसिंदी.” (दक्खन की ज़मीन पर/ पश्चिमी हवा/ मध्यम वर्ग को/ निगल गई). 

यह संवेदनहीनता, संबंधहीनता और अपसंस्कृति सिर्फ शहर तक सीमित नहीं है बल्कि गाँव भी इनकी चपेट में आ गए हैं. आज गाँव के गाँव उजड़ रहे हैं क्योंकि जिन खेतों में अन्न उगाया जाना चाहिए उनमें नोटों की गड्डियाँ उगाने के लोभवश पत्थर की इमारतें खड़ी की जा रही हैं. इस अविवेकपूर्ण तथाकथित विकास का यह प्रभाव है कि-“नोटों की गड्डियाँ फैलती जा रही हैं खेतों में/ कबूतरों को भगानेवाले संगमरमर के पत्थर/ आज गाँव है/ एक उजड़ा मंदिर,” लेकिन कवयित्री यह कहती हैं कि “फिर भी मेरे पैर उसी ओर खींच ले जाते हैं मुझे/ भले ही मंदिर उजड़ गया हो/ वहाँ एक छोटा-सा दीया जलाने की इच्छा है.” (छोटा सा दिया). 

इन तमाम उदाहरणों से स्पष्ट है कि डॉ.भवानीदेवी की कविताओं में विषय वैविध्य है. स्त्री विमर्श, पर्यावरण विमर्श, भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण आदि समकालीन विमर्श इन कविताओं में विद्यमान हैं. अनेक सूक्तियां भी इन कविताओं में निहित हैं. (साम्राज्यवाद जब ढह जाता है/ तो साम्यवाद का स्वागत होता है.). 

स्त्री विमर्श तो इस संकलन की लगभग हर कविता में निहित है. उदाहरण के तौर पर मैं कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगी – ‘नाभिनाल के कटते ही तू पगहे से बंध गई’, ‘मेरे अंदर दबे सिंड्रोमों की वेदना’, ‘पिंजड़े में बंद पंछी की तरह नरक भोगती हूँ!’, ‘रंगीन प्लास्टिक थैले से सर्र करते फिसलकर गिरा था एक काला नाग’, ‘नौकरी, अस्मिता, सब कुछ भूल जा, शौक और दोस्ती को तलाक दे दे!’, ‘मैं आंसुओं से भरी घटा ही बनी रहूंगी, तेरे पैरों तले कबूतरी-सी कुचलती रहूंगी’, ‘पीढ़ियों से सडती आ रही निश्चेतन ‘माम्मीपन’. अभिप्राय यह है किकवयित्री को स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता की चिंता है. प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने इस पुस्तक की भूमिका [जिसका शीर्षक है ‘अ...’] में एकदम सही कहा है कि “मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अस्तित्व की चिंता डॉ.भवानी के रचनाधर्म की पहली चिंता है. भारत की आम स्त्री उनकी कविता में अपनी तमाम पीड़ा और जिजीविषा के साथ उपस्थित है. इस स्त्री को तरह तरह के भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है, फिर भी यह तलवार की धार पर चलती जाती है, मुस्कुराहटों के झड़ने पर भी अक्षर बनकर उठती है और प्रवाह के विपरीत तैरने का जीवट दिखाती है.” इसीलिए कवयित्री बार बार कहती हैं कि ‘अक्षरमे ना अस्तित्वम’ – अक्षर ही मेरा अस्तित्व है. “अब मैं अक्षर बन उठ रही हूँ/ यह प्रवाह मुझे अच्छा नहीं लगता/ इसलिए मैं विपरीत दिशा में तैर रही हूँ.” (अक्षर ही मेरा अस्तित्व है). 

कवयित्री आज की शिक्षा नीति पर भी प्रहार करती हैं. आज कोर्पोरेट कल्चर पनप रहा है. शिक्षा संस्थाएं भी व्यापार के अड्डे बन गई हैं. “इप्पुडु बल्लंटे क्लासुलु कावनि ... कासुलु चेट्टलनि/ पिल्ललंटे पट्टूबड्लनी अनिपिस्तुन्दि” (आज स्कूल का मतलब/ शिक्षा नहीं रुपयों के वृक्ष हैं/ बच्चे पूंजी हैं). कोचिंग सेंटर्स और ट्युटोरियल्स के नाम पर शिक्षा का व्यापार किया जा रहा है. बच्चों का बालपन किताबों के बोझ तले दबता जा रहा है. उनके बस्तों का वजन दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है. बच्चे स्कूल जाने से डरने लगे हैं. वे अक्सर प्रश्न पूछते हैं – “स्कूल में है ही क्या माँ?/ किताबों का गट्ठर.../ जान जाने का डर.. बस!” (स्कूल नहीं जाऊंगा माँ!). 

