गुरुवार, 22 नवंबर 2012

महात्मा गांधी की हिंदी निष्ठा : दिनकर की दृष्टि से

गत दिनों (14 अक्टूबर 2012 को) दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (मद्रास) का 75 वाँ दीक्षांत समारोह चेन्नई में संपन्न हुआ. इस अवसर पर ‘अमृत स्मारिका’ का प्रकाशन किया गया है. हिंदी के प्रचार-प्रसार में दक्षिण भारत के लोगों एवं दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के योगदान को रेखांकित करने वाले आलेखों को इस स्मारिका में संकलित किया गया है. यह स्मारिका वास्तव में संग्रहणीय बन पड़ी है. इस दस्तावेजी संकलन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इसका प्रथम आलेख ‘गांधीजी और हिंदी प्रचार’ जिसके लेखक डॉ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं. 

राष्ट्रकवि दिनकर ने इस निबंध में यह याद दिलाया है कि गांधी युग से पूर्व स्वामी दयानंद और स्वामी श्रद्धानंद ने हिंदी को राष्ट्रभाषा और शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया था. 1918 में जब महात्मा गांधी हिंदी साहित्य सम्मलेन के इंदौर अधिवेशन के सभापति चुने गए तो उन्होंने दक्षिण में हिंदी के प्रचार के बारे में गहराई से विचार-विमर्श किया. उन्होंने महसूस किया कि अंतःप्रांतीय व्यवहार, राष्ट्रीय गतिविधि, कांग्रेस के अधिवेशन और उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी को स्वीकार करना अपरिहार्य है क्योंकि ऐसा करके ही भारत के जनसाधारण तक पहुँचा जा सकता है. गांधी जी इस विषय में कितने गंभीर थे इसका पता 29 मार्च 1918 के उनके भाषण से लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि यह भाषा का विषय बड़ा भारी और बड़ा ही महत्वपूर्ण है; यदि सब नेता सब काम छोड़कर इसी विषय पर लगें तो बस है. उन्होंने आगे जो बात कही उसे आज भी व्यावहारिक रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा था, ‘हमें ऐसा उद्योग करना चाहिए कि एक वर्ष में राजकीय सभाओं में, कांग्रेस में, प्रांतीय भाषाओं में और अन्य समाज और सम्मेलनों में अंग्रेज़ी का एक भी शब्द सुनाई नहीं पड़े. हम अंग्रेज़ी का व्यवहार बिलकुल त्याग दें. आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें.’ 

‘दिनकर’ जी ने आगे बताया है कि महात्मा गांधी हिंदी और उर्दू को दो अलग भाषाएँ नहीं मानते थे. उन्हें हिंदी न तो एकदम संस्कृतमयी स्वीकार थी और न एकदम फारसी से लदी ही. उनके लिए आदर्श हिंदी वह थी जिसे जनसमूह सहज में समझ लें. इसीलिए उन्होंने देहाती बोली को मधुर और अकृत्रिम माना. वे चाहते थे कि लिपि चाहे अरबी रहे अथवा नागरी, भाषा का रूप देहाती बोली वाला ही रहना चाहिए जो गंगा-यमुना के संगम सा शोभित और अचल रह सकता है. ‘दिनकर’ जी ने यह भी याद दिलाया है कि गांधी जी चाहते थे कि इस भाषा में फारसी और संस्कृत के प्रचलित शब्द सहज भाव से स्वीकार किए जाएँ ताकि यह हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन सके. इसे उन्होंने भारतवासियों की अंग्रेज़ी के मोह से मुक्ति के लिए भी आवश्यक माना. गांधी जी मानते थे कि अंग्रेज़ी का ज्ञान भारतवासियों के लिए बहुत आवश्यक है लेकिन किसी भाषा को उसका उचित स्थान देना एक बात है और उसकी जड़-पूजा करना दूसरी. इस संदर्भ में ‘दिनकर’ जी जोर देकर कहते हैं कि अंग्रेज़ी का उचित स्थान इस देश में लैंग्वेज ऑफ काम्प्रिहेंशन अथवा ज्ञान की एक भाषा भर का हो सकता. इसके अलावा शिक्षा और शासन के सारे कार्य भारतीय भाषा (जनता की भाषा) में होने चाहिए. आगे उन्होंने पुनः गांधी जी को उद्धृत किया है कि जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं. 

