[ प्रो.ऋषभ देव शर्मा के कक्षा-व्याख्यान पर आधारित ]
भारतीय साहित्य की पहचान का आधार है – भारतीयता. प्रश्न यह उठता है कि भारतीयता का क्या अभिप्राय है? वस्तुतः वर्तमान संदर्भ में यह शब्द गहरे सांस्कृतिक अर्थ का द्योतक है. कहना न होगा कि “संस्कृति हमारे लिए दार्शनिक, आध्यात्मिक, नैतिक, कलात्मक और प्रवृत्तिगत संसार की अनुगूँज है. वह मूलतः मनुष्य से, प्रकृति से, धर्म से, मूल्य से, आत्मा से, समाज से, विश्व से हमारे संबंधों की प्रकृति सूचित करती है.” (प्रभाकर श्रोत्रिय ). इन्हीं से हमारी सांस्कृतिक पहचान निर्मित होती है जिसे हम विश्व के अन्य देशों की तुलना में विशिष्ट मानकर भारतीयता के नाम से अभिव्यक्त करते हैं.
भारतीयता के कई अभिलक्षण हो सकते हैं. जैसे – सर्वात्मवाद – सबका वि़कास, सबका उन्नयन, सबका आनंद भारतीय स्वभाव की मूल संस्कृति है. इसी प्रकार भारतीयता को सामासिकता से जोड़ते हुए डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय कहते हैं – “भारत के भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक चरित्र में सामासिकता है जिसके केंद्र में है सहिष्णुता जिसे नरेश मेहता ‘वैष्णवता’ कहते हैं. वैष्णवता का मूल करुणा है. गांधी की प्रार्थना में था – ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे.’ वैष्णवी भारत एक सहिष्णु, संवेदनशील, सामाजिक भारत है, संगम जिसका स्वभाव है. संगम भारत की सामासिकता की बोधभूमि है. *** भारत की संस्कृति का निर्माण नीति के उपदेशों या धर्म ग्रंथों से नहीं, काव्य ग्रंथों से हुआ है. ‘रामायण’, ‘महाभारत’ तो सांस्कृतिक अवबोधन के काव्य हैं ही, वेद भी एक अर्थ में महान काव्य है.” (‘कविता की जातीयता’ की भूमिका से).
भारतीयता अथवा भारतीय संस्कृति की व्याप्ति ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य के भारतीय साहित्य का दर्जा देती है. इसलिए भारतीय साहित्य में भारतीयता एक मूलभूत घटक/ तत्व (Fundamental Constituents) है.
इसमें संदेह नहीं कि मानवीय संवेदना की दृष्टि से विश्व भर का साहित्य कुछ एक जैसे आद्यप्रारूपों (Archetypes) से जुड़ा हुआ है जिसके कारण विश्व साहित्य में सार्वकालिक और सार्वदेशिक तत्व पाए जाते हैं. परंतु जैसा कि प्रो. इंद्रनाथ चौधुरी ने ‘तुलनात्मक साहित्य की भूमिका’ में लिखा है, “विश्व के साहित्य में पाई जाने वाली इस सार्वकालिकता या सार्वदेशिकता के बावजूद प्रत्येक देश का साहित्य काल, परिवेश तथा लेखक के जातीय संस्कार से प्रभावित होता है जिसके फलस्वरूप साहित्य में विशिष्टता आ जाती है.” यह जातीय संस्कार ही वर्तमान संदर्भ में भारतीयता है. विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य की सेक जैसी विशेषताओं के आधार पर भारतीय साहित्य की एकता को प्रतिपादित किया जा सकता है. वी.के.गोकक ने पहले-पहल भारतीय साहित्य की उस चेतना को खोजने का प्रयास किया जिससे भारतीयता की पहचान की जा सकती है. 'The Concept of Indian Literature’ में उन्होंने यह बताया की भारतीय साहित्य की शैली, कथ्य, पृष्