मंगलवार, 28 अगस्त 2012

प्रेरणा और प्रोत्साहन की प्रतिमूर्ति

षष्ठिपूर्ति वर्ष के अवसर पर 


अगस्त के महीने में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा से एक अध्यापक से लेकर कुलसचिव तक के रूप में जुड़े हिंदी के सुप्रसिद्ध समकालीन भाषावैज्ञानिक प्रो.दिलीप सिंह का जन्मदिन (8 अगस्त) पड़ता है – 2011-2012 उनका षष्ठिपूर्ति वर्ष भी है. इसमें संदेह नहीं कि प्रो.दिलीप सिंह ने हिंदी भाषा और साहित्य के अध्येता, अध्यापक, अनुसंधाता और लेखक के रूप में जो लोकप्रियता अर्जित की हैं वह विरल है. विगत वर्षों में उनकी जो नई पुस्तकें (भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण – 2007; पाठ विश्लेषण – 2007; भाषा का संसार – 2008; हिंदी भाषा चिंतन – 2009; अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ – 2010 और अनुवाद की व्यापक संकल्पना – 2011) आई हैं उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया है कि वे भाषा और भाषाविज्ञान के ऐसे अनन्य साधक हैं जिनके लिए इन विषयों का सामाजिक संदर्भ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. स्मरणीय है कि प्रो.दिलीप सिंह ने अपना कैरियर केंद्रीय हिंदी संस्थान में प्रवक्ता के रूप में आरंभ किया था. इसके अलावा वे अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज से भी संबद्ध रहे. उन्होंने फ्रांस, पेंसिलवानिया और विस्कांसिन (यूएसए) के विश्वविद्यालयों में भी रहकर हिंदी शिक्षण और अनुसंधान के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है; उन्हें एक ऐसे मौलिक हिंदी भाषाचिंतक के रूप में जाना जाता है जिनकी मुख्य चिंता आधुनिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के संदर्भ में अनुप्रयोग की है. अपने लेखन द्वारा उन्होंने आधुनिक भाषाविज्ञान और साहित्य चिंतन के बीच की दूरी को कम करके पाठ विश्लेषण की अपनी मौलिक प्रणाली का सूत्रपात किया है. इस कार्य के लिए उन्हें समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, पाठ विश्लेषण, अनुवाद चिंतन और भाषा शिक्षण के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है. मेरा सौभाग्य है कि मुझे 1999 से एम.ए., एम.फिल. और अनुवाद डिप्लोमा की छात्रा के रूप में उनसे शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर मिला. 

1999 की बात है. मैं चेन्नई अपोलो अस्पताल से माइक्रोबायोलॉजी टेक्नीशियन के पद से त्यागपत्र देकर हैदराबाद वापस गई थी. जीन टेक्नोलॉजी पाठ्यक्रम में प्रवेश मिला था पर मेरी रुचि साहित्य में थी. उसी समय एम.ए. (हिंदी) पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद का विज्ञापन देखा और आवेदन कर दिया. आज भी उस दिन का घटना याद आती है. लिखित परीक्षा के बाद मौखिकी थी. मैं बहुत ही उलझी हुई स्थिति में थी. उत्तर देने में गड़बड़ कर रही थी और सोच रही थी कि मुझे प्रवेश नहीं मिलेगा. परंतु प्रो.दिलीप सिंह ने बड़े ही आत्मीय ढंग से मुझे सहज बनाया और परीक्षक प्रो.भीमसेन निर्मल से कहा – ‘सर, बच्ची परिश्रम करेगी. एडमिशन दिया जा सकता है.’ मैं गद्गद हो गई और सर को नमन करके बाहर आ गई. वह प्रो.दिलीप सिंह और उनके अभिभावक रूप से मेरा पहला साक्षात्कार था. 

दिलीप सिंह सर उस वक्त पीजी विभागाध्यक्ष थे. विभागाध्यक्ष होने के कारण वे प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते थे. उस व्यस्तता के बीच भी वे एम.ए. की कक्षाएँ नियमित रूप से लेते थे. वे हमें सामान्य भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा का प्रकार्यात्मक रूप, हिंदी भाषा का सामाजिक संदर्भ, अन्य भाषा शिक्षण और कार्यालयीन हिंदी पढ़ाते थे. ये सब विषय बहुत ही गंभीर और एकदम नए विषय थे लेकिन प्रो.दिलीप सिंह ने गंभीर से गंभीर विषय को भी हमें बहुत ही सरल और सहज ढंग से पढ़ाया है. वे इस तरह से पढ़ाते थे कि यदि कोई नींद से जगाकर भी प्रश्न पूछ ले तो छात्र उत्तर देने के लिए तैयार रहे! 

प्रो.दिलीप सिंह हम छत्रों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन की प्रतिमूर्ति हैं. वे कई बार क्लास में अचानक परीक्षा रखते थे. उस दिन भी वही हुआ. उन्होंने मसौदा लेखन के बारे में स्पष्ट करते हुए किसी एक पत्र का मसौदा तैयार करने के लिए कहा. मसौदा लेखन के बारे में मैंने जो कुछ समझा था उसे कागज़ पर उतार दिया. मैं जानती थी कि मेरा परफोरमेंस ठीक नहीं था. अगले दिन सर क्लास में आए, सबकी कापियां वापिस कीं. मैं डर रही थी कि सर मुझे सबके सामने डांटेंगे, लेकिन सर ने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि शांत स्वर में कहा – ‘नीरजा जी, (वे कभी भी किसी भी छात्र को ‘जी’ के बिना संबोधित नहीं करते) कम-से-कम आपसे (सर कभी किसी भी विद्यार्थी को तुम/तू नहीं कहते) तो यह उम्मीद नहीं थी.’ मैंने तुरंत सर से माफी माँगी. क्लास के बाद सर के केबिन में पहुँची और उन्हें अपनी दुविधा समझाई. तब दिलीप सिंह सर ने कहा कि “भूल जाइए कि हिंदी आपकी मातृभाषा नहीं है. एम.ए.(हिंदी) में आए हर छात्र की भाषा हिंदी है. हिंदी तो सबकी भाषा है. ज्यादा से ज्यादा वक्त लाइब्रेरी में बिताइए और पढ़िए.” उसके बाद मैंने दिन-रात खूब मेहनत की और एम.ए. में स्वर्ण पदक प्राप्त किया. 

एम.फिल. में दिलीप सिंह सर हमें ‘शोध प्रविधि’ में कुछ अंश पढ़ाते थे, मुख्य रूप से भाषावैज्ञानिक शोध (वैसे तो वे सूत्र रूप में पूरे प्रश्न पत्र की चर्चा करते थे) तथा ‘आलोचना प्रविधि’ में रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि. रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि पढ़ाने से पहले ही दिलीप सिंह सर का ट्रांसफर धारवाड़ हो गया था. आज भी मुझे इस बात का अफ़सोस है कि उनसे रूपवैज्ञानिक आलोचना दृष्टि को नहीं पढ़ पाई क्योंकि जिस तरह दिलीप सिंह सर समझाते हैं उस तरह कोई नहीं समझा पाएँगे. उन्होंने हमारे अंदर शोध की एक दृष्टि विकसित की. यदि आज मौक़ा मिले तो उनसे रूपवैज्ञानिक आलोचना पढ़ना चाहती हूँ. रिफ्रेशर कोर्स के रूप में ही क्यों न हो. यह हमारे लिए बहुत ही आवाश्यक है. 

प्रो.दिलीप सिंह पढ़ाते समय विषय को बहुत ही सरल और रोचक बना देते हैं. एक दिन भाषाविज्ञान पढ़ाते समय उन्होंने ‘बॉबी’ सिनेमा के गीत ‘अंदर से कोई बाहर न जा सके...’ के माध्यम से क्रिया पदों को समझाया. भाषा के सामाजिक संदर्भ में व्यक्तिबोली, क्षेत्रीय बोली और सामाजिक बोली की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए उदाहरण के तौर पर अपनी अंडमान और निकोबार की यात्रा के बारे में बताया. उन्होंने वहाँ की जनजाति के कुछ चित्र भी दिखाए जो तथाकथित सभ्य समाज से बहुत दूर निवास करती है. सर पढ़ाते समय जहाँ आवश्यक हो वहाँ ब्लैक बोर्ड का प्रयोग अवश्य करते हैं. अक्सर यह कहते हैं कि भाषा शिक्षण विशेष रूप से संस्कृति शिक्षण में जहाँ तक हो सके, चित्रों के माध्यम से या कुछ क्लिपिंग्स के माध्यम से छात्रों को समझाना चाहिए ताकि उनकी मातृभाषा और अन्य भाषा में कोई हिंडरेंस पैदा न हो. 

अनुवाद डिप्लोमा क्लास का अनुभव तो कुछ और ही था. अनुवाद की कक्षाएँ शाम को 6 बजे से 8 बजे तक होती थीं. सप्ताह में पूरे पांच दिन कक्षाएँ होती थीं. उस समय अनुवाद डिप्लोमा में 30 छात्र थे. दिलीप सिंह सर से डर कर सब लोग नियमित रूप से आते थे. कभी कभी क्लास बंक करते थे, पर जिस दिन दिलीप सिंह सर की क्लास होती उस दिन तो जरूर आते थे क्योंकि हमें ऐसा लगता था कि यदि उनकी क्लास मिस हो गई तो हम बहुत कुछ मिस कर देंगे. सर, व्यावहारिक पक्ष पर ज्यादा दृष्टि केंद्रित करते थे. जब सर क्लास पढ़ाते थे तो कभी कभी 9 भी बज जाते थे पर हमें समय का पता नहीं चलता था. 

