बुधवार, 22 दिसंबर 2021

'समकालीन साहित्य विमर्श' से गुजरते हुए डॉ गोपाल शर्मा

'समकालीन साहित्य विमर्श' से गुजरते हुए
डॉ गोपाल शर्मा


गुर्रमकोंडा नीरजा की पुस्तक ‘समकालीन साहित्य विमर्श’ में क्या है? कोई भी विषय क्रम देखकर पता लगा सकता है। कोई विद्योत्तमा पूछे “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः” तो वह इस पुस्तक में प्रथमतः प्रस्तुत की गईं रमेश चन्द्र शाह की शुभाशंसा और दिविक रमेश की भूमिका पढ़कर जान सकती है।

यह युग विमर्शों का है। यह युग उन विमर्शों का है जिनको अब तक विमर्श के बाहर रखा जाता रहा। इस दृष्टि से यह पुस्तक उन विमर्शों का सोदाहरण प्रस्तुतीकरण है। 24 आलेख हैं और लगभग सभी इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में लिखे या प्रकाशित हुए हैं। पुस्तक में कुल पाँच खंड हैं – हरित, किन्नर, स्त्री, लघुकथा और विविधा। यदि कोई इन्हें कविता के शिल्प में रखे तो कहेगा –

हरित किन्नर स्त्री विविधा लघुकथा।
विमर्शों से पुस्तक को इस तरह बांधा।


कविता बनाई है तो बने बनाए एक शेर को पेश करने में क्या हर्ज़ है ?

ये दुनिया है यहाँ असली कहानी पुश्त पर रखना।
लबों पर प्यास रखना और पानी पुश्त पर रखना॥


पता नहीं कौन लिख कर चला गया किंतु लगता है कि ठीक ही लिखा था। पुस्तक है ही ऐसी संज्ञा, इसके आने से पुश्त दर पुश्त विचारों का संचरण जो होता है। क्या ‘पुस्तक’ इसका ही स्वरूप है?

नहीं, पुस्तक में विचार होते हैं और ये विचार ही तो सब कुछ हैं। जैसा लेखिका आभार प्रकट करते समय कहने से चूकती नहीं, "यह आलेखों का समुच्चय है।" और इस वाक्य को पूर्ण अर्थ देता है, यह कथन – सभी में अध्येता के सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक मुद्दों पर विशेष आग्रह है।

इसलिए लेखिका के द्वारा चाहे ‘हरित विमर्श’ की बात की गई हो या ‘किन्नर विमर्श’ की ये तीन मुद्दे रेखांकित किए जा सकते हैं – सामाजिक, भाषिक और सांस्कृतिक। क्रम कुछ भी हो कमल की पंखुड़ियों की तरह जब ज्ञान का शतदल कमल खिलता है तब उनका प्रकाशन इसी तरह पुस्तकाकार में होता है। लेखिका में सैद्धांतिक विवेचन के अनुप्रयोग की अद्भुत और अनूठी क्षमता है यह तो उनकी पूर्व प्रकाशित कृति 'अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख' (2015) से पता चल ही गया था। अब उन्होंने यह भी दिखा दिया है कि वे भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के अनुप्रयोग में ही सिद्धहस्त नहीं हैं वे साहित्य के विविध विमर्शों को भी उसी शिद्दत और सहजता से कलमबंद कर सकती हैं ।


यहाँ मैं कुछ सूत्र सूक्तियों में पहले लेखिका के सैद्धांतिक आग्रह को प्रस्तुत करूँगा -

हरित विमर्शजब तक मनुष्य प्रकृति पर्यावरण के साथ घनिष्ठ आत्मीय संबंध का निर्वाह करता है तब तक पर्यावरण के लिए कोई खतरा नहीं होता। ( पृष्ठ 20)

यदि प्रदूषण को नहीं रोका गया तो प्राकृतिक संपदा के साथ-साथ मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी से मिट सकता है। ( पृष्ठ 28)

किन्नर विमर्श 
21 वीं सदी की पूर्वोक्त कृतियों को किन्नर विमर्श का नया उत्थान कह सकते हैं। इस दौर की इन रचनाओं में समाजशास्त्रीय शोध पद्यति का प्रयोग किया गया है। और कहीं-कहीं तो ये रचनाएँ रिसर्च की रिपोर्ट जैसी लगती हैं। ( पृष्ठ 42)

लेकिन जब बात आती है किन्नरों की, तो सभी आदर्शवादी बातें हाशिये पर चली जाती हैं । (पृष्ठ 55)

स्त्री विमर्श 
सिद्धान्त और सोच को किस प्रकार विवेचन और विश्लेषण में बदलकर प्रस्तुत किया जा सकता है इसका सर्वोत्तम उदाहरण लेखिका नीरजा का ‘स्त्री विमर्श’ विषयक खंड है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ खुलकर और स्वतंत्र रूप से मत व्यक्त किया गया है। रचनाओं के विवेचन से आगे जाकर जब जब वे अपनी टीका-टिप्पणी करती हैं तो ‘स्त्री’ के मर्म को ही उद्घाटित नहीं करतीं बल्कि उसे पुरुष के समक्ष और समकक्ष भी खड़ा करती हैं । ‘समकालीन स्त्री प्रश्न’ (पृष्ठ 75-78) इस दृष्टि से कई बार पढ़ा जा सकता है। विमर्शों की पुस्तक में ऐसा भी लिखा मिलेगा, यह सोचा न था –

आज की स्त्री चाहती है कि पुरुष समय-असमय अपना पति-पना न दिखाया करे। स्त्री को भी गाहे बगाहे प्रति पल अपना पत्नीपना दिखाने की प्रवृत्ति से बाज़ आना होगा। वह जमाना गया जब पति-पत्नी दो शरीर एक प्राण होते थे क्योंकि इस एक प्राणता के लिए दो में से किसी एक को अपना व्यक्तित्व दूसरे के व्यक्तित्व में विलीन करना होता था। आज की स्त्री अपने व्यक्तित्व को इस तरह पुरुष के व्यक्तित्व में विलीन करने के लिए तैयार नहीं है। उसे अपनी स्पष्ट पहचान और परिवार तथा समाज में अपना स्थान व सम्मान चाहिए। (पृष्ठ  77)

स्पष्ट है पुस्तक में सबसे ज्यादा पृष्ठ इसी विमर्श को मिले हैं। हरित विमर्श के लिए कुल छह पृष्ठ है, किन्नर के लिए भी इतने नहीं पर स्त्री विमर्श के लिए सबसे ज्यादा। आधे में हम, और आधे में सब। ठीक भी है “हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास” लिखकर अमर हो गए शुक्ल जी के बाद यदि अब कोई सुमन राजे इसको पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाती है तो उसे डॉ नीरजा की पुस्तक के विमर्श से राह मिलेगी। ‘मिश्र बंधु विनोद' से अब हम बहुत आगे निकल आए हैं। कहना चाहिए कि अब अपनी परंपराओं को शुद्ध करने का समय भी निकल चुका है। अब तो बक़ौल नीरजा जी के “आज स्त्री जागरूक हो गई है। अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। पुरुष पक्षीय परंपराओं को तोड़ना सीख गई है।” (पृष्ठ 83 )। इन ‘जगी हुई आहटों का सम्मान’ क्यों किया जाना चाहिए? क्योंकि – “पुराने विधि विधान और पुरानी स्मृतियाँ आज के संदर्भ में अर्थहीन हो गए हैं। आज नई स्मृतियों और नई संहिताओं की जरूरत है। सब कुछ बदलना होगा, सारे समाज की मानसिकता को बदलना होगा।” (पृष्ठ 95)।

लघुकथा विमर्श 
इस खंड में लेखिका का भाषा-अध्येता रूप खिलकर आया है। लघुकथा की गुरुता का भाषाई पक्ष वे खूब खंगाली हैं। साथ में बहुत सी सूत्र पंक्तियाँ भी हैं , जैसे –

लघुकथाकार संक्षिप्त फ़लक पर भाव ,घटना, या विचार की बीज बोता है और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के माध्यम से उसे पल्लवित करता है। वह अपनी बात को दो टूक कहने के लिए व्यंजना का सहारा लेता है। समय की माँग और विषय के चयन के अनुरूप लघुकथाकार ‘पंच’ का प्रयोग करते हुए अपनी बात को अभिव्यक्त करता है और पाठक को उद्वेलित करता है। (पृष्ठ 156) 

विमर्श विविधा
‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ के समान विमर्श अनंत हैं और उनकी गाथा हनुमान की पूंछ सी बढ़ती ही चली जाती है। पुस्तक में पृष्ठों की सीमा होती है, यहाँ भी है। खैर यह है कि विविधा में वैविध्य दर्जन की संख्या पार नहीं करता। फिर भी यह क्या कम है? विस्थापन विमर्श और वृद्धावस्था विमर्श तो अपने नाम से भी नवीन लगते हैं। इन विमर्शों पर अभी लेखन हुआ ही कितना है? हाँ, उत्तर आधुनिक विमर्श के नाम पर बहुत कुछ परोसा जाता रहा है। नीरजा जी स्त्री, दलित, आदिवासी, किन्नर, अल्पसंख्यक आदि के साध साथ ‘वृद्धावस्था’ को भी अपने विमर्श में स्थान दिया है। अंत में ही दिया है, पर खूब दिया है। यह बात नहीं कि यह विमर्श पहले नहीं था। उदाहरण के लिए केशव सफ़ेद होते बालों की चिंता में कठिन काव्य के प्रेत हो गए थे। इस चिंता ‘जो आ के न जाये वो बुढ़ापा देखा’ को चिंतन में शामिल करते हुए नीरजा जी ‘वृद्धावस्था विमर्श’ को एक वाक्य में परिभाषित करती हैं – वृद्धावस्था विमर्श इस उपेक्षित समुदाय की दृष्टि से, अथवा वृद्धावस्था को केंद्र में रखते हुए, समाज, साहित्य और संस्कृति की नई व्याख्या करने वाला विमर्श है । (पृष्ठ 212)

