रविवार, 13 अगस्त 2017

वृद्धावस्था विमर्श और हिंदी कहानी (शुभाशंसा)

वृद्धावस्था विमर्श और हिंदी कहानी
शिवकुमार  राजौरिया
2017
अद्वैत प्रकाशन,  नई दिल्ली
ISBN : 978-93-82554-87-5
रु. 595, पृष्ठ 295

जब मैं था नवयुवक, वृद्ध शिक्षक थे मेरे,
भूतकाल की कथा गूढ़ बतलाते थे वे.
मैं पढ़ने को नहीं, वृद्ध होने जाता था,
आग बुझा कर शीतल मुझे बनाते थे वे.
पर, अब मैं बूढ़ा हूँ, शिक्षक नौजवान हैं,
उन्हें देख निज सोयी वह्नि जगाता हूँ मैं.
भूत नहीं, अब परिचय पाने को भविष्य का
यौवन के विद्या-मंदिर में जाता हूँ मैं.
                                  (राष्ट्रकवि डॉ. रामधारी सिंह ‘दिनकर’)

काल की गति क्षिप्र है. वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि उस पर किसी की दृष्टि नहीं जाती. एक नवजात शिशु कब अपनी शैशवावस्था छोड़कर युवावस्था में पहुँचा और कब वृद्धावस्था में, यह पता ही नहीं चलता. वृद्धावस्था से कोई बच नहीं सकता. यह जीवन का सत्य है लेकिन मनुष्य वृद्धावस्था की कल्पना मात्र से ही डर जाता है, निराश हो जाता है और सब चीजों से कटा हुआ महसूस करता है. कहा जाए तो वह केंद्र से परिधि की ओर चला जाता है. उपेक्षित हो जाता है; समाज से, परिवार से और यहाँ तक कि अपने आप से. लेकिन वार्धक्य कोई अभिशाप नहीं, बल्कि वह जीवन की चरम स्थिति है. अर्थात जीवन के विकास की चरमावस्था है वृद्धावस्था. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का कथन है कि ‘इस अवस्था में लोगों के सभी भाव रस के रूप में परिणत होकर आनंदमय हो जाते हैं.’ युवावस्था में प्रायः आडंबरप्रियता और प्रदर्शनप्रियता को देखा जा सकता है लेकिन वृद्धावस्था में ये सब नहीं रह जाते. वृद्धावस्था का सच्चा आनंद आत्मसंतोष है. जिन्हें भविष्य की कोई चिंता नहीं रहती वे ही वृद्ध हैं. कहने का आशय है कि 75-80 वर्ष के होने पर भी जिस व्यक्ति को भविष्य की चिंता होती है वह युवा ही है, क्योंकि उसे कार्यों को पूर्ण करने की चिंता जीवन में कुछ और बेहतर करने के लिए प्रेरित करेगी. जैसे-जैसे मनुष्य अपने आपको वृद्ध मानने लगता है, वह कमजोर महसूस करने लगता है तथा सहानुभूति अर्जित करने की इच्छा रखता है. धीरे-धीरे वह परिधि की ओर जाने के लिए विवश हो जाता है. प्रायः यह देखा जाता है कि जब तक व्यक्ति परिवार के लिए कमाने का यंत्र है तब तक उसकी चलती है लेकिन जैसे ही उसका शरीर उसका साथ देना छोड़ देता है वैसे ही परिवार के सदस्यों के लिए वह एक ‘बेकार चीज’ बन जाता है. ऐसे में उसका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है. ऐसी स्थिति में उनका कुंठित होना स्वाभाविक है. 

भारतीय परंपरा के परिप्रेक्ष्य में वृद्धों की स्थिति दयनीय नहीं कही जा सकती. यहाँ बड़ों का मान-सम्मान किया जाता रहा है. कहा भी गया है, “अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः / चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्”. अर्थात प्रतिदिन बुजुर्गों को प्रणाम करने और उनकी सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, कीर्ति और शक्ति की वृद्धि होती है. लेकिन आजकल यहाँ भी स्थितियाँ बदल रही हैं. मूल्य बदल रहे हैं. परिवार का विघटन हो रहा है. वार्धक्य समस्या बनने लगा है. जैसे जैसे मनुष्य बुढ़ापे की ओर चलता है वैसे-वैसे अकेलापन, संत्रास, भय और असुरक्षा आदि उसको घेर लेते हैं. दरअसल उसे सुरक्षा और स्नेह की आवश्यकता होती है. बदलती परिस्थितियों में, वृद्धों के मनोविज्ञान को समझना भर काफी नहीं है बल्कि आज के परिप्रेक्ष्य में उनके पुनर्वास का प्रश्न प्रबल हो उठा है. 