कुम्भकोणम के स्कूल में अग्निकांड, 25 अगस्त 2007 को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार में आतंकवादी बम विस्फोट, सुनामी का विध्वंस, तस्लीमा नसरीन पर हमला, प्लांट पेटेंट, जीन लाइसेंसिंग, बाज़ार की भ्रष्ट राजनीति, शिक्षा तंत्र द्वारा लूट-खसोट, स्त्री का वस्तूकरण आदि घटनाएं डॉ.भवानीदेवी के संवेदनशील मन को झकझोरती हैं. वे इन परिस्थितियों से जूझने वाले मनुष्य से कहती हैं कि “देश की एकता ही ध्वजस्तंभ बने/ पुरखों की संस्कृति ही मूल बने/ कन्याकुमारी से हिमालय तक एक सूत्र बने/ अनवरत प्रगति चक्र बने/ तन, मन, वचन से/ हर व्यक्ति एक झंडा बन सर उठाए.” (सारे जहां से अच्छा). 

कहना ही चाहिए कि ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ में सम्मिलित कविताओं का हिंदी अनूदित पाठ बहुत ही सहज और सरल है. अनुवादक श्रीमती आर.शांता सुन्दरी ने हिंदी की सहज अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया है जो लक्ष्य भाषा पर उनके मातृभाषावत अधिकार का प्रमाण है. इसके अलावा मूल तेलुगु काव्य में निहित संवेदना जिस प्रकार अनूदित पाठ में भी सुरक्षित है, उससे अनुवादक की काव्य-संवेदना का भी पता चलता है. 

मैं पुनः एक बार डॉ.भवानीदेवी और श्रीमती आर.शांता सुन्दरी को बधाई देती हूँ. 


यहाँ भी देखें - 

प्रेरणा और प्रोत्साहन की प्रतिमूर्ति

षष्ठिपूर्ति वर्ष के अवसर पर 


अगस्त के महीने में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा से एक अध्यापक से लेकर कुलसचिव तक के रूप में जुड़े हिंदी के सुप्रसिद्ध समकालीन भाषावैज्ञानिक प्रो.दिलीप सिंह का जन्मदिन (8 अगस्त) पड़ता है – 2011-2012 उनका षष्ठिपूर्ति वर्ष भी है. इसमें संदेह नहीं कि प्रो.दिलीप सिंह ने हिंदी भाषा और साहित्य के अध्येता, अध्यापक, अनुसंधाता और लेखक के रूप में जो लोकप्रियता अर्जित की हैं वह विरल है. विगत वर्षों में उनकी जो नई पुस्तकें (भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण – 2007; पाठ विश्लेषण – 2007; भाषा का संसार – 2008; हिंदी भाषा चिंतन – 2009; अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ – 2010 और अनुवाद की व्यापक संकल्पना – 2011) आई हैं उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया है कि वे भाषा और भाषाविज्ञान के ऐसे अनन्य साधक हैं जिनके लिए इन विषयों का सामाजिक संदर्भ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. स्मरणीय है कि प्रो.दिलीप सिंह ने अपना कैरियर केंद्रीय हिंदी संस्थान में प्रवक्ता के रूप में आरंभ किया था. इसके अलावा वे अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज से भी संबद्ध रहे. उन्होंने फ्रांस, पेंसिलवानिया और विस्कांसिन (यूएसए) के विश्वविद्यालयों में भी रहकर हिंदी शिक्षण और अनुसंधान के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है; उन्हें एक ऐसे मौलिक हिंदी भाषाचिंतक के रूप में जाना जाता है जिनकी मुख्य चिंता आधुनिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के संदर्भ में अनुप्रयोग की है. अपने लेखन द्वारा उन्होंने आधुनिक भाषाविज्ञान और साहित्य चिंतन के बीच की दूरी को कम करके पाठ विश्लेषण की अपनी मौलिक प्रणाली का सूत्रपात किया है. इस कार्य के लिए उन्हें समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, पाठ विश्लेषण, अनुवाद चिंतन और भाषा शिक्षण के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है. मेरा सौभाग्य है कि मुझे 1999 से एम.ए., एम.फिल. और अनुवाद डिप्लोमा की छात्रा के रूप में उनसे शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर मिला. 

1999 की बात है. मैं चेन्नई अपोलो अस्पताल से माइक्रोबायोलॉजी टेक्नीशियन के पद से त्यागपत्र देकर हैदराबाद वापस गई थी. जीन टेक्नोलॉजी पाठ्यक्रम में प्रवेश मिला था पर मेरी रुचि साहित्य में थी. उसी समय एम.ए. (हिंदी) पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद का विज्ञापन देखा और आवेदन कर दिया. आज भी उस दिन का घटना याद आती है. लिखित परीक्षा के बाद मौखिकी थी. मैं बहुत ही उलझी हुई स्थिति में थी. उत्तर देने में गड़बड़ कर रही थी और सोच रही थी कि मुझे प्रवेश नहीं मिलेगा. परंतु प्रो.दिलीप सिंह ने बड़े ही आत्मीय ढंग से मुझे सहज बनाया और परीक्षक प्रो.भीमसेन निर्मल से कहा – ‘सर, बच्ची परिश्रम करेगी. एडमिशन दिया जा सकता है.’ मैं गद्गद हो गई और सर को नमन करके बाहर आ गई. वह प्रो.दिलीप सिंह और उनके अभिभावक रूप से मेरा पहला साक्षात्कार था. 

