शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

आज की नारी

अनुवाद को सांस्कृतिक सेतु कहा जाता है चूँकि अनुवाद वह साधन है जिसके माध्यम से भाषा के साथ साथ संस्कृति का अंतरण होता है। अनुवाद ने आज सांस्कृतिक दूरियों को समाप्‍त कर दिया है। भाषाविद प्रो.सुरेश कुमार की मान्यता है कि "अनुवाद भाषा संपर्क का ही प्रकार्य है।" वस्तुतः मनुष्‍य के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास के लिए अनुवाद आवश्‍यक है। इतना ही नहीं वह भाषिक आदान-प्रदान और अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर आदान-प्रदान के लिए भी अनिवार्य है। अनुवाद के माध्यम से भारतीय भाषाओं में निहित साहित्यिक धरोहर का भी आपस में आदान-प्रदान हो रहा है। प्रो.दिलीप सिंह ने यह स्पष्‍ट किया है कि भारतीय संदर्भ में अनुवाद की भूमिका निरंतर महत्वपूर्ण बनती जा रही है। एक ओर सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद भारत की भावात्मक और संस्कृतिगत एकता को सिद्ध करते हुए भारतीय साहित्य के एक होने की धारणा को प्रमाणित करता है, तो दूसरी ओर तुलनात्मक साहित्य का विभिन्न भाषाओं में समानांतर विकास क्रम भी देखा जा सकता है तथा साहित्यिक अभिवृत्तियों का समाकलित अध्ययन भिन्न भाषा परिवेश में किया जा सकता है।

साहित्यिक आदान-प्रदान में अनुवाद की आवश्‍यकता निरंतर बढ़ती जा रही है। इसमें दो राय नहीं । इसी दृष्‍टि से डॉ.म.लक्ष्‍मणाचार्युलु (1953) ने तेलुगु की प्रसिद्ध लेखिका डी.कामेश्‍वरी की 16 कहानियों का अनुवाद ‘आज की नारी’(2006) शीर्षक से प्रस्तुत किया है।

कामेश्‍वरी ने लगभग 300 लघु कहानियाँ, 20 उपन्यास और एक यात्रावृत्त लिखे हैं। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘कोत्ता मलुपु’ (नया मोड़) का फिलमांकन अनेक भारतीय भाषाओं में हुआ है। इस पर तेलुगु में ‘न्यायम्‌ कावाली’ के नाम से फिल्म बनी जिसका हिंदी में रूपांतर ‘इन्साफ चाहिए’ के नाम से हुआ है। 

कामेश्‍वरी के कथा साहित्य का केंद्रबिंदु नारी और उससे संबंधित समस्याएँ हैं। हमारे समाज में स्त्री को बचपन से ही यह पाठ पढ़ाया जाता है कि घर-परिवार को संभालना ही स्त्री का दायित्व है। वह घर लीपते लीपते अपने बारे में सोचना भी बंद कर देती है। वह उसी दुनिया को देखना शुरू कर देती है जिसे उसके पिता या पति या पुत्र दिखाते हैं। पर आज की नारी कहती है कि "सुना है पुराने ज़माने में गांधारी नाम की एक महान पतिव्रता थी, जिसका पति जन्मांध था। उसने अपनी आँखों पर पट्‍टी इसलिए बाँध ली कि उसे वह दुनिया दिखाई न दें, जिसे उसका पति नहीं देख सकता। इस ज़माने में अगर आप ऐसा सोचेंगे कि हम बिना पट्टी बाँधे आपकी मनमानी देखें, चुपचाप रहें, तो यह संभव नहीं है।" (आज की नारी; पृ.58)|

स्त्री सदियों से आदर्श का पाठ पढ़ते-पढ़ाते आ रही है। उसने अपने आप को घर की चार दीवारी तक ही सीमित रख लिया था। पहले वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं थी लेकिन आज वह स्वावलंबी और आर्थिक रूप से स्वतंत्र है। अतः वह कहती है कि "आज की नारी बिना पति के, बिना घर-परिवार के... अपने पाँव पर खड़ी हो सकती है, बच्चों की परवरिश कर सकती है। यह मत भूलिए कि अकेले जीने की हिम्म्त उसे है...।" (ईंट का जवाब; पृ.32)|