दरअसल 1918 का इंदौर सम्मलेन हिंदी आंदोलन के लिए ही नहीं भारतीय संस्कृति की सामासिकता की दृष्टि से भी ऐतिहासिक महत्व का है. इस सम्मलेन में गांधी जी ने राष्ट्रभाषा की अपनी अवधारणा तो प्रस्तुत की ही यह प्रस्ताव भी रखा कि प्रति वर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने को प्रयाग जाएँ और हिंदी भाषा-भाषी 6 युवकों को दक्षिणी भाषाएँ सीखने तथा साथ साथ वहाँ हिंदी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएँ.  दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना पर कुछ वर्ष तक इस प्रकार का आदान-प्रदान चला भी, लेकिन बाद में रुक गया. लगभग एक शताब्दी बाद आज भी यह योजना उतनी ही प्रासंगिक और जरूरी है. अब इस आदान-प्रदान योजना में पूर्वोत्तर भारत को भी शामिल करना जरूरी है और संख्या को भी 6 के बजाय 60 से 600 तक बढ़ाया जा सकता है. इस प्रकार हिंदी के जो स्वयंसेवक तैयार होंगे वे भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रचारक बन सकेंगे. 

अपने आलेख में डॉ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने एक रोचक वाकये का जिक्र करते हुए लिखा है कि गांधी जी ने अपने सतत चलने वाले प्रचार से देश में वह हवा पैदा कर दी कि राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में वक्ता जब अंग्रेज़ी में भाषण शुरू करते, तब अहिंदी-भाषी श्रोता भी ‘हिंदी-हिंदी’ का नारा लगाने लगते थे. इस नई हवा का असर देश के बड़े लोगों पर भी पड़ने लगा. 6 अप्रैल सन 1920 ई. को भावनगर (सौराष्ट्र) में गुजराती साहित्य परिषद का छठा अधिवेशन हुआ, जिसके सभापति श्री रवींद्रनाथ ठाकुर थे. इस सम्मेलन में अपना अध्यक्षीय भाषण गुरुदेव ने हिंदी में दिया था. भाषण के मुखबंध में उन्होंने कहा था कि “आपकी सेवा में खड़ा होकर विदेशीय भाषा कहूँ, यह हम चाहते नहीं. पर जिस प्रांत में मेरा घर है, वहाँ सभा में कहने लायक हिंदी का व्यवहार है नहीं. महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिंदी में कहने के लिए. यदि हम समर्थ होते, तब इससे बड़ा आनंद कुछ होता नहीं. असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिंदी में बोलूँगा.” यही नहीं, यह सूचना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि 1925 में हिंदी साहित्य सम्मलेन के भरतपुर अधिवेशन में भी गुरुदेव पधारे थे और हिंदी में बोलकर हिंदी के पक्ष का समर्थन किया था. इतना ही नहीं ‘दिनकर’ जी ने इस आलेख में यह भी रेखांकित किया है कि ऐनी बसंट, महाकवि सुब्रह्मण्य भारती, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और ऐसी ही अनेक महापुरुषों की भाँति ई.वी.रामस्वामी नायकर (पेरियार) भी हिंदी प्रचार के अत्यंत उत्साही समर्थक रहे हैं. 

हम पुनः कहना चाहेंगे कि ‘दिनकर’ जी का उक्त आलेख ऐतिहासिक धरोहर के समान है जिसे ‘अमृत स्मारिका’ में प्रकाशित करके दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने आज की पीढ़ी की आँख खोलने का काम किया है. इस हेतु अमृत स्मारिका के प्रधान संपादक श्री आर.एफ.नीरलकट्टी एवं प्रबंध संपादक श्री आर. राजवेल अभिनंदनीय हैं. हमारे विचार से इस सामग्री का प्रचार-प्रसार भारत भर में किया जाना चाहिए. 

