अनुवाद कार्य, अनूदित पाठ एवं समतुल्यता के रूप में अनुवाद को समझने के लिए ‘अनुवाद सिद्धांत’ एक महत्वपूर्ण सहायक बिंदु है. इसे `अनुवाद विद्या’, `अनुवाद विज्ञान’ और `अनुवादिकी’ भी कहा जाता है. ‘अनुवाद सिद्धांत’ का उद्भव मूल रूप से अनुप्रयुक्त तुलनात्मक पाठ संकेत विज्ञान से माना जाता है. यहाँ ‘तुलनात्मक’ शब्द से स्पष्ट है कि अनुवाद का संबंध दो भाषाओं से है. दोनों भाषाओं की अपनी अपनी प्रवृत्ति होती है. दोनों की तुलना अर्थ, वाक्य एवं संदर्भ के अनुसार करनी पड़ती है. अतः अर्थ, वाक्य एवं संदर्भ मीमांसा अनुवाद सिद्धांत के प्रासंगिक तत्व हैं. फिर भी इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद की सर्वप्रथम आवश्यकता अर्थ बोध है. अतः अर्थ को खोजना, भाषिक अर्थ तथा भाषा की बाह्य स्थिति अनुवाद सिद्धांत के प्रमुख अंग हैं.
मूल पाठ अनुवाद कार्य का मेरुदंड है. मूल पाठ की संरचना, प्रारूप, उसका स्वरूप निर्धारण, शब्दार्थ व्यवस्था आदि की सैद्धांतिक चर्चा इसके मुख्य बिंदु हैं. अनुवादक को सामाजिक – सांस्कृतिक पर्यायों का चुनाव, लिप्यंतरण, शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद, आगत शब्दों का अनुवाद, विस्तार, संक्षेप आदि का काम अकेले ही करना पड़ता है. इस काम को सफलतापूर्वक करने के लिए अनुवादक से मुख्य अपेक्षाएँ हैं - भाषा का ज्ञान, विषय का ज्ञान, अभिव्यक्तीकरण का कौशल.
यह आवश्यक नहीं है कि अनुवादक अनुवाद सिद्धांत की जानकारी प्राप्त करने के बाद ही अनुवाद करे. रुचि से अनुवाद करनेवाले सफल अनुवादक तो कभी कभी अनुवाद सिद्धांत की दृष्टि से उतने सक्षम नहीं होते. कुछ लोग सफल अनुवादक होने के साथ साथ सिद्धांत से भी भली भाँति परिचित होते हैं. बीसवीं शती के पूर्वार्ध में आधुनिक भाषाविज्ञान का विकास हुआ तो भाषाविज्ञान से परिचित अनुवादकों एवं भाषावैज्ञानिकों का ध्यान विशेष रूप से अनुवाद सिद्धांत की ओर आकृष्ट हुआ.
अनुवाद समीक्षा अनुवाद सिद्धांत का अनुप्रयोगात्मक पक्ष है. मूल पाठ की तुलना में अनूदित पाठ के गुण-दोषों का विवेचन करना ही अनुवाद समीक्षा है. यह समीक्षा अनुवाद सिद्धांत पर ही आधारित होती है. जिस तरह एक साहित्य समीक्षक के लिए सर्जक होना अनिवार्य नहीं है उसी तरह अनुवाद समीक्षक के लिए अनुवादक होना अनिवार्य नहीं है. अतः अनुवादक और अनुवाद समीक्षक अलग अलग व्यक्ति होते हैं. डॉ.सुरेश कुमार की मान्यता है कि “अनुवाद समीक्षा जहाँ एक ओर अनुवाद के कौशल का मूल्यांकन है वहाँ लक्ष्य भाषा के अभिव्यक्ति संसाधनों का भी उस सीमा तक मूल्यांकन है, जिस सीमा तक उनके द्वारा मूलभाषा पाठ के विभिन्न पक्षों की लक्ष्य भाषा में शुद्ध तथा उपयुक्त रीति से आवृत्ति हुई है. इस प्रकार अनुवाद समीक्षा में अनुवाद के व्यक्तिपरक और निर्वैयक्तिक (भाषापरक) पक्षों के बीच संतुलन रहता है.” (डॉ.सुरेश कुमार, अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा, पृ. 124-125). उन्होंने यह भी बताया है कि अनुवाद समीक्षा के कतिपय निर्धारित सोपान हैं जो निम्नलिखित हैं –
1. “अनुवाद समीक्षा के लिए पाठयुगल - मूल भाषा पाठ तथा उसका अनुवाद - का चयन.
