बुधवार, 29 जून 2016

रवींद्रनाथ पर एकाग्र सप्तपर्णी का विशेष आयोजन

सप्तपर्णी, (सं) अर्चना सिंह, 
वर्ष 2, अंक 3, जुलाई-दिसंबर 2015, 
रवींद्रनाथ ठाकुर विशेषांक, 
संपादकीय कार्यालय : प्रगति नगर (कोल-बाजबहादुर), 
सिविल लाइन्स, सदर, आजमगढ़ – 276001 (उ.प्र),
ईमेल – saptparni2014@gmail.com

विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर (7 मई 1861 – 7 अगस्त, 1941) की 155 वीं जन्म वार्षिकी के अवसर पर आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) से अर्चना सिंह के संपादन में प्रकाशित साहित्य, कला और संस्कृति की संवाहिका ‘सप्तपर्णी’ का जुलाई-दिसंबर 2015 का अंक दस्तावेजी महत्व का है. इस अंक में संगृहीत सभी लेख अपने आप में अमूल्य हैं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का लेख ‘मृत्युंजय रवींद्रनाथ’, विवेकी राय का लेख ‘विश्वकवि का अवसादपुर बनाम गाजीपुर’, सियाराम तिवारी का ‘अद्भुत व्यक्तित्व और अपूर्व कर्तृत्व’, पारसनाथ गोवर्धन का ‘टैगोर का मानवतावाद’, प्रभा दीक्षित का ‘अल्बर्ट आइंस्टीन और रवींद्रनाथ टैगोर का संवाद’, दिविक रमेश का ‘टैगोर, उनके गीत : निराशा में आशा के प्रकाश’, बृजेश कुमार का ‘भारतीयता के संवाहक : रवींद्रनाथ ठाकुर’, अशोक भौमिक का ‘भारतीय चित्रकला : परंपरा और रवींद्रनाथ ठाकुर’, हरिश्चंद्र मिश्र का ‘बंगला लोक शिशु-साहित्य : रवींद्रनाथ का विशेष संदर्भ’, अवधेश प्रधान का ‘रवींद्र का जन-गण-मन : सूरज पर कीचड़ मत उछालो’ आदि सामग्री के कारण यह विशेषांक संग्रहणीय बन गया है. इसके अलावा संपादक ने बड़ी कुशलता से रवींद्रनाथ की कुछ रचनाओं को भी साथ में आला की तरह पिरोया है. जैसे जब्त भ्रमण कहानी (उपसंहार), काबुलीवाला. 

यह जानकर सुखद अनुभूति होती है कि मिट्टी की ओर लौटने का आह्वान करने वाले रचनाकारों में रवींद्रनाथ ठाकुर अग्रणी है. यह विशेषांक यह बोध कराने में सफल है कि वे संपूर्णतः कवि थे. वैसे उन्होंने हर विधा में अपनी लेखनी चलाई. कविता, उपन्यास, लघुकथा, गीतिनाट्य, नाटक, जीवनी साहित्य, यात्रावृत्त, पत्र साहित्य, चित्रकला आदि क्षेत्रों में उन्होंने सराहनीय कार्य किया. बौ-ठाकुराणीर हाट (1883), राजर्षि (1887), चोखेर बाली (1903), नौका डुबि (1906), प्रजापतिर निर्बन्ध (1908), गोरा (1910), घरे बाइरे (1916), चतुरङ्ग (1916), योगायोग (1929), शेषेर कबिता (1929), मालञ्च (1934), चार अध्याय (1934) आदि उनके प्रमुख उपन्यास हैं. छिन्नपत्र यात्रा साहित्य है तो जीबनस्मृति (1912) और चरित्रपूजा (1907) जीवनी साहित्य. सोनार तरी (1894), चित्रा (1896), चैतालि, गीतांजलि (1910), बलाका (1916), पूरबी (1925), महुया, कल्पना (1900), क्षणिका (1900), पुनश्च (1932), पत्रपुट (1936), सेँजुति (1938), भग्न हृदय आदि प्रमुख काव्यकृतियाँ हैं. 

‘सप्तपर्णी’ में प्रस्तुत रचनाओं और समीक्षाओं को पढ़कर पता चलता है कि रवींद्रनाथ ठाकुर सही अर्थों में लोकहृदय के कवि थे. उनके चिंतन का केंद्रीय मूल्य मनुष्य की भावनाओं का परिष्कार करना था. वे ऐसे चित्रकार थे जिनके रंगों में शाश्वत प्रेम की अनुभूति थी. वे ऐसे नाटककार थे जिनके रंगमंच पर सिर्फ त्रासदी नहीं बल्कि मानव की गहरी जिजीविषा आ उपस्थित होती थी. वे एक ऐसे कथाकार थे जो अपने इर्दगिर्द के जीवन से कथा चुनते थे, सलीके से बुनते थे और मनुष्य रूपी चरम लक्ष्य को तलाशते थे. उनके संबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन द्रष्टव्य है – “वे उन महापुरुषों में थे, जिनकी वाणी किसी विशेष देश या संप्रदाय के लिए नहीं होती, बल्कि जो समूची मनुष्यता के उत्कर्ष के लिए सबको मार्ग बताती हुई दीपक की भाँति जलती रहती है. अपने जीवन काल में उन्होंने नाना भाव से मनुष्य की संकीर्णता को शिथिल करने के लिए उस पर बार-बार आघात किया था.” 

रवींद्रनाथ ठाकुर मानवतावाद के प्रबल पक्षधर है. यह बात इस विशेषांक में उद्धृत उनकी इस उक्ति से पुष्ट होती है – “मनुष्य की सेवा करना, उसका सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक पाश से मोचन करना, इसी संसार में उसे सब प्रकार से संपन्न करना मानव का चरम लक्ष्य है. यदि कोई परम देवता कहीं है, तो उसको खेत में काम करते हुए किसानों, सड़क पर गिट्टी तोड़ते हुए मजदूरों के श्रम-बिंदुओं में ही साक्षात पाया जा सकता है. शिशुओं के निर्मल हास में, विधवाओं एवं अपाहिजों के करुण क्रंदन में, अशिक्षितों और गुमराहों के भ्रांत आचरणों में और दलितों, पराजितों और निष्पेषितों की हाय-हाय में उसका निवास है. मनुष्य की सभी पूजाएँ और तपस्याएँ व्यर्थ हैं. यदि उनसे दीन-दुखियों के आँसू नहीं पुंछ सके. दलितों और निरन्न लोगों के चेहरों पर आनंद की हँसी दिखाई न दे जाय.” यही दृष्टि उनके साहित्य में द्रष्टव्य है. ‘गीतांजलि’ में भी वे इसी बात को व्यक्त करते हैं- 
“पूजन-भजन साधन-आराधन 
रहने दे तू एक किनारे,
मंदिर का पट बंद किए क्यों देवालय के द्वार 
बैठा हुआ यहाँ है ओ रे! 
करता है तू किसकी पूजा किसे पूजता लुका अंधेरे 
मन ही मन में इस कोने रे? 
नयन उघार निहार वहाँ पर 
देवालय में देव नहीं रे. 
वे हैं वहाँ, जहाँ पर माटी गोड़
कृषक खेती करते हैं, 
जहाँ बारहों मास मजूरे 
काट रहे पत्थर, खटते हैं. 
धूप कड़ी हो या वर्षा हो 
साथ सदा उनके रहते हैं. 
धूल और माटी में उनके 
हाथ सने दोनों रहते हैं.” 

हिंदी पाठकों को यह सूचना रोमांचकारी प्रतीत हो सकती है कि किसी मजदूरनी की दीन-दशा से प्रभावित होकर कविता लिखने वाले प्रथम भारतीय कवि थे रवींद्रनाथ ठाकुर. अपने कार्य में तल्लीन एक मजदूरनी की स्थिति का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया-
“मैं बरामदे में बैठा देखता हूँ 
घंटों से लगी हुई है वह काम में, 
शर्म से झुक जाता है 
माथा कि प्रियजनों को निवेदित इस पवित्र श्रम की.....”

इन पंक्तियों को पढ़ते समय निराला की कविता ‘तोड़ती पत्थर’ का स्मरण हो आता है. ‘सप्तपर्णी’ में प्रस्तुत अपने ‘रवींद्रनाथ की काव्य-दृष्टि पर एक अधूरी टिप्पणी’ शीर्षक आलेख में मकेश्वर रजक ने यह प्रतिपादित किया है कि निराला ने भी रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता से प्रेरित होकर ही ‘तोड़ती पत्थर’ का सृजन किया था. 

प्रायः रवींद्रनाथ ठाकुर को अतींद्रिय लोक का कवि मानने वालों को इस अंक में संजोया गया हजारी प्रसाद द्विवेदी का आलेख अवश्य पढ़ना चाहिए जिसमें कहा गया है कि ‘वे कल्पना-विलासी कवि नहीं थे. मनुष्य की वेदना ने बार-बार उनके कोमल हृदय पर आघात किया है. वे दीन और दलितों के कंठ की वाणी को सहस्रगुण शक्ति देकर मुखरित कर सके थे; क्योंकि उनकी वेदना उन्हें व्याकुल कर देती थी. ’ वे यही चाहते थे कि ‘मनुष्य को मनुष्य की दृष्टि से देखें - बिना कोई भेदभाव के.’ मानवता के प्रहरी रवींद्रनाथ ठाकुर इसीलिए तो कहते हैं – 
“यह दासत्व की शृंखला भीतर और बाहर की 
सदा डरते हुए करता प्रणति शत-शत पदों की 
यह सुचिर अपमान मानव-दर्प का 
हत सब मर्यादा जनित धिक्कार 
लज्जाराशि वृहदाकार -
कर दो चूर्ण ठोकर मार.”

यह विशेषांक रवींद्रनाथ ठाकुर के शिक्षा-दार्शनिक पक्ष का भी दर्शन कराता है. बचपन से ही रवींद्र के मन में शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने की इच्छा बलवती थी. उनके मन में शिक्षा के ढाँचे की एक निश्चित परिकल्पना थी. इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की. वे चाहते थे कि शिक्षा में गुणात्मक सुधार हो. वे यह मानते थे कि प्रकृति की गोद में बैठकर विद्यार्थी बहुत कुछ सीख सकता है. साथ ही, उन्होंने हमेशा पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों के समन्वय की बात की. 

आज यह कहा जा रहा है कि 21वीं सदी विमर्शों की सदी है. स्त्री, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक विमर्श चरम पर है. लेकिन ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि कवींद्र रवींद्र ने इन्हें नई दृष्टि से देखने की शुरूआत की. स्त्री सशक्तीकरण की बात कवींद्र भी उठाते हैं. इसीलिए तो वे कहते हैं कि “संसार के संकीर्ण प्रयोजनों के निकट हमारी स्त्रियाँ कल दबाकर चलाई जाने वाली पुतलियों की तरह विधिविहित नियमों के अनुसार आवाज देती रही हैं, हिलती-डुलती रही हैं. वे केवल यही बात जानती हैं कि अज्ञता और अशक्ति ही उनका भूषण है. माता और गृहिणी के विशेष-विशेष ढाँचे में ही उनका परिचय रहा है. यह बात कभी तो अस्वीकृत हुई और कभी निन्दित हुई है कि उसके मनुष्यत्व का स्वातंत्र्य-साँचा अतिक्रम करके भी प्रकाशित होता है. इसी प्रकार स्त्रियाँ मनुष्य-जाति की एक बड़ी भारी क्षति करती आई हैं. आज ऐसा युग आया है जब स्त्रियों ने मानवत्व के पूर्ण मूल्य का दावा उपस्थित किया है. ‘जननार्थ महाभागा’ कहकर अब उनकी गणना नहीं होगी. संपूर्ण व्यक्ति विशेष के रूप में ही उनकी गिनती होगी. मानव समाज में इस आत्मश्रद्धा के विस्तार के समान इतनी बड़ी संपत्ति और कुछ नहीं हो सकती. गिनती में मनुष्य का परिमाण नहीं मिलता, पूर्णता में ही उसका परिमाण है. हमारे देश में भी कृत्रिम बंधनमुक्त स्त्रियाँ जब अपने पूर्ण मनुष्यत्व की महिमा प्राप्त करेंगी, तभी पुरुष भी अपनी पूर्णता प्राप्त करेगा.” 

अभिप्राय यह है कि ‘सप्तपर्णी’ का रवींद्रनाथ ठाकुर पर एकाग्र विशेषांक कवींद्र रवींद्र के जीवन, कृतित्व और विचारधारा के निचोड़ को तो प्रस्तुत करता ही है, आज के विश्व के लिए विमर्शों के संदर्भ में भी उनकी व्याख्या करते हुए उनकी कालजयी प्रासंगिकता को रेखांकित करता है. 

बुधवार, 15 जून 2016

संपादकीय : 'संकल्पना' (आलोचना कृति)


प्रस्तुति

हिंदी भाषा और साहित्य का फलक जितना विस्तृत और बहुआयामी है, उससे संबंधित अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान का क्षेत्र भी उतना ही विस्तृत और प्रसरणशील है. यों तो हिंदी कभी भी क्षेत्र विशेष तक सीमित भाषा नहीं थी, लेकिन वर्तमान समय में विधिवत सब प्रकार की क्षेत्रीय और भौगोलिक लक्ष्मणरेखाओं का अतिक्रमण करके वह सार्वदेशिक, अखिल भारतीय भाषा के रूप में उभरी है और सब प्रकार के विमर्श को संभव बनाती हुई अपनी विश्व भाषा की दावेदारी को पुष्ट कर रही है. वैसे भी यह समय केंद्र से परिधि की और जाने वाले विमर्शों का समय है. कहना ना होगा की हिंदी की प्रकृति भी केंद्र से परिधि की और जानी की रहे है. विमर्शों के इस समय में परिधि की गतिविधियाँ महत्वपूर्ण हो गई हैं और बहुकेंद्रीयता उभार पर है. हिंदी अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान का बहुकेंद्रीय प्रसार इसका प्रमाण है. हम कहना यह चाहते हैं कि जिन क्षेत्रों को अहिंदी भाषी अथवा हिंदीतर कहकर हिंदी भाषा और साहित्य तत्संबंधी अनुसंधान के हाशिए पर धकेल कर लगभग अनुपस्थित मान लिया जाता था, आज क्षेत्रों में केवल परंपरागत ही नहीं वरन् नए, मौलिक, अछूते और चुनौतीपूर्ण विषयों पर हिंदी भाषी, और अहिंदी भाषी के भेद के बिना, उत्कृष्ट कोटि का अनुसंधान कार्य हो रहा है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित उच्च शिक्षा और शोध संस्थान का इस दिशा में योगदान अनन्य है. परंतु खेद का विषय है कि अभी तक भी इसके संबंध में अधिसंख्य हिंदी जन अपरिचित हैं. क्योंकि इस प्रभूत शोधकार्य को अभी तक भी समुचित प्रकाशन के अवसर अनुपलब्ध हैं.

‘संकल्पना’ दक्षिण भारत में हो रहे शोधकार्य की एक बानगी प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास है. इसमें संकलित सभी शोधपत्र हैदराबाद (तेलंगाना) स्थित शोधकर्ताओं के स्वाध्याय का परिणाम हैं. इनमें से अधिसंख्य शोधकर्ता अभी अनुसंधान पथ के अन्वेषी पथिक हैं तथापि उनकी शोधदृष्टि एकदम साफ, तटस्थ, वाद निरपेक्ष और मानव सापेक्ष है. यहाँ संकलित शोधपत्रों में अध्येय पाठ के रूप में काव्य, उपन्यास, कहानी, नाटक, बल साहित्य और साक्षात्कार जैसी विविध विधाओं के पाठ तो ग्रहण किए ही गए हैं पत्रकारिता, मीडिया और वैज्ञानिक साहित्य तक को भाषिक अनुसंधान के दायरे में लाया गया है. इससे निश्चय ही हिंदी अनुसंधान के एक क्षेत्र को व्यापकता प्राप्त हुई है. इतना ही नहीं अनूदित साहित्य का विश्लेषण इसे और भी विस्तार प्रदान करता है. इसी प्रकार इस शोधपत्रों में अधुनातन शोधदृष्टियों का भी वैविध्य देखने को मिलेगा. यदि इनमें शोध और समीक्षा की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक दृष्टि, सामाजिक दृष्टि और ऐतिहासिक दृष्टि जैसी पारंपरिक आलोचना दृष्टियाँ विद्यमान हैं तो स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, विस्थापित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, दलित विमर्श, वृद्धावस्था विमर्श और मीडिया विमर्श जैसी पिछले दो तीन दशकों में विकसित उत्तर आधुनिक आलोचना दृष्टियाँ इस पुस्तक को एकदम नई दिशा को खोलने वाली बनाती हैं. इतना ही नहीं प्रयोजनमूलक भाषा, स्त्री भाषा, लोकतत्व और अनुवाद विमर्श पर जो शोधपूर्ण अध्ययन यहाँ उपलब्ध है वह इस पुस्तक को और भी उपादेय बनाने वाला है, इसमें संदेह नहीं.

आशा है, मोतियों के शहर हैदराबाद से प्रकाश में आ रहे इस प्रकृत मुक्ताहार को हिंदी जगत में स्नेह और अपनापन मिलेगा.


25     मई, 2015                                                    - संपादकद्वय