दिलीप सिंह सर उस वक्त पीजी विभागाध्यक्ष थे. विभागाध्यक्ष होने के कारण वे प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते थे. उस व्यस्तता के बीच भी वे एम.ए. की कक्षाएँ नियमित रूप से लेते थे. वे हमें सामान्य भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा का प्रकार्यात्मक रूप, हिंदी भाषा का सामाजिक संदर्भ, अन्य भाषा शिक्षण और कार्यालयीन हिंदी पढ़ाते थे. ये सब विषय बहुत ही गंभीर और एकदम नए विषय थे लेकिन प्रो.दिलीप सिंह ने गंभीर से गंभीर विषय को भी हमें बहुत ही सरल और सहज ढंग से पढ़ाया है. वे इस तरह से पढ़ाते थे कि यदि कोई नींद से जगाकर भी प्रश्न पूछ ले तो छात्र उत्तर देने के लिए तैयार रहे! 

प्रो.दिलीप सिंह हम छत्रों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन की प्रतिमूर्ति हैं. वे कई बार क्लास में अचानक परीक्षा रखते थे. उस दिन भी वही हुआ. उन्होंने मसौदा लेखन के बारे में स्पष्ट करते हुए किसी एक पत्र का मसौदा तैयार करने के लिए कहा. मसौदा लेखन के बारे में मैंने जो कुछ समझा था उसे कागज़ पर उतार दिया. मैं जानती थी कि मेरा परफोरमेंस ठीक नहीं था. अगले दिन सर क्लास में आए, सबकी कापियां वापिस कीं. मैं डर रही थी कि सर मुझे सबके सामने डांटेंगे, लेकिन सर ने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि शांत स्वर में कहा – ‘नीरजा जी, (वे कभी भी किसी भी छात्र को ‘जी’ के बिना संबोधित नहीं करते) कम-से-कम आपसे (सर कभी किसी भी विद्यार्थी को तुम/तू नहीं कहते) तो यह उम्मीद नहीं थी.’ मैंने तुरंत सर से माफी माँगी. क्लास के बाद सर के केबिन में पहुँची और उन्हें अपनी दुविधा समझाई. तब दिलीप सिंह सर ने कहा कि “भूल जाइए कि हिंदी आपकी मातृभाषा नहीं है. एम.ए.(हिंदी) में आए हर छात्र की भाषा हिंदी है. हिंदी तो सबकी भाषा है. ज्यादा से ज्यादा वक्त लाइब्रेरी में बिताइए और पढ़िए.” उसके बाद मैंने दिन-रात खूब मेहनत की और एम.ए. में स्वर्ण पदक प्राप्त किया. 

एम.फिल. में दिलीप सिंह सर हमें ‘शोध प्रविधि’ में कुछ अंश पढ़ाते थे, मुख्य रूप से भाषावैज्ञानिक शोध (वैसे तो वे सूत्र रूप में पूरे प्रश्न पत्र की चर्चा करते थे) तथा ‘आलोचना प्रविधि’ में रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि. रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि पढ़ाने से पहले ही दिलीप सिंह सर का ट्रांसफर धारवाड़ हो गया था. आज भी मुझे इस बात का अफ़सोस है कि उनसे रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि को नहीं पढ़ पाई क्योंकि जिस तरह दिलीप सिंह सर समझाते हैं उस तरह कोई नहीं समझा पाएँगे. उन्होंने हमारे अंदर शोध की एक दृष्टि विकसित की. यदि आज मौक़ा मिले तो उनसे रूपवैज्ञानिक आलोचना पढ़ना चाहती हूँ. रिफ्रेशर कोर्स के रूप में ही क्यों न हो. यह हमारे लिए बहुत ही आवाश्यक है. 

प्रो.दिलीप सिंह पढ़ाते समय विषय को बहुत ही सरल और रोचक बना देते हैं. एक दिन भाषाविज्ञान पढ़ाते समय उन्होंने ‘बॉबी’ सिनेमा के गीत ‘अंदर से कोई बाहर न जा सके...’ के माध्यम से क्रिया पदों को समझाया. भाषा के सामाजिक संदर्भ में व्यक्तिबोली, क्षेत्रीय बोली और सामाजिक बोली की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए उदाहरण के तौर पर अपनी अंडमान और निकोबार की यात्रा के बारे में बताया. उन्होंने वहाँ की जनजाति के कुछ चित्र भी दिखाए जो तथाकथित सभ्य समाज से बहुत दूर निवास करती है. सर पढ़ाते समय जहाँ आवश्यक हो वहाँ ब्लैक बोर्ड का प्रयोग अवश्य करते हैं. अक्सर यह कहते हैं कि भाषा शिक्षण विशेष रूप से संस्कृति शिक्षण में जहाँ तक हो सके, चित्रों के माध्यम से या कुछ क्लिपिंग्स के माध्यम से छात्रों को समझाना चाहिए ताकि उनकी मातृभाषा और अन्य भाषा में कोई हिंडरेंस पैदा न हो. 

