रविवार, 13 नवंबर 2016

शताब्दी संदर्भ

मुक्तिबोध : जीवन और कविता 


अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे.
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब.

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अन-खोजी निज समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,
परम अभिव्यक्ति....
मैं उसका शिष्य हूँ
वह मेरी गुरु है,
गुरु है!!

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प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
खोजता हूँ पठार... पहाड़.... समुंदर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोई हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा!
                     [अँधेरे में]

अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वाले कवि मुक्तिबोध (13 नवंबर, 1917 – 11 सितंबर, 1964) को ‘मानवीय अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं’ (ब्रह्मराक्षस). उनका मानना है कि मानव संबंध समाज के विकास के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं. आज जब यह कहा जा रहा है कि कवि मर चुका है, कविता मर चुकी है और विचार ही रह गए हैं ऐसे में मुक्तिबोध का यह तर्क समीचीन प्रतीत होता है कि “नहीं होती, कहीं भी कविता खत्म नहीं होती.” विचार के संबंध में भी उनका मत उल्लेखनीय है. वे कहते हैं कि “मन की हर हरकत या प्रतिक्रिया विचार नहीं होती. प्रश्न में ही यदि उत्तर समाया हुआ दीखता है तो वह केवल प्रवृत्ति का ही दूसरा नाम है. xxx मन की उग्र प्रतिक्रिया ही आजकल विचार कहलाती है. विचार को कसने की कोई ऑब्जेक्टिव कसौटी नहीं है? कसौटी ही क्यों? जरूरत भी क्या है?” (एक साहित्यिक की डायरी, पृ. 75-76). उनके अनुसार तो अंतरात्मा से निकला हुआ बोध, भाव या निर्णय ही उचित है, वही संगत है. 

ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की बातें करने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर, 1917 को ग्वालियर के श्योपुर नामक कस्बे में हुआ था. उनका बाल्यकाल रूसी क्रांति का काल था. यह वह दौर था जब मनुष्यता विश्व युद्ध की चिंगारियों में झुलस रही थी. मुक्तिबोध के पिता ग्वालियर राज में पुलिस अधिकारी थे. अतः मुक्तिबोध की आरंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई. 1930 में उज्जैन में मिडिल परीक्षा में असफल हुए जिसे वे अपने जीवन की पहली महत्वपूर्ण घटना मानते हैं. उसके बाद फिर उन्होंने पढ़ाई का सिलसिला जारी रखा. 1938 में इंदौर कॉलेज से बी.ए. तथा 1953 में नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त की. उन्होंने 1935 से ही साहित्य सृजन शुरू कर दिया था. वे अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ (1941) के पहले कवि थे.

मुक्तिबोध के समय पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि लंदन में 1934 में प्रगतिशील लखक संघ का गठन हुआ. प्रेमचंद ने संगठन का स्वागत किया. लखनऊ में अप्रैल 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन संपन्न हुआ. यही समय मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता का प्रारंभिक समय था. 1935 में उनकी पहली रचनाएँ प्रकाशित हुईं, जिन पर माखनलाल चतुर्वेदी का प्रभाव रहा. इसमें संदेह नहीं कि जीवन के नित नए अनुभव उन्हें निरंतर प्राप्त होते रहे. इसीलिए शायद वे कहते हैं कि “मेरे जीवन का विराम!/ नित चलता ही रहा है मेरा मनोधाम/ गति में ही उसकी संसृति है./ नित नव जीवन में उन्नति है/ नित नव अनुभव हैं अविश्राम/ मन सदा तृषित संतत सकाम.” (जीवन यात्रा/ मुक्तिबोध रचनावली-1/ (सं) नेमिचंद्र जैन/ पृ. 66).

मुक्तिबोध मूलतः कवि हैं. उन्होंने स्वयं लिखा है कि “मैं मुख्यतः विचारक न होकर केवल कवि हूँ. किंतु आज का युग ऐसा है कि विभिन्न विषयों पर उसे भी मनोमंथन करना पड़ता है. अपने काव्य-जीवन की यात्रा में जो चिंतन करना पड़ा, वह विज्ञ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ.” (नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध, पृ. 1).

मुक्तिबोध का काव्य संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद 1964 में प्रकाशित हुआ. उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, भूरी-भूरी खाक धूल, एक साहित्यिक की डायरी, काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी, मेरे युवजन मेरे परिजन, भारत : इतिहास और संस्कृति, शेष-अशेष, प्रश्नचिह्न बौखला उठे आदि. उनका समग्र साहित्य रचनावली के छह खंडों में प्रकाशित है. 1981 में ‘सतह से उठता आदमी’ को मणि कौल ने फिल्माया. 2004 में मुक्तिबोध के जीवन को ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ नामक नाट्य रूप में प्रस्तुत किया गया. 