कहा जाता है कि स्त्री जब तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होगी तब तक वह सही अर्थ में सशक्‍त नहीं हो सकती। आज भारतीय स्त्री पुरुष के समान नौकरी कर रही है। पर लेखिका यह सवाल करती है कि "क्या इसे महिलाओं की उन्नति समझ लें? उनकी आर्थिक तरक्की मान लें? क्या आर्थिक तरक्की की? क्या आजादी मिली?" वे आगे यह भी कहती हैं कि "जो भी वेतन मिलता है, उसे लाकर पति के हवाले कर देती है। घर के लिए, फ्रिज के लिए, टीवी के लिए..." (माँ का दूध; पृ.37)|

आज की परिस्थितियों में आराम की जिंदगी बिताने और बच्चों को सुनहरा भविष्य प्रदान करने के लिए पति-पत्‍नी दोनों को नौकरी करनी पड़ रही है। इस जीवन संघर्ष में उन्हें अपने नवजात शिशु को क्रेच के हवाले करके नौकरी पर जाना पड़ रहा है। नौकरपेशी स्त्री की समस्याओं को ‘माँ का दूध’ शीर्षक कहनी में रेखांकित किया गया है। यह कहानी हृदयस्पर्शी है। इस कहनी को पढ़ते समय हर नौकरीपेशा माँ की आँखों के सामने दूध के लिए बिलखता हुआ अपने बच्चे का चेहरा दिखाई पड़ना स्वाभाविक है। जरा सोचिए उस माँ की क्या हालत होगी जिसकी छाती दूध से भारी हो।

‘आज की नारी’ कहानी संग्रह में संकलित कहानियों में परंपरागत स्त्री छवि के साथ साथ ‘बोल्ड’ स्त्री की छवि भी है। वह इतनी बोल्ड हो चुकी है कि उसे विवाह व्यवस्था भी बंधिश लगने लगी है। वह ‘लिविंग टुगेथर’ पर विश्‍वास करने लगी है। ‘जिएँगे साथ साथ’ कहानी में इसी बात को उजागर किया गया है।

युवा पीढ़ी पश्‍चिम के मोह जाल में फँसकर अपनी जीवन शैली को भी बदल रही है। आज भारतीय समाज में भी ‘डेटिंग कल्चर’ पनप रही है। डेटिंग पर जाना, इंटरनेट पर चैटिंग और ब्राउजिंग करना फैशन बन चुका है। लेखिका का कहना है कि जहाँ संचार साधनों के कारण तकनीकी विकास हो रहा है वहीं दूसरी ओर अपसंस्कृति भी पनप रही है। युवा पीढ़ी अकेलेपन का शिकर हो रही है। संबंधों का विच्छेद हो रहा है और रिश्तों के बीच कसैलापन बढ़ रहा है। इसका चित्रण ‘समय साक्षी है’ और ‘डायन जो बनी देवी’ जैसी कहानियों में हुआ है।

इन कहानियों में परंपरागत रूढ़ियाँ भी विद्‍यमान हैं। इस समाज में एक ओर स्त्री सशक्तीकरण की बातें हो रही हैं और दूसरी ओर लड़की पैदा होने पर अफ्सोस जताया जा रहा है। आज भी लड़के के जन्म पर जश्‍न मनानेवाले लोग लड़की पैदा होने पर मायूस हो जाते हैं। जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक समाज से यह लिंग भेद की समस्या समाप्‍त नहीं होगी। ‘नया मोड़’ शीर्षक कहानी में इसी बात को उकेरा गया है।

