गुरुवार, 21 नवंबर 2013

'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ' प्रो. एन. गोपि को समर्पित


प्रो. ऋषभ देव शर्मा की सद्यःप्रकाशित समीक्षा पुस्तक 'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ' का समर्पण वाक्य तेलुगु के शीर्षस्थ समकालीन साहित्यकार प्रो. एन. गोपि को लक्ष्य करके लिखा गया है, जो इस प्रकार है - "समकालीन भारतीय कविता के उन्नायक 'नानीलु' के प्रवर्तक परम आत्मीय अग्रज कवि प्रो. एन. गोपि को सादर"

20 नवंबर 2013 को इस पुसतक की पहली प्रति समर्पित करने जब डॉ. ऋषभ देव शर्मा रात्रि 8 बजे डॉ. एन. गोपि के घर पहुँचे तो पुस्तक का समर्पण वाक्य पढ़कर प्रो. एन. गोपि रोमांचित और गदगद हो उठे. उल्लासपूर्वक उन्होंने अपनी अर्धांगिनी प्रतिष्ठित तेलुगु कवयित्री एन. अरुणा जी को आवाज लगाई और अभ्यागत लेखक को अंगवस्त्र द्वारा सम्मानित करने के लिए कहा. 

भावविभोर होकर बार बार प्रो. एन. गोपि कहते रहे - पुस्तक समर्पण और स्वीकार मेरे लिए कोई नई बात नहीं है लेकिन आपने यह पुस्तक मुझे समर्पित करके हिंदी की ओर से तेलुगु का जो सम्मान किया है उसे मैं आजीवन एक सुखद अनुभव की तरह याद रखूँगा. 

ऐसे अवसर पर प्रो. ऋषभ देव शर्मा का अवाक् रह जाना सहज ही था! 




राजेंद्र यादव को अंतिम प्रणाम

(28 अगस्त 1929-28 अक्टूबर 2013)
राजेंद्र यादव! हिंदी साहित्य जगत के लिए सुपरिचित एक नाम! ‘नई कहानी’ आंदोलन और स्त्री विमर्श के पुरोधा, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक तथा ‘हंस’ पत्रिका के संपादक के रूप में सब लोग इन्हें जानते हैं-पहचानते हैं. विवादों में घिरे रहने पर भी राजेंद्र यादव (28 अगस्त 1929-28 अक्टूबर 2013) ने कभी हार नहीं मानी. उनका जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा में हुआ था. 1951 से 2013 तक वे लगातार साहित्य सृजन करते रहे. 31 जुलाई 1986 का प्रेमचंद जयंती के अवसर पर उन्होंने ‘हंस’ के पुनःप्रकाशन का भार संभाला. तब से लेकर अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने इस पत्रिका के संपादन का दायित्व निभाया. (स्मरणीय है कि 1930 में प्रेमचंद ने ’हंस’ पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया था जो 1953 में बंद हो गई थी.)

राजेंद्र यादव की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं – (कहानी संग्रह) देवताओं की मूर्तियाँ (1951), खेल-खिलौने (1953), जहाँ लक्ष्मी कैद है (1957), अभिमन्यु की आत्महत्या (1959), छोटे-छोटे ताजमहल (1961), किनारे से किनारे तक (1962), टूटना (1966), चौखटे तोड़ते त्रिकोण (1987), श्रेष्ठ कहानियाँ, प्रिय कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियाँ, प्रेम कहानियाँ, चर्चित कहानियाँ, मेरी पच्चीस कहानियाँ, है ये जो आतिश ग़ालिब (प्रेम कहानियाँ; 2008), अब तक की समग्र कहानियाँ, यहाँ तक : पड़ाव-1, पड़ाव-2 (1989), वहाँ तक पहुँचने की दौड़, हासिल तथा अन्य कहानियाँ; (उपन्यास) सारा आकाश (1959; ‘प्रेत बोलते हैं’ के नाम से 1951 में), उखड़े हुए लोग (1956), कुलटा (1958), शह और मात (1959), अनदेखे अनजान पुल (1963), एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ, 1963), एक था शैलेंद्र (2007) आदि. (कविता संग्रह) आवाज तेरी है (1960). इनके अलावा अनेक समीक्षात्मक, आलोचनात्मक और संपादित पुस्तकें भी प्रकाशित हैं. उनमें कहानी : स्वरूप और संवेदना (1968), प्रेमचंद की विरासत (1978), अठारह उपन्यास (1981), औरों के बहाने (1981), काँटे की बात (बारह खंड, 1994), कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति (1996), उपन्यास : स्वरूप और संवेदना (1998), आदमी के निगाह में औरत (2001),वे देवता नहीं है (2001), मुड-मुडके देखता हूँ (2002), अब वे वहाँ नहीं रहते (2007), मेरे साक्षात्कार (1994), काश मैं राष्ट्रद्रोही होता (2008), जवाब दो विक्रमादित्य (साक्षात्कार, 2007), चेखव के तीन नाटक (सीगल, तीन बहनें, चेरी का बगीचा), देहरी भई बिदेस, काली सुर्खियाँ (अश्वेत कहानी संग्रह), उत्तरकथा आदि उल्लेखनीय हैं. 