उत्तरआधुनिक समय में लोगों की दृष्टि हाशियाकृत समुदायों पर पड़ी है तो स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक के साथ-साथ अब वृद्धों पर भी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है. परिणामस्वरूप वृद्धावस्था विमर्श उभरकर सामने आया है. लेकिन सिमोन द बुआ (9 जनवरी, 1908 – 14 अप्रैल, 1986) ने 1950 से ही वृद्धावस्था पर चिंतन-मनन करना शुरू कर दिया था. 1970 में प्रकाशित उनकी शोधपूर्ण कृति ‘ला विएलेस्से’ (फ्रेंच) इसका प्रमाण है. ‘ला विएलेस्से’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘ओल्ड एज’ (पैट्रिक ओ ब्रेन) 1977 में प्रकाशित हुआ. सिमोन की भविष्योन्मुखी विश्वदृष्टि के कारण यह कृति वृद्धावस्था विमर्श की गीता बन गई. हिंदी में चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने इस कृति का सार-संक्षेप ‘’वृद्धावस्था विमर्श’’ शीर्षक से प्रस्तुत किया है.

यों तो इसमें संदेह नहीं कि समाज, साहित्य और संस्कृति में वृद्ध सदा उपस्थित रहे हैं लेकिन उनकी यह उपस्थिति केंद्र की अपेक्षा परिधि पर अधिक रही है. केंद्र से अपदस्थ होते ही व्यक्ति समाज की उपेक्षा का पात्र हो जाता है. यहाँ तक कि बहुत बार तो उसे अपना जीवन अभिशाप सा प्रतीत होने लगता है. परिधि पर धकेले गए (हाशियाकृत) एक समुदाय के रूप में वृद्ध समुदाय दुनिया का बहुत बड़ा उपेक्षित जन समुदाय है. वृद्धावस्था विमर्श इस उपेक्षित समुदाय की दृष्टि से, अथवा वृद्धावस्था को केंद्र में रखते हुए, समाज, साहित्य और संस्कृति की नई व्याख्या करने वाला विमर्श है. जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, वृद्धों और वृद्धावस्था पर हमारे यहाँ चिंतन की बड़ी पुरानी परंपरा है तो सही; लेकिन उस चिंतन परम्परा में वृद्धों को समाज में पुनर्वासित करने के स्थान पर वन की ओर प्रस्थान करने (वानप्रस्थ) और सब कुछ त्याग देने (संन्यास) के आदेश निहित हैं. आज का वृद्धावस्था विमर्श इससे आगे बढ़कर वृद्धों को समाज में पुनर्वासित देखना चाहता है. हिंदी में इस दिशा में ‘वागर्थ’ ने दिसंबर 1999 में प्रकाशित वृद्धावस्था विशेषांक के माध्यम से गंभीर विमर्श की शुरुआत की और यह संकेत दिया कि इक्कीसवीं शताब्दी के विश्व के समक्ष वृद्धावस्था संबंधी समस्याएँ बड़ी चुनौती प्रस्तुत करनेवाली हैं. इस वैचारिक पीठिका पर हिंदी कहानी साहित्य में वृद्धावस्था के चित्रण का अनुसंधान और विश्लेषण ही डॉ. शिवकुमार राजौरिया के प्रस्तुत ग्रंथ “वृद्धावस्था विमर्श और हिंदी कहानी” का लक्ष्य है. भूमंडलीकृत विश्व द्वारा अनुभव की जा रही वृद्धावस्था विषयक विकट समस्या से संबंधित होने के कारण यह शोधपूर्ण ग्रंथ साहित्य के साथ-साथ समाज के संदर्भ में भी अत्यंत प्रासंगिक है.