जब यह पुस्तक ‘समकालीन साहित्य विमर्श’ नाम से है तो इसमें विमर्श और भी होंगे ही। हैं भी। पर उन पुस्तकों और उन रचनाकारों का उल्लेख करने से बचते हुए मैं यह कहकर आगे बढ़ूँगा कि इस पुस्तक में ‘सर्वथा अपूर्वानुमेय – किंतु अत्यंत आत्मीय और गहरी संवेदना के साथ खोजी और प्रस्तुत की गई सामग्री मिलती है’ (शुभाशंसा – रमेशचंद्र शाह)। और यह भी कि लेखिका ने अपनी साहित्यिक खोज को केवल तथाकथित मशहूर हस्तियों तक सीमित नहीं रखा है। उनके साथ-साथ कम चर्चित रचनाकारों की ओर भी उनका ध्यान गया है। (दिविक रमेश)।

‘कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है’ कहकर जिस लेखन को बड़ी विनम्रता से लेखिका ने यहाँ सँजोया है उसका हिंदी के उन अध्येताओं को तुरत फायदा पहुँचेगा जो समकालीन साहित्य के सजग पाठक और अध्येता हैं। उनको भी यह पुस्तक रुचेगी जो शोध की नवीन दिशाओं की खोज में हैं। एंड्रू बेनेट और निकोलस रॉयल ने ‘एन इंट्रोडक्शन टू लिटरेचर, क्रिटिसिज़्म एंड थियरि’ में जिस प्रकार विविध विमर्शों पर लिखकर उसे विश्वविद्यालयों के लिए वांछित पुस्तक के रूप में पेश किया और उसके छह संस्करणों में विमर्शों की संख्या लगातार बढ़ी है, ऐसा ही इस पुस्तक के साथ भी हो। यही कामना और आशा है कि इसके आगामी प्रत्येक संस्करण में विमर्शों की संख्या बढ़ती जाए और हिंदी पाठ क जगत लाभान्वित हो।

बारह मसाले तेरह स्वाद : समकालीन साहित्य विमर्श

- प्रवीण प्रणव

लेखिका गुर्रमकोंडा नीरजा की किताब ‘समकालीन साहित्य विमर्श’, वर्तमान समय के कई ज्वलंत मुद्दे, जो नए नहीं हैं, पर एक नई दृष्टिकोण डालने का प्रयास है। हालांकि लेखिका ने लिखा है कि इस किताब में संकलित लेख 2008 से 2020 के बीच अलग-अलग संदर्भों में लिखे गए हैं लेकिन इससे न तो क्रमबद्धता और न ही पठनीयता प्रभावित होती है। हम सब साक्षी हैं कि कुछ वर्षों पहले जब किसी पुल का निर्माण होता था, महीनों, सालों तक मजदूर काम करते थे और आरंभ से अंत तक पुल का निर्माण वहीं होता था। लेकिन आज पुल बनाने की प्रक्रिया में बदलाव आया है। पुल के कई भाग अलग-अलग जगहों पर बनते हैं और अंत में उन्हें जहाँ पुल बनना होता है, वहाँ ला कर जोड़ा जाता है। साहित्य की दृष्टि से पहले पुल बनाने की प्रक्रिया को आधुनिक काल कह सकते हैं और वर्तमान तरीके को उत्तर आधुनिक काल। उत्तर आधुनिक साहित्य जिसे समकालीन साहित्य भी कहा जाता है, के विभिन्न विमर्शों को जी. नीरजा ने पुल के अलग-अलग भागों की तरह एक साथ ला कर इस तरह जोड़ा है कि इस किताब के स्वरूप में लेख, अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं।


आज के दौर में विमर्शों का बोलबाला है। हर साल-दो साल के बाद कोई नया विमर्श ‘चलन’ में आता है और साहित्यकारों की लेखनी उस विमर्श पर ऐसे-ऐसे लेख लिखती है कि भविष्य में इस विमर्श से जनित किसी भी क्रांति के लिए ‘गंगा की गंगोत्री’ उनके ही लेख को ठहराया जा सके। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर साहित्यकारों की दृष्टि पूर्वाग्रहों से प्रेरित रही है। अज्ञेय ने कहा “अगर मैं मानता भी हूँ कि समाज को बदलने में साहित्य का योग होता है, कि उसमें साहित्यकार की भी कुछ जिम्मेदारी होती है, तो भी आज साहित्यिक रचना और सामाजिक परिवर्तन में जैसा सीधा समीकरण बनाया जा रहा है, उसे मैं बिल्कुल स्वीकार नहीं करता। मैं समझता हूँ कि पिछले लगभग 50 वर्षों से इस तरह का सीधा संबंध बनाने और सिद्ध करने का जो एक प्रयत्न होता रहा है, उसने साहित्य का बहुत अहित किया है। आलोचना को, जिसका लोचन से संबंध ही स्पष्ट करता है कि उसे स्वच्छ प्रकाश की अनिवार्य आवश्यकता है, उसने एक धुंधलके में भटका दिया है। रचना की दृष्टि को एक रंगीन चश्मा पहनाकर उसने एकांगी और असमर्थ बना दिया है।“ संतोषप्रद है कि जी. नीरजा साहित्यिक विश्लेषण और विमर्श के लिए किसी रंगीन चश्मे का इस्तेमाल न करते हुए, अपने लेखों के माध्यम से, इन विमर्शों में पूर्व में स्थापित और सत्यापित तथ्यों से इतर कुछ नये आयाम जोड़ती हैं।

इस किताब में 24 लेख हैं जिन्हें पाँच खंडों में संकलित किया गया है। पहला खंड ‘हरित विमर्श’ है। यूं तो इस खंड में सिर्फ दो लेख हैं लेकिन लेखिका इन दो लेखों के माध्यम से पर्यावरण और इससे जुड़ी समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट करने में सफल रही हैं। बिहारी सतसई का दोहा “देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर”, इन दोनों लेखों के लिए सटीक बैठता है।

“हरित विमर्श की प्रस्तावना” शीर्षक लेख में लेखिका ने पर्यावरण विमर्श को स्त्री विमर्श के साथ जोड़ते हुए लिखा है कि “सामान्यतः धरती को स्त्री के समान और स्त्री को धरती के समान माना जाता रहा है। लेकिन अधिकार और सत्ता की अपार इच्छा पुरुषवादी व्यवस्थाओं के चरित्र को शोषण की मनोवृत्ति से संपन्न करती रही है। इस मनोवृत्ति के कारण ही पुरुष केंद्रित समाज का विकास, पर्यावरण और स्त्री के निरंतर दोहन पर टिका है। इस दोहन के पीछे पुरुष की आधिपत्य की भावना है।“ केरल की प्रसिद्ध साहित्यकार के. वनजा भी स्त्री और धरती में समानता की बात करती हैं। दुनिया की प्रकृति पर पितृसत्ता के अधिकार के खिलाफ़ स्त्री एवं प्रकृति केंद्रित इको फेमिनिज्म की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। के. वनजा ने अपने तीन किताबों की शृंखला - “साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन”, “इकोफेमिनिज्म”, और “हरित भाषा वैज्ञानिक विमर्श” में इस विषय पर महत्वपूर्ण काम किया है।

“पर्यावरण के प्रश्न और कविता” शीर्षक लेख में लेखिका ने समकालीन कवियों की कविताओं के माध्यम से पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं की बात की है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की कविता की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए लेखिका सशंकित हैं कि पर्यावरण प्रदूषण की तरफ हम इतनी दूर आ गए हैं जहाँ से वापसी का रास्ता सरल नहीं। "हैलो, मनुष्य,/ मैं आकाश हूँ। /कल सृजन था, निर्माण था,/ आज प्रलय हूँ, विनाश हूँ।/ मेरी छाती में जो छेद हो गए हैं काले काले,/ ये तुम्हारे भालों के घाव हैं,/ ये कभी नहीं भरने वाले।"


पेड़ों की कटाई और कंक्रीट के जंगल बसाए जाने से संभावित खतरों की बात करते हुए लेखिका, कविता वाचक्नवी की कविता उद्धृत करती हैं "मेरे हृदय की कोमलता को / अपने क्रूर हाथों से / बेध कर / ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया/ उखाड़ कर प्राणवाही पेड़-पौधे/ बो दिए धुआँ उगलते कल - कारखाने / उत्पादन के सामान सजाए / मेरे पोर-पोर को बींध कर / स्‍तंभ गाड़े / विद्‍युत्वाही तारों के / जलवाही धाराओं को बाँध दिया। / तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावडों, / मशीनों, आरियों, बुलडोज़रों से/ कँपती थरथराती रही मैं। / तुम्हारे घरों की नींव / मेरी बाहों पर थी / अपने घर के मान में / सरो-सामान में / भूल गए तुम। / ... मैं थोड़ा हिली / तो लो / भरभराकर गिर गए / तुम्हारे घर। / फटा तो हृदय / मेरा ही।"

पर्यावरण ने सदा हमारे अस्तित्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और हमारे पूर्वजों ने इसे भली -भांति समझा। विकास की अंधी दौड़ में शामिल हो कर आज हम प्रकृति से दूर होते गए और परिणाम स्वरूप समय-समय पर हमने इसके दुष्परिणाम भी झेले हैं। पेड़ लगाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा कि वनवास के दौरान सीता और लक्ष्मण वृक्षारोपण कर रहे हैं "तुलसी तरुवर विविध सुहाए/ कहुं कहुं सिया कहुं लखन लगाए।" यही नहीं जब राम वनवास से वापस आते हैं तब भी इस उपलक्ष्य में अयोध्या में वृक्षारोपण किया जाता है "सफल पूगफल कदलि रसाला। /रोपे बकुल कदम्ब तमाला।।" गोस्वामीजी ने यह भी लिखा कि प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का विवेक पूर्ण उपयोग ही उचित है। पेड़ से फल तोड़ कर खाना तो उचित है लेकिन पेड़ को काटना अनुचित – “रीझि-खीझी गुरूदेव सिष सखा सुसाहित साधु।/ तोरि खाहु फल होई भलु तरु काटे अपराधू ।।"

पर्यावरण और इससे जुड़ी चिंताओं पर बहुत काम हुआ है लेकिन ज्यादातर काम वैज्ञानिक है। इस समस्या पर साहित्य में कम ही काम हुआ है और ऐसे में लेखिका के दोनों लेख महत्वपूर्ण हैं। एन्नी लेमोट (Annie Lamott) जो अमेरिका की प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं ने एक प्रसिद्ध पंक्ति लिखी “ ‘No’ is a complete sentence.” यानि ‘नहीं’ एक सम्पूर्ण वाक्य है। सरकार ने धूम्रपान रोकने के लिए न जाने कितने प्रयास किए, न जाने कितने बड़े-बड़े आलेख लिख कर इसके दुष्प्रभावों की चर्चा की गई, लेकिन हम सब जानते हैं कि सिगरेट के डब्बे पर लिखा सिर्फ दो शब्द “Smoking Kills” या “धूम्रपान जानलेवा है” से ज्यादा प्रभावी कुछ भी साबित नहीं हुआ। ऐसे ही लेखिका के पर्यावरण पर दोनों लेख संक्षिप्त लेकिन बहुत ही प्रभावी है।

किताब का खंड दो ‘किन्नर विमर्श’ है जिसमें पाँच लेख संकलित हैं। ‘जो नर है न नारी’ शीर्षक लेख में लेखिका महेंद्र भीष्म द्वारा लिखे गए उपन्यास ‘किन्नर कथा’ और प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘तीसरी ताली’ की समीक्षात्मक आलोचना करते हुए किन्नरों की पीड़ा, उनकी पहचान, उनकी पूजा पद्धति आदि के बारे में विस्तृत विवरण देती हैं जो आम पाठकों के लिए रुचिकर और महत्वपूर्ण है। महेंद्र भीष्म के उपन्यास ‘किन्नर कथा’ की कहानी को लेखिका ने संक्षेप में लेकिन इतने प्रभावी ढंग से लिखा है कि पाठक इस कहानी का शब्द-चित्र अपनी आँखों के सामने बनता हुआ महसूस करेंगे।

“इक्कीसवीं सदी और किन्नर विमर्श” शीर्षक लेख में लेखिका ने नीरजा माधव कृत ‘यमदीप’, निर्मला भुराडिया कृत ‘गुलाम मंडी’, महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’, प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ आदि किताबों के उद्धरण के साथ किन्नरों के साथ होने वाले भेद-भाव, सामाजिक अस्वीकार्यता, और रोजगार की समस्या के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए वांछित कदम उठाने की आवश्यकता पर बल दिया है।

“एक समांतर दुनिया: ‘तीसरी ताली’ ” शीर्षक लेख प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘तीसरी ताली’ की विस्तृत समीक्षा समेटे हुए है। प्रदीप सौरभ के लेखन की प्रशंसा में लेखिका लिखती है “लेखक ने छानबीन के बाद हिजड़ों की जीवन शैली, उनके बीच गद्दियों, इलाकों और गद्दी के वारिस को लेकर होने वाले खूनखराबे, किसी को जबरदस्ती हिजड़ा बनाने, चुनरी की रस्म, गुरु परंपरा का निर्वाह, मूंछों वाले गिरिया रखने, हिजड़ों के अंदर छिपी स्त्रीत्व की भावना, उनकी मानवीय संवेदना और ममत्व, हिजड़े होने के दर्द, उनके आक्रोश और संघर्ष आदि को विस्तार से परत-दर-परत खोला है। हिजड़ों के जीवन के साथ-साथ इस उपन्यास में एक समांतर दुनिया है समलैंगिकों की, विकृत प्रवृत्ति वालों की। इतना ही नहीं, लेखक ने राजनैतिक पैंतरेबाज़ी को भी उजागर किया है। उनकी मारक टिप्पणी देखिए – ‘असली हिजड़े तो वे हैं जो जनता के वोटों से संसद और विधानसभा में जाकर उन्हीं का खून चूसने की योजनाएँ बनाते हैं और अपना पेट भरते हैं।’ ” किन्नर समुदाय अपनी स्थिति से किस कदर निराश है इसे लेखिका के इस कथन से समझा जा सकता है “दिल्ली में आमतौर पर हिजड़े के शव को रात को डंडों से मारते, उस पर चप्पल-जूते बरसाते और सड़क पर खींचते हुए श्मशान घाट ले जाते हैं। इस तरह शव को श्मशान में ले जाने के पीछे मान्यता है कि मरने वाला दोबारा तीसरी योनि में जन्म नहीं लेगा।” तीसरी ताली उपन्यास की समीक्षा के साथ ही लेखिका ने किन्नर होने के वैज्ञानिक कारणों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखिका का विज्ञान की पृष्ठभूमि से होना सहायक सिद्ध होता है।

“सम्मान की ज़िंदगी जीने की चाहत : नाला सोपारा” शीर्षक लेख चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ (2016) पर आधारित है जिसके लिए उन्हें 2018 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह उपन्यास पत्रात्मक शैली में लिखा गया है जिसमें एक पुत्र का बेबस माँ से संवाद है। उपन्यास में कुल मिलाकर सत्रह पत्र और उपसंहार में दो समाचार सम्मिलित हैं। उपन्यास के पात्र विनोद, जो एक किन्नर है, द्वारा लिखे गए पत्र इतने मार्मिक हैं जिसे पढ़ते समय पाठक भी अपने आप को विनोद के दर्द से जुड़ा हुआ पाते हैं। आज-कल किसी भी विमर्श पर किसी भी लेखक द्वारा आनन-फ़ानन में कुछ लिख देने की परंपरा चल पड़ी है लेकिन ऐसे लेखों में विश्वसनीयता का अभाव झलकता है। यह उसी तरह है कि कोई लोहार, हलवाई को सुझाव दे कि अच्छे रसगुल्ले कैसे बनाए जाते हैं। किसी विमर्श पर लेख या तो स्वयं के अनुभव जनित होने चाहिए या उसे लेखक ने किसी और के माध्यम से इस तरह आत्मसात किया हो कि आप प्रभावी ढंग से उस विषय पर कुछ कह सकें। प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने ‘देहरी’ शीर्षक से जो स्त्री-पक्षीय कविताएं लिखी हैं, उनमें स्त्रियों की पीड़ा इस तरह उभर कर सामने आती है जिसे शायद कोई स्त्री भी इस रूप में न लिख पाती। चित्रा मुद्गल भी इस उपन्यास में किन्नर की भावनाओं के इतने यथार्थ विवरण के पीछे के कारणों का उल्लेख करते हुए कहती हैं “जब मैं मुंबई के नाला सोपारा में रहती थी, तब मैं एक ऐसे ही युवक से मिली थी। उसे किन्नर होने की वजह से घर से निकाल दिया गया था। यह उपन्यास उसी युवक के विद्रोह की कहानी है। मैंने उसे अपने घर पर बहुत दिनों तक साथ रखा।”

“समसामयिक हिंदी साहित्य : किन्नर विमर्श” लेख, किन्नर विषय पर लिखे गए कई उपन्यासों, कहानियों और कविताओं के माध्यम से इस चर्चा को आगे बढ़ाने का प्रयास है। यह लेख लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ (2015) की भी बात करता है जिसमें लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने अपने खुद के अनुभव के आधार पर किन्नर समुदाय के सच को उजागर किया है। यह देखना सुखद है कि साहित्यकारों का ध्यान किन्नर विमर्श की ओर गया है और इस दिशा में बहुत प्रयास हुए हैं लेकिन असली बदलाव तब होगा जब लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की ही तरह इसी समुदाय से और लेखक/लेखिका सामने आएं और अपने खुद के अनुभव और सत्य को सामने रखें।

स्त्री विमर्श खंड में छः लेख हैं। विमर्शों में सबसे ज्यादा शायद स्त्री विमर्श पर ही लिखा गया है लेकिन आज भी समस्या बनी हुई है। इन लेखों में लेखिका किसी किताब और किताब की समीक्षा के माध्यम से स्त्री विमर्श के विभिन्न आयामों को एक बार फिर से पाठकों के सामने लाती हैं और उम्मीद जताती हैं कि परिस्थितियाँ जल्द बदलें।

“कविता में स्त्री” शीर्षक लेख में लेखिका लिखती हैं ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी स्त्री को पग-पग पर अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। घर की दहलीज पार करके जहाँ स्त्री समाज में पुरुषों से कदम मिलाकर आगे चल रही है वहीं उसे जिल्ल्त भी उठानी पड़ रही है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की कविता ‘प्रशस्तियाँ’, स्त्रियों के इस दर्द को भली-भांति दर्शाती है - "मैंने जब भी कुछ पाया /मर खप कर पाया /खट खट कर पाया /अग्नि की धार पर गुज़र कर पाया /पाने की खुशी /लेकिन कभी नहीं पाई /***शिक्षा हो या व्यवसाय /प्रसिद्धि हो या पुरस्कार /हर बार उन्होंने यही कहा- /चर्म-मुद्रा चल गई! /[चर्म-चर्वणा से परे वे कभी गए ही नहीं!]”

