मंगलवार, 28 अगस्त 2012

अक्षर मेरा अस्तित्व




‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ [2011] तेलुगु कवयित्री डॉ. सी. भवानीदेवी की हिंदी में अनूदित कविताओं का पहला संग्रह है. इस संकलन में 41 कविताएँ और 10 नानीलु (नन्हे मुक्तक) सम्मिलित हैं. तेलुगु में डॉ.भवानीदेवी के 7 कविता संग्रहों और 2 नानीलु संग्रहों के साथ साथ अनेक समीक्षात्मक आलेख, कहानियां और यात्रावृत्त प्रकाशित हैं. ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ के माध्यम से अनुवादिका श्रीमती आर.शांता सुंदरी ने डॉ.भवानीदेवी की रचनाओं से हिंदी साहित्य जगत को परिचित कराया है. ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ के लोकार्पण के अवसर पर मैं कवयित्री डॉ.सी.भवानीदेवी और अनुवादिका श्रीमती आर. शांता सुंदरी को हार्दिक शुभकामनाएँ देती हूँ. 

तेलुगु कविता के क्षेत्र में ‘नानीलु’ के प्रवर्तक के रूप में प्रो.एन.गोपि को जाना जाता है. भवानीदेवी ने प्रो.एन.गोपि के कवित्व से प्रेरणा पाकर इस काव्य विधा को अपनाया. जहां तक मेरा सीमित ज्ञान है, तेलुगु कवयित्रियों में इस विधा को अपनाने वाली प्रथम कवयित्री भवानीदेवी ही हैं. विवाह से संबंधित उनका एक ‘नानी’ इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि बड़े सहज रूप में लोग उसका प्रयोग करते रहते हैं – “विवाहमा/ एंता पनि चेसावु/ ना पुट्टिंटिकि/ नन्ने अतिथिनि चेसावु.” (विवाह/ तुमने यह क्या किया/ मायके में मुझे/ मेहमान बना दिया). 

भवानीदेवी संवेदनशील कवयित्री हैं. उनकी कविताओं में मूर्त-अमूर्त और जड़-चेतन सब निहित हैं. महाकवि श्रीश्री ने कहा है कि कविता के लिए कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं है. उनके अनुसार तो यह जगत पद्मव्यूह है और कविता एक अनबुझी प्यास है. इसीलिए शायद भवानीदेवी ने तकिया से लेकर गुड़िया, पत्थर, लालटेन, ताजमहल, विज्ञापन, घड़ी के फ्रेम,किताब, मोर पंख आदि के माध्यम से नए नए बिंब गढे – 

“मेरा बचपन/ किताबों में मोर पंख-सा छिपा हुआ है/ पत्तों के बीच में से छलकती चांदनी की तरह/ मेरी आत्मा खिलती रही उसी छत पर/ एकांत घड़ी के फ्रेम में/ काल गमन सूचक पेंडुलम की राह में/ उसी घर के दर्पण में/ वयरूप होने का पाउडर लगाया था/ मैंने घड़ी घड़ी.” (प्रतीक्षा) 

भवानीदेवी की कविताओं को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि कवयित्री को समाज की चिंता है. उनकी मूलभूत चिंता व्यक्ति, वर्ग या वर्ण नहीं है बल्कि मनुष्य है. इसीलिए वे कहती हैं कि “मानवी बनूँ/ प्यूपा को तोड़कर/ तितली बनकर हवा के संग-संग उड़ जाऊं...” (नौकरी). 

कवयित्री परिवेश के प्रति संवेदनशील हैं. वे कहती हैं – “गुर्तुलेनि नेस्तम!/ भूतद्दानिकिकूडा दोरकनि नल्लपूसवैयावु/ कांक्रीटु जन्गिल्स, सेलफोनल प्रकंपनालु/ मी पसिडिगूल्लनु काटेयटम/ ना उरुकू परुगुल जीवितमलो/ ओक्कसारैना तलवलेनि विषादम” (गूडू). इस अंश का अनुवाद बहुत ही सहज और लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप है – “कहाँ खो गई कि नज़र ही नहीं आती!/ कांक्रीट जंगलों में सेलफ़ोन के प्रकम्पनों का/ तेरे सुनहरे घोंसले को डसना एक विषाद है/ मेरी दौड़ धूप वाली ज़िंदगी में” (उन दिनों का घोंसला). यह अंश पढ़ते समय मुझे प्रो.एन.गोपि की कविता का वह अंश याद आया जिसमें वे कहते हैं कि - “कम्युनिकेशन के शोर से घबराकर/ कबूतर उड़ते चले जा रहे हैं/ उन्हें पकड़कर रोकिए/ ‘हैलो’ के एक ही तीर से/ रसार्द्र जीवन के खजाने को मत नष्ट कीजिए.” (एन.गोपि, मरती हुई चिठ्ठी, समय को सोने नहीं दूंगा). 

भवानीदेवी मानव संबंधों को ज्यादा महत्व देती हैं. आज की संवेदनहीन दुनिया को देखकर वे विचलित होकर कहती हैं – “मानव संबंधालनु/ की बोर्ड मीद ओत्तलेम कदा!” [मानव संबंधों को/ की-बोर्ड पर दबाया तो नहीं जा सकता है न! (अक्षर मेरा अस्तित्व)]. आज का मनुष्य भीड़ में भी अकेला है. वह जीवन की आपाधापी में अपने आप तक से कटता जा रहा है. बाज़ार ने मानवीय संबंधों को अपने कब्जे में कर लिया है. “ओक्टोपस सौंदर्य के बाज़ार में/ कपड़ों और मूल्यों का शिकार करनेवाला तो/ वर्तमान विज्ञापनों का अंकों का संसार ही है!” (एक सौंदर्य वेदना-गीत). 

इसी संदर्भ में एक और उदाहरण देखिए – “मानवीय संबंधों को समाप्त करके/ घर की बोली को चबाकर रख देनेवाली/ पराई भाषा/ अमेरिका की मिट्टी के लिए/ भूखी बनी हुई है/ टूटे उजड़े घर.” (छोटा सा दीया). बाज़ार हमें अपनी मिट्टी से संबंध तोड़ने पर मजबूर कर रहा है. दिन-ब-दिन अमानुषता हमारे अंदर घर कर रही है. “भूमि मीद विस्तरिस्तुन्न येडारिला/ प्रति मनस्सुलो अमानवीयता.” (धरती पर फैलते रेगिस्तानों की तरह/ हर एक दिल में अमानुषता.). स्वार्थ ने मानव की कोमल संवेदनाओं को निगल लिया है. इस बात को कवयित्री ने नन्हे मुक्तक के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया है – “ दक्खन नेलकि/ पडमरा गालि/ मध्यतरगतिनि/ मिन्गेसिंदी.” (दक्खन की ज़मीन पर/ पश्चिमी हवा/ मध्यम वर्ग को/ निगल गई). 

यह संवेदनहीनता, संबंधहीनता और अपसंस्कृति सिर्फ शहर तक सीमित नहीं है बल्कि गाँव भी इनकी चपेट में आ गए हैं. आज गाँव के गाँव उजड़ रहे हैं क्योंकि जिन खेतों में अन्न उगाया जाना चाहिए उनमें नोटों की गड्डियाँ उगाने के लोभवश पत्थर की इमारतें खड़ी की जा रही हैं. इस अविवेकपूर्ण तथाकथित विकास का यह प्रभाव है कि-“नोटों की गड्डियाँ फैलती जा रही हैं खेतों में/ कबूतरों को भगानेवाले संगमरमर के पत्थर/ आज गाँव है/ एक उजड़ा मंदिर,” लेकिन कवयित्री यह कहती हैं कि “फिर भी मेरे पैर उसी ओर खींच ले जाते हैं मुझे/ भले ही मंदिर उजड़ गया हो/ वहाँ एक छोटा-सा दीया जलाने की इच्छा है.” (छोटा सा दिया). 

इन तमाम उदाहरणों से स्पष्ट है कि डॉ.भवानीदेवी की कविताओं में विषय वैविध्य है. स्त्री विमर्श, पर्यावरण विमर्श, भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण आदि समकालीन विमर्श इन कविताओं में विद्यमान हैं. अनेक सूक्तियां भी इन कविताओं में निहित हैं. (साम्राज्यवाद जब ढह जाता है/ तो साम्यवाद का स्वागत होता है.). 