इस ग्रंथ की व्यापकता का अनुमान इस तथ्य से सहज ही किया जा सकता है कि डॉ. शिवकुमार राजौरिया ने इसकी विवेच्य सामग्री के रूप में हिंदी कहानी साहित्य से उन कहानियों को चुनकर ग्रहण किया गया है जिनमें वृद्धावस्था को मुख्य विषय अथवा कथ्य के रूप में स्वीकार किया गया है. उन्होंने बताया है कि इन कहानियों में - बेटोंवाली विधवा (प्रेमचंद), बूढ़ी काकी, (प्रेमचंद), अलग्योझा (प्रेमचंद), माँ (प्रेमचंद), मंत्र, (प्रेमचंद), स्वामिनी (प्रेमचंद), विध्वंस (प्रेमचंद), सुभागी (प्रेमचंद), गुदड़ी में लाल (जयशंकर प्रसाद), ममता (जयशंकर प्रसाद), बेड़ी (जयशंकर प्रसाद), चीफ की दावत (भीष्म साहनी), यादें (भीष्म साहनी), चचा मंगलसेन (भीष्म साहनी), खून का रिश्ता (भीष्म साहनी), पागल है (यशपाल), समय (यशपाल), दुःख का अधिकार (यशपाल), कौन जाने (यशपाल), समय (यशपाल), कैलाशी नानी (सुभद्रा कुमारी चौहान), वसीयत (भगवती चरण वर्मा), परमात्मा का कुत्ता (मोहन राकेश), आजादी (ममता कालिया), उधार की हवा (मृदुला गर्ग ), बांसफल (मृदुला गर्ग), छत पर दस्तक (मृदुला गर्ग), उर्फ सैम (मृदुला गर्ग), मजबूरी (मन्नू भंडारी), मास्टर साहब (चंद्रगुप्त विद्यालंकार), पादुका पूजन (प्रतिभा राय), सीढ़ी (सूर्यबाला), सौगात (सूर्यबाला), दादी और रिमोट (सूर्यबाला), दादी का खजाना (सूर्यबाला), दादी माँ (शिवप्रसाद सिंह), दादी (शिवानी), माँ (ए.असफल), शापमुक्ति (रमेश उपाध्याय), जींस (मनोज कुमार पाण्डेय), ताई (विश्वंभरनाथ कौशिक), हरिहर काका (मिथिलेश्वर), वापसी (उषा प्रियंवदा), उतनी दूर (राज़ी सेठ), उसका आकाश (राज़ी सेठ), साधें (गोविन्द मिश्र), गेंद (चित्रा मुदगल), फाइल दाखिल दफ्तर (गिरिराज किशोर), अपना घर (रामधारी सिंह दिवाकर), बुढऊ का आधुनिकीकरण (गिरीश अस्थाना), हाँच (सुनील सिंह), उसका जाना (दिनेश चंद्र झा), फाग पिया संग (चन्द्रिका ठाकुर देशदीप), समय (सिद्धेश), यक्ष प्रश्न (दयानन्द पांडेय), बांधों न नाव इस ठांव बंधु (उर्मिला शिरीष), साँझ का परिंदा (आदर्श मदान), आँख मिचौनी (अमृतराय), बूढ़ा ज्वालामुखी (गिरिराज शरण अग्रवाल), घेरे (गोविन्द मिश्र), पिता (ज्ञानरंजन), सीमेण्ट में उगी घास (दयानन्द अनन्त), शटल (नरेन्द्र कोहली), तिनकों का घोंसला (प्रतिमा वर्मा), ग्राम माता (बाबू सिंह चौहान), दादी का बटुआ (मंजुल भगत), मोहताज (रामकुमार भ्रमर), अनाधिकृत स्वप्न (सत्यराज), पराजित (सुनील कौशिक), घुन (सुरेश उनियाल), मौत के लिए एक अपील (साजिद रशीद), मुट्ठी भर धूल (मुरारी शर्मा), कितने दीनू कितने दीनानाथ (राजेश झरपुरे), अम्मा (डॉ.श्रीमती कमल कुमार), नानी (संजीव दत्त शर्मा), बस कब चलेगी(संजय विद्रोही), बोनसाई (योगिता यादव), अपूर्णा (अलका सिन्हा), बाबूजी (डॉ.शिबन कृष्ण रैणा), माचिस की डिबिया (चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद) और खिड़की (राजेन्द्र कृष्ण) तथा माई (हरि भटनागर) - सम्मिलित हैं. 

