रविवार, 18 दिसंबर 2016

श्रम संस्कृति के किसान कथाकार विवेकी राय

विवेकी राय
19 नवंबर, 1924
22 नवंबर, 2016

भोजपुरी के प्रथम ललित निबंधकार एवं आलोचक, ग्राम-जीवन और लोक-संस्कृति के प्रति समर्पित कथाकार विवेकी राय 22 नवंबर, 2016 को पंचतत्वों में विलीन हो गए. उनका जाना हिंदी एवं भोजपुरी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है. 

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के भरौली ग्राम में 19 नवंबर, 1924 को जन्मे विवेकी राय की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा सोनयानी (गाजीपुर जिला) में संपन्न हुई. उन्होंने महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से पीएचडी उपाधि अर्जित की. वे अध्यापन कार्य से जुड़े रहे. उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – (उपन्यास) बबूल (1964, डायरी शैली में), पुरुष पुराण (1975), लोकऋण (1977), श्वेत पत्र (1979), सोनामाटी (1983), समर शेष है (1988), मंगल भवन (1994), नमामि ग्रामम् (1997), अमंगल हारी, देहरी के पार (2003) तथा अन्य. (कविता संग्रह) अर्गला, राजनीगंधा, गायत्री, दीक्षा, लौटकर देखना आदि. (कहानी संग्रह) जीवन परिधि (1952), नई कोयल (1975), गूंगा जहाज (1977), बेटे की बिक्री (1981), कालातीत (1982), चित्रकूट के घाट पर (1988), सर्कस (2005), आंगन के बंधनवार, अतिथि आदि. (डायरी) मनबोध मास्टर की डायरी (2006). (ललित निबंध) किसानों का देश (1956), गाँवों की दुनियाँ (1957), त्रिधारा (1958), फिर बैतलवा डाल पर (1962), गंवाई गंध गुलाब (1980), नया गाँवनाम (1984), यह आम रास्ता नहीं है (1988), आस्था और चिंतन (1991), जगत तपोवन सो कियो (1995), वन तुलसी की गंध (2002), उठ जाग मुसाफ़िर (2012) आदि. (संस्मरण) मेरे शुद्ध श्रद्धेय. (रिपोर्ताज) जुलूस रुका है (1977) आदि. अतः यह स्पष्ट है कि उनका कृतित्व वैविध्यपूर्ण एवं बहुआयामी है. वे प्रेमचंद पुरस्कार, साहित्य भूषण पुरस्कार, आचार्य शिवपूजन सहाय सम्मान, शरदचंद जोशी सम्मान, पंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान आदि प्रतिष्ठित पुरस्कारों एवं सम्मानों से अलंकृत हुए. 

विवेकी राय अपने आपको ‘किसान साहित्यकार’ मानते थे. वे अपनी जमीन से इस तरह जुड़े हुए थे कि उनकी रचनाओं में मिट्टी के सोंधेपन से पाठक सहज ही आप्लावित हो जाते. उनके साहित्य को देखने से यह स्पष्ट है कि उसमें स्वातंत्र्योत्तर भारतीय गाँवों का सच्चा चित्र उपस्थित है. अपने अंचल के बीच पल्लवित होने के कारण वहाँ के संबंधों, मूल्य-संक्रमण, लोकगीतों, लोक मान्यताओं, संस्कारों व लोक-व्यापारों आदि की प्रामाणिक छवि उनके साहित्य में सहज ही उभरती है. इस संदर्भ में रामदरश मिश्र का कथन उल्लेखनीय है. वे कहते हैं, “विवेकी राय किसान लेखक हैं, उनके लेखन में अपनी गँवाई धरती बोलती है जन-सामान्य की भूख-प्यास बोलती है, उसके उत्कर्ष की चिंता बोलती है, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पाखंड के विरुद्ध प्रतिवाद बोलता है, यानी, समग्रतः उसमें मनुष्यता बोलती है.” (रामदरश मिश्र, सहचर है समय, दिल्ली : परमेश्वरी प्रकाशन, 2008, पृ. 514). आंचलिक उपन्यासकारों में फणीश्वरनाथ रेणु के पश्चात विवेकी राय का नाम लिया जा सकता है. उन्होंने हिंदी शब्द-भंडार को अनेक नए शब्दों से समृद्ध किया है. 

विवेकी राय की पहचान वस्तुतः एक कथाकार के रूप में स्थापित हुई है, किंतु उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ कविता से हुआ. 1951 में उनका पहला काव्य संग्रह ‘अर्गला’ प्रकाशित हुआ था. उनकी कविताओं में एक ओर प्रकृति है तो दूसरी ओर दर्शन, शृंगार, रहस्य और राष्ट्रीय-बोध. उनकी कविताओं के संबंध में नंददुलारे वाजपेयी का कथन द्रष्टव्य है – “यद्यपि इन पद्यों की शैली और छंद नए नहीं हैं, पर इनकी भावधारा में नवीन जीवन शक्ति है. प्रकृति के अपूर्व जागरण में मानव के जाग्रत होने और मानव के जाग्रत करने के बलशाली संकेत हैं. कवि के इन प्राकृतिक सौंदर्य-चित्रणों में उसकी मानवीय संवेदना समायी हुई है – वैसी ही भावना जैसी अंग्रेज कवि वर्ड्सवर्थ की थी.” (मान्धाता राय, ‘प्राकरणिकी’, विवेकी राय और उनका सृजन-संसार, (सं) मान्धाता राय, वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन, 2007, पृ. x से उद्धृत). उनकी कविता का एक उदाहरण देखें– 
“भला देखो 
तनिक गंभीर होकर यह 
कि किसके लिए व्याकुल चित्त, अंधा – 
धुंधधर्मी झोंक में उद्विग्न आकुल मन? 
तुम्हारा कौन, संबंधी?
तुम्हारा कहाँ क्या अटका? 
नकारा, व्यर्थ, निष्फल 
परम अनर्थ, नाहक सोचते क्या हो? 
कहाँ होती कहीं कोई समस्या भ्रमित – 
मन की सोचवाली दौड़ से हल है?” (दीक्षा, पृ. 2)

विवेकी राय कविता से गद्य की ओर मुड़े. इस संबंध में उन्होंने स्वयं कहा कि “मैं 1960 तक कविता लिखता रहा. उसके बाद मुख्यतः दो कारणों से धीरे-धीरे अनायास वह छूट गई. उन दिनों गद्य लेखन का दबाव अधिक था. उपन्यास, कहानियों के अतिरिक्त ‘आज’ (वाराणसी) में एक साप्ताहिक स्तंभ ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ भी चल रहा था और यह तेरह-चौदह वर्षों तक चलता रहा. इसमें मुक्त भाव से डायरी के अतिरिक्त ललित निबंध, यात्रावृत्त, रेखाचित्र, हास्य-व्यंग्य, संस्मरण, और रिपोर्ताज आदि निबंध की विविध नई विधाओं को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता रहा. मुझे कविता के माध्यम से जो कुछ भी कहना था वह इन्हीं के भीतर कह लेता और बराबर ऐसा लगता कि अब अलग से कविता लिखना और कवि बना रहना बेकार है. ये डायरियाँ प्रायः काल्पनिक होतीं और अपने समय को रेखांकित करने के साथ-साथ स्थायी मूल्य से पूर्ण भाव-चिंतन, युगीन संवेदना, जीवन संघर्ष और सामाजिक चेतना आदि से संबंधित सृजनात्मक कोणों को विस्तारपूर्वक उभारती हुई चलती थीं. इन डायरियों को उन दिनों अत्यधिक लोकप्रियता मिली थी और अपनी पूरी शक्ति के साथ मेरा कवि गद्य की उक्त विविध विधाओं को उत्तरोत्तर निखार देने में जुटा था. अब आप महसूस कर सकेंगे कि कविता की ओर से मैं गद्य की ओर मुड़ नहीं गया बल्कि मैंने अपनी कविता को सुविधा के लिए गद्य की ओर मोड़ लिया. ‘फिर बैतलवा डाल पर’, ‘गंवाई गंध गुलाब’ और ‘जुलूस रुका है’ आदि में संकलित अनुरंजक तथा भावात्मक, चिंतनात्मक डायरियों के पन्ने मेरे कथन को पुष्ट कर सकेंगे.” (विवेकी राय, आधुनिक भारत का चेहरा धुंधग्रस्त है, संवाद चलता रहे, कृपाशंकर चौबे, दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 1995, पृ. 96).

विवेकी राय कवि या कहानीकार ही नहीं अपितु उपन्यासकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, समीक्षक, आलोचक आदि अनेकानेक रूपों में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं. उनके साहित्य के रसास्वादन के लिए पाठक में भी के विशेष प्रकार के संस्कार की आवश्यकता है और वह है ग्रामीण-जीवन, ग्रामीण-प्रकृति और ग्रामीण-संस्कारों को समझने की प्रवृत्ति. स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण जनता की दयनीय दिशा, लोक-जीवन की सांस्कृतिक बनावट, ग्रामीण मानसिकता में व्याप्त रुग्णता, शोषण की नई शक्तियाँ, विघटित होते प्रजातांत्रिक मूल्य, हताशा, मोहभंग आदि को उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से उकेरा है. सांस्कृतिक मूल्यों से कटकर आधुनिकता के रंग में रंगे जा रहे ग्राम-जीवन की त्रासदी उनके साहित्य में दिखाई पड़ती है. उनके साहित्य के विविध आयामों को स्पष्ट करते हुए मान्धाता राय कहते हैं कि “विवेकी राय ने जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों को प्रस्तुत किया है, उनमें मेहनतकश वर्ग का अमानवीय शोषण एवं उत्पीड़न, गाँव की आपसी फूट के चलते आत्मीयता और भाईचारे की समाप्ति, गाँव के सहज-सरल जीवन में कुटिल राजनीति का प्रवेश और उसकी खलनायिका-सदृश भूमिका, दहेज, अस्पृश्यता आदि रूढ़ियों का दबाव मुख्य है.” (मान्धाता राय, ‘प्राकरणिकी’, विवेकी राय और उनका सृजन-संसार, वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन, (सं) मान्धाता राय, 2007, पृ. x). विवेकी राय जनपक्षधर थे. उनकी सहानुभूति पिसते वर्ग के साथ था. उन्होंने आर्थिक और सामाजिक शोषण के प्रति आवाज उठाते समय अत्याचारों के प्रति अपनी नाराजगी और वितृष्णा को भी नहीं छिपाते. 

विवेकी राय ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने ग्राम-जीवन को अपने व्यक्तित्व के साथ-सतह साहित्य में संजोकर रखा था. उनके साहित्य में ‘बबूल’ है तो ‘गंवाई गंध गुलाब’, ‘रजनीगंधा’ भी है और ‘नई कोयल’ भी. कहने का आशय है कि उनके साहित्य का फलक विस्तृत है. उनके लेखन की पृष्ठभूमि वस्तुतः गाँव ही है. इस संदर्भ में उन्होंने स्वयं कहा है कि “मेरे लेखन की पृष्ठभूमि ग्राम जीवन होना मेरी ईमानदारी का तकाजा रहा है क्योंकि इसे मैंने दीर्घकाल तक जिया और भोगा है.” (विवेकी राय, ‘आधुनिक भारत का चेहरा धुंधग्रस्त है,’ संवाद चलता रहे, कृपाशंकर चौबे, दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 1995, पृ. 96). इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंने गाँव के बाहर देखा ही नहीं. इस संदर्भ में विवेकी राय क्या कहते हैं ज़रा देखें – “ऐसा नहीं है कि मैंने गाँव के बाहर नहीं देखा है. वास्तविकता यह है कि गाँव की जमीन पर खड़े होकर मैंने आधुनिक जन-जीवन को समग्र रूप में देखा है और आत्मसात कर उसे अभिव्यक्ति दी है. यदि आप गाँव के बाहर का अर्थ नगर मानते हैं तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि नगर के कोण से आप समग्र भारतीय जीवन को उभारने का दावा तो कर सकते हैं किंतु वास्तव में यह दावा अधूरा होगा क्योंकि भारतीय जीवन की आत्मा गाँव है.” (वही, पृ. 97). उनके साहित्य पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने जो कुछ कहा है उन्हें अपने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है. उनके कथासाहित्य में चित्रित गाँव संपूर्ण भारत के स्वातंत्र्योत्तर गाँवों का प्रतिनिधि करते हैं. 

विवेकी राय समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के प्रति आक्रोश व्यक्त करते थे. विशेष रूप से शिक्षा जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार के संबंध में वे अत्यंत चिंतित दिखाई पड़ते थे. वे कहा करते थे कि “यह एक दुखद सर्वमान्य तथ्य है कि स्वतंत्र भारत में उत्तरोत्तर द्रुतगति से शिक्षा का ह्रास हुआ है और अब वह पूरी तरह नष्ट हो गई है. देश में पहले अशिक्षित ईमानदार लोग अधिक थे और अब शिक्षित बेईमानों की बाढ़ आ गई है. वर्तमान व्यवस्था के रहते शिक्षा सुधार की कोई उम्मीद नहीं है.” (वही, पृ. 98). 

जनता के पक्षधर विवेकी राय का लेखन ग्राम संस्कृति और श्रम संस्कृति को समर्पित है और बड़ी ललक से अपने पाठक से सहज संबंध स्थापित करने में समर्थ है. विवेकी राय ने साहित्यकार के मूल धर्म का सर्वत्र निर्वाह किया क्योंकि उन्होंने मूल्य-चिंतन से कहीं विमुख नहीं हुए. वे स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श की घोषणाएँ करते गली-गली और मंच-मंच नहीं घूमते, लेकिन वास्तविकता यह है कि समाज के इन दोनों ही वर्गों के शोषण और दमन से वे भीतर तक विचलित होते थे और एक साहित्यकार के रूप में इनके साथ अपनी पक्षधरता लेखन के माध्यम से प्रमाणित करते थे. कहना होगा कि उपन्यास हो या कहानी, निबंध हो या समीक्षा, संस्मरण हो या पत्र, उनके लखन में लोकजीवन और लोकभाषा अपनी पूर्ण ठसक के साथ विद्यमान है. उनकी लेखकीय प्रतिभा के संबंध में सत्यकाम ने कहा था कि “जिस भाषा के पास विवेकी राय जैसे लेखक हों उस भाषा के अवरुद्ध और स्थिर होने का भी ख़तरा नहीं. लोकभाषा के रूप में नित्य नए प्रपात इससे मिल रहे हैं और इसका बल बढ़ा रहे हैं. विवेकी राय के लेखन का रस वस्तुतः लोकरस है, जो उनके लेखन में ही नहीं, उनके व्यक्तित्व में भी झलकता है.” (सत्यकाम, ‘तब मैंने हिंदी-अखबार लेना शुरू किया’, विवेकी राय और उनका सृजन-संसार, (सं) मान्धाता राय, वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन, 2007, पृ. 142). यदि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है तो विवेकी राय का व्यक्तित्व और कृतित्व यह बतलाता है कि भारत के गाँव उनकी आत्मा में बसते हैं. लोकभाषा और लोक-संस्कृति के ऐसे सजग प्रहरी का जाना साहित्य जगत के लिए वास्तव में अपूरणीय क्षति है.

