सोमवार, 20 सितंबर 2010

वहाँ के बिच्छू डंक नहीं मारते


"कालिदास ने वर्षा ऋतु को जलधर रूपी मदोन्मत्त हाथी पर सवार एक राजा के समान कहा है। इस ऋतु में वसुंधरा अनेक रंगों से अलंकृत हो जाती है। मृगदल पुलकित हो जाते हैं, वीर वधूटियों का दल घूमने लगता है। मेढक टर्राने लगते हैं। मयूर नाचने लगते हैं। कदंब फूल उठते हैं और नदियाँ कामासक्‍त कुलटाओं की तरह जलनाथ से मिलने के लिए उतावली हो जाती है। कवि कालिदास ने इस ऋतु में प्रियतमाओं की वेशेष स्थिति का उल्लेख किया है कि वे जूड़ों को कदंब, नवकेसर और केतकी के पुष्‍पों से सजाकर, कुंकुम के फूलों का झुमका पहनकर, शरीर पर चंदन का लेप लगाकर सायंकाल होते ही गुरुजनों के गृहों को त्याग कर शयन कक्ष में प्रविष्‍ट हो जाती हैं और अपने अपराधी प्रवृत्ति के प्रियतमों को भी आलिंगनपाश में बाँध लेती हैं।"
(वर्षा ऋतु का यह वर्णन डॉ.रामावध शास्त्री ने अपने ललित निबंध ‘कालिदास का ऋतुसंहार’ में उद्धृत किया है।)

वे संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य के साथ साथ लोक साहित्य के भी विविध संदर्भों को साथ लेकर चलनेवाले निबंधकार हैं। अगर उनके एक और निबंध ‘कांस फूल गए’ में वर्षा के प्रसंग को देखे तो मंज़र एकदम बदला हुआ दिखाई देता है - ‘इस वर्ष जब से आर्द्रा नक्षत्र चढी़ है तब से बरसती ही जा रही है कि गाँव के गाँव बह गए, फसलें उखड़ गईं, लेकिन रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। अतिवृष्‍टि योग का नजारा दिखाई पड़ता है। लगता है, इंद्र देव अधिक रूष्‍ट हैं। लेकिन देवराज ऐसा नहीं कर सकते क्‍योंकि द्वापर में उपेंद्र के हाथों जो पराजित हुए थे। ऐसा हो सकता है, किसी दूसरे देव को उकसा दिया हो क्योंकि वे अपनी तो नाक कटवा चुके हैं, दूसरों की कटवाने की चाह ने शायद उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया हो।’

ललित निबंध एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक की कल्पनाशक्‍ति और विद्वत्तता साथ साथ दौड़ लगाती प्रतीत होती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, शिवप्रसाद सिंह और विद्‍यानिवास मिश्र की तरह रामअवध शास्त्री भी ऐसी दुहरी दौड़ खूब लगा लेते हैं। शायद इसीसे ललित में निहित लीला या क्रीड़ा भाव की सिद्धि होती है। इंद्र का संदर्भ आया तो शास्त्री जी ने शास्त्रों के द्रष्‍टांतों की छढ़ी लगा दी - "ऋग्वेद में कहा गया है कि पर्जन्य देव इंद्र के समरूप हैं। उन्हें वीर, पराक्रमी, प्रलयकारी तथा निःस्वनकारी कहा गया है। जब वे अपने मेघों की सेवा का संचालन करते हैं तो मेघाच्छन आकाश एक छोर से दूसरे छोर तक विद्‍युत रेखा से आलोकित हो उठता है। इस रूप में पर्जन्यदेव इंद्र के समरूप न होकर स्वयं इंद्र देव ही लक्षित होते हैं। मानव जाति इन्हें इंद्र के रूप में पूजती रही, लेकिन व्रजराज कृष्‍ण ने ही इस भ्रम को दूर किया। उस दिन से ये धरती से ऐसा उखड़े की आज तक नहीं जम पाए।"

विभिन्न ऋतुएँ हों, प्रकृति का नित्य परिवर्तित वेश हो, गंगा हो या राधा सब विषयों पर रामअवध शास्त्री ने अपने निबंधों में उन्मुक्‍त चिंतन किया है। कुछ निबंध उन्होंने व्यक्‍ति केंद्रित भी लिखे हैं जो मोनोग्राफ जैसे हैं। प्रेमचंद, सुब्रह्‍मण्य भारती, राहुल सांकृत्यायन और अकबर पर लिखे गए लेख ऐसे ही हैं। ‘सहकार मंजरी’ एकदम अलग तरह का ललित निबंध है। शास्त्री जी उत्तर प्रदेश के अमरोह में रहते हैं। वहाँ एक दरगाह ऐसी है जिसके आहते में सैंकड़ों बिच्छू रहते हैं लेकिन दरगाह के प्रभाव क्षेत्र में ये किसी को ड़ंक नहीं मारते। लेखक ने इसे अमरोह की अमराई के प्रभाव के साथ जोड़ा है। कहा जाता है कि आम का बौर अगर वसंत पंचमी के दिन सूंघ लिया जाय तो वर्ष भर के लिए व्यक्‍ति साँप और बिच्छू के ज़हर से सुरक्षित रहता है। इन तथ्यों और मिथकों को गूँथते हुए लेखक ने अपने शहर के सांप्रदायिक सद्‍भाव के साथ जोड़ा है, पर जब वे अमराइयों को उजड़ते हुए देखते हैं, आम के वृक्षों को कटते हुए देखते हैं तो उन्हें लगता है कि बिच्छुओं के दंश से आनेवाली पीढ़ी को बचाना मुश्किल होगा।

ये सारे संदर्भ ललित निबंधकार डॉ.रामअवध शास्त्री की सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता के सूचक हैं। वे एक ओर तो प्रकृति प्रेम में पगे हुए हैं तथा दूसरी ओर राष्‍ट्रीय चेतना में जगे हुए हैं। राष्‍ट्रीय चेतना न होती तो प्रकृति प्रेम अधूरा रह जाता। ये दोनों गुण उन्हें लोक जीवन का रसिया बनाते हैं। पर उन्हें चिंता इस बात की है कि आज के सहित्यकारों का लोक जीवन से वैसा गहरा लगाव नहीं है जैसा कभी हाल जैसे साहित्यकारों का था, परिणामतः आज का साहित्य लोक जीवन और लोक संस्कृति से कटता जा रहा है।

‘डॉ.रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों का समीक्षात्मक अध्ययन’ करते हुए सुनील दत्त शर्मा ने उनकी सांस्कृतिक चेतना, पर्यावरण के प्रति जागरूकता, लोक संस्कृति और भाषिक विशेषता का सोदाहरण विवेचन किया है और उन्हें एक ऐसी निबंधकार सिद्ध किया है जिसमें लालित्य और व्यंग्य को एक साथ साधने की कलात्मक शक्‍ति विद्‍यमान है। यहाँ उनके निबंध ‘वसंत पंचमी का एक अंश उद्धृत है - "पिछले चौदह वर्षों से कर्मभूमि के लिए जिस अमरोहा का चुनाव किया है उसका प्रांतर भाग सघन अमराइयों से घिरा पड़ा है। कहते हैं कि इन अमराइयों में जो शाह विलायत की दरगाह है उसके आहते में रहनेवाले बिच्छू डंक नहीं मारते यदि कोई दरगाह में इच्छा व्यक्‍त करके निश्चित समय के लिए इन बिच्छुओं को अपने घर भी ले जाए तो वे वहाँ भी ड़ंक नहीं मारते। फिर भला मुझे क्‍या पड़ी है किसी वसंत पंचमी के दिन सहकार मंजरी को सूँघने की।"

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* डॉ.रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों का समीक्षात्मक अध्ययन/ सुनील दत्त शर्मा/ 2009/ नमन प्रकाशन, 4231/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002/ पृ.99/ मूल्य- रु.200/-

सोमवार, 6 सितंबर 2010

‘कला कुलीनों की संपत्ति नहीं’ : गुर्रम्‌ जाषुवा

कुला मतालु गीचिना गीतललो जिक्की,
पंजराना कट्टु बडनु नेनु।
निखिल लोका मेट्लु नुर्णयिंचिना, नाकु
तिरुगु लेदु - विश्‍वनरुडु नेनु॥" (जाषुवा)

(जाति भेद के इस पिंजरे में मैं नहीं फसूँगा। मैं विश्‍व की सीढ़ियों को पार कर चुका हूँ। मैं तो विश्‍वमानव हूँ।)


तेलुगु साहित्य जगत्‌ मे ‘नवयुग कवि चक्रवर्ती’ और ‘विश्‍वनरुडु’ (विश्‍वमानव) के नाम से विख्यात गुर्रम जाषुवा का जन्म 28 सितंबर, 1895 को गुंटूर जिले के काट्रग्ड्डपाडु नामक गाँव में वीरैया और लिंगम्मा दंपति के घर में हुआ। वीरैया यादव थे जबकि लिंगम्मा दलित जाति की थीं। अंतरजातीय विवाह के कारण इस दंपति को जाति भेद का शिकार होना पड़ा। बचपन से ही जाषुवा को गरीबी झेलना पड़ा और अपमान के घूँट पीने पड़े। यहाँ तक कि अपमान और ज़िल्लत से बचने के लिए जाषुवा के माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया। समाज के तपेड़ों को झेलते हुए जाषुवा आगे बढ़ते रहें। उन्होंने कभी हालात के सामने घुटने नहीं टेके।

यह रोचक तथ्य है कि जाषुवा तेलुगु और संस्कृत के विद्वान होने के करण हिंदू दर्शन और मिथक काव्यों से इतने प्रभावित थे कि अपने खंड काव्यों में उनका प्रचुर प्रयोग किया। इसलिए ईसाई समुदाय ने उनका विरोध किया।

जाषुवा अत्यंत संवेदनशील रचनाकार थे। तत्कालीन समाज में व्याप्‍त असमानता, अराजकता, जाति भेद, वर्ण भेद, ऊँच-नीच, गरीबी और छुआछूत से अत्यंत विचलित होना उनके लिए स्वाभाविक था। उन्होंने मानवता का पहला पाठ अपने परिवार में ही पढ़ा। उनका लक्ष्य था समाज से ऊँच-नीच और अस्पृश्‍ता की दीवार को हटाकर समता स्थापित करना। अतः उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों का खुलकर विरोध किया तथा मानवाधिकरों और सामाजिक न्याय पर बल दिया।

जाषुवा का रचना संसार बहुत व्यापक है। उन्होंने तेलुगु साहित्य को अनेक खंड काव्यों और लंभी कविताओं द्वारा समृद्ध किया जिन्में ‘रुक्मिणि कल्याणम्‌’(1919), ‘चिदानंद प्रभातम्‌’(1922), ‘कुशलवोपाख्यानम्‌’(1922), ‘कोकिला’(1942, कोयाल), ‘ध्रुव विजयम्‌’(1925, ध्रुव विजय), ‘कृष्‍णा नदी’(1925), ‘संसार सागरम्‌’ (1925, पारिवारिक सागर), ‘शिवाजी प्रबंधम्‌’(1926, शिवाजी प्रबंध), ‘वीरा बाई’(1926), ‘कृष्णदेव रायुलु’(1926, कृष्णदेव राय), ‘वेमना योगींद्रुडु’(1926, योगी वेमना), ‘भारतमाता’(1926), ‘भारतवीरुडु’(1927, भारत के वीर), ‘गिज्जिगाडु’(1927,घोंसला), ‘भीष्‍मुडु’(1931,भीष्‍म), ‘चीट्ला पेका’(1932,ताश), ‘अनाथा’(1932, अनाथ), ‘फिरदौसी’(1932), ‘श्मशाना वाटिका’(1933, श्मशान), ‘आंध्र भोजुडु’(1934, आंध्र भोज), ‘गब्बिलम्‌’(1941,चमगादड), ‘तेरा चाटु’(1946, परदे के पीछे), ‘बापूजी’(1948), ‘स्वयंवरम्‌’(1950, स्वयंवर), ‘कोत्ता लोकम्‌’(1957, नया लोक), ‘ना कथा’(1966, मेरी कहानी) आदि उल्लेखनीय हैं।

गुर्रम जाषुवा की सर्वाधिक चर्चित कृति है ‘गब्बिलम्‌’(चमगादड)। जाषुवा ‘गब्बिलम’ के लेखक के रूप में तेलुगु साहित्य जगत्‌ में विख्यात हैं। 1941 में प्रकाशित यह खंड काव्य वस्तुतः कालिदास कृत ‘मेघदूतम्‌’ की पैरोडी है। ‘मेघदूतम्‌’ में यक्ष मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रेयसी के पास संदेश भेजता है लेकिन जाषुवा के काव्य ‘गब्बिलम्‌’ में संदेश भेजनेवाला यक्ष नहीं है बल्कि हाशिए पर स्थित वह दलित है जो गरीबी और भूख से तड़प रहा है तथा अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। वह चमगादड से यचना करता है कि वह लोकाराध्य भगवान शिव के पास जाकर उसकी व्यथा को सुनाए। वह चमगादड को दूत इसलिए बनाता है क्योंकि वह हमेशा शिव मंदिर में उल्टा लटका हुआ रहता है और भगवान के सान्निध्य में रहता है। इस काव्य में जाषुवा ने व्यंग्य और प्रतीकों के माध्यम से दलितों की वेदना का हृदयस्पर्शी अंकन किया है।

भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था आदि से चली आ रही है। मध्यकाल में निम्न जाति के लोगों को सवर्णों के पैरों तले जीवन यापन करना पड़ता था। उनकी ज़िंदगी जानवरों से भी बदत्तर थी। जाषुवा इस स्थिति को बदलना चाहते थे। अतः उन्होंने भगवान से प्रश्‍न किया कि उसकी सुंदर सृष्‍टि में मनुष्‍य और मनुष्‍य के बीच खाई क्यों उत्पन्न हो रही है - "सृष्‍टिकर्तवी नीवु,/ नी सृष्‍टि लो/ निनु प्रश्‍निंचे हक्कु उन्नवाडिनी नेनु।" (सृष्‍टिकर्ता हो तुम,/ तुम्हारी इस सृष्‍टि में,/ तुमसे प्रश्‍न करने का हक रखता हूँ मैं।) जाषुवा की सहानुभूति उस आम आदमी के साथ है जो पूँजीवादी व्यवस्था के पैरों तले दब गया हो।

आलोचकों ने जाषुवा को दलितवादी घोषित कर रखा लेकिन वस्तुतः वे मानववादी कवि हैं। जनकवि हैं। वे कहते हैं कि "वडागाल्पुलु/ ना जीवितमैते,/ वेन्नला/ ना कवित्वम्‌।" (लू के झोंके हैं/ मेरा जीवन,/ तो शीतल चाँदनी है/ मेरी कविता।)

राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी की निर्मम हत्या से विचलित होकर जाषुवा ने ‘बापूजी’ शीर्षक काव्य की रचना की जिसका प्रकाशन 1948 में हुआ। इसमें कुल 15 लंभी कविताएँ हैं जिनमें महात्मा गांधी के संपूर्ण जीवन संघर्ष और दर्शन का समावेश है। यह काव्य कृति एक तरह से बापू को कवि की अश्रुपूरित श्रद्धांजलि है।

जाषुवा ने अपनी कृतियों के माध्यम से निम्न वर्ग के विरुद्ध होनेवाले षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया और साथ ही सामाजिक विसंगतियों पर भी प्रहार किया। उनके काव्यों में विषय वैविध्य है। एक ओर प्रकृति चित्रण है तो दूसरी ओर संयोग और वियोग श्रुंगार का वर्णन भी है। राष्‍ट्रीय चेतना और समाजिक जागरूकता के साथ साथ निम्न वर्ग का आक्रोश तथा अस्मिता की लड़ाई भी अंकित है। वे यह कहते हैं कि "कललु मोहिंचुटोक कुलीनुलनेगादु,/ कुलमु लेदन्ना वाडिनी गूडा वलचू/ सत्‌ कला देवी कटाक्षंभु वलना,/ समयुगावुता उच्च नीचतला बेडदा!" (कला की देवी के कृपा कटाक्ष से ऊँच-नीच का भेद मिट जाएगा क्योंकि वह केवल कुलीनों पर ही मोहित नहीं होती बल्कि कुलहीनों के पास भी रहती है।)

जाषुवा को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें ‘क्रीस्तु चरेत्रा’(ईसा चरित) के लिए 1964 को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया तथा 1970 में आंध्र विश्‍वविद्‍यालाय द्वारा ‘कलाप्रपूर्ण’ और भारत सरकार के ‘पद्‍मभूषण’ से अलंकृत किया गया।

सामाजिक न्याय के इस महान कवि का निधन 24 जिलाई, 1971 को हुआ। 1994 में ‘जाषुवा फाउंडेशन’ ने उनका जन्मशताब्दी वर्ष मनाया। उसके बाद हर साल संस्था की ओर से विभिन्न भाषाओं के प्रमुख कवियों को ‘जाषुवा साहित्य पुरस्कार’ प्रदान किया जाता है। 1995 में ‘जाषुवा साहित्य पुरस्कार’ प्राप्‍त करनेवाले प्रथम कवि डॉ.ओ.एन.वी.कुरुप(मलयालम)। 1997 में हिंदी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह को भी इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस संस्था के व्यवस्थापक कार्यदर्शी जाषुवा की बेटी हेमलता लवनम्‌ है। समाज में व्याप्‍त ऊँच-नीच की दीवर को तोड़कर मानवता और समता की भावना को फैलाना इस संस्था का मुख्य उद्‍देश्‍य है।