“सनातन स्त्री : देह भी विदेह भी” शीर्षक से लेख में लेखिका ने दिनकर के काव्य उर्वशी के माध्यम से प्रेम की व्याख्या की है। “स्त्री-पुरुष की परस्पर-आश्रयता” शीर्षक से लेखिका यह स्थापित करती है कि भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष एक दूसरे के विरोधी या प्रतिबल नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। ‘अर्द्धनारीश्वर’ के देश में.... शीर्षक लेख में विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ के बहाने लेखिका ने निर्भया और अन्य कई स्त्रियों के शारीरिक, मानसिक यातना और बलात्कार जैसी घटनाओं की चर्चा की है और न्याय मिलने में विलंब या न्याय न मिल पाने को इस समस्या की जड़ माना है। पुरुष प्रधान इस समाज में स्त्रियाँ या तो अपने साथ हुए अन्याय को बता ही नहीं पातीं और यदि बताया तो सामाजिक लांछन और न्याय न मिल पाने की वजह से ताउम्र बदनामी का दंश झेलने पर विवश होती हैं। गोस्वामी जी ने लिखा “कामिहि नारि पिआरि जिमि” यह पुरुष प्रधान समाज की सोच को दर्शाता है। काम के अधीन औरत यदि सिर्फ प्यार की बात सोचती है तो काम के अधीन पुरुष क्या सोचता है? या पुरुष काम के अधीन होता ही नहीं? लेखिका ने इस सोच को बदले जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा है “पुराने विधि-विधान और पुरानी स्मृतियाँ आज के संदर्भ में अर्थहीन हैं। आज नई स्मृतियों और नई संहिताओं की जरूरत है। सब कुछ बदलना होगा, सारे समाज की मानसिकता को बदलना होगा।”

“अल्पसंख्यक स्त्री का आधा गाँव “ शीर्षक लेख राही मासूम रज़ा कृत उपन्यास ‘आधा गाँव‘ पर आधारित है जो गंगौली गाँव के मुसलमानों का बेपर्द जीवन यथार्थ है। राही मासूम रज़ा ने गाँव के हिन्दू और मुस्लिमों के बीच पहले भाईचारे और उसके बाद बदलते हालात में आए परिवर्तन को बड़े ही प्रभावी ढंग से लिखा है। आम तौर पर स्त्री को फला की बेटी, फला की पत्नी, फला की माँ आदि कहकर संबोधित किया जाता है। उससे उसका नाम छीन लिया जाता है। इसी ओर इशारा करते हुए राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव‘ में कहा - ‘‘बेनाम होना तो बहुओं की तकदीर है। फ़र्क बस इतना हो जाता है कि अच्छे घरानों में वह या तो बहू कही जाती हैं या दुल्हन या दुलहिन। हमारे समाज में या तो यह होता है कि मैकेवाले दहेज देकर बेटी से अपना दिया हुआ नाम छीन लेते हैं या फिर यह कहिए कि ससुराल वाले इसे गवारा नहीं करते कि उनके यहाँ किसी और घर का दिया हुआ नाम चले। कभी-कभी यह बेनामी उन लड़कियों से ऐसी चिपक जाती है कि मरते-मरते पिंड नहीं छोड़ती।‘‘ इस संबंध में मुझे राजम पिल्लई की कविता याद आती है जिसका शीर्षक है "गांधारी तुम्हारा नाम क्या है?" और गौर करने पर अचानक हम पाते हैं कि उस दौर में स्त्रियों के अपने नाम गुम हो गए। केकय देश की राजकुमारी केकई बन गईं तो कोशल देश की राजकुमारी कौशल्या। स्त्रियों को अपने नाम से भी अलग कर दिए जाने से ज्यादा अन्याय उनके साथ और क्या होगा। राही मासूम रज़ा झंगोटिया-बो और सईदा दो पात्रों के बारे में लिखते हैं जिन्हें आर्थिक परेशानियों की वजह से अपने शरीर से समझौता करना पड़ा। नीरजा लिखती हैं "सर्वत्र शरीर संबंध है और इस संबंध के पीछे सवाल आर्थिक हैं। परदे के भीतर भी स्त्री का संघर्ष और उसका आत्मसंघर्ष चलता रहता है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी चल रहा है।"

लघुकथा विमर्श खंड में लेखिका ने श्याम सुंदर अग्रवाल, कमल चोपड़ा और सीमा सिंह की लघुकथाओं का विस्तृत विश्लेषण और विवेचन किया है। लेखिका का कहना है कि आज की लघुकथाओं को देखने से यह स्पष्ट होता है कि पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक विसंगतियों को लघुकथाकारों ने अपना कथ्य बनाया है। लघुकथा आंदोलन से जुड़कर अनेक साहित्यकारों एवं पत्र-पत्रिकाओं ने इस विधा को सशक्त बनाया। विष्णु प्रभाकर ने अपने लघुकथा संग्रह ‘आपकी कृपा है’ की भूमिका में लिखा कि “विकास की एक सुनिश्चित परंपरा आज की लघुकथा के पीछे देखी जा सकती है। न जाने किस काल-खंड में मनीषियों ने अपने सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में स्पष्ट करने के लिए दृष्टांत देने की आवश्यकता अनुभव की, इसी अनजाने क्षण में लघुकथा का बीजारोपण हुआ। तब उसका नाम दृष्टांत या ऐसा ही कुछ रहा होगा।” लेखिका ने कहा है कि 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधवराव सप्रे की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली लघुकथा माना जाता है।

श्याम सुंदर अग्रवाल की कई लघु कथाओं का विश्लेषण करते हुए लेखिका ने उनकी लघुकथाओं में सामाजिक कुरीति पर प्रहार, व्यवस्था पर व्यंग्य, गरीबी आदि को तो रेखांकित किया ही है, वैज्ञानिक समालोचना करते हुए लघु कथा शिल्प, कथाओं में संवाद, विवरण, निपातों का प्रयोग, स्थानीय भाषा प्रयोग, विस्मयादिबोधक/ प्रश्न चिन्ह/ पुनरावृति/ अल्पविराम आदि के प्रयोगों को उदाहरण के साथ पाठकों के सम्मुख रखा है जो पाठकों को लघु कथा के स्वरूप, औचित्य, शिल्प और महत्व को समझने में सहायक सिद्ध होगी। श्याम सुंदर अग्रवाल की लघु कथाओं के बारे में लेखिका ने लिखा है “श्याम सुंदर अग्रवाल अपनी लघुकथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मानवाधिकारों के हनन और सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व नैतिक विडंबनाओं पर सीधे-सीधे प्रहार करते हैं। गरीबी और भूख के अमानुषिक सच को उन्होंने इस तरह उकेरा है कि व्यंजनापूर्ण शब्दावली पाठक के हृदय को छील देती है। वे सरल संप्रेषणीय भाषा प्रयोग द्वारा भ्रष्ट शासन व्यवस्था पर व्यंग्य कसते ही हैं अनेक लघुकथाओं के अंत में झिड़की भी देते हैं।“

कमल चोपड़ा के लघुकथाओं का भी नीरजा साहित्यिक और वैज्ञानिक विश्लेषण तो करती ही हैं, साथ ही लघु-कथा के बारे में कई साहित्यकारों के कथन के माध्यम से लघु कथा की परिभाषा और लघु कथा के महत्व को स्थापित करती हैं। कमल चोपड़ा की लघु कथाओं में अच्छी कथा होने के सभी अवयव होने की बात करते हुए लेखिका लिखती हैं “अपनी लघुकथाओं में कमल चोपड़ा सामाजिक विसंगतियों पर सीधा प्रहार करते हैं और कथा के अंत में ‘पंच’ के साथ उनकी धज्जियाँ उड़ाते हैं। इनकी भाषा बोधगम्य तथा परिवेश और पात्र के अनुरूप है। इनकी लघुकथाओं में व्यंग्य भी है और फटकार भी; आक्रोश भी है और चेतना तथा जागरूकता भी।“ सीमा सिंह की लघु कथाओं के बारे में लेखिका का यह कथन द्रष्टव्य है “सीमा सिंह ने स्त्री जीवन के विविध पक्षों पर लेखनी चलाई है। सरल, सहज और संप्रेषणीय भाषिक प्रयोग से स्त्री-प्रश्नों को उकेरा है और साथ ही उनका निदान किया है। वे सड़ी-गली मान्यताओं को तोड़ कर नवीन जीवन मूल्यों को स्थापित करने में विश्वास रखती हैं और यह आशा करती हैं कि स्त्री को खुलकर जीने का अधिकार प्राप्त हो।"

“विमर्श विविधा” इस किताब का पाँचवां और आखिरी खंड है जिसमें अलग-अलग विमर्शों के आठ लेख संकलित हैं। डॉ. रमेशचंद्र शाह को उनके उपन्यास ‘विनायक’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किए जाने की बात से आरंभ करते हुए “सृजन के आयाम : रमेशचंद्र शाह” शीर्षक से लेख में नीरजा ने लेख के पहले भाग में डॉ. रमेश चंद्र शाह का परिचय और उनके साहित्य का परिचय दिया है, भाग दो में लेखिका के डॉ. रमेश चंद्र से मुलाकात से संस्मरण है जिनमें लेखिका के प्रति डॉ. रमेश चंद्र शाह का कथन दक्षिण भारत में हिंदी की सेवा में लगे साहित्यकारों के लिए भी महत्वपूर्ण है “मैं जहाँ भी जाता हूँ वहाँ हमेशा यही कहता हूँ कि हिंदी का उद्धार दक्षिण भारतीय ही करते हैं और वे ही यह काम कर सकते हैं। क्योंकि वे अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी को भी आगे ले जाने का काम कर रहे हैं।” इसी लेख में लेखिका ने साहित्यकार डॉ. रमेश चंद्र की एक आलोचक के तौर पर, एक कवि के रूप में, एक दार्शनिक के रूप में मीमांसा की है। उनके उपन्यास ‘विनायक’ के माध्यम से लेखिका ने उनके गद्य लेखन पर भी विस्तृत चर्चा की है।

“समाज विमर्श : रमेश पोखरियाल ‘निशंक’” शीर्षक से लेखिका ने डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के बारे में परिचय देते हुए उनकी कविताओं और कहानियों के माध्यम से परिवार और समाज के प्रति उनके विचारों को सामने रखा है। डॉ. निशंक ने खुद कहा है कि एक राजनेता होने से पहले वे साहित्यकार और समाजसेवी हैं। लेखिका ने लिखा है “रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की दृष्टि सुधारवादी है। वे मनुष्यता को कायम रखने की बात करते हैं। उनकी कहानियों में आदर्श की स्थिति को देखा जा सकता है। वे यथार्थ की परिस्थितियों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं, उन्हें सोचने के लिए बाध्य करते हैं और उन परिस्थितियों को सुधारने के लिए राह भी सुझाते हैं। वे मानवीय मूल्यों एवं आदर्श परिवार को प्रमुखता देते हैं।”