अनुवाद डिप्लोमा क्लास का अनुभव तो कुछ और ही था. अनुवाद की कक्षाएँ शाम को 6 बजे से 8 बजे तक होती थीं. सप्ताह में पूरे पांच दिन कक्षाएँ होती थीं. उस समय अनुवाद डिप्लोमा में 30 छात्र थे. दिलीप सिंह सर से डर कर सब लोग नियमित रूप से आते थे. कभी कभी क्लास बंक करते थे, पर जिस दिन दिलीप सिंह सर की क्लास होती उस दिन तो जरूर आते थे क्योंकि हमें ऐसा लगता था कि यदि उनकी क्लास मिस हो गई तो हम बहुत कुछ मिस कर देंगे. सर, व्यावहारिक पक्ष पर ज्यादा दृष्टि केंद्रित करते थे. जब सर क्लास पढ़ाते थे तो कभी कभी 9 भी बज जाते थे पर हमें समय का पता नहीं चलता था. 

दिलीप सिंह अक्सर कहते हैं कि भाषा जीवंत होनी चाहिए, स्पष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए, भाषा में बोधगम्यता होनी चाहिए. पढ़ाते समय और कुछ भी समझाते समय वे सरल शब्दों का ही प्रयोग करते हैं. भाषा शिक्षण, अनुवाद विज्ञान, पाठ विश्लेषण आदि से संबंधित किताबों में भी सरल शब्दों का ही प्रयोग करते हैं. वे कभी अपनी विद्वत्ता से आतंकित नहीं करते बल्कि सहज समझ से आश्वस्त करते हैं. 

आज मैं सभा में प्राध्यापक हूँ. छात्र के रूप में मैंने जो कुछ दिलीप सिंह सर से सीखा है उससे ज्यादा आज सीख रही हूँ. उनके नेतृत्व में संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ है. अन्य विश्वविद्यालयों में संगोष्ठियों में शोधपत्र प्रस्तुत करने का अवसर सिर्फ सीनियर लोगों को ही प्राप्त होता है लेकिन दिलीप सिंह सर ने मुझ जैसे को - युवा पीढ़ी को - यह अवसर मुहैया कराया है. प्रो.दिलीप सिंह के सामने संगोष्ठियों में आलेख प्रस्तुत करते समय ही नहीं संयोजन करते समय भी होमवर्क करके जाती हूँ क्योंकि सर बड़े ध्यान से सुनते हैं और अपनी टिप्पणी भी देते हैं. उनकी अध्यक्षता में आलेख प्रस्तुत करना मेरे लिए तो ऐसा ही है जैसे एवरेस्ट पर चढ़ना. यह अवसर भी मुझे प्राप्त हुआ - दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के तत्वावधान में धारवाड़ में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में. विषय था – ‘दूरस्थ शिक्षा की पाठ्यक्रम संबंधी समस्याओं का निराकरण – प्रश्न बैंक के संदर्भ में’. मन ही मन डर रही थी, फिर भी आलेख बिना कोई भूल चूक किए प्रस्तुत कर दिया. अध्यक्षीय टिप्पणी में जब सर ने मेरे आलेख से ही अपनी बात शुरू की तो मुझे बेहद खुशी मिली. इससे बड़ी उपलब्धि मेरे लिए और क्या हो सकता है! सर ने कार्यशालाओं में भी हम नए लोगों को स्टडी मेटीरियल तैयार करने के लिए विषय विशेषज्ञों के रूप में मौक़ा प्रदान किया जो हमारे लिए कल्पनातीत था. 

दो साल पूर्व धारवाड़ की एक कार्यशाला में पांच दिन प्रो.दिलीप सिंह और उनकी पत्नी श्रीमती गीता वर्मा जी के साथ समय बिताने का अवसर प्राप्त हुआ. उस वक्त मैंने उनमें उसी अभिभावक को देखा जिसके दर्शन एम.ए. की प्रवेश परिक्षा के समय किए थे. इस सान्निध्य का यह भी लाभ हुआ कि मैं प्रो.दिलीप सिंह को ठहाका मारते हुए हँसते देख सकी. अन्यथा काम करते समय तो वे एकदम सीरियस रहते हैं. उस वक्त यदि हम लोगों से कोई कोताही/ गलती हो गई तो गुस्से में आ जाते हैं. उस वक्त वे ‘रूद्र’ होते हैं; लेकिन जब सहज होते हैं तो ‘शिव’ बन जाते हैं! 

प्रो.दिलीप सिंह सर मेरे गुरु हैं. अपनी पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ की पांडुलिपि जब डरते डरते उन्हें देखने को दी तो मेरा अनुरोध मानकर उन्होंने उसकी भूमिका भी लिखी. उनका यह आशीर्वाद पाकर मैंने धन्यता का अनुभव किया. वे अपने शिष्यों के प्रति कितने वत्सल हैं इसका प्रमाण यह है कि मेरी उस सामान्य सी पुस्तक का विमोचन कर उन्होंने मेरी भावना का मान रखा. उनसे जो स्नेह और आशीर्वाद मिलता है उसे उनके सभी शिष्य मेरी तरह अपना परम सौभाग्य मानते हैं. 

