गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं : ‘अम्न का राग’



"मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण समूह में हूँ मैं केवल
एक कण!
- कौन सहारा!
मेरा कौन सहारा!" (शमशेर; ‘लेकर सीधा नाम’; कुछ कविताएँ; पृ.17)।

शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी,1911 -12 मई,1993) ने प्रगतिशील कविता को एक नया आयाम दिया है। वे कम्यूनिस्ट आदर्शों से अपने आपको प्रभावित मानते हैं। उन्होंने स्वयं कहा है कि "बनारस में शिवदान सिंह चौहान के सत्संग से सहित्य के प्रगतिशील आंदोलन में कुछ दिलचस्पी पैदा हुई। सन्‌ 45 में ‘नया साहित्य’ के संपादन के सिलसिले में बंबई गया। वहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी के संगठित जीवन में, अपने मन में अस्पष्‍ट बने हुए सामाजिक आदर्शों का मैंने एक बहुत सुंदर सजीव रूप देखा।" (डॉ.सूर्यप्रकाश विद्‍यालंकार; सप्‍तक त्रय : आधुनिकता एवं परंपरा; पृ.183)।

शमशेर ने लौकिक जीवन के अनेक रंगों और मानव हृदय की भावनाओं को अपनी कविता में उकेरा है। उन्होंने सूक्ष्मतम संवेदनाओं और अनुभूतियों की कभी उपेक्षा नहीं की। इतना ही नहीं उन्होंने चित्रकला, संगीत और स्थापत्य के उपकरणों का भी कविता में प्रयोग किया है। शमशेर ने एक अनूठी शैली विकसित की जिसे ‘शमशेरियत’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने शब्द को साकार रूप दिया। अपनी रचना शैली पर पड़े विभिन्न कवियों के प्रभाव के संबंध में उनका कहना है कि "फिर भी जो रचना शैली मैं सन्‌ 39 से अपनाता चला आया था उसको कोशिश के बावजूद भी सीधा स्पष्‍ट और स्वस्थ रूप नहीं दे सका, हालांकि बंबई आने के बाद ‘नए पत्ते’ के निराला, ‘वक्‍त की आवाज’ के जोश, चंद्रभूषण त्रिवेदी, रामकेर, माया काव्स्की और लोर्का मेरे आदर्श बन गए थे। मेरी शैली पर निराला के अलावा एक के बाद एक बाद और घुल मिलकर भी, इन कवियों की शैली का जिनकी दो-चार आठ-दस कविताएँ मैंने पढ़ ली थीं, काफी असर था, शायद इसलिए कि अपनी भावनाओं की भाषा मुझे एकदम इनमें मिल गई : वर्ले (अनुवाद में), लारेंस, इलियट, पाउंड, कर्मिंग्स, हापकिंस, ईडिथ, सिटवेल, डायलन टामस। ...तथा पंत ने मुझे पहले कविता की भाषा दी।" (वही; पृ.184)।

शमशेर ने अपनी कविताओं में जन आंदोलनों को एक नया रूप देना का प्रयास किया है। वे कहते हैं कि "कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से एकदम कोई अलग चीज़ नहीं हो सकती और इसलिए आज इन संघर्षों का साथ दे रहा है। सभी देशों में बेशक यहाँ भी, दरअसल आज की कला का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलनों में हिस्सा ले रहे हैं। टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि, उस भेद को जहाँ वह है वहीं से पा सकते हैं, वे उसको पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" (डॉ.धनंजय वर्मा, ‘शमशेर : आधुनिकता का समावेशी चरित्र’; (सं) विश्‍वरंजन, ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.92)। शमशेर का यह आत्मसंघर्ष इन काव्य पंक्‍तियों में मुखरित है - "वाम वाम वाम दिशा,/ समय साम्यावादी।/ पृष्‍ठभूमि का विरोध अंधकार - लीन। व्यक्‍ति .../ कुहास्पष्‍ट हृदय-भार, आज हीन।/ हीनभाव, हीनभाव/ मध्यवर्ग का समाज, दीन।/ पथ-प्रदर्शिका मशाल/ कमकर की मुट्ठी में किंतु उधर :/ लाल-लाल/ वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में / पथ प्रदर्शिका मशाल।" (‘वाम वाम वाम दिशा’; कुछ और कविताएँ)।

मध्यवर्गीय समाज की स्थिति दीन-हीन है। इस समाज की मुक्‍ति सिर्फ साम्यवाद में ही निहित है। लाल मशाल जो कामगार की मुट्ठी में है वही मार्ग प्रशस्त करेगी। मार्क्स ने भी कहा था कि "Proletariat alone is a really revolutionary class." (Karl Marx, Friedrich Engles; The Communist Manifesto; Pg. 11)। इसी भाव को शमशेर ने अपनी कविता ‘वाम वाम वाम दिशा’ में व्यक्‍त किया है।

इसी तरह शमशेर ने मजदूर की वास्तविक स्थिति को ‘बात बोलेगी’ में अंकित किया है। इतना ही नहीं उन्होंने समाज और लोगों की स्थिति को उजागर करते हुए लिखा है कि "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।" वे आगे यह प्रश्‍न करते हैं कि जब हमारी दृष्‍टि ही झूठी है तो देखने से क्या होगा - "सत्य का मुख/ झूठ की आँखें/ क्या - देखें!" वे यह भी प्रश्‍न करते हैं कि "सत्य का/ क्या रंग है?"