स्त्री विमर्श तो इस संकलन की लगभग हर कविता में निहित है. उदाहरण के तौर पर मैं कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगी – ‘नाभिनाल के कटते ही तू पगहे से बंध गई’, ‘मेरे अंदर दबे सिंड्रोमों की वेदना’, ‘पिंजड़े में बंद पंछी की तरह नरक भोगती हूँ!’, ‘रंगीन प्लास्टिक थैले से सर्र करते फिसलकर गिरा था एक काला नाग’, ‘नौकरी, अस्मिता, सब कुछ भूल जा, शौक और दोस्ती को तलाक दे दे!’, ‘मैं आंसुओं से भरी घटा ही बनी रहूंगी, तेरे पैरों तले कबूतरी-सी कुचलती रहूंगी’, ‘पीढ़ियों से सडती आ रही निश्चेतन ‘माम्मीपन’. अभिप्राय यह है किकवयित्री को स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता की चिंता है. प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने इस पुस्तक की भूमिका [जिसका शीर्षक है ‘अ...’] में एकदम सही कहा है कि “मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अस्तित्व की चिंता डॉ.भवानी के रचनाधर्म की पहली चिंता है. भारत की आम स्त्री उनकी कविता में अपनी तमाम पीड़ा और जिजीविषा के साथ उपस्थित है. इस स्त्री को तरह तरह के भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है, फिर भी यह तलवार की धार पर चलती जाती है, मुस्कुराहटों के झड़ने पर भी अक्षर बनकर उठती है और प्रवाह के विपरीत तैरने का जीवट दिखाती है.” इसीलिए कवयित्री बार बार कहती हैं कि ‘अक्षरमे ना अस्तित्वम’ – अक्षर ही मेरा अस्तित्व है. “अब मैं अक्षर बन उठ रही हूँ/ यह प्रवाह मुझे अच्छा नहीं लगता/ इसलिए मैं विपरीत दिशा में तैर रही हूँ.” (अक्षर ही मेरा अस्तित्व है). 

कवयित्री आज की शिक्षा नीति पर भी प्रहार करती हैं. आज कोर्पोरेट कल्चर पनप रहा है. शिक्षा संस्थाएं भी व्यापार के अड्डे बन गई हैं. “इप्पुडु बल्लंटे क्लासुलु कावनि ... कासुलु चेट्टलनि/ पिल्ललंटे पट्टूबड्लनी अनिपिस्तुन्दि” (आज स्कूल का मतलब/ शिक्षा नहीं रुपयों के वृक्ष हैं/ बच्चे पूंजी हैं). कोचिंग सेंटर्स और ट्युटोरियल्स के नाम पर शिक्षा का व्यापार किया जा रहा है. बच्चों का बालपन किताबों के बोझ तले दबता जा रहा है. उनके बस्तों का वजन दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है. बच्चे स्कूल जाने से डरने लगे हैं. वे अक्सर प्रश्न पूछते हैं – “स्कूल में है ही क्या माँ?/ किताबों का गट्ठर.../ जान जाने का डर.. बस!” (स्कूल नहीं जाऊंगा माँ!). 

कुम्भकोणम के स्कूल में अग्निकांड, 25 अगस्त 2007 को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार में आतंकवादी बम विस्फोट, सुनामी का विध्वंस, तस्लीमा नसरीन पर हमला, प्लांट पेटेंट, जीन लाइसेंसिंग, बाज़ार की भ्रष्ट राजनीति, शिक्षा तंत्र द्वारा लूट-खसोट, स्त्री का वस्तूकरण आदि घटनाएं डॉ.भवानीदेवी के संवेदनशील मन को झकझोरती हैं. वे इन परिस्थितियों से जूझने वाले मनुष्य से कहती हैं कि “देश की एकता ही ध्वजस्तंभ बने/ पुरखों की संस्कृति ही मूल बने/ कन्याकुमारी से हिमालय तक एक सूत्र बने/ अनवरत प्रगति चक्र बने/ तन, मन, वचन से/ हर व्यक्ति एक झंडा बन सर उठाए.” (सारे जहां से अच्छा). 

कहना ही चाहिए कि ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ में सम्मिलित कविताओं का हिंदी अनूदित पाठ बहुत ही सहज और सरल है. अनुवादक श्रीमती आर.शांता सुन्दरी ने हिंदी की सहज अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया है जो लक्ष्य भाषा पर उनके मातृभाषावत अधिकार का प्रमाण है. इसके अलावा मूल तेलुगु काव्य में निहित संवेदना जिस प्रकार अनूदित पाठ में भी सुरक्षित है, उससे अनुवादक की काव्य-संवेदना का भी पता चलता है. 

मैं पुनः एक बार डॉ.भवानीदेवी और श्रीमती आर.शांता सुन्दरी को बधाई देती हूँ. 


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प्रेरणा और प्रोत्साहन की प्रतिमूर्ति

षष्ठिपूर्ति वर्ष के अवसर पर 


अगस्त के महीने में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा से एक अध्यापक से लेकर कुलसचिव तक के रूप में जुड़े हिंदी के सुप्रसिद्ध समकालीन भाषावैज्ञानिक प्रो.दिलीप सिंह का जन्मदिन (8 अगस्त) पड़ता है – 2011-2012 उनका षष्ठिपूर्ति वर्ष भी है. इसमें संदेह नहीं कि प्रो.दिलीप सिंह ने हिंदी भाषा और साहित्य के अध्येता, अध्यापक, अनुसंधाता और लेखक के रूप में जो लोकप्रियता अर्जित की हैं वह विरल है. विगत वर्षों में उनकी जो नई पुस्तकें (भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण – 2007; पाठ विश्लेषण – 2007; भाषा का संसार – 2008; हिंदी भाषा चिंतन – 2009; अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ – 2010 और अनुवाद की व्यापक संकल्पना – 2011) आई हैं उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया है कि वे भाषा और भाषाविज्ञान के ऐसे अनन्य साधक हैं जिनके लिए इन विषयों का सामाजिक संदर्भ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. स्मरणीय है कि प्रो.दिलीप सिंह ने अपना कैरियर केंद्रीय हिंदी संस्थान में प्रवक्ता के रूप में आरंभ किया था. इसके अलावा वे अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज से भी संबद्ध रहे. उन्होंने फ्रांस, पेंसिलवानिया और विस्कांसिन (यूएसए) के विश्वविद्यालयों में भी रहकर हिंदी शिक्षण और अनुसंधान के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है; उन्हें एक ऐसे मौलिक हिंदी भाषाचिंतक के रूप में जाना जाता है जिनकी मुख्य चिंता आधुनिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के संदर्भ में अनुप्रयोग की है. अपने लेखन द्वारा उन्होंने आधुनिक भाषाविज्ञान और साहित्य चिंतन के बीच की दूरी को कम करके पाठ विश्लेषण की अपनी मौलिक प्रणाली का सूत्रपात किया है. इस कार्य के लिए उन्हें समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, पाठ विश्लेषण, अनुवाद चिंतन और भाषा शिक्षण के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है. मेरा सौभाग्य है कि मुझे 1999 से एम.ए., एम.फिल. और अनुवाद डिप्लोमा की छात्रा के रूप में उनसे शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर मिला. 

1999 की बात है. मैं चेन्नई अपोलो अस्पताल से माइक्रोबायोलॉजी टेक्नीशियन के पद से त्यागपत्र देकर हैदराबाद वापस गई थी. जीन टेक्नोलॉजी पाठ्यक्रम में प्रवेश मिला था पर मेरी रुचि साहित्य में थी. उसी समय एम.ए. (हिंदी) पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद का विज्ञापन देखा और आवेदन कर दिया. आज भी उस दिन का घटना याद आती है. लिखित परीक्षा के बाद मौखिकी थी. मैं बहुत ही उलझी हुई स्थिति में थी. उत्तर देने में गड़बड़ कर रही थी और सोच रही थी कि मुझे प्रवेश नहीं मिलेगा. परंतु प्रो.दिलीप सिंह ने बड़े ही आत्मीय ढंग से मुझे सहज बनाया और परीक्षक प्रो.भीमसेन निर्मल से कहा – ‘सर, बच्ची परिश्रम करेगी. एडमिशन दिया जा सकता है.’ मैं गद्गद हो गई और सर को नमन करके बाहर आ गई. वह प्रो.दिलीप सिंह और उनके अभिभावक रूप से मेरा पहला साक्षात्कार था. 