षष्ठिपूर्ति वर्ष की संपन्नता पर प्रो.दिलीप सिंह को मंगलमय भविष्य हेतु विनम्र शुभकामनाएँ! 

यह आलेख सृजनगाथा पर प्रकाशित है. इसका लिंक नीचे दिया जा रहा है- 

http://srijangatha.com/Aalekh24Aug2012

अतिरिक्त  जानकारी के लिए यहाँ देखें 

सोमवार, 20 अगस्त 2012

सांस्कृतिक पाठ का अनुवाद : शब्द चयन का संदर्भ


अनुवाद कार्य, अनूदित पाठ एवं समतुल्यता के रूप में अनुवाद को समझने के लिए ‘अनुवाद सिद्धांत’ एक महत्वपूर्ण सहायक बिंदु है. इसे `अनुवाद विद्या’, `अनुवाद विज्ञान’ और `अनुवादिकी’ भी कहा जाता है. ‘अनुवाद सिद्धांत’ का उद्भव मूल रूप से अनुप्रयुक्त तुलनात्मक पाठ संकेत विज्ञान से माना जाता है. यहाँ ‘तुलनात्मक’ शब्द से स्पष्ट है कि अनुवाद का संबंध दो भाषाओं से है. दोनों भाषाओं की अपनी अपनी प्रवृत्ति होती है. दोनों की तुलना अर्थ, वाक्य एवं संदर्भ के अनुसार करनी पड़ती है. अतः अर्थ, वाक्य एवं संदर्भ मीमांसा अनुवाद सिद्धांत के प्रासंगिक तत्व हैं. फिर भी इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद की सर्वप्रथम आवश्यकता अर्थ बोध है. अतः अर्थ को खोजना, भाषिक अर्थ तथा भाषा की बाह्य स्थिति अनुवाद सिद्धांत के प्रमुख अंग हैं. 

मूल पाठ अनुवाद कार्य का मेरुदंड है. मूल पाठ की संरचना, प्रारूप, उसका स्वरूप निर्धारण, शब्दार्थ व्यवस्था आदि की सैद्धांतिक चर्चा इसके मुख्य बिंदु हैं. अनुवादक को सामाजिक – सांस्कृतिक पर्यायों का चुनाव, लिप्यंतरण, शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद, आगत शब्दों का अनुवाद, विस्तार, संक्षेप आदि का काम अकेले ही करना पड़ता है. इस काम को सफलतापूर्वक करने के लिए अनुवादक से मुख्य अपेक्षाएँ हैं - भाषा का ज्ञान, विषय का ज्ञान, अभिव्यक्तीकरण का कौशल. 

यह आवश्यक नहीं है कि अनुवादक अनुवाद सिद्धांत की जानकारी प्राप्त करने के बाद ही अनुवाद करे. रुचि से अनुवाद करनेवाले सफल अनुवादक तो कभी कभी अनुवाद सिद्धांत की दृष्टि से उतने सक्षम नहीं होते. कुछ लोग सफल अनुवादक होने के साथ साथ सिद्धांत से भी भली भाँति परिचित होते हैं. बीसवीं शती के पूर्वार्ध में आधुनिक भाषाविज्ञान का विकास हुआ तो भाषाविज्ञान से परिचित अनुवादकों एवं भाषावैज्ञानिकों का ध्यान विशेष रूप से अनुवाद सिद्धांत की ओर आकृष्ट हुआ. 

अनुवाद समीक्षा अनुवाद सिद्धांत का अनुप्रयोगात्मक पक्ष है. मूल पाठ की तुलना में अनूदित पाठ के गुण-दोषों का विवेचन करना ही अनुवाद समीक्षा है. यह समीक्षा अनुवाद सिद्धांत पर ही आधारित होती है. जिस तरह एक साहित्य समीक्षक के लिए सर्जक होना अनिवार्य नहीं है उसी तरह अनुवाद समीक्षक के लिए अनुवादक होना अनिवार्य नहीं है. अतः अनुवादक और अनुवाद समीक्षक अलग अलग व्यक्ति होते हैं. डॉ.सुरेश कुमार की मान्यता है कि “अनुवाद समीक्षा जहाँ एक ओर अनुवाद के कौशल का मूल्यांकन है वहाँ लक्ष्य भाषा के अभिव्यक्ति संसाधनों का भी उस सीमा तक मूल्यांकन है, जिस सीमा तक उनके द्वारा मूलभाषा पाठ के विभिन्न पक्षों की लक्ष्य भाषा में शुद्ध तथा उपयुक्त रीति से आवृत्ति हुई है. इस प्रकार अनुवाद समीक्षा में अनुवाद के व्यक्तिपरक और निर्वैयक्तिक (भाषापरक) पक्षों के बीच संतुलन रहता है.” (डॉ.सुरेश कुमार, अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा, पृ. 124-125). उन्होंने यह भी बताया है कि अनुवाद समीक्षा के कतिपय निर्धारित सोपान हैं जो निम्नलिखित हैं – 

1. “अनुवाद समीक्षा के लिए पाठयुगल - मूल भाषा पाठ तथा उसका अनुवाद - का चयन. 