शनिवार, 26 नवंबर 2016

[ई-पीजी पाठशाला : गुर्रमकोंडा नीरजा : ई-पाठ : 6] लोक सुभाषितों में लोक मानस और समाज



ई-पाठ लेखक : 

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.

प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद

प्रस्तुतकर्ता :

डॉ. आनंद वर्धन शर्मा,

प्रतिकुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

[ई-पीजी पाठशाला : गुर्रमकोंडा नीरजा : ई-पाठ : 5] लोक साहित्य के अध्ययन की पाश्चात्य परंपराः स्वरूप और धाराएँ



ई-पाठ लेखक : 
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.
प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद
प्रस्तुतकर्ता :
डॉ. देवराज,
अधिष्ठाता, अनुवाद विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

[ई-पीजी पाठशाला : गुर्रमकोंडा नीरजा : ई-पाठ : 4] लोक साहित्य के अध्ययन की भारतीय परंपरा



ई-पाठ लेखक :
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.
प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद
प्रस्तुतकर्ता :
डॉ. देवराज,
अधिष्ठाता, अनुवाद विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

[ई-पीजी पाठशाला : गुर्रमकोंडा नीरजा : ई-पाठ : 3] छत्तीसगढ़ की लोक कथाएँ



ई-पाठ लेखक : 
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.
प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद
प्रस्तुतकर्ता :
डॉ. देवराज,
अधिष्ठाता, अनुवाद विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

[ई-पीजी पाठशाला :जी.नीरजा :ई-पाठ 2]स्वांग, नक़ल और नौटंकी : स्वरूप वैशिष्ट्य



ई-पाठ लेखक : 
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.
प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद
प्रस्तुतकर्ता :
डॉ. देवराज,
अधिष्ठाता, अनुवाद विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

[ई-पीजी पाठशाला :जी.नीरजा :ई-पाठ 1] लोक साहित्य और लिखित परंपरा का साहित्य



ई-पाठ लेखक : 
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.
प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद

प्रस्तुतकर्ता :
डॉ. देवराज,
अधिष्ठाता, अनुवाद विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

रविवार, 13 नवंबर 2016

शताब्दी संदर्भ

मुक्तिबोध : जीवन और कविता 


अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे.
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब.

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अन-खोजी निज समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,
परम अभिव्यक्ति....
मैं उसका शिष्य हूँ
वह मेरी गुरु है,
गुरु है!!

****

प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
खोजता हूँ पठार... पहाड़.... समुंदर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोई हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा!
                     [अँधेरे में]

अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वाले कवि मुक्तिबोध (13 नवंबर, 1917 – 11 सितंबर, 1964) को ‘मानवीय अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं’ (ब्रह्मराक्षस). उनका मानना है कि मानव संबंध समाज के विकास के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं. आज जब यह कहा जा रहा है कि कवि मर चुका है, कविता मर चुकी है और विचार ही रह गए हैं ऐसे में मुक्तिबोध का यह तर्क समीचीन प्रतीत होता है कि “नहीं होती, कहीं भी कविता खत्म नहीं होती.” विचार के संबंध में भी उनका मत उल्लेखनीय है. वे कहते हैं कि “मन की हर हरकत या प्रतिक्रिया विचार नहीं होती. प्रश्न में ही यदि उत्तर समाया हुआ दीखता है तो वह केवल प्रवृत्ति का ही दूसरा नाम है. xxx मन की उग्र प्रतिक्रिया ही आजकल विचार कहलाती है. विचार को कसने की कोई ऑब्जेक्टिव कसौटी नहीं है? कसौटी ही क्यों? जरूरत भी क्या है?” (एक साहित्यिक की डायरी, पृ. 75-76). उनके अनुसार तो अंतरात्मा से निकला हुआ बोध, भाव या निर्णय ही उचित है, वही संगत है. 

ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की बातें करने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर, 1917 को ग्वालियर के श्योपुर नामक कस्बे में हुआ था. उनका बाल्यकाल रूसी क्रांति का काल था. यह वह दौर था जब मनुष्यता विश्व युद्ध की चिंगारियों में झुलस रही थी. मुक्तिबोध के पिता ग्वालियर राज में पुलिस अधिकारी थे. अतः मुक्तिबोध की आरंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई. 1930 में उज्जैन में मिडिल परीक्षा में असफल हुए जिसे वे अपने जीवन की पहली महत्वपूर्ण घटना मानते हैं. उसके बाद फिर उन्होंने पढ़ाई का सिलसिला जारी रखा. 1938 में इंदौर कॉलेज से बी.ए. तथा 1953 में नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त की. उन्होंने 1935 से ही साहित्य सृजन शुरू कर दिया था. वे अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ (1941) के पहले कवि थे.

मुक्तिबोध के समय पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि लंदन में 1934 में प्रगतिशील लखक संघ का गठन हुआ. प्रेमचंद ने संगठन का स्वागत किया. लखनऊ में अप्रैल 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन संपन्न हुआ. यही समय मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता का प्रारंभिक समय था. 1935 में उनकी पहली रचनाएँ प्रकाशित हुईं, जिन पर माखनलाल चतुर्वेदी का प्रभाव रहा. इसमें संदेह नहीं कि जीवन के नित नए अनुभव उन्हें निरंतर प्राप्त होते रहे. इसीलिए शायद वे कहते हैं कि “मेरे जीवन का विराम!/ नित चलता ही रहा है मेरा मनोधाम/ गति में ही उसकी संसृति है./ नित नव जीवन में उन्नति है/ नित नव अनुभव हैं अविश्राम/ मन सदा तृषित संतत सकाम.” (जीवन यात्रा/ मुक्तिबोध रचनावली-1/ (सं) नेमिचंद्र जैन/ पृ. 66).

मुक्तिबोध मूलतः कवि हैं. उन्होंने स्वयं लिखा है कि “मैं मुख्यतः विचारक न होकर केवल कवि हूँ. किंतु आज का युग ऐसा है कि विभिन्न विषयों पर उसे भी मनोमंथन करना पड़ता है. अपने काव्य-जीवन की यात्रा में जो चिंतन करना पड़ा, वह विज्ञ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ.” (नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध, पृ. 1).

मुक्तिबोध का काव्य संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद 1964 में प्रकाशित हुआ. उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, भूरी-भूरी खाक धूल, एक साहित्यिक की डायरी, काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी, मेरे युवजन मेरे परिजन, भारत : इतिहास और संस्कृति, शेष-अशेष, प्रश्नचिह्न बौखला उठे आदि. उनका समग्र साहित्य रचनावली के छह खंडों में प्रकाशित है. 1981 में ‘सतह से उठता आदमी’ को मणि कौल ने फिल्माया. 2004 में मुक्तिबोध के जीवन को ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ नामक नाट्य रूप में प्रस्तुत किया गया. 

मुक्तिबोध के जीवन और उनकी कविता को लोग अपने अपने मतानुसार विश्लेषित करते हैं. किसी ने मुक्तिबोध को ‘विद्रोही’ कहा (हरिशंकर परसाई) तो किसी ने ‘विलक्षण प्रतिभा’ (शमशेर बहादुर सिंह) तो किसी ने ‘कठिन समय के कठिन कवि’ (अशोक वाजपेयी). एक ओर वे ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ (श्रीकांत वर्मा) हैं तो दूसरी ओर ‘आत्मसंघर्ष का कवि’ (नंदकिशोर नवल). एक ओर कुछ लोग मुक्तिबोध पर दुरूहता का आरोप लगाते हैं तो दूसरी ओर देवीशंकर अवस्थी कहते हैं कि मुक्तिबोध उनके लिए ‘अजनबी नहीं’ है.

मुक्तिबोध का जीवन सरल और सपाट राह से नहीं गुजरा. उन्हें हर मोड़ पर समस्याओं का सामना करना पड़ा. ज़िंदगी के अंतिम क्षण में भी उन्हें संघर्ष करना पड़ा. ऐसा जान पड़ता है कि मानो संघर्ष ही उनका जीवन है. शायद इसीलिए उन्होंने लिखा होगा कि “मुझे कदम-कदम पर/ चौराहे मिलते हैं/ बाँहें फैलाए!!/ एक पैर रखता हूँ/ कि सौ राहें फूटतीं,/ व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;/ बहुत अच्छे लगते हैं/ उनके तजुर्बे और अपने सपने .../ सब अच्छे लगते हैं;/ अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,/ मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ, जाने क्या मिल जाए!!” (मुझे कदम-कदम पर/ गजानन माधव मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ (2016, पच्चीसवाँ संस्करण), नई दिल्ली : राजकमल पेपरबैक्स, पृ. 77).

मुक्तिबोध के जीवन और सृजन को समझना हो तो किनारे बैठे रहने से काम नहीं चल सकता. ‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।‘ (कबीर). मुक्तिबोध के संबंध में शरद जोशी का कहना है कि “मुक्तिबोध में जहाँ एक ओर दूसरों के साथ घुलने-मिलने की ललक रहती थी, वहीं दूसरी ओर उनमें तटस्थता का भाव भी सदा विद्यमान रहता था. वह सहज ही घनिष्ठता स्थापित नहीं कर पाते थे.” (मोतीराम वर्मा (2004), लक्षित मुक्तिबोध, नई दिल्ली : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, पृ. 265). आग्न्येश्का सोनी कहती हैं कि “मुक्तिबोध को लेकर मन में जो झिझक थी, उनसे मिलते ही वह अनायास दूर हो गई... वे इस कदर आत्मीय भाव से पेश आए. हम उन्हीं के यहाँ ठहरे थे, दो-तीन दिन का साथ रहा. उनके परिवार के सभी सदस्यों के साथ हम घुल-मिल गए. महसूस ही नहीं हुआ कि हम दूर से आए हुए हैं. xxx मैंने अनुभव किया, वे हर दुनियावी घटना को निजी स्तर पर जीते हैं. उनका ज़िक्र करते करते वे भावाकुल हो उठते थे, जैसे जो कुछ चारों ओर हो रहा है, उनका व्यक्ति उसको केंद्रबिंदु बन कर जीता-भोगता है. जहाँ प्रगतिकामी शक्तियों का विकास उन्हें पुलकित करता था, वहीं प्रतिक्रियावादी अवरोधों से उन्हें ठेस पहुँचती थी. इस प्रकार उनका हृदय उल्लास और पीड़ा का एक समन्वित कोष नज़र आता था.” (वही, पृ. 269).

आग्न्येश्का सोनी ने मुक्तिबोध के व्यक्तित्व में जिस उल्लास और पीड़ा के द्वंद्व को महसूस किया वही मुक्तिबोध की रचनाओं में भी मुखरित है. वे मुक्ति चाहते हैं शोषण से, यातना से. अतः वे कहते हैं, “मैं परिणत हूँ,/ कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ/ वर्तमान समाज चल नहीं सकता./ पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,/ स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी/ छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,/ जन को.” (अँधेरे में, गजानन माधव मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ (2016, पच्चीसवाँ संस्करण), नई दिल्ली : राजकमल पेपरबैक्स, पृ. 77).

मुक्तिबोध की चर्चा हो और उनकी कविता ‘अँधेरे में’ की चर्चा न हो ऐसा हो ही नहीं सकता. क्योंकि मुक्तिबोध का नाम लेते ही अनायास ‘अँधेरे में’ कविता स्मृतिपटल पर अवतरित हो जाती है. 1964 में यह कविता पहली बार हैदराबाद से प्रकाशित पत्रिका ‘कल्पना’ में मुक्तिबोध की मृत्यु के एक महीने के बाद छपी. नामवर सिंह को यह कविता ‘परम अभिव्यक्ति की खोज’ प्रतीत होती है तो रामविलास शर्मा को ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष’. अशोक वाजपेयी उन दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि “मुक्तिबोध ने जो लंबी कविता, टाइप की हुई, भेजी, उसका शीर्षक था ‘आशंका के द्वीप अँधेरे में’. उसकी लंबाई इतनी अधिक थी कि अगर हमारी बत्तीस पृष्ठों की पत्रिका (पुनर्वसु) निकल भी गई होती, जो दुर्भाग्य से नहीं निकल सकी, तो उसका प्रवेशांक विशेषांक होता जिसमें उस कविता के अलावा कुछ और होने की गुंजाइश न होती.” (अशोक वाजपेयी, तम-शून्य में तैरती जगत-समीक्षा, इन द डार्क, (‘अँधेरे में’ का अंग्रेजी अनुवाद), कृष्ण बलदेव बैद, 2001, नोएडा : रेनबो पब्लिशर्स, पृ. 62). 

लंबी कविता ‘अँधेरे में’ का फलक इतना विस्तृत है कि इसमें रक्तालोक स्नात पुरुष, रहस्मय व्यक्ति, डोमाजी उस्ताद, तिलक, गांधी, तॉल्स्तॉय, मोर्चा, जुलूस, गोलाबारी, बैंड दल, अनेक किस्म की आकृतियाँ, जंगल, मोर्टार, आर्टिलरी, सैनिकों के पथराये चहरे, शव यात्रा, मार्शल ला आदि सब कुछ सहज रूप से समाहित प्रतीत होता है. इसमें अनेक प्रतीकों, बिंबों और महास्वप्नों का समायोजन है. इस कविता का विश्लेषण विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से किया है. पर मुक्तिबोध ने स्वयं इसके बारे में क्या लिखा है, यहाँ इस पर दृष्टि केंद्रित करना समीचीन होगा. 19 दिसंबर, 1963 को उन्होंने आग्न्येश्का सोनी को एक पत्र लिखा; कविता भेजने से पूर्व. उसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया कि “मैं अपनी एक कविता आपके पास भेजने को इच्छुक था. उसे मैंने टाइप करा लिया है. बहुत लंबी है. आप ऊब जाएँगी. अप्रकाशित है वह. टाइपिंग में बहुत भूलें हैं. कोई पत्रिका ऐसी नहीं जो उसे छापे. संभव है, वह कविता भी बहुत रद्दी किस्म की और तीसरे दर्जे की है. आपके पास भेजने में मुझे संकोच होता है. उसमें एक आशंका है, अँधेरी आशंका का वातावरण है – कहीं हमारे भारत में ऐसा-वैसा न हो.” (नंदकिशोर नवल (2005 पहली आवृत्ति), ‘अँधेरे में : एक विश्लेषण,’ मुक्तिबोध : ज्ञान और संवेदना, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, पृ. 445). 