वरिष्ठ हिंदी कवि केदारनाथ सिंह को सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार (2013) से सम्मानित किए जाने के संदर्भ में “लोकतंत्र और लोक विमर्श : केदारनाथ सिंह” शीर्षक से लेख में लेखिका ने केदारनाथ सिंह की कविताओं में ज़मीन से जुड़ाव और मिट्टी की खुशबू की बात की है। लेखिका ने लिखा है कि केदारनाथ सिंह की कविताओं में गाँव की प्राकृतिक आभा की अनेक छवियाँ दिखाई देती हैं। इनकी कविताओं के बिंब में नदी, नाले, फूल, जंगल, तट धूप, सरसों के खेत, धानों के बच्चे, बन, सांध्यतारा, बसंत, फागुनी हवा, पकड़ी के पात, कोयल की कूक, पुरवा-पछुवा हवा, शरद प्रात, हेमंती रात, चिड़िया, घास, फुनगी आदि बार-बार आते हैं जो इनके मिट्टी से जुड़ाव का परिचायक है। बिंब के बारे में केदारनाथ सिंह का कथन महत्वपूर्ण है “बिंब पाठक को रोकता-टोकता चलता है और एक हद तक उसे विवश करता है कि वह रुके और सोचे और समग्र कविता के बारे में तुरत-फुरत कोई फैसला न दे। यह रचनात्मक बाधा शायद एक ऐसी कसौटी है जिस पर हम कविता का श्रेणी विभाजन कर सकते हैं।”

“समकालीन कविता : उत्तरआधुनिक विमर्श” शीर्षक लेख में लेखिका ने संप्रेषणीयता को कविता की मुख्य चुनौती माना है। आज की नई पीढ़ी जिनकी पहुँच विश्व साहित्य तक है और इंटरनेट के माध्यम से विश्व घर जैसा है, की कविताओं के बिंब वैश्विक परिदृश्य से प्रभावित हैं। लेखिका ने कुमार लव की कविता का उल्लेख किया है “प्रोमेथ्यूज़ का कलेजा/ हर रोज़ नोचती चील/ सोचती होगी/ कैसा मूर्ख है यह,/ देवताओं से लड़ता है भला कोई!!” यहाँ प्रोमेथ्यूज़ के बारे में जाने बिना इस बिंब को समझा नहीं जा सकता। दूसरी तरफ वह पीढ़ी है जो आज भी गाँव को याद करते हुए अपने को उस मिट्टी से जुड़ा हुआ पाती है और उनकी कविताओं के बिंब में यह भाव आयातित होता है। लेखिका ने प्रो. ऋषभदेव शर्मा की कविता का उल्लेख किया है “चिकनी पीली मिटटी को/ कुएँ के मीठे पानी में गूँथकर/ बनाया था माँ ने वह चूल्हा/ और पूरे पंद्रह दिन तक/ तपाया था जेठ की धूप में/ दिन दिन भर/ उस दिन/ आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,/ हमारे घर का बगड़/ बूंदों में नहा कर महक उठा,/ रसोई भी महक उठी थी –/ नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था।/ गाय के गोबर में/ गेहूँ का भुस गूँथ कर/ उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से/ और आषाढ़ के पहले/ बिटौड़े में सजाती थी उन्हें/ बड़ी सावधानी से।” आज की युवा पीढ़ी अपने आप को इन कविताओं से तारतम्य बिठाने में सहज नहीं पाती। डॉ. नीरजा ने हालांकि यह नहीं लिखा कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा और कुमार लव पिता-पुत्र हैं लेकिन फिर भी यह न सिर्फ कविता के स्तर पर बल्कि दो पीढ़ियों के बीच आपसी संवाद के स्तर पर भी संप्रेषणीयता के संकट को दर्शाती है। दो चुंबक के ध्रुव जब समान दिशा में हों तो उनमें विकर्षण होता है। कविता और वर्तमान पीढ़ी दोनों ही इस विकर्षण के दौर से गुजर रही है जहाँ संप्रेषणीयता एक बड़ी समस्या है। अगली पीढ़ी तक आते-आते जब दोनों ही पीढ़ी के लोग वैश्विक समझ रखने वाले होंगे तब शायद चुंबक के दोनों ध्रुव आसमान दिशा में हों जाएं और यह दूरी मिट जाए । ‘वक्तव्य प्रधानता’ और ‘अभिव्यक्ति का खतरा’ को लेखिका ने कविता की अन्य चुनौतियों में शामिल किया है।

“नई सदी की कविता का दलित परिप्रेक्ष्य” शीर्षक लेख में लेखिका विभिन्न कविताओं के माध्यम से दलित विमर्श पर चर्चा करती हैं तो “विस्थापन विमर्श : भाषा की आजादी” शीर्षक लेख से महुआ माजी के उपन्यास 'मैं बोरिशाइल्ला' की समीक्षा करते हुए लेखिका ने विस्थापन के दर्द को उकेरा है। “संताल संस्कृति की संघर्ष महागाथा : बाजत अनहद ढ़ोल” शीर्षक लेख संताल आदिवासियों के संघर्ष को याद करते हुए उनकी समस्याओं को सामने लाने का प्रयास है। किताब का आखिरी लेख “वृद्धावस्था विमर्श” है। जिस तरह जीवन का आखिरी पड़ाव वृद्धावस्था है वैसे ही सभी विमर्शों की चर्चा के बाद लेखिका ने वृद्धावस्था विमर्श की बात की है, हालांकि यह last but not the least है। इस महत्वपूर्ण विमर्श में वृद्ध लोगों के साथ स्नेह और सद्भाव बनाए रखने के आह्वान के साथ लेखिका लिखती हैं “वास्तव में वृद्धों को चाहिए थोड़ा सा स्नेह और आत्मीयता। उन्हें आश्वासन चाहिए कि वे सुरक्षित हैं। बस यही उनकी अपेक्षाएँ हैं।” और इतना तो हम उन्हें दे ही सकते हैं।

जी. नीरजा के इन लेखों को पढ़ते हुए अनायास ही मेरे ज़ेहन में बचपन में की गई रेल यात्रा उभरती है जिसमें खट्टी-मीठी चौकलेट बेचने वाला ‘बारह मसाले तेरह स्वाद’ की आवाज़ लगाता था। ये सभी लेख अलग-अलग समय में लिखे गए हैं इसलिए इनकी अपनी अलग पहचान तो है ही लेकिन इस किताब में संकलित हो जाने और इन्हें एक साथ पढ़ने से पाठक इन लेखों के ‘तेरहवें स्वाद’ से भी परिचित हो सकेंगे। जी. नीरजा अपने लेखों में, स्थापित किताबों के माध्यम से मजबूत तटबंध बनाती हैं और फिर इन तटबंधों के बीच अपनी बात प्रखरता से रखती हैं इस बात से आश्वस्त कि ये तटबंध उन्हें विषयांतर से बचाते हुए अपनी बात रखने की आज़ादी देंगे। लेखिका के शब्दों की सरलता सुनिश्चित करती है कि इन तटबंधों के बीच इनके विचारों का प्रवाह अवरुद्ध न हो। हालांकि यह किताब आधुनिक साहित्य की बात करती है लेकिन इसमें संकलित कई विमर्श हमें इस परिधि से परे देखने का आग्रह करते हैं। अज्ञेय ने भी लिखा “आधुनिक हिंदी साहित्य की परंपरा अथवा उसका परिदृश्य उतना लंबा नहीं है कि कुछ बातों की परीक्षा हम उसी की सीमा के भीतर रहते हुए कर सकें। लेकिन यह बिल्कुल जरूरी भी नहीं है, उचित भी नहीं है, कि हम अपने को उसी सीमा से बांध कर रखें।“ मितभाषी नीरजा, जो बहुत ही कम बोलती हैं, के आसपास शब्दों का सन्नाटा रहता है लेकिन उनके लिखे शब्द राष्ट्रीय परिदृश्य पर कोलाहल मचा रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि यह कोलाहल थमेगा भी नहीं।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

कविता को समझने के लिए ....



तू काव्य :
सदा-वेष्टित यथार्थ
चिर-तनित,
भारहीन, गुरु,
अव्यय।

तू छलता है
पर हर छल में
तू और विशद, अभ्रान्त,
अनूठा होता जाता है। (अज्ञेय)

कविता सहृदय और संवेदनशील मनुष्य के मन की उपज है। इसे एक निश्चित परिभाषा में बाँधना कठिन कार्य है। फिर भी अनेक विद्वानों ने इसे पारिभाषित करने का प्रयास किया है। कविता को पारिभाषित करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है?’ में कहा है कि ‘कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है।’ काव्यशास्त्र में इन्हीं मनोवेगों को रस कहा जाता है।

भारतीय काव्यशास्त्रियों ने कवि और कविता को उदात्त माना है। भारतीय काव्यशास्त्र में कवि को महत्व दिया गया है। भरतमुनि समेत अनेक आचार्यों ने काव्य के गुणों की चर्चा की है। आनंदवर्धन ने तो कवि को प्रजापति कहा है (अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति)। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने कविता को उन्माद कहा है, तो विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को तीव्र मनोभावों का सहज उच्छलन कहा है। चाहे कोई भी कुछ भी कहे, साहित्य अथवा कविता व्यक्ति के आंतरिक मनोभावों की अभिव्यक्ति है। सृजनात्मकता का परिचायक है। कविता की शक्ति का एक बड़ा उदाहरण यह है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय कविता ने जनमानस को जागृत करने का कार्य किया है। कवि के सामने अनेक तरह की चुनौतियाँ रहती हैं। जब तक पाठक काव्य-वस्तु में नहीं डूबेंगे, तब तक कविता के अर्थ को समझ नहीं पाएँगे। इस ‘डूबने’ की प्रक्रिया को विद्यानिवास मिश्र शब्दार्थ-व्यापार कहते हैं, ‘क्योंकि शब्द ही डूबने का प्रेरक भी है, शब्द ही तिरने का साधन भी।’ (विद्यानिवास मिश्र, रीतिविज्ञान, पृ. 35)। वे आगे यह कहते हैं कि ‘कविता बोलचाल की भाषा से ही नहीं, एकदम भदेसी एवं अंतरंग अनगढ़ बोलचाल की भाषा से शब्द लेने के लिए लाचार हो जाती है।’ (वही, पृ. 47)। कहने का तात्पर्य है कि कवियों की मानसिकता में जैसे-जैसे परिवर्तन होगा, वैसे-वैसे कविता के प्रतिमान बदलने लगेंगे। कविता को समझने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है। मेरे हाथ एक ऐसी पुस्तक लगी जो कविता को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। ‘हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान’ (2021) शीर्षक यह पुस्तक कविता को समझने के लिए सहायक सिद्ध होगी। साहित्य रत्नाकर, कानपुर से प्रकाशित इस पुस्तक के रचनाकार हैं प्रसिद्ध तेवरीकार प्रो. ऋषभदेव शर्मा। इस पुस्तक को पढ़ते समय पाठकों में सहज जिज्ञासा जागृत होगी, क्योंकि इस पुस्तक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कवि महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण है प्रवृत्तियाँ; और वे परिस्थितियाँ जिनके कारण प्रवृत्तियों का जन्म होता है।