2. मूल भाषा पाठ का विश्लेषण – मूल अभिप्राय, प्रमुख भाषा प्रकार्य, अर्थ व्यंजना, प्रतिपाद्य, प्रयुक्ति या भाषा शैली (वाक्य रचना और शब्दकोश पर आधारित), साहित्यिक गुण, सांस्कृतिक विशेषताएँ, उद्दिष्ट पाठक वर्ग तथा सामान्य परिवेश. 

3. मूल पाठ तथा अनुवाद की विस्तृत तुलना – असमान बिंदुओं पर विशेष बल देते हुए. 

4. (क) दोनों पाठों के समग्र प्रभावों के बीच अंतर का आकलन, तथा 

    (ख) अनुवादक द्वारा प्रयुक्त अनुवाद प्रणाली का संकेत करते हुए अनुवाद का मूल्यांकन. ‘अंतर का         आकलन’ की प्रक्रिया में ही अनुवाद के दोषों और सीमाओं का भी विवेचन किया जाएगा.” (वही, पृ.126). 

यहाँ यह प्रश्न भी सामायिक है कि आखिर अनुवाद समीक्षा का प्रयोजन क्या है. इस प्रश्न पर प्रो.सुरेश कुमार ने विस्तार से चर्चा की है. उनके अनुसार अनुवाद समीक्षा के अनेक प्रयोजन संभव हैं. यथा - 

1. इससे अनुवाद कार्य के स्तर को ऊँचा उठाने में सहायता मिलती है. अनूदित पाठ के गुण–दोषों के विवेचन से अनुवाद कार्य की त्रुटियों का ज्ञान होता है जिन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जाता है. इसके फलस्वरूप अनुवाद कार्य के स्तर में सुधार होता है. 

2. इससे अनुवादकों के सामने श्रेष्ठ अनुवाद का मानक रूप उपस्थित होता है. गुण-दोष विवेचन के उपरांत सुधारे हुए अनुवाद को अनुवादक अपना आदर्श मानकर अपने कार्य में प्रवृत्त होता है. 

3. अनुवाद समीक्षा से विशिष्ट कालखंड में और विशिष्ट ज्ञान क्षेत्र में अनुवाद संबंधी विचारों पर प्रकाश पड़ता है. शाब्दिक तथा प्रकार्यात्मकता के आधार पर भी समीक्षा के कुछ बिंदु निर्धारित होंगे. 

4. अनुवाद समीक्षा के द्वारा महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं तथा महत्वपूर्ण अनुवादकों के अनुवाद कार्य के विवेचन और मूल्यांकन में सहायता मिलती है. 

5. अनुवाद समीक्षा के द्वारा मूल भाषा और लक्ष्य भाषा के शब्दकोश एवं व्याकरण की तथा भाषा शैली एवं पाठ प्रारूप संबंधी असमानताओं का समीक्षात्मक विवेचन कर सकते हैं. इस प्रकार दोनों भाषाओं के व्यतिरेकी संबंधों के विषय में जानकारी बढ़ा सकते हैं. 

6. अनुवाद समीक्षा का शिक्षणात्मक आयाम भी है. अनुवाद समीक्षा को सिखाकर अनुवादक – शिक्षार्थी की अनुवाद सिद्धांत चेतना को व्यावहारिक स्तर पर पुष्ट करते हैं. (वही, पृ.125-126)

भाषा एक कल्पवृक्ष है जो सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप विकसित है. अतः अनुवाद एक श्रेष्ठ कार्य है चूँकि वह दो सभ्यताओं, संस्कृतियों, कालखंडों, भावों अथवा विचारों के बीच का सेतु है. अनुवाद का स्वरूप पुनःसृजन जैसा होने के कारण मौलिक कृति और अनूदित कृति में अंतर अवश्य रहेगा. प्रो.दिलीप सिंह इस बात पर बल देते हैं कि “अनुवाद की दृष्टि से भाषा की अर्थगत संरचना को समझने के पहले यह निर्धारित करना भी अनुवादक के लिए आवश्यक होता है कि रूपात्मक संरचना (formal structure) और अर्थगत संरचना (semantic structure) एक दूसरे से भिन्न होते हैं.” (प्रो.दिलीप सिंह, अनुवाद की व्यापक संकल्पना, पृ.46). उनकी मान्यता है कि “अर्थगत संरचना के विश्लेषण के समय प्रतीक के सामाजिक–सांस्कृतिक संदर्भों का विश्लेषण अनिवार्य है. अर्थात इकाई के समाज स्वीकृत एवं समाज प्रयुक्त अर्थ प्रतीक से संबद्ध होने की संभावना बराबर रहती है. अतः अनुवाद में इकाई की बहुव्याप्ति और चयनगतता (substitutability) पर भी अपनी दृष्टि रखनी पड़ती है.” (वही). 

अभिप्राय यह है कि अनुवाद करते समय अनुवादक के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएँ उपस्थित होती हैं, यथा - भाषावैज्ञानिक समस्याएँ, संरचना के अर्थ पक्ष की समस्याएँ, भाषेतर संदर्भ की समस्याएँ, विशिष्ट प्रयोग क्षेत्र की समस्याएँ, अनुवाद के आधार क्षेत्र की समस्याएँ, क्षेत्र रूपांतरण की समस्याएँ और समाज-सांस्कृतिक समस्याएँ. यहाँ हम इनमें से समाज-सांस्कृतिक समस्याओं पर कुछ विचार करेंगे. 