यह वर्ष मुक्तिबोध का शताब्दी वर्ष है. इस संदर्भ में पाठकों के आस्वादन हेतु मुक्तिबोध की रचना “मैं उनका ही होता” प्रस्तुत है-

“मैं उनका ही होता, जिनसे
            मैंने रूप-भाव पाए हैं.
वे मेरे ही हिये बँधे हैं
           जो मर्यादाएँ लाए हैं.

मेरे शब्द, भाव उनके हैं,
          मेरे पैर और पथ मेरा,
मेरा अंत और अथ मेरा,
          ऐसे किंतु चाव उनके हैं.

मैं ऊँचा होता चलता हूँ
         उनके ओछेपन से गिर-गिर,
उनके छिछ्लेपन से खुद-खुद,
          मैं गहरा होता चलता हूँ.”

(शब्द नगरी पर )

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

प्रेमचंद का भाषा विमर्श

'इंदु संचेतना'

(चीन से निकलने वाली साहित्य की पहली अंतरराष्ट्रीय पत्रिका)

'विशिष्ट प्रतिभा विशेषांक' (अक्तूबर-दिसंबर 2016)

वर्ष 2, अंक 5



प्रेमचंद का भाषा विमर्श 

प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) अपने समय के लिए जितने प्रासंगिक थे आज भी वे उतने ही प्रासंगिक हैं। "यह तथ्य इस बात से ही प्रमाणित हो जाता है कि आज दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, बाजारीकरण, भ्रष्ट व्यवस्था, संवेदनात्मक छीजन आदि पर जब भी कहीं चर्चा होती है तो वह अंततः प्रेमचंद के ही इर्द-गिर्द आकर अपनी सार्थकता पाती है। प्रेमचंद की भाषा भी आज तक नए गद्यकारों का आदर्श बनी हुई है। यह अलग बात है कि प्रेमचंद के निकट कोई नहीं पहुँच सका।" (संपादकीय, प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 5)।

मानव जीवन में भाषा की भूमिका निर्विवाद है चूँकि भाषा के अभाव में मनुष्य केवल जैविक जंतु है। भाषा ही वह चीज है जो उसे समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। शायद इसीलिए प्रेमचंद ने अपने एक व्याख्यान में कहा था, "जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बनती है। भाषा सुंदरी को कोठरी में बंद करके आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं, लेकिन उसके स्वास्थ्य का मूल्य देकर। उसकी आत्मा इतनी बलवान बनाइए कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ्य दोनों की ही रक्षा कर सके। *** हमारा आदर्श तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें।" (नमिता सिंह, 'प्रेमचंदोत्तर कथा साहित्य और भाषा के मंतव्य'; साहित्य और संवेदना, (सं) पी.वी.विजयन, पृ. 268 से उद्धृत)। भाषा एक तरफ व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करती है तो दूसरी तरफ वह सामाजिक संबंधों को व्यक्त करती है। प्रेमचंद की भाषा इन दोनों कर्तव्यों को बखूबी निभाना जानती है, इसीलिए वह आज भी सर्वाधिक अनुकरणीय और प्रासंगिक कथाभाषा के रूप में स्वीकृत है।

समाज में हिंदी की तीन शैलियाँ प्रचलित हैं – उच्च हिंदी, उच्च उर्दू और हिंदुस्तानी। प्रेमचंद पहले तो उर्दू में लिखते थे, लेकिन बाद में वे हिंदी – बोलचाल की हिंदुस्तानी में लिखने लगे। वे हिंदुस्तानी के प्रबल पक्षधर बने।उन्होंने यह महसूस किया था कि हिंदी का यह शैलीभेद प्रायः राजनीतिक था। उनकी भाषा-चेतना बहुत गहरी थी। इसलिए उन्होंने बार बार यह लिखा कि "बंगाल का मुसलमान बंगला बोलता है और लिखता है, गुजरात का गुजराती, मैसूर का कन्नड़ी, मद्रास का तमिल और पंजाब का पंजाबी आदि। यहाँ तक कि उसने अपने अपने सूबे की लिपि भी ग्रहण कर ली है। उर्दू लिपि और भाषा से यद्यपि उसका धार्मिक-सांस्कृतिक अनुराग हो सकता है, लेकिन नित्य प्रति के जीवन में उसे उर्दू की बिलकुल आवश्यकता नहीं पड़ती।" (प्रो.दिलीप सिंह, 'प्रेमचंद की भाषाई चेतना', प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 23 से उद्धृत)। इतना ही नहीं उनके मतानुसार हिंदुओं और मुसलमानों की भाषा में कोई अंतर नहीं है तथा हिंदुस्तानी बोलचाल की हिंदी का सहज और सरल रूप है। ध्यान से देखा जाए तो प्रेमचंद के लिए हिंदुस्तानी केवल एक भाषा-शैली ही नहीं थी, बल्कि उनके लिए तो वह जातीय अस्मिता का एक प्रतीक थी। इसलिए उन्होंने कहा था कि "बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्रायः एक-सी हैं. उर्दू-हिंदी के सर्वनाम एक हैं – वह, तुम, मैं, हम इत्यादि। हिंदी-उर्दू की क्रियाएँ एक ही हैं – जाना, सोना, खाना, पीना, करना, मरना, जीना, लिखना, पढ़ना इत्यादि. उर्दू के संबंधवाचक शब्द – पर, का, में, से आदि वही हैं जो हिंदी के। दोनों का मूल शब्दभंडार भी एक है, लेकिन यहाँ बहुत दिनों तक फारसी के राजभाषा रहने से हिंदी शब्दों के फारसी या अरबी पर्यायवाची शब्द भी प्रचलित हो गए हैं। जैसे : देश – मुल्क, आकाश – आसमान, नदी – दरिया, रोगी – बीमार आदि। इन शब्दों का व्यवहार बोलचाल की हिंदी-उर्दू में बिना किसी भेदभाव के होता है।" (वही, पृ. 25 से उद्धृत)। उनकी मान्यता थी कि "बोलचाल की हिंदी समझने में न तो साधारण मुसलमानों को कोई कठिनाई होती है और न बोलचाल की उर्दू समझने में हिंदुओं को ही।" (वही, पृ. 24 से उद्धृत)। अभिप्राय यह कि इस दुष्प्रचार के खंडन का प्रेमचंद ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया कि हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएँ हैं तथा इनका किसी धर्म-मजहब से कुछ लेना देना है।

प्रेमचंद ने अपनी बातों को सिर्फ सैद्धांतिक स्तर तक सीमित नहीं रखा बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी उन्हें लागू किया। उनकी रचनाओं में घटना और अनुभव की बहुलता है। वे अपनी रचनाप्रक्रिया में भाषा का संपूर्णतः दोहन कर लेते हैं। (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास)। इसीलिए वे कहा करते थे कि "साधारण वकीलों की तरह साहित्यकार अपने मुवक्किल की ओर से उचित-अनुचित सब तरह के दावे नहीं पेश करता, अतिरंजना से काम नहीं लेता, अपनी ओर से बातें गढ़ता नहीं। वह जानता है कि इन युक्तियों से वह समाज की अदालत पर असर नहीं डाल सकता। उस अदालत का हृदय परिवर्तन तभी संभव है, जब आप सत्य से तनिक भी विमुख न हों, नहीं तो अदालत की धारणा आपकी ओर से खराब हो जाएगी और वह आपके खिलाफ फैसला सुना देगी।" (नंदकिशोर नवल, 'प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र', प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 13)।

विद्वानों ने यह लक्षित किया है कि मृदु और ललित शब्दयोजना, गूढ़शब्दार्थहीनता और जनपद सुखबोध्यता वास्तव में काव्यभाषा के लक्षण हैं लेकिन प्रेमचंद ने अपने साहित्य को व्यापक जनता से जोड़ने के लिए जनपद की भाषा को अपनाया। जब वे यह कहते हैं कि "साहित्य न चित्रण का नाम है, न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का" तो वे निस्संदेह बोलचाल की हिंदुस्तानी – देशजता की बात कर रहे होते हैं। प्रेमचंद अपनी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं। इसलिए उनकी रचनाओं में ठेठ देहाती शब्द पाए जाते हैं। उन्होंने "ग्रामीण जन की बोली-बानी में निहित ऊर्जा का दोहन करके ही अपनी कथाभाषा का गठन किया है।" (प्रो.ऋषभ देव शर्मा, 'प्रेमचंद दे देसिल बयना : संदर्भ 'गुल्ली डंडा' का", प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ.36)।

प्रेमचंद की भाषा - विशेष रूप से ग्रामीण पात्रों की भाषा - को देखने से यह स्पष्ट होता है कि "देहाती बोली और हिंदी के एकीकरण में उन्हें इतनी सफलता मिली है कि गाँव का रहने वाला पाठक भी प्रेमचंद के किसानों की बात सुनकर उसे अस्वाभाविक नहीं कह सकता। *** परंतु प्रेमचंद किसानों की बातचीत के लिए ही देहात से शब्द नहीं लेते; उनकी भाषा का गठन ही उस देहाती बोली की भूमि पर हुआ है। जो सुंदर मुहावरे, कहावतें, उपमाएँ और हास्य के पुट उनके गद्य में हमें मिलते हैं उन्हें प्रेमचंद ने अपने गाँव की बोली से सीखा था। अपनी उपमाएँ उन्होंने बहुधा ग्रामीण जीवन से ली हैं। *** प्रेमचंद की भाषा के अलंकार उसके प्रवाह में सहज ही सज जाते हैं। सारी बात अनुभव और सचाई की है। प्रेमचंद जनता को जानते थे, उसकी भाषा को जानते थे; वहीं से उन्हें शक्ति मिली है।" (डॉ.रामविलास शर्मा, प्रेमचंद, पृ.138)।

'गोदान' का ही एक उदाहरण देखें – प्रेमचंद का होरी अपने विद्रोही पुत्र गोबर को समझाता है–
  • "फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है. मजूरी मजूरी है, किसानी किसानी है। मजूर लाख हो, तो मजूर ही कहलाएगा। सर पर घास रखे जा रहे हो, कोई इधर से पुकारता है, ओ घासवाले, कोई उधर से। किसी की मेड पर घास धर लो तो गालियाँ मिलें। किसानी में मरजाद है।" 
होरी 'मरजाद' अर्थात मर्यादा के लिए अपने आपको समर्पित/ होम कर देता है।

'कर्मभूमि' का अमरकांत कहता है –
  • “काम की कौन कमी है घास भी काट लो, तो एक रुपए रोज की मजूरी हो जाए। नहीं जूते का काम है। बल्लियाँ बनाओ, चरसे बनाओ। मेहनत करने वाला आदमी भूखों नहीं मरता। धेली की मजूरी कहीं नहीं गई।"
ऐसे कथन स्वतः सिद्ध करते हैं कि प्रेमचंद की भाषा में देसी मुहावरे सहज रूप से उभरते हैं जो उसे जनभाषा बनाते हैं।

'गुल्ली-डंडा' कहानी बहुत ही छोटी है पर प्रेमचंद की भाषा के इस देशज पक्ष को उजागर करने में सक्षम है। इस कहानी में देशजता के साथ आभिजात्यता भी निहित है। इस कहानी में पग पग पर प्रेमचंद का ठेठ देसीपन झलकता है। यहाँ प्रेमचंद भारतीय खेल गुल्ली-डंडा के हवाले से यह कहते हैं – "हमारे अँग्रेजीदां दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। *** न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहाँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाएँ, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो?" खेल से लेकर शिक्षा तक का जो महँगा अंग्रेजीपन आज भी हम अपने सिर पर ढो रहे हैं प्रेमचंद ने उसके खतरे को अपने समय में भली प्रकार भाँप लिया था। यदि गुल्ली-डंडा को प्रतीक मान लें तो कहना होगा कि उन्होंने इस महँगे अंग्रेजीपन का विकल्प भी यहाँ सुझाया है – गुल्ली-डंडा अर्थात देहातीपन या देसीपन के वरण के रूप में।

अंततः डॉ.रामविलास शर्मा के शब्दों में कहे तो "प्रेमचंद की कला का रहस्य एक शब्द में उनका देहातीपन ही है; ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृदय में पैठकर उसके सभी तारों से संबंध स्थापित कर सके हैं।"

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा

भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य,
समाज, संस्कृति और भाषा
(सं) डॉ. प्रदीप कुमार सिंह
2016, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन,
पृष्ठ 528, मूल्य : रु. 950
भूमंडलीकरण ने समूचे विश्व के समक्ष अनेक चुनौतियाँ खड़ी की हैं. वास्तव में इसका संबंध अर्थतंत्र से है. इस आर्थिक संबंध के कारण ही पूरा विश्व एक बाजार बन चुका है. बाजार पूरे विश्व को नियंत्रित कर रहा है. स्कॉटिश अर्थशास्त्री एडम स्मिथ (16 जून, 1723 – 17 जुलाई, 1790) ने अपनी पुस्तक ‘ऐन इन्क्वायरी इंटू द नेचर एंड कॉसस ऑफ द वेल्थ आफ नेशंस’ (1976) में यह प्रतिपादित किया था कि जब आर्थिक प्रक्रिया स्वायत्त होगी तो देशों का विकास निश्चित है और इसके लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होना अनिवार्य है. उन्होंने आर्थिक दृष्टि से मुक्त बाजार की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया था कि बाजार पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं होगा क्योंकि एकाधिकार बढ़ने का ख़तरा है. 

