गत वर्षों से तेलुगु, हिंदी, उर्दू और अन्य कई भारतीय भाषाओं के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की जन्मशताब्दियाँ मनाई जा रही हैं. यह वर्ष आधुनिक हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ आलोचक, समीक्षक, कवि, निबंधकार, आत्मकथाकार, जीवनीकार तथा भाषा और संस्कृतिचेता रामविलास शर्मा (10 अक्टूबर 1912 – 30 मई 2000) का जन्मशताब्दी वर्ष है.
रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘भारत की भाषा समस्या’ पढ़ते समय यह स्पष्ट होता है कि वे भाषा के प्रति बहुत सजग थे. शायद इसीलिए उन्होंने कहा कि ’भाषा जनता के लिए है, जनता भाषा के लिए नहीं.’ भारत जैसे बहुभाषिक देश में एक ऐसी भाषा की जरूरत है जो केंद्रीय राजकाज की भाषा बन सकती है. रामविलास शर्मा मानते हैं कि वह भाषा हिंदी ही है और वह ‘पूर्ण रूप से शासन और संस्कृति की भाषा बन सकती है.’ कुछ राजनैतिक शक्तियों ने हिंदी-उर्दू विवाद खड़ा कर दिया लेकिन रामाविलास शर्मा उर्दू को हिंदी की ही एक शैली मानते हैं और जोर देकर कहते हैं कि ‘हिंदी और उर्दू मूलतः एक ही भाषा हैं और आगे चलकर दोनों घुल-मिलकर एक होंगी, बोलचाल की भाषा के आधार पर एक ही साहित्यिक भाषा का विकास होगा.’ न तो हिंदी केवल हिंदुओं की भाषा है और न ही उर्दू मुसलमानों की. बुनियादी तौर पर तो ये दोनों एक ही भाषा के दो रूप हैं. दोनों का आधार भी जनसाधारण की बोलचाल की भाषा ही है. ये दोनों तो बोलचाल की एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं. बोलचाल के स्तर पर हिंदी-उर्दू में भेद दिखाई नहीं पड़ते. अगर भेद है तो सिर्फ लेखन के स्तर पर है, उनकी उच्चस्तरीय शब्दावली में है, लिपि में है.
रामविलास शर्मा अपनी भाषा के प्रति इतने सजग थे कि उन्हें हिंदी की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं होती. इस कारण उन्हें घोर विरोध भी सहना पड़ा. उनके इस भाषाप्रेम के बारे में स्पष्ट करते हुए अमृतलाल नागर ने कहा कि ‘हिंदी के प्रति उर्दू हिमायतियों, ‘काले साहबों’ और दूसरी भाषाओं के ‘स्नॉबी स्कॉलरों’ की बगैर पढ़ी-समझी अन्यायपूर्ण आलोचनाओं से वे तड़प उठते हैं. सेर के जवाब में यदि वे सवा सेर फेंकते तो शायद इतने बदनाम कभी न होते, लेकिन सेर पर ढैया, पसेरी या दस सेरा बटखरा खींच मारना रामविलास का स्वभाव है.’
हम अक्सर यह कहते हुए गर्व महसूस करते हैं कि हिंदी आम जनता की भाषा है जिसका प्रयोग सभी जातियों और धर्मों के लोग करते हैं. बोलने, लिखने और समझने में वह सरल है. हिंदुस्तान की अधिकांश जनता उसे बोलती और समझती है. यद्यपि हिंदी का रूप बदलता रहा है, लेकिन उसकी एकता नष्ट नहीं हुई. लेकिन एक ओर भाषा के नाम पर और राष्ट्रीयता के नाम पर देश को टुकड़ों में, खेमों में बाँटा जा रहा है तथा सांप्रदायिकता का ज़हर फैलाया जा रहा है. इसलिए रामविलास शर्मा कहते हैं कि ‘राष्ट्रीयता के नाम पर सांप्रदायिकता का ज़हर फैलाने वाला यह नया हिंदू राष्ट्रवादी दल भाषा को धर्म के साथ जोड़कर हिंदी को जनता की भाषा के पद से हटा देना चाहता है.’ वे इस बात पर बल देते हैं कि जब तक ‘अहिंदी भाषी प्रदेशों में वहाँ की भाषाएँ अपने पूर्ण अधिकार नहीं पातीं, तब तक उनके बीच हिंदी भी पूरी तरह परस्पर व्यवहार का माध्यम नहीं बन सकती.’
रामविलास शर्मा के ही शब्दों में कहा जाए तो ‘देश की भाषाएँ समान अधिकार पाकर विकसित हों और इनके बोलने वाले अंतरजातीय व्यवहार के लिए हिंदी अपनाएँ; साहित्य के क्षेत्र में बड़प्पन की होड़ लगाने के बदले भारतीय साहित्य की सामान्य विशेषताओं को भी पहचानें और एक-दूसरे से सीखने की बात सोचें.’
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