किसी साहित्यिक कृति का अनुवाद करना अनुवादक के लिए साहित्येतर पाठ की अपेक्षा अधिक चुनौतीपूर्ण है. कठिनाई तब और बढ़ जाती है जब पाठ में भिन्न समाजिक और सांस्कृतिक पक्ष हों. मूलतः भारतीय संस्कृति सामासिक संस्कृति है अतः किसी भी भारतीय भाषा से हिंदी में या हिंदी से अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करते समय अनुवादक के लिए समस्याएँ उतनी नहीं होतीं जितनी अंग्रेजी में या अंग्रेजी से अनुवाद करते समय होती हैं. अनुवाद में प्रमुख रूप से तीन प्रकार की सामाजिक–सांस्कृतिक समस्याएँ आती हैं – 

1. “ऐसी सामाजिक–सांस्कृतिक शब्दावली के पर्याय खोजने की समस्या जिसके लिए लक्ष्य भाषा में समान शब्द उपलब्ध न हों. 

2. मुहावरों और लोकोक्तियों के अनुवाद की समस्याएँ. 

3. लोक जीवन से लिए गए बिंबों, अलंकारों और मिथकों के अनुवाद की समस्याएँ. 

इन समस्याओं से अनुवादक के टकराव को समझने के लिए यहाँ हम राष्ट्रकवि डॉ.रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के प्रसिद्ध खंडकाव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को सामाजिक-सांस्कृतिक पाठ के रूप में ग्रहण करके उसके अंग्रेजी अनुवाद (अनुवादक : डॉ.पी.आदेश्वर राव) का पाठाधारित और भाषिक विश्लेषण शब्द चयन के स्तर पर कर सकते हैं. कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं - 

मूल : सिंधु (पृ.8) 
अंग्रेजी अनुवाद : The Ocean (पृ. 4) 

समीक्षा : मूल में `सिंधु’ भवसागर के अर्थ में प्रयुक्त है. भारतीय दर्शन के अनुसार जीवात्मा मृत्यु के पश्चात इस संसार रूपी भवसागर को पार कर जाती है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘The Ocean’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो `सिंधु’ का शाब्दिक अर्थ है. इससे भारतीय दर्शन की संकल्पना स्पष्ट नहीं होती. 


मूल : घृत (पृ.11) 
अंग्रेजी अनुवाद : oil (पृ.8) 

समीक्षा : संस्कृत में `घृत’ का अर्थ है `घी’. मूल में इस शब्द का प्रयोग ‘जलती आग में घी डालना’ अर्थात गुस्से को और भड़काने के अर्थ में हुआ है. अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त ‘oil’ शब्द से ‘तेल’ का आभास होता है. अंग्रेजी अनुवाद में मूल से भिन्न अर्थ द्योतित हो रहा है. 


मूल : महासंगर (पृ.37) 
अंग्रेजी अनुवाद : a deadly large scale of war (पृ.34) 

समीक्षा : पांडवों और कौरवों के बीच उत्पन्न कलह कुरुक्षेत्र में परिणत हुआ. मूल में इसी भीषण युद्ध की ओर संकेत करते हुए `महासंगर’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘a deadly large scale of war’ का प्रयोग हुआ है जो वस्तुतः भावानुवाद है. इससे मूल में निहित समाज–सांस्कृतिक पक्ष स्पष्ट नहीं हो रहा है. 


मूल : कर-कंकण (पृ. 60) 
अंग्रेजी अनुवाद : Bangles (पृ. 58) 

समीक्षा : कर-कंकण भारतीय संस्कृति में सौभाग्य का प्रतीक है. जब कोई स्त्री विधवा हो जाती है तब उसके हाथों के कंगन को तोड़ दिया जाता है. मूल में इसी की ओर संकेत किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त 'bangle' शब्द से मूल में निहित प्रतीकार्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है. 


मूल : यजन (पृ.71) 
अंग्रेजी अनुवाद : The burning fire of penance (पृ.70) 

समीक्षा : `यजन’ का अर्थ है यज्ञ करना. किसी प्रकार की कार्य सिद्धि के लिए यज्ञ किया जाता है. भारतीय संस्कृति में यही माना जाता है कि मनुष्यों की महत्ता प्रबल साधना में ही निहित है. इसी तथ्य को उजागर करने के लिए मूल में `यजन’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में भावानुवाद का सहारा लेते हुए ‘the burning fire of penance’ का चयन किया गया है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति में इस तरह की (यज्ञ की) संकल्पना नहीं है. 

मूल : कर्म (पृ.16) 
अंग्रेजी अनुवाद : act (पृ.13) 

समीक्षा : मानव जीवन एक कर्मक्षेत्र है. अर्थात यहाँ कर्म ही प्रधान है. गीता में श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म की प्रेरणा दी है – ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः’ (2-52). मूल में गीता के इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग दार्शनिक संदर्भ में किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘act’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिससे मूल से भिन्न अर्थ द्योतित होता है. 