भूमंडलीकरण ने विश्व बाजार को प्रभावित किया. यदि कहा जाए कि इसके कारण अमीरी-गरीबी की खाई और बढ़ गई तो गलत नहीं होगा क्योंकि बाजार में उत्पादों की कमी नहीं है लेकिन उन्हें खरीदने की शक्ति भी हर किसी के पास नहीं है. स्थानीय लघु उद्योग आम आदमी की औसतन आय को बढ़ाने के लिए जुटे हुए हैं पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आपसी समझौतों के कारण बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का लोप हो रहा है. परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एवं लघु उद्योगों का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है. अतः यह कहा जा सकता है कि महाजनी सभ्यता का विस्तार है यह भूमंडलीकरण और बाजारीकरण.

भूमंडलीकरण ने एक ओर बाजार तंत्र को प्रभावित किया है तो दूसरी ओर व्यक्ति, समाज, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य और भाषा आदि अधिरचनाओं को भी प्रभावित किया है. इस ओर लेखक ही नहीं अपितु संवेदनशील सहृदय चिंतक दृष्टि केंद्रित कर रहे हैं और चिंतन-मनन कर रहे हैं कि यदि भूमंडलीकरण के प्रभाव के कारण हमें बहना-ढहना नहीं, बल्कि रहना है तो क्या करना चाहिए? महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र का कहना है कि “देशों के बीच की सीमाएँ सहयोग के लिए पारगामी हो रही हैं. अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय और व्यापार में दृष्टि के साथ अन्य देशों में प्रवासन की प्रक्रिया भी तीव्र हुई है. अर्थतंत्र अब वैश्विक हो रहा है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भी प्रसार हो रहा है, जिसके लिए स्वदेशी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के प्रयोग के अवसर बढ़ रहे हैं. भारत में उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश भी हो रहा है. इस तरह के बदलते संदर्भ में भाषा और संस्कृति के अनेक अंतरराष्ट्रीय आयाम उभर रहे हैं, जिनकी ओर ध्यान देना आवश्यक है.” (गिरीश्वर मिश्र (2016), ‘संदेश,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 9). 

भूमंडलीकरण के प्रभाव और चुनौतियाँ आदि से संबंधित अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं. यह भी बाजारतंत्र का ही एक हिस्सा है. हाल ही में, डॉ. प्रदीप कुमार सिंह द्वारा संपादित पुस्तक ‘भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा’ (2016, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृष्ठ 528, मूल्य : रु. 950) को पढ़ने का अवसर मिला. इसमें देश-विदेश के विद्वानों के 76 आलेख सम्मिलित हैं. हिंदी का सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य (गिरीश्वर मिश्र), देश-विदेश में हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य (डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव), इक्कीसवीं शताब्दी की कहानी और मनुष्य : वैश्वीकरण का यथार्थ (प्रो. ऋषभदेव शर्मा), भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य में अर्वाचीन स्त्री विमर्श (प्रो. गोविंद मुरारका), मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम तथा कृष्ण का प्रभाव (डॉ. अलका धनपत), रामायण की वैश्विक यात्रा (डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह), रामायण के प्रति नायक रावण तथा प्रमुख स्थान (डॉ. ई.जी. डबल्यू.पी. गुणसेना) और आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा (गुर्रमकोंडा नीरजा) आदि शीर्षकों से ही इन ग्रंथ के बहुआयामी विस्तार का अनुमान किया जा सकता है.

भूमंडलीकरण ने बाजार के साथ-साथ मनुष्य को इतना प्रभावित किया है कि वह ‘कॉमोडिटी’/ वस्तु बन चुका है. आज बाजार इतने व्यापक रूप से फैल चुका है कि “विश्व बाजार के लिए राष्ट्रों की सीमाएँ कोई अर्थ नहीं रखतीं. ऐसा होने पर ही तो पूँजी का मुक्त विचरण संभव है. xxx भारत ने 1990 के बाद अपनी आर्थिक नीति में यही बदलाव किया, जिससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के दरवाजे तो खुल गए, लेकिन ‘न्याय पर आधारित समानता’ के स्थान पर ‘संपन्नता पर आधारित समानता’ ने समाज में नई खाइयाँ भी खोद डालीं. तरह-तरह के संकटों ने भी जन्म लिया.” (प्रो. ऋषभदेव शर्मा (2016), ‘इक्कीसवीं शताब्दी की कहानी और मनुष्य : वैश्वीकरण का यथार्थ,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 202). प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने यह भी स्पष्ट किया है कि बाजार को वैविध्य पसंद नहीं है. उसे न तो भाषा वैविध्य पसंद है और न ही अलग-अलग सांस्कृतिक पहचानें. “बाजार ‘मॉल’ और ‘माल’ का विस्तार करते हुए रोजगार की गारंटी जैसी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. बाजार बुद्धिजीवियों से लेकर शिल्पियों तक के विदेश पलायन को बुरा नहीं मानता, पर ये सारी चीजें भारत जैसे किसी भी देश के लिए संकट तो खड़ा करती ही हैं.” (वही). भूमंडलीकरण ने जहाँ बाजार और व्यक्ति को प्रभावित किया है वहीं उसने साहित्य को भी प्रभावित किया है. केंद्र, महावृत्तांत और आदर्श टूट रहे हैं. बहुकेंद्रीयता को नई तकनीक के साथ जोड़कर देखा-परखा जा रहा है. साहित्य के नए-नए पाठ निर्मित हो रहे हैं. बाजार “रीमिक्स करके परंपरा और लोक के व्यावसायिक संस्करण तैयार कर रहा है, महावृत्तांतों के टूटने की उत्तर वेला में प्रस्तुति की भव्यता और आदर्श के अभाव के बीच पैरोडी और विडंबना को सिरज रहा है. साहित्य पर भी मीडिया हावी है, बाजार का दबाव है, इसलिए न रस महत्वपूर्ण है, न चेतना महत्वपूर्ण है.” (वही, पृ. 203). ऐसी स्थिति में केवल सूचना महत्वपूर्ण रह गई है.

इस ग्रंथ में यह तथ्य भी कई स्थलों पर उभरा है कि भाषा-परिदृश्य भी भूमंडलीकरण से प्रभावित है. भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी के कारण भाषा में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है. शुद्धतावादियों को इस परिवर्तन से कष्ट हो रहा है. लेकिन भाषा परिवर्तन भाषा विकास का सूचक है. भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार वैश्विक स्तर पर हो रहा है. प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने यह याद दिलाया है कि ‘सूरीनाम, मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में गिरमिटिया लोगों के लिए हिंदी संस्कृति की वाहिका बनी. अब इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, इटली, नीदरलैंड, कोरिया, पोलैंड, रूस, बुल्गारिया, फिनलैंड आदि में हिंदीभाषी हैं और भारत के बाहर विदेशों में आज सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन और शोध हो रहा है.’ (प्रो. गिरीश्वर मिश्र (2016), ‘संदेश,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 9). इस संदर्भ में डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव का आलेख ‘देश-विदेश में हिंदी प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य’ उल्लेखनीय है. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि “उज्बेक और हिंदी भाषाओँ में कई हजार की संख्या में पाई जाने वाली आम शब्दावली के अतिरिक्त, ध्वनि विचार, व्याकरण और वाक्य विन्यास के क्षेत्रों में भी बहुत-सी समान विशेषताएँ दृष्टिगोचर हैं.” (डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव (2016), ‘देश-विदेश में हिंदी प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 60). उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उज्बेक और हिंदी भाषाओं की सामाजिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं में भी समानता है. 

भूमंडलीकरण ने संस्कृति को भी प्रभावित किया है. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध ‘भारतीय संस्कृति की देन’ में भारतीय संस्कृति के संबंध में कहा है कि “भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न-भिन्न जातियों के अनुभूत और साक्षात्कृत अन्य अविरोधी धर्मों की भाँति वह मनुष्य की जययात्रा में सहायक है. वह मनुष्य के सर्वोत्तम को जितने अंश में प्रकाशित और अग्रसर कर सका है, उतने ही अंश में वह सार्थक और महान है. वही भारतीय संस्कृति है, उसको प्रकट करना, उसकी व्याख्या करना या उसके प्रति जिज्ञासा भाव उचित है.” (हजारी प्रसाद द्विवेदी (2007 अट्ठाईसवाँ संस्करण), भारतीय संस्कृति की देन, अशोक के फूल, इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन, पृ. 69).

भारतीय संस्कृति पुरानी है. हमारा स्वभाव रामायण और महाभारत की कथाओं के माध्यम से फैली है. इनके सहारे से ही हम जुड़े हुए हैं. भारत में ही देश-विदेश में भी रामायण और महाभारत की कथाएँ प्रचलित हैं. डॉ. अलका धनपत ने यह स्पष्ट किया है कि मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम एवं कृष्ण का प्रभाव दृष्टिगोचर है. उन्होंने इस तथ्य को उजागर किया कि ‘मानस तथा गीता ने हिंदी शिक्षण को प्रेरणा दी और राम तथा कृष्ण के चरित्र ने मजबूत किया.’ (डॉ. अलका धनपत (2016), ‘मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम एवं कृष्ण का प्रभाव,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 39).

लोगों में यह धारणा है कि श्रीलंका रावण की राजधानी है. पुरातत्वविद इसी प्राक्कल्पना के आधार पर श्रीलंका में रामायण से संबंधित अनेक ऐतिहासिक स्थलों की खोज कर चुके हैं. डॉ. ई.जी.डब्ल्यू.पी. गुणसेना ने अपने शोधपरक आलेख में यह बताया है कि “श्रीलंका में रामायण के स्थानों संबंधी पुरातात्विक खोजों से तथा ऐतिहासिक सूचना के अनुसार ऐसा विश्वास है कि रावण का समय लगभग 5000 वर्ष के पूर्व ठहरता है. xxx [परंतु] श्रीलंका के पारंपरिक विश्वासों, मान्यताओं तथा बौद्ध साहित्य के लंकावतार मसुत्त के अनुसार माना जाता है कि रावण, भगवान बुद्ध का बड़ा भक्त था तथा उसने काश्यप बुद्ध भगवान की पूजा एवं उपासना भी की थी.” (डॉ. ई.जी.डब्ल्यू.पी. गुनसेन (2016), ‘रामायण के प्रति नायक रावण तथा प्रमुख स्थान,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 91). इसे भारत में प्रचलित जैन और बौद्ध रामायणों की भाँति राम कथा के सम्प्रदाय विशेष के लिए उपयोग के रूप में देखा जा सकता है. तेलुगु में उपलब्ध अनेक रामायणें भी बहुपाठीयता की प्रवृत्ति के अनुरूप ठहरती हैं. अनुसंधान के आधार पर तेलुगु भाषा में लगभग रामकथा के 146 पाठ उपलब्ध हैं. उनमें से 60 लोकरामायण के पाठ हैं तो 85 के आसपास संस्कृत से अनुवादित विविध पाठ. यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है. ‘आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा’ में विश्वनाथ सत्यनारायण (रामायण कल्पवृक्षम), रंगनायकम्मा (रामायण विषवृक्षम) और ओल्गा (विमुक्ता) की कृतियों के विशेष संदर्भ में यह स्पष्ट किया गया है कि “आधुनिक तेलुगु साहित्य में एक ओर रामायण के आदर्श पाठ उपस्थित हैं, तो वहीं दूसरी ओर उसके विमर्शात्मक पाठ भी उपस्थित हैं. समकालीन पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों को उजागर करने के लिए भी आधुनिक साहित्यकारों ने रामकथा का प्रतीकात्मक प्रयोग किया है.” (गुर्रमकोंडा नीरजा (2016), ‘आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा’, भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 396)

कुल मिलाकर इस ग्रंथ से यह स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के कारण समाज, साहित्य, संस्कृति और भाषा आदि अधिरचनाएँ प्रभावित हुई हैं. समाज में बदलाव है और बदलते समाज की इस बदलती मानसिकता को अंकित करने में साहित्य सक्षम है. संस्कृति भी प्रभावित हो रही है लेकिन भारतीय संस्कृति एवं स्वभाव रामायण और महाभारत की कथाओं के माध्यम से विश्व भर में फैले हैं, जिन्हें भूमंडलीकरण के प्रतिवाद के रूप में प्रस्तुत करके इसकी धारा को मोड़ा जा सकता है. इतने विचारपूर्ण आलेखों से सुसज्जित इस ग्रंथ के लिए इसके संपादक डॉ. प्रदीप कुमार सिंह बधाई के पात्र हैं.

रविवार, 25 सितंबर 2016

हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश

   
“मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा)। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण-भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सब कुछ बह जाते हैं।“ (हजारीप्रसाद द्विवेदी) 

भारतवर्ष के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के सपने देखने वाले, मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा की बात करने वाले, सभ्यता और संस्कृति के अर्थ को समझाने वाले आकाशधर्मी साहित्यकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में कुछ कहना या लिखना आसान नहीं हैं। द्विवेदी जी प्रखर आलोचक के साथ-साथ कवि, समीक्षक, निबंधकार और उपन्यासकार हैं। यह देखा जा सकता है कि उनके हर लेखन का केंद्र मनुष्य है। उनकी हर बात मनुष्य से शुरू होकर मनुष्य में समाप्त होती है। मानवता के प्रति गहन आस्था रखने वाले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में निहित परिवेश का मूल्यांकन डॉ. मृगेंद्र राय ने अपनी आलोचनात्मक कृति ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश’ में बखूबी किया है। 1996 में प्रकाशित इस कृति को पाठकों ने बहुत सराहा; अतः विषय की सार्थकता को दृष्टि में रखकर 2015 में उसे संशोधन एवं परिवर्धन के साथ नेशनल पब्लिशिंग हाउस से पुनः प्रकाशित किया गया है। 

मृगेंद्र राय ने अपनी इस पुस्तक में राजनीति, समाज, धर्म, संस्कृति और प्रकृति को कसौटियों के रूप में अपनाकर द्विवेदी जी के उपन्यास साहित्य में निहित परिवेश का मूल्यांकन किया है क्योंकि ये पाँचों ही परिवेश के प्रमुख पक्ष हैं। उपन्यास साहित्य को खँगालने से पहले उन्होंने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दिया है। साथ ही उपन्यास और परिवेश के अंतःसंबंध को रेखांकित किया है। परिवेश के पूर्वोक्त पाँच प्रमुख पक्षों (राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक) के आधार पर आगे द्विवेदी जी के उपन्यास साहित्य का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। 

