शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

राष्ट्रीय साहित्य और विश्व साहित्य

[प्रो.ऋषभ देव शर्मा के कक्षा-व्याख्यान पर आधारित]

मनुष्य मात्र की भावनाओं, राग-विराग और संवेदनशीलता की समानता के आधार पर यह माना जाता है कि मनुष्य जाति की एक समेकित संस्कृति है. इस समेकित संस्कृति का निर्माण करने के लिए अलग-अलग देशकाल में मनुष्यों के समूहों ने जो अलग-अलग प्रयत्न किए, साधनाएँ कीं उनका समेकित रूप ‘विश्व संस्कृति’ है और यह उन मानव समूहों के अपने अपने साहित्यों के माध्यम से व्यक्त होती है. इन अलग अलग देशकाल में रचित साहित्यों के समेकित रूप का नाम ही ‘विश्व साहित्य’ है. स्मरणीय है कि अलग अलग देशकाल और जाति समूहों से संबंधित होते हुए भी अपनी मूल संवेदना में ये सारे साहित्य परस्पर अविरोधी होते हैं क्योंकि ये संबंधित जातियों के, मनुष्यों के सांस्कृतिक प्रयत्न है. इसी प्रकार किसी राष्ट्र के अलग अलग भाषा-भाषी समुदायों द्वारा अपनी संस्कृति के उत्थान और अभिव्यक्तीकरण के क्रम में रचे गए भिन्न भिन्न भाषाओं के साहित्य का समेकित रूप उस देश का ‘राष्ट्रीय साहित्य’ होता है. हम यह भी कह सकते हैं कि राष्ट्रीय साहित्य भिन्न भिन्न भाषाओं में रचे जाने के बावजूद उस राष्ट्र की सामासिक पहचान को व्यक्त करता है और विश्व साहित्य अलग अलग राष्ट्रों की साहित्यिक अभिव्यक्तियों में निहित समग्र मानव चेतना का सम्पुंजन होता है. राष्ट्रीयता और वैश्विकता यहाँ परस्पर पूरक भाव से जुड़ी होती हैं, अविरोधी होती हैं अतः विश्व साहित्य, साहित्य के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र को संभव कर दिखाता है. जहाँ विभिन्न राष्ट्रीय अस्मिताएँ विश्व नागरिक की भाँति एक-दूसरे के साथ अस्तित्व में रहती हैं. 

यहाँ प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव का यह कथन द्रष्टव्य है कि “भारत एक बहुभाषी देश है. यहाँ न केवल 1652 मातृभाषाएँ हैं अपितु अनेक समुन्नत साहित्यिक भाषाएँ भी हैं. पर जिस प्रकार अनेक वर्षों के आपसी संपर्क और सामाजिक द्विभाषिकता के कारण भारतीय भाषाएँ अपनी रूप रचना में भिन्न होते हुए भी आर्थी संरचना में समरूप हैं, उसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि अपने जातीय इतिहास, सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक मूल्य एवं साहित्यिक संरचना के संदर्भ में भारतीय साहित्य एक है, भले ही वह विभिन्न भाषाओं के अभिव्यक्ति माध्यम द्वारा व्यक्त हुआ है.” यदि इस संकल्पना का आगे विस्तार करें और भाषा भेद की सीमा को तोड़कर मनुष्य के इतिहास और विकास के देखने का प्रयत्न करें तो विश्व साहित्य की अवधारणा सामने आती है. वास्तव में प्रत्येक भाषा के साहित्य की विषय वस्तु और रूप अभिव्यक्ति एवं उसकी मूल्य चेतना और विधा निरूपण के इतिहास का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ भी हुआ करता है जो उसे क्रमशः राष्ट्रीय साहित्य और विश्व साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है. 

राष्ट्रीय साहित्य 

वस्तुतः राष्ट्रीय साहित्य द्वारा तुलनात्मक साहित्य का आधार तैयार होता है. इसे यों भी कह सकते हैं कि तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ही राष्ट्रीय साहित्य और उसमें निहित राष्ट्रीयता की तत्वों की पहचान की जा सकती है. इसीलिए आर. ए. साइसी ने तुलनात्मक साहित्य को ‘विभिन्न राष्ट्रीय साहित्यों का एक-दूसरे से आश्रय से तुलनात्मक संबंधों का अध्ययन’ कहा है. इसी प्रकार गोयते ने विश्व साहित्य के संदर्भ में अपनी साहित्यिक परंपराओं से इतर दूसरी परंपराओं के बोध को अनिवार्य माना है. ऐसा करने से विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे को पहचान या समझ सकते हैं तथा अगर एक-दूसरे से प्रेम न भी कर सकें तो कम-से-कम एक-दूसरे को बर्दाश्त करना तो सीख सकते हैं. वास्तव में आपसी पहचान आदान-प्रदान द्वारा राष्ट्रीय साहित्य अपनी विलक्षणता को बनाए रख सकता है. 

जैसा कि पहले भी कहा गया भारत जैसे बहुभाषी देश में राष्ट्रीय साहित्य का अर्थ है विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीय संस्कृति और मूल्यों की अभिव्यक्ति. इसके लिए तुलनात्मक पद्धती का सहारा लिया जाता है. और यह भी देखा जाता है कि किसी साहित्यिक कृति को दूसरे भाषा भाषियों द्वारा किस प्रकार ग्रहण किया जाता है. या कोई एक साहित्य दूसरे साहित्य पर किस प्रकार प्रभाव डालता है. उदाहरण के लिए हम बंगला और तेलुगु के संबंध की चर्चा कर सकते है. बंगला के कथा साहित्य को तेलुगु में इतनी सहजता से ग्रहण किया जाता है कि बहुत से पाठक तो शरत को बंगला के बजाए तेलुगु का ही साहित्यकार समझते हैं. रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य ने विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य पर जो प्रभाव डाला वह भी भारत के राष्ट्रीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण भाग है. इसी प्रकार बाबा साहेब डॉ.भीमराव अम्बेडकर के चिंतन से प्रभावित होकर जब मराठी में दलित साहित्य का उदय हुआ तो उसका प्रभाव तेलुगु, हिंदी, उर्दू, पंजबी यहाँ तक की समकालीन संस्कृत साहित्य पर भी पड़ा – यह भारतीय साहित्य की समस्वरता का द्योतक है. इतना ही नहीं अलग अलग प्रांत की प्रबुद्ध महिलाओं ने अलग अलग भाषाओं में भले ही स्वयं को अलग अलग प्रकार से अभिव्यक्त किया हो लेकिन स्त्री विमर्श आज किसी एक भाषा के साहित्य की प्रवृत्ति न होकर भारतीय साहित्य की समेकित प्रवृत्ति है. ओल्गा और घंटसाला निर्मला भले ही तेलुगु की कवयित्रियाँ हों, अनामिका और कात्यायिनी हिंदी की हों, निर्मला पुतुल संताली की हों, दर्शन कौर और तरन्नुम रियाज़ पंजाबी की हों – इन सबके द्वारा स्त्री की यातना का चित्रण एक जैसा है और समग्रतः भारतीय स्त्री की यातना का द्योतक है. यह समरसता ही इस तमाम स्त्री विमर्श को भारतीय साहित्य का हिस्सा बनाती है. 

इसी प्रकार विभिन्न भाषाओं के साहित्य में प्रयुक्त अंतरवस्तु, मोटिफ, मिथक और काव्य सौंदर्य के उपकरण भी मिलकर किसी देश की राष्ट्रीय साहित्य का रूप निर्धारण करते हैं. अभिप्राय यह है कि राष्ट्रीय साहित्य किसी राष्ट्र की किसी एक भाषा का नहीं बल्कि उसकी विभिन्न भाषाओं के उस साहित्य का सामासिक रूप होता है जिसमें उसके नागरिकों की सांस्कृतिक चेतना और एक समान संवेदना प्रतिबिंबित होती है. यहाँ हम भारतीय साहित्य के संदर्भ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के एक काव्यांश को देख सकते हैं जिसमें प्रकारांतर से भारत के राष्ट्रीय साहित्य की पहचान का सूत्र दिया गया है - 

“भारत नहीं स्थान का वाचक, 

गुण-विशेष नर का है, 

एक देश का नहीं, 

शील वह भूमंडल भर का है. 

जहाँ कहीं एकता अखंडित, 

जहाँ प्रेम का स्वर है 

देश देश में वहाँ खड़ा 

जीवित भारत भास्वर है.” 

विश्व साहित्य 

विश्व साहित्य की अवधारणा का आधार आरंभ में यूरोप का दृष्टिकोण रहा जिसके अनुसार विश्व साहित्य का प्रारंभिक अर्थ यूरोपीय साहित्य तक सीमित था. गोयते ने भी ‘वेल्ट लित्रातुर’ पद का प्रयोग इसी अर्थ में किया था. इसमें संदेह नहीं कि यह अर्थ अत्यंत सीमित था और आज इसे स्वीकार नहीं किया जाता. 

20 वीं शताब्दी में विश्व साहित्य के अर्थ में क्रांतिकारी परिवर्तन आया. विश्व के बारे में जो यूरोप केंद्रित जातिगत विशिष्ट अवधारणा थी, उसके अर्थ में एक खास तरह की व्यापकता आई. इस प्रकार विश्व साहित्य का दायरा यूरोप के बाहर तक फ़ैला और उसके अंतर्गत विश्व के दूसरे क्षेत्रों के साहित्य और तुलनात्मक अध्ययन को स्थान दिया गया. अब विश्व साहित्य का तात्पर्य है – पृथ्वी के किसी भी साहित्य का अध्ययन. अर्थात सार्वभौमिक स्तर पर साहित्य के इतिहास को ही विश्व साहित्य माना जाता है. प्रो.इंद्रनाथ चौधुरी ने लिखा है कि ‘विश्व साहित्य के इतिहास विषयक ग्रंथों में विभिन्न राष्ट्रीय साहित्यों को विभिन्न माध्यमों में बाँट कर या एक-दूसरे के सान्निध्य में रखकर अध्ययन किया जाता है. या फिर विश्व साहित्य के विभिन्न आंदोलनों, प्रवृत्तियों या कालों का विवरण देते हुए विश्लेषण होता है.’ जे.ब्रांट कॉर्स्टियस (J. Brandt Corstius) ने इस प्रकार रचे गए विश्व साहित्य के इतिहास की संभावनाओं और सीमाओं का विस्तार से विवेचन किया है. स्पष्ट है कि विश्व साहित्य बड़ी सीमा तक राष्ट्रीय साहित्यों का समूह है अतः इसमें राष्ट्र अथवा देश का तत्व जुड़ा रहता है. कहना न होगा कि इस तत्व के कारण ही विश्व साहित्य की तुलनात्मक दृष्टि का विकास होता है और वे बिंदु उभरते हैं जो विभिन्न राष्ट्रों के साहित्यों में व्यक्त होनेवाली मानव जाति की एक जैसी चिंताओं को दर्शित है. 

विश्व साहित्य का एक अर्थ यह भी है कि केवल देश ही नहीं ‘काल’ के संदर्भ में भी जो महान है अर्थात काल की कसौटी पर जिसकी श्रेष्ठता सिद्ध हो चुकी है वह कालजयी और श्रेष्ठ साहित्य विश्व साहित्य है. जैसे ‘डिवाइन कॉमेडी’, ‘डान कोहटे’, ‘पैराडाइज लॉस्ट’, ‘अभिज्ञान शाकुंतल’, ‘कुमार संभव’ आदि की श्रेष्ठता देश और काल से ऊपर है. अतः ये अपने अपने राष्ट्र और भाषा की महान कृतियाँ तो है ही. विश्व साहित्य का भी अमर धरोहर हैं. इतना ही नहीं वर्तमान में भी जिन रचनाओं को अपने राष्ट्र के परिधि के बाहर प्रसिद्धि प्राप्त होती है उन्हें भी विश्व साहित्य के अंतर्गत गिना जाता है. परंतु यह विश्व साहित्य का गौण अर्थ है. विश्व साहित्य का मुख्य स्वरूप तो समस्त राष्ट्रों के साहित्य के समुच्चय द्वारा ही प्रकट होता है. 

फ्रिट्ज स्टाइच के अनुसार विश्व साहित्य के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं – 
  1. अपने राष्ट्रीय साहित्य की परम्परा के साथ ही दूसरे राष्ट्रीय साहित्यों की परम्पराओं से परिचित होना.
  2. दूसरे देशों या भाषाओं में लिखित साहित्य के प्रति खुलापन रखना. 
  3. विभिन्न साहित्यों में परस्पर आदान-प्रदान का अवसर देना. 

विश्व साहित्य के इस स्वरूप के अंतर्गत प्रकाशित ग्रंथों के शीर्षकों की सहायता से भी समझा जा सकता है. जैसे लेयार्ड द्वारा संपादित ‘The World Through Literature’ और ‘रिप्ले’ द्वारा संपादित ‘Dictionary of World Literature’ अथवा ‘ Encyclopaedia of Literature’ में भी विश्व साहित्य की यही संकल्पना स्वीकार की गई है. तुलनात्मक साहित्य की पद्धतियों का विश्व साहित्य के अध्ययन के लिए उपयोग सहज है, परंतु अनिवार्य नहीं. अर्थात विविध साहित्यों की तुलना के स्थान पर उनका संकलन करना भी विश्व साहित्य के लिए पर्याप्त है. उदाहरण के लिए यदि तुर्गनेव, हाथॉर्न, थैकरे और मोपसां के निबंधों के संकलन को ‘Figures of World Literature’ नाम दिया जाए तो यह सहज ही विश्व साहित्य के अंतर्गत स्वीकार्य होगा. भले ही इसमें तुलनात्मक अध्ययन संमिलि हो या न हो. 

विश्व साहित्य का भारतीय संदर्भ 

विश्व साहित्य पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में विचार करते हुए प्रो.इंद्रनाथ चौधुरी ने ‘तुलनात्मक साहित्य की भूमिका’ में यह बताया है कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने सन् 1907 में तुलनात्मक साहित्य के लिए ‘विश्व साहित्य’ शब्द का प्रयोग किया था. कवींद्र रवींद्र यह मानते थे कि यदि हमें उस मनुष्य को समझना है जिसकी अभिव्यक्ति उसके कर्मों, प्रेरणाओं और उद्देश्यों में होती है तो संपूर्ण साहित्य के माध्यम से उसके अभिप्रायों से परिचित होना होगा. वास्तव में मनुष्य इतिहास में स्थानीय या सीमित व्यक्ति की अपेक्षा शाश्वत या सार्वभौमिक मनुष्य को देखना चाहता है. उसकी इस अपेक्षा को विश्व साहित्य ही पूरा करता है. विश्व साहित्य में मनुष्य अपनी आत्मा के आनंद को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करता है. अतः विश्व साहित्य की एक बड़ी कसौटी उसमें मनुष्य की आत्मा के आनद और रागात्मक संबंधों की अभिव्यक्ति को माना जा सकता है. 

रवींद्रनाथ ठाकुर के अनुसार ‘जिस प्रकार यह विश्व जमीन के टुकड़ों का योगफल नहीं है उसी प्रकार साहित्य विभिन्न लेखकों द्वारा रचित कृतियों का योगफल नहीं है. हमें राष्ट्रीयता की संपूर्ण मनोवृत्ति से अपने को मुक्त करना है. प्रत्येक कृति को उसकी संपूर्ण इकाई में देखना है और इस संपूर्ण इकाई या मनुष्य की शाश्वत सृजनशीलता की पहचान विश्व साहित्य के द्वारा ही हो सकती है.’ 

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विश्व साहित्य मनुष्य की शाश्वत सृजनशीलता की खोज का परिणाम है तथा विभिन्न राष्ट्रीय साहित्यों का समुच्चय होता हुए भी वह राष्ट्रीय संकीर्णताओं से मुक्त तथा 'वसुधैव कुटुंबकं'  की वैश्विक चेतना से अनुप्राणित होता है. 


संदर्भ : 

1तुलनात्मक साहित्य की भूमिका – इंद्रनाथ चौधुरी, 1983, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास, टी.नगर, चेन्नई - 600017 

2. भारतीय साहित्य : अवधारणा, समन्वय एवं सादृश्य, (सं) जगदीश यादव, 2011, सिंघई पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-654, सेक्टर – 2, आर.एस.यूनिवर्सिटी, रायपुर - 492010 

3. भारतीय साहित्य की पहचान, (सं) डॉ.सियाराम तिवारी, 2009, नालंदा खुला विश्वविद्यालय, तीसरा तल, बिस्कोमान भवन, पश्चिमी गांधी मैदान, पटना - 800001

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

पहले अन्न-वस्त्र की व्यवस्था करो, फिर भागवत सुनना-सुनाना

‘’तुम लोग क्या कर रहे हो? ... जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद करने वालो, तुम लोग क्या हो? सठियाई बुध्दिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी! अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृध्दिगत कूडा-कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? ...किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशीगीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी-जान से तडप रहे हो - यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्वाकांक्षा है। तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुंड के झुंड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तडपते हुए उन्हें घेरकर ' रोटी दो, रोटी दो ' चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो ? आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड-मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं। क्या तुम्हे मनुष्य से प्रेम है? यदि 'हाँ' तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखो; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है -- मस्तिष्क वाले युवकों का, पशुओं का नहीं।‘’ - स्वामी विवेकानंद. 

स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी, 1863 – 4 जुलाई 1902) भारतीय नवजागरण काल के उन पुरोधाओं में है जिन्होंने दबी-कुचली भारतीय अस्मिता को उसकी मौलिक तेजस्विता पुनः प्रदान की और दुनिया को बताया कि ज्ञान-विज्ञान, चिंतन-दर्शन, साहित्य-वाङ्मय और भौतिक-आधिभौतिक सभी क्षेत्रों में भारतीय सभ्यता अग्रणी रही है. वे ऐसे संस्कृति पुरुष हैं जिन्होंने भारत की लंबी गुलामी के कारणों को भी विवेचित किया और भारतीयों की अकर्मण्यता पर आक्रोश भी व्यक्त किया. नवजागरणकालीन सामाजिक नेता के नाते विवेकानंद ने युवा वर्ग को उपनिषद की वाणी में संबोधित करते हुए उठने, जागरूक रहने और कर्मठ जीवन जीने के लिए सचेत किया. यही कारण है कि देशकाल की सीमाओं के परे युवा वर्ग को सकारात्मक चिंतन से ओतप्रोत करने के लिए आज भी उनकी वाणी अत्यंत प्रासंगिक है. 

स्वामी विवेकानंद ने युवा पीढ़ी के सामने सदा सकारात्मक सोच का आदर्श रखा. वे मानते थे कि निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं जब कि सकारात्मक विचार मनुष्यत्व का संचार करते हैं और व्यक्ति को अपने पैरों पर खडा होना सिखाते हैं. उनकी मान्यता थी कि राष्ट्र निर्माण के लिए चरित्रवान युवकों की आवश्यकता होती है और सद्चरित्रता की नींव शिक्षा द्वारा मजबूत बनाई जा सकती है. इसलिए वे चाहते थे कि राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुसार शिक्षा में परिवर्तन होना चाहिए. जानकारी और बोध का अंतर करते हुए उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यदि तुम केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो तुम एक पूरे ग्रंथालय को कंठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो. यदि शिक्षा का अर्थ जानकारी ही होता, तब तो पुस्तकालय संसार में सब से बड़े संत हो जाते और विश्वकोश महान ऋषि बन जाते. 

आधुनिक संदर्भ में यह याद रखना उपयोगी हो सकता है कि विवेकानंद भारतीय संस्कृति के जड़ और रूढ़ अंशों को बाहर निकाल फेंकने के पक्षधर थे. उन्होंने देखा कि अभिजात उच्च वर्णों ने अपने स्वार्थ के लिए समाज को इस तरह विभाजित कर रखा है कि मनुष्य मनुष्य का दास बना हुआ है. उन्होंने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि हमारे अभिजात पूर्वज साधारण जन समुदाय को ज़माने से पैरों तले कुचलते रहे जिस कारण वे बेचारे एकदम इतने असहाय हो गए कि अपने आप को मनुष्य मानना भी भूल गए. देश की युवा शक्ति का आह्वान करते हुए इसीलिए विवेकानंद ने कहा कि इस बात को हमेशा ध्यान रखो कि राष्ट्र झोंपडियों में बस्ता है. किसान, जूते बनाने वाले, मेहतर और भारत के ऐसे ही निचले वर्गों में तुमसे कहीं ज्यादा काम करने और स्वावलंबन की क्षमता है. वे लोग युग-युग में चुपचाप काम करते रहे हैं. वे ही है, जो इस देश की समस्त संपदा के उत्पादक हैं. फिर भी उन्होंने कभी शिकायत नहीं की. अभिजात वर्ग को सचेत करते हुए विवेकानंद ने यहाँ तक कहा कि तुम लोगों ने अब तक इस जनता को दबाया है, अब उनकी बारी है और तुम लोग रोजगार की तलाश में भटकते-भटकते नष्ट हो जाओगे, क्योंकि यही तुम्हारे जीवन का सर्वस्व बन गया है. 

उल्लेखनीय है कि अपने एक व्याख्यान में जातिभेद का खंडन करते हुए विवेकानंद ने कहा कि - भारत के इन दीन-हीन लोगों को, इन पददलित जाती के लोगों को, उनका अपना वास्तविक रूप समझा देना परमावश्यक है. जात-पाँत का भेद छोड़कर, कमजोर और मजबूत का विचार छोड़कर, हर एक स्त्री-पुरुष को, प्रत्येक बालक-बालिका को, यह संदेश सुनाओ और सिखाओ कि ऊँच-नीच, अमीर-गरीब और बड़े-छोटे, सभी में उसी एक अनंत आत्मा का निवास है, जो सर्वव्यापी है; इसलिए सभी लोग महान तथा सभी लोग साधु हो सकते हैं. आओ हम प्रत्येक व्यक्ति में घोषित करें – उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत – ‘उठो, जागो और जब तक तुम अपने अंतिम ध्येय तक नहीं पहुँच जाते, तब तक चैन न लो.’ 

विवेकानंद के इस संदेश को अगर हम कोरा आध्यात्मिक संदेश मान लेंगे तो बड़ी भूल होगी. अध्यात्म से पहले वे भारतीयों को भौतिक उपलब्धियों के क्षेत्र में, अन्न-वस्त्र के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए करते हैं. उन्होंने एक स्थान पर पूछा है, ‘अन्न-वस्त्र की कमी और उसकी चिंता से देश बुरी अवस्था में चला जा रहा है – इसके लिए तुम लोग क्या कर रहे हो?’ और दृढ़ शब्दों में निर्देश दिया है, ‘फेंक दो अपने शास्त्र-वास्त्र गंगा जी में. देश के लोगों को पहले अन्न की व्यवस्था करने का उपाय सिखा दो. इसके बाद उन्हें भागवत का पाठ सुनाना. कर्मतत्परता के द्वारा इहलोक का अभाव दूर न होने तक कोई धर्म की कथा ध्यान से न सुनेगा. इसीलिए कहता हूँ, पहले अपने में अंतर्निहित आत्मविश्वास को जाग्रत कर, फिर देश के समस्त व्यक्तियों में जितना संभव हो, उस शक्ति के प्रति विश्वास जगाओ. पहले अन्न की व्यवस्था कर, बाद में उन्हें धर्म प्राप्त करने की शिक्षा देना. अब अधिक बैठे रहने का समय नहीं – कब किसकी मृत्यु होगी, कौन कह सकता है?’ 

स्वामी विवेकानंद ने हर प्रकार की धर्मान्धता और शोषण का विरोध किया. यहाँ तक कि शिकागो में दिए 1893 के विश्व धर्म महासभा के संबोधन में भी उन्होंने बड़ी तड़प के साथ यह कहा था कि सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं. वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं. यदि ये बीभत्स चुड़ैलें न होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता. कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमारा प्यारा भारत वर्ष आज भी सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और धर्मान्धता रूपी इन तीन चुड़ैलों के शिकंजों में फँसा हुआ है जिनसे मुक्त होने के लिए विवेकानंद के मानवता और राष्ट्रीयता का समन्वय करने वाले विचारों की आज पहले से ज्यादा जरूरत है.

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

भारतीय साहित्य में भारतीयता

[ प्रो.ऋषभ देव शर्मा के कक्षा-व्याख्यान पर आधारित ]

भारतीय साहित्य की पहचान का आधार है – भारतीयता. प्रश्न यह उठता है कि भारतीयता का क्या अभिप्राय है? वस्तुतः वर्तमान संदर्भ में यह शब्द गहरे सांस्कृतिक अर्थ का द्योतक है. कहना न होगा कि “संस्कृति हमारे लिए दार्शनिक, आध्यात्मिक, नैतिक, कलात्मक और प्रवृत्तिगत संसार की अनुगूँज है. वह मूलतः मनुष्य से, प्रकृति से, धर्म से, मूल्य से, आत्मा से, समाज से, विश्व से हमारे संबंधों की प्रकृति सूचित करती है.” (प्रभाकर श्रोत्रिय ). इन्हीं से हमारी सांस्कृतिक पहचान निर्मित होती है जिसे हम विश्व के अन्य देशों की तुलना में विशिष्ट मानकर भारतीयता के नाम से अभिव्यक्त करते हैं. 

भारतीयता के कई अभिलक्षण हो सकते हैं. जैसे – सर्वात्मवाद – सबका वि़कास, सबका उन्नयन, सबका आनंद भारतीय स्वभाव की मूल संस्कृति है. इसी प्रकार भारतीयता को सामासिकता से जोड़ते हुए डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय कहते हैं – “भारत के भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक चरित्र में सामासिकता है जिसके केंद्र में है सहिष्णुता जिसे नरेश मेहता ‘वैष्णवता’ कहते हैं. वैष्णवता का मूल करुणा है. गांधी की प्रार्थना में था – ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे.’ वैष्णवी भारत एक सहिष्णु, संवेदनशील, सामाजिक भारत है, संगम जिसका स्वभाव है. संगम भारत की सामासिकता की बोधभूमि है. *** भारत की संस्कृति का निर्माण नीति के उपदेशों या धर्म ग्रंथों से नहीं, काव्य ग्रंथों से हुआ है. ‘रामायण’, ‘महाभारत’ तो सांस्कृतिक अवबोधन के काव्य हैं ही, वेद भी एक अर्थ में महान काव्य है.” (‘कविता की जातीयता’ की भूमिका से). 

भारतीयता अथवा भारतीय संस्कृति की व्याप्ति ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य के भारतीय साहित्य का दर्जा देती है. इसलिए भारतीय साहित्य में भारतीयता एक मूलभूत घटक/ तत्व (Fundamental Constituents) है. 

इसमें संदेह नहीं कि मानवीय संवेदना की दृष्टि से विश्व भर का साहित्य कुछ एक जैसे आद्यप्रारूपों (Archetypes) से जुड़ा हुआ है जिसके कारण विश्व साहित्य में सार्वकालिक और सार्वदेशिक तत्व पाए जाते हैं. परंतु जैसा कि प्रो. इंद्रनाथ चौधुरी ने ‘तुलनात्मक साहित्य की भूमिका’ में लिखा है, “विश्व के साहित्य में पाई जाने वाली इस सार्वकालिकता या सार्वदेशिकता के बावजूद प्रत्येक देश का साहित्य काल, परिवेश तथा लेखक के जातीय संस्कार से प्रभावित होता है जिसके फलस्वरूप साहित्य में विशिष्टता आ जाती है.” यह जातीय संस्कार ही वर्तमान संदर्भ में भारतीयता है. विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य की सेक जैसी विशेषताओं के आधार पर भारतीय साहित्य की एकता को प्रतिपादित किया जा सकता है. वी.के.गोकक ने पहले-पहल भारतीय साहित्य की उस चेतना को खोजने का प्रयास किया जिससे भारतीयता की पहचान की जा सकती है. 'The Concept of Indian Literature’ में उन्होंने यह बताया की भारतीय साहित्य की शैली, कथ्य, पृष्ठभूमि, बिंबविधान, काव्य रूप, संगीत तथा जीवन दर्शन सब मिलकर एक अभिन्न तत्व के रूप में भारतीय साहित्य की भारतीयता को प्रकट करते हैं. डॉ.नगेंद्र और सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसे एकता के रूप में विश्लेषित किया है. 

भारतीय साहित्य आमतौर से तीन अर्थ समझे जाते हैं – 

1. संस्कृत साहित्य जिसकी विशाल परंपरा है और जो आधुनिक भारतीय साहित्य को प्रभावित करता है. भारतीयों द्वारा अंग्रेज़ी में लिखा साहित्य. गोकक ने भारतीयता की चर्चा करते हुए भारतीयों द्वारा अंग्रेज़ी        में लिखे साहित्य का ही उदाहरण दिया है. 

2. विभिन्न भारतीय भाषाओं हिंदी, तमिल, तेलुगु, बंगला, मणिपुरी आदि में लिखा गया साहित्य जिसमें       विषय और भावगत एकसूत्रता दिखाई पड़ती है. 

3. भले ही भारत की 22 भाषाओं में अभिव्यक्तियाँ अलग-अलग हों तथापि इनमें मूलभूत एकरूपता देखी जा सकती है. वर्त्तमान संदर्भ में हम भारतीय साहित्य के इसी अर्थ को ग्रहण करते हैं. 

प्रो.इंद्रनाथ चौधुरी ने इस मूलभूत एकरूपता के दो कारण बताए हैं – 

1. एक ही स्रोत से प्रेरणा ग्रहण करना. यह मूल स्रोत है – संस्कृत साहित्य, महाकाव्य, पुराण, जातक,     लोकसाहित्य, दार्शनिक साहित्य, कला एवं संगीत. 

2. लगभग एक ही प्रकार की अनुभूतियों से प्रेरित साहित्य का निर्माण होना. इसीके कारण हमारी साहित्यिक परंपरा में अटूट निरंतरता दिखाई देती है और आधुनिकता में भी प्राचीनता की प्राणशक्ति प्रकट होती है. 

कृष्ण कृपलानी ने भारतीय साहित्य की इसी एकरूपता को देखते हुए कहा है कि हमारा साहित्य मात्र एक दृश्य नहीं पैनोरोमा है. ऊपर से नीचे तक इसमें बहुत से लैंडस्केप दिखाई देते हैं मगर इन विभिन्न लैंडस्केपों के रहते हुए भी अर्थात अनेकता में भी एक सैद्धांतिक एकता है जो विभिन्न विधाओं, रूपों या अभिव्यक्तियों में प्रतिफलित है. 

विद्वानों ने यह परिलक्षित किया है कि हमारे साहित्य में मिथकों, मोटिफों, बिंबों या प्रतीकों के प्रयोग में एक व्यावहारिक संश्लेषण मिलता है जो भारतीय साहित्य की भारतीयता को उजागर करता है. इस भारतीयता की पहचान भारत के 5000 वर्ष के साहित्य की धारा में अवगाहन करके ही की जा सकती है. अभिप्राय यह है कि भारतीय साहित्य में भारतीयता के आविष्कार के लिए समूचे भारतीय साहित्य को स्वीकारना होगा. 

डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी ने भारतीय साहित्य में भारतीयता के कुछ मूलबिंदु निर्धारित किए हैं जिन पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है. 
1. आध्यात्मिक दृष्टि 
2. रहस्यात्मक बिंबवाद 
3. अद्वैत 
4. आदर्शवाद 
5. मानवतावाद 

1. आध्यात्मिक दृष्टि : 

भारतीय प्राच्य विद्या के जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने कहा है – ‘India is always transcendental and beyond.’ उनकी यह मान्यता भारतीय साहित्य की आध्यात्मिक अवधारणा पर भी लागू होती है. भारत शब्द का अर्थ ही है ‘भा + रत’ = ‘प्रकाश में रत’. यहाँ प्रकाश का लाक्षणिक अर्थ ‘प्रकाशपूर्ण ज्ञान, आत्मा ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान’ है. (भारतीय साहित्य की अवधारणा (लेख), पाण्डेय शशिभूष्ण शीतांशु). वास्तव में इसी तत्व से भारत की मानसिकता का मूल स्वरूप तय होता है जो आध्यात्मिक है. मैथ्यू आर्नल्ड ने इसे भारत की ‘निष्काम दृष्टि’ (Indian Virtue of detachment) और गोयते ने व्यक्तिगत भावावेग से मुक्त भारतीय कला दृष्टि (India Art without individual passion) कहा है. गीता की शब्दावली में हम इसे ‘अनासक्ति’ कह सकते हैं. इस अनासक्ति के कारण ही भारतीय साहित्य में कवि अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करते दिखाई नहीं देते. भारतीय साहित्य व्यष्टि से समष्टि की ओर जाने की साधना है जो भारतीय मनुष्य की मनोचेतना में गहरी जमी हुई है. यह दृष्टि ईशोपनिषद् के इस कथन से प्रेरणा लेती है – ईशावास्यमिदं सर्वम् (सर्व ईश का वास है). इसी बात को रवींद्रनाथ ठाकुर ‘सीमार माझे असीम तुमि’ कहकर व्यक्त करते हैं तथा निराला कहते हैं – ‘उस असीम में ले जाओ/ मुझे न कुछ तुम दे जाओ.’ 

यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि आध्यात्मिक दृष्टि का अर्थ धार्मिक या सांप्रदायिक होना नहीं है. भारतीय साहित्य मूलतः मनुष्य के विषय में और मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ को मानता है – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष. इन्हें ही महाकाव्य का प्रयोजन माना गया है. भारतीय साहित्यकार इनका वर्णन कुछ इस प्रकार करता है कि अंततः सौंदर्य और आनंद की स्थापना हो सके. 

2. रहस्यात्मक बिंबवाद : 

भारतीय साहित्य में यह देखा गया है कि इसमें सौंदर्यबोध और आनंद की अभिव्यक्ति के साथ नीतिबोध जुड़ा हुआ है. भारत की सौंदर्य दृष्टि आध्यात्मिक ध्यान दृष्टि है जिसके उदाहरण के रूप में विभिन्न देव मूर्तियों को देखा जा सकता है. दरअसल भारतीय साहित्य में यथार्थ को बौद्धिकता के साहारे नहीं संवेदना और अनुभूति के सहारे ग्रहण किया जाता है. इसीलिए इसमें रहस्यात्मक बिंबवाद की प्रवृत्ति पाई जाती है. रहस्यात्मक बिंबवाद का अर्थ है रूपकों के प्रयोग द्वारा वस्तुपक्ष को जटिल बनाते हुए सत्य की खोज. उदाहरण के लिए संत कबीर का यह रहस्यात्मक बिंब द्रष्टव्य है- 

‘लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल 
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल’ 

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (जिसमें निषेध के द्वारा ब्रह्म की परिभाषा का प्रयास है) से लेकर आधुनिक युग में रवींद्रनाथ ठाकुर और सुब्रह्मण्य भारती आदि भारतीय भाषाओं के कवियों में यह रहस्यात्मक बिंबवाद बार बार दिखाई देता है. इसमें विरोधाभास की सहायता से मूल सत्य की खोज की प्रवृत्ति पाई जाती है. यों कहा जा सकता है कि जिस तरह के मानचित्र का एक स्थाई हिस्सा हिमालय है उसी प्रकार भारतीयता का एक स्थाई हिस्सा आत्मा रूपी एक परम सत्य का खोज है, रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों में – 

‘पहले दिन के सूर्य ने प्रश्न किया था
सत्ता के नए आविर्भाव को
कौन तुम ? 
उत्तर नहीं मिला.’ 


3. अद्वैत :

वेदांत की अद्वैतवादी अवधारणा भारतीय साहित्य में निहित भारतीयता का एक प्रमुख आद्यरूप (Archetype) है. इसके अनुसार पारमार्थिक सत्ता एक मात्र सत्ता है जिसे प्राकृतिक सत्ता के द्वारा समझा जा सकता है. ब्रह्म और प्रकृति की इस दोहरी भावना को भारतीय साहित्यकारों ने अनेक रूपकों द्वारा स्पष्ट किया है. शिव और शक्ति या अर्द्धनारीश्वर भी इसी प्रकार का एक रूपक है. दरअसल यह एक ऐसा युग्म है जिसका एक पक्ष अविकारी है जिसे स्रष्टा, शिव, सत्य, काल या आत्मा कहा गया है. दूसरा पक्ष गतिशील है, परिवर्तनशील है जिसे सृष्टि या शक्ति कहा गया है. यह नए नए रूपों में जन्म लेती है. आत्मा और देह ही पुरुष और प्रकृति है. इसलिए देह को लेकर यहाँ कोई पाप बोध नहीं हैं. शिव-पार्वती और राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं को यहाँ अनैतिक कहकर नकारा नहीं जाता बल्कि इसे आत्मा और प्रकृति की सदा चलने वाली लीला माना जाता है. निराला के शब्दों में –
 ‘नव जीवन की प्रबल उमंग, जा रही मैं मिलने के लिए पार कर सीमा 
प्रियतम असीम के संग.’

देह प्रेम को यहाँ जीवन चक्र के लिए सहज माना गया है. इसीलिए ‘कामसूत्र’ में यह कहा गया है कि शयनकक्ष में सिरहाने मूर्ति होनी चाहिए. मलयालम के कवि शंकर कुरुप की कविता यहाँ द्रष्टव्य है – 

मैंने उसके पैरों में लगे आलता का लाल रंग देखा
 मगर मुझे लगा कि उषा शरमाई हुई है.
वह आसमान में अपनी अंगूठी छोड़ गई है. 
मगर मुझे लगा, नहीं वह तो सूर्य है. 

4. आदर्शवाद : 

भारतीय साहित्य के एक अन्य आद्यप्रारूप के तौर पर आदर्शवाद की पहचान की गई है. इंद्रनाथ चौधुरी ने लक्षित किया है कि भारतीय साहित्य में तनाव और संघर्ष है परंतु चरम विरोध नहीं है. यहाँ संघर्ष दो व्यक्तित्वों की टकराहट नहीं, इच्छा और आदर्श का सघर्ष है जिसमें अंततः आदर्श की विजय होती है. इसीलिए यहाँ ट्रेजिक साहित्य बहुत ही कम लिखा गया है. ‘गोदान’ में एक ही मृत्यु होती है मगर सात ही सबका हृदय परिवर्तन होता है. वस्तुतः यहाँ मृत्यु नहीं होती. मृत्यु के बाद जीवन ही यहाँ नियम है. अर्थात यहाँ पतझड़ और वसंत एक निरंतर/ सतत प्रक्रिया के दो अंग हैं. 

भारतीय साहित्य के आदर्शवादी होने का दूसरा कारण चक्राकार काल की संकल्पना है जिसके अनुसार जीवन और मृत्यु एक ही काल प्रवाह के दो बिंदु हैं और मृत्यु से नया जीवन आरंभ होता है. मोक्ष मिलने तक यह क्रम चलता रहता है (आवागमन से मुक्ति). यही कारण है कि भारतीय साहित्य में ट्रेजडी नहीं बल्कि सम्पूर्ण जीवन का चित्र अंकित करने की परम्परा है. यदि भारतीय कवि दुःख को जीवन का मूल तत्व बताते हैं तो इसे पाश्चात्य साहित्य में वर्णित मेलेंकली (यातना) नहीं समझना चाहिए बल्कि यह भारत की एक विशिष्ट मानसिकता है जो यातना और दुःख के द्वारा भी जीवन के सकारात्मक पक्ष को खोजती है. यहाँ हम अज्ञेय की निम्नलिखित पंक्तियों को याद कर सकते हैं – 

“दुःख सबको माँजता है 
और 
चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने, किंतु 
जिनको माँजता है 
उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्त रखें.” 

इसी प्रकार जब रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि कली के भीतर खुशबू अंधी होकर रो रही है’ तो इस कथन में हमें दुःख का चरम सुंदर रूप दिखाई पड़ता है. यही भारतीय साहित्य का अस्तित्व बोध है जहाँ दुःख और आनंद,बुद्धि और अबौद्धिकता, अस्तित्व और विचार एक दूसरे के पूरक हैं. 


5. मानवतावाद : 

भारतीय साहित्य की भारतीयता का चरमोत्कर्ष उसके भव्य और प्रखर मानवतावाद में दिखाई देता है. उपनिषदों की कल्पना है कि मनुष्य स्वयं ईश्वर है – ‘अहम ब्रह्मास्मि’. महाभारत में मनुष्य को दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य कहा गया है. चंडीदास हों या पंत, व्यास हों  या वाल्मीकि, शरत  हों  या प्रेमचंद - सभी मनुष्य को सर्वोपरि सत्य मानते हैं. मनुष्य को देवताओं से भी श्रेष्ठ माना गया है. इसी कारण हमारे साहित्य में नायक का धीर होना अनिवार्य माना गया है. धीरता के द्वारा ही महाकाव्य का नायक हमारे लिए अनुकरणीय बनता है. भारतीय साहित्य में नायक पूजा को मनुष्य की असीम शक्ति के प्रति लेखक की श्रद्धा का निवेदन माना जा सकता है. मध्ययुगीन भक्ति काव्य में विश्वमानवता का आदर्श देखा जा सकता है तो दूसरे ओर तमिल के प्रसिद्ध काव्य ‘तिरुकुरळ’ में तिरुवल्लुवर ने कहा है – जो भी हो मेरा पड़ोसी हैं, जहाँ भी हो मेरा देश है. अर्थात इस मानवतावाद में न कोई पराया है और न ही परदेश है. इसीका नाम वसुधैव कुटुंबकम है. इस मानवतावाद के दो आधारतत्व हैं. एक त्याग और दूसरा भक्ति. वास्तव में मानवतावाद की यह व्यापक धारणा नैतिकता और सौंदर्यबोध पर आधारित है जिसके द्वारा मनुष्य में विद्यमान देवत्व को प्रकट किया जाता है. 

निष्कर्ष : 

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि एक ‘सर्वभारतीय संवेदना’ भारतीय साहित्य के केंद्र में स्थित है. आधुनिक भारतीय साहित्य भले ही विभिन्न भाषाओं में लिखा जाता हो लेकिन उसमें भी यह संवेदना दिखाई पड़ती है जिसमें वे मूल्य निहित हैं जो भारतीय सांस्कृतिक इतिहास और अनुभव की उपलब्धियां हैं. ये मूल्य ही भारतीय साहित्य की भारतीयता के नियामक तत्व हैं. 

संदर्भ : 

1. तुलनात्मक साहित्य की भूमिका – इंद्रनाथ चौधुरी, 1983, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास, टी.नगर, चेन्नई - 600017 

2. भारतीय साहित्य : अवधारणा, समन्वय एवं सादृश्य, (सं) जगदीश यादव, 2011, सिंघई पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-654, सेक्टर – 2, आर.एस.यूनिवर्सिटी, रायपुर - 492010 

3. कविता की जातीयता, डॉ.कविता वाचक्नवी, 2009, हिंदुस्तान एकेडेमी, 12 डी, कमला नेहरू मार्ग, इलाहाबाद – 211001 

4. भारतीय साहित्य की पहचान, (सं) डॉ.सियाराम तिवारी, 2009, नालंदा खुला विश्वविद्यालय, तीसरा तल, बिस्कोमान भवन, पश्चिमी गांधी मैदान, पटना - 800001

बसंत के स्वागत में

“सखि, वसंत आया.
भरा हर्ष वन के मन, 
नवोत्कर्ष छाया.

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, 
मधुप-वृंद बंदी – 
पिक-स्वर नभ सरसाया.”
 (निराला, सखि, वसंत आया, राग—विराग). 

वसंत ऋतुराज है. वसंत के आगमन के साथ साथ प्रकृति में नवोत्कर्ष छा जाता है. उसकी शोभा अनूठी है. आम बौराने लगता है और कोयल कूकने लगती है. निराला कहते हैं –

                                                     “फूटे हैं आमों में बौर,
भौंरे वन-वन टूटे हैं. 
  होली मची ठौर-ठौर 
    सभी बंधन छूटे हैं. 
        फागुन के रंग राग, 
                 बाग-बन फाग मचा है, 
                      भर गए मोती के झाग, 
                        जनों के मन लुटे हैं.”        
 (निराला, फूटे हैं आम में बौर, राग-विराग

वसंत का वर्णन करते हुए जयशंकर प्रसाद कहते हैं –

                                            “कुमुद विकसित हो गए जब चंद्रमा वह सज उठा
                                         कोकिल-कल-रव-समान नवीन नूपुर बज उठा
                                   प्रकृति और वसंत का सुखमय समागम हो गया
                                मंजरी रसमत्त मधुकर-पुंज का क्रम हो गया
                                         ****                             ****
                                        दृश्य सुंदर हो गए, मन में अपूर्व विकास था
                                            आतंरिक औ’ बाह्य सब में नव वसंत-विलास था.” 
                                                    (जयशंकर प्रसाद, नव वसंत, कानन कुसुम)

वासंती मौसम में सभी आनंदित होते हैं. आयु की कोई सीमा नहीं होती. ऐसे वसंत के बारे में अज्ञेय कहते हैं –

         “मलयज का झोंका बुला गया 
      खेलते से, स्पर्श से 
                     रोम रोम को कंपा गया 
                जागो जागो 
                                                                     जागो सखि ! वसंत आ गया, जागो.” 

बाबा नागार्जुन अपनी कविता ‘वसंत की अगवानी’ में कहते हैं –

“रंग-बिरंगी खिली-अधखिली 
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ 
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर 
झूम रही हैं... 
चूम रही हैं— 
कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !! 
इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !! 
तरुण आम की ये मंजरियाँ... 
*****                     ****** 
अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा 
अनुपल इनमें भरती जाती 
ललित लास्य की लोल लहरियाँ !! 
तरुण आम की ये मंजरियाँ !! 
रंग-बिरंगी खिली-अधखिली...” 

वसंत के आगम के पहले ‘संक्रांति’ का उत्सव मनाया जाता है. आंध्र में मकर संक्रांति के दिनों, सिर पर कुम्हड़े की आकृति का ताम्रपात्र रखकर तड़के भगवान का भजन गाते हुए गाँव में वैष्णव भक्त जिय्यर भिक्षाटन करने लगते हैं. उन्हें तेलुगु में ‘हरिदास’ कहते हैं. ‘संक्रांति’ के एक माह पहले से ही घर की छोटी कन्याएँ गोबर के गोल लौंदे बनाकर उन्हें कुम्हड़े और तुरई के फूलों से सजा कर हल्दी और चावल के चूर्ण की रंगवल्लियों से अलंकृत आंगनों में सजाती हैं. इन्हें तेलुगु में ‘गोब्बिल्लु’ कहते हैं. ऐसा लगता है कि मकर संक्रांति और वसंतोत्सव अखिल भारतीय पर्व हैं. तभी तो ‘मकर संक्रांति’ का वर्णन करते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा है – 

“अहो हरि नीको मकर मनाये. 
चित्र चमन धरि भले लाड़िले पुन्य समय घर आये. 
कहा परब कियो दियो दान रस तिल तन प्रगट लखाये. 
‘हरिचंद’ खिचरी से मिलि क्यों कि तिरबेनी न्हाये.” 

‘संक्रांति’ के एक माह के बाद ‘वसंत पंचमी’ मनाया जाता है. यह त्यौहार माघ महीने की पंचमी को होता है. इस दिन माँ सरस्वती की पूजा की जाती है. वसंत पंचमी ऋतुराज वसंत के आगमन का प्रथम दिन है. “वसंत बर्फ के पिघलने, गलने और अँखुओं के फूटने की ऋतु है। ऋतु नहीं, ऋतुराज। वसंत कामदेव का मित्र है। कामदेव ही तो सृजन को संभव बनाने वाला देवता है। अशरीरी होकर वह प्रकृति के कण कण में व्यापता है। वसंत उसे सरस अभिव्यक्ति प्रदान करता है। सरसता अगर कहीं किसी ठूँठ में भी दबी-छिपी हो, वसंत उसमें इतनी ऊर्जा भर देता है कि वह हरीतिमा बनकर फूट पड़ती है। वसंत उत्सव है संपूर्ण प्रकृति की प्राणवंत ऊर्जा के विस्फोट का। प्रतीक है सृजनात्मक शक्ति के उदग्र महास्फोट का। इसीलिए वसंत पंचमी सृजन की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा का दिन है।“ (रंग गई पग-पग धन्य धरा, ऋषभ देव शर्मा, साहित्यकुंज.नेट). ऐसे वसंत का चित्रण करते हुए जयदेव की एक अष्टपदी का भारतेंदु कृत अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है - 

“हरि बिहरत लखि रसमय बसंत. 
जो बिरही जन कहँ अति दुरंत. 
                             बृन्दाबन-कुंजनि सुख समंत. 
                               नाचत गावत कामिनी-कंत. 
लै ललित लवंगलता-सुबास. 
डोलत कोमल मलयज बतास. 
                               अलि-पिक-कलरव लहि आस-पास. 
                               रह्यौ गूँजि कुंज गहवर आवास. 
उन्मादित ह्वै तापी-मदन-ताए. 
मिलि पथिक बधू ठानहिं बिलाप. 
                              अलि-कुल कल कुसुम-समूह-दाप. 
                               बन सोभित मौलसिरी कलाप. 
मृगमद-सौरभ के आलबाल. 
सोभित बहु नव चलदल तमाल. 
                                 जुव-हृदय-बिदारन नख कराल. 
                                  फूलो पलास बन लाल लाल. 
बन फ्रफुल्लित केसर कुसुम आन. 
मनु कनक छुरी लिए मदन रान. 
                                     अलि सह गुलाब लागे सुहानु. 
                                       विष बुझे मैन के मनहू बान. 
नव नीबू फूलन करि विकास. 
जग निलज निरखि मनु करत हास. 
                                             तिमि बिरही हिय-छेदन हतास. 
                                             बरछी से केतकी-पत्र पास. 
लपटन इव माधविका सबास. 
फूली मल्ली मिलि करि उजास. 
                                            मोहे सुनिजन करि काम-आस. 
                                            लखि तरुन-सहायक रितु-प्रकास. 
पुसपित लतिका नव संग पाय. 
पुलकित बोराने आम आय. 
                                       लहि सीतल जमुना लहर बाय. 
                                        पावन वृंदावन रह्या सुहाय. 
जयदेव रचित यह सरस गीत. 
रितु-पति बिहारन हरि-जस पुनीत. 
                                       गावत जे करि ‘हरिचंद’ प्रति. 
                                       ते लहत प्रेम तजि काम-भीत.” 

वसंत में प्रकृति का नव शृंगार होता है. विविध पुष्पों से वन-उपवन, घर-आँगन, बाग-बगीचे सब सज उठते हैं. वासंती मौसम में चांदनी भी मन मोह लेती है. तेलुगु साहित्य के कवि सम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘वेयिपडगलु’ (सहस्रफण) में इसका सुंदर वर्णन किया है – “वसंत की शोभा अनूठी है. आम की कोंपलें प्रेयसी के हाथों की तरह बड़ी प्यारी लगती हैं. ..... सूर्यास्त हुआ. फिर चांदनी आई. तमाल-वृक्ष के पल्लवों पर पड़कर चांदनी ऐसी चमक उठी, मानो बाल-गोपाल के शरीर पर प्रसारित हो रही हो. माकंद पल्लवों पर चांदनी ऐसी रेंग रही थी, मानो स्वामी के कटाक्षों से घुल-मिल रही हो, पुन्नाग के पुष्प-गुच्छों पर प्रसारित होकर चांदनी ऐसी लगी, मानो ग्वालबाल जगन्नाथ के कान की बाली के इर्द-गिर्द मंडरा रहे हों. कुरंटक के पल्लवों को स्पर्श करके चांदनी रक्तिम हो गई, मानो नंदनंदन के सुमनोहर नखों का अनुकरण कर रही हो. जम्बू-तरु के पल्लवों से घुल-मिलकर चांदनी भगवान कृष्ण के सर में सजे मोर-पंख की छटा उगलने लगी. बिल्व-पत्रों पर इधर-उधर बिखरकर चांदनी मानो विष्णु चरण धोने की अभिलाषा में झुककर विनम्रता प्रदर्शित करने लगी. शमी वृक्ष की टहनियों पर झूला-झूलती हुई चांदनी मानो शिवजी की दृष्टि की भांति तेजस्विनी बन गई. पके केलों के पृष्ठों पर रेंगकर चांदनी स्वामी के चरणों में नैवेद्य बनाने की इच्छा का मूर्तिमान निरूपण-सी दृग्गोचर हुई. चंपक की पकी पंखुड़ियों में घुसकर मोटी से जटिल बाल गोपाल के नासापुट की भांति भक्तजनों के आह्लाद का कारण बनी. मलय मारुत से संस्पर्शित नारिकेल के कुसुमों में मिलकर चांदनी ऐसी लगी मानो वृन्दनाथ के शरीर में लेप किया हुआ चंदन सूखकर झड़ रहा हो. अमलतास के पल्लवों को छूकर चांदनी पीतांबर की छटा उगलने लगी. फूटे हुए कपास के फल चांदनी में पांचजन्य से भासने लगे. फूटे हुए धतूरे के फूल सुदर्शन चक्र की भांति और पकी हुई केतकी की पंखुड़ियाँ नन्दक खड्ग की भांति चांदनी में भास रही थीं.” 

आरंभ में हम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उल्लेख कर चुके हैं. उन्होंने वसंत पंचमी को अपना जन्मदिन घोषित किया. वसंत निराला की प्रिय ऋतु है. वे कहते हैं कि संपूर्ण धरा वसंत में राग रंजित हो उठती है– 

“रंग गई पग-पग धन्य धरा, - 
हुई जग जगमग मनोहरा.” 
वर्ण गंध धर, मधु-मरंद भर, 
तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर 
खुली रूप-कलियों में पर भर 
स्तर-स्तर सुपरिसरा.” 

निराला ने अपनी कविता ‘जुही की कली’ में वासंती निशा की चर्चा इस प्रकार की है -

“विजन-वन-वल्लरी पर 
सोती थी सुहाग-भरी – स्नेह-स्वप्न-मग्न – 
अमल-कोमल-तनु तरुणी – जुही की कली, 
दृग बंद किए, शिथिल, - पत्रांक में, 
वासंती निशा थी; 
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़ 
किसी दूर देश में था पवन 
जिसे कहते हैं मलयानिल.” 
(निराला, जुही की कली, राग-विराग). 

निराला बार बार वसंत का आह्वान करते हैं –

“आओ, आओ फिर, मेरे वसंत की परी –
छबि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर-भर, अंबर की सुंदरी
छबि-विभावरी!” (निराला, वसंत की परी के प्रति, राग-विराग)

वसंत पंचमी के बाद ‘रथ सप्तमी’ का पर्व मनाया जाता है. इस दिन सूर्य भगवान की विशेष पूजा की जाती है. तदुपरांत वसंत का सबसे अद्भुत पर्व आता है होली. भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं – 

“लाल फिर होरी खेलन आओ. 
फेर वहै लीला को अनुभव हमको प्रगट दिखाओ. 
फेर संग लै सखा अनेकन राग धमारहि गाओ. 
फेर वही बंसी धुनि उचरौ फिर वा डफहि बजाओ. 
फेर वही कुंज बहै वन बोली फिर ब्रज-बास बसाओ.” 

मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ के नवम सर्ग में यूँ कहा है –

“काली काली कोइल बोली –
होली-होली-होली !
हंस कर लाल लाल होठों पर हरियाली हिल डोली,
फूटा यौवन, फाड़ प्रकृति की पीली पीली चोली.
होली-होली-होली !
****                  ****
रागी फूलों ने पराग से भर ली झोली,
और ओस ने केसर उनके स्फुट-सम्पुट में घोली.
होली-होली-होली !”

वसंत ऋतु सबके जीवन में उमंग और उल्लास भर दे ! इसी शुभकामना के साथ - 

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

व्यतिरेकी भाषाविज्ञान के आधार एवं उपयोगिता

  • व्यतिरेकी विश्लेषण अंग्रेज़ी के ‘कॉन्ट्रास्टिव एनालिसिस’ शब्द का हिंदी पर्याय है. 
  • वूर्फ़ नामक विद्वान ने भाषाओं की भिन्नताओं पर प्रकाश डालने वाले तुलनात्मक अध्ययन के लिए ‘व्यतिरीकी विश्लेषण’ (कॉन्ट्रास्टिव एनालिसिस) शब्द का प्रयोग किया है. 
  • व्यतिरेकी भाषाविज्ञान अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की शाखा है.
  • प्रत्येक भाषा किसी न किसी अन्य भाषा से जहाँ कुछ बिंदुओं पर समानता रखती है वहीं उनमें कुछ संरचनात्मक असमानताएँ भी अवश्य प्राप्त होती हैं। 
  • दो भाषाओं की संरचनात्मक व्यवस्था के मध्य प्राप्त असमान बिंदुओं को उद्घाटित करने के लिए व्यतिरेकी विश्लेषण का प्रयोग किया जाता है। 
  • व्यतिरेकी भाषाविज्ञान भाषा शिक्षण की व्यावहारिक पद्धति है. 
  • इसमें किसी भाषा युग्म के समानताओं और व्यतिरेकों के बारे में विश्लेषण करके भाषा को सुगम बनाने पर जोर दिया जाता है. 
  • इसे  ‘कॉन्ट्रास्टिव लिंग्विस्टिक्स कहते हैं और कभी कभी डिफरेंशियल लिंग्विस्टिक्स भी कहा जाता है. 
  • व्यतिरेकी भाषाविज्ञान का उदय द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सैनिकों को उन देशों की भाषाएँ सिखाने के उद्देश्य से हुआ जहाँ वे लड़ने जा रहे थे. 
  • अन्य भाषा शिक्षण की बढ़ती माँग ने ही व्यतिरेकी भाषाविज्ञान को जन्म दिया है. 
  • इसको एक व्यवस्थित शाखा के रूप में विकसित कराने का श्रेय अमेरिकी भाषाविज्ञानियों – चार्ल्स सी. फ्रीज और राबर्ट लेडो को जाता है. 
  • 1957 में प्रकाशित राबर्ट लेडो (31 मई, 1915 - 11 दिसंबर, 1995) की पुस्तक ‘लिंग्विस्टिक्स एक्रास कल्चर्स’ व्यतिरेकी भाषाविज्ञान का आकर ग्रंथ माना जाता है. 
  • व्यतिरेकी भाषाविज्ञान से पाठ्यक्रम के निर्माता तथा शिक्षक अपने कार्यों को योजनाबद्ध कर सकते हैं और सुनिश्चित पाठ्य सामग्री तैयार कर सकते हैं, पाठ्य बिंदुओं का चयन कर सकते है, शिक्षार्थी की कठिनाईयों को जान सकते हैं, त्रुटियों को दूर कर सकते हैं. 
व्यतिरेकी विश्लेषण : परिभाषाएँ 

Ø किन्हीं दो चीज़ों की तुलना करते हुए उनमें विषमता का विश्लेषण करना व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है. 

Ø दोनों भाषाओं की व्यवस्थित तुलना के द्वारा समान, असमान और अर्धसमान तत्वों के कारण भाषा शिक्षण में व्याघात की स्थिति पैदा होती है. अतः इस व्याघात की स्थिति को दूर करने के लिए व्यतिरेकी विश्लेषण की सहायता ली जाती है. (difficulties in learning a language can be predicted on the basis of a systematic comparison of the system of the learner’s first language (its grammar, phonology and lexicon) with the system of a second language.) - राबर्ट लेडो, चार्ल्स सी. फ्रीज 

Ø Contrastive Analysis is a linguistic enterprise aimed at producing inverted (i.e. contrastive, not comparative) two – valued typologies (a C.A. is always concerned with a pair of languages), and founded on the assumption that languages can be compared. – Carl James 

Ø In the study of foreign language learning, the identification of points of structural similarity and difference between two languages is defined as Contrastive Analysis. – Crystal 

Ø Contrastive Analysis is an inductive investigative approach based on the distinctive elements in the language. 

Ø Contrastive Analysis is a device or predicting points of difficulty and some of the errors that learners will make. – Otler 

Ø Contrastive Analysis is a branch of applied linguistics devoted to the investigation of the ‘gravitational pull of mother tongue’ as a factor in second language learning. – N.Krishnaswamy 

Ø Contrastive Analysis is a method of analyzing the structure of any two languages with a view to estimate the differential aspects of their systems, irrespective of their genetic affinity of level of development. – Dr.V.Geetha Kumari  

Ø ध्वनि, लिपि, व्याकरण, शब्द, अर्थ, वाक्य और संस्कृति जैसे विभिन्न स्तरों पर दो भाषाओं की संरचनाओं की परस्पर तुलना कर उनमें समान और असमान तत्वों का विश्लेषण करना व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है. – प्रो.सूरजभान सिंह 

Ø दो या दो से अधिक भाषाओं के सभी स्तरों पर तुलनात्मक अध्ययन द्वारा समानताओं और असमानताओं के निकालने को व्यतिरेकी विश्लेषण कहते हैं. – डॉ.भोलानाथ तिवारी 

Ø भाषा विश्लेषण की यह तकनीक, जिसके द्वारा भाषाओं में व्यतिरेक इंगित किया जाता है, व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाती है. – डॉ.ललित मोहन बहुगुणा 

Ø भाषा विश्लेषण में जहाँ दो भाषाओं में व्यतिरेक/ असमानताएँ सूचित की जाती हैं, यह व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है. – डॉ.शंकर बुंदेले 

व्यतिरेकी विश्लेषण : उपयोगिता 

  • अन्य भाषा शिक्षण के लिए पाठ्य सामग्री निर्माण करना. 
  • स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा में निहित समानताओं और असमानताओं की तुलना करके पाठ्य बिंदुओं का चयन करना. 
  • शिक्षार्थी की शिक्षण समस्याओं को समझना. 
  • शिक्षण विधियों का आविष्कार करना. 
  • त्रुटियों का निदान करना. 

व्यतिरेकी विश्लेषण : उद्देश्य 

व्यतिरेकी विश्लेषण के मुख्य उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ.सूरजभान सिंह ने अपनी पुस्तक ‘अंग्रेज़ी-हिंदी अनुवाद व्याकरण’ में निम्नलिखित तथ्यों को स्पष्ट किया है - 

  • दो भाषाओं के बीच असमान और अर्धसमान तत्वों का पता लगाना, जिससे भाषा सीखने या अनुवाद करने में उन स्थलों पर ख़ास ध्यान दिया जा सकता है जहाँ असमान संरचनाओं के कारण त्रुटि या मातृभाषा व्याघात की संभावना अधिक होती है. 
  • व्यतिरेकी विश्लेषण के परिणामों से अनुवादक स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के उन संवेदनशील स्थलों का पहले से अनुमान कर सकता है जहाँ असमान संरचनाओं तथा नियमों के कारण अनुवादक मातृभाषा व्याघात या अन्य कारणों से गलती कर सकता है. इस प्रकार वह लक्ष्य भाषा की संरचना और शैली की स्वाभाविक प्रकृति को पहचान कर कृत्रिम और असहज अनुवाद से बच सकता है. 
  • व्यतिरेकी विश्लेषण के फलस्वरूप उसे एक से अधिक समानार्थी अभिव्यक्तियाँ उपलब्ध होती है, जिससे वह संदर्भ के अनुसार उपयुक्त विकल्प का चयन कर सकता है और अनुवाद में मूल पाठ की सूक्ष्म अर्थ छटाओं को सुरक्षित रख सकता है. 
  • एम.जी.चतुर्वेदी के अनुसार मातृभाषा अथवा लक्ष्य भाषा व्याघात के विश्लेषण के लिए, दो भाषाओं की तथा उनकी संरचनाओं के सभी स्तरों पर तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए, दोनों भाषाओं के समान, अर्धसमान तथा असमान प्रयोगों को पहचानने के लिए, पाठ्यक्रम निर्माण के लिए, त्रुटि विश्लेषण के लिए और लक्ष्य भाषा शिक्षण के लिए व्यतिरेकी विश्लेषण का प्रयोग होता है. 

व्यतिरेकी भाषाविज्ञान की मूल स्थापनाएँ 

  • अन्य भाषा शिक्षण में भाषा सीखने वाले की स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा में निहित व्यतिरेकों की तुलना. 
  • अन्य भाषा शिक्षण के लिए सबसे अधिक प्रभावी सामग्री वही है जो भाषा सीखने वाले की स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा का व्यतिरेकी विश्लेषण समान रूप से वैज्ञानिक पद्धति से करने में सक्षम हो तथा सही पाठ्य बिंदुओं का चयन कर सके. 
  • जो शिक्षक शिक्षार्थी की स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा की वैज्ञानिक पद्धति से तुलना करने की क्षमता रखता है, वह शिक्षार्थी की शिक्षण समस्याओं को बेहतर ढंग से समझ सकता है और समस्याओं का समाधान कर सकता है. 

वस्तुतः विविध प्रमुख भाषाओं के संरचनाओं का व्यतिरेकी विश्लेषण किया जाता है. यह विश्लेषण अनेक स्तरों पर कर सकते हैं. जैसे – दोनों भाषाओं की ध्वनि व्यवस्था, व्याकरण, शब्दावली एवं लेखन व्यवस्थाओं की तुलना प्रस्तुत करना. इस तुलना का मुख्य उद्देश्य दोनों भाषाओं में निहित ऐसी समानताओं और असमानताओं पर प्रकाश डालना, दोनों भाषाओं को सीखने वालों में पैदा होने वाली मनोवैज्ञानिक उलझनों को दूर करना. 

व्यतिरेकी विश्लेषण : अनुप्रयोग का क्षेत्र 

व्यतिरेकी विश्लेषण का प्रयोग मुख्यतः भाषा शिक्षण और अनुवाद में होता है. वस्तुतः व्यतिरेकी विश्लेषण का जन्म भाषा शिक्षण के संदर्भ में हुआ. 

(1) भाषा शिक्षण 

डॉ.भोलानाथ तिवारी का कथन है कि “प्रायः यह समझा जाता है कि व्यतिरेकी विश्लेषण से अन्य भाषा शिक्षण में ही सहायता मिलती है, किंतु मातृभाषा शिक्षण में भी यह उपयोगी है क्योंकि कक्षा में भाषा का मानक स्वरूप ही सिखाया जाता है. इस संदर्भ में ध्यान देना चाहिए कि जिन उपभाषाओं/ बोलियों के क्षेत्रों से विद्यार्थी आ रहे हैं और उनमें क्या समानताएँ/ असमानताएँ हैं. उसे भाषा के शुद्ध प्रयोगों से परिचित कराना है, स्वीकृत वाक्य रचना का प्रयोग करना सिखाना है. अतः व्यतिरेकी विश्लेषण अन्य भाषा शिक्षण में ही नहीं, मातृभाषा शिक्षण में भी उपयोगी सिद्ध होता है. 

(2) अनुवाद 

व्यतिरेकी विश्लेषण और अनुवाद दोनों का ही संबंध दो भाषाओं से होता है – एक स्रोत भाषा और दूसरी लक्ष्य भाषा. अनुवाद में स्रोत भाषा पाठ को लक्ष्य भाषा में रूपांतरित किया जाता है जबकि व्यतिरेकी विश्लेषण में स्रोत भाषा की संरचना का लक्ष्य भाषा की संरचना के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है. इसके बाद दोनों भाषाओं की व्यतिरेकों/ भिन्नताओं को स्पष्ट किया जाता है. स्रोत भाषा के किसी कथन के लिए लक्ष्य भाषा में जब एकाधिक समानार्थक विकल्प सामने आते हैं, तब अनुवादक उपयुक्तता के आधार पर किसी एक विकल्प का चयन करता है. 

राबर्ट लेडो द्वारा प्रतिपादित छह मानदंड  

विकल्प चयन की  प्रक्रिया में व्यतिरेकी विश्लेषण का ही आश्रय लिया जाता है. अतः व्यतिरेकी विश्लेषण को अनुवाद का साधन माना जाता है. भाषाविद् राबर्ट लेडो द्वारा प्रतिपादित छह मानदंड निम्नलिखित हैं – 

(1) रूप एवं अर्थ में समानता 

(2) रूपगत समानता और अर्थगत भिन्नता 

(3) रूपगत भिन्नता एंव अर्थगत समानता 

(4) भिन्न रूप एंव भिन्न अर्थ वाले शब्द 

(5) समान रूप और भिन्न रूपरचना एंव सहप्रयोग वाले शब्द 

(6) समान कोशीय एवं भिन्न लक्ष्यार्थ वाले शब्द 


Ø रूप एवं अर्थ में समानता 

इस वर्ग में उन शब्दों को रखा जाता है जो स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा में ध्वनि अथवा लिपि तथा अर्थ के स्तर पर समान होते हैं. इस वर्ग में आने वाले शब्द समान अथवा भिन्न मूल के हो सकते हैं. जैसे -कोठी, शहर, दीवार, कमरा, सन्नाटा आदि. 

Ø रूपगत समानता और अर्थगत भिन्नता 

दो भाषाओं में प्राप्त समतुल्य शब्दों के मध्य कभी-कभी सूक्ष्म अर्थ समानता होती है तो कभी सूक्ष्म भिन्नता दृष्टिगत होती है. अनेक शब्दों में पूर्ण अर्थगत भिन्नता भी दिखाई देती है. शोध के क्रम में कुछ ऐसे शब्द प्राप्त हुए हैं जिनमें रूपगत समानता किंतु अर्थगत भिन्नता व्याप्त है. 

शब्द                                                         अर्थ 

                                          हिंदी                                  उर्दू 

सहन                              बर्दाश्त करना                      आँगन 

सुदूर                               अधिक दूर                        जारी होना 

बेल                            एक प्रकार का फल                फावड़ा / कुदाल 

माली                      बाग का रखवाला                         धन संबंध 

Ø रूपगत भिन्नता एंव अर्थगत समानता 

दो भाषाओं के मध्य पाए जाने वाले ऐसे शब्द जिनमें रूपगत भिन्नता एवं अर्थगत समानता होती है, इस वर्ग में रखे जाते हैं. एक ही भाषा के इस प्रकार के शब्दों को पर्यायवाची की संज्ञा दी जाती है. 

हिंदी                     उर्दू                 अंग्रेज़ी 

पेड़                  दरख़्त                 Tree 

जाँच               मुआयना         To Check 

Ø भिन्न रूप एंव भिन्न अर्थ वाले शब्द 

प्रत्येक भाषा के शब्द-समूह का एक बड़ा भाग उस भाषिक समुदाय की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है. प्रत्येक भाषा-भाषी के खान-पान, वेश-भूषा, विचार, रीति, मान्यता तथा धार्मिक सोच से जुड़े ये शब्द हर भाषा के अपने होते है. भिन्न रूप एंव भिन्न अर्थ’ वर्ग के शब्द सांस्कृतिक परिस्थिति से ही संबंध रखते हैं. इन शब्दों को लक्ष्य भाषा का बोलने वाला पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ होता है. यथा — 

हिंदी — पूजा, ब्रह्मचारी, सन्यासी, नवरात्र, पतिव्रता आदि. 
उर्दू — बुर्का, काज़ी, ताबूत, मज़ार, नमाज आदि. 
अंग्रेज़ी – Altar, Prayer, Priest etc

उपर्युक्त भाषाओं के शब्दों पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि इस वर्ग में आने वाले शब्दों के मध्य हिंदी-उर्दू-अंग्रेज़ी में समानता नहीं है. इन शब्दों का यथावत प्रयोग किया जाता है चूँकि इन भाषाओं में सांस्कृतिक भिन्नता है इसलिए उनकी सांस्कृतिक शब्दावली में भी भिन्नता मिलती है. 

Ø समान रूप और भिन्न रूपरचना एंव सहप्रयोग वाले शब्द 

प्रायः भाषाओं में कतिपय ऐसे शब्द प्राप्त होते हैं जिनमें रूप एवं अर्थ के स्तर पर समानता होती है परंतु रूपरचना व सहप्रयोग के स्तर पर असमानता दृष्टिगत होती है. 

Ø दोनों भाषाओं में बहुवचन के दो रूप मिलते हैं - सामान्य और विकारी — 

हिंदी  -  एकवचन – मंजिल, मकान, कागज़
        बहुवचन - साधारण – मंजिलें, मकान, कागज़ 
                विकारी – मंजिलों, मकानों, कागजों 

उर्दू   -   एकवचन – मंज़िल, मकान, कागज़ 
                 बहुवचन - साधारण – मंज़िलें, मकान, कागज़ 
                                                  मनाज़िल, मकानात, कागज़ात
                                  विकारी – मंजिलों, मकानों, कागज़ों 

अंग्रेज़ी -  एकवचन – Destination, House, Paper 
               बहुवचन  – Destinations, Houses, Papers 

ऊपर दिए गए उर्दू बहुवचन शब्द हिंदी बहुवचन बनाने के नियम से भिन्न हैं प्रायः उर्दू के कुछ शब्द जो कि हिंदी में भी प्रयुक्त होते हैं. उन शब्दों को हिंदी भाषी या जिन व्यक्तियों को उर्दू का सूक्ष्म ज्ञान है वे लोग उर्दू शब्द में ‘ओ’ विकारी प्रत्यय का प्रयोग बहुवचन बनाने के लिए करते हैं, यथा ‘काग़ज़’ उर्दू शब्द है जिसका बहुवचन ‘काग़ज़ात’ होता है किंतु हिंदी में ‘काग़ज़ात’ के स्थान पर ‘कागजों’ बहुवचन का प्रयोग किया जाता है. 

‘मुहावरे’ प्रत्येक भाषा का एक अभिन्न अंग हैं. अरूढ़िगत सहप्रयोग से मुहावरे विशेष अर्थ को प्रस्तुत करते हैं. मुहावरों का अनुवाद करना एक जटिल कार्य है. हिंदी के मुहावरे पेट में चूहे कूदना, अपनी खिचड़ी अलग पकाना आदि का अनुवाद करना संभव नहीं है. इसी प्रकार उर्दू के मुहावरों का अनुवाद भी कठिन है, जैसे— बुत बन जाना, हलफ़ उठाना, ज़ख़्म पर नमक छिड़कना, ईद का चाँद होना, तालीम हुक़्म करना आदि. अंग्रेज़ी भाषा की प्रकृति इन दोनों भाषाओं से भिन्न है. अतः अंग्रेज़ी मुहावारों और लोकोक्तियों को भी लक्ष्य भाषा में अनूदित करना कठिन कार्य है. जैसे – Adam’s Apple, Herculean Task, 

सहप्रयोग के उपवर्ग में पुनरुक्ति का महत्वपूर्ण योगदान होता है. किसी शाब्दिक इकाई का पुनः पूर्ण या आंशिक प्रयोग जो कि नए अर्थ का बोध कराए उसे पुनरुक्ति की संज्ञा दी जाती है. 

1. पूर्ण पुनरुक्ति 

इस वर्ग में दो समान शब्दों का प्रयोग किया जाता है और पूरी रचना से एक नया अर्थ दिखाई देता है, जैसे — 

हिंदी                                          उर्दू 

कभी-कभी                   बाज़-औक़ात / गाहे-ब-गाहे 

धीरे-धीरे                      आहिस्ता-आहिस्ता 

जल्दी से जल्दी                जल्द-अज़-जल्द 

2. आंशिक पुनरुक्ति 

जब शब्द के किसी भाग को पुनः प्रयोग में लाया जाए तो यह प्रक्रिया आंशिक पुनरुक्ति कहलाती है, उदाहरणार्थ— 

हिंदी                                         उर्दू

अपने-आप                     ख़ुद-ब-ख़ुद

बात-चीत                      गुफ़्तगू / बात-चीत

हल्का-फुल्का                 हल्का-फुल्का

आल्थी-पाल्थी             आलती-पालती 

समान कोशीय एवं भिन्न लक्ष्यार्थ वाले शब्द 

प्रायः भाषाओं में अनेक ऐसे शब्द पाए जाते हैं जो अपने मूल अर्थ से भिन्न या अधिक अर्थ का बोध कराते हैं. हिंदी-उर्दू में इस प्रकार के कई उदाहरण दृष्टिगत होते हैं जो अपने मूल अर्थ से भिन्न या अधिक अर्थ का बोध कराते है. 

‘मामू’ शब्द नाते-रिश्ते की शब्दावली में माँ के भाई के लिए प्रयोग में आता है जब कि मुम्बइया हिंदी में या बोलचाल की हिंदी में पुलिस वालों को ‘मामू’ कहा जाता है। 

‘हफ़्ता’ शब्द का अर्थ सप्ताह होता है किंतु अपराध जगत में ‘अवैधानिक रूप से लिए गए कर’ को हफ़्ता कहते है. 

हिंदी धातु ‘फेंक’ का बोलचाल की भाषा में भिन्न लक्ष्यार्थ में प्रयोग मिलता है, यथा — वह फेंक रहा है. यहाँ ‘फेंक’ का अर्थ ‘गप मारना’ है. 

उपर्युक्त उदाहरणों से ज्ञात होता है कि समान कोशीय एंव भिन्न लक्ष्यार्थ वाले शब्दों के स्तर पर हिंदी-उर्दू में समानता एंव असमानता विद्यमान है. इस वर्ग में आने वाले शब्दों का अनुवाद करना एक जटिल कार्य है क्योंकि ऐसे शब्द अपने मूल अर्थ से भिन्न लक्ष्यार्थ का बोध कराते हैं. 

दो बोलियों के प्रयोगकर्ता जब परस्पर वार्तालाप करते समय एक दूसरे का आशय के साथ-साथ उन बोलियों का साधिकार प्रयोग करने में समर्थ होते हैं तो यह स्थिति ‘पारस्परिक बोधगम्यता’ (Mutual Intelligibility) के नाम से जानी जाती है. दो बोलियों के मध्य यह स्थिति मिलती है किंतु दो भाषाओं के बीच ‘पारस्परिक बोधगम्यता’ नहीं होती है. वास्तव में ‘पारस्परिक बोधगम्यता’ का अभाव ही दो भाषाओं की स्वतंत्र अस्मिता का परिचायक कहा जाता है. 

अतः यह कहा जा सकता है कि व्यतिरेकी विश्लेषण वह आधार है जिसके माध्यम से दो भाषाओं की संरचनाओं को इस तरह आमने - सामने रखा जा सकता है कि उनमें निहित व्यतिरेकों का शिक्षार्थी आसानी से समझ सकें ताकि अन्य भाषा सीखते समय मातृभाषा के कारण उत्पन्न होने वाली त्रुटियों को दूर किया जा सके.

संदर्भ ग्रंथ 
व्यतिरेकी भाषाविज्ञान  - विजयराघव रेड्डी
व्यतिरेकी भाषाविज्ञान - भोलानाथ तिवारी 
अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान - रवींद्रनाथ श्रीवास्तव 

भारतीय साहित्य की अवधारणा

[प्रो. ऋषभ देव शर्मा के कक्षा-व्याख्यान पर आधारित]

मनुष्य विविध देशकाल में भाषा, साहित्य और संस्कृति का सृजन और विकास करता आया है जिसमें अनेक प्रकार की विविधताएँ, भिन्नताएँ और समानताएँ पाईं जाती हैं. इन भिन्नताओं और समानताओं का अध्ययन क्रमशः व्यतिरेकी अध्ययन और तुलनात्मक साहित्य की दिशा में प्रेरित करता है. मैथ्यू आर्नल्ड ने इसी आधार पर तुलनात्मक विश्व साहित्य की संकल्पना प्रस्तुत की थी. उनके अनुसार आलोचक को विश्व साहित्य में जो कुछ भी श्रेष्ठतम और महनीय है उसका अध्ययन, मनन और प्रचार करना चाहिए ताकि प्राणवान और सत्य विचारों की धारा प्रवाहित की जा सके. ऐसा करने से विभिन्न भाषाओं के साहित्य में विद्यमान समान मूल्यों को खोजा जा सकता है.

भारतीय साहित्य की पहचान : एकता और आत्मज्ञान : 

विश्व साहित्य की भाँति ही तुलनात्मक अध्ययन का एक बहुत व्यापक क्षेत्र भारतीय साहित्य है. वस्तुतः साहित्य मनुष्य की आतंरिक अनुभूतियों और संवेदनाओं का अभिव्यक्त रूप होता है. यह माना जाता है कि मानव की आतंरिक भावनाएँ समान होती हैं. उसकी महसूस करने तथा भाव प्रकट करने की शक्ति भी सार्वभौमिक है. शोक, हर्ष, घृणा, क्रोध, प्रेम और वात्सल्य जैसे अनेक भाव विश्व मानव में समान पाए जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप साहित्य का मूलभूत ढाँचा सभी भाषाओं में एक-सा ही दिखाई देता है. यदि भारत की बात की जाए तो यह ध्यान में रखना होगा कि यह देश बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश है. अर्थात भारत की अलग-अलग भाषाओं में जो साहित्य लिखा गया है या लिखा जा रहा है उसमें थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ अधिकतर एकता या समानता की स्थिति दिखाई पड़ती है. विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य की यह एकता या समानता ही भारतीय साहित्य की अवधारणा का केंद्रबिंदु है. इसी के साथ पांडेय शशि भूषण शीतांशु का यह मत भी जोड़ लें तो बात और भी परिपूर्ण  हो जाएगी कि "भारतीय साहित्य का अर्थ हुआ आत्मज्ञान को सृजित करने, प्रस्तुत करने और प्रदान करने वाला साहित्य."

भारतीय साहित्य का विस्तार/ व्यापकता : 

भारतीय साहित्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत और व्यापक है. प्रो.दिलीप सिंह के अनुसार, “भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन 22 भाषाओं और बोलियों का उल्लेख है, उनका साहित्य अत्यंत संवृद्ध है और यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो इन सभी भाषाओं में साहित्यिक धाराएं लगभग समानांतर रूप में प्रवाहित मिलती हैं. इसके साथ ही इन सभी भाषाओं का राष्ट्रीय चेतना और उसमें आने वाले परिवर्तनों के साथ एक-सा संबंध रहा है तथा ये सभी राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे परिवर्तनों से एक-सा प्रभावित रही हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत की सभी भाषाएँ और उनका साहित्य भी एकता के सूत्र में बंधा हुआ प्रतीत होता है इसीलिए भारत की इन भिन्न भाषाओं में लिखे गए साहित्य को भारतीय साहित्य कहा गया है.” 

यहाँ यह जानना आवश्यक है कि साहित्यिक धारा, विचारधाराएँ, प्रवृत्तियाँ और सामाजिक सरोकार के धरातल पर भारतीय साहित्य में जो समानताएँ मिलती हैं उन्हें ‘भारतीयता’ (Indianness) के तत्व या घटक कहा जा सकता है. 

भारतीय साहित्य और सामासिक संस्कृति : 

भारतीय साहित्य की यह अंतर्निहित भारतीयता भारत की संस्कृति का प्रतिबिंब है. भारत की सांस्कृतिक विभिन्नता में विद्यमान एकता को महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु, सर्वेपल्ली राधाकृष्णन और डॉ.राजेंद्र प्रसाद आदि ने बड़ी सूक्ष्मता से पहचाना है. ऊपर से हमें भारत के अलग-अलग प्रांतों और समुदायों की संस्कृति में कुछ भेद दिखाई देते हैं लेकिन यदि गहराई से देखा जाए तो संस्कृति के मूलाधार भारत के सभी समुदायों में समानता लिए हुए दिखाई देते हैं. यदि रीति-रिवाज, पूजा-पाठ, मेले-त्यौहार, शिष्टाचार, खानपान को संस्कृति का सामान्य आधार माना जाए तो भारतीय साहित्य की तरह ही भारतीय संस्कृति की भी अवधारणा स्पष्ट हो सकती है. मुस्लिम शासकों तथा यूरोपियन शासकों के आगमन से भारतीय संस्कृति को कुछ नए आयाम भी मिले. ऐसी स्थिति में भारतीय संस्कृति का स्वरूप केवल हिंदू संस्कृति तक सीमित न रहकर विस्तृत हुआ. ये बाहरी संस्कृतियाँ क्रमशः भारत की मूल संस्कृति में घुलने मिलने लगीं और मिली-जुली संस्कृति का अनूठा मिश्रण तैयार हुआ जिसका प्रभाव सभी भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य पर पड़ा. 

यह स्पष्ट  है कि भाषा और साहित्य दोनों के भीतर उस भाषा समाज के सांस्कृतिक तत्व गुँथे रहते हैं. इसलिए तुलनात्मक भारतीय साहित्य का एक आयाम इन सांस्कृतिक तत्वों की समानता और विषमता के विवेचन का भी हो सकता है. जैसा कि राबर्ट फॉर्स्ट ने कहा था कि मनुष्य के स्वभाव में चिंतन की प्रवृत्ति के साथ साथ तुलना की प्रवृत्ति भी जैविक स्तर पर ही निहित होती है इसलिए साहित्य के क्षेत्र में भी तुलना स्वाभाविक है. तुलनात्मक भारतीय साहित्य इसी प्रवृत्ति का प्रतिफलन है. 

भारतीय साहित्य : परंपरा का महत्व : 

भारतीय साहित्य के स्वरूप निर्धारण में विभिन्न भाषाओं के साहित्य की परंपरा के अध्ययन का बड़ा महत्व है. उदाहरण के लिए जब हम सूरदास के काव्य का अध्ययन करते हैं तो पीछे जाकर उस परंपरा को भी देखते हैं जो मध्यकाल में एक व्यापक प्रवृत्ति के रूप में पूरे भारत को उसकी सभी भाषाओं को प्रभावित किए हुए थी. इसी प्रकार मध्यकालीन रामकथा की परंपरा को समझने के लिए वाल्मीकि की रामायण’, कालिदास के ‘रघुवंश’ और भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ को देखना जरूरी है. यही नहीं आधुनिक काल में भी अनेक साहित्यिक कृतियाँ अपनी मूल प्रेरणा प्राचीन वाङ्माय से प्राप्त करती हैं. यही कारण है कि भारतीय साहित्य के आकर ग्रंथों के रूप में ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘कथा सरित्सागर’ का समान रूप से उल्लेख किया जाता है. परंपरा के अध्ययन से ही हम उन कारणों और परिणामों की सटीक व्याख्या कर पाते हैं जो विभिन्न साहित्यों में पाई जाने वाली एक समान प्रवृत्तियों से जुड़े हैं. हम देखते हैं कि नवजागरण काल में सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में कमोबेश एक जैसी आधुनिक चेतना का प्रसार हुआ. यही वह काल था जब भारत ने सदियों पुराणी सामाजिक और राजनैतिक गुलामी के कारणों को पहचानकर उनसे मुक्त होना शुरू किया. बंगला में बंकिमचंद्र चटर्जी और रवींद्र नाथ टैगोर, हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, तमिल में सुब्रह्मण्य भारती और तेलुगु में गुरजाडा अप्पाराव जैसे रचनाकारों की एक समान का चेतना का आधार यह नवजागरण था. इसी प्रकार जिस काल में हिंदी साहित्य छायावादी चेतना से अनुप्राणित था उसी काल में तेलुगु की भाववादी कविता भी वैसी ही चेतना से स्फूर्त थी. हिंदी में प्रगतिवाद और तेलुगु में अभ्युदय का आगमन एक साथ हुआ – अन्य सभी भारतीय भाषाओं में भी ऐसा ही हुआ. भारतीय साहित्य का अध्ययन करते हुए हम ऐसे ही समान प्रेरणा बिंदुओं, सरोकारों और प्रवृत्तियों को रेखांकित करते हैं. 

कुलमिलाकर जैसा कि सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने आर्केस्ट्रा का दृष्टांत देकर समझाया था कि जिस प्रकार भिन्न-भिन्न वाद्य लेकर वाद्यवृंद मंच पर आता है तो उसमें भिन्नता दिखाई देती है लेकिन जब सभी वादक अपने अपने वाद्य पर एक ही राग छेड़ते हैं तो भिन्नता का यह भाव मिट जाता है और एकता स्थापित हो जाती है. भारतीय साहित्य वस्तुतः साहित्य के माध्यम से इसी सामासिक संस्कृति अथवा भारतीयता की खोज करता है.

संदर्भ ग्रंथ - 
१. शोध प्रविधि- डॉ. दिलीप सिंह एवं डॉ. ऋषभ देव शर्मा; 
२.तुलनात्मक साहित्य की भूमिका -डॉ.इंद्र नाथ चौधुरी . 
३. आलोचना के सिद्धांत - डॉ.शिवदान सिंह चौहान.  
४. भारतीय साहित्य : अवधारणा, समन्वय और सादृश्यता - जगदीश यादव.