विद्वान लेखक ने सबसे पहले तो वृद्धावस्था विमर्श की सैद्धांतिक पीठिका तैयार की है और वृद्धों की मानसिकता पर इस संदर्भ में विचार किया है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति के मनोजगत में विभिन्न दैहिक , सामाजिक, आर्थिक और नैतिक कारणों से परिवर्तन घटित होते हैं. यहाँ वृद्धावस्था में परनिर्भरता से उत्पन्न कुंठाओं, और मूल्य परिवर्तन का विवेचन करते हुए वर्तमान विश्व के समक्ष उपस्थित वृद्धों के पुनर्वास की समस्या का भी विश्लेषण किया गया है. इसके बाद उन्होंने आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण और सामाजिक परिवर्तन के साथ भारतीय समाज में वृद्धों की बदलती हुई स्थिति तथा वृद्धों की सामाजिक समस्याओं का विवेचन किया है. इतनी विस्तृत पृष्ठभूमि निर्मित करने के बाद लेखक ने हिंदी कहानियों का वृद्धावस्था विमर्श के कोण से नया पाठ, जिसे वृद्ध-पाठ कहा जा सकता है, तैयार किया है. इसके लिए उन्होंने चयित कहानियों में अभिव्यक्त वृद्धों की मानसिकता का पहले तो वृद्धावस्था जनित असुरक्षा एवं उससे जुड़े मनोभावों -आशंका और अनिश्चितता - के चित्रण के संदर्भ में सोदाहरण विश्लेषण किया है. फिर एकाकीपन, स्मृति और मृत्युबोध के संदर्भ में वृद्धावस्था के चित्रण की प्रामाणिकता की सूक्ष्म और गहन पड़ताल की है.

डॉ. राजौरिया के इस ग्रंथ का एक और सर्वथा मौलिक योगदान वृद्धों की भाषा का सामाजिक संदर्भ को खोज निकालने से सम्बंधित है. उन्होंने वृद्धों की भाषा के संदर्भ में चयित कहानियों का पाठ विश्लेषण यह मान कर किया है कि समाजभाषिक दृष्टि से व्यक्ति का भाषा व्यवहार की उसकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर रहता है. लेखक ने जहाँ एक ओर यह प्रतिपादित किया है कि वृद्धजन का भाषिक आचरण उनके अनुभव और आयु से जुड़े बड़प्पन को प्रकट करता है, वहीं यह भी सिद्ध किया है कि कहानीकारों ने वृद्ध पात्रों के संवादों के गठन में घर-परिवार और समाज में उनके स्थान, पद और रुतबे के साथ-साथ उनकी हाशियाकृत एवं उपेक्षापूर्ण स्थिति का ध्यान रखते हुए ऐसी भाषा का प्रयोग किया है जो वृद्धों की सामाजिक-मानसिक दशा का प्रतिबिंब है. वार्ता आरंभ, वार्ता परिवर्तन, प्रश्न, आदेश और विनम्रता से जुड़े वृद्धों के संवादों का सामाजिक स्थिति के संदर्भ में ऐसा विश्लेषण अन्यत्र दुर्लभ है. मेरी समझ में इसका कारण यह है कि डॉ. शिवकुमार राजौरिया ने यह समस्त कार्य डॉ. ऋषभ देव शर्मा जी की देखरेख में उनसे वृद्धावस्था विमर्श और समाजभाषाविज्ञान की दीक्षा लेकर संपन्न किया है.

यहाँ एक और बात की चर्चा मुझे ज़रूरी लग रही है. वह यह कि इस ग्रंथ की तैयारी के लिए कहानी साहित्य का अध्ययन-मनन करते- करते शिवकुमार राजौरिया स्वयं कीटभृंगी न्याय से कहानीकार बन गए. दरअसल डॉ. ऋषभदेव शर्मा प्रायः उन्हें प्रेरित करते रहते थे - इतनी कहानियाँ पढ रहे हो, कुछ अपना भी लिखो ना! - और एक दिन कुलबुलाते बीज में अंकुर निकल आया. एक परिचित वृद्ध को केंद्र में रखकर उन्होंने एक कहानी लिख दी - ‘बूढी हड्डियाँ’. तनिक नोक पलक संवारकर कहानी छपने के लिए भिजवा दी गई. हफ्ते भर में ‘स्वतंत्र वार्ता’ में छप भी गई. बस फिर क्या था लेखक की धड़क खुल गई और इस ग्रंथ के साथ-साथ उनका कहानी लेखन भी चल निकला कोई तीस कहानियाँ तो हो ही गई होंगी!- अधिकतर वृद्धावस्था विमर्श पर केंद्रित! स्रवंति, दक्षिण समाचार, हिंदी मिलाप, स्वतंत्र वार्ता और श्रीमिलिंद में लगातार छपती भी रहीं. संग्रह भी आ गया –‘ऑटोग्राफ एवं अन्य कहानियाँ’ (2012 : चेतक बुक्स, 1075, फ्लैट संख्या 3, बी विंग, येवले म्हस्के अपार्टमेंट ,सदाशिव पेठ, पूना-30) जिसे सुधी पाठकों और विद्वानों का भरपूर स्नेह मिला. 