राजेंद्र यादव हमेशा विवादास्पद टिप्पणियाँ करते थे शायद सुर्खियों में बने रहने के लिए.

वैसे एक साक्षात्कार में उन्होंने यह भी कहा था कि “इस तरह के विवादों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता तथा मैं समझता हूँ कि जो कह रहा है, वह बेवकूफ है.” दरअसल राजेंद्र यादव किसी तरह के बंधन को न मानने वाले रचनाकार थे (निरंकुशाः हि कवयः)! वे विवाह संस्था में भी यकीन नहीं करते थे. उन्हीं के शब्दों में सुनिए – “शादी एक बंधन हो, वहाँ तक तो ठीक है. लेकिन उसके साथ एक आचरण की जो आचार संहिता है, उसमें मेरा दम घुटता है, मैं वहाँ एडजस्ट नहीं कर पाता. **** जब मैं पढ़ता या लिखता हूँ तो पूरी तरह एक साहित्यिक आदमी होता हूं, लेकिन इसके बाद मैं कोशिश करता हूं कि एक आम आदमी की तरह हँसूँ, बर्ताव करूँ. आइ वांट टू बी लाइक ए कॉमन मैन. इसके लिए मुझे किसी तरह की कोशिश नहीं करनी पड़ती. मुझे यह नेचुरल लगता है. शाम को घर लौटने के बाद या तो दोस्तों से मिलना-जुलना होता है, अकेला होता हूँ तो कोई फिल्म देख लेता हूँ.” 

राजेंद्र यादव साहित्यिक व्यक्ति थे इसमें संदेह नहीं, पर आम आदमी बने रहे सारी साहित्यिकता के साथ. 

28 अक्टूबर 2013 को राजेंद्र यादव की कलम थम गई. उनका निधन साहित्य जगत के लिए क्षति है. राजेंद्र यादव को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रमुख साहित्यकार चित्रा मुद्गल ने कहा कि “वर्ष 1986 का दौर वह था जब सभी शीर्ष पत्रकाओं का पतन हो गया. लेखकों को तब एक मंच प्रदान करने का कार्य राजेंद्र यादव ने हंस पत्रिका को पुनर्जीवित कर किया. वह मुझसे हमेशा कहते थे की मैं जनसरोकारों पर नहीं लिखा पाया. अपनी अयह अधूरी इच्छा उन्होंने ‘हंस’ में पूरी की और स्त्री व दलित विमर्शों को उठाने के अलावा इन विमर्शों की नई पीढ़ी को भी खडा किया.”

शैलेंद्र सागर का कहना है कि “मुझे याद है कि आज से कई वर्ष पहले राजेन्द्र यादव ने मुझसे कहा था कि कवियों के तो बहुत सम्मलेन होते हैं, तुम कुछ ऐसा करो कि कहानीकारों के भी आयोजन हों. उनकी उस प्रेरणा से ही मैंने कथाक्रम की शुरूआत की.”

मैनेजर पांडेय ने कहा, “राजेंद्र यादव विचार और व्यवहार में लोकतांत्रिक आदमी थे. मतभेदों से न डरते थे, न घबराते थे और न बुरा मानते थे. उन्होंने स्त्री दृष्टि और लेखन को बढ़ावा दिया. स्त्री दृष्टि पर उनकी राय विवादस्पद लेकिन विचारणीय रही. ‘हंस’ के जरिए उन्होंने दलित चिंतन और दलित साहित्य को बढ़ावा दिया. दलित साहित्य को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में राजेंद्र यादव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हंस का संपादन उन्होंने उस समय शुरू किया, जब उनकी रचनात्मकता का सबसे अनुर्वर समय था. इसलिए रचनाकार राजेंद्र यादव को वह पीढ़ी नहीं जान पाई, जो ‘हंस’ पकर बड़ी हुई. ‘हंस’ का भविष्य अब अंधकारमय हो गया है.”

‘स्रवंति’ परिवार ऐसे महान साहित्यकार के निधन पर स्तब्ध है तथा उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता है!