विवाहोपरांत यदि दो-तीन साल तक दंपति को किसी कारणवश संतान न हो तो सिर्फ स्त्री को ही दोषी ठहराया जाता है। उसे हर वक्‍त घर-परिवार के साथ साथ समाज के तपेड़ों को भी झेलना पड़ता है। पुरुष में कमी होने के पर भी स्त्री को ही दोष दिया जाता है। लेखिका ने अपनी कहानी ‘सबक’ में  इसी बात को स्पष्‍ट करते हुए यह रेखांकित किया है कि आज की नारी अपने पर लगाए गए लांछन को मिटाने के लिए कुछ भी कर सकती है। इस कहानी की नायिका सुजाता अपने पति को सबक सिखाने के लिए ‘आर्टिफिशिएल इन्सेमिनेशन’ के जरिए माँ बनती है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने स्त्री को चेताया है। वह परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेक रही है। डटकर उनका मुकाबला कर रही है।

विवेच्य कहानी संग्रह में संकलित कहानियों के माध्यम से लेखिका ने स्त्री समस्याओं को उजागर करने के साथ साथ उनका निदान भी किया है। लेखिका ने अपने परिवेश से ही पात्रों का चयन किया है अतः इन कहानियों को पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कि हम इन पात्रों से परिचित हैं। अनुवादक डॉ.म.लक्ष्मणाचार्युलु ने आंध्र प्रदेश के सोंधेपन को बरखरार रखने के लिए कुछ कहानियों में तेलुगु शब्दों का लिप्यंतरण करके पाद टिप्पणियों में उनका विवरण प्रस्तुत किया है। जैसे- ‘वडियालु’ (एक ऐसा स्वादिष्‍ट खाद्‍य पदार्थ जो कद्‍दू और गीले आटे वगैराह के मिश्रण से बनता है, जिसे धूप में सुखाने के बाद तेल में ‘फ्राई’ करके खाते हैं), ‘शोभनम्‌’ (सुहागरात), ‘पोपुलु’ (गरम तेल में मसाला सामान डालकार फ्राई करना) आदि। ‘पोपुलु’ के लिए हिंदी में ‘तड़का लगाना’ का प्रयोग होता है। लेकिन अनुवादक ने पाद टिप्पणी में हिंदी भाषा में प्रचलित शब्द का प्रयोग न करके उसकी व्याख्या की हैं। ‘मडि-आचारम्‌’ जैसे सांस्कृति शब्दों की व्याख्या दी जानी चाहिए थी क्योंकि हिंदी पाठकों के लिए ऐसे काफ़ी तेलुगु शब्द अपरिचित हैं जिस कारण पढ़ते समय अर्थ बोध में कठिनाई महसूस होती है।

आशा है कि हिंदी जगत इस कहानी संग्रह ‘आज की नारी’ (2006) का स्वागत करेगा।

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* आज की नारी (कहानी संग्रह)/ डी.कामेश्‍वरी/ अनु. डॉ.म.लक्ष्मणाचार्युलु/ मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2, कंदस्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुल्तान बाज़ार, हैदराबाद - 500 095/ पृष्‍ठ - 160/ मूल्य - रु.180/-
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3 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

डी.कामेश्‍वरी के कहानी संग्रह ‘आज की नारी’ की सार्थक समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई.

कृपया Word verification(शब्द पुष्टिकरण) से टिप्पणीकारों को छुटकारा दिलाएं।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पुस्तक की अच्छी समीक्षा की गई है। बधाई। इस समीक्षा यह बात भी उजागर हुई है कि जब मूल भाषा का अनुवादक लक्ष्य भाषा के कुछ शब्दों को नहीं जानता तो उसे किसी हिंदी भाषी से उसकी पुष्टि कर लेनी चाहिए... जैसे, बडियालु को हिंदी में बड़िये कहते है। यदि लक्ष्य भाषा में पर्यायवाची शब्द न मिले तो पाद टिप्पणी सार्थक होती है। हम जब यह बात कहते हैं कि लक्ष्य भाषा के जानकार से सलाह ली जा सकती है तो कुछ विद्वान नाराज़ भी हो जाते हैं:)

Kunwar Kusumesh ने कहा…

समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई