रविवार, 23 अक्तूबर 2011

ज्ञानपीठ पुरस्कृत दो कथाकार : अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल

वर्ष 2009  का 45 वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार अमरकांत और श्रीलाल शुक्‍ल को संयुक्‍त रूप से दिया जा रहा है. ये दोनों ही हिंदी के प्रतिष्‍ठित साहित्यकार हैं निश्‍चय ही ये दोनों ही साहित्यकार लंबे समय समय से ज्ञानपीठ के सही दावेदार और हकदार रहे हैं। यह भी कहा जा सकता है कि इन्हें यह सम्मान अपेक्षाकृत विलंब से मिल रहा है।


अमरकांत का जन्म उत्तर प्रदेश बलिया जिले के ग्राम भगलपुर (नगरा) में 01 जुलाई,1925 को हुआ। अनका वास्तविक नाम है श्रीराम। उनकी दादी उन्हें अमरकांत कहकर पुकारती थी, जिसे उन्होंने अपना साहित्यिक नाम अमर्कांत का आधार बनाया। अमरकांत हिंदी साहित्य को अनेक उपन्यास, कहानियाँ एवं बाल साहित्य के माध्यम से समृद्ध किया। उनके उपन्यासों में ‘सूखा पत्ता’ (1959), ‘ग्रामसेविका’, ‘कंटीले राह के फूल’, ‘आकाश पक्षी’ (1967), ‘काले उजले दिन’ (1969), ‘दीवार और आँगन’ (1969), ‘सुखी जीवी’, ‘बीच की दीवार’, ‘सुन्नर पांडे की पतोह’, ‘आँधी’, ‘सुदीराम’, ‘इन्हीं हथियारों से’ और ‘पराई डाल का पंछी’ आदि उल्लेखनीय हैं। ‘जिंदगी और जोंक’, ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘कुहासा’, ‘तूफान’, ‘कला प्रेमी’ आदि उनके प्रसेद्ध कहानी संग्रह हैं। उपन्यास और कहानियों के अलावा अमरकांत ने बाल साहित्य का सृजन भी किया है। ‘खूँट में दाल’, ‘दो हिम्मती बच्चे’, ‘झगरू लाल का पैसा’ आदि इसी कोटि की रचनाएँ हैं।

अमरकांत की प्राथमिक शिक्षा नगरा में संपन्न हुई। 1942 में उन्होंने इंटरमीडियट की पढ़ाई अधूरी छोड़कर स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया। बाद में उन्होंने 1946 में सतीशचंद्र इंटर कॉलेज, बलिया से अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की तथा इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्‍त की। अम्रकांत प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल होकर कहानी लेखन को गति प्रदान की। वे सैनिक, अमृत, भारत, कहानी और मनोरमा आदि पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रह चुके हैं। यहाँ हम उनकी वैचारिकता के आयामों को स्पष्‍ट करने का प्रयास करेंगे।

अमरकांत का रचना संसार वैविध्यपूर्ण है। उन्हें ‘रोमानी कथाकार’ मानते हुए डॉ.गोपाल राय ने कहा कि "अमरकांत के सभी उपन्यास रोमानी उपन्यासों के फार्मूलों पर आधारित हैं जिनमें क्रांति, प्रेम, विमाता के व्यवहार, परंपरागत आदर्शों की अनुगामिनी नारी की आस्था, रूढ़िग्रस्त निम्न मध्यवर्ग की जड़ता आदि का भावपूर्ण अंकन किया गया है। इन उपन्यासों में यत्र-तत्र सामाजिक प्रयोजन की बात कही गई है पर कथा संसार से उसकी तर्कसंगत पुष्‍टि नहीं होता। जीवंत अनुभूतियों के संस्पर्श और सामाजिक विसंगतियों की चेतना के अभाव के कारण अमरकांत के उपन्यास सर्जनात्मक दृष्‍टि से अत्यंत सामान्य हैं।" (हिंदी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय)।