द्विवेदी जी के उपन्यासों में निहित राजनैतिक परिवेश को उभारने के लिए ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ के पाठ की सूक्ष्म विवेचना की गई है। मृगेंद्र राय यह प्रतिपादित करते हैं कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में द्विवेदी जी ने जिस राजनैतिक परिवेश के यथार्थ को प्रस्तुत किया है, उसमें वस्तुतः राष्ट्र हित की चेतना मुखरित है। इसके पीछे मानव जाति की कल्याण भावना निहित है। इसीलिए द्विवेदी जी ने बाणभट्ट से कहलवाया है, “उठो देवी, आर्यावर्त को बचाना है, म्लेच्छ से देश को बचाना है, मनुष्य जाति को बचाना है।“ (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ. 231)। ‘चारुचंद्रलेख’ में चित्रित राजनैतिक परिवेश 12वीं-13वीं शताब्दी का है। उस समय एकता का नितांत अभाव था, आपसी रंजिश चरम पर थी, मनमुटाव के कारण विदेशी आक्रमणकारियों ने लाभ उठाया। मृगेंद्र राय कहते हैं कि “प्रजातंत्र की सफलता के लिए शासक और शासित जनता की निकटता एवं एकमेव की स्थिति जरूरी है। राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं गौरव को त्याग, बलिदान और स्वार्थ से ऊपर उठे बिना नहीं साधा जा सकता।“ (मृगेंद्र राय, हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश, पृ. 36)। ‘पुनर्नवा’ में यह दिखाया गया है कि राजनैतिक धरातल पर देश कैसे छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त है। ‘अनामदास का पोथा’ में आचार्य औदुंबरायण के माध्यम से यह कहा गया है कि “राजा जब तक स्वयं जागरूक न हो तो राजकर्मचारी शिथिल हो जाते हैं, मुस्तैदी से काम नहीं करते।“ मृगेंद्र राय का कहना है कि लेखक ने “तत्कालीन राजनैतिक परिवेश से प्रजा के हित में शासक वर्ग की दायित्व चेतना को सफलतापूर्वक संकेतित किया है।“ (वही, पृ. 45)। 

द्विवेदी जी के उपन्यासों का विश्लेषण सामाजिक दृष्टि से करने पर यह स्पष्ट होता है कि विवेच्य कालावधि में समस्त सामाजिक परिवेश असत्य पर आधृत था। मृगेंद्र राय तत्कालीन सामाजिक समस्याओं की तुलना आज से करते हुए कहते हैं कि “नारी की उपेक्षा, अपमान, नारी को गणिका, परिचारिका, नर्तकी, देवदासी आदि बनाने के लिए पुरुष की विलासी प्रवृत्ति उत्तरदायी है। तत्कालीन समाज में इससे असत्य, पाखंड और दंभ का बोलबाला दिखाई देता है। यदि हम वर्तमान समाज को देखें तो स्थितियों में तमाम क़ानूनों के बावजूद कोई खास बदलाव नज़र नहीं आता।“ (वही, पृ. 51)। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि तत्कालीन समाज में भी जाति व्यवस्था चरम पर थी। सामाजिक एकता के लिए भाईचारे की भावना अनिवार्या है। इसीलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में भट्टिनी के माध्यम से यह चिंता व्यक्त की कि “एक जाति दूसरी जाति को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़कर अशांति का कारण और क्या हो सकता है, भट्ट? तुम्हीं ऐसे हो जो नर-लोक से लेकर किन्नर लोक तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय, एक ही करुणायित चित्त को हृदयंगम करा सकते हो।“ मृगेंद्र राय यह प्रतिपादित करते हैं कि जातिगत संकीर्णता और अहंकार से ऊपर उठने पर ही देश का हित संभव है। 

मनुष्य जीवन को सही दिशा दिखाने का काम करता है धर्म। लेकिन आजकल यह भी देखा जा सकता है कि धर्म के नाम पर लोगों के विश्वासों से कैसे-कैसे खेला जा रहा है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों से यह स्पष्ट है कि यह स्थिति उस समय के सामज में भी देखी जा सकती है। उन दिनों भी समाज में धार्मिक मिथ्याचार, बाह्याडंबरों की बहुलता थी। धर्म के नाम पर तमाम लोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे थे। आज भी यही स्थिति तो है। अतः मृगेंद्र राय का कहना है कि “उपन्यासकार सहज ही निवृत्ति का नहीं, वरन उस प्रवृत्ति मार्ग का समर्थन करता है। इस प्रकार लोक से जुड़ने एवं लोक की सेवा में ही वह जीवन की सार्थकता मान्य करता दीख पड़ता है।“ (वही, पृ. 98)। 

हजारीप्रसाद द्विवेदी संस्कृतिचिंतक हैं। वे प्रकृति के माध्यम से संस्कृति की यात्रा करने वाले रचनाकार हैं। यही कारण है कि उनके उपन्यासों में प्रकृति चित्रण विविध रूपों में द्रष्टव्य है। साथ ही, वे यह मानते हैं कि जिस देश की संस्कृति जितनी अधिक विकसित होगी वह देश उतना ही विकसित होगा। मृगेंद्र राय ने यह प्रतिपादित किया है कि “सांस्कृतिक परिवेश राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक होता है। संस्कृतिविहीन समाज आज भी पंगु माना जाता है। तत्कालीन समाज के लोग हर्षोल्लास के साथ उत्सवों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे। यह उनके जीवन जीने की कला की ओर ही संकेत करता है।“ (वही, पृ. 106)। 

मृगेंद्र राय विवेचन-विश्लेषण के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों का अध्ययन करते हुए यह सहज ही अनुभव किया जा सकता है कि राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक परिवेश, द्वैत-अद्वैत भाव से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। उनकी संश्लिष्ट उपस्थिति अपने इंद्रधनुषी सौंदर्य से पाठक को अभिभूत किए बिना नहीं रहती। इस स्थिति में पाठक उपन्यास-युग में विचरण करते हुए उसमें वर्णित वस्तु का साक्षात्कार करने के साथ-साथ उसकी मूल चेतना की ओर भी अभिमुख होता है।“ (वही, पृ. 145)। 

अथ से अनंत

डॉ. त्रिभुवन राय के संपादकत्व में यश पब्लिकेशंस, दिल्ली द्वारा 2 भागों में प्रकाशित ‘अथ से अनंत’ (2015) शीर्षक ग्रंथावली मनुष्य की जययात्रा में आस्था रखने वाले मानवता के चितेरे साहित्यकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त,1907 - 19 मई,1979) के समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व के मूल्यांकन पर केंद्रित है। 

‘अथ से अनंत’ [1 और 2] में देश भर के विभिन्न विद्वानों के चिंतनपरक आलेख सम्मिलित हैं। पहले भाग में 20 आलेख हैं जिन्हें तीन खंडों में विभाजित किया गया है। ‘व्यक्तित्व एवं जीवन बोध’ शीर्षक पहले खंड में आचार्य डॉ. शिवेंद्र पुरी (गुरुदेव का पुण्य स्मरण), प्रो. नंदलाल पाठक (श्रद्धा सुमन), डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी (शांतिनिकेतन के वे दिन), डॉ. इरेश स्वामी (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व की प्रमुख रेखाएँ), डॉ. विद्या केशव चिटको (मेरे विभागाध्यक्ष डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. एम. शेषन (मानवतावादी साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. धर्मपाल मैनी (भारतीय संस्कृति के पुरोधा : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. रामदरश मिश्र (हजारी प्रसाद द्विवेदी : सर्जना ही बड़ा सत्य है), डॉ. शिवशंकर पांडेय (‘अशोक के फूल’ संग्रह के निबंधों में निहित आचार्य द्विवेदी का पारदर्शी व्यक्तित्व), प्रो. अभिराज राजेंद्र मिश्र (लोक एवं लोकचेतना के चतुर चित्रकार : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) और डॉ. रामदेव शुक्ल (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन बोध) के लेख सम्मिलित हैं जो द्विवेदी जी के व्यक्तित्व को उभारने में सक्षम हैं। 

द्विवेदी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। संपादकीय में डॉ. त्रिभुवन राय ने उनके विराट व्यक्तित्व के बारे में संकेत करते हुए कहा है कि “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी संपूर्ण सहजता और सरलता में भी भव्य एवं उदात्त व्यक्तित्व के प्रतिरूप थे।“ (डॉ. त्रिभुवन राय, संपादकीय, अथ से अनंत, पृ. 7)। ऐसे विराट व्यक्तित्व को शब्दों में समेटना कठिन है। ‘अथ से अनंत’ में सम्मिलित लेखों में द्विवेदी जी के अनेक आयाम सामने प्रकट हो जाते हैं। 

गुरु का आशीर्वाद शिष्य के लिए ऊर्जा का स्रोत होता है। जब रामदरश मिश्र एम.ए. के विद्यार्थी थे तब द्विवेदी जी हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। उन दिनों को याद करते हुए मिश्र जी कहते हैं कि पंडित जी के सौम्य व्यक्तित्व की उपेक्षा करना संभव नहीं, लेकिन इतने बड़े व्यक्ति से निजी संपर्क बनाने के लिए कोई बहाना भी तो चाहिए। काशी विद्यापीठ में आयोजित एक कवि गोष्ठी में आचार्य के समक्ष गीत पढ़ने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। पहले तो वे संकोच करते रहे, लेकिन जब उन्होंने यह देखा कि द्विवेदी जी मुग्ध होकर गीत सुन रहे हैं तो वे और अधिक तन्मयता से गीत पढ़ने लगे। मिश्र जी उस क्षण को याद करते हुए कहते हैं कि “मैंने उस समय कितनी धन्यता अनुभव की, कह नहीं सकता। उस क्षण का बहुत आभारी हूँ कि उसने मुझे पंडितजी का अंतेवासी बना दिया। उस क्षण ने एक ऐसा संबंध दिया जो पंडितजी को सबसे अधिक प्रिय था। मैं सर्जनात्मक संबंध से पंडितजी के निकट पहुँचा था।“ (रामदरश मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : सर्जना ही बड़ा साहित्य, अथ से अनंत-1, पृ. 44)। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार साहित्य में सर्जनात्मकता ही परम सत्य है। 

रामदरश मिश्र द्विवेदी जी के व्यक्तित्व के एक और आयाम की परत को खोलते हुए कहते हैं कि “पंडितजी का भास्वर सारस्वत व्यक्तित्व जितना प्रिय और बड़ा है, उतना ही छोटे-छोटे सामाजिक तथा पारिवारिक प्रसंगों में उभरता उनका सामान्य मनुष्य। कोई अजनबी से अजनबी मनुष्य उनके यहाँ चला जाता था, तो वे अपनी सहज हँसी और चुटकुलों में उसे बहा लेते थे। वह मनुष्य अपने को उनके बहुत निकट समझने लगता था और लगता था, ये तो हम लोगों जैसे एक सामान्य मनुष्य हैं, जो विनोद करते हैं, चुट्कुले सुनाते हैं, अट्टहास करते हैं, किसी की निंदा भी हो रही हो तो उसे भी विनोद से सुन और हँस लेते हैं. लेकिन उनसे अलग होने के बाद जब वह अपने को टटोलता था तो पाता था कि बातों-बातों में पंडित जी उसे बहुत कुछ दे गए हैं, आत्मीयता ही नहीं, ज्ञान भी।“ (वही, पृ. 51)। 

दूसरा खंड है ‘परंपरा और इतिहास’। इसमें आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (आर्ष परंपरा और हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. अमर सिंह वधान (प्राचीन और नवीन के मध्य आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), डॉ. रमेश कुंतल मेघ (कलात्मक इतिहास और समाज विज्ञानों की गोधूलि में सृजनशीलता) और डॉ. बैजनाथ प्रसाद (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहास दृष्टि और भक्ति आंदोलन) के लेख समाहित हैं। इन लेखों से यह स्पष्ट होता है कि द्विवेदी जी साहित्य को कला, संस्कृति, सभ्यता और परंपरा आदि से जोड़कर देखते हैं। उनके विचार प्रौढ़ एवं वैज्ञानिक हैं। आनंदप्रकाश दीक्षित का कहना है कि अतीत को वे इस तरह खंगालते हैं कि उसमें नई दीप्ति पैदा हो जाती है और बरबस हमारे चिंतन के नए द्वार उन्मुक्त हो जाते हैं। (अथ से अनंत)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानवता के पक्षधर थे। वे साहित्य और भाषा को मानव की दृष्टि से देखने की पक्षपाती थे। उनका मानना है कि “हम लोग एक कठिन समय के भीतर से गुजर रहे हैं। आज नाना भाँति के संकीर्ण स्वार्थों ने मनुष्य को कुछ ऐसा अंधा बना दिया है कि जाति-धर्म-निर्विशेष मनुष्य के हित की बात सोचना असंभव-सा हो गया है। ऐसा लग रहा है कि किसी विकट दुर्भाग्य के इंगित पर दलगत स्वार्थ से प्रेम ने मनुष्यता को दबोच लिया है।“ (हजारी प्रसाद द्विवेदी, ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’, अशोक के फूल, पृ. 143)। आज तो मनुष्य, मनुष्यता और भाषा खतरे में हैं। आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की मान्यता है कि द्विवेदी जी के साहित्य को समझना हो तो मानवतावादी अवधारणा को समझना अनिवार्य है क्योंकि द्विवेदी जी मानवीय मूल्यों को प्रमुख मानते हैं। ‘अनामदास का पोथा’ में द्विवेदी जी ने लिखा है कि “मानवीय मूल्यों के आचरण का पर्यवसान विश्वमंगल के साथ-साथ विश्वात्मक और विश्वातीत चिदानंदमय सुख में होना चाहिए।“ 

यह पहले भी कहा जा चुका है कि द्विवेदी जी परंपरा और आधुनिकता को जोड़कर कर देखते हैं। अमर सिंह वधान यह स्पष्ट करते हैं कि “द्विवेदी जी प्राचीन के प्रति पूर्ण आस्थावान होते हुए भी विकास-नियम स्वीकार करते हैं। लेकिन समय की माँग के अनुसार परिवर्तन के वे समर्थक हैं। इसीलिए उनके निबंधों में नवीन मानव के प्रति आशावाद है।“ (अमर सिंह वधान, प्राचीन और नवीन के मध्य आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अथ से अनंत-1, पृ. 103)। इस संदर्भ में डॉ. त्रिभुवन राय का मत उल्लेखनीय है। उनका मानना है कि “पुरातन और आधुनिकता के संधि बिंदु पर अवस्थित आचार्यश्री न आँख मूँदकर पुराने का अनुगमन करते हैं और न ही नए के पीछे भागते हैं। इनके स्वीकार और अस्वीकार के मूल में उनके संदर्भ में वस्तुतः समय के साथ मनुष्य उसके हित-अहित एवं प्रतिष्ठा की भावना ही निर्णायक प्रतीत होती है।“ (त्रिभुवन राय, संपादकीय, अथ से अनंत-1, पृ. 12)। 

डॉ. देवकीनंदन श्रीवास्तव (भक्ति साहित्य के मर्मी पंडित द्विवेदी), डॉ. सुनील कुमार (मध्ययुगीन साहित्य और आचार्य द्विवेदी), डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी (जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो), डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी (आचार्य और धर्मवीर के कबीर : कुछ खुलासे) और डॉ. लल्लन राय (कबीर और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : सूर्य पर पूर्ण ग्रहण) के लेख ‘भक्ति साहित्य’ शीर्षक तीसरे खंड में सम्मिलित हैं। इन लेखों को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि द्विवेदी जी भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ हैं। मध्यकालीन भाव बोध को उन्होंने बखूबी रेखांकित किया है। 

‘अथ से अनंत’ के दूसरे भाग में 27 शोधपूर्ण आलेख सम्मिलित हैं जिन्हें दो खंडों में विभाजित किया गया है। ‘सृजन आयाम’ शीर्षक खंड को निबंध, उपन्यास और आलोचना में विभाजित किया गया है। ‘निबंध’ के अंतर्गत ‘व्युत्पत्ति और प्रतिभा के धनी : निबंधकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ (डॉ. रामानंद शर्मा), ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध साहित्य : परंपरा का पुनराख्यान’ (डॉ. श्रीराम परिहार), ‘शूद्र-ब्राह्मण के द्वार बालू से निकाला गया तेल : परंपरा और प्रगतिशीलता का संदर्भ’ (प्रो. जयप्रकाश), ‘लालित्य तत्व एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ (डॉ. शैलेंद्र कुमार शर्मा) और ‘आचार्य द्विवेदी के निबंधों का लालित्य विधान’ (डॉ. रविकुमार ‘अनु’) आदि लेख सम्मिलित हैं, जिनके माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि द्विवेदी जी के निबंधों में प्रकृति के माध्यम से संस्कृति की यात्रा है, परंपरा का पुनराख्यान है, लोकमंगल की भावना है, जनता के भविष्य की सुरक्षा है, दीन-हीन जनता के प्रति अपार सहानुभूति है। ‘उपन्यास’ शीर्षक उपवर्ग के अंतर्गत डॉ. सूर्यप्रसाद शुक्ल (बाणभट्ट की आत्मकथा : मानवीय जीवन का महाकाव्य), डॉ. देशराज शर्मा (बाणभट्ट की आत्मकथा और मानव मूल्य), डॉ. योजना रावत (बाणभट्ट की आत्मकथा और मानववाद), डॉ. शशिकला राय (जिजीविषा है तो जीवन रहेगा), मधुरेश (द्विवेदीजी के उपन्यास : प्रेम और सौंदर्यदृष्टि), डॉ. अश्विनी कुमार शुक्ल (भारतीय उपन्यास की अवधारणा और आचार्य द्विवेदी के उपन्यास), डॉ. सत्यकेतु सांकृत (हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में व्यक्त भारतीय जीवन दृष्टि), डॉ. सुशीला गुप्ता (हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में चित्रित नारी शक्ति का आह्वान), डॉ. इंदु शुक्ला (आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में चित्रित नारी भावना), डॉ. रामनाथ मौर्य (आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में लोकतत्व) और डॉ. त्रिभुवन राय (परंपरा का पुनराख्यान : उपन्यासकार हजारी प्रसाद द्विवेदी) के लेख सम्मिलित हैं, तो ‘आलोचना’ शीर्षक उपवर्ग में डॉ. ए. अरविंदाक्षन (आलोचना की सृजनात्मकता), डॉ. रामकिशोर शर्मा (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि) तथा डॉ. त्रिभुवन राय (आचार्य द्विवेदी के साहित्य सिद्धांत और समीक्षा दृष्टि) के गंभीर चिंतनपरक लेख सम्मिलित हैं, जिनमें द्विवेदी जी के समग्र कृतित्व की पड़ताल है। 

भूमंडलीकरण के इस दौर में एक ओर तो बाजारवाद पूरे विश्व को एक बड़ी मंडी में तब्दील कर रहा है, वहीं दूसरी ओर संकीर्ण स्वार्थों के कारण समस्त संसार अनेक टुकड़ों में, दलों में और खेमों में विभाजित हो चुका है। द्विवेदी जी इस दलगत संकीर्णता का विरोध करते हैं। उनकी दृष्टि में मनुष्य सर्वोपरि है। मनुष्य की रक्षा और विकास ही उनका परम लक्ष्य है। वे इस बात पर बल देते हैं कि अच्छी बात को सुनने और मानने के लिए ‘मनुष्य’ को तैयार करना आवश्यक है। और यह काम एक संवेदनशील साहित्यकार के माध्यम से ही संभव हो सकता है। स्पष्ट है कि साहित्य द्विवेदी जी के लिए साधन है, साध्य नहीं, क्योंकि वे मानते हैं कि साहित्य में वह शक्ति होनी चाहिए जो मनुष्य को पशु होने से बचा सके। उनके विचार में जो साहित्य मनुष्य में निहित पशुत्व का निर्मूलन नहीं कर सकता है वह साहित्य की संज्ञा ही खो देता है। (हजारी प्रसाद द्विवेदी, विचार और वितर्क, पृ. 96)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के लिए संस्कृति मनुष्य की सहायक एवं सहयोगिनी है। डॉ. त्रिभुवन राय का मानना है कि “मानव संस्कृति में भारतीय संस्कृति उन्हें विशेष प्रिय है। इसलिए कि जीवन के उत्तरोत्तर साधना क्रम में मानव में अंतर्निहित संभावनाओं का द्वार उद्घाटित करने के साथ अंततः उस ‘एक’ से तदाकार होने की दिशा भी उन्मीलित करती है, जिसके आगे पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता, परंतु यहाँ भी उनकी पटरी विशुद्धतावादियों से नहीं बैठती।“ (त्रिभुवन राय, संपादकीय, अथ से अनंत-1, पृ. 9)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संस्कृतिकर्मी के साथ-साथ भाषाचिंतक भी हैं। अतः ‘भाषा तथा अन्य’ शीर्षक खंड में उनके भाषाचिंतन के विविध आयामों को डॉ. अमरनाथ (आचार्य द्विवेदी की दृष्टि में स्वराज्य और स्वभाषा), डॉ. ऋषभदेव शर्मा (लोकवादी भाषाचिंतक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी), प्रो. भगवानदीन मिश्र (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का भाषावैभव), डॉ. दिलीप सिंह (प्रकृति में फक्कड़ता की तलाश का गद्य), डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया (अपभ्रंश और हिंदी के संबंध पर द्विवेदी जी के भाषाशास्त्रीय विचार), डॉ. रत्ना शर्मा (आचार्य द्विवेदी की व्याकरणिक दृष्टि), प्रो. सुरेश उपाध्याय (मेघदूत की सहयात्रा) और डॉ. निर्मला एस. मौर्य (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पत्र साहित्य में मानवीय संवेदना) ने खँगाला है। 

डॉ. त्रिभुवन राय ने अपने शोधपरक लेख ‘आचार्य द्विवेदी के साहित्य सिद्धांत और समीक्षा दृष्टि’ में यह स्पष्ट किया है कि “द्विवेदी जी सहज भाषा के पक्षपाती हैं। किंतु सहज भाषा उनके विचार में वही हो सकती है जो मनुष्य को आहार, निद्रा आदि पशु सामान्य प्रवृत्तियों से ऊँचा उठाने में सहायक होती है।“ (डॉ. त्रिभुवन राय, अथ से अनंत–2, पृ. 218)। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी स्वयं इस बात पर बल देते हैं कि उनकी दृष्टि में “सहज भाषा का अर्थ है सहज ही महान बना देने वाली भाषा। वह भाषा जो मनुष्य को उसकी सामाजिक दुर्गति, दरिद्रता, अंध संस्कार और परमुखापेक्षिता से न बचा सके किसी काम की नहीं है, भले ही उसमें प्रयुक्त शब्द बाज़ार में विचरने वाले अत्यंत निम्नस्तर के लोगों के मुख से संग्रह किए गए हों।“ (हजारी प्रसाद द्विवेदी, विचार और वितर्क, पृ. 175)। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मनुष्य को सबसे बड़ा मानते हैं और भाषा उसकी सेवा के लिए उपयुक्त साधन। डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अपने लेख ‘लोकवादी भाषाचिंतक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ में यह याद दिलाया है कि द्विवेदी जी के साहित्य और भाषाविषयक चिंतन के केंद्र में परंपरा और इतिहास बोध अवस्थित है, क्योंकि उन्होंने परंपरा और इतिहास बोध की सहायता से समसामयिक भाषा समस्या को भी सुलझाने के सूत्र अपने निबंधों में दिए हैं। (डॉ. ऋषभदेव शर्मा, ‘लोकवादी भाषाचिंतक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’, अथ से अनंत-2, पृ. 244)। आगे उन्होंने कहा है कि भाषा नियोजन के संबंध में द्विवेदी जी की दृष्टि अत्यंत व्यापक है। इस संबंध में द्विवेदी जी की दो मान्यताएँ हैं – ‘अपने देश की भाषा और साहित्य विषयक नीति स्थिर करते समय हमें अपने देश के विशाल इतिहास को याद रखना होगा; और मनुष्य को चरम लक्ष्य मानकर तथा उसके सुख-दुख का विचार करके हमें अपनी भाषा विषयक नीति स्थिर करनी चाहिए.’ (वही, पृ. 247)। 

यहाँ हिंदी भाषा के संबंध में भी हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत उल्लेखनीय है। वे हिंदी को निरी शास्त्रार्थ की भाषा बनने से बचाना चाहते हैं। इस संबंध में वे कहते हैं कि “हमें हिंदी को ऐसी भाषा नहीं बना देना है, जो सर्वसाधारण के निकट अंग्रेजी की भाँति दुर्बोध्य बनी रहे, या संस्कृत की ही भाँति कुछ चुने हुए लोगों के शास्त्रार्थ-विचार की भाषा बन जाए। ऐसा करके तो हम निश्चित रूप से हिंदी का अहित करेंगे। हमारी भाषा ऐसी होनी चाहिए जो मामूली से मामूली जनचित्त को ऊपर उठा सके। हमें तो इस भाषा को इस योग्य बना देना है कि वह साधारण से साधारण मजदूर से लेकर अत्यंत विकसित मस्तिष्क के बुद्धिजीवी के दिमाग में समान भाव से विहार कर सके।“ (हजारी प्रसाद द्विवेदी, अशोक के फूल, पृ. 142)। अतः बुद्धिजीवियों से यही अपील है कि हिंदी को सर्वसाधारण जनता की भाषा बनाए रखें और द्विवेदी जी की बात को हमेशा हमेशा के लिए याद रखें कि “हिंदी साधारण जनता की भाषा है। जनता के लिए ही उसका जन्म हुआ था और जब तक वह अपने को जनता के काम की चीज बनाए रहेगी, जन-चित्त में आत्मबल का संचार करती रहेगी, तब तक उसे किसी से डर नहीं है। वह अपने आपकी भीतरी अपराजेय शक्ति के बल पर बड़ी हुई है, लोक-सेवा के महान व्रत के कारण बड़ी हुई है और यदि अपनी मूल-शक्ति के स्रोत को भूल नहीं गई, तो निस्संदेह अधिकाधिक शक्तिशाली होती जाएगी।“ (अथ से अनंत-2, पृ. 250)। 

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

पं. प्रताप नारायण मिश्र का निबंध ‘शिवमूर्ति’

भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों में पं. प्रताप नारायण मिश्र (24 सितंबर 1856 - 6 जुलाई 1894) का स्थान उल्लेखनीय है. वे उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बेल्थर गाँव के रहने वाले थे. बाद में कानपुर आए. उनके वहाँ कई मकान थे और वहीं ‘सतघरा’ मुहल्ले में रहते थे. वे बचपन से ही भावुक और सीधेसादे व्यक्ति थे. खद्दर का बहुत लंबा कुरता और धोती पहने, कंधों पर तेल चुचआते लंबे बाल लहराते, झूमते हुए वे किसी देवता के समान दिखाई देते थे और देखने वाल एक बार को उनकी चाल, उनकी लंबी-ऊँची नाक, उनका उज्ज्वल रूप देखकर धक् से रह जाता था. (स्व. पंडित प्रताप नारायण मिश्र : बाबू गोपाल राम गहमरी). 

प्रताप नारायण मिश्र में कई अनोखे गुण विद्यमान थे. वे मनमौजी थे - इतने मनमौजी कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवा करते थे. कभी लावनीबाजों में जाकर शामिल हो जाते तो कभी मेलों और तमाशों में बंद इक्के पर बैठ कर जाते दिखाई पड़ते. (रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 318-319). इसके साथ ही वे बड़े निर्भीक तथा विनोदप्रिय भी थे. हिंदी का ‘एडीसन’ कहे जाने वाले प्रताप नारायण मिश्र के व्यक्तिव के बारे में जानने के लिए बाबू गोपाल राम गहमरी लिखित संस्मरण पढ़ा जा सकता है. ज़रा देखें उनका शब्द-चित्र – “कविता उनकी बहुत ऊँचे दर्जे की होती थी. भारतेंदु ने भी उनके काव्य की बड़ाई की थी. नाटक और रूपक भी बड़ी ओजस्विनी भाषा में लिखते थे. अपने लेख में जहाँ जिसका वर्णन करते थे, वहाँ उसको मानो मूर्तिमान वहाँ खड़ा कर देते थे. बंकिम बाबू के उपन्यासों के अनुवाद उन्होंने हिंदी में किए थे./ वे सत्य भाषी थे. उनके मुँह से भूलकर भी असत्य कभी सुनने को नहीं मिला. हँसी-दिल्लगी में भी कभी झूठ नहीं बोलते थे. वे निर्भीक और बड़े हाजिर जवाब थे./ पंडित जी अपने कान हिलाया करते थे. जब दो-चार मित्र इकट्ठे होते तब कहने पर पशुओं की तरह कान हिलाने लगते थे. वे बड़े हंसोड़ थे. कविता तो चलते-चलते करते थे./ मिश्र जी नास बहुत सूंघते थे. सुघनी भरा बेल सदा अपने अंदर खद्दर के कुर्ते वाले पाकेट में रखते थे और जब चाहा बेल निकालकर हथेली पर नास उड़लते और सीधे नाक में सुटक जाते थे./ पंडित जी कभी स्नान नहीं करते थे. मित्रों के आग्रह करने पर टाल जाते थे. जब कभी कोई त्यौहार या बड़ा पर्व आता, बहुत उद्योग करने पर कभी-कभी स्नान कर लेते थे./ पंडित जी कविता में अपना उपनाम ‘बरहमन’ रखते थे, इसी से उन्होंने अपने मासिक पत्र का नाम ‘ब्राह्मण’ रखा था. उर्दू शायरी भी उनकी बड़ी चुटीली होती थी.” (स्व. पंडित प्रताप नारायण मिश्र : बाबू गोपाल राम गहमरी). 

प्रताप नारायण मिश्र का लेखन क्रम लावनी से शुरू हुआ. साहित्यिक क्षेत्र में उनकी सृजनात्मक प्रतिभा काव्य, नाटक, उपन्यास आदि अनेक रूपों में विकसित हुई. विभिन्न क्षेत्रों में उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं – कविता : प्रेम पुष्पावली, मन की लाहर, दंगल खंड, लोकोक्ति शतक, ब्रैडला स्वागत, मानस विनोद, प्रताप संग्रह आदि. कलिकौतुक (रूपक), कलिप्रभाव, हठी हमीर, गौ संकट, भारत दुर्दशा (नाटक), जुआरी-खुआरी (प्रहसन) तथा संगीत शाकुंतल लावनियों में लिखा गया उनका पद्य नाटक है. रसखान शतक, तृष्यन्ताम्, शैव सर्वस्व, वर्णमाला, शिशु विज्ञान, स्वास्थ्य रक्षा जैसे विविध विषयों पर भी उन्होंने लेखनी चलाई. निबंध के क्षेत्र में उन्हें आत्मव्यंजक निबंधों के जन्मदाता माना जाता है. वे दांत, भौं, आप, बात, धोखा, रिश्वत, बेगार, होली जैसे विषयों पर मनोरंजक निबंध लिखते हैं तो शिवमूर्ति, कांग्रेस की जय, मित्र कपटी भी बुरा नहीं होता आदि गंभीर निबंधों से पाठकों को सोचने के लिए बाध्य करते हैं. उनके निबंधों में सहज, उन्मुक्त, मनमौजी, भोला व्यक्तित्व बोल उठता है. उन्होंने बहुत-सी रचनाओं का बंगला से अनुवाद भी किया – राजसिंह, इंदिरा, युगालांगुलीय, सेनवंश व सूबे बंगाल का इतिहास, नीतिरत्नावली, शाकुंतल, वर्ण परिचय, कथावल संगीत, चरिताष्टाक, पंचामृत.

शैलीविज्ञान यह मानता है कि यदि कोई भी कृति कलात्मक बनती है या फिर कोई भी साहित्यकार अपनी कृति को अधिकाधिक कलात्मक बनाना चाहता है तो यह शैली संघटना की विशेष तकनीक से ही संभव हो सकता है. “श्क्लोवस्की ने ‘ऑन द थियोरी ऑफ प्रोज’ में कहा था कि ‘लेखक आलंकारिक भाषा (फिगरेटिव लैंग्वेज) का प्रयोग करता है जिसमें वह रूपक या लक्षणा (मेटाफर), प्रतीक (सिंबल) और चित्रात्मकता (विजुअल पिक्चर्स) के सहारे अपनी रचना या विशिष्ट भाषा को तोड़कर उसे सर्जनात्मकता प्रदान कर पाता है, और अपने पाठक के भीतर एक नई दृष्टि पैदा कर पाता है; दुनिया को देखने की दृष्टि उस तरह और वैसी, जिस तरह और जैसी उसने पहले कभी नहीं देखी थी.” (दिलीप सिंह, ‘रामवृक्ष बेनीपुरी : यथार्थ की रंगीनियों को पहचानने वाले निबंधकार’, पाठ विश्लेषण, पृ. 211). शैली संघटना की यह विशेष तकनीक प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों में जगह-जगह देखी जा सकती है. इसी आधार पर पाठक उनका आज के परिप्रेक्ष्य में ‘पुनर्पाठ’ रच सकता है. उनके निबंधों में विस्मयकारी वैविध्य मिलता है जो उनकी अप्रतिहत गद्य क्षमता का प्रतीक है.

आज जब हम पं. प्रताप नारयण मिश्र के गंभीर सांस्कृतिक निबंध ‘शिवमूर्ति’ को एक बार फिर पढ़ने चलते हैं तो बाबू गुलाब राय का यह मत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है कि “प्रताप नारायण मिश्र की शैली में संस्कृत शब्दों का प्राचुर्य-सा प्रतीत होता है, परंतु हरिश्चंद्र की भाँति इन्होंने भी उर्दू के उन्हीं शब्दों को लिया है जिनका चलन हिंदी में बहुत काल से था. इनकी भाषा में विशेष सजीवता और बोलचाल का चलतापन है. इनमें विनोद-प्रियता अधिक है. इसी विनोद-प्रियता के कारण ये पूर्वीपन की परवाह न करके बैसवारे की ग्रामीण कहावतों और शब्दों का भी प्रयोग निस्संकोच करते थे.” (गुलाब राय, हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास, पृ. 137). कहा जाता है कि सहज, सामान्य और सरल विषय पर सहज भाषा में लिखना कठिन है. ऐसे ही अवसर पर प्रायः साहित्यकार को अपनी भाषिक तथा अभिव्यंजना क्षमताओं का विस्तार करना होता है. प्रताप नारायण मिश्र ने इसे बहुत ही सहज और सरल शैली द्वारा संभव करके दिखलाया है. उनके निबंधों में व्यक्तिगत विशेषताओं के साथ-साथ शैलीय भेद भी लक्षित होते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि सरलता, हास्य-व्यंग्यात्मकता, गंभीरता और सूक्ष्मता से विषय वस्तु की विवेचना करना, जनता को जाग्रत करना, सुधार एवं नवनिर्माण की प्रेरणा देना आदि उनके निबंधों की प्रमुख विशेषताएँ हैं. “पं. प्रताप नारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अतः उनकी भाषा बहुत ही स्वच्छंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगी लिए चलती है. हास्य विनोद की उमंग में वह कभी-कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है.” (रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 309). 

यही कहना है कि उनकी साहित्य-भाषा में सोंधापन, चपलता, भावभंगिमा, हास्य-विनोद, व्यंग्यात्मकता को सहज ही लक्षित किया जा सकते हैं. यह उनके गंवईपन/ देसीपन का प्रतिफलन है. इसी देसीपन के फलस्वरूप उनके निबंधों में शैलीगत विशेषताएँ, प्रोक्ति विन्यास की विलक्षणता, प्रतीकीकरण की प्रक्रिया, सांस्कृतिक उप-पाठ की विद्यमानता परिलक्षित हैं. 

रामस्वरूप चतुर्वेदी की मान्यता है कि प्रताप नारायण मिश्र की भाषा शैली में अनौपचारिक भाषा विधान, विषय चयन और गद्य प्रवाह का रूप द्रष्टव्य है. ‘भाषा में स्खलन, शैली में घरूपन और ग्रामीणता, चंचलता और उछल-कूद’ उनकी विशेषता है. स्मरणीय है कि प्रताप नारयण मिश्र ‘हिंदोस्थान’ पत्र के काव्य भाग के संपादक थे. गोपाल राम गहमरी कहते हैं कि “वे फसली लेखक थे. जब कोई फसल जैसे जन्माष्टमी, पितृपक्ष, दशहरा, दीपावली, होली आते तब इन अवसरों पर वे संभवतः कविता रचा करते थे.” उनका यह कवि मन उनके निबंधों में भी दिखाई देता है. 

इसी पीठिका के बाद आइए अब पं. प्रताप नारायण मिश्र के निबंध ‘शिवमूर्ति’ को एक बार और पढ़ा जाए. स्मरणीय है कि निबंध भारतेंदु युग का प्रतिनिधि गद्य रूप है. इस विधा में भारतेंदु मंडल की जिंदादिली और पुनर्जागरण चेतना की बुद्धिजीविता का सही समागम मिलता है. गद्य प्रसंगों को स्वच्छंद भाव से प्रस्तुत करने का भी निबंध (विधा) में पूरा अवसर है. (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, पृ. 86). उल्लेखनीय है कि प्रताप नारयण मिश्र की भाषा-शैली में खास तरह का लोच दिखाई पड़ता हैं. उनके निबंधों को पढ़ते समय मानो ऐसा प्रतीत होता है कि वह सामने बैठकर बात कर रहे हों. पाठक को साथ लिए चलने की सहज वार्तालाप की सी शैली उल्लेखनीय को विशिष्ट और निजी बनाती है. इसके लिए वे प्रश्नवाचक वाक्य संरचना के साथ आधारभूत संस्कृत शब्दावली, ग्रामीण बोली की शब्दावली, उर्दू शब्दावली, मुहावरे, काव्यात्मकता, विस्मय बोधक चिह्न, अल्प विराम, अर्ध विराम आदि का सटीक प्रयोग करते हैं. 

विवेच्य निबंध ‘शिवमूर्ति’ पुनर्पाठ के लिए अत्यंत सटीक और प्रासंगिक है. 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में लिखे गए इस निबंध में इसमें संस्कृति का उप-पाठ निहित है साथ ही यह कला का पाठ भी. इसमें भारतीय मनीषा का जागरण निहित है तथा प्रतीकों के माध्यम से बड़े सरल और सहज ढंग से इस बात को रेखांकित किया गया है कि भारत का शिक्षित वर्ग भारतीयता, भारतीय संस्कृति और भारतीय प्रतीकों के प्रति कितना उदासीन है. नवजागरण और स्वतंत्रता का आंदोलन भारत की खोज का आंदोलन था. इस निबंध में गुँथा ‘भारत की खोज’ का पाठ इसे उस काल और इस काल दोनों में प्रासंगिक बनाता है. इस निबंध में लक्षणा और व्यंजना के माध्यम से मिश्र जी ने उन सबकी खबर ली है जो अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन हैं और उनकी भी खबर ली है जिन्होंने यह दुष्प्रचार किया कि भारत बर्बर और असभ्य राष्ट्र है तथा भारत के लोग मूर्ख तथा बंदर और साँप नचाने वाले हैं. 

शिवमूर्ति कलाकृति अर्थात प्रतीक है. शिवमूर्ति के माध्यम से लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि मनुष्यों के बीच वैर नहीं होना चाहिए. इतना ही नहीं इस निबंध में आस्तिकता का पाठ है भी द्रष्टव्य है. वे कहते हैं कि “हमारा मुख्य विषय शिवमूर्ति है और वह विशेषतः शैवों के धर्म का आधार है.” इससे जुड़े अप्रत्तर्क्य विषयों का दिग्दर्शनमात्र कथन करके लेखक ने अपने शैव भाइयों से पूछा है कि आप भगवान गंगाधर के पूजक होके वैष्णवों से किस बिरते पर द्वेष रख सकते है? यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है क्योंकि धर्म और ईश्वर के नाम पर आज भी उन्माद और अराजकता का बोलबाला है – तब बात शैव/ शाक्त/ वैष्णव की थी तो अब बात हिंदू/ मुस्लिम/ ईसाई/ सीख की है. इसी द्वेष भाव से उत्पन्न आतंकवाद और सांप्रदायिकता की लपटों में आदमीयत स्वाहा होती जा रही है. प्रताप नारायण मिश्र समन्वय के पक्षधर हैं. वे अंधी आस्था के स्थान पर तर्क का पाठ प्रस्तुत करते हैं – “यदि धर्म से अधिक मतवालेपन पर श्रद्धा हो तो अपने प्रेमाधार भगवान भोलानाथ को परमवैष्णव एवं गंगाधर कहना छोड़ दीजिए. नहीं तो सच्चा शैव वही हो सकता है जो वैष्णव मात्र को अपना देवता समझे. ... इससे शैवों का शाक्तों के साथ विरोध अयोग्य है. हमारी समझ में तो आस्तिक मात्र को किसी से द्वेष बुद्धि रखना पाप है, क्योंकि सब हमारे जगदीश जी की ही प्रजा हैं, सब हमारे खुदा ही के बंदे हैं. इस नाते सभी हमारे आत्मीय बंधु हैं.” विश्वबंधुत्व का यह दर्शन लोकतांत्रिक और सह अस्तित्व का दर्शन है – जिसकी आज की दुनिया को सबसे जरूरत है. अपनी बात को सहज सुग्राह्य बनाने के लिए कहानी के भीतर कहानी को गूँथना प्राचीन भारतीय कथाशैली है. इस निबंध में अंतर्कथा की तकनीक का भी सुंदर प्रयोग मिलता है. देखिए – “पुराणों में गंगा की विष्णु के चरण से उत्पत्ति मानी गई है और शिवजी को परमवैष्णव कहा गया है. उस पर वैष्णवता की पुष्टि इससे उत्तम और क्या हो सकती है कि उनके चरण निर्गत जल को सिर पर धारण करें. ऐसे विष्णु भगवान को परमशैव लिखा है कि विष्णु भगवान नित्य सहस्र कमल पुष्पों से सदाशिव की पूजा करते थे. एक दिन एक कमल घट गया तो उन्होंने यह विचार करके कि हमारा नाम कमलनयन है अपना नेत्र-कमल शिव जी के चरण कमल को अर्पण कर दिया.” (इस अंश को पढ़ते समय स्वतः ही निराला की प्रसिद्ध लंबी कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की याद हो आना स्वाभाविक है. राम शक्ति की मौलिक संकल्पना करते हैं.) वस्तुतः शिव और विष्णु की परस्पर आराधना के उल्लेख द्वारा लेखक ने भारतीयों को परस्पर सम्मान की सीख दी है जो हमें आज भी चाहिए! 

इस निबंध में मिश्र जी ने पहले मूर्तियों की चर्चा की, बाद में धातुओं की चर्चा जिनसे मूर्तियों का निर्माण किया जाता है. फिर मूर्तियों के रंगों की चर्चा और फिर मूर्तियों के आकार की चर्चा. पूरा निबंध अपने आप में एक सुगठित प्रोक्ति का नमूना है. प्रोक्ति गठन की दृष्टि से इसमें अनेक डिस्कोर्स स्ट्रेटजीज भी रेखांकित की जा सकती हैं. जैसे - 

प्रश्न चिह्न (नोट ऑफ इंटेरोगेशन) – 

  • फिर अनुरागदेव का रंग और क्या होगा?
  • ऐसे ही प्रेमदेव सब से पक्के हैं, उन पर और का रंग क्या चढ़ेगा?
  • फिर हम क्यों कहे कि यदि ईश्वर का अस्तित्व है तो इसी रंग ढंग का है?
  • आनंद की कैसी मूर्ति? दुःख की कैसी मूर्ति? 
  • ऐसा कौन कह सकता है, कि संसार भर का ऐश्वर्य किसी और का है?
  • हमारे हृदय-मंदिर को भी कभी कैलास बनाओगे?
  • पाषाण, धातु, मृत्तिका का कहना ही क्या है?
  • वह दिन दिखाओगे कि भारतवासी मात्र केवल तुम्हारे हो जाँय और इस भूमि पर फिर कैलास हो जाय?
अल्पविराम (कॉमा) – 
  • उसकी सभी बातें अनंत हैं, तो मूर्तियाँ भी अनंत प्रकार से बन सकती हैं.
  • सब मूर्तिपूजक कह देंगे कि हम तो साक्षात ईश्वर नहीं मानते, न उसकी यथातथ्य प्रतिकृति मानें.
  • प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़, धर्म बेसिर पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, मुक्ति प्रेम ही बहन है.
विस्मय बोधक चिह्न (नोट ऑफ एक्सक्लेमेनेशन) – 
  • विश्वास के आगे मनःशांतिकारक सत्य है!!!
  • आप लाभकारक बातों को समझ के दूसरों को समझाते हैं !
  • केवल चित्तवृत्ति ! केवल उसके गुणों का कुछ द्योतन!! 
अर्थ पर बल – 
  • हो चाहे जैसा, पर हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेंगे तो अवश्य ऐसा ही मान सकते हैं, जैसों से हमारा प्रत्यक्ष संबंध है. 
  • बस ! ठीक शिवमूर्ति यही है.
  • बस इसी मत पर सावयव सब मूर्ति मनुष्य के ऐसी मूर्ति बनायी जाती है. 
काव्यात्मक प्रयोग -
  • वास्तविक प्रेममूर्ति मनोमंदिर में विराजमान है. (शिवमूर्ति)
  • ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है, हृदयमंदिर की कुवासनारूपी दुर्गंध को हरता है. (वही) 
संबोध्यता – 
  • प्रिय पाठक ! उसकी सभी बातें अनंत हैं, तो मूर्तियाँ भी अनंत प्रकार से बन सकती हैं.
  • फिर कहिये जिससे भीतर-बाहर दोनों प्रकाशित होते हैं, जो प्रेमियों को आँख की ज्योति से भी प्रियतर है, जो अनंत विद्यमान है उसका फिर और क्या रंग हम मानें?
  • और लीजिए, कविता के आचार्यों ने अनुराग का रंग लाल कहा है. 
  • फिर कहिये तो.....
  • अब आकारों पर ध्यान दीजिये. 
पुनरावृत्ति – 
  • न कही जा सकें, न नहीं कही जा सके, और हाँ कहना भी ठीक है. एवं न कहना भी ठीक है. 
  • उसकी सब बातें अनत हैं, तो मूर्तियाँ भी अनंत प्रकार से बन सकती हैं और एक-एक स्वरूप में अनंत उपदेश प्राप्त हो सकते हैं, पर हमारी बुद्धि अनंत नहीं है, इससे कुछ प्रकार की मूर्तियों का कुछ-कुछ अर्थ लिखते हैं. (इस वाक्य को ‘तार्किक अन्विति’ है का अच्छा उदाहरण मन जा सकता है.)
  • जिससे भीतर-बाहर दोनों प्रकाशित होते हैं, जो प्रेमियों को आँख की ज्योति से भी प्रियतर है, जो अनंत विद्यमान है उसका फिर और क्या रंग हम मानें? (इसमें समानांतरता तो है, साथ ही प्रश्नवाची वाक्य रचना का प्रयोग हुआ है.)

भाषा का प्रयोग कैसे करना चाहिए इसका सशक्त उदाहरण हैं प्रताप नारायण मिश्र के निबंध. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है कि भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं हैं, वह हमारा व्यक्तित्व है. मिश्र जी की भाषा में उनका व्यक्तित्व झलकता है. वे परिहास करते समय भी चूकते नहीं. देखिए – “जितनी देर पूजा-पाठ करते हैं, जितनी देर माला सरकाते हैं उतनी देर कमाने, खाने, पढ़ने, गुनने में ध्यान दें तो भला है ! और जो केवल शास्त्रार्थ आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को अपना पिता बना के निज माता को कलंक लगाते हैं. माता कहके बेचारे जनक को दोषी ठहराते हैं, साकार संकल्पना करके व्यापकता का और निराकार कहके अस्तित्व का लोप करते हैं.”

नवजागरण काल के अन्य सजग समशील लेखकों की भाँति प्रताप नारायण मिश्र सोई हुई भारतीय जनता को चेताते हैं. भारतीयता उनका मुख्य स्वर है. भारतीयों को चेतावनी देने की शैली देखिए – “यह संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे आसपास है उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है. फारस, अरब और इंग्लिश देश के कवी जब संसार की अनित्यता वर्णन करेंगे तो कबरिस्तान का नक्शा खींचेंगे, क्योंकि उनके यहाँ श्मशान होते ही नहीं हैं. वे यह न कहें तो क्या, कहें कि बड़े-बड़े बादशाह खाक में दबे हुए सोते हैं.” वे आगे लोकजनित अंदाज में चुटकी लेते हैं – “यदि कबर का तख्ता उठाकर देखा जाय तो शायद दो चार हड्डियाँ निकलेंगी, जिन पर यह नहीं लिखा कि यह सिकंदर की हड्डी है, या दारा की.” यह पुनर्जागरण चेतना नहीं तो और क्या है?

जीवंतता भाषा का प्रमुख लक्षण है. और यह जीवंतता लौकिकीकरण के माध्यम से विशेषतया उभरती है. खड़ीबोली का लौकिकीकरण भारतेंदु मंडल के गद्यकारों की विशेषता है. यहाँ प्रताप नारायण मिश्र के निबंध ‘शिवमूर्ति’ में प्रयुक्त लोकशब्दावली, उर्दू शब्दावली, मुहावरों को सूचीबद्ध किया जा रहा है ताकि यह सपष्ट हो सके कि मिश्र जी की भाषा शैली जीवंत है – 

लोक प्रयोग – 

  • शास्त्रार्थ के आगे निरी बकबक 
  • अंधों के आगे हाथी आवे 
  • उनकी ओर से बिलकुल फेर लें
  • माला सरकाते हैं, 
  • बनवा के रख ली, 
  • बड़ा सुभीता, 
  • हम सब ठोर कर सकते हैं, 
  • सब ठौर की गई है.
  • पुस्तकें काली मसी में लिखी जाती हैं
  • वरंच यह खुला लिखा हुआ है 
  • जगत वा सर्वोपरि पदार्थ 
  • किस बिरते पर द्वेष रख सकते हैं?
  • मूर्ति बनाने वा बनवाने की सामर्थ्य 
  • मतवालेपन, 
  • भैयाचारे, 
  • हमारी दशा के अनुसार बर्तेंगे, 
  • आवें, 
  • धधकी, 
  • बका करेंगे. 
उर्दू शब्द- 
  • बेअदबी, हुनरमंद, ख़ाक 
सूक्तियों/ मुहावरों/ लोकोक्तियों से भाषिक अभिव्यंजना – 
  • बेसिर पैर के काम 
  • आँखें मूँद कर अंधे की नक़ल कर देखो 
  • घर की चक्की से भी गये बीते 
  • पानी पानी के भी कम के नहीं 
  • ईश्वर यावत् संसार का उत्पादक है 
  • मन और वचन को उनकी ओर से बिलकुल फेर लें
  • हुनरमंदों से पूछे जाते हैं बाबे हुनर पहिले 
  • सहज में और का और हो जाये 
  • मोटी बुद्धिवाला 
  • यह संसार भर का ऐश्वर्य किसी और का है 
  • हम चाहें मारें या जियें
  • एक गृहस्थी भर का धन लगाए नहीं आती 
  • वह निर्धन के धन हैं 
  • उलट फेर की बातें 
  • लिंग शब्द का अर्थ ही चिह्न है 
  • श्री गनेशायानमः हुआ है
  • हृदय-मंदिर में प्रेम का प्रकाश है तो संसार शिवमय है 
  • प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात कल्याण का रूप है. 
प्रताप नारायण मिश्र के इस निबंध में सांस्कृतिक संदर्भ की अभिव्यक्ति कई स्थलों पर संस्कृतिनिष्ठ शब्दावली के प्रयोग से सहजता से होती है – 
  • प्रेमदेव हमारे पुष्टिकारक सुगंध पुष्टिवर्द्धनं (महामृत्युंजय मंत्र का द्योतक) 
  • भूतनाथ अकथ्य अप्रतर्क्य एवं अचिन्त्य हैं.
  • अशरीरी आकारहीन 
  • शिवमूर्ति लिंगाकार होती हैं 
  • सृष्टिकर्तृत्व, अचिंत्यत्व, अप्रतिमत्व कई बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं. 
  • हस्तपादादि से निकले हुए हैं 
  • शिरस्थानी कहा जा सकता है 
  • सतोगुण का सूचक 
  • न तस्य प्रतिमास्ति
‘शिवमूर्ति’ शीर्षक निबंध में संदर्भ और भाव के अनुसार वाक्य रचना का प्रयोग किया गया है. वाक्य इस तरह गुंथे हुए हैं कि भाव सहज ही संप्रेषित हो जाता है. किसी बात पर बल देना हो या किसी बात को स्पष्ट करना हो या फिर तर्क प्रस्तुत करना हो या किसी को संबोधित करते हुए व्यंग्य करना हो, जागृत करना हो तो मिश्र जी छोटे-छोटे वाक्यों का बेजोड़ प्रयोग करते हैं. अर्थ की अमिट छाप बिखेरते हैं, संबोधन और क्रियाओं का चयन करते हैं – 
  • पर वास्तव में यह विषय ऐसा है कि मन, बुद्धि और वाणी से जितना सोचा, समझा और कहा जाय उतना ही बढ़ता जाएगा और हम जन्म भर बका करेंगे पर आपको यही जान पड़ेगा कि अभी श्री गणेशायनमः हुआ है. (इस वाक्य में सोचना, समझना, कहना, बढ़ना, बकना, जानना आदि क्रियाओं का समागम है.) 
  • यदि कोई बड़ा मैदान हो लाखों कोस का और रात को उसका अंत लिया चाहो तो सौ दो सौ दीपक जलाओगे. पर क्या उनसे उसका छोर देख लोगे? (‘नापना चाहो’ के लिए यहाँ पर बोलीगत प्रयोग करके ‘अंत लिया चाहो’ का प्रयोग किया गया है.) 
  • अब आकारों पर ध्यान दीजिए. अधिकतर शिवमूर्ति लिंगाकार होती हैं जिसमें हाथ, पाँव, मुख कुछ नहीं होते. (इसमें पाठक को धयान में रखकर बात को स्पष्ट करते हैं.) 
  • यहाँ तक कि जिनके असली तिल नहीं होता उन्हें सुंदरता बढ़ाने को कृत्रिम तिल बनाना पड़ता है. फिर कहिये तो, सर्वशोभामय परमसुंदर का कौन रंग कल्पना करोगे? (सर्वशोभामय परमसुंदर का कौन रंग कल्पना करोगे - यहाँ तर्क वाली वाक्य रचना है.)
साहित्यकार किसी बात पर बल देने के लिए ध्वनियों, शब्दों आदि की आवृत्ति करता है तो कभी भावों के सम्यक संप्रेषण, पाठक के हृदय तक पहुँचने और रचना को पठनीय बनाने के लिए पर्यायों का प्रयोग करता है. इस निबंध में ईश्वर के लिए प्रयुक्त कुछ पर्याय देखें – 

भगवान, भूतनाथ, अशरीरी आकारहीन, ईश्वर, निराकार, प्रेममूर्ति, प्रेममय परमात्मा, प्रभु, अनुरागदेव, प्रेमदेव, सर्वशोभामय परमसुंदर, देवाधिदेव, शिवमूर्ति, लिंगाकार, खुदा, विष्णुदेव, विश्वव्यापी, परमशैव, भोलानाथ, प्रेममयी, कैलाशवास, विश्वनाथ, हृदयेश्वर, मंगलेश्वर, भारतेश्वर 

रंग समाजभाषा का अनन्य अंश है. रंगों के माध्यम से बहुत कुछ अभिव्यक्त किया जा सकता है. ‘शिवमूर्ति’ में प्रयुक्त रंग शब्दावली है – 
  • श्वेत जिसका अर्थ है कि परमात्मा शुद्ध है, स्वच्छ है
  • श्वेत रंग सतोगुण का सूचक 
  • उसके उजले रंग 
  • लाल रंग जो रजोगुण का सूचक है 
  • अनुराग का रंग का लाल है. फिर अनुराग्देव का रंग और क्या होगा? 
  • काला – सबे से पक्का यही रंग है, इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता. 
  • पुतली काली होती है, भीतर का प्रकाश ज्ञान है 
  • पुस्तकें काली मसि से लिखी जातीं हैं 
  • यूरोप में ख़ूबसूरती के बयान में अलकावली का रंग काला कभी न कहेंगे.
  • यहाँ ताम्रवर्ण सौंदर्य का रंग न समझा जाएगा. 
यह कहा जा सकता है कि प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों में नवनिर्माण, भारतीयता, जागरण, संस्कृति, आस्तिकता, प्रतीकीकरण, सौमनस्य और बंधुता आदि परिलक्षित हैं. उन्होंने सहृदयता और प्रेम की जो व्याख्या की है उसी के साथ अपनी बात का समाहार करती हूँ – “हृदय-मंदिर में प्रेम का प्रकाश है तो संसार शिवमय है क्योंकि प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात कल्याण का रूप है.” यही संदेश आज के पाठकों के लिए भी सहज है.

[उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर प्रो. दिलीप सिंह (प्रधान संपादक) के संपादन में भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य पर नई सोच की छमाही पत्रिका 'बहुब्रीहि' का प्रकाशन आरम्भ किया गया है. इसके प्रवेशांक (जुलाई-दिसंबर 2013) में प्रकाशित.]