इस पुस्तक में कुल आठ सोपान हैं। पहला सोपान है ‘नींव का परिवेश और विचारों की यात्रा’, जो विशेष रूप से 1950 के बाद की कविता को समझने में सहायक है। इसमें यह देखने को मिलता है कि 1950 से लेकर 1970 तक की काव्य-यात्रा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है लोक जीवन और लोक संस्कृति तथा प्रकृति के साथ कविता का रागात्मक संबंध। इस कालखंड में अनेक काव्यांदोलन उभर कर सामने आए। इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में परिस्थितियों के प्रति आक्रोश और नए रास्ते खोजने की चाहत को प्रमुख रूप से देखा जा सकता है, जिनके कारण काव्य-स्थितियाँ बदलीं और नई प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। परिवर्तनों को प्रोत्साहन मिला। कवियों की मानसिकता बदलने लगी। ‘परंपरा और परिवेश के बीच संवाद-सेतु के रूप में कार्य करने वाला कवि जब दोनों को ही आत्मसात कर लेता है, तब उस युग की सच्ची कविता पैदा होती है।’ (पृ. 38)। सो, हुई।

कविता और राष्ट्रीयता का गहरा संबंध होता है। दोनों को अलग करके देखना कठिन कार्य है। ‘कविता जिस परंपरा से जीवन ग्रहण करती है, वह किसी समाज और राष्ट्र की सांस्कृतिक परंपरा ही होती है।’ (पृ. 48)। साहित्य के विद्यार्थी यह भलीभाँति जानते हैं कि आठवें-नवें दशक की कविता का मूल स्वर यही ‘राष्ट्रीय चेतना’ है। इसे लेखक ने ‘देश के सिर से बहते हुए रक्त से कविता की बातचीत’ शीर्षक दूसरे सोपान में बखूबी उकेरा है। इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘कविता ने व्यक्ति को देश के एकदम निकट ले जाने की कोशिश की है, क्योंकि उसकी निकटता प्राप्त किए बिना निर्माण की संभावनाएँ क्षीण हो जाती हैं। ... राष्ट्र-निर्माण के लिए गाँव को समझना और उसके जीवन को पहचानना अनिवार्य है।’ (पृ. 57)।

आधुनिक समाज को नियंत्रित करने वाले दो प्रमुख तत्व हैं - विज्ञान और परंपरागत सामाजिक मान्यताएँ तथा मूल्य। स्वस्थ समाज के निर्माण में इन दोनों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। 1970 के बाद की परिस्थितियों पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक मूल्य तेजी से बदलने लगे। मूल्य-ह्रास की प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई। इन परिस्थितियों ने कवि की रचनाशीलता को भी प्रभावित किया। परिणामस्वरूप कविता की प्रवृत्तियाँ बदलने लगीं। नई सभ्यता विकसित होने लगी। मनुष्य का जीवन दबावों के बीच फँस गया। ‘पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति और परिचय के अभाव ने मनुष्य को एक कैलेंडर की शक्ल दे दी है, जिसमें वर्ष भर के समय का लेखा-जोखा तो होता है किंतु जीवंतता नहीं होती’ (पृ. 72), तो कवि पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित हुआ। जनपक्षधरता का गुण उभरकर सामने आने लगा। इसका खुलासा ‘सामाजिकता, परंपराबोध और कविता’ शीर्षक तीसरे सोपान में हुआ है।

‘कविता और राजनीति का आमना-सामना’ शीर्षक चौथे सोपान में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘कविता ने जनपक्षीय राजनैतिक मूल्यों को ग्रहण करके राजनीति के यथार्थ तथा जनता के मन के आक्रोश को मुख्य रूप से अभिव्यक्ति दी है।’ (पृ. 99)। आज़ादी के बाद देश में धीरे-धीरे कुर्सीधर्मी राजनीति पनपने लगी। ‘हिंसा’ इस कुर्सीधर्मी राजनीति का दूसरा चरित्र है। सन सत्तर के बाद देश भर में जो हिंसक घटनाएँ हुईं उनके पीछे राजनीति का हाथ है। जन-प्रतिनिधि ‘रक्षक’ के बदले ‘भक्षक’ बनने लगे। व्यक्ति केंद्रित राजनीति पनपने लगी। तानाशाही का उदय होने लगा। जनता का मोहभंग होने लगा। उनके स्वप्न बिखरने लगे। निरंकुशता बढ़ने लगी। ऐसी स्थिति में संघर्ष अनिवार्य था। 1970 के बाद की कविता ने इन परिस्थितियों को चित्रित ही नहीं किया, बल्कि इनके कारण उत्पन्न असंतोष और आक्रोश को भी अभिव्यक्त किया।

1960 के आस-पास हिंदी कविता के क्षेत्र में अनके काव्यांदोलन हुए। जैसे नवगीत, अकविता, अभिनव कविता या एण्टी कविता, ताजी कविता, सांप्रतिक कविता, अस्वीकृत कविता, सचेतन कविता, बीट कविता, विद्रोही कविता, युयुत्सावादी कविता, साठोत्तरी कविता, सहज कविता, सनातन सूर्योदयी कविता, अगीत, ग़ज़ल, तेवरी, मंत्र कविता आंदोलन आदि। इनमें से कुछ आंदोलन आठवें-नवें दशक की कविता के साथ भी चलते देखे जा सकते हैं। ‘आंदोलनों के मंच पर बोलती कविता’ शीर्षक पाँचवे सोपान में इन आंदोलनों और परिस्थितियों का परिचय सम्मिलित है, जो हर पाठक को जानना बेहद जरूरी है।

1970 के बाद कविता जिन सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित हुई उनसे ‘कविता की समग्र दृष्टि से साक्षात्कार’ शीर्षक सोपान में परिचित हुआ जा सकेगा। सत्तर के बाद की कविता के संबंध में कुछ आक्षेप हैं। जैसे वक्तव्य की प्रधानता, शहरी वातावरण की प्रधानता, भारतीय जीवन की ठोस चुनौतियों का अभाव आदि। परंतु इस सोपान में यह स्पष्ट किया गया है कि ‘इस काल की कविता में जनवादी काव्यांदोलन नए तेवर और तैयारी के साथ उभरा। इन कविताओं में संघर्ष का तेवर मुख्य है और राजनीतिक तथा आर्थिक शोषण इनका उपजीव्य है।’ (पृ. 182)। उपलब्धियों की दृष्टि से इस दशक की कविता संपन्न कविता है।

इक्कीसवीं सदी की कविता में एक बार फिर कथात्मकता, छंद और लय की वापसी हुई। समकालीन रचनाधर्मिता के मर्म को जानना हो, तो ‘कविता की रचनाधार्मिता : जनपद और लोक’ शीर्षक सोपान से गुजरना काफ़ी है। लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि विश्वसनीयता, लोकचित्त, विचार, नई भाषा की तलाश आदि समकालीन रचनाधार्मिता के प्रमुख बिंदु हैं। उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि इस कविता में स्थानीयता और तात्कालिकता के बावजूद सार्वभौमता और विश्वदृष्टि को साधा जा सका है।

उत्तर आधुनिक विकेंद्रीकरण के कारण समाज, राजनीति, साहित्य, कला और दर्शन आदि सभी क्षेत्रों में नए-नए खंड बन रहे हैं- स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, किन्नर, किसान, वृद्ध आदि। कहने का आशय है कि हाशिये के भीतर धकेले गए समुदाय अब अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ‘उत्तर आधुनिकता के क्षितिज पर विमर्शों का इंद्रधनुष’ शीर्षक अंतिम सोपान में इस बात की गहन चर्चा करते हुए लेखक ने विशेष रूप से दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श पर केंद्रित कविता का आकलन किया है और निरूपित किया है कि बहुकेंद्रीयता नई सदी के आरंभिक दशकों की मुख्य परिस्थिति भी है, और प्रवृत्ति भी।

अंततः कहना ही होगा कि कविता के क्षेत्र में अनुसंधानरत शोधार्थियों और शोध निर्देशकों के लिए ‘हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान’ निश्चित रूप से एक आकर ग्रंथ सिद्ध होगा। यह पुस्तक बहुत ही प्रासंगिक है। इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ेंगे तो आप अनेक प्रवृत्तियों और उप-प्रवृत्तियों को जरूर चिह्नित कर सकेंगे। लेकिन इसके लिए परिश्रम करना ही होगा। जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ! (कबीर)। लेखक ने समकालीन कविता के सागर में गहरा गोता लगाकर ही ये मोती खोजे हैं।

***

समीक्षित पुस्तक : हिंदी कविता : अतीत से वर्तमान तक
लेखक : ऋषभदेव शर्मा
प्रकाशन वर्ष : 2021
प्रकाशक : साहित्य रत्नाकर, कानपुर
पृष्ठ : 224
मूल्य : रु. 495/-

'महाबली' : संतन कहा सीकरी सों काम




यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि 2021 का प्रतिष्ठित व्यास सम्मान असग़र वजाहत (5 जुलाई, 1946) को उनके नाटक ‘महाबली’ (2019) के लिए प्रदान किया जा रहा है। ‘स्रवंति’ परिवार की ओर से उन्हें हार्दिक अभिनंदन! स्मरणीय है कि वे हिंदी अकादमी दिल्ली के श्रेष्ठ नाटककार सम्मान (2009-10), संगीत नाटक अकादमी अवार्ड (2014), दिल्ली हिंदी अकादमी के सर्वोच्च शलाका सम्मान (2016) से अलंकृत हो चुके हैं।