वस्तुतः अमरकांत के साहित्य की मूल चिंता है आधुनिकता और परंपरा का द्वन्द्व। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में सामाजिक परिवर्तन को दर्शाया है। व्यक्‍ति स्वातंत्र्य और सामाजिक परिवर्तन की आवाज उनके साहित्य में सुनाई पड़ती है। सामाजिक और राजनैतिक जीवन में व्याप्‍त अराजकता के कारण व्यक्‍ति उसके व्यक्‍तित्व की रक्षा नहीं कर पाता। ऐसे समय में उसे जीवन की निरर्थकता को स्वीकारते हुए अलगाव की समस्या से जूझना पड़ता है। भारत में एक ओर यांत्रिक विकास है तो दूसरी ओर सामाजिक पिछड़ापन है। इस कारण अनेक विसंगतियों का जन्म हो रहा है। इन विसंगतियों में एक, समाज में व्याप्‍त जाति भेद को पछाड़ घोषित करते हुए अमरकांत कहते हैं - "जाति को मैं नहीं मानता; जाति एक सामाजिक ढकोसला है, अपने झूठे अहंकार का कमजोर किला। कुछ साधन-संपन्न लोगों ने कमजोरों को दबाना चाहा और इसके लिए उनकी सीमाएँ निश्‍चित कर दीं। इस संसार में दो ही जातियाँ हैं, एक अच्छे लोगों की और दूसरी बुरे लोगों की, एक साधन-संपन्न लोगों की और दूसरी साधन-विहीन लोगों की। क्या ब्राह्‍मण जाति में एक-से-एक कमीने, बदमाश, व्यभिचारी और लुच्चे नहीं भरे हैं? क्या और दूसरी जातियों में अच्छे लोग नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि ऊँची कही जानेवाली जातियों के लोग छिपकर कुकर्म करते हैं और फिर भी अपने को श्रेष्‍ठ समझते हैं? जाति के विभाजन...." (सूखा पत्ता; पृ.176)।

अमरकांत परंपरागत रूढ़ियों के खिलाफ है। रूढ़िपालन के नाम पर प्रेम का विरोध करने को असामाजिक और अनुचित मानता है। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि "दोष समाज-रचना का है, जिसमें प्रेम फल-फूल ही नहीं सकता। इस समाज में और भी दुःख और पीड़ा है, उसके सामने अपनी पीड़ा का कोई महत्व नहीं, अपने को उसमें घुला-मिलाकर मारना तो कायरता है। ... खासकर उस आदमी के लिए जो पढ़ा-लिखा और समझदार हो।" (वही, पृ.200)। उनकी मान्यता है कि "जीवन में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष और तकलीफ जरूरी है, और जो संघर्ष नहीं कर सकता, जो तकलीफ बरदाश्‍त नहीं कर सकता, उसका जीवन व्यर्थ है।" (वही, पृ.47)।

अमरकांत के उपन्यासों में नारी जीवन की त्रासदी का मार्मिक अंकन मिलता है। यदि स्त्री के संबंध में सामंती सोच को संक्षेप में सूत्रबद्ध करना हो तो वह यह है कि ‘न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।’ अर्थात्‌ स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है चूँकि वह कमजोर है, अबला है। पर अमरकांत यही मानते हैं कि स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं। वे पूछते हैं कि "औरत मर्द में कोई ऊँचा नीचा थोड़े हैं? सभी बराबर हैं। जो काम मर्द कर सकते हैं, वही औरतें भी कर सकती हैं।" (आकाश पक्षी, पृ.79)।

सदियों से सामंती संस्कार ने स्त्री को शिक्षा से दूर रखा है क्योंकि स्त्री ने यदि शिक्षा प्राप्‍त कर ली तो वह रूढ़ियों के खिलाफ खड़ी हो सकती है। हमेशा यही कहा जाता है कि लड़कियाँ अधिकतर पढ़कर भी क्या करेंगी? कुछ लोग शिक्षा का गलत अर्थ निकालकर सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। वे पढ़-लिख जाएँगे और अपनी योग्यता का झूठा प्रदर्शन करेंगे। गलत कामों में समय को बरबाद करेंगे। ऐसे लोग स्त्रियों और पुरुषों दोनों में मिल जाएँगे। पर शिक्षा का यह अर्थ कतई नहीं है। अमरकांत शिक्षा का अर्थ स्पष्‍ट करते हुए कहते हैं कि "शिक्षा का मतलब है मेहनती बनना, पुरानी गलत बातों के खिलाफ संघर्ष करना। इसके बिना जीवन एकदम बेकार हो जाता है। शिक्षा गलत बातें नहीं सिखाती, वह जीवन को हमेशा ऊँचा उठाती है।" (वही, पृ.80)।

आज का मनुष्‍य़ यांत्रिक पुर्जा बन गया है। इस पर आक्रोश व्यक्‍त करते हुए अमरकांत कहते हैं, "हम लोगों में जो गिरावट आ गई है वह केवल हमारी ही वजह से। आज हम आजाद नहीं है, मशीन के पुर्जे हैं जिनके दिल नहीं है, मन में आकांक्षाएँ नहीं है, रंगीन भविष्‍य की उमंग भी नहीं है।" (वही)।

उपन्यासों की भाँति ही अमरकांत की कहानियाँ भी उल्लेखनीय हैं। उनकी कहानियों का कथ्य बहुत महत्वपूर्ण होता है तथा शिल्प बड़ा अनगढ़। उनमें जिंदगी की पकड़ बड़ी मजबूत है। वे स्थितियों को गहराई से उतारते हैं। वस्तुतः सामाजि विसंगतियों के प्रति उनका व्यंग्य बड़ा तीखा होता है। नामवर सिंह के अनुसार ‘मर्मस्पर्शी व्यंग्यात्मकता’ उनकी काहानियों की केंद्रीय विशेषता है। इस दृष्‍टि से उनकी कालजयी  कहानी ‘दोपहर का भोजन’ उल्लेखनीय है। विश्‍व की तीन चौथाई आबादी आज भी गरीब व पिछड़ी हुई है। अमरकांत ने ‘दोपहर का भोजन’ के माध्यम से इसी बात की पुष्‍टी की है। उन्होंने यह भी दर्शाया है कि भारतीय जनता गरीब होने पर भी विचलित नहीं होती। परिस्थितियों का डटकार सामान करती है। कुलमिलाकार यह कहा जा सकता है कि अमरकांत प्रगतिशील चिंतन को भारतीय स्म्दर्भ में अभिव्यक्‍त करने वाले सफल कथाकार हैं।


अमरकांत की ही भाँति श्रीलाल शुक्ल ने भी अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को उकेरा है। श्रीलाल शुक्ल हिंदी साहित्य जगत में ‘राग दरबारी’ के लेखक के रूप में विख्यात हैं। वे अपने व्यंग्य लेखन के लिए जाने जाते हैं परंतु उन्हें सिर्फ व्यंग्यकार के रूप में देखना न्याय संगत नहीं होगा। वस्तुतः वे यथार्थ को उद्‍घाटित करने के लिए, सच और झूठ के बीच के फर्क स्पष्‍ट करने के लिए व्यंग्य का सहारा लेते हैं। यही उनकी रचना प्रविधि है। समाज में फैली मक्कारी, पाखंड, झूठ, विडंबना, राजनैतिक अवसरवादिता आदि की तस्वीर खींचने की बाध्यता कभी साहित्यकार को कार्टूनिस्ट बनाती है तो कभी फोटोग्राफर, तो कभी गंभीर चिंतक। श्रीलाल शुक्ल भी ऐसे हैं। उनके बारे में बताते हुए गिरिराज किशोर कहते हैं कि "साहित्य के संदर्भ में वे उदारमना भी हैं और ईमानादार भी। नए से नए लेखकों के बारे में लिखने में वे संकोच नहीं करते। साथ ही प्रशंसा करने में भी वे कंजूस नहीं।" (श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन)।

श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ जनपद के अतरौली गाँव में हुआ। 1947 में इलाहाबाद विश्‍वविद्‍यालय से स्नतक की उपाधि प्राप्‍त की। तत्पश्‍चात उन्होंने भारत सरकार की सेवा की। उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं - ‘सूनी घाट का सूरज’(1957), ‘अज्ञातवास’(1962), ‘राग दरबारी’(1968), ‘आदमी का जहर’(1972), ‘सीमाएँ टूटती हैं’(1973), ‘मकान’(1976), ‘पहला पड़ाव’(1987), ‘बिस्रामपुर का संत’(1998), ‘बब्बरसिंह और उसके साथी’(1999), ‘राग विराग’(2001)। ‘यह घर मेरी नहीं’(1979), ‘सुरक्षा और अन्य कहानियाँ’(1991), ‘इस उम्र में’(2003), ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’(2003) उनके चर्चित कहानी संग्रह हैं। ‘अंगद का पाँव’(1958), ‘यहाँ से वहाँ’(1970), `मेरी श्रेष्‍ठ व्यंग्य रचनाएँ’(1979), ‘उमरावनगर में कुछ दिन’(1986), ‘कुछ जमीन में कुछ हवा में’(1990), ‘आओ बैठ लें कुछ देरे’(1995), ‘आगली शताब्दी का शहर’(1996), ‘जहालत के पचास साल’(2003) और ‘खबरों की जुगाली’(2005) उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्‍त ‘अज्ञेय:कुछ रंग और कुछ राग’(1999, आलोचना), ‘भगवतीचरण वर्मा’(1989, विनिबंध) और ‘अमृतलाल नागर’(1994, विनिबंध) भी उल्लेखनीय हैं।

श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का एक बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से संबंध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्‍य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्‍लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छान बीन कर, उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्‍ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलती हैं।

श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि "कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्‍ट हूँ। पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्‍ठता देती है। जैसे मनुष्‍य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैंसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।"

श्रीलाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्‍टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केंद्रित नहीं होने दिया। शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्‍त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पाँव’ और  उपन्यास ‘राग दरबारी’ में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है।

देश के अनेक सकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनके पास अच्छा भवन तक नहीं है। कहीं कहीं तो तंबुओं में कक्षाएँ चलाती हैं, अर्थात न्यूतम सुविधाओं का भी अभाव है। वे इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि "यही हाल ‘राग दरबारी’ के छंगामल विद्‍यालय इंटरमीडियेट कॉलेज का भी है, जहाँ से इंटरमीडियेट पास करनेवाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परंपरा में पाई है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं, हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है।"

विडंबना यह है कि आज कल अध्यापक भी अध्यपन के अलावा सब कुछ करते हैं। ‘राग दरबारी’ के मास्टर मोतीराम की तरह वे कक्षा में पढ़ाते कम हैं और ज्यादा समय अपनी आटे की चक्‍की को समर्पित करते हैं। ज्यादात्र शिक्षक मोतीराम ही हैं, नाम भले ही कुछ भी हो। ट्‍यूशन लेते हैं, दुकान चलाते हैं और तरह तरह के निजी धंधे करते हैं। छात्रों को देने के लिए उनके पास समय कहाँ बचता है?

श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य के माध्यम से समसामयिक स्थितियों पर करारी चोट की है। वे कहते हैं कि ‘आज मानव समाज अपने पतन के लिए खुद जिम्‍मेदार है। आज वह खुलकर हँस नहीं सकता। हँसने के लिए भी ‘लाफिंग क्लब’ का सहारा लेना पड़ता है। शुद्ध हवा के लिए आक्सीजन पार्लर जाना पड़ता है। बंद बोत्ल का पानी पीना पड़ता है। इंस्टेंट फुड़ खाना पड़ता है। खेलने के लिए, एक-दूसरे से बात करने के लिए भी वक्‍त की कमी है।’ कुलमिलाकर यह कह सकते हैं कि श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में जीवन का संघर्ष है और उनका साहित्य सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है।

अभिप्राय यह है कि अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल दोनों ही सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़े हुए तथा सामाजिक विकृतियों से विचलित ऐसे कथाकार हैं जो चाहते हैं कि भावी पीढ़ियों को इससे बेहतर समाज विरासत में मिलें; इसके लिए इन दोनों रचनाकारों ने उदात्त जीवन मूल्यों के प्रति पाठक में बेचैनी पैदा करने का सार्थक प्रयास किया है। निस्संदेह ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हें साझे में दिए जाने के बजाय अलग - अलग पूरा - पूरा दिया जाता, तो अधिक न्यायसंगत होता।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