2. मूल भाषा पाठ का विश्लेषण – मूल अभिप्राय, प्रमुख भाषा प्रकार्य, अर्थ व्यंजना, प्रतिपाद्य, प्रयुक्ति या भाषा शैली (वाक्य रचना और शब्दकोश पर आधारित), साहित्यिक गुण, सांस्कृतिक विशेषताएँ, उद्दिष्ट पाठक वर्ग तथा सामान्य परिवेश.
3. मूल पाठ तथा अनुवाद की विस्तृत तुलना – असमान बिंदुओं पर विशेष बल देते हुए.
4. (क) दोनों पाठों के समग्र प्रभावों के बीच अंतर का आकलन, तथा
(ख) अनुवादक द्वारा प्रयुक्त अनुवाद प्रणाली का संकेत करते हुए अनुवाद का मूल्यांकन. ‘अंतर का आकलन’ की प्रक्रिया में ही अनुवाद के दोषों और सीमाओं का भी विवेचन किया जाएगा.” (वही, पृ.126).
यहाँ यह प्रश्न भी सामायिक है कि आखिर अनुवाद समीक्षा का प्रयोजन क्या है. इस प्रश्न पर प्रो.सुरेश कुमार ने विस्तार से चर्चा की है. उनके अनुसार अनुवाद समीक्षा के अनेक प्रयोजन संभव हैं. यथा -
1. इससे अनुवाद कार्य के स्तर को ऊँचा उठाने में सहायता मिलती है. अनूदित पाठ के गुण–दोषों के विवेचन से अनुवाद कार्य की त्रुटियों का ज्ञान होता है जिन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जाता है. इसके फलस्वरूप अनुवाद कार्य के स्तर में सुधार होता है.
2. इससे अनुवादकों के सामने श्रेष्ठ अनुवाद का मानक रूप उपस्थित होता है. गुण-दोष विवेचन के उपरांत सुधारे हुए अनुवाद को अनुवादक अपना आदर्श मानकर अपने कार्य में प्रवृत्त होता है.
3. अनुवाद समीक्षा से विशिष्ट कालखंड में और विशिष्ट ज्ञान क्षेत्र में अनुवाद संबंधी विचारों पर प्रकाश पड़ता है. शाब्दिक तथा प्रकार्यात्मकता के आधार पर भी समीक्षा के कुछ बिंदु निर्धारित होंगे.
4. अनुवाद समीक्षा के द्वारा महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं तथा महत्वपूर्ण अनुवादकों के अनुवाद कार्य के विवेचन और मूल्यांकन में सहायता मिलती है.
5. अनुवाद समीक्षा के द्वारा मूल भाषा और लक्ष्य भाषा के शब्दकोश एवं व्याकरण की तथा भाषा शैली एवं पाठ प्रारूप संबंधी असमानताओं का समीक्षात्मक विवेचन कर सकते हैं. इस प्रकार दोनों भाषाओं के व्यतिरेकी संबंधों के विषय में जानकारी बढ़ा सकते हैं.
6. अनुवाद समीक्षा का शिक्षणात्मक आयाम भी है. अनुवाद समीक्षा को सिखाकर अनुवादक – शिक्षार्थी की अनुवाद सिद्धांत चेतना को व्यावहारिक स्तर पर पुष्ट करते हैं. (वही, पृ.125-126).