दिलीप सिंह अक्सर कहते हैं कि भाषा जीवंत होनी चाहिए, स्पष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए, भाषा में बोधगम्यता होनी चाहिए. पढ़ाते समय और कुछ भी समझाते समय वे सरल शब्दों का ही प्रयोग करते हैं. भाषा शिक्षण, अनुवाद विज्ञान, पाठ विश्लेषण आदि से संबंधित किताबों में भी सरल शब्दों का ही प्रयोग करते हैं. वे कभी अपनी विद्वत्ता से आतंकित नहीं करते बल्कि सहज समझ से आश्वस्त करते हैं. 

आज मैं सभा में प्राध्यापक हूँ. छात्र के रूप में मैंने जो कुछ दिलीप सिंह सर से सीखा है उससे ज्यादा आज सीख रही हूँ. उनके नेतृत्व में संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ है. अन्य विश्वविद्यालयों में संगोष्ठियों में शोधपत्र प्रस्तुत करने का अवसर सिर्फ सीनियर लोगों को ही प्राप्त होता है लेकिन दिलीप सिंह सर ने मुझ जैसे को - युवा पीढ़ी को - यह अवसर मुहैया कराया है. प्रो.दिलीप सिंह के सामने संगोष्ठियों में आलेख प्रस्तुत करते समय ही नहीं संयोजन करते समय भी होमवर्क करके जाती हूँ क्योंकि सर बड़े ध्यान से सुनते हैं और अपनी टिप्पणी भी देते हैं. उनकी अध्यक्षता में आलेख प्रस्तुत करना मेरे लिए तो ऐसा ही है जैसे एवरेस्ट पर चढ़ना. यह अवसर भी मुझे प्राप्त हुआ - दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के तत्वावधान में धारवाड़ में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में. विषय था – ‘दूरस्थ शिक्षा की पाठ्यक्रम संबंधी समस्याओं का निराकरण – प्रश्न बैंक के संदर्भ में’. मन ही मन डर रही थी, फिर भी आलेख बिना कोई भूल चूक किए प्रस्तुत कर दिया. अध्यक्षीय टिप्पणी में जब सर ने मेरे आलेख से ही अपनी बात शुरू की तो मुझे बेहद खुशी मिली. इससे बड़ी उपलब्धि मेरे लिए और क्या हो सकता है! सर ने कार्यशालाओं में भी हम नए लोगों को स्टडी मेटीरियल तैयार करने के लिए विषय विशेषज्ञों के रूप में मौक़ा प्रदान किया जो हमारे लिए कल्पनातीत था. 

दो साल पूर्व धारवाड़ की एक कार्यशाला में पांच दिन प्रो.दिलीप सिंह और उनकी पत्नी श्रीमती गीता वर्मा जी के साथ समय बिताने का अवसर प्राप्त हुआ. उस वक्त मैंने उनमें उसी अभिभावक को देखा जिसके दर्शन एम.ए. की प्रवेश परिक्षा के समय किए थे. इस सान्निध्य का यह भी लाभ हुआ कि मैं प्रो.दिलीप सिंह को ठहाका मारते हुए हँसते देख सकी. अन्यथा काम करते समय तो वे एकदम सीरियस रहते हैं. उस वक्त यदि हम लोगों से कोई कोताही/ गलती हो गई तो गुस्से में आ जाते हैं. उस वक्त वे ‘रूद्र’ होते हैं; लेकिन जब सहज होते हैं तो ‘शिव’ बन जाते हैं! 

प्रो.दिलीप सिंह सर मेरे गुरु हैं. अपनी पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ की पांडुलिपि जब डरते डरते उन्हें देखने को दी तो मेरा अनुरोध मानकर उन्होंने उसकी भूमिका भी लिखी. उनका यह आशीर्वाद पाकर मैंने धन्यता का अनुभव किया. वे अपने शिष्यों के प्रति कितने वत्सल हैं इसका प्रमाण यह है कि मेरी उस सामान्य सी पुस्तक का विमोचन कर उन्होंने मेरी भावना का मान रखा. उनसे जो स्नेह और आशीर्वाद मिलता है उसे उनके सभी शिष्य मेरी तरह अपना परम सौभाग्य मानते हैं. 

षष्ठिपूर्ति वर्ष की संपन्नता पर प्रो.दिलीप सिंह को मंगलमय भविष्य हेतु विनम्र शुभकामनाएँ! 

यह आलेख सृजनगाथा पर प्रकाशित है. इसका लिंक नीचे दिया जा रहा है- 

http://srijangatha.com/Aalekh24Aug2012

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