मुक्तिबोध के जीवन और उनकी कविता को लोग अपने अपने मतानुसार विश्लेषित करते हैं. किसी ने मुक्तिबोध को ‘विद्रोही’ कहा (हरिशंकर परसाई) तो किसी ने ‘विलक्षण प्रतिभा’ (शमशेर बहादुर सिंह) तो किसी ने ‘कठिन समय के कठिन कवि’ (अशोक वाजपेयी). एक ओर वे ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ (श्रीकांत वर्मा) हैं तो दूसरी ओर ‘आत्मसंघर्ष का कवि’ (नंदकिशोर नवल). एक ओर कुछ लोग मुक्तिबोध पर दुरूहता का आरोप लगाते हैं तो दूसरी ओर देवीशंकर अवस्थी कहते हैं कि मुक्तिबोध उनके लिए ‘अजनबी नहीं’ है.

मुक्तिबोध का जीवन सरल और सपाट राह से नहीं गुजरा. उन्हें हर मोड़ पर समस्याओं का सामना करना पड़ा. ज़िंदगी के अंतिम क्षण में भी उन्हें संघर्ष करना पड़ा. ऐसा जान पड़ता है कि मानो संघर्ष ही उनका जीवन है. शायद इसीलिए उन्होंने लिखा होगा कि “मुझे कदम-कदम पर/ चौराहे मिलते हैं/ बाँहें फैलाए!!/ एक पैर रखता हूँ/ कि सौ राहें फूटतीं,/ व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;/ बहुत अच्छे लगते हैं/ उनके तजुर्बे और अपने सपने .../ सब अच्छे लगते हैं;/ अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,/ मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ, जाने क्या मिल जाए!!” (मुझे कदम-कदम पर/ गजानन माधव मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ (2016, पच्चीसवाँ संस्करण), नई दिल्ली : राजकमल पेपरबैक्स, पृ. 77).

मुक्तिबोध के जीवन और सृजन को समझना हो तो किनारे बैठे रहने से काम नहीं चल सकता. ‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।‘ (कबीर). मुक्तिबोध के संबंध में शरद जोशी का कहना है कि “मुक्तिबोध में जहाँ एक ओर दूसरों के साथ घुलने-मिलने की ललक रहती थी, वहीं दूसरी ओर उनमें तटस्थता का भाव भी सदा विद्यमान रहता था. वह सहज ही घनिष्ठता स्थापित नहीं कर पाते थे.” (मोतीराम वर्मा (2004), लक्षित मुक्तिबोध, नई दिल्ली : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, पृ. 265). आग्न्येश्का सोनी कहती हैं कि “मुक्तिबोध को लेकर मन में जो झिझक थी, उनसे मिलते ही वह अनायास दूर हो गई... वे इस कदर आत्मीय भाव से पेश आए. हम उन्हीं के यहाँ ठहरे थे, दो-तीन दिन का साथ रहा. उनके परिवार के सभी सदस्यों के साथ हम घुल-मिल गए. महसूस ही नहीं हुआ कि हम दूर से आए हुए हैं. xxx मैंने अनुभव किया, वे हर दुनियावी घटना को निजी स्तर पर जीते हैं. उनका ज़िक्र करते करते वे भावाकुल हो उठते थे, जैसे जो कुछ चारों ओर हो रहा है, उनका व्यक्ति उसको केंद्रबिंदु बन कर जीता-भोगता है. जहाँ प्रगतिकामी शक्तियों का विकास उन्हें पुलकित करता था, वहीं प्रतिक्रियावादी अवरोधों से उन्हें ठेस पहुँचती थी. इस प्रकार उनका हृदय उल्लास और पीड़ा का एक समन्वित कोष नज़र आता था.” (वही, पृ. 269).

आग्न्येश्का सोनी ने मुक्तिबोध के व्यक्तित्व में जिस उल्लास और पीड़ा के द्वंद्व को महसूस किया वही मुक्तिबोध की रचनाओं में भी मुखरित है. वे मुक्ति चाहते हैं शोषण से, यातना से. अतः वे कहते हैं, “मैं परिणत हूँ,/ कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ/ वर्तमान समाज चल नहीं सकता./ पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,/ स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी/ छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,/ जन को.” (अँधेरे में, गजानन माधव मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ (2016, पच्चीसवाँ संस्करण), नई दिल्ली : राजकमल पेपरबैक्स, पृ. 77).

मुक्तिबोध की चर्चा हो और उनकी कविता ‘अँधेरे में’ की चर्चा न हो ऐसा हो ही नहीं सकता. क्योंकि मुक्तिबोध का नाम लेते ही अनायास ‘अँधेरे में’ कविता स्मृतिपटल पर अवतरित हो जाती है. 1964 में यह कविता पहली बार हैदराबाद से प्रकाशित पत्रिका ‘कल्पना’ में मुक्तिबोध की मृत्यु के एक महीने के बाद छपी. नामवर सिंह को यह कविता ‘परम अभिव्यक्ति की खोज’ प्रतीत होती है तो रामविलास शर्मा को ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष’. अशोक वाजपेयी उन दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि “मुक्तिबोध ने जो लंबी कविता, टाइप की हुई, भेजी, उसका शीर्षक था ‘आशंका के द्वीप अँधेरे में’. उसकी लंबाई इतनी अधिक थी कि अगर हमारी बत्तीस पृष्ठों की पत्रिका (पुनर्वसु) निकल भी गई होती, जो दुर्भाग्य से नहीं निकल सकी, तो उसका प्रवेशांक विशेषांक होता जिसमें उस कविता के अलावा कुछ और होने की गुंजाइश न होती.” (अशोक वाजपेयी, तम-शून्य में तैरती जगत-समीक्षा, इन द डार्क, (‘अँधेरे में’ का अंग्रेजी अनुवाद), कृष्ण बलदेव बैद, 2001, नोएडा : रेनबो पब्लिशर्स, पृ. 62). 

लंबी कविता ‘अँधेरे में’ का फलक इतना विस्तृत है कि इसमें रक्तालोक स्नात पुरुष, रहस्मय व्यक्ति, डोमाजी उस्ताद, तिलक, गांधी, तॉल्स्तॉय, मोर्चा, जुलूस, गोलाबारी, बैंड दल, अनेक किस्म की आकृतियाँ, जंगल, मोर्टार, आर्टिलरी, सैनिकों के पथराये चहरे, शव यात्रा, मार्शल ला आदि सब कुछ सहज रूप से समाहित प्रतीत होता है. इसमें अनेक प्रतीकों, बिंबों और महास्वप्नों का समायोजन है. इस कविता का विश्लेषण विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से किया है. पर मुक्तिबोध ने स्वयं इसके बारे में क्या लिखा है, यहाँ इस पर दृष्टि केंद्रित करना समीचीन होगा. 19 दिसंबर, 1963 को उन्होंने आग्न्येश्का सोनी को एक पत्र लिखा; कविता भेजने से पूर्व. उसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया कि “मैं अपनी एक कविता आपके पास भेजने को इच्छुक था. उसे मैंने टाइप करा लिया है. बहुत लंबी है. आप ऊब जाएँगी. अप्रकाशित है वह. टाइपिंग में बहुत भूलें हैं. कोई पत्रिका ऐसी नहीं जो उसे छापे. संभव है, वह कविता भी बहुत रद्दी किस्म की और तीसरे दर्जे की है. आपके पास भेजने में मुझे संकोच होता है. उसमें एक आशंका है, अँधेरी आशंका का वातावरण है – कहीं हमारे भारत में ऐसा-वैसा न हो.” (नंदकिशोर नवल (2005 पहली आवृत्ति), ‘अँधेरे में : एक विश्लेषण,’ मुक्तिबोध : ज्ञान और संवेदना, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, पृ. 445). 

यह वर्ष मुक्तिबोध का शताब्दी वर्ष है. इस संदर्भ में पाठकों के आस्वादन हेतु मुक्तिबोध की रचना “मैं उनका ही होता” प्रस्तुत है-

“मैं उनका ही होता, जिनसे
            मैंने रूप-भाव पाए हैं.
वे मेरे ही हिये बँधे हैं
           जो मर्यादाएँ लाए हैं.

मेरे शब्द, भाव उनके हैं,
          मेरे पैर और पथ मेरा,
मेरा अंत और अथ मेरा,
          ऐसे किंतु चाव उनके हैं.

मैं ऊँचा होता चलता हूँ
         उनके ओछेपन से गिर-गिर,
उनके छिछ्लेपन से खुद-खुद,
          मैं गहरा होता चलता हूँ.”

(शब्द नगरी पर )

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