दिलीप सिंह सर उस वक्त पीजी विभागाध्यक्ष थे. विभागाध्यक्ष होने के कारण वे प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते थे. उस व्यस्तता के बीच भी वे एम.ए. की कक्षाएँ नियमित रूप से लेते थे. वे हमें सामान्य भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा का प्रकार्यात्मक रूप, हिंदी भाषा का सामाजिक संदर्भ, अन्य भाषा शिक्षण और कार्यालयीन हिंदी पढ़ाते थे. ये सब विषय बहुत ही गंभीर और एकदम नए विषय थे लेकिन प्रो.दिलीप सिंह ने गंभीर से गंभीर विषय को भी हमें बहुत ही सरल और सहज ढंग से पढ़ाया है. वे इस तरह से पढ़ाते थे कि यदि कोई नींद से जगाकर भी प्रश्न पूछ ले तो छात्र उत्तर देने के लिए तैयार रहे! 

प्रो.दिलीप सिंह हम छत्रों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन की प्रतिमूर्ति हैं. वे कई बार क्लास में अचानक परीक्षा रखते थे. उस दिन भी वही हुआ. उन्होंने मसौदा लेखन के बारे में स्पष्ट करते हुए किसी एक पत्र का मसौदा तैयार करने के लिए कहा. मसौदा लेखन के बारे में मैंने जो कुछ समझा था उसे कागज़ पर उतार दिया. मैं जानती थी कि मेरा परफोरमेंस ठीक नहीं था. अगले दिन सर क्लास में आए, सबकी कापियां वापिस कीं. मैं डर रही थी कि सर मुझे सबके सामने डांटेंगे, लेकिन सर ने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि शांत स्वर में कहा – ‘नीरजा जी, (वे कभी भी किसी भी छात्र को ‘जी’ के बिना संबोधित नहीं करते) कम-से-कम आपसे (सर कभी किसी भी विद्यार्थी को तुम/तू नहीं कहते) तो यह उम्मीद नहीं थी.’ मैंने तुरंत सर से माफी माँगी. क्लास के बाद सर के केबिन में पहुँची और उन्हें अपनी दुविधा समझाई. तब दिलीप सिंह सर ने कहा कि “भूल जाइए कि हिंदी आपकी मातृभाषा नहीं है. एम.ए.(हिंदी) में आए हर छात्र की भाषा हिंदी है. हिंदी तो सबकी भाषा है. ज्यादा से ज्यादा वक्त लाइब्रेरी में बिताइए और पढ़िए.” उसके बाद मैंने दिन-रात खूब मेहनत की और एम.ए. में स्वर्ण पदक प्राप्त किया. 

एम.फिल. में दिलीप सिंह सर हमें ‘शोध प्रविधि’ में कुछ अंश पढ़ाते थे, मुख्य रूप से भाषावैज्ञानिक शोध (वैसे तो वे सूत्र रूप में पूरे प्रश्न पत्र की चर्चा करते थे) तथा ‘आलोचना प्रविधि’ में रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि. रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि पढ़ाने से पहले ही दिलीप सिंह सर का ट्रांसफर धारवाड़ हो गया था. आज भी मुझे इस बात का अफ़सोस है कि उनसे रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि को नहीं पढ़ पाई क्योंकि जिस तरह दिलीप सिंह सर समझाते हैं उस तरह कोई नहीं समझा पाएँगे. उन्होंने हमारे अंदर शोध की एक दृष्टि विकसित की. यदि आज मौक़ा मिले तो उनसे रूपवैज्ञानिक आलोचना पढ़ना चाहती हूँ. रिफ्रेशर कोर्स के रूप में ही क्यों न हो. यह हमारे लिए बहुत ही आवाश्यक है. 

प्रो.दिलीप सिंह पढ़ाते समय विषय को बहुत ही सरल और रोचक बना देते हैं. एक दिन भाषाविज्ञान पढ़ाते समय उन्होंने ‘बॉबी’ सिनेमा के गीत ‘अंदर से कोई बाहर न जा सके...’ के माध्यम से क्रिया पदों को समझाया. भाषा के सामाजिक संदर्भ में व्यक्तिबोली, क्षेत्रीय बोली और सामाजिक बोली की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए उदाहरण के तौर पर अपनी अंडमान और निकोबार की यात्रा के बारे में बताया. उन्होंने वहाँ की जनजाति के कुछ चित्र भी दिखाए जो तथाकथित सभ्य समाज से बहुत दूर निवास करती है. सर पढ़ाते समय जहाँ आवश्यक हो वहाँ ब्लैक बोर्ड का प्रयोग अवश्य करते हैं. अक्सर यह कहते हैं कि भाषा शिक्षण विशेष रूप से संस्कृति शिक्षण में जहाँ तक हो सके, चित्रों के माध्यम से या कुछ क्लिपिंग्स के माध्यम से छात्रों को समझाना चाहिए ताकि उनकी मातृभाषा और अन्य भाषा में कोई हिंडरेंस पैदा न हो. 

अनुवाद डिप्लोमा क्लास का अनुभव तो कुछ और ही था. अनुवाद की कक्षाएँ शाम को 6 बजे से 8 बजे तक होती थीं. सप्ताह में पूरे पांच दिन कक्षाएँ होती थीं. उस समय अनुवाद डिप्लोमा में 30 छात्र थे. दिलीप सिंह सर से डर कर सब लोग नियमित रूप से आते थे. कभी कभी क्लास बंक करते थे, पर जिस दिन दिलीप सिंह सर की क्लास होती उस दिन तो जरूर आते थे क्योंकि हमें ऐसा लगता था कि यदि उनकी क्लास मिस हो गई तो हम बहुत कुछ मिस कर देंगे. सर, व्यावहारिक पक्ष पर ज्यादा दृष्टि केंद्रित करते थे. जब सर क्लास पढ़ाते थे तो कभी कभी 9 भी बज जाते थे पर हमें समय का पता नहीं चलता था. 

दिलीप सिंह अक्सर कहते हैं कि भाषा जीवंत होनी चाहिए, स्पष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए, भाषा में बोधगम्यता होनी चाहिए. पढ़ाते समय और कुछ भी समझाते समय वे सरल शब्दों का ही प्रयोग करते हैं. भाषा शिक्षण, अनुवाद विज्ञान, पाठ विश्लेषण आदि से संबंधित किताबों में भी सरल शब्दों का ही प्रयोग करते हैं. वे कभी अपनी विद्वत्ता से आतंकित नहीं करते बल्कि सहज समझ से आश्वस्त करते हैं. 

आज मैं सभा में प्राध्यापक हूँ. छात्र के रूप में मैंने जो कुछ दिलीप सिंह सर से सीखा है उससे ज्यादा आज सीख रही हूँ. उनके नेतृत्व में संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ है. अन्य विश्वविद्यालयों में संगोष्ठियों में शोधपत्र प्रस्तुत करने का अवसर सिर्फ सीनियर लोगों को ही प्राप्त होता है लेकिन दिलीप सिंह सर ने मुझ जैसे को - युवा पीढ़ी को - यह अवसर मुहैया कराया है. प्रो.दिलीप सिंह के सामने संगोष्ठियों में आलेख प्रस्तुत करते समय ही नहीं संयोजन करते समय भी होमवर्क करके जाती हूँ क्योंकि सर बड़े ध्यान से सुनते हैं और अपनी टिप्पणी भी देते हैं. उनकी अध्यक्षता में आलेख प्रस्तुत करना मेरे लिए तो ऐसा ही है जैसे एवरेस्ट पर चढ़ना. यह अवसर भी मुझे प्राप्त हुआ - दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के तत्वावधान में धारवाड़ में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में. विषय था – ‘दूरस्थ शिक्षा की पाठ्यक्रम संबंधी समस्याओं का निराकरण – प्रश्न बैंक के संदर्भ में’. मन ही मन डर रही थी, फिर भी आलेख बिना कोई भूल चूक किए प्रस्तुत कर दिया. अध्यक्षीय टिप्पणी में जब सर ने मेरे आलेख से ही अपनी बात शुरू की तो मुझे बेहद खुशी मिली. इससे बड़ी उपलब्धि मेरे लिए और क्या हो सकता है! सर ने कार्यशालाओं में भी हम नए लोगों को स्टडी मेटीरियल तैयार करने के लिए विषय विशेषज्ञों के रूप में मौक़ा प्रदान किया जो हमारे लिए कल्पनातीत था. 

दो साल पूर्व धारवाड़ की एक कार्यशाला में पांच दिन प्रो.दिलीप सिंह और उनकी पत्नी श्रीमती गीता वर्मा जी के साथ समय बिताने का अवसर प्राप्त हुआ. उस वक्त मैंने उनमें उसी अभिभावक को देखा जिसके दर्शन एम.ए. की प्रवेश परिक्षा के समय किए थे. इस सान्निध्य का यह भी लाभ हुआ कि मैं प्रो.दिलीप सिंह को ठहाका मारते हुए हँसते देख सकी. अन्यथा काम करते समय तो वे एकदम सीरियस रहते हैं. उस वक्त यदि हम लोगों से कोई कोताही/ गलती हो गई तो गुस्से में आ जाते हैं. उस वक्त वे ‘रूद्र’ होते हैं; लेकिन जब सहज होते हैं तो ‘शिव’ बन जाते हैं! 

प्रो.दिलीप सिंह सर मेरे गुरु हैं. अपनी पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ की पांडुलिपि जब डरते डरते उन्हें देखने को दी तो मेरा अनुरोध मानकर उन्होंने उसकी भूमिका भी लिखी. उनका यह आशीर्वाद पाकर मैंने धन्यता का अनुभव किया. वे अपने शिष्यों के प्रति कितने वत्सल हैं इसका प्रमाण यह है कि मेरी उस सामान्य सी पुस्तक का विमोचन कर उन्होंने मेरी भावना का मान रखा. उनसे जो स्नेह और आशीर्वाद मिलता है उसे उनके सभी शिष्य मेरी तरह अपना परम सौभाग्य मानते हैं. 

षष्ठिपूर्ति वर्ष की संपन्नता पर प्रो.दिलीप सिंह को मंगलमय भविष्य हेतु विनम्र शुभकामनाएँ! 

यह आलेख सृजनगाथा पर प्रकाशित है. इसका लिंक नीचे दिया जा रहा है- 

http://srijangatha.com/Aalekh24Aug2012

अतिरिक्त  जानकारी के लिए यहाँ देखें 

सोमवार, 20 अगस्त 2012

सांस्कृतिक पाठ का अनुवाद : शब्द चयन का संदर्भ


अनुवाद कार्य, अनूदित पाठ एवं समतुल्यता के रूप में अनुवाद को समझने के लिए ‘अनुवाद सिद्धांत’ एक महत्वपूर्ण सहायक बिंदु है. इसे `अनुवाद विद्या’, `अनुवाद विज्ञान’ और `अनुवादिकी’ भी कहा जाता है. ‘अनुवाद सिद्धांत’ का उद्भव मूल रूप से अनुप्रयुक्त तुलनात्मक पाठ संकेत विज्ञान से माना जाता है. यहाँ ‘तुलनात्मक’ शब्द से स्पष्ट है कि अनुवाद का संबंध दो भाषाओं से है. दोनों भाषाओं की अपनी अपनी प्रवृत्ति होती है. दोनों की तुलना अर्थ, वाक्य एवं संदर्भ के अनुसार करनी पड़ती है. अतः अर्थ, वाक्य एवं संदर्भ मीमांसा अनुवाद सिद्धांत के प्रासंगिक तत्व हैं. फिर भी इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद की सर्वप्रथम आवश्यकता अर्थ बोध है. अतः अर्थ को खोजना, भाषिक अर्थ तथा भाषा की बाह्य स्थिति अनुवाद सिद्धांत के प्रमुख अंग हैं. 

मूल पाठ अनुवाद कार्य का मेरुदंड है. मूल पाठ की संरचना, प्रारूप, उसका स्वरूप निर्धारण, शब्दार्थ व्यवस्था आदि की सैद्धांतिक चर्चा इसके मुख्य बिंदु हैं. अनुवादक को सामाजिक – सांस्कृतिक पर्यायों का चुनाव, लिप्यंतरण, शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद, आगत शब्दों का अनुवाद, विस्तार, संक्षेप आदि का काम अकेले ही करना पड़ता है. इस काम को सफलतापूर्वक करने के लिए अनुवादक से मुख्य अपेक्षाएँ हैं - भाषा का ज्ञान, विषय का ज्ञान, अभिव्यक्तीकरण का कौशल. 

यह आवश्यक नहीं है कि अनुवादक अनुवाद सिद्धांत की जानकारी प्राप्त करने के बाद ही अनुवाद करे. रुचि से अनुवाद करनेवाले सफल अनुवादक तो कभी कभी अनुवाद सिद्धांत की दृष्टि से उतने सक्षम नहीं होते. कुछ लोग सफल अनुवादक होने के साथ साथ सिद्धांत से भी भली भाँति परिचित होते हैं. बीसवीं शती के पूर्वार्ध में आधुनिक भाषाविज्ञान का विकास हुआ तो भाषाविज्ञान से परिचित अनुवादकों एवं भाषावैज्ञानिकों का ध्यान विशेष रूप से अनुवाद सिद्धांत की ओर आकृष्ट हुआ. 

अनुवाद समीक्षा अनुवाद सिद्धांत का अनुप्रयोगात्मक पक्ष है. मूल पाठ की तुलना में अनूदित पाठ के गुण-दोषों का विवेचन करना ही अनुवाद समीक्षा है. यह समीक्षा अनुवाद सिद्धांत पर ही आधारित होती है. जिस तरह एक साहित्य समीक्षक के लिए सर्जक होना अनिवार्य नहीं है उसी तरह अनुवाद समीक्षक के लिए अनुवादक होना अनिवार्य नहीं है. अतः अनुवादक और अनुवाद समीक्षक अलग अलग व्यक्ति होते हैं. डॉ.सुरेश कुमार की मान्यता है कि “अनुवाद समीक्षा जहाँ एक ओर अनुवाद के कौशल का मूल्यांकन है वहाँ लक्ष्य भाषा के अभिव्यक्ति संसाधनों का भी उस सीमा तक मूल्यांकन है, जिस सीमा तक उनके द्वारा मूलभाषा पाठ के विभिन्न पक्षों की लक्ष्य भाषा में शुद्ध तथा उपयुक्त रीति से आवृत्ति हुई है. इस प्रकार अनुवाद समीक्षा में अनुवाद के व्यक्तिपरक और निर्वैयक्तिक (भाषापरक) पक्षों के बीच संतुलन रहता है.” (डॉ.सुरेश कुमार, अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा, पृ. 124-125). उन्होंने यह भी बताया है कि अनुवाद समीक्षा के कतिपय निर्धारित सोपान हैं जो निम्नलिखित हैं – 

1. “अनुवाद समीक्षा के लिए पाठयुगल - मूल भाषा पाठ तथा उसका अनुवाद - का चयन. 

2. मूल भाषा पाठ का विश्लेषण – मूल अभिप्राय, प्रमुख भाषा प्रकार्य, अर्थ व्यंजना, प्रतिपाद्य, प्रयुक्ति या भाषा शैली (वाक्य रचना और शब्दकोश पर आधारित), साहित्यिक गुण, सांस्कृतिक विशेषताएँ, उद्दिष्ट पाठक वर्ग तथा सामान्य परिवेश. 

3. मूल पाठ तथा अनुवाद की विस्तृत तुलना – असमान बिंदुओं पर विशेष बल देते हुए. 

4. (क) दोनों पाठों के समग्र प्रभावों के बीच अंतर का आकलन, तथा 

    (ख) अनुवादक द्वारा प्रयुक्त अनुवाद प्रणाली का संकेत करते हुए अनुवाद का मूल्यांकन. ‘अंतर का         आकलन’ की प्रक्रिया में ही अनुवाद के दोषों और सीमाओं का भी विवेचन किया जाएगा.” (वही, पृ.126). 

यहाँ यह प्रश्न भी सामायिक है कि आखिर अनुवाद समीक्षा का प्रयोजन क्या है. इस प्रश्न पर प्रो.सुरेश कुमार ने विस्तार से चर्चा की है. उनके अनुसार अनुवाद समीक्षा के अनेक प्रयोजन संभव हैं. यथा - 

1. इससे अनुवाद कार्य के स्तर को ऊँचा उठाने में सहायता मिलती है. अनूदित पाठ के गुण–दोषों के विवेचन से अनुवाद कार्य की त्रुटियों का ज्ञान होता है जिन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जाता है. इसके फलस्वरूप अनुवाद कार्य के स्तर में सुधार होता है. 

2. इससे अनुवादकों के सामने श्रेष्ठ अनुवाद का मानक रूप उपस्थित होता है. गुण-दोष विवेचन के उपरांत सुधारे हुए अनुवाद को अनुवादक अपना आदर्श मानकर अपने कार्य में प्रवृत्त होता है. 

3. अनुवाद समीक्षा से विशिष्ट कालखंड में और विशिष्ट ज्ञान क्षेत्र में अनुवाद संबंधी विचारों पर प्रकाश पड़ता है. शाब्दिक तथा प्रकार्यात्मकता के आधार पर भी समीक्षा के कुछ बिंदु निर्धारित होंगे. 

4. अनुवाद समीक्षा के द्वारा महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं तथा महत्वपूर्ण अनुवादकों के अनुवाद कार्य के विवेचन और मूल्यांकन में सहायता मिलती है. 

5. अनुवाद समीक्षा के द्वारा मूल भाषा और लक्ष्य भाषा के शब्दकोश एवं व्याकरण की तथा भाषा शैली एवं पाठ प्रारूप संबंधी असमानताओं का समीक्षात्मक विवेचन कर सकते हैं. इस प्रकार दोनों भाषाओं के व्यतिरेकी संबंधों के विषय में जानकारी बढ़ा सकते हैं. 

6. अनुवाद समीक्षा का शिक्षणात्मक आयाम भी है. अनुवाद समीक्षा को सिखाकर अनुवादक – शिक्षार्थी की अनुवाद सिद्धांत चेतना को व्यावहारिक स्तर पर पुष्ट करते हैं. (वही, पृ.125-126)

भाषा एक कल्पवृक्ष है जो सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप विकसित है. अतः अनुवाद एक श्रेष्ठ कार्य है चूँकि वह दो सभ्यताओं, संस्कृतियों, कालखंडों, भावों अथवा विचारों के बीच का सेतु है. अनुवाद का स्वरूप पुनःसृजन जैसा होने के कारण मौलिक कृति और अनूदित कृति में अंतर अवश्य रहेगा. प्रो.दिलीप सिंह इस बात पर बल देते हैं कि “अनुवाद की दृष्टि से भाषा की अर्थगत संरचना को समझने के पहले यह निर्धारित करना भी अनुवादक के लिए आवश्यक होता है कि रूपात्मक संरचना (formal structure) और अर्थगत संरचना (semantic structure) एक दूसरे से भिन्न होते हैं.” (प्रो.दिलीप सिंह, अनुवाद की व्यापक संकल्पना, पृ.46). उनकी मान्यता है कि “अर्थगत संरचना के विश्लेषण के समय प्रतीक के सामाजिक–सांस्कृतिक संदर्भों का विश्लेषण अनिवार्य है. अर्थात इकाई के समाज स्वीकृत एवं समाज प्रयुक्त अर्थ प्रतीक से संबद्ध होने की संभावना बराबर रहती है. अतः अनुवाद में इकाई की बहुव्याप्ति और चयनगतता (substitutability) पर भी अपनी दृष्टि रखनी पड़ती है.” (वही). 

अभिप्राय यह है कि अनुवाद करते समय अनुवादक के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएँ उपस्थित होती हैं, यथा - भाषावैज्ञानिक समस्याएँ, संरचना के अर्थ पक्ष की समस्याएँ, भाषेतर संदर्भ की समस्याएँ, विशिष्ट प्रयोग क्षेत्र की समस्याएँ, अनुवाद के आधार क्षेत्र की समस्याएँ, क्षेत्र रूपांतरण की समस्याएँ और समाज-सांस्कृतिक समस्याएँ. यहाँ हम इनमें से समाज-सांस्कृतिक समस्याओं पर कुछ विचार करेंगे. 

किसी साहित्यिक कृति का अनुवाद करना अनुवादक के लिए साहित्येतर पाठ की अपेक्षा अधिक चुनौतीपूर्ण है. कठिनाई तब और बढ़ जाती है जब पाठ में भिन्न समाजिक और सांस्कृतिक पक्ष हों. मूलतः भारतीय संस्कृति सामासिक संस्कृति है अतः किसी भी भारतीय भाषा से हिंदी में या हिंदी से अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करते समय अनुवादक के लिए समस्याएँ उतनी नहीं होतीं जितनी अंग्रेजी में या अंग्रेजी से अनुवाद करते समय होती हैं. अनुवाद में प्रमुख रूप से तीन प्रकार की सामाजिक–सांस्कृतिक समस्याएँ आती हैं – 

1. “ऐसी सामाजिक–सांस्कृतिक शब्दावली के पर्याय खोजने की समस्या जिसके लिए लक्ष्य भाषा में समान शब्द उपलब्ध न हों. 

2. मुहावरों और लोकोक्तियों के अनुवाद की समस्याएँ. 

3. लोक जीवन से लिए गए बिंबों, अलंकारों और मिथकों के अनुवाद की समस्याएँ. 

इन समस्याओं से अनुवादक के टकराव को समझने के लिए यहाँ हम राष्ट्रकवि डॉ.रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के प्रसिद्ध खंडकाव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को सामाजिक-सांस्कृतिक पाठ के रूप में ग्रहण करके उसके अंग्रेजी अनुवाद (अनुवादक : डॉ.पी.आदेश्वर राव) का पाठाधारित और भाषिक विश्लेषण शब्द चयन के स्तर पर कर सकते हैं. कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं - 

मूल : सिंधु (पृ.8) 
अंग्रेजी अनुवाद : The Ocean (पृ. 4) 

समीक्षा : मूल में `सिंधु’ भवसागर के अर्थ में प्रयुक्त है. भारतीय दर्शन के अनुसार जीवात्मा मृत्यु के पश्चात इस संसार रूपी भवसागर को पार कर जाती है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘The Ocean’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो `सिंधु’ का शाब्दिक अर्थ है. इससे भारतीय दर्शन की संकल्पना स्पष्ट नहीं होती. 


मूल : घृत (पृ.11) 
अंग्रेजी अनुवाद : oil (पृ.8) 

समीक्षा : संस्कृत में `घृत’ का अर्थ है `घी’. मूल में इस शब्द का प्रयोग ‘जलती आग में घी डालना’ अर्थात गुस्से को और भड़काने के अर्थ में हुआ है. अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त ‘oil’ शब्द से ‘तेल’ का आभास होता है. अंग्रेजी अनुवाद में मूल से भिन्न अर्थ द्योतित हो रहा है. 


मूल : महासंगर (पृ.37) 
अंग्रेजी अनुवाद : a deadly large scale of war (पृ.34) 

समीक्षा : पांडवों और कौरवों के बीच उत्पन्न कलह कुरुक्षेत्र में परिणत हुआ. मूल में इसी भीषण युद्ध की ओर संकेत करते हुए `महासंगर’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘a deadly large scale of war’ का प्रयोग हुआ है जो वस्तुतः भावानुवाद है. इससे मूल में निहित समाज–सांस्कृतिक पक्ष स्पष्ट नहीं हो रहा है. 


मूल : कर-कंकण (पृ. 60) 
अंग्रेजी अनुवाद : Bangles (पृ. 58) 

समीक्षा : कर-कंकण भारतीय संस्कृति में सौभाग्य का प्रतीक है. जब कोई स्त्री विधवा हो जाती है तब उसके हाथों के कंगन को तोड़ दिया जाता है. मूल में इसी की ओर संकेत किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त 'bangle' शब्द से मूल में निहित प्रतीकार्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है. 


मूल : यजन (पृ.71) 
अंग्रेजी अनुवाद : The burning fire of penance (पृ.70) 

समीक्षा : `यजन’ का अर्थ है यज्ञ करना. किसी प्रकार की कार्य सिद्धि के लिए यज्ञ किया जाता है. भारतीय संस्कृति में यही माना जाता है कि मनुष्यों की महत्ता प्रबल साधना में ही निहित है. इसी तथ्य को उजागर करने के लिए मूल में `यजन’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में भावानुवाद का सहारा लेते हुए ‘the burning fire of penance’ का चयन किया गया है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति में इस तरह की (यज्ञ की) संकल्पना नहीं है. 

मूल : कर्म (पृ.16) 
अंग्रेजी अनुवाद : act (पृ.13) 

समीक्षा : मानव जीवन एक कर्मक्षेत्र है. अर्थात यहाँ कर्म ही प्रधान है. गीता में श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म की प्रेरणा दी है – ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः’ (2-52). मूल में गीता के इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग दार्शनिक संदर्भ में किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘act’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिससे मूल से भिन्न अर्थ द्योतित होता है. 


