बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

आदिवासी विमर्श पर खोजपूर्ण सामग्री


पुस्तक-चर्चा 
"हिन्दी भारत"




भारत का समाज संभवतः दुनिया के सबसे पुराने समाजों में से एक है. यहाँ समय पर अनेक सभ्यताएँ आईं और धीरे धीरे यह देश एक संगम समाज के रूप में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जाने कितने परिवर्तन लंबी यात्रा के दौरान घटित हुए होंगे. इतने बड़े देश में कोई भी ऐसा परिवर्तन संभव नहीं जो इसके हर कोने अँतरे को आमूल चूल बदल डाले. इस महादेश में व्यापक से व्यापक परिवर्तन में भी कुछ-न-कुछ अन-छुआ, अन-पलटा रह जाना स्वाभाविक है. और जो इस तरह अन-छुआ, अन-पलटा रह जाता है वह विकास की दौड़ में, सभ्यता के सफर में पीछे छूट जाता है. समाज के इस तरह पीछे छूटे हुए समुदाय आज की भूमंडलीय दुनिया में कहीं खो न जाए इसीलिए अनकी पहचान करना, उनकी समस्याओं से रू-ब-रू होना, उनकी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करना और विकास के लाभ उन तक पहुँचना किसी भी चेतनाशील साहित्यकार के सरोकारों में शामिल होना चाहिए. 

इन्हीं सरोकारों से प्रेरित है ‘संकल्य’ का अक्‍तूबर 2010 - मार्च 2011 संयुक्‍तांक जिसे जनजातीय भाषा, साहित्य और संस्कृति विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया गया है. प्रधान संपादक प्रो.टी.मोहन सिंह की मुख्य चिंता जहाँ यह है कि हम गांधी से लेकर नाना साहब तक से परिचित हैं लेकिन सिद्धू, कान्हूँ, बिरसामुंडा, तेलंगा खाड़िया, बुधु भगत, तलक्कर बूँद, दुक्खन मांघी, तिलका मांघी, बिंद राय, सिंह राय, खाज्या नायिक, भीमा नायिक, सिनगी दयी, कैलीदई, अंबार दादा, कोमरम भीम, फूलोझानी, मांगी कुडा आदि आदिवासियों की क्रांति चेतना से परिचित नहीं हैं वहीं अतिथि संपादक प्रो.हेमराज मीणा की चिंता यह है कि दुर्भाग्य से दिशाहीन लोगों द्वारा आदिवासी विमर्श को लेकर बहुत घपला होता रहा है. आदिवासी और दलित विमर्श के अंतर का लोगों को पता ही नहीं है. आदिवासी के पास अपनी भाषा, अपनी सांस्कृतिक विरासत तथा अपनी गौरवशाली परंपरा रही है. आदिवासी समाज की सामाजिक और मानवशास्त्रीय संरचना एक भिन्न विषय है. आदिवासी समाज के साथ चतुर सुजान लोगों ने छल किया है. आदिवासी को छलकर उससे उसके मूल दर्शन को भी छीना गया है, साथ ही कुछ लोगों ने आदिवासी विकास के नाम पार समाज और देश के साथ प्रपंच भी किया है. इन दोनों ही प्रकार की चिंताओं का समाधान करने का इस विशेषांक में प्रयास दिखाई देता है. 

विशेषांक की सामग्री को सोलह खंडों में प्रस्तुत किया गया है जिनमें नौ खंड भारत के अलग अलग राज्यों अथवा अंचलों के आदिवासियों के जीवन और जनजातीय संस्कृति पर केंद्रित किए गए हैं. उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश की जनजातीय विरासत के संरक्षण की चर्चा करते हुए डॉ.गोरखनाथ तिवारी ने आंध्र प्रदेश के चौंथीस जनजातीय समुदायों पर केंद्रित जनजातीय संग्रहालय और जनजातीय अध्ययन केंद्र की स्थापना की जरूरत बताई है. दूसरी ओर पूर्वोत्तर भारत संबंधी खंड में प्रो.जगमल सिंह ने मणिपुर के पर्वतीय भाग में रहनेवाली 29 प्रमुख जनजातियों की सामुदायिक संस्कृति का विस्तृत परिचय दिया है. कृष्‍णकुमार यादव ने अंडमान-निकोबार के आदिवासियों के विलुप्‍त होने के खतरे से आगाह किया है जबकि डॉ.दीपेंद्र सिंह जाडेजा ने गुजरात के जनजातीय भाषा साहित्य का परिचय कराया है. इसी क्रम में मध्य प्रदेश के आदिवासी लोक साहित्य का जायजा लिया है डॉ.हीरालाल बाछौतिया ने. उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि आदिम जनजातियों का जीवन और लोक परस्पर इतना घुला मिला है कि एक के बिना दूसरा अधूरा है. उनका परिवेश वन प्रांतर का वह पेड़ है जिसके पत्ते अभी भी हरे हैं. यहाँ वह वन-फूल है जो अभी मुरझाया नहीं है. वहाँ जाकर अनुभव होता है. यह भी भारत है लेकिन हम इससे कितने कम परिचित हैं.

विभिन्न प्रांतों की जनजातियों पर केंद्रित सामग्री में सबसे अधिक महत्वपूर्ण और खोजपूर्ण वे आलेख प्रतीत होते हैं जिनमें आदिवासियों की भाषा का अध्ययन किया गया है. डॉ.रमण शांडिल्य ने अरुणाचल, प्रो.नंदकिशोर पांडेय ने परख जनजाती, डॉ.व्यासमणि त्रिपाठी ने अंडमान-निकोबार, डॉ.साईदा मेहरा ने भील जनजाती, डॉ.रामनिवास साहू ने छत्तीसगढ़, डॉ.दिगविजय कुमार शर्मा ने झारखंड की भाषाओं पर जो आलेख प्रस्तुत किए हैं वे इस दृष्‍टि से उल्लेखनीय हैं. 


वैसे आदिवासी भारत संबंधी आरंभिक खंड में प्रथम आलेख के रूप में प्रो.दिलीप सिंह के ‘जनजातीय भाषाओं से जुड़े़ कुछ सवाल’ की प्रस्तुति स्वतः ही यह सिद्ध कर देती है कि विशेषांक का दृष्‍टिकोण मूलतः भाषा केंद्रित ही है. प्रो.दिलीप सिंह ने इस बात पार अफ्सोस जाहिर किया है कि हमारी संपूर्ण जनजातीय भाषाओं और बोलियों पर अभी तक कोई परिचयात्मक ग्रंथ हिंदी में नहीं आ सका है. वे बताते हैं कि "भाषा की दृष्‍टि से भारत के आदिवासी समुदायों को पिछड़ा हुआ समझने की प्रवृत्ति भी हमारी अनभिज्ञता हैं. अपनी मातृभाषा-अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए ये प्रांतीय मातृभाषा, राष्‍ट्रभाषा हिंदी अथवा अभिजात्य संपर्क भाषा अंग्रेज़ी का आवश्‍यकतानुसार व्यवहार करते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के कुछ आदिवासी जन समुदाय भाषा ज्ञान की दृष्‍टि से बहुत सचेत और दक्ष हैं. जैसे संथाली अपनी जनजातीय मातृभाषा के अतिरिक्‍त हिंदी जानता है. बोडो भाषी असमिया और हिंदी जानते हैं. नागा समुदाय के लोग अपनी नागा भाषा और नागामीज़ एवं हिंदी-अंग्रेज़ी जानते हैं.गोंड समाज गोंडी के अतिरिक्‍त मराठी या तेलुगु भी जानते हैं. भील समाज के लोग भीली के अतिरिक्‍त हिंदी और गुजराती जानते हैं."


प्रायः यह समझा जाता है कि राजस्थान का मीणा समुदाय पर्याप्‍त प्रगति कर चुका है, लेकिन भेंटवार्ता खंड में आंध्र प्रदेश के अतिरिक्‍त पुलिस महानिदेशक आर.पी.मीणा ने बताया है कि उच्च पदों को प्राप्‍त करनेवाले 2% लोगों के अलावा शेष मीणा समुदाय खेती से जुड़ा हुआ है और आज भी गरीबी, भुखमरी तथा बेरोजगारी का शिकार होकर अपराधवृत्ति को अपनाने के लिए विवश हैं. वे बताते हैं कि दो-तीन जिलों को छोड़कर बाकि समूचे राजस्थान में रहनेवाले मीणा समुदाय में रहनेवाले लोगों का विकास अभी तक नहीं हो पाया है.

विभिन्न आलेखों में अलग अलग आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक विशेषताओं को उजागर किया गया है और एक सीमा तक महिमा मंडित भी. डॉ.रमेशचंद मीणा ने अत्यंत प्रामाणिक ढंग से ‘हिंसा बनाम आदिवासी’ में यह प्रतिपादित किया है कि "विषमता, भूख और विस्थापन से त्रस्त आदिवासी - ‘बभुक्षितः किम्‌ न करोति पापम्‌’ के तहत नक्सली बनते हैं. झोपड़ी और महल की दूरी लगातार बढ़ रही है. वैश्‍विक बाजार में पहाड़ों की बोली लगाने की तैयारी है तो दूसरी तरफ लोक की आवाज दबाने के लिए संगीने तानी जा रही हों तब पूछा जा सकता है कि जलियांवाला से इसे किस तरह से अलग कहेंगे जबकि गांधी ने हजारों वर्ष पूर्व महावीरस्वामी के अहिंसा से पूरे विश्‍व को एक रास्ता बताया था तब अमेरिकी ताकत का प्रयोग क्यों कर किया जा रहा है?" आदिवासी विमर्श की केंद्रीय चिंता आज के समय में शायद यही होनी चाहिए.


एक खंड में आदिवासी साहित्य शीर्षक से सात कविताएँ प्रस्तुत की गई हैं. इनमें डॉ.शुभदा पांडेय, नरेंद्र राय, शशिनारायण स्वाधीन, डॉ.अनशुमन मिश्र की भी कविताएँ हैं. साथ ही कहानी खंड में डॉ.ब्रजवल्लभ मिश्र की कहानी ‘धन्नो’ को भी आदिवासी कहानी कहा गया है. इस प्रकार का वर्गीकरण भ्रामक प्रतीत होता है. ये रचनाएँ आदिवासी साहित्य नहीं है बल्कि इनमें आदिवासी विमर्श जरूर है. प्रकारांत से आदिवासी विमर्श शीर्षक खंड में प्रो.अर्जुन चव्हाण ने इस बात की ओर इशारा किया भी है. आगे उन्होंने इसे दुर्भाग्य माना है आदिवासी समाज में आज तक एक भी महिला उपन्यासकार पैदा नहीं हुई. इस खंड में साहित्य की विभिन्न विधाओं की पड़ताल आदिवासी विमर्श के संदर्भ में की गई है जिससे इस दिशा में शोध के नए आयामों का पता चलता है. अंत में एक पुस्तक की समीक्षा दी गई है. संजय चतुर्वेदी द्वारा जनजाती नृत्य करमा पर केंद्रित पुस्तक के बारे में डॉ.श्रीप्रकाश शुक्ल ने याद दिलाया है कि करमा के पीछी कर्म में रत रहने की विशिष्‍ट इच्छा है जिसे करम अर्थात कदंब के वृक्ष के माध्यम से सांकेतिक रूप से प्रकट किया जाता है.

निःसंदेह ‘संकल्य’ का यह विशेषांक अपनी शोधपूर्ण सामग्री और व्याप्‍क विमर्श के कारण कई किताबों पर भारी है. अतः बार बार पढ़ने योग्य और सहेज रखने लायक है. मुद्रण और संपादन के साथ साथ नरेंद्र राय का बहुरंगी आवरण चित्र भी प्रशंसनीय है.


संकल्य (त्रैमासिक)/ 

वर्ष 38, अंक 4, एवं वर्ष 39, अंक 1/ अक्तूबर 2010-मार्च 2011 (संयुक्‍तांक)/ 
प्रधान संपादक - प्रो.टी.मोहन सिंह/ अतिथि संपादक - प्रो.हेमराज मीना/
कार्यालय - प्लॉट नं. 10, रोड नं 6, समतापुरी कॉलोनी, न्यू नागोल के पास, हैदराबाद - 500 035

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1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आदिवासियों पर एक खोजपूर्ण लेखों से भरा विशेषांक रहा संकल्य का यह अंक। अच्छी समीक्षा के लिए बधाई॥