शमशेर के अनुसार एकमात्र सत्य यही है कि जनता का दुःख एक है। आर्थिक विषमता ही वसतुतः सत्य का रंग है _ "एक - जनता का/ दुःख एक।/ हवा में उड़ती पताकाएँ/ अनेक।" मजदूर के घर की वास्तविक स्थिति भी यही होती है -"दैन्य दानव : काल/ भीषण क्रूर/ स्थिति कंगाल। बुद्धि; घर मजूर।"

कार्ल मार्क्स ने आवाज दी "The Proletarians have nothing to lose but their chains. They have world to win. Working men of all countries, Unite!" (Karl Marx, Friedrich Engles; Th Communist Manifesto; pg. 121)। इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए शमशेर कहते हैं कि अगर दुनिया के मजदूर एक नहीं होंगे तो उनके स्वातंत्र्य की इति समझनी चाहिए क्योंकि स्वतंत्रता के लिए एकता अनिवार्य है - "एक जनता का - अमर वर :/ एकता का स्वर।/ -अन्यथा स्वातंत्र्य - इति।"

शमशेर बौद्धिक स्तर पर मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित है। उनकी कविताओं में मार्क्स के विचारों के साथ साथ कला, प्रेम और प्रकृति के विविध रंग विद्‍यमान है। विजयदेव नारायण साही ने शमशेर की काव्य कला के संबंध में कहा है कि "तात्विक दृष्‍टि से शमशेर की काव्यानुभूति सौंदर्य की ही अनुभूति है। शमशेर की प्रवृत्ति सदा की वस्तुपरकता को उसके शुद्ध और मार्मिक रूप में ग्रहण करने में रही है। वे वस्तुपरकता का आत्मपरकता में और आत्मपरकता का वस्तुपरकता में आविष्‍कार करनेवाले कवि हैं, जिनकी काव्यानुभूति बिंब की नहीं बिंबलोक की है।" (शैलेंद्र चौहान; ‘शमशेर की कविता : क्लासिकल ऊँचाई की कविता है’; (सं) विश्‍वरंजन; ठंडी धुली सुनहरी धूप; पृ.248)।

शमशेर ने अपनी काव्यानुभूति के बारे में स्पष्‍ट करते हुए स्वयं कहा है कि "एक दौर था जब मैं ऐसी (रूमानी भावबोध से युक्‍त) चीजें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था, उसके लिए अपने अंदर काफी प्रेरणा महसूस करता था। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्‍तित्व की पहुँच से ऊँचा और असंभव-सा महसूस होता। फिर भी मैंने अपनी प्रेरणाओं को कुछ ऐतिहासिक सत्यों से जोड़ने की, उनके मर्म को अपनी धड़कन के साथ व्यक्‍त करने की कोशिश कीं ... फिर भी मैं दोहरा कर कहना चाहूँगा कि जहाँ तक वह मेरी निजी उपलब्धि है, वहीं तक मैं उन्हें दूसरों के लिए भी मूल्यवान समझता हूँ।" (शमशेर; कुछ और कविताएँ; भूमिका)।

कलासृजन, संरचना और शिल्प की दृष्‍टि से शमशेर की लंबी कविता ‘अम्न का राग’ उल्लेखनीय है। इसमें कवि ने समाजशास्त्रीय संबंधों को बखूबी उकेरा है। इस कविता में उन्होंने दो राष्‍ट्रों की संस्कृतियों को प्रतिबिंबित किया है। बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से उन्होंने वैश्‍विक दृष्‍टिकोण को उभारा है। शमशेर शोषण, हिंसा और युद्ध का विरोध करते हैं और यह चाहते हैं कि सर्वत्र शांति कायम हो। उन्होंने अपनी इस लंबी कविता ‘अम्न का राग’ की शुरुआत में ही बसंत के नए प्रभात की ओर संकेत किया है - "सच्चाइयाँ/ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं/ हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्‍मुक्‍त नाचते/ परों में झिलमिलाती रहती हैं/ जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है/ उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ/ कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।" छायावादी सौंदर्यबोध से अनुप्राणित प्रतीत होनेवाले इस काव्यांश में कवि ने प्रतीकों के माध्यम से सत्य और शांति को उजागर किया है।

शमशेर देश की सीमाओं को अतिक्रमित करते हुए कहते हैं कि - "ये पूरब-पश्‍चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं/ मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द लपेट लिया।" शमशेर भारतीय एवं पाश्‍चात्य संस्कृतियों को अपनी आत्मा मानते हैं। उनक दृष्‍टिकोण वैश्‍विक है। इसी वैश्‍विक परिदृष्‍य को उकेरते हुए वे कहते हैं कि "मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर/ बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ/ सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं/ क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख शांति का राग हूँ/ बहुत आदिम, बहुत अभिनव।"

इतना ही नहीं शमशेर ने ‘अम्न का राग’ में भारतीय एवं पाश्‍चात्य विचारकों, शायरों, दार्शनिकों, संगीतकारों और रचनाकारों का उल्लेख किया है - "देखो न हक़ीकत हमारे समय की जिसमें/ होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को/ इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है/ कि जिसमें फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ अमर लता हिल उठी/ मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में / झलकता हुआ देख रहा हूँ/ और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते/ और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज मेरा तुलसी मेरी/ ग़ालिब/ एक एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का/ कुशल आपरेटर हैं।"

शमशेर को अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है जितना मास्को का लाल तारा। पीकिंग का स्वर्गीय महल मक्का मदीना से कम पवित्र नहीं - "मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है/ जितना मास्को का लाल तारा/ और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल/ मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं/ मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ/ जो वोल्गा से आए/ मेरी देहली में प्रह्‍लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की/ चौखट पर/ युद्ध के हिरण्यकश्‍य को चीर रही हैं।"शमशेर ने इस कविता में नए नए बिंबों का सृजन किया है। यह कविता उनकी अद्‍भुत सृजनात्मक प्रतिभा का परिचायक है।

शमशेर समस्त संसार में शांति कायम करना चाहते हैं - "यह सुख का भविष्‍य़ शांति की आँखों में ही वर्तमान है/ इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक रहे हैं।" उन्होंने अतीत, वर्तमान और भविष्‍य के सपने को एक साथ पिरोया है - "ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों/ का दिल है/ ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी/ और हमारी कला का सच्चा सपना हैं/ ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं/ ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और/ हक़ीक़त का अमर सपना हैं/ इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ/ पाना है।/ हम मानते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।"

शमशेर की कविताओं में एक ओर छयावादी सौंदर्यबोध है तो दूसरी ओर जीवन मर्म, संघर्ष, शांति और भविष्‍य का सुनहरा सपना गुंफित है। ‘अम्न का राग’ इस दृष्‍टि से उनकी कलात्मकता का प्रतिनिधित्व करनेवाली रचना प्रतीत होती है।

  • `चौथा विमर्श' में प्रकाशित - चौथा विमर्श / (सं) विश्रांत वशिष्ठ / मुजफ्फर नगर/ एलम 


बुधवार, 20 अप्रैल 2011

जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद


"ये आँखें ही अमर सपनों की हकी़क़त और

हकी़क़त का अमर सपना हैं

इन को देख पाना ही अपने आप को देखा पाना है, समझ

पाना है।" (शमशेर बहादुर सिंह, अम्‍न का राग)

शमशेर बहादुर सिंह का जन्‍म 13 जनवरी, 1911 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गाँव एलम में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून तथा प्रयाग में हुई। वे हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी के विद्वान थे। इन तीनों ही भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। इसलिए तो वे कहते हैं कि "मैं उर्दू हिंदी का दोआब हूँ/ मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।"

शमशेर बहादुर सिंह को भली भाँति उनके साहित्य के माध्यम से जाना जा सकता है चूँकि उनका जीवन और साहित्य वस्तुतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पाखंड और दिखावा न तो उनके व्यक्‍तित्व में है और न ही उनके साहित्य में । उनका संसार निजीपन का संसार है। अनुभव का संसार है। जीवन ताप को सहकर वे सहज बने। यही सहजता उनके व्यक्‍तित्व और रचनाओं में मुखरित है। इसी के कारण उनके विचार भी उदात्त बने। वे हमेशा अपने प्रिय कवि निराला को याद करते हैं और कहते हैं - "भूल कर जब राह - जब-जब राह... भटका मैं/ तुम्हीं झलके हे महाकवि,/ सघन तुम ही आँख बन मेरे लिए।"

शमशेर का समूचा जीवन अभावों के कटघरे में बीता है पर वे कभी उफ तक नहीं की। हालात के आगे घुटने टेकना तो शायद वे जानते ही नहीं थे। शमशेर के साथ बिताए तीन वर्षों को याद करते हुए हेमराज मीणा बताते हैं कि "शमशेर जी साधारण चाय के स्थान पर हल्दी की चाय खुद बनाकर पीते थे और आर्थिक विपन्नता का आलम यह था कि घिसे और फटे हुए कुर्ते को हाथ से सिलकर काम चलाना पड़ता था।" ऐसी स्थिति में भी शमशेर टूटे नहीं, बिखरे नहीं। अड़िग होकर आगे बढ़ते रहें। यही आस्था और जिजीविषा उनकी रचनाओं में भी मुखरित है - "मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल/ जीवन:/ कण-समूह में हूँ मैं केवल/ एक कण।/ -कौन सहारा!/ मेरा कौन सहारा!"

कहा जाता है कि शमशेर बहादुर सिंह संकोची स्वभाव के थे। अतः वे अपने आपको रचनाओं के माध्यम से ही ज्यादातर अभिव्यक्‍त करते हैं - "बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी/ बात ही।/ ***/ दैन्य दानव। क्रूर स्थिति/ कंगाल बुद्धि मजूर घर भर।? एक जनता का - अमर घर/ एकता का स्वर।/ - अन्यथा स्वातंत्र्य इति।" ‘कुछ और कविताएँ’ की भूमिका में शमशेर ने स्वयं लिखा है कि "कवि का कर्म अपनी भावनाओं में , अपनी प्रेरणाओं में, अपने आंतरिक संस्कारों में समाज - सत्य के मर्म को ढालना - उसमें अपने को पाना है, और उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से, पूरी सच्चाई के साथ व्यक्‍त करना है, जहाँ तक वह कर सकता है। मैं जितना महत्व ऐसी अभिव्यक्‍ति को देता हूँ - उतना उसके प्रकाशन को नहीं...।"

शमशेर संवेदनशील ही नहीं अपितु भावुक भी थे। नामवर सिंह ने उनकी भावुकता का जिक्र करते हुए बताया कि कैसे एक बार नरेंद्र शर्मा की गिरफ्तारी की सूचना ने उन्हें विचलित कर दिया था। प्रेमलता वर्मा शमशेर के व्यक्‍तित्व के कुछ आयामों को सामने रखते हुए कहती हैं कि शमशेर की दुनिया ‘वाइब्रेंट’ थी। वे छलरहित मगर चुंबकीय आकर्षण वाले व्यक्‍ति थे। "शमशेर जी ऐसे ही मनुष्‍य थे, ऐसे ही रचनाकार थे। मानवीय संवेदना से भरपूर जिसे कोई भी आइडियोलोजी, एकपक्षीय आइडियोलोजी परास्त नहीं कर सकती थी। उनके जीवन मंथन की कमाई में कहीं लिंग भेद मौजूद न था। अपने मौलिक आदर्श पर चोट किए जाने पर वे उदास हो सकते थे, कड़वे कभी नहीं।" यही संवेदनशीलता और भावुकता शमशेर बहादुर सिंह की रचनाओं में भी द्रष्‍टव्य है। वे हमेशा कहा करते थे कि "कविता के माध्यम से मैंने प्यार करना - अधिक से अधिक चीजों को प्यार करना - सीखा है। मैं उसके द्वारा सौंदर्य तक पहुँचा हूँ।"

शमशेर बहादुर सिंह की प्रमुख रचनाएँ हैं - दोआब(1948), प्लाट का मोर्चा : काहानियों और स्केच(1952), कुछ कविताएँ(1959), कुछ और कविताएँ(1961), चुका भी हूँ नहीं मैं(1975), इतने पास अपने(1980), उदिता : अभिव्यक्‍ति का संघर्ष(1980), बात बोलेगी(1981), काल तुझसे होड़ है मेरी(1988), टूटी हुई बिखरी हुई(1990), कुछ गद्‍य रचनाएँ(1989) तथा कुछ और गद्‍य रचनाएँ (1992)। 

स्मरणीय है कि शमशेर ‘दूसरा सप्‍तक’ (1952) में सम्मिलित थे तथा उन्हें 1977 में ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद का तुलसी पुरस्कार प्राप्‍त हुए थे। 1987 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें मैथिलीशरण गुप्‍त पुरस्कार और 1989 में कबीर प्ररस्कार से सम्मानित किया।

शमशेर का रचना संसार वैविध्यपूर्ण है। यह विविधता उनकी बहुआयामी प्रतिभा का संस्पर्श पाकार विराट हो उठती है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में "शमशेर की कविताओं में संगीत की मनःस्थिति बराबर चलती रहती है, जिसका संगमन बीच बीच में चित्रकला से होता है। कविता, संगीत और चित्रांकन की एक अद्‍भुत त्रिवेणी शमशेर के यहाँ प्रवाहित है।" शायद इसीलिए शमशेर ने भी कहा है कि "सारी कलाएँ एक - दूसरे में समोयी हुई हैं, हर कलाकृति दूसरी कलाकृति के अंदर से झाँकती है।" (दूसरा सप्‍तक, वक्‍तव्य)। वे यह भी कहते हैं कि "कला का संघर्ष समाज के संघर्ष से एकदम कोई अलग चीज़ नहीं हो सकती और इतिहास आज इन संघर्षों का साथ दे रहा है। सभी देशों में बेशक यहाँ भी दरअसल आज की कला का असली भेद और गुण उन लोक कलाकारों के पास है जो जन आंदोलनों में हिस्सा ले रहे हैं, टूटते हुए मध्यवर्ग के मुझ जैसे कवि उस भेद को पाने की कोशिश में लगे हुए हैं।" अतः वे अपने आप को यों अभिव्यक्‍त करते हैं - "खुश हूँ कि अकेला हूँ,/ कोई पास नहीं है.../ बजुज़ एक सुराही के,/ बजुज़ एक चटाई के,/ बजुज़ एक ज़रा से आकाश के,/ जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर..."

वस्तुतः शमशेर की कविताओं में मौन भी बोलता है। उनकी कविताओं में चीजें दिखाई देती हैं, बोलती भी हैं, कभी कभी चुप्पी भी साधती हैं। उनकी कविताओं में विलक्षणता दिखाई देती है। शमशेर अपनी कविताओं में अंतराल, विराम चिह्‍न, बिंदु, रिक्‍त स्थान, डैश आदि का प्रयोग करते हैं। इन्हें पूरी तरह से पकड़ पाना मुश्किल है। यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से फिल्म निर्माता दृश्‍य प्रयोगों के माध्यम से दर्शकों के मन में स्पेस पैदा करता है उसी तरह शमशेर की कविता पठक के मन में स्पेस पैदा करती है। उनकी कविता ‘कथा मूल’ का एक अंश द्रष्‍टव्य है - "गाय - सानी। संधया। मुन्नी - मासी/ दूध! दूध! चूल्हा, आग, भूख।/ माँ,/ प्रेम।/ रोटी/ मृत्यु।" अगर इन शब्दों के चाक्षुष बिंबों को एक दूसरे से मिलाते जाएँगे तो विराट दृश्‍य की संरचना आँखों के सामने उपस्थित हो जाएगी।

शमशेर ने वैश्‍विक और भारतीय परंपराओं को अंतः सूत्रों से पिरोया है - "ये पूरब - पच्छिम मेरी आत्मा के ताने बाने हैं/ मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द/ लपेट लिया/ और मैं योरप और अमरीका की नर्म आँच की धूप - छाँव पर/ बहुत हौले-हौले नाच रहा हूँ/ सब संस्कृतियाँ मेरे सरगम में विभोर हैं/ क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख - शांति का राग हूँ/ बहुत आदिम, बहुत अभिनव।"

शमशेर के काव्य शिल्प की विशेषता को रेखांकित करते हुए मुक्‍तिबोध ने लिखा है कि "अपने स्वयं के शिल्प का विकास केवल वही कवि कर सकता है, जिसके पास अपने निज का कोई मौलिक विशेष हो, जो यह चाहता हो कि उसकी अभिव्यक्‍ति उसीके मनस्तत्वों के आधार की, उन्हीं मनस्तत्वों के रंग की, उन्हें के स्पर्श और गंध की हों।"

अनेक विद्वानों ने शमशेर को अनेक तरह से संबोधित किया है। मलयज के लिए वे ‘मूड्स के कवि’ हैं तो अज्ञेय के लिए ‘कवियों के कवि।’ रामस्वरूप चतुर्वेदी उन्हें ‘एब्स्ट्रैक्‍ट के कवि’ मानते हैं तो नामवर सिंह ‘सुंदरता के कवि।’ गोपाल कृष्‍ण कौल ने उन्हें ‘फार्मलिस्ट’ माना है तो मधुरेश उन्हें ‘तनाव और अंतर्द्वन्द्वों के कवि’ मानते हैं। विजय देव नारायण साही ने उन्हें ‘बिंबों का कवि’ घोषित किया है तो सत्यकाम ने ‘कवियों का पुंज’ तक कह दिया है। पर शमशेर कहते हैं - 

" मैं समय की लंबी आह

मौन लंबी आह...

होना था - समझना न था कुछ भी शमशेर...

आत्मा है

अखिल की हठ - सी..."

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

आज की नारी

अनुवाद को सांस्कृतिक सेतु कहा जाता है चूँकि अनुवाद वह साधन है जिसके माध्यम से भाषा के साथ साथ संस्कृति का अंतरण होता है। अनुवाद ने आज सांस्कृतिक दूरियों को समाप्‍त कर दिया है। भाषाविद प्रो.सुरेश कुमार की मान्यता है कि "अनुवाद भाषा संपर्क का ही प्रकार्य है।" वस्तुतः मनुष्‍य के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास के लिए अनुवाद आवश्‍यक है। इतना ही नहीं वह भाषिक आदान-प्रदान और अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर आदान-प्रदान के लिए भी अनिवार्य है। अनुवाद के माध्यम से भारतीय भाषाओं में निहित साहित्यिक धरोहर का भी आपस में आदान-प्रदान हो रहा है। प्रो.दिलीप सिंह ने यह स्पष्‍ट किया है कि भारतीय संदर्भ में अनुवाद की भूमिका निरंतर महत्वपूर्ण बनती जा रही है। एक ओर सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद भारत की भावात्मक और संस्कृतिगत एकता को सिद्ध करते हुए भारतीय साहित्य के एक होने की धारणा को प्रमाणित करता है, तो दूसरी ओर तुलनात्मक साहित्य का विभिन्न भाषाओं में समानांतर विकास क्रम भी देखा जा सकता है तथा साहित्यिक अभिवृत्तियों का समाकलित अध्ययन भिन्न भाषा परिवेश में किया जा सकता है।

साहित्यिक आदान-प्रदान में अनुवाद की आवश्‍यकता निरंतर बढ़ती जा रही है। इसमें दो राय नहीं । इसी दृष्‍टि से डॉ.म.लक्ष्‍मणाचार्युलु (1953) ने तेलुगु की प्रसिद्ध लेखिका डी.कामेश्‍वरी की 16 कहानियों का अनुवाद ‘आज की नारी’(2006) शीर्षक से प्रस्तुत किया है।

कामेश्‍वरी ने लगभग 300 लघु कहानियाँ, 20 उपन्यास और एक यात्रावृत्त लिखे हैं। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘कोत्ता मलुपु’ (नया मोड़) का फिलमांकन अनेक भारतीय भाषाओं में हुआ है। इस पर तेलुगु में ‘न्यायम्‌ कावाली’ के नाम से फिल्म बनी जिसका हिंदी में रूपांतर ‘इन्साफ चाहिए’ के नाम से हुआ है। 

कामेश्‍वरी के कथा साहित्य का केंद्रबिंदु नारी और उससे संबंधित समस्याएँ हैं। हमारे समाज में स्त्री को बचपन से ही यह पाठ पढ़ाया जाता है कि घर-परिवार को संभालना ही स्त्री का दायित्व है। वह घर लीपते लीपते अपने बारे में सोचना भी बंद कर देती है। वह उसी दुनिया को देखना शुरू कर देती है जिसे उसके पिता या पति या पुत्र दिखाते हैं। पर आज की नारी कहती है कि "सुना है पुराने ज़माने में गांधारी नाम की एक महान पतिव्रता थी, जिसका पति जन्मांध था। उसने अपनी आँखों पर पट्‍टी इसलिए बाँध ली कि उसे वह दुनिया दिखाई न दें, जिसे उसका पति नहीं देख सकता। इस ज़माने में अगर आप ऐसा सोचेंगे कि हम बिना पट्टी बाँधे आपकी मनमानी देखें, चुपचाप रहें, तो यह संभव नहीं है।" (आज की नारी; पृ.58)|

स्त्री सदियों से आदर्श का पाठ पढ़ते-पढ़ाते आ रही है। उसने अपने आप को घर की चार दीवारी तक ही सीमित रख लिया था। पहले वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं थी लेकिन आज वह स्वावलंबी और आर्थिक रूप से स्वतंत्र है। अतः वह कहती है कि "आज की नारी बिना पति के, बिना घर-परिवार के... अपने पाँव पर खड़ी हो सकती है, बच्चों की परवरिश कर सकती है। यह मत भूलिए कि अकेले जीने की हिम्म्त उसे है...।" (ईंट का जवाब; पृ.32)|

कहा जाता है कि स्त्री जब तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होगी तब तक वह सही अर्थ में सशक्‍त नहीं हो सकती। आज भारतीय स्त्री पुरुष के समान नौकरी कर रही है। पर लेखिका यह सवाल करती है कि "क्या इसे महिलाओं की उन्नति समझ लें? उनकी आर्थिक तरक्की मान लें? क्या आर्थिक तरक्की की? क्या आजादी मिली?" वे आगे यह भी कहती हैं कि "जो भी वेतन मिलता है, उसे लाकर पति के हवाले कर देती है। घर के लिए, फ्रिज के लिए, टीवी के लिए..." (माँ का दूध; पृ.37)|

आज की परिस्थितियों में आराम की जिंदगी बिताने और बच्चों को सुनहरा भविष्य प्रदान करने के लिए पति-पत्‍नी दोनों को नौकरी करनी पड़ रही है। इस जीवन संघर्ष में उन्हें अपने नवजात शिशु को क्रेच के हवाले करके नौकरी पर जाना पड़ रहा है। नौकरपेशी स्त्री की समस्याओं को ‘माँ का दूध’ शीर्षक कहनी में रेखांकित किया गया है। यह कहानी हृदयस्पर्शी है। इस कहनी को पढ़ते समय हर नौकरीपेशा माँ की आँखों के सामने दूध के लिए बिलखता हुआ अपने बच्चे का चेहरा दिखाई पड़ना स्वाभाविक है। जरा सोचिए उस माँ की क्या हालत होगी जिसकी छाती दूध से भारी हो।

‘आज की नारी’ कहानी संग्रह में संकलित कहानियों में परंपरागत स्त्री छवि के साथ साथ ‘बोल्ड’ स्त्री की छवि भी है। वह इतनी बोल्ड हो चुकी है कि उसे विवाह व्यवस्था भी बंधिश लगने लगी है। वह ‘लिविंग टुगेथर’ पर विश्‍वास करने लगी है। ‘जिएँगे साथ साथ’ कहानी में इसी बात को उजागर किया गया है।

युवा पीढ़ी पश्‍चिम के मोह जाल में फँसकर अपनी जीवन शैली को भी बदल रही है। आज भारतीय समाज में भी ‘डेटिंग कल्चर’ पनप रही है। डेटिंग पर जाना, इंटरनेट पर चैटिंग और ब्राउजिंग करना फैशन बन चुका है। लेखिका का कहना है कि जहाँ संचार साधनों के कारण तकनीकी विकास हो रहा है वहीं दूसरी ओर अपसंस्कृति भी पनप रही है। युवा पीढ़ी अकेलेपन का शिकर हो रही है। संबंधों का विच्छेद हो रहा है और रिश्तों के बीच कसैलापन बढ़ रहा है। इसका चित्रण ‘समय साक्षी है’ और ‘डायन जो बनी देवी’ जैसी कहानियों में हुआ है।

इन कहानियों में परंपरागत रूढ़ियाँ भी विद्‍यमान हैं। इस समाज में एक ओर स्त्री सशक्तीकरण की बातें हो रही हैं और दूसरी ओर लड़की पैदा होने पर अफ्सोस जताया जा रहा है। आज भी लड़के के जन्म पर जश्‍न मनानेवाले लोग लड़की पैदा होने पर मायूस हो जाते हैं। जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक समाज से यह लिंग भेद की समस्या समाप्‍त नहीं होगी। ‘नया मोड़’ शीर्षक कहानी में इसी बात को उकेरा गया है।

विवाहोपरांत यदि दो-तीन साल तक दंपति को किसी कारणवश संतान न हो तो सिर्फ स्त्री को ही दोषी ठहराया जाता है। उसे हर वक्‍त घर-परिवार के साथ साथ समाज के तपेड़ों को भी झेलना पड़ता है। पुरुष में कमी होने के पर भी स्त्री को ही दोष दिया जाता है। लेखिका ने अपनी कहानी ‘सबक’ में  इसी बात को स्पष्‍ट करते हुए यह रेखांकित किया है कि आज की नारी अपने पर लगाए गए लांछन को मिटाने के लिए कुछ भी कर सकती है। इस कहानी की नायिका सुजाता अपने पति को सबक सिखाने के लिए ‘आर्टिफिशिएल इन्सेमिनेशन’ के जरिए माँ बनती है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने स्त्री को चेताया है। वह परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेक रही है। डटकर उनका मुकाबला कर रही है।

विवेच्य कहानी संग्रह में संकलित कहानियों के माध्यम से लेखिका ने स्त्री समस्याओं को उजागर करने के साथ साथ उनका निदान भी किया है। लेखिका ने अपने परिवेश से ही पात्रों का चयन किया है अतः इन कहानियों को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कि हम इन पात्रों से परिचित हैं। अनुवादक डॉ.म.लक्ष्मणाचार्युलु ने आंध्र प्रदेश के सोंधेपन को बरखरार रखने के लिए कुछ कहानियों में तेलुगु शब्दों का लिप्यंतरण करके पाद टिप्पणियों में उनका विवरण प्रस्तुत किया है। जैसे- ‘वडियालु’ (एक ऐसा स्वादिष्‍ट खाद्‍य पदार्थ जो कद्‍दू और गीले आटे वगैराह के मिश्रण से बनता है, जिसे धूप में सुखाने के बाद तेल में ‘फ्राई’ करके खाते हैं), ‘शोभनम्‌’ (सुहागरात), ‘पोपुलु’ (गरम तेल में मसाला सामान डालकार फ्राई करना) आदि। ‘पोपुलु’ के लिए हिंदी में ‘तड़का लगाना’ का प्रयोग होता है। लेकिन अनुवादक ने पाद टिप्पणी में हिंदी भाषा में प्रचलित शब्द का प्रयोग न करके उसकी व्याख्या की हैं। ‘मडि-आचारम्‌’ जैसे सांस्कृति शब्दों की व्याख्या दी जानी चाहिए थी क्योंकि हिंदी पाठकों के लिए ऐसे काफ़ी तेलुगु शब्द अपरिचित हैं जिस कारण पढ़ते समय अर्थ बोध में कठिनाई महसूस होती है।

आशा है कि हिंदी जगत इस कहानी संग्रह ‘आज की नारी’ (2006) का स्वागत करेगा।

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* आज की नारी (कहानी संग्रह)/ डी.कामेश्‍वरी/ अनु. डॉ.म.लक्ष्मणाचार्युलु/ मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2, कंदस्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुल्तान बाज़ार, हैदराबाद - 500 095/ पृष्‍ठ - 160/ मूल्य - रु.180/-
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बुधवार, 6 अप्रैल 2011

शमशेर शताब्दी समारोह याद रहेगा


(Photos by dr.balaji, radhakrishna & self)


३०-३१ मार्च, २०११ को आयोजित शमशेर शताब्दी समारोह से मैंने बेहद लाभ उठाया है| दोनों दिन संगोष्ठी स्थल पर किसी मेले जैसा दृश्य था| हैदराबाद में गंगा - जमुनी तहजीब को देखने का अवसर प्राप्त हुआ| 

नामवर जी को सुनने और उनसे मिलने का जो अवसर प्राप्त हुआ है इसे मैं कभी भूल नहीं सकती| इतना ही नहीं इस संगोष्ठी के कारण मुझे अनेक विद्वानों से परिचय और विचार विमर्श का जो अवसर मिला वह हैदराबाद जैसे शहर में रहते हुए प्रायः सुलभ नहीं होता| 

विद्यार्थी जीवन में तो मैंने सिर्फ शमशेर के बारे में परीक्षा की दृष्टि से ही कामचलाऊ सा कुछ पढ़ा था, वह भी कुछ कविताएँ, पर इस संगोष्ठी के कारण मैं शमशेर की गद्य रचनाओं से भी परिचित हो पाई| यह वास्तव में बहुत बड़ी उपलब्धि है| अगर यह कहूँ कि डॉ.अर्जुन चव्हाण और डॉ. रोहिताश्व का ग्यारहवें घंटे में आने से मुकर जाना मेरे लिए अच्छा ही रहा तो गलत न होगा. उनके न आ पाने के कारण डॉ. मृत्युंजय सिंह को और मुझे गद्य और कहानी पर परचा तैयार करने को कहा गया. डरते डरते रात भर बैठकर विभागाध्यक्ष जी के आदेश का पालन किया. प्रस्तुति पर सभी ने जो प्रोत्साहन दिया उसे कभी भूल न सकूंगी. 

मैंने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि विद्वानों के समक्ष शमशेर की कहानियों पर शोध पत्र प्रस्तुत करने का अवसर मुझे प्राप्त होगा| इस बहाने ही सही मुझे शमशेर की कहानी `प्लाट का मोर्चा' पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ| 

इन यादों को कभी भूल नहीं सकती|

समारोह की विस्तृत रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है.

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

सामासिक संस्कृति के साहित्य साधक बालशौरि रेड्डी


स्वतंत्रता सेनानी एवं वरिष्‍ठ पत्रकार, ‘दक्षिण समाचार’ के संस्थापक-संपादक मुनींद्र जी (1925-2010) की प्रथम पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी स्मृति में आयोजित वार्षिक व्याख्यान माला के अंतर्गत 16 अप्रैल, 2011 को ‘हमारा समय’ विषय पर प्रख्यात साहित्यकार और ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी व्याख्यान देंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्‍ठ लेखक डॉ.बालशौरि रेड्डी करेंगे। यहाँ डॉ.बालशौरि रेड्डी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला जा रहा है।


दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार-प्रसार में वरिष्‍ठ लेखक बालशौरि रेड्डी का योगदान सराहनीय है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, समीक्षा, आलोचना आदि साहित्यिक विधाओं के माध्यम से दक्षिण भारत की संस्कृति को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का काम किया है। मौलिक लेखन के साथ साथ अनुवादों क माध्यम से भी उन्होंने दक्षिण और उत्तर के भेद को मिटाने का प्रयास किया है।

बालशौरि रेड्डी का जन्म 1 जुलाई, 1928 को गोल्लल गूडूर (कडपा जिला, आंध्र प्रदेश) में हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा ग्रामीण परिवेश में ही संपन्न हुई। 1946 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की रजत जयंती के अवसर पर संस्था के आजीवन संस्थापक राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी चेन्नई आए थे। उनके भाषण से प्रभावित और प्रेरित होकार बालशौरि रेड्डी ने हिंदी प्रचार-प्रसार करने का निश्‍चय किया। इसे क्रियान्वित करने हेतु वे हिंदी में उच्च शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए उत्तर भारत गए। 1948 में काशी परीक्षा केंद्र से ‘साहित्यालंकार’ की उपाधि प्राप्‍त की और 1949 में इलाहाबाद से ‘साहित्यरत्‍न’ की। तत्पश्‍चात्‌ चेन्नई वापस आकार उन्होंने लगभग दस साल तक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रशिक्षण महाविद्‍यालय में सेवा की।

1948 में जब बालशौरि रेड्डी वाराणसी में थे तब उनका ध्यान साहित्य की ओर आकर्षित हुआ। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, काशीनाथ उपाध्याय ‘भ्रमर’, कमलापति त्रिपाठी और गंगाधर मिश्र के प्रोत्साहन तथा सहयोग से वे साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए। इस संबंध में वे अक्सर कहा करते हैं कि "लेखन की प्रेरणा मुझे भ्रमर जी ने दी। उन्होंने मेरी आरंभिक रचनाओं को ‘ग्राम संसार’ में छापा। निराला जी, त्रिपाठी जी तथा मिश्र जी का स्नेह और प्रोत्साहन मैं भूल नहीं सकता। साहित्य के क्षेत्र में मेरा पदार्पण बड़े ही नाटकीय ढंग से हुआ। मैंने अपनी 20 वर्ष की आयु तक कभी लिखने की कोशिश नहीं की और न ही लिखने की इच्छा रही। विंध्याचल समीपवर्ती प्रकृति ने मुझे लिखने की प्रेरणा दी। प्रकृति की उस अपूर्व सुषमा व सौंदर्य की आराधना करते समय मेरी अनुभूतियाँ अभिव्यक्‍त होने की तड़प उठी। प्रारंभ से मैंने हिंदी में ही लिखा है। ‘ग्राम संसार’ और ‘संसार’ में मेरी प्रारंभिक रचनाएँ छपीं।"

भारतीय संस्कृति जड़ न होकर प्रगतिशील रही है और इसका एक सुनिश्‍चित इतिहास है। भारतीय संस्कृति असांप्रदायिक है और इसमें अखिल भारतीय भावना निहित है। किसी राष्‍ट्र के सांस्कृतिक विकास में उसकी भाषा, वहाँ का वाड्‌.मय, वहाँ का दर्शन तथा वहाँ की ललित कलाएँ अपनी अहम भूमिका निभाती हैं। भारत की संस्कृति तथा सभ्यता अतिप्राचीन है। आवश्‍यकता इस बात की है कि इसे किशोर वय बालकों तक अवश्‍य पहुँचाया जाए, साथ ही नव शिक्षित प्रौढ़ों को भी इससे परिचित कराया जाए, ताकि वे अपने वर्तमान और भविष्‍य को सुखद बनाने के लिए दिशा प्राप्‍त कर सकें। इसी उद्‍देश्‍य की पूर्ति के लिए रेड्डी जी ने आंध्र, तमिलनाडु तथा कर्नाटक राज्यों से संबंधित संस्कृति, सभ्यता आदि की चर्चा अपनी औपन्यासिक कृतियों में की है।

पाश्‍चात्य देशों की तुलना में भारत में आज भी बाल साहित्य की कमी है। इस क्षेत्र में बालशौरि रेड्डी का प्रयास सराहनीय है। 1966 से ‘चंदामामा’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बाल साहित्य लेखन को आगे बढ़ाया। उनकी मान्यता है कि देश का भविष्‍य बच्चों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास पर ही निर्भर होता है। इसी उद्‍देश्‍य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदी पाठकों के लिए ‘तेलुगु की लोक कथाएँ’, ‘आंध्र के महापुरुष’, ‘तेनाली राम के लतीफे’, ‘तेनाली राम के नए लतीफे’, ‘तेनाली राम की हास्य कहानियाँ’, ‘बुद्धू से बुद्धिमान’, ‘न्याय की कहानियाँ, ‘आदर्श जीवनियाँ’ और ‘आमुक्‍त माल्यदा’ जैसी बालोपयोगी रचनाएँ कलात्मक रूप से प्रस्तुत कीं।

मूलतः बालशौरि रेड्डी उपन्यासकार के रूप में विख्यात हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में शबरी, जिंदगी की राह, यह बस्ती : ये लोग, भग्न सीमाएँ, बैरिस्टर, स्वप्‍न और सत्य, प्रकाश और परछाई, लकुमा, धरती मेरी माँ, वीर केसरी, प्रोफेसर, दावानल और तेलुगु साहित्य का इतिहास आदि उल्लेखनीय हैं। इतना ही नहीं उन्होंने तेलुगु की अनेक प्रसिद्ध रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया है। पत्रकारिता उनका प्रिय क्षेत्र है। उन्होंने तेलुगु पत्रकारिता के इतिहास से हिंदी जगत से परिचित कराने के लिए भी प्रशंसनीय प्रयास किया है। हिंदी जगत के समक्ष शीघ्र ही तेलुगु पत्रकारिता का इतिहास मुद्रित रूप में प्रस्तुत होगा।

साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित बालशौरि रेड्डी ने अपने लेखन का मुख्य उद्‍देश्‍य यही रखा है कि आंध्र के इतिहास, उसकी सभ्यता व संस्कृति से हिंदी जगत परिचित हो। भारतीय भाषाओं के समन्वयन और सामासिक संस्कृति के रूपगठन की दशा में बालशौरि रेड्डी का यह योगदान सराहनीय है। *