मूल : पंचाग्नि (पृ.73) 
अंग्रेजी अनुवाद : five fold fires (पृ.73) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार पंचाग्नि अर्थात पाँच अग्नियाँ, जिनके मध्य में योगी कठिन तपस्या करते हैं, पंचेंद्रियों से प्राप्त पाँच प्रकार की विषय वासनाओं (शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श) का प्रतीक है. अंग्रजी अनुवाद में ‘five fold fires’ का प्रयोग किया गया है जिससे मूल में निहित दार्शनिक अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है. अनुवादक ने व्याख्या का सहारा लेते हुए मूल में निहित भाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया है. 

मूल : त्रिविध ताप (पृ.90) 
अंग्रेजी अनुवाद : triple heat (पृ.90) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार ‘त्रिविध ताप’ से आशय है – आधि दैहिक, आधि दैविक और आधि भौतिक ताप. इसी संकल्पना की ओर संकेत करते हुए मूल में ‘त्रिविध ताप’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अनुवाद में प्रयुक्त शब्द ‘triple heat’ से मूल से भिन्न अर्थ ध्वनित होता है. अनुवादक मूल की संकल्पना को स्पष्ट करने में इस लिए असफल है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति में इस तरह की संकल्पना नहीं है. 


मूल : मंदराचल (पृ. 91) 
अंग्रेजी अनुवाद : Mandar Mountain (पृ. 91) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार मंदराचल वह पर्वत है जिसे देवताओं और राक्षसों ने समुद्र मंथन करते समय मथनी बनाया था. अंग्रेजी अनुवाद में लिप्यंतरण का प्रयोग किया गया है. परंतु पाद टिप्पणी के अभाव में वह अपर्याप्त प्रतीत होता है. 

मूल : हठयोगी (पृ. 102) 
अंग्रेजी अनुवाद : The Saint (पृ. 101) 

समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार भगवान को पाना योग है. हठयोग अर्थात वह योग जिसमें शरीर को साधने के लिए बड़ी कठिन मुद्राओं और आसनों आदि का विधान है. हठयोग का प्रयोजन विविध आसनों द्वारा उन पाँच प्रकार के प्राणों (प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान) को नियंत्रित करना है जो आत्मा को घेरे हुए हैं. यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं अपितु भौतिक बंधन से आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है. हठयोग वस्तुतः चित्तवृत्तियों के प्रवाह को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है जिसमें प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है. इस योग का आचरण करने वाला हठयोगी कहलाता है. अनुवाद में ‘The Saint’ का सामान्य प्रयोग किया गया है जिससे मूल में निहित आधात्मिक और सांस्कृतिक भाव स्पष्ट नहीं हो सका है. इससे अच्छा यह होता कि लिप्यंतरण का सहारा लेकर पाद टिप्पणी में इसकी व्याख्या कर दी जाती. 


मूल : मोक्ष मंत्र ( पृ. 103) 
अंग्रेजी अनुवाद : the magical hymns (पृ. 102) 

समीक्षा : शास्त्रों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना ही मोक्ष है. उसके लिए जिन मंत्रों का उच्चारण किया जाता है उन्हें मोक्ष मंत्र कहते हैं. इसी अर्थ की ओर संकेत करते हुए मूल में इस पद का प्रयोग किया गया है. अनुवाद में ‘magical hymns’ का प्रयोग किया गया है. ‘Magical’ शब्द से ‘जादूई’ का अर्थ प्रतीत होता है. वस्तुतः मोक्ष का अर्थ है Salvation. अतः मोक्ष मंत्र के लिए यदि ‘Hymns of Salvation’ का प्रयोग किया होता तो बेहतर होता. 

इस प्रकार `कुरुक्षेत्र’ में प्राप्त कतिपय सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों और उनके अंग्रेजी अनुवाद के तुलनात्मक अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि इस काव्य का मूल पाठ सांस्कृतिक होने के कारण इसका अनुवाद करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा. अंग्रेजी अनुवाद में शब्दानुवाद, शाब्दिक अनुवाद, भावानुवाद, लिप्यंतरण और ग्रहण की नीति को अपनाया गया है. दिनकर वस्तुतः सांस्कृतिक चेतना से ओतप्रोत रचनाकार है जिनके काव्य का विजातीय भाषा में अनुवाद करना कठिन होते हुए भी लक्ष्य भाषा पाठ में समतुल्य अभिव्यक्तियों, व्याख्यात्मक अनुवाद तथा पाद टिप्पणी की तकनीक द्वारा मूल संदेश के अधिकतम संप्रेषण को सार्थक बनाया गया है. 
  • 'भाषा, संस्कृति और लोक' : भाषाविज्ञान की व्यावहारिक पीठिका (विद्यानिवास मिश्र स्मृति ग्रंथमाला), प्रधान संपादक - डॉ. दयानिधि मिश्र, संपादक - प्रो. दिलीप सिंह, 2012, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली में प्रकाशित आलेख 

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

प्रेमचंद जयन्ती पर 'दूध का दाम' पर परिचर्चा संपन्न

हैदराबाद 




यहाँ खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग में 31 जुलाई 2012 को प्रेमचन्द जयन्ती के अवसर पर अमर कथाकार प्रेमचंद की कहानी 'दूध का दाम' पर परिचर्चा आयोजित की गई. आरम्भ में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अध्यक्ष प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने प्रेमचंद की बहुमुखी प्रतिभा, व्यापक विश्व दृष्टि और कालजयी लोकप्रियता की चर्चा की. प्राध्यापक डॉ.मृत्युंजय सिंह ने प्रेमचंद का परिचय देते हुए उनकी कहानी 'दूध का दाम' का वाचन किया. अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी में उन्होंने कहा कि यह कहानी पाठक को भद्र समाज के दोगले आचरण के बारे में सोचने के लिए विवश करता है और सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा देता है. परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्राध्यापिका डॉ. जी.नीरजा ने प्रेमचंद की कथा भाषा के सामाजिक पहलू की ओर ध्यान दिलाया और कहा कि इस कहानी में साफ़ साफ़ दो भाषा रूप देखे जा सकते हैं - संपन्न वर्ग की भाषा और विपन्न वर्ग की भाषा. इसी क्रम में टी.उमा दुर्गा देवी, के.अनुराधा, बिमलेश कुमार सिंह, प्रतिभा मिश्रा, नम्रता भारत, के.अमृता और टी.परवीन सुलताना ने 'दूध का दाम' में निहित स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और सामाजिक यथार्थ पर अपने विचार प्रकट किए. प्रायः सभी वक्ताओं ने जाति प्रथा और वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में भारतीय समाज में व्याप्त दोगले आचरण के प्रभावी चित्रण की दृष्टि से 'दूध का दाम' को उच्च कोटी की कहानी बताया.

बाएं से - प्रतिभा मिश्रा, नम्रता भारत, बिमलेश कुमार सिंह,
मृत्युंजय सिंह, ऋषभ देव शर्मा, जी.नीरजा, टी.उमा दुर्गा देवी,
के.अनुराधा, के.अमृता, टी.परवीन सुलताना 

तुलसी भवन में प्रेमचंद जयंती : प्रेमचंद की भाषा-चेतना



उस्मानिया विश्वविद्यालय, थियेटर ऑफ आर्ट्स के अध्यक्ष प्रो.प्रदीप कुमार के संयोजन में 31/7/2012 को उस्मानिया विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस के सेमिनार हाल में तुलसी भवन के तत्वावधान में प्रेमचंद जयंती के अवसर पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई. उद्घाटन और प्रथम सत्र में तो मैं उपस्थित नहीं हो पाई थी क्योंकि हमारे संस्थान में भी 'प्रेमचंद जयंती' पर परिचर्चा थी जिसमें रहना मेरा नैतिक कर्तव्य था. दूसरे सत्र में मुझे आलेख प्रस्तुत करना था इसलिए मैं उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में प्रेमचंद जयंती मनाने के बाद 12.30 बजे तक सेमिनार हाल पहुँची. तब प्रथम सत्र के अध्यक्ष उस्मानिया विश्वविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.टी.मोहन सिंह अपना अध्यक्षीय वक्तव्य दे रहे थे. 