मूल : पंचाग्नि (पृ.73) 
अंग्रेजी अनुवाद : five fold fires (पृ.73) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार पंचाग्नि अर्थात पाँच अग्नियाँ, जिनके मध्य में योगी कठिन तपस्या करते हैं, पंचेंद्रियों से प्राप्त पाँच प्रकार की विषय वासनाओं (शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श) का प्रतीक है. अंग्रजी अनुवाद में ‘five fold fires’ का प्रयोग किया गया है जिससे मूल में निहित दार्शनिक अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है. अनुवादक ने व्याख्या का सहारा लेते हुए मूल में निहित भाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया है. 

मूल : त्रिविध ताप (पृ.90) 
अंग्रेजी अनुवाद : triple heat (पृ.90) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार ‘त्रिविध ताप’ से आशय है – आधि दैहिक, आधि दैविक और आधि भौतिक ताप. इसी संकल्पना की ओर संकेत करते हुए मूल में ‘त्रिविध ताप’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अनुवाद में प्रयुक्त शब्द ‘triple heat’ से मूल से भिन्न अर्थ ध्वनित होता है. अनुवादक मूल की संकल्पना को स्पष्ट करने में इस लिए असफल है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति में इस तरह की संकल्पना नहीं है. 


मूल : मंदराचल (पृ. 91) 
अंग्रेजी अनुवाद : Mandar Mountain (पृ. 91) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार मंदराचल वह पर्वत है जिसे देवताओं और राक्षसों ने समुद्र मंथन करते समय मथनी बनाया था. अंग्रेजी अनुवाद में लिप्यंतरण का प्रयोग किया गया है. परंतु पाद टिप्पणी के अभाव में वह अपर्याप्त प्रतीत होता है. 

मूल : हठयोगी (पृ. 102) 
अंग्रेजी अनुवाद : The Saint (पृ. 101) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार भगवान को पाना योग है. हठयोग अर्थात वह योग जिसमें शरीर को साधने के लिए बड़ी कठिन मुद्राओं और आसनों आदि का विधान है. हठयोग का प्रयोजन विविध आसनों द्वारा उन पाँच प्रकार के प्राणों (प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान) को नियंत्रित करना है जो आत्मा को घेरे हुए हैं. यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं अपितु भौतिक बंधन से आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है. हठयोग वस्तुतः चित्तवृत्तियों के प्रवाह को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है जिसमें प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है. इस योग का आचरण करने वाला हठयोगी कहलाता है. अनुवाद में ‘The Saint’ का सामान्य प्रयोग किया गया है जिससे मूल में निहित आधात्मिक और सांस्कृतिक भाव स्पष्ट नहीं हो सका है. इससे अच्छा यह होता कि लिप्यंतरण का सहारा लेकर पाद टिप्पणी में इसकी व्याख्या कर दी जाती. 


मूल : मोक्ष मंत्र ( पृ. 103) 
अंग्रेजी अनुवाद : the magical hymns (पृ. 102) 

समीक्षा : शास्त्रों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना ही मोक्ष है. उसके लिए जिन मंत्रों का उच्चारण किया जाता है उन्हें मोक्ष मंत्र कहते हैं. इसी अर्थ की ओर संकेत करते हुए मूल में इस पद का प्रयोग किया गया है. अनुवाद में ‘magical hymns’ का प्रयोग किया गया है. ‘Magical’ शब्द से ‘जादूई’ का अर्थ प्रतीत होता है. वस्तुतः मोक्ष का अर्थ है Salvation. अतः मोक्ष मंत्र के लिए यदि ‘Hymns of Salvation’ का प्रयोग किया होता तो बेहतर होता. 

इस प्रकार `कुरुक्षेत्र’ में प्राप्त कतिपय सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों और उनके अंग्रेजी अनुवाद के तुलनात्मक अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि इस काव्य का मूल पाठ सांस्कृतिक होने के कारण इसका अनुवाद करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा. अंग्रेजी अनुवाद में शब्दानुवाद, शाब्दिक अनुवाद, भावानुवाद, लिप्यंतरण और ग्रहण की नीति को अपनाया गया है. दिनकर वस्तुतः सांस्कृतिक चेतना से ओतप्रोत रचनाकार है जिनके काव्य का विजातीय भाषा में अनुवाद करना कठिन होते हुए भी लक्ष्य भाषा पाठ में समतुल्य अभिव्यक्तियों, व्याख्यात्मक अनुवाद तथा पाद टिप्पणी की तकनीक द्वारा मूल संदेश के अधिकतम संप्रेषण को सार्थक बनाया गया है. 
  • 'भाषा, संस्कृति और लोक' : भाषाविज्ञान की व्यावहारिक पीठिका (विद्यानिवास मिश्र स्मृति ग्रंथमाला), प्रधान संपादक - डॉ. दयानिधि मिश्र, संपादक - प्रो. दिलीप सिंह, 2012, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली में प्रकाशित आलेख