असग़र वजाहत सुप्रसिद्ध नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार और व्यंग्यकार हैं। अँधेरे से (1977), दिल्ली पहुँचना है (1983), स्विमिंग पूल (1990), सब कहाँ कुछ (1991), मैं हिंदू हूँ (2006), डेमोक्रेसिया (2010) आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। मुश्किल काम (2010) और भीड़तंत्र (2018) लघुकथा संग्रह हैं। 10 प्रतिनिधि कहानियाँ, मेरी प्रिय कहानियाँ, पिचासी कहानियाँ और असग़र वजाहत : श्रेष्ठ कहानियाँ - उनकी चयनित कहानियों के संग्रह हैं। फ़िरंगी लौट आये, वीरगति (1981), इन्ना की आवाज़ (1986), समिधा, जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्याइ नई (1991), गोडसे@गांधी.कॉम (2012), पाकिटमार रंगमंडल आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। सबसे सस्ता गोश्त (2015) उनके 14 नुक्कड़ नाटकों का संग्रह है। सात आसमान (1996), पहर-दोपहर, कैसी आगी लगाई (2006), बरखा रचाई (2011), धरा अँकुराई (2014) उनके उपन्यास हैं। इनके अतिरिक्त उन्होंने आलोचना, धारावाहिक, यात्रावृत्तांत और पटकथाएँ भी लिखी हैं।

असग़र वजाहत ने लेखन की शुरूआत कहानी के माध्यम से की। इस पर प्रकाश डालते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि ‘सबसे पहले कहानी लिखी। उर्दू में लिखी पहली कहानी ‘वो बिक गई’ शहरे तमन्ना अख़बार में 1962-63 में अलीगढ़ में छपी थी।’ उनकी मान्यता है कि साहित्य को सार्थक दिशा नई चुनौतियों से मिलती है। रंगों से संवेदना प्रकट करना यदि कला है, तो शब्दों से संवेदना की अभिव्यक्ति लेखन है। उन्होंने इसी लेखन को अपना शस्त्र बनाया। अपने लेखन के संबंध उन्होंने कहा है, ‘अभिव्यक्ति या अपनी बात कहने और जो कुछ हमारे आस-पास हो रहा है इसका एक तरह से विरोध करने का जो कलात्मक जीवन हो सकता है या लोगों के बदलने और लोगों के अंदर कुछ इच्छाएँ जगाने की कोशिश की जा सकती है, उसके लिए अलग-अलग तरीके अपनाते हैं। इसके लिए मैंने लेखन को अपनाया।’ साहित्य में एक दौर ऐसा भी आया, जब अपशब्दों को यथार्थ की पहचान माना जाने लगा था। लेकिन असग़र वजाहत अपशब्दों के प्रयोग का यह कहकर खंडन करते हैं कि चटखारे के लिए अपशब्दों के प्रयोग कहानी को कमज़ोर व भद्दा बनाते हैं। अतः ऐसे प्रयोगों से साहित्यकार को बचना चाहिए।

असग़र वजाहत एक सफल नाटककार हैं। उन्हें यह पता है कि नाटक के माध्यम से न ही पैसा कमाया जा सकता है और न ही किसी का समर्थन, फिर भी उन्होंने इस विधा को सशक्त बनाया। उनका कहना है, ‘मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि नाटक में न पैसा है, न प्रसिद्धि और न ही कोई सरकारी समर्थन या सहयोग। फिर भी नाटक लिख रहा हूँ। सिर्फ आत्माभिव्यक्ति और आत्म-संतुष्टि के लिए।’ आत्माभिव्यक्ति और आत्म-संतुष्टि के लिए लिखे गए नाटक ‘महाबली’ के कारण उन्हें आज व्यास सम्मान से पुरस्कृत किया जा रहा है।

‘महाबली’ नाटक के बारे में कहें तो यह नाटक सत्ता और कला के बीच के संबंधों पर आधारित है। इसमें मुगल सम्राट अकबर और तुलसीदास की बातचीत है जो सत्ता और कला के संबंधों पर विस्तृत प्रकाश डालती है। इस नाटक की भूमिका में स्वयं असग़र वजाहत ने इस बात की पुष्टि की है कि ‘सम्राट अकबर को अपने दरबार में प्रतिभाओं को जमा करने का शौक था। वह आज भी अपने नौ रत्नों के लिए जाना जाता है। नौ रत्नों के अतिरिक्त उसके दरबार में अलग-अलग प्रकार के विद्वान, धर्मशास्त्री, कलाविद् और हर क्षेत्र की प्रतिभाएँ दिखाई देती हैं। ऐसी स्थिति में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सम्राट अकबर ने महाकवि तुलसीदास को अपने दरबार में बुलाने की कोशिश की होगी। इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। नाटक में यह दर्शाया गया है कि सम्राट अकबार ने तुलसीदास को सीकरी बुलाया था और वे सीकरी नहीं गए। इस घटना के माध्यम से तुलसीदास और अकबर ही नहीं, बल्कि राजसत्ता और कला के पारस्परिक द्वंद्व को उभारा गया है।’

इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं कि तुलसीदास और सम्राट अकबर दोनों की भेंट हुई थी। लेकिन असग़र वजाहत यह मानते हैं कि दोनों का मिलना जरूरी है। उन्होंने अपनी कल्पना को विस्तार दिया और दोनों के बीच संवाद स्थापित किया। और इस संवाद के माध्यम से उन्होंने लोकतंत्रीकरण, राजसत्ता और कला के संबंध में गहन विचार-विमर्श प्रस्तुत किए। वे नई पीढ़ी के रचनाकारों से यह अपील करते हैं कि ‘नई पीढ़ी के लेखकों को वही लिखना चाहिए जो वे पूरी तरह अनुभव करते हों। जिस पर उनका विश्वास हो। जो उन्हें दिल से निकली हुई बात लगती हो। नए लेखकों को किसी तरह का विशेष आग्रह लेकर नहीं चलना चाहिए।’

पुनश्च : दक्षिण भारत में असग़र वजाहत शोधार्थियों और शोध निर्देशकों में अति लोकप्रिय हस्ताक्षर हैं। उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के हैदराबाद केंद्र में ‘असग़र वजाहत के कहानी संग्रह ‘डेमोक्रेसिया’ में समकालीन बोध और व्यंग्य’ विषय पर मेरे ही निर्देशन में राहुल ने 2014 में लघुशोध प्रबंध प्रस्तुत किया था।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

(पुस्तक समीक्षा) साहित्य, संस्कृति और भाषा

साहित्य, संस्कृति और भाषा (2021)
ऋषभदेव शर्मा
अमन प्रकशन, कानपुर
 पृष्ठ 200, मूल्य : रु 495



साहित्य, संस्कृति और भाषा – इन तीनों का परस्पर संबंध अटूट है क्योंकि देश-दुनिया की संस्कृति की जितनी प्रभावी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से संभव है, उतनी किसी अन्य माध्यम से नहीं; तथा यह अभिव्यक्ति भाषा पर निर्भर है। साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण है कि ये तीनों सतत प्रवाहशील है, जड़ नहीं। साहित्य का मूल भाव ‘सहित’ है जो उसे संस्कृति का वाहक बनाता है। साहित्यकार अपने आस-पास के परिवेश से तथा अपने अनुभूत संसार से ही कथ्य ग्रहण करता है और उसे भाषाबद्ध करता है। वह अपनी संस्कृति और परिवेश को अपने अनुभवों के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोता है कि पाठक को रोचक लगे। इसलिए जब हम किसी रचना को पढ़ते हैं तो उस देश-काल की स्थितियों एवं वहाँ की संस्कृति को आत्मसात करते चलते हैं। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्य मनुष्य की संवेदनात्मक क्षमता का परिणाम है।

इसी प्रकार संस्कृति मानव जीवन को संस्कारित करने में सहायक सिद्ध होती है। संस्कृति जीवन के मानवीय मूल्यों का पुंज है। और समय के साथ-साथ इन मूल्यों को संस्कारित करना पड़ता है और यह देखना पड़ता है कि वे आज के युग में कहाँ ठहरते हैं। महादेवी के शब्दों में कहें तो संस्कृति के मूल में मानवीय तत्व हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हम इन तत्वों का कहाँ तक उपयोग कर पा रहे हैं? इन सब बातों को रचनाकार किसी न किसी साहित्यिक माध्यम के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

प्रतिष्ठित हिंदी सेवी, कवि और समीक्षक प्रो. ऋषभदेव शर्मा (1957) ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ (2021) में बड़े रोचक ढंग से इन तीनों के विविध आयामों एवं चुनौतियों को कुल चार खंडों में सम्मिलित 18 आलोचनात्मक आलेखों में बखूबी उजागर किया है।

‘भारतीय संस्कृति : आज की चुनौतियाँ’, ‘बदलती चुनौतियाँ और हिंदी की आवश्यकता’, ‘हिंदी की दुनिया : दुनिया में हिंदी’, ‘देश और उसकी भाषा’, ‘विश्वशांति और हिंदी’ तथा ‘हिंदी भाषा की विश्वव्यापकता’ शीर्षक छह आलेख प्रथम खंड में सम्मिलित हैं। इन आलेखों से पता चलता है कि लेखक की दृष्टि वैश्विक है। उनका मानना है कि “भारतीय संस्कृति मनुष्य के भीतर छिपी हुई उसकी दिव्यता को प्रकाशित करने के प्रयत्नों का सामूहिक नाम है।“ (पृ.11)। भारतीय संस्कृति का केंद्रीय मूल्य ‘भारतीयता’ है। लेखक ने इसे ‘अविरोधी भाव’ कहा है। हमारी संस्कृति बहुत ही प्राचीन संस्कृति है। इसके अपने मूल्य हैं। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि भारतीय मूल्य दृष्टि के दो लक्ष्य हैं – अभ्युदय और निःश्रेयस। जहाँ धर्म, अर्थ और काम अभ्युदय से जुड़े हैं वहीं मोक्ष निःश्रेयस से जुड़ा हुआ है। लेखक ने यह चिंता व्यक्त की है कि “किसी एक साहित्यिक कृति का खो जाना या विकृत हो जाना संस्कृति के किसी पक्ष का खो जाना या विकृत हो जाना है। इसी प्रकार एक मातृभाषा का लुप्त हो जाना भी उसके साथ जुड़ी हुई समूची सांस्कृतिक विरासत का लुप्त हो जाना है। नित नएपन की झोंक में यदि हम अपने साहित्य को विकृत करते हैं या भाषा के एक भी प्रतीक को मर जाने देते हैं, शब्दों को प्रचलन के बाहर चला जाने देते हैं, साहित्यिक धाराओं को लुप्त हो जाने देते हैं तो वस्तुतः हम संस्कृति की हत्या कर रहे होते हैं।“ (पृ.14)। इस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करते हुए प्रो. शर्मा कहते हैं कि हजारों मातृभाषाओं और जनभाषाओं से लेकर अनेक क्लासिक भाषाओं तक की विराट भाषिक और साहित्यिक संपत्ति को सँभालकर रखना होगा और साथ ही उसमें निहित उच्च मानवीय मूल्यों तथा उदात्त भारतीय संस्कृति को विश्व के समक्ष रखना होगा।

किसी देश की संस्कृति और इतिहास को जानने और पहचानने का माध्यम या कहे साधन भाषा ही होती है। लंबे समय से हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयास जारी है। सितंबर का महीना आते ही हिंदी पर्व की गहमागहमी शुरू हो जाती है। 1918 में महात्मा गांधी ने हिंदी को भारतीय स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तावित किया था और स्वीकृत भी। लेकिन संविधान के अंतर्गत हिंदी को ‘राजभाषा’ ही कहा जा सका। वह भी अभी तक केवल सिद्धांत रूप में ही है, व्यवहार में नहीं। भाषा के नाम पर यह देश टुकड़ों में बँटता जा रहा है। लेखक को इसकी चिंता सालती है। अतः वे स्पष्ट स्वर में घोषित करते हैं कि “बदली हुई परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ जैसी नारेबाजी से दूर रखकर, ‘भाषा’ के रूप में प्रचारित-प्रसारित किए जाने की जरूरत है – जिसे मनुष्य सूचनाओं के आदान-प्रदान, जिज्ञासाओं की शांति, आत्मा की अभिव्यक्ति और संप्रेषण की सिद्धि के निमित्त सीखा करते हैं।“ (पृ.17)। प्रो. शर्मा यह मानते हैं कि ग्लोबल विस्तार तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में हिंदी की दावेदारी बेहद मजबूत है।

इस पुस्तक के दूसरे खंड में तीन आलेख सम्मिलित हैं जिनका अपना महत्व है। नीना पाले की एनीमेशन फिल्म ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज’ को आधार बनाकर लेखक ने ‘रामकथा आधारित एनीमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज’ : एक अध्ययन’ शीर्षक आलेख में यह स्पष्ट किया है कि यह फिल्म “स्त्री-प्रश्नों के अलावा सत्य और न्याय के भी शाश्वत प्रश्नों पर सोचने के लिए अपने ग्लोबल दर्शक समुदाय को प्रेरित करती है और राम-संस्कृति की विश्वयात्रा को आगे बढ़ाती है।“ (पृ.51)

‘प्रवासी हिंदी कवियों की संवेदना : सरोकार के धरातल’ शीर्षक आलेख में प्रो. शर्मा ने 10 प्रतिनिधि प्रवासी हिंदी कवियों की कविताओं का विश्लेषण करते हुए यह निरूपित किया है कि “अलग-अलग देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा रची जा रही हिंदी कविता में सामाजिक न्याय, मानव अधिकार, जीवन मूल्य, सांस्कृतिक बोध, इतिहास बोध, लोकतत्व, प्रेम और सौंदर्य समान रूप से मुख्य कथ्य बनते दिखाई देते हैं।“ (पृ. 63)। एक और आलेख में प्रवासी साहित्यकार अभिमन्यु अनत के साहित्य में निहित समाजार्थिक चेतना को उजागर किया गया है।

तीसरे खंड में भारतीय साहित्य के विविध आयामों पर प्रकाश डाला गया है। ‘तुलनात्मक भारतीय साहित्य : अवधारणा और मूल्य’ शीर्षक आलेख में लेखक ने सामान्य साहित्य, राष्ट्रीय साहत्य और विश्व साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है कि राष्ट्रीय साहित्य द्वारा तुलनात्मक साहित्य का आधार तैयार होता है तथा तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ही राष्ट्रीय साहित्य और उसमें निहित राष्ट्रीयता के तत्वों की पहचान की जा सकती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि भारतीय साहित्य की पहचान का मूल आधार भारतीयता है। इस आलेख में लेखक ने भारतीय साहित्य के पारंपरिक महत्व पर भी प्रकाश डाला है।

‘भारतीय साहित्य का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य : विविध आयाम’ शीर्षक आलेख में प्रो. शर्मा ने कुछ प्रमुख एवं गौण आयामों पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार मनुष्यता, संस्कृति, लोकतांत्रिक चेतना, जिजीविषा प्रमुख आयाम हैं तो भारतीय साहित्य का भौगोलिक विस्तार गौण आयाम। उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया है कि अनुवाद तथा अनुसृजन के माध्यम से इसका निरंतर प्रसार हो रहा है। ‘भारतीय साहित्य में दलित विमर्श : मणिपुरी समाज का संदर्भ’ शीर्षक आलेख में लेखक ने यह चौंकाने वाला तथ्य उजागर किया है कि मणिपुर के साहित्य में दलित विमर्श है ही नहीं क्योंकि मणिपुरी समाज में वर्ण और जाति की प्रथा कभी नहीं रही। उन्होंने यह निरूपित किया है कि वहाँ “जनजाति की व्यवस्था अभी भी सभ्यता की आदिम अवस्था में सुरक्षित है और उनकी अपनी जनजातीय संस्थाएँ हैं जिनमें वर्ण या जातिगत सामाजिक अन्याय और भेदभाव की कोई अवधारणा ही नहीं है।“ (पृ. 97)

‘आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता’ शीर्षक आलेख में लेखक ने दोनों तेलुगु भाषी प्रांतों की पत्रकारिता के ऐतिहासिक विकास क्रम को उजागर किया है। प्रामाणिक रूप से उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि तेलुगु पत्रकारिता 19वीं सदी के दूसरे दशक से ही आरंभ हो गई थी। “इसके बाद उर्दू पत्रकारिता का उदय 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हुआ जबकि हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए हिंदी अभियान के दौर में और खास तौर से ब्रिटिश और निजाम शासन के विरुद्ध आर्य समाज की राष्ट्रीय गतिविधियों के साथ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के आरंभिक वर्षों में उदित हुई।“ (पृ. 99-100)। निश्चित रूप से यह आलेख दस्तावेजी महत्व का है।

पुस्तक के अंतिम खंड में कुल पाँच आलेख शामिल हैं। इस खंड के पहले आलेख में हिंदी साहित्य के वैश्विक परिप्रेक्ष्य को उजागर किया गया है। पहले भी कहा जा चुका है कि लेखक की दृष्टि वैश्विक है। उन्होंने यह निरूपित किया है कि “हिंदी का चरित्र मूलतः समाज-सांस्कृतिक चरित्र है और इसकी समाज-सांस्कृतिकता दूसरे देशों से आयातित समाज-सांस्कृतिकता नहीं है बल्कि यह अपनी भाषाओं से, अपने देश की स्थितियों से, अपने देश के सामाजिक विकास से, अपने देश के सभ्यतागत विकास से, अपने देश के परंपरागत ज्ञान की बड़ी बृहत परंपराओं से ग्रहण की हुई समाज-सांस्कृतिकता है, इसलिए हिंदी साहित्य वैश्विक परिप्रेक्षय के संदर्भ में जो चीज ग्रहण कर रहा है वह अपनी समाज-सांस्कृतिकता के परिप्रेक्ष्य में ही ग्रहण कर रहा है।“ (पृ. 120)। इके पश्चात लेखक ने कुल 43 पृष्ठों में आदिकाल से लेकर रीतिकाल पर्यंत हिंदी साहित्य के ऐतिहासिक परिप्रेक्षय को सरल एवं सुबोध भाषा शैली में समेटा है।

तेलुगु भाषी हिंदी साहित्यकार आलूरि बैरागी चौधरी के बारे में हिंदी पाठक बहुत कम जानते हैं। आंध्र प्रदेश में जन्मे आलूरि बैरागी की स्कूली शिक्षा कक्षा 3 तक ही हो सकी लेकिन स्वाध्याय द्वारा उन्होंने तेलुगु, हिंदी और अंग्रेजी पर अधिकार प्राप्त करने के साथ-साथ इन तीनों भाषाओं में काव्य-सृजन भी किया। लेखक ने हिंदी पाठकों को उनके कविकर्म से परिचित करवाया है। जहाँ एक ओर उन्होंने तेलुगुभाषी हिंदी साहित्यकार का परिचय दिया है वहीं दूसरी ओर समकालीन हिंदी कविता की राष्ट्रीय चेतना को उकेरा है। यह महज एक आलेख नहीं बल्कि एक संपूर्ण शोध की रूपरेखा है।

ऋषभदेव शर्मा सकारात्मक सोच रखने वाले संवेदनशील साहित्यकार हैं। उनका संवेदनशील हृदय समाज की विसंगतियों को देखकर उद्वेलित हो उठता है। उनकी निष्पक्षता इस बात से प्रमाणित होती है कि उनके लेखन में कहीं भी गुटबाजी नहीं दीखती। हर बात पर वे बहुत स्पष्ट विचार प्रस्तुत करते हैं। नकारात्मक पक्ष को भी सकारात्मक दृष्टि से ही आँकते हैं। समाज के निचले स्तर के लोगों तथा हाशिये पर ढकेले गए लोगों के प्रति उनके मन में सहानुभूति है। उनके अनुसार कोई भी वर्ग निम्नतर नहीं है। इस समाज में वेश्याओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी स्थिति में उन पर लिखने के लिए कोई भी सौ बार सोचता है। डॉ. शर्मा ने चार उपन्यासों (सेवासदन, अप्सरा, तिनका तिनके पास और दस द्वारे का पिंजरा) के हवाले से वेश्याओं के पुनर्वास की बात उठाई है क्योंकि वे यह मानते हैं कि मनुष्य को रहने के लिए बेहतर व्यवस्था, बेहतर धरती और बेहतर भविष्य की आवश्यकता है। वे तुलसी की भाँति लोकमंगल की कामना करने वाले साहित्यकार हैं- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।‘








भाषा (केंद्रीय हिंदी निदेशालय भारत सरकार), अंक 298 वर्ष 60, सितंबर-अक्टूबर 2021, पृ. 137-140