जैसे ही प्रथम सत्र समाप्त हुआ तुरंत दूसरा सत्र आरंभ कर दिया गया. इस सत्र के अध्यक्ष थे केंद्रीय हिंदी संस्थान, हैदराबाद के आचार्य प्रो.हेमराज मीणा. इस सत्र में डॉ.शीला मिश्र, डॉ.वंदना प्रदीप कुमार और डॉ.रेखा रानी के साथ मैं भी मंच पर उपस्थित थी. प्रथम वक्ता के रूप में अध्यक्ष जी ने डॉ.शीला मिश्र को बुलाया. उनका विषय था 'निर्मला में नारी चेतना'. विषय बढ़िया था जिस पर पूरे 30 मिनट के वक्तव्य में राजेन्द्र यादव और 'हंस', मैत्रेयी पुष्पा आदि की नारी विषयक मान्यताओं पर चर्चा करते हुए उन्होंने प्रसंगात प्रेमचंद और उनके उपन्यास 'निर्मला' का भी उल्लेख किया.

डॉ.शीला मिश्र के बाद यों तो डॉ.वंदना प्रदीप कुमार को बोलना था और लिस्ट के अनुसार मेरा नाम सबसे अंत में था. पर संयोजकों के इशारों के आधार पर अध्यक्ष जी ने दूसरे वक्ता के रूप में मुझे बुलाया और कहा कि मैं अपने वक्तव्य को सीमित रखूँ. मैंने संगोष्ठी के लिए 'प्रेमचंद की भाषा-चेतना' को चुना था, परंतु जैसा आम तौर पर हुआ करता है, लंच के लिए परचे को काटना पड़ा. बस कुछ मूल बिंदुओं को सूत्र रूप में प्रस्तुत कर संतोष किया..

संगोष्ठी में पूरा आलेख प्रस्तुत नहीं किया जा सका अतः यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ.

प्रेमचंद की भाषा-चेतना

आज प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) की 132 वीं जयंती है. प्रेमचंद अपने समय के लिए जितने प्रासंगिक थे आज भी वे उतने ही प्रासंगिक हैं. अगर प्रो.दिलीप सिंह के शब्दों में कहें तो "यह तथ्य इस बात से ही प्रमाणित हो जाता है कि आज दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, बाजारीकरण, भ्रष्ट व्यवस्था, संवेदनात्मक छीजन आदि पर जब भी कहीं चर्चा होती है तो वह अंततः प्रेमचंद के ही इर्द-गिर्द आकार अपनी सार्थकता पाती है. प्रेमचंद की भाषा भी आज तक नए गद्यकारों का आदर्श बनी हुई है. यह अलग बात है कि प्रेमचंद के निकट कोई नहीं पहुँच सका." (प्रो.दिलीप सिंह, संपादकीय, प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 5).

मानव जीवन में भाषा की भूमिका निर्विवाद है चूंकि भाषा के अभाव में मनुष्य केवल जैविक जंतु है. भाषा ही वह चीज है जो उसे समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है. शायद इसीलिए प्रेमचंद ने अपने एक व्याख्यान में कहा था, "जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बनती है. भाषा सुंदरी को कोठरी में बंद करके आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं, लेकिन उसके स्वास्थ्य का मूल्य देकर. उसकी आत्मा इतनी बलवान बनाइए कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ्य दोनों की ही रक्षा कर सके. .... हमारा आदर्श तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें." (नमिता सिंह, 'प्रेमचंदोत्तर कथा साहित्य और भाषा के मंतव्य'; साहित्य और संवेदना, (सं) पी.वी.विजयन, पृ. 268 से उद्धृत). भाषा एक तरफ व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करती है तो दूसरी तरफ वह सामाजिक संबंधों को व्यक्त करती है. प्रेमचंद की भाषा इन दोनों कर्तव्यों को बखूबी निभाना जानती है, इसीलिए वह आज भी सर्वाधिक अनुकरणीय और प्रासंगिक कथाभाषा के रूप में स्वीकृत है.

समाज में हिंदी की तीन शैलियाँ प्रचलित हैं – उच्च हिंदी, उच्च उर्दू और हिंदुस्तानी. प्रेमचंद पहले तो उर्दू में लिखते थे, लेकिन बाद वे हिंदी – बोलचाल की हिंदुस्तानी में लिखने लगे. वे हिंदुस्तानी के प्रबल पक्षधर बने. उन्होंने यह महसूस किया था कि हिंदी का यह शैलीभेद प्रायः राजनीतिक था. उनकी भाषा-चेतना बहुत गहरी थी. इसलिए उन्होंने बार बार यह लिखा कि "बंगाल का मुसलमान बंगला बोलता है और लिखता है, गुजरात का गुजराती, मैसूर का कन्नड़ी, मद्रास का तमिल और पंजाब का पंजाबी आदि. यहाँ तक कि उसने अपने अपने सूबे की लिपि भी ग्रहण कर ली है. उर्दू लिपि और भाषा से यद्यपि उसका धार्मिक-सांस्कृतिक अनुराग हो सकता है, लेकिन नित्य प्रति के जीवन में उसे उर्दू की बिलकुल आवश्यकता नहीं पड़ती." (प्रो.दिलीप सिंह, 'प्रेमचंद की भाषाई चेतना', प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 23 से उद्धृत). इतना ही नहीं उनके मतानुसार हिंदुओं और मुसलमानों की भाषा में कोई अंतर नहीं है तथा हिंदुस्तानी बोलचाल की हिंदी का सहज और सरल रूप है. ध्यान से देखा जाए तो प्रेमचंद के लिए हिंदुस्तानी केवल एक भाषा-शैली ही नहीं थी, बल्कि उनके लिए तो वह जातीय अस्मिता का एक प्रतीक थी. इसलिए उन्होंने कहा था कि "बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्रायः एक-सी हैं. उर्दू-हिंदी के सर्वनाम एक हैं – वह, तुम, मैं, हम इत्यादि. हिंदी-उर्दू की क्रियाएँ एक ही हैं – जाना, सोना, खाना, पीना, करना, मरना, जीना, लिखना, पढ़ना इत्यादि. उर्दू के संबंधवाचक शब्द – पर, का, में, से आदि वही हैं जो हिंदी के. दोनों का मूल शब्दभंडार भी एक है, लेकिन यहाँ बहुत दिनों तक फारसी के राजभाषा रहने से हिंदी शब्दों के फारसी या अरबी पर्यायवाची शब्द भी प्रचलित हो गए हैं. जैसे : देश – मुल्क, आकाश – आसमान, नदी – दरिया, रोगी – बीमार आदि. इन शब्दों का व्यवहार बोलचाल की हिंदी-उर्दू में बिना किसी भेदभाव के होता है." (वही, पृ. 25 से उद्धृत). उनकी मान्यता थी कि "बोलचाल की हिंदी समझने में न तो साधारण मुसलमानों को कोई कठिनाई होती है और न बोलचाल की उर्दू समझने में हिंदुओं को ही." (वही, पृ. 24 से उद्धृत). अभिप्राय यह कि इस दुष्प्रचार के खंडन का प्रेमचंद ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया कि हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएँ हैं तथा इनका किसी धर्म-मजहब से कुछ लेना देना है.

प्रेमचंद ने अपनी बातों को सिर्फ सैद्धांतिक स्तर तक सीमित नहीं रखा बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी उन्हें लागू किया. उनकी रचनाओं में घटना और अनुभव की बहुलता है. वे अपनी रचनाप्रक्रिया में भाषा का संपूर्णतः दोहन कर लेते हैं. (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास). इसीलिए वे कहा करते थे कि "साधारण वकीलों की तरह साहित्यकार अपने मुवक्किल की ओर से उचित-अनुचित सब तरह के दावे नहीं पेश करता, अतिरंजना से काम नहीं लेता, अपनी ओर से बातें गढ़ता नहीं. वह जानता है कि इन युक्तियों से वह समाज की अदालत पर असर नहीं डाल सकता. उस अदालत का हृदय परिवर्तन तभी संभव है, जब आप सत्य से तनिक भी विमुख न हों, नहीं तो अदालत की धारणा आपकी ओर से खराब हो जाएगी और वह आपके खिलाफ फैसला सुना देगी." (नंदकिशोर नवल, 'प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र', प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 13)

विद्वानों ने यह लक्षित किया है कि मृदु और ललित शब्दयोजना, गूढ़शब्दार्थहीनता और जनपद सुखबोध्यता वास्तव में काव्यभाषा के लक्षण हैं लेकिन प्रेमचंद ने अपने साहित्य को व्यापक जनता से जोड़ने के लिए जनपद की भाषा को अपनाया. जब वे यह कहते हैं कि "साहित्य न चित्रण का नाम है, न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का" तो वे निस्संदेह बोलचाल की हिंदुस्तानी – देशजता की बात कर रहे होते हैं. प्रेमचंद अपनी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं. इसलिए उनकी रचनाओं में ठेठ देहाती शब्द पाए जाते हैं. उन्होंने "ग्रामीण जन की बोली-बानी में निहित ऊर्जा का दोहन करके ही अपनी कथाभाषा का गठन किया है."(प्रो.ऋषभ देव शर्मा, 'प्रेमचंद दे देसिल बयाना : संदर्भ 'गुल्ली डंडा' का", प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ.36). 

प्रेमचंद की भाषा - विशेष रूप से ग्रामीण पात्रों की भाषा - को देखने से यह स्पष्ट होता है कि "देहाती बोली और हिंदी के एकीकरण में उन्हें इतनी सफलता मिली है कि गाँव का रहने वाला पाठक भी प्रेमचंद के किसानों की बात सुनकर उसे अस्वाभाविक नहीं कह सकता. *** परंतु प्रेमचंद किसानों की बातचीत के लिए ही देहात से शब्द नहीं लेते; उनकी भाषा का गठन ही उस देहाती बोली की भूमि पर हुआ है। जो सुन्दर मुहावरे, कहावतें, उपमाएं और हास्य के पुट उनके गद्य में हमें मिलते हैं उन्हें प्रेमचंद ने अपने गाँव की बोली से सीखा था। अपनी उपमाएँ उन्होंने बहुधा ग्रामीण जीवन से ली हैं. *** प्रेमचंद की भाषा के अलंकार उसके प्रवाह में सहज ही सज जाते हैं. सारी बात अनुभव और सचाई की है. प्रेमचंद जनता को जानते थे, उसकी भाषा को जानते थे; वहीं से उन्हें शक्ति मिली है।" (डॉ.रामविलास शर्मा, प्रेमचंद, पृ.138).

'गोदान' का ही एक उदाहरण देखें – प्रेमचंद का होरी अपने विद्रोही पुत्र गोबर को समझाता है–

· "फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है. मजूरी मजूरी है, किसानी किसानी है। मजूर लाख हो, तो मजूर ही कहलाएगा। सर पर घास रखे जा रहे हो, कोई इधर से पुकारता है, ओ घासवाले, कोई उधर से। किसी की मेड पर घास धर लो तो गालियाँ मिलें. किसानी में मरजाद है।" 

होरी 'मरजाद' अर्थात मर्यादा के लिए अपने आपको समर्पित/ होम कर देता है।

'कर्मभूमि' का अमरकांत कहता है –

· काम की कौन कमी है घास भी काट लो, तो एक रुपए रोज की मजूरी हो जाए। नहीं जूते का काम है. बल्लियाँ बनाओ, चरसे बनाओ. मेहनत करने वाला आदमी भूखों नहीं मरता. धेली की मजूरी कहीं नहीं गई।"

ऐसे कथन स्वतः सिद्ध करते हैं कि प्रेमचंद की भाषा में देसी मुहावरे सहज रूप से उभरते हैं जो उसे जनभाषा बनाते हैं.

'गुल्ली-डंडा' कहानी बहुत ही छोटी है पर प्रेमचंद की भाषा के इस देशज पक्ष को उजागर करने में सक्षम है. इस कहानी में देशजता के साथ आभिजात्यता भी निहित है। इस कहानी में पग पग पर प्रेमचंद का ठेठ देसीपन झलकता है. यहाँ प्रेमचंद भारतीय खेल गुल्ली-डंडा के हवाले से यह कहते हैं – "हमारे अँग्रेजीदां दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। ..... न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहाँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाएँ, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो?" खेल से लेकर शिक्षा तक का जो महंगा अंग्रेजीपन आज भी हम अपने सिर पर ढो रहे हैं प्रेमचंद ने उसके खतरे को अपने समय में भली प्रकार भांप लिया था. यदि गुल्ली-डंडा को प्रतीक मान लें तो कहना होगा कि उन्होंने इस महंगे अंग्रेजीपन का विकल्प भी यहाँ सुझाया है – गुल्ली-डंडा अर्थात देहातीपन या देसीपन के वरण के रूप में.

अंततः डॉ.रामविलास शर्मा के शब्दों में कहे तो "प्रेमचंद की कला का रहस्य एक शब्द में उनका देहातीपन ही है; ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृदय में पैठकर उसके सभी तारों से संबंध स्थापित कर सके हैं." (प्रो.ऋषभ देव शर्मा, 'प्रेमचंद के देसिल बयना : सन्दर्भ 'गुल्ली डंडा' का'; प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ.40 से उद्धृत).

बुधवार, 1 अगस्त 2012

विश्व चेतस हिंदी


हैदराबाद.

आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी की इस महीने की व्याख्यानमाला 30 जुलाई 2012 को संपन्न हुई. 'विश्व चेतस हिंदी' पर केंद्रित इस व्याख्यानमाला के  मुख्य वक्ता थे प्रो.रमेशचंद्र शाह. अध्यक्ष थे हैदराबाद विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.रवि रंजन. आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी, हैदराबाद के निदेशक श्री सी.एस.एन.शर्मा भी मंच पर उपस्थित थे. इस व्याख्यानमाला के  संयोजक थे प्रो.एम.वेंकटेश्वर. कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही पूरा हॉल भरा हुआ था. हैदराबाद शहर के जाने माने विद्वान, साहित्यकार, कवि, हास्य-व्यंग्य लेखक, अध्यापक, शोधार्थी आदि उपस्थित थे.  हॉल  को भरा हुआ देखकर मन प्रफुल्लित हुआ.

प्रो.रमेशचंद्र शाह ने अपने व्याख्यान में कहा कि 'हिंदी भारत के हृदय की कुंजी है. हिंदी सदा से आधुनिक रही है. वह सदा ही आगे देखने वाली भाषा है. युग की आवश्यकता की पुकार है. भाव बोध अग्रगामिता का संस्कार सदा ही हिंदी के साथ रहा है. समग्र आंचलिक बोलियां हिंदी के पास हैं. हिंदी में सेंट्रीफ्यूगल टेंडेंसी – केन्द्रापसारी प्रवृत्ति निहित है. हिंदी कभी किसी के संरक्षण की मोहताज नहीं रही. वह तो स्वतः ही आगे बढ़ती रही और आज भी बढ़ रही है. मध्य युग की 'भाखा' ने समस्त सांस्कृतिक तत्वों को एकजुट किया था. आज आधुनिक भाषा के सामने सांप्रदायिक ताकतों की चुनौती उपस्थित है जो भयंकर है. इस आतंक ने हमारे इन्फ्रास्ट्रक्चर को, शिक्षा व्यवस्था को तोड़ने का प्रयत्न किया है.

रमेशचंद्र शाह 
आज के परिप्रेक्ष्य में हिंदी ने सपाट भाषा के पक्ष में अपने आपको सरंडर किया है. हिंदी का हाजमा बहुत अच्छा है. देश की संजीवनी को इक्कट्ठा करने का काम हिंदी से ही संभव होगा. हिंदी का इतिहास खड़ीबोली हिंदी का नहीं है. यदि हिंदी के कवियों को हिंदी के मर्मस्थल तक पहुंचना है तो उन्हें पहले उसकी कालगति और स्वधर्म को पहचानना होगा. भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग हिंदी और अंग्रेज़ी मिश्रित भाषा का प्रयोग कर रहा है. भारतीय बुद्धीजीवी शैडो माइंडेड है. आज इनके अस्पष्ट और भ्रामक विचारों के कारण हमारी व्यवस्था दलदल में फंसी हुई है. हम अपने ही नेटिव माइंड – देसी मन को पाताल में धकेल रहे हैं.'

प्रो.रवि रंजन ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि 'हैदराबाद की अपनी एक निजी संस्कृति है – सर्वसमावेशी संस्कृति. मिली-जुली संस्कृति. हैदराबाद में हिन्दुस्तानी कल्चर को देखा जा सकता है.' उन्होंने यह चिंता जाहिर की हम लोग ही अपने देसीपन को छोड़कर विदेसीपन के पीछे भाग रहें हैं. फैशन के नाम पर हिंदी में इतने सारे अंग्रेज़ी शब्दों को घुसेड़ रहें है कि एक अजीब भाषा उससे पैदा हो रही है. हिंदी का पाठक वर्ग – शिक्षित मध्यवर्ग जैसे ही शिक्षित होता है वह अंग्रेजीदां बन जाता है. संस्कृति के क्षेत्र में नकलीपन मेटाबोलिज्म को खराब कर देगा. इसलिए स्वाभाविक हिंदी बोलना, पढ़ना और लिखना चाहिए.'