आदिवासी विमर्श पर खोजपूर्ण सामग्री


पुस्तक-चर्चा 
"हिन्दी भारत"




भारत का समाज संभवतः दुनिया के सबसे पुराने समाजों में से एक है. यहाँ समय पर अनेक सभ्यताएँ आईं और धीरे धीरे यह देश एक संगम समाज के रूप में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जाने कितने परिवर्तन लंबी यात्रा के दौरान घटित हुए होंगे. इतने बड़े देश में कोई भी ऐसा परिवर्तन संभव नहीं जो इसके हर कोने अँतरे को आमूल चूल बदल डाले. इस महादेश में व्यापक से व्यापक परिवर्तन में भी कुछ-न-कुछ अन-छुआ, अन-पलटा रह जाना स्वाभाविक है. और जो इस तरह अन-छुआ, अन-पलटा रह जाता है वह विकास की दौड़ में, सभ्यता के सफर में पीछे छूट जाता है. समाज के इस तरह पीछे छूटे हुए समुदाय आज की भूमंडलीय दुनिया में कहीं खो न जाए इसीलिए अनकी पहचान करना, उनकी समस्याओं से रू-ब-रू होना, उनकी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करना और विकास के लाभ उन तक पहुँचना किसी भी चेतनाशील साहित्यकार के सरोकारों में शामिल होना चाहिए. 

इन्हीं सरोकारों से प्रेरित है ‘संकल्य’ का अक्‍तूबर 2010 - मार्च 2011 संयुक्‍तांक जिसे जनजातीय भाषा, साहित्य और संस्कृति विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया गया है. प्रधान संपादक प्रो.टी.मोहन सिंह की मुख्य चिंता जहाँ यह है कि हम गांधी से लेकर नाना साहब तक से परिचित हैं लेकिन सिद्धू, कान्हूँ, बिरसामुंडा, तेलंगा खाड़िया, बुधु भगत, तलक्कर बूँद, दुक्खन मांघी, तिलका मांघी, बिंद राय, सिंह राय, खाज्या नायिक, भीमा नायिक, सिनगी दयी, कैलीदई, अंबार दादा, कोमरम भीम, फूलोझानी, मांगी कुडा आदि आदिवासियों की क्रांति चेतना से परिचित नहीं हैं वहीं अतिथि संपादक प्रो.हेमराज मीणा की चिंता यह है कि दुर्भाग्य से दिशाहीन लोगों द्वारा आदिवासी विमर्श को लेकर बहुत घपला होता रहा है. आदिवासी और दलित विमर्श के अंतर का लोगों को पता ही नहीं है. आदिवासी के पास अपनी भाषा, अपनी सांस्कृतिक विरासत तथा अपनी गौरवशाली परंपरा रही है. आदिवासी समाज की सामाजिक और मानवशास्त्रीय संरचना एक भिन्न विषय है. आदिवासी समाज के साथ चतुर सुजान लोगों ने छल किया है. आदिवासी को छलकर उससे उसके मूल दर्शन को भी छीना गया है, साथ ही कुछ लोगों ने आदिवासी विकास के नाम पार समाज और देश के साथ प्रपंच भी किया है. इन दोनों ही प्रकार की चिंताओं का समाधान करने का इस विशेषांक में प्रयास दिखाई देता है. 

विशेषांक की सामग्री को सोलह खंडों में प्रस्तुत किया गया है जिनमें नौ खंड भारत के अलग अलग राज्यों अथवा अंचलों के आदिवासियों के जीवन और जनजातीय संस्कृति पर केंद्रित किए गए हैं. उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश की जनजातीय विरासत के संरक्षण की चर्चा करते हुए डॉ.गोरखनाथ तिवारी ने आंध्र प्रदेश के चौंथीस जनजातीय समुदायों पर केंद्रित जनजातीय संग्रहालय और जनजातीय अध्ययन केंद्र की स्थापना की जरूरत बताई है. दूसरी ओर पूर्वोत्तर भारत संबंधी खंड में प्रो.जगमल सिंह ने मणिपुर के पर्वतीय भाग में रहनेवाली 29 प्रमुख जनजातियों की सामुदायिक संस्कृति का विस्तृत परिचय दिया है. कृष्‍णकुमार यादव ने अंडमान-निकोबार के आदिवासियों के विलुप्‍त होने के खतरे से आगाह किया है जबकि डॉ.दीपेंद्र सिंह जाडेजा ने गुजरात के जनजातीय भाषा साहित्य का परिचय कराया है. इसी क्रम में मध्य प्रदेश के आदिवासी लोक साहित्य का जायजा लिया है डॉ.हीरालाल बाछौतिया ने. उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि आदिम जनजातियों का जीवन और लोक परस्पर इतना घुला मिला है कि एक के बिना दूसरा अधूरा है. उनका परिवेश वन प्रांतर का वह पेड़ है जिसके पत्ते अभी भी हरे हैं. यहाँ वह वन-फूल है जो अभी मुरझाया नहीं है. वहाँ जाकर अनुभव होता है. यह भी भारत है लेकिन हम इससे कितने कम परिचित हैं.

विभिन्न प्रांतों की जनजातियों पर केंद्रित सामग्री में सबसे अधिक महत्वपूर्ण और खोजपूर्ण वे आलेख प्रतीत होते हैं जिनमें आदिवासियों की भाषा का अध्ययन किया गया है. डॉ.रमण शांडिल्य ने अरुणाचल, प्रो.नंदकिशोर पांडेय ने परख जनजाती, डॉ.व्यासमणि त्रिपाठी ने अंडमान-निकोबार, डॉ.साईदा मेहरा ने भील जनजाती, डॉ.रामनिवास साहू ने छत्तीसगढ़, डॉ.दिगविजय कुमार शर्मा ने झारखंड की भाषाओं पर जो आलेख प्रस्तुत किए हैं वे इस दृष्‍टि से उल्लेखनीय हैं. 


वैसे आदिवासी भारत संबंधी आरंभिक खंड में प्रथम आलेख के रूप में प्रो.दिलीप सिंह के ‘जनजातीय भाषाओं से जुड़े़ कुछ सवाल’ की प्रस्तुति स्वतः ही यह सिद्ध कर देती है कि विशेषांक का दृष्‍टिकोण मूलतः भाषा केंद्रित ही है. प्रो.दिलीप सिंह ने इस बात पार अफ्सोस जाहिर किया है कि हमारी संपूर्ण जनजातीय भाषाओं और बोलियों पर अभी तक कोई परिचयात्मक ग्रंथ हिंदी में नहीं आ सका है. वे बताते हैं कि "भाषा की दृष्‍टि से भारत के आदिवासी समुदायों को पिछड़ा हुआ समझने की प्रवृत्ति भी हमारी अनभिज्ञता हैं. अपनी मातृभाषा-अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए ये प्रांतीय मातृभाषा, राष्‍ट्रभाषा हिंदी अथवा अभिजात्य संपर्क भाषा अंग्रेज़ी का आवश्‍यकतानुसार व्यवहार करते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के कुछ आदिवासी जन समुदाय भाषा ज्ञान की दृष्‍टि से बहुत सचेत और दक्ष हैं. जैसे संथाली अपनी जनजातीय मातृभाषा के अतिरिक्‍त हिंदी जानता है. बोडो भाषी असमिया और हिंदी जानते हैं. नागा समुदाय के लोग अपनी नागा भाषा और नागामीज़ एवं हिंदी-अंग्रेज़ी जानते हैं.गोंड समाज गोंडी के अतिरिक्‍त मराठी या तेलुगु भी जानते हैं. भील समाज के लोग भीली के अतिरिक्‍त हिंदी और गुजराती जानते हैं."


प्रायः यह समझा जाता है कि राजस्थान का मीणा समुदाय पर्याप्‍त प्रगति कर चुका है, लेकिन भेंटवार्ता खंड में आंध्र प्रदेश के अतिरिक्‍त पुलिस महानिदेशक आर.पी.मीणा ने बताया है कि उच्च पदों को प्राप्‍त करनेवाले 2% लोगों के अलावा शेष मीणा समुदाय खेती से जुड़ा हुआ है और आज भी गरीबी, भुखमरी तथा बेरोजगारी का शिकार होकर अपराधवृत्ति को अपनाने के लिए विवश हैं. वे बताते हैं कि दो-तीन जिलों को छोड़कर बाकि समूचे राजस्थान में रहनेवाले मीणा समुदाय में रहनेवाले लोगों का विकास अभी तक नहीं हो पाया है.

विभिन्न आलेखों में अलग अलग आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक विशेषताओं को उजागर किया गया है और एक सीमा तक महिमा मंडित भी. डॉ.रमेशचंद मीणा ने अत्यंत प्रामाणिक ढंग से ‘हिंसा बनाम आदिवासी’ में यह प्रतिपादित किया है कि "विषमता, भूख और विस्थापन से त्रस्त आदिवासी - ‘बभुक्षितः किम्‌ न करोति पापम्‌’ के तहत नक्सली बनते हैं. झोपड़ी और महल की दूरी लगातार बढ़ रही है. वैश्‍विक बाजार में पहाड़ों की बोली लगाने की तैयारी है तो दूसरी तरफ लोक की आवाज दबाने के लिए संगीने तानी जा रही हों तब पूछा जा सकता है कि जलियांवाला से इसे किस तरह से अलग कहेंगे जबकि गांधी ने हजारों वर्ष पूर्व महावीरस्वामी के अहिंसा से पूरे विश्‍व को एक रास्ता बताया था तब अमेरिकी ताकत का प्रयोग क्यों कर किया जा रहा है?" आदिवासी विमर्श की केंद्रीय चिंता आज के समय में शायद यही होनी चाहिए.


एक खंड में आदिवासी साहित्य शीर्षक से सात कविताएँ प्रस्तुत की गई हैं. इनमें डॉ.शुभदा पांडेय, नरेंद्र राय, शशिनारायण स्वाधीन, डॉ.अनशुमन मिश्र की भी कविताएँ हैं. साथ ही कहानी खंड में डॉ.ब्रजवल्लभ मिश्र की कहानी ‘धन्नो’ को भी आदिवासी कहानी कहा गया है. इस प्रकार का वर्गीकरण भ्रामक प्रतीत होता है. ये रचनाएँ आदिवासी साहित्य नहीं है बल्कि इनमें आदिवासी विमर्श जरूर है. प्रकारांत से आदिवासी विमर्श शीर्षक खंड में प्रो.अर्जुन चव्हाण ने इस बात की ओर इशारा किया भी है. आगे उन्होंने इसे दुर्भाग्य माना है आदिवासी समाज में आज तक एक भी महिला उपन्यासकार पैदा नहीं हुई. इस खंड में साहित्य की विभिन्न विधाओं की पड़ताल आदिवासी विमर्श के संदर्भ में की गई है जिससे इस दिशा में शोध के नए आयामों का पता चलता है. अंत में एक पुस्तक की समीक्षा दी गई है. संजय चतुर्वेदी द्वारा जनजाती नृत्य करमा पर केंद्रित पुस्तक के बारे में डॉ.श्रीप्रकाश शुक्ल ने याद दिलाया है कि करमा के पीछी कर्म में रत रहने की विशिष्‍ट इच्छा है जिसे करम अर्थात कदंब के वृक्ष के माध्यम से सांकेतिक रूप से प्रकट किया जाता है.

निःसंदेह ‘संकल्य’ का यह विशेषांक अपनी शोधपूर्ण सामग्री और व्याप्‍क विमर्श के कारण कई किताबों पर भारी है. अतः बार बार पढ़ने योग्य और सहेज रखने लायक है. मुद्रण और संपादन के साथ साथ नरेंद्र राय का बहुरंगी आवरण चित्र भी प्रशंसनीय है.


संकल्य (त्रैमासिक)/ 

वर्ष 38, अंक 4, एवं वर्ष 39, अंक 1/ अक्तूबर 2010-मार्च 2011 (संयुक्‍तांक)/ 
प्रधान संपादक - प्रो.टी.मोहन सिंह/ अतिथि संपादक - प्रो.हेमराज मीना/
कार्यालय - प्लॉट नं. 10, रोड नं 6, समतापुरी कॉलोनी, न्यू नागोल के पास, हैदराबाद - 500 035

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