भाषा एक कल्पवृक्ष है जो सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप विकसित है. अतः अनुवाद एक श्रेष्ठ कार्य है चूँकि वह दो सभ्यताओं, संस्कृतियों, कालखंडों, भावों अथवा विचारों के बीच का सेतु है. अनुवाद का स्वरूप पुनःसृजन जैसा होने के कारण मौलिक कृति और अनूदित कृति में अंतर अवश्य रहेगा. प्रो.दिलीप सिंह इस बात पर बल देते हैं कि “अनुवाद की दृष्टि से भाषा की अर्थगत संरचना को समझने के पहले यह निर्धारित करना भी अनुवादक के लिए आवश्यक होता है कि रूपात्मक संरचना (formal structure) और अर्थगत संरचना (semantic structure) एक दूसरे से भिन्न होते हैं.” (प्रो.दिलीप सिंह, अनुवाद की व्यापक संकल्पना, पृ.46). उनकी मान्यता है कि “अर्थगत संरचना के विश्लेषण के समय प्रतीक के सामाजिक–सांस्कृतिक संदर्भों का विश्लेषण अनिवार्य है. अर्थात इकाई के समाज स्वीकृत एवं समाज प्रयुक्त अर्थ प्रतीक से संबद्ध होने की संभावना बराबर रहती है. अतः अनुवाद में इकाई की बहुव्याप्ति और चयनगतता (substitutability) पर भी अपनी दृष्टि रखनी पड़ती है.” (वही).
अभिप्राय यह है कि अनुवाद करते समय अनुवादक के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएँ उपस्थित होती हैं, यथा - भाषावैज्ञानिक समस्याएँ, संरचना के अर्थ पक्ष की समस्याएँ, भाषेतर संदर्भ की समस्याएँ, विशिष्ट प्रयोग क्षेत्र की समस्याएँ, अनुवाद के आधार क्षेत्र की समस्याएँ, क्षेत्र रूपांतरण की समस्याएँ और समाज-सांस्कृतिक समस्याएँ. यहाँ हम इनमें से समाज-सांस्कृतिक समस्याओं पर कुछ विचार करेंगे.
किसी साहित्यिक कृति का अनुवाद करना अनुवादक के लिए साहित्येतर पाठ की अपेक्षा अधिक चुनौतीपूर्ण है. कठिनाई तब और बढ़ जाती है जब पाठ में भिन्न समाजिक और सांस्कृतिक पक्ष हों. मूलतः भारतीय संस्कृति सामासिक संस्कृति है अतः किसी भी भारतीय भाषा से हिंदी में या हिंदी से अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करते समय अनुवादक के लिए समस्याएँ उतनी नहीं होतीं जितनी अंग्रेजी में या अंग्रेजी से अनुवाद करते समय होती हैं. अनुवाद में प्रमुख रूप से तीन प्रकार की सामाजिक–सांस्कृतिक समस्याएँ आती हैं –
1. “ऐसी सामाजिक–सांस्कृतिक शब्दावली के पर्याय खोजने की समस्या जिसके लिए लक्ष्य भाषा में समान शब्द उपलब्ध न हों.
2. मुहावरों और लोकोक्तियों के अनुवाद की समस्याएँ.
3. लोक जीवन से लिए गए बिंबों, अलंकारों और मिथकों के अनुवाद की समस्याएँ.
इन समस्याओं से अनुवादक के टकराव को समझने के लिए यहाँ हम राष्ट्रकवि डॉ.रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के प्रसिद्ध खंडकाव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को सामाजिक-सांस्कृतिक पाठ के रूप में ग्रहण करके उसके अंग्रेजी अनुवाद (अनुवादक : डॉ.पी.आदेश्वर राव) का पाठाधारित और भाषिक विश्लेषण शब्द चयन के स्तर पर कर सकते हैं. कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
मूल : सिंधु (पृ.8)
अंग्रेजी अनुवाद : The Ocean (पृ. 4)
समीक्षा : मूल में `सिंधु’ भवसागर के अर्थ में प्रयुक्त है. भारतीय दर्शन के अनुसार जीवात्मा मृत्यु के पश्चात इस संसार रूपी भवसागर को पार कर जाती है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘The Ocean’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो `सिंधु’ का शाब्दिक अर्थ है. इससे भारतीय दर्शन की संकल्पना स्पष्ट नहीं होती.