मुझे पूर्ण विश्वास है कि डॉ. शिवकुमार राजौरिया के इस ग्रंथ को भी हिंदी जगत में स्नेह और सम्मान मिलेगा. मैं उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामना व्यक्त करती हूँ. साथ ही, इस अत्यंत मौलिक, प्रासंगिक, महत्वपूर्ण, पठनीय एवं संग्रहणीय ग्रंथ को पाठकों तक पहुँचाने के लिए प्रकाशक को भी बधाई देना चाहती हूँ. 

अनंत शुभेच्छाओं सहित,

30 अप्रैल, 2017                                                                                                         – गुर्रमकोंडा नीरजा 
                                                                                                                                              प्राध्यापक 
                                                                                                                  उच्च शिक्षा और शोध संस्थान 
                                                                                                                 दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा 
                                                                                                               खैरताबाद, हैदराबाद – 500004.
                                                                                                                 neerajagkonda@gmail.com

समकालीन सरोकार और साहित्य (भूमिका)

समकालीन सरोकार और साहित्य 
संपादक : ऋषभ देव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा
अतुल्य पब्लिकेशंस, सी -5 /एफ - 2, ईस्ट ज्योति नगर, दिल्ली - 110 093
प्रथम संस्करण : 2017
मूल्य : रु 500
ISBN  : 978-93-82553-66-3  

दक्षिण भारत में किए जा रहे हिंदी भाषा और साहित्य विषयक शोध लेखन की एक छवि प्रस्तुत करने के लिए पिछले दो वर्षों में हमने दो पुस्तकें ‘संकल्पना’ (2015) तथा ‘अन्वेषी’ (2016) हिंदी पाठकों को समर्पित की हैं। ‘समकालीन सरोकार और साहित्य’ इस शृंखला की तीसरी कड़ी है। विशेष रूप से शोधार्थियों की माँग पर इसमें शोध विमर्श संबंधी व्यावहारिक जानकारियाँ शामिल की गई हैं। साथ ही इसका क्षेत्र अब दक्षिण भारत तक सीमित नहीं है। 

हिंदी साहित्य और भाषा विषयक अनुसंधान के क्षेत्र में शोध पत्र और शोधप्रबंध के लेखन में मानकता की दृष्टि से प्रायः बड़ी अराजकता देखने को मिलती है। इसका एक बड़ा कारण शोध लेखन के संबंध में स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय प्रारूपों के प्रति उपेक्षा भाव है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए शोध संबंधी मानक लेखन के लिए व्यापक रूप से स्वीकृत दो प्रारूपों की हिंदी के संदर्भ में प्रस्तुति इस पुस्तक को विशिष्ट बनाती है। ए.पी.ए. और एम.एल.ए. प्रणालियों की यह जानकारी हिंदी में पहली बार इस रूप में प्रस्तुत की जा रही है जो शोधार्थियों और शोध निर्देशकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। इसके अलावा हिंदी में शोध की संभावनाओं एवं सकारात्मक मनोविज्ञान जैसी नई दिशाओं का उद्घाटन करने वाली सामग्री भी अत्यंत उपयोगी है। 

यह पुस्तक समसामयिक अद्यतन हिंदी शोध में लोकप्रियता प्राप्त कर रहे दलित एवं स्त्री आदि हाशिया विमर्शों के आलोक में कविता, उपन्यास और कहानी जैसी विधाओं का पुनर्पाठ तो प्रस्तुत करती ही है, साथ ही भाषा विमर्श और मीडिया विमर्श के नए आयामों को भी प्रस्तुत करती है। 

विश्वास है कि भाषा और साहित्य संबंधी अनुसंधानकर्ताओं और सुधी पाठकों को हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। 

पुस्तक के सुरुचिपूर्ण मुद्रण एवं प्रकाशन के लिए हम अतुल्य पब्लिकेशन्स के श्री अतुल माहेश्वरी और श्री आदित्य माहेश्वरी के प्रति विशेष रूप से आभारी हैं। इस पूरी योजना में सहयोग के लिए श्री वी. कृष्णाराव का हार्दिक धन्यवाद।

1 मई, 2017                                                                                                                       - ऋषभ देव शर्मा 

                                                                                                                                        गुर्रमकोंडा नीरजा