महात्मा गांधी का भाषा-विमर्श


”भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जनसमूह सहज में समझ ले. देहाती बोली सब समझते हैं. भाषा का मूल करोड़ों मनुष्य रूपी हिमालय में मिलेगा और उसमें ही रहेगा. हिमालय में से निकलती हुई गंगाजी अनंतकाल तक बहती रहेगी, ऐसे ही देहाती हिंदी का गौरव रहेगा और छोटी-सी पहाड़ी से निकलता हुआ झरना सूख जाता है, वैसे ही संस्कृतमयी और फ़ारसीमयी हिंदी की दशा होगी.” - महात्मा गांधी 

गांधी जी ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जिसमें न कोई हिंदू होगा, न मुसलमान, न सिख, न ईसाई और न दलित. होंगे तो केवल इंसान होंगे जिनका धर्म होगा इंसानियत. इंसानियत को व्याख्यायित करने की या परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है चूंकि वह स्वयं सिद्ध है. लेकिन आज उस इंसानियत को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, राष्ट्र के नाम पर, भाषा के नाम पर टुकड़ों में, खेमों में बाँट दिया गया है. आज प्रजातंत्र ‘For the people, Of the people and By the people’ न होकर ‘Far the people, Off the people and Buy the people’ बनता जा रहा है. एक हद तक बन भी गया है. गांधी जी का सपना (रामराज्य स्थापित करने का) महज सपना बनकर रह गया है.

महात्मा गांधी के विचारों की जड़ें भारतीय संस्कृति से रस ग्रहण करती हैं. उनके व्यक्तित्व में एक विलक्षणता और अद्भुत शक्ति थी जिससे देश-विदेश के लोग प्रभावित थे. वे अक्सर यह कहा करते थे कि गांधीवाद जैसा कोई वाद नहीं है. और यह सही भी है क्योंकि उनके व्यावहारिक चिंतन को वाद की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता. इस संदर्भ में उनका कथन द्रष्टव्य है – “गांधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है और न ही मैं अपने पीछे कोई संप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ. मैं कदापि यह दावा नहीं करता कि मैंने किन्हीं नए सिद्धांतों को जन्म दिया है. मैंने तो अपने निजी शाश्वत सत्यों को दैनिक जीवन और उसकी समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्न मात्र किया है. मैंने जो समितियाँ बनाई हैं और जिन परिणामों पर मैं पहुँचा हूँ वे अंतिम नहीं है. मैं उन्हें बदल भी सकता हूँ. मुझे संसार को कुछ नया नहीं सिखाना है. सत्य और अहिंसा इतने ही पुराने हैं जितनी ये पहाडियाँ. मैंने तो केवल व्यापक आधार पर सत्य और अहिंसा के आचारण में जीवन और उसकी समस्याओं का अनेक विधियों से परीक्षण किया है. अपनी सहज जन्मजात प्रकृति से मैं सच्चा तो रहा हूँ और अहिंसक नहीं. सत्य तो यह है कि सत्य मार्ग की खोज में ही मैंने अहिंसा को ढूँढ़ निकाला. मेरा दर्शन जिसे आपने गांधीवाद का नाम दिया है सत्य और अहिंसा में निहित है, आप इसे गांधीवाद के नाम से न पुकारें, क्योंकि इसमें ‘वाद’ तो नहीं है.” (डॉ.लक्ष्मी सक्सेना, समकालीन भारतीय दर्शन, पृ.89 से उद्धृत).

अपने सत्य और अहिंसा के इस व्यावहारिक चिंतन को महात्मा गांधी ने सूत्र रूप में 'हिंद स्वराज' में बहुत बेबाकी से व्यक्त किया है। उन्होंने अन्य विषयों के साथ अपने भाषा चिंतन की भी व्याख्या इसमें की है। स्मरणीय है कि राजनेता के अलावा एक पत्रकार और भाषा चिन्तक के रूप में भी गांधी जी ने भारतीयों को गहरे प्रभावित किया। वे हिंदी साहित्य सम्मलेन और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कार्यकलापों से बराबर सक्रिय रूप में जुड़े रहे तथा उनके भाषा विमर्श का स्वतंत्र भारत के भाषा नियोजन पर गहरा प्रभाव है, “मात्र हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के साहित्येतिहास और कालविभाजन में ‘गांधी युग’ अपनी अलग पहचान और अपना व्यापक प्रभाव लिए हुए व्याख्यायित है.” (प्रो.दिलीप सिंह, गांधी, प्रेमचंद और हम; ‘स्रवन्ति’, अक्टूबर 2010; पृ.4). गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ में पाठक-संपादक की शैली में स्वराज्य, इंग्लैंड की हालत, सभ्यता का दर्शन, हिंदुस्तान की दशा, उसकी आजादी की संभावनाएँ, हिंदू-मुस्लिम संबंध, राजनैतिक और आर्थिक विकेंद्रीकरण, पत्रकारों की आचार संहिता, शिक्षा, भाषा, सत्य और अहिंसा जैसे अनेकानेक विषयों का खुलासा किया है. मैं यहाँ विशेष रूप सेगांधी जी की भाषा संबंधी मान्यताओं पर प्रकाश डालना चाहूँगी.

गांधी जी ने हिंदी भाषा के विकास के लिए जो कुछ भी किया है वह अतुलनीय है. उन्होंने यह महसूस किया कि पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए तथा स्वराज्य प्राप्त करने के लिए एक ऐसी भाषा की जरूरत है जो 'हिंद' की होगी – हिंदुस्तान की होगी. इस संबंध में वे कहते हैं कि “हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेज़ी नहीं बल्कि हिंदी है. वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे.” (महात्मा गांधी, हिंद स्वराज, नया ज्ञानोदय, अंक 82, दिसंबर 2009 (101 वीं वर्षगाँठ पर ‘हिंद स्वराज’ की अविकल प्रस्तुति), पृ. 112). उन्होंने देश के साथ साथ हिंदी सेवा के लिए अपने आपको समर्पित किया. हिंदी के प्रचार-प्रसार करने और उसे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने चेन्नई (मद्रास) में 1918 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की. “’राष्ट्रभाषा’ को राष्ट्रीय एकात्मकता और स्वतंत्रता संग्राम का एक हथियार बनाकर पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का जो स्वप्न महात्मा गांधी ने देखा था, उनके इसी स्वप्न की परिणति दक्षिण भारत में सभा की स्थापना से हुई. इसकी भूमिका 1918 (इंदौर के आठवें अधिवेशन) में बनी, जिसमें महात्मा गांधी ने हिंदी के विस्तार का व्रत अपने विधायक कार्यक्रम में उसे राष्ट्रभाषा बनाकर लिया और इसके लिए उन्होंने व्यापक पैमाने पर देशव्यापी प्रयत्न किए.” (प्रो.दिलीप सिंह, ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’, हिंदी भाषा चिंतन, पृ.265).

महात्मा गांधी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक संगठन और संस्थाओं की स्थापना की. वे वस्तुतः 'हिंदुस्तानी' के पक्षधर थे. उन्होंने अंग्रेज़ी मोह के आवरण को हटाकर हिंदी का - विशेष रूप से हिंदुस्तानी का पक्ष लिया और कहा कि “हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं. यह राष्ट्रीय होने लायक है. वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है जिसे अधिक संख्यक लोग जानते और बोलते हों और सीखने में सुगम हो.” (गोपाल शर्मा, ‘हिंदी और गांधी’, राजभाषा हिंदी : विचार और विश्लेषण, पृ.98 से उद्धृत). 

हिंदी गांधी जी की मातृभाषा नहीं थी. परन्तु उन्होंने यह महसूस किया कि भारतीय जनता हिंदी का प्रयोग अधिक करती है तो अत्यंत तत्परता से उन्होंने हिंदी सीखी. उनका मत था कि जिस देश की अपनी भाषा नहीं उसे जीने का अधिकार क्या हो सकता है! इसीलिए उन्होंने भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही यह सन्देश दिया था कि दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेज़ी नहीं जानता. उन्होंने कहा कि ''अपनी भाषा को तोतली बोलोगे तो भी वह मीठी लगेगी. विदेशी भाषा में न कभी सच्ची स्वाभाविकता पा सकोगे न सही तेजस्विता. हिंदी के बिना राष्ट्र गूंगा है.” लेकिन भारतीय जनगण का दुर्भाग्य रहा कि गांधी के बाद हमें उनके जैसा कोई भारतीय भाषाओं से प्रेम अर्ने वाला या भारतीय ज़मीन से जुडा नेता नहीं मिला; और हिंदी राजभाषा होकर भी अंग्रेज़ी की गुलामी से मुक्त नहीं हो सकी। 

गांधी जी मातृभाषा के पक्षधर थे. उनका मत था कि स्वदेशी भाषा और संस्कृति की बलि देकर अंग्रेज़ी नहीं सीखनी चाहिए. उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को आगे बढ़ाया . उनके अनुसार बुनियादी शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए . उनका यह कथन भाषा विषयक उनकी तड़प का द्योतक है – “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए दी जाने वाली हमारे लड़कों और लड़कियों की शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरंत बदलवा दूँ या उन्हें बर्खास्त कर दूँ. मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इंतज़ार नहीं करूँगा. वे तो माध्यम के पीछे पीछे अपने आप चली आएंगी. यह एक ऐसी बुराई है जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए.” गांधी जी इस बात पर बल देते थे कि “जो लोग अंग्रेज़ी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए, उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिए. ... हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए. ... जो अंग्रेज़ी पुस्तकें काम की हैं उनका अपनी भाषा में अनुवाद करना होगा. ... हर एक पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फ़ारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए. कुछ हिंदुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए. उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए. सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिंदी ही होनी चाहिए. उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए. हिंदू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए बहुत से हिन्दुस्तानियों का इन दोनों लिपियों को जान लेना ज़रूरी है. ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार से अंग्रेज़ी को निकाल सकेंगे.” (महात्मा गांधी, हिंद स्वराज, नया ज्ञानोदय, अंक 82, दिसंबर 2009 (101 वीं वर्षगाँठ पर ‘हिंद स्वराज’ की अविकल प्रस्तुति), पृ. 109).

गांधी जी बार बार हिंदी पर जोर देते थे. अंग्रेज़ी के बारे में तो उनका स्पष्ट मत था कि वह भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती. 20 अक्टूबर 1917 को भरूच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा परिषद में राष्ट्रभाषा के लिए उन्होंने पाँच लक्षणों का होना अनिवार्य बताया था –
1. अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए.
2. उस भाषा के द्वरा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए.
3. यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत-से लोग उस भाषा को बोलते हो.
4. राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए.
5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अल्प स्थायी स्थिति पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए.” 

गांधी जी ने यह भी बताया कि ये लक्षण अंग्रेज़ी में नहीं है बल्कि हिंदी में है तथा हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं. यह राष्ट्रीय होने लायक है. हिंदी भाषा के बारे में स्पष्ट करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि “हिंदी मैं उसे कहता हूँ जिसे उत्तरी भारत में हिंदू तथा मुसलमान बोलते हैं तथा जो नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है. हिंदी तथा उर्दू दो अलग अलग भाषाएँ नहीं हैं. शिक्षित लोगों ने उनमें अंतर कर रखा है.” 

निष्कर्षतः महात्मा गांधी के भाषा संबंधी कतिपय सूत्र  –
  • हिंदी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है. हमने वर्षों पहले उसका राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग किया है. उर्दू भी हिंदी की इस शक्ति से पैदा हुई है. (20 अक्टूबर 1917 को भरूच में संपन्न दूसरी गुजरात शिक्षा परिषद का अध्यक्षीय भाषण.)
  •  हमें एक मध्य भाषा की भी जरूरत है. देशी भाषाओं की जगह पर नहीं परंतु उनके सिवा. इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होना चाहिए, जो हिंदी और उर्दू के मेल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की और न फारसी और अरबी की ही बरमार हो. (वही).
  •  हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देशी भाषाओं की कई लिपियाँ है. अगर एक सामान्य लिपि अपनाना संभव हो, तो एक सामान्य भाषा का हमारा जो स्वप्न है (अभी तो यह स्वप्न ही है) उसे पूरा करने के मार्ग की एक बड़ी बाधा दूर हो जाएगी. (वही).
  • भिन्न भिन्न लिपियों का होना कई तरह से बाधक है. वह ज्ञान की प्राप्ति में एक बड़ी रुकावट है. (वही).
  • मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिन्दुस्तानी की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए. (वही).
  • हमें एक सामान्य भाषा की वृद्धि करनी होगी. अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रांतीय लिपि के साथ साथ मैं सब प्रान्तों में देवनागरी लिपि और उर्दू लिपि का सीखना अनिवार्य कर दूँ और विभिन्न देशी भाषाओं की मुख्य मुख्य पुस्तकों को उनके शब्दशः हिन्दुस्तानी अनुवाद के साथ देवनागरी में छपवा दूँ. (वही). 
  •  करोड़ों लोगों को अंग्रेज़ी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी. (हिंद स्वराज्य)
  •  जिस शिक्षा को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया है वह हमारा सिंगार बनती है, यह जानने लायक है. उन्हीं के विद्वान कहते रहते हैं कि उसमें यह अच्छा नहीं है, वह अच्छा नहीं है. वे जिसे भूल-से गए हैं, उसी से हम अपने अज्ञान के कारण चिपके रहते हैं. उनमें अपनी अपनी भाषा की उन्नति के कोशिश चल रही है. वेल्स इंग्लैंड का एक छोटा-सा परगना है; उसकी भाषा धूल जैसी नगण्य है. ऐसी भाषा का अब जीर्णोद्धार हो रहा है. वेल्स के बच्चे वेल्श भाषा में ही बोलें, ऐसी कोशिश वहाँ चल रही है. इसमें इंग्लैंड के खजांची लॉयड जॉर्ज बड़ा हिस्सा लेते हैं. और हमारी दशा कैसी है? हम एक-दूसरे को पत्र लिखते हैं तब गलत अंग्रेज़ी में लिखते हैं. एक साधारण एम.ए. पास आदमी भी ऐसी गलत अंग्रेज़ी से बचा नहीं होता. (वही).
  • अंग्रेज़ी शिक्षा को लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है. अंग्रेज़ी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैराह बढ़े हैं. अंग्रेज़ी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है. (वही).
  • हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेज़ी जानने वाले लोग ही हैं. राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी. (वही).
  • हिंदी सुधार (सभ्यता) सबसे अच्छा है, और यूरोप का सुधार तो तीन रोज का तमाशा. (वही).
  •  भारत के गाँवों में हिंदी भाषा के द्वारा ही सेवा संभव है. आज लोगों को राष्ट्रभाषा हिंदी सीख लेने की प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए. (वही).
  • मैं अंग्रेज़ी से नफरत नहीं करता पर मैं हिंदी से अधिक प्रेम करता हूँ. इसलिए मैं हिन्दुस्तान के शिक्षितों से कहता हूँ कि वे हिंदी को अपनी भाषा बना लें. (वही).
  • लिपियों में मैं सबसे आला दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ. यह कोई छिपी बात नहीं है फिर नागरी लिपि यदि संपूर्ण है तो उसी का साम्राज्य अंत में होगा. (वही).
यह आलेख 'भास्वर भारत' के प्रवेशांक (अक्टूबर 2012) में 'गांधी जी की राय में एक राष्ट्रभाषा से अधिक एक राष्ट्रलिपि की आवश्यकता' शीर्षक से प्रकाशित  हुआ है.

शनिवार, 10 नवंबर 2012

कथाकार अशोक भाटिया का ''कथा-कथन'' 11 नवंबर को



हैदराबाद, 10 नवंबर 2012.
कुरुक्षेत्र [हरियाणा] से हैदराबाद पधारे कवि एवं लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया के सम्मान में नवोदित मासिक पत्रिका ''भास्वर भारत'' के तत्वावधान में रविवार, 11 नवंबर को अपराह्न 3 बजे से खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में ''कथा-कथन'' कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. कार्यक्रम की अध्यक्षता अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व-हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. एम. वेंकटेश्वर करेंगे तथा नगरद्वय के विशिष्ट साहित्यकार उपस्थित रहेंगे.आयोजकों ने सभी साहित्यप्रेमियों से अनुरोध किया है  यथासमय पधार कर ''कथा-कथन'' का रसास्वादन करें और अपनी गरिमामयी उपस्थिति से कार्यक्रम को सफल बनाएँ.

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

शिक्षा में भाषा और भाषा में शिक्षा

संप्रेषण की बहुमुखी व्यवस्था का नाम है – भाषा. वह सोचने-विचारने का माध्यम है और सामाजिक संस्था भी है. साहित्यिक साधन के साथ साथ वह शिक्षा का भी साधन और साध्य दोनों है. उसमें जहाँ संपूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधने की शक्ति है वहीं देश को टुकड़ों में, खेमों में तोड़ने की शक्ति भी है. इस संदर्भ में सर्वप्रथम स्मरणीय तथ्य यह है कि भाषा हमारी धरोहर है. हर व्यक्ति सहज रूप से दैनंदिन जीवन में पल पल भाषा का प्रयोग करता है. मातृभाषा के रूप में हो या प्रथम भाषा के रूप में, द्वितीय भाषा के रूप में हो या विदेशी भाषा के रूप में. मनुष्य को जैविक जंतु से सामाजिक-सांस्कृतिक प्राणी बनाने का माध्यम वस्तुतः भाषा ही है. भाषा के बिना मानव अस्तित्व की कल्पना करना भी असंभव है. अतः किसी भी सभ्य-संस्कृत समाज में भाषा के प्रति व्यापक दृष्टिकोण अपनाना अपरिहार्य होता है. 

यह सर्वविदित है कि भाषा एकरूपी न होकर विषमरूपी है. समाज में अनेक भाषाएँ तो हैं ही, एक भाषा भी अनेक रूपों में प्रचलित होती है. लचीलापन उसका एक प्रमुख गुण है. भाषा के बारे में अनेक विचार प्रचलित हैं. मानव शिशु सहज रूप से भाषा अर्जित करता है. इसी प्रवृत्ति के आधार पर उसे ‘इन्नेट टेंडेंसी’ कहा गया है. भाषा वस्तुतः समाज की संस्कृतिवाहिनी है. 

सस्यूर ने अपने भाषा चिंतन में कई मूलभूत प्रश्न उठाए थे. उनकी मान्यता थी कि ‘भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है अतः उसको समझने के लिए प्रतीकों से संबंधित विज्ञान के अध्ययन का रास्ता अपनाना होगा.’ सस्यूर का दृष्टिकोण भाषा को ‘मानवीय व्यवहार’ के रूप में देख सका. चॉम्स्की ने भाषा और उसके अध्ययन को संज्ञानवाद (Cognitism) अर्थात मनुष्य की ज्ञान अर्जन की प्रकृति से जोड़ा. उनके अनुसार 'भाषा अपनी आतंरिक प्रवृत्ति में मानव मन का दर्पण है और सार्वभौमिक व्याकरण का अध्ययन इसीलिए मानव मन की बोधात्मक क्षमता का अध्ययन है.' उन्होंने भाषा व्यवस्था (Language Competence, Lang) को भाषा व्यवहार (Language Performance, Parole) से अधिक महत्व दिया है.

लेबॉव ने भाषा को 'शुद्ध भाषिक प्रतीकों की व्यवस्था न मानकर, सामाजिक प्रतीकों की एक उपव्यवस्था' के रूप में परिभाषित किया. उन्होंने भाषिक विकल्पन (Language Variation) की संकल्पना को समझाया. हैलिडे ने वाक् भेद (Speech Variety) का व्यापक अध्ययन किया. उन्होंने इसके कुछ प्रकार भी निर्धारित किए - सामाजिक वाक् भेद (Social Dialect or Sociolect), क्षेत्रीय वाक् भेद (Regional Dialect or Regional Style), प्रयोजनमूलक वाक् भेद (Functional Styles - Domains & Registers). डेल हाइम्स ने 'भाषा में संस्कृति का संबंध' प्रतिपादित करते हुए यह स्थापित किया कि 'भाषा का संबंध भाषा समाज के मनोविज्ञान से भी होता है अतः भाषा व्यवहार तो सांस्कृतिक होता ही है, भाषा द्वारा संपन्न सांस्कृतिक व्यवहार का भी मनोविज्ञान होता है.' उन्होंने भाषा में संस्कृति की संकल्पना को सुदृढ़ करने के लिए 'होम मेड मॉडल' (लोक संस्कृति) को महत्व दिया.  

कहने का मतलब है कि भाषा समाज और संस्कृति से जुड़ी है, इसमें दो राय नहीं. शिक्षा और भाषा की बात करते समय याद रखने की बात यह भी है कि भारत बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश है. इस देश में लंबी अवधि से हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियाँ भाषा संपर्क से जुड़ी हैं. इन दोनों संस्कृतियों के समन्वय का परिणाम ही हिंदी भाषा की हिन्दुस्तानी शैली में देखा जा सकता है. भाषा पढ़ते-पढ़ाते समय यदि साहित्य भाषा के सांस्कृतिक शैली भेदों पर भी ध्यान दिए जाए तो यह पद्धति सांस्कृतिक एकता के बोध का आधार बन सकती है. 

इस संबंध में प्रो.दिलीप सिंह की मान्यता है कि "किसी भी मनुष्य के लिए दर्शन, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आवश्यक होता है. किसी समाज में जन्म लेते ही वह इनसे स्वतः बंध जाता है. भाषा क्योंकि मानव समाज की संपत्ति है अतः उसमें भी ये तीनों अंतर्भुक्त होते हैं - भाषा दर्शन, भाषा का समाजशास्त्र और भाषा समाज का मनोविज्ञान भाषा के व्यावहारिक विकल्पों में गुंथे होते हैं. इसलिए भाषा एक बहुआयामी यथार्थ है, एक सामाजिक यथार्थ. साहित्य भी क्योंकि भाषाबद्ध होता है, इसलिए उसमें भी ये तीनों घुले-मिले रहते हैं. रचनाकार सामान्य भाषा को हीरे की तरह तराश कर एक ऐसा बहुकोणीय आकार देता है कि भाषा में निहित ये तीनों पक्ष प्रकाशित होने लगते हैं. हम एक शिक्षक के रूप में भाषा संरचना और भाषा सिद्धांत की जानकारी रख सकते हैं या साहित्यिक पाठ की विषयवस्तु जान सकते हैं. पर उद्देश्य बाधित भाषा-२ शिक्षण की मूलचिंता यह है कि हम शिक्षार्थी को यह सब पूर्णता में कैसे दें. कोई भी भाषा कभी न तो निःसंगत (Isolation) में पैदा होती है और न ही निःसंगत में हम उसका प्रयोग करते हैं. अतः साहित्यिक भाषा को निःसंगत में डाल कर प्रस्तुत करना शिक्षार्थी की दक्षता को अधूरा और सीमित बनाना है. भाषा महत्वपूर्ण है, पर भाषा शिक्षण में जयादा महत्वपूर्ण यह है कि हम भाषा को पढ़ाएँ कैसे? इसी तरह साहित्य की विषयवस्तु महत्वपूर्ण है पर साहित्य शिक्षण की दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम यह कैसे दिखाएँ कि वह गठित कैसे हुई तथा उसमें कौन कौन से समाज-सांस्कृतिक तत्व मथे हुए हैं. साहित्य शिक्षण प्रक्रिया में भी अनुदेश (Instruction), संज्ञान (Cognition) और आभ्यंतरीकरण (Internalization), ये तीनों चरण महत्वपूर्ण होने चाहिए. भाषा शिक्षण के अधुनातन चिंतन में 'क्या, कैसे और कब' पढ़ाया जाए, इस बात को पाठ्य सामग्री और शिक्षण गतिविधि में अपनाने की अच्छी स्थिति आज बन चुकी है, पर साहित्य शिक्षण में हम आज भी 'क्या' पर तो जोर देते है (वह भी लेखक के नाम, पाठ की विषयवस्तु और विधागत प्रतिनिधित्व के आधार पर ही ज्यादा, पाठों के अनुस्तरण और शिक्षण बिंदु के आधार पर कम) लेकिन 'कैसे और कब' पर लगभग नहीं के बराबर. शिक्षक की सजगता का अर्थ है यह जानना कि प्रत्येक भाषा अपने अनुभव संसार को ढंग से संयोजित और व्यक्त करती है. भौतिक धरातल पर ये तथ्य भले ही एक हों किंतु बोधन के धरातल पर किसी भाषा समाज द्वारा अपनी विशिष्ट सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि के कारण ये नए संदर्भ में ग्रहण किए जाते हैं. अर्थात संसार को देखने की प्रत्येक भाषा समाज की जीवन जगत के प्रेरित दृष्टि एवं उसकी समग्र जीवन पद्धति की जानकारी के अभाव में प्रायः असंभव है." 

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम बात को समझें कि स्वभाषा की शिक्षा के साथ ही स्वभाषा के माध्यम से शिक्षा हमारे व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए परम आवश्यक है. अतः फिर से ऐसा आंदोलन छेड़ा जाना चाहिए जिसका लक्ष्य शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को प्रतिष्ठित करना हो. साथ ही द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषी छात्रों को दक्षिण या पूर्वोत्तर की भाषाएँ पढ़ाई जाएँ ताकि सांस्कृतिक ऐक्य की लक्ष्य-सिद्धि हो सके. तीसरी भाषा के रूप में अंग्रेज़ी अथवा अन्य विदेशी भाषाएँ पढ़ी-पढ़ाई का सकती हैं.