मूल : घृत (पृ.11)
अंग्रेजी अनुवाद : oil (पृ.8)
समीक्षा : संस्कृत में `घृत’ का अर्थ है `घी’. मूल में इस शब्द का प्रयोग ‘जलती आग में घी डालना’ अर्थात गुस्से को और भड़काने के अर्थ में हुआ है. अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त ‘oil’ शब्द से ‘तेल’ का आभास होता है. अंग्रेजी अनुवाद में मूल से भिन्न अर्थ द्योतित हो रहा है.
मूल : महासंगर (पृ.37)
अंग्रेजी अनुवाद : a deadly large scale of war (पृ.34)
समीक्षा : पांडवों और कौरवों के बीच उत्पन्न कलह कुरुक्षेत्र में परिणत हुआ. मूल में इसी भीषण युद्ध की ओर संकेत करते हुए `महासंगर’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘a deadly large scale of war’ का प्रयोग हुआ है जो वस्तुतः भावानुवाद है. इससे मूल में निहित समाज–सांस्कृतिक पक्ष स्पष्ट नहीं हो रहा है.
मूल : कर-कंकण (पृ. 60)
अंग्रेजी अनुवाद : Bangles (पृ. 58)
समीक्षा : कर-कंकण भारतीय संस्कृति में सौभाग्य का प्रतीक है. जब कोई स्त्री विधवा हो जाती है तब उसके हाथों के कंगन को तोड़ दिया जाता है. मूल में इसी की ओर संकेत किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त 'bangle' शब्द से मूल में निहित प्रतीकार्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है.
मूल : यजन (पृ.71)
अंग्रेजी अनुवाद : The burning fire of penance (पृ.70)
समीक्षा : `यजन’ का अर्थ है यज्ञ करना. किसी प्रकार की कार्य सिद्धि के लिए यज्ञ किया जाता है. भारतीय संस्कृति में यही माना जाता है कि मनुष्यों की महत्ता प्रबल साधना में ही निहित है. इसी तथ्य को उजागर करने के लिए मूल में `यजन’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में भावानुवाद का सहारा लेते हुए ‘the burning fire of penance’ का चयन किया गया है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति में इस तरह की (यज्ञ की) संकल्पना नहीं है.
मूल : कर्म (पृ.16)
अंग्रेजी अनुवाद : act (पृ.13)
समीक्षा : मानव जीवन एक कर्मक्षेत्र है. अर्थात यहाँ कर्म ही प्रधान है. गीता में श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म की प्रेरणा दी है – ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः’ (2-52). मूल में गीता के इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग दार्शनिक संदर्भ में किया गया है. अंग्रेजी अनुवाद में ‘act’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिससे मूल से भिन्न अर्थ द्योतित होता है.
मूल : पंचाग्नि (पृ.73)
अंग्रेजी अनुवाद : five fold fires (पृ.73)
समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार पंचाग्नि अर्थात पाँच अग्नियाँ, जिनके मध्य में योगी कठिन तपस्या करते हैं, पंचेंद्रियों से प्राप्त पाँच प्रकार की विषय वासनाओं (शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श) का प्रतीक है. अंग्रजी अनुवाद में ‘five fold fires’ का प्रयोग किया गया है जिससे मूल में निहित दार्शनिक अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है. अनुवादक ने व्याख्या का सहारा लेते हुए मूल में निहित भाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया है.
मूल : त्रिविध ताप (पृ.90)
अंग्रेजी अनुवाद : triple heat (पृ.90)
समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार ‘त्रिविध ताप’ से आशय है – आधि दैहिक, आधि दैविक और आधि भौतिक ताप. इसी संकल्पना की ओर संकेत करते हुए मूल में ‘त्रिविध ताप’ शब्द का प्रयोग किया गया है. अनुवाद में प्रयुक्त शब्द ‘triple heat’ से मूल से भिन्न अर्थ ध्वनित होता है. अनुवादक मूल की संकल्पना को स्पष्ट करने में इस लिए असफल है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति में इस तरह की संकल्पना नहीं है.
मूल : मंदराचल (पृ. 91)
अंग्रेजी अनुवाद : Mandar Mountain (पृ. 91)
समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार मंदराचल वह पर्वत है जिसे देवताओं और राक्षसों ने समुद्र मंथन करते समय मथनी बनाया था. अंग्रेजी अनुवाद में लिप्यंतरण का प्रयोग किया गया है. परंतु पाद टिप्पणी के अभाव में वह अपर्याप्त प्रतीत होता है.
मूल : हठयोगी (पृ. 102)
अंग्रेजी अनुवाद : The Saint (पृ. 101)
समीक्षा : भारतीय दर्शन के अनुसार भगवान को पाना योग है. हठयोग अर्थात वह योग जिसमें शरीर को साधने के लिए बड़ी कठिन मुद्राओं और आसनों आदि का विधान है. हठयोग का प्रयोजन विविध आसनों द्वारा उन पाँच प्रकार के प्राणों (प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान) को नियंत्रित करना है जो आत्मा को घेरे हुए हैं. यह योग किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं अपितु भौतिक बंधन से आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है. हठयोग वस्तुतः चित्तवृत्तियों के प्रवाह को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है जिसमें प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है. इस योग का आचरण करने वाला हठयोगी कहलाता है. अनुवाद में ‘The Saint’ का सामान्य प्रयोग किया गया है जिससे मूल में निहित आधात्मिक और सांस्कृतिक भाव स्पष्ट नहीं हो सका है. इससे अच्छा यह होता कि लिप्यंतरण का सहारा लेकर पाद टिप्पणी में इसकी व्याख्या कर दी जाती.
मूल : मोक्ष मंत्र ( पृ. 103)
अंग्रेजी अनुवाद : the magical hymns (पृ. 102)
समीक्षा : शास्त्रों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना ही मोक्ष है. उसके लिए जिन मंत्रों का उच्चारण किया जाता है उन्हें मोक्ष मंत्र कहते हैं. इसी अर्थ की ओर संकेत करते हुए मूल में इस पद का प्रयोग किया गया है. अनुवाद में ‘magical hymns’ का प्रयोग किया गया है. ‘Magical’ शब्द से ‘जादूई’ का अर्थ प्रतीत होता है. वस्तुतः मोक्ष का अर्थ है Salvation. अतः मोक्ष मंत्र के लिए यदि ‘Hymns of Salvation’ का प्रयोग किया होता तो बेहतर होता.
इस प्रकार `कुरुक्षेत्र’ में प्राप्त कतिपय सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों और उनके अंग्रेजी अनुवाद के तुलनात्मक अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि इस काव्य का मूल पाठ सांस्कृतिक होने के कारण इसका अनुवाद करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य रहा होगा. अंग्रेजी अनुवाद में शब्दानुवाद, शाब्दिक अनुवाद, भावानुवाद, लिप्यंतरण और ग्रहण की नीति को अपनाया गया है. दिनकर वस्तुतः सांस्कृतिक चेतना से ओतप्रोत रचनाकार है जिनके काव्य का विजातीय भाषा में अनुवाद करना कठिन होते हुए भी लक्ष्य भाषा पाठ में समतुल्य अभिव्यक्तियों, व्याख्यात्मक अनुवाद तथा पाद टिप्पणी की तकनीक द्वारा मूल संदेश के अधिकतम संप्रेषण को सार्थक बनाया गया है.
- 'भाषा, संस्कृति और लोक' : भाषाविज्ञान की व्यावहारिक पीठिका (विद्यानिवास मिश्र स्मृति ग्रंथमाला), प्रधान संपादक - डॉ. दयानिधि मिश्र, संपादक - प्रो. दिलीप सिंह, 2012, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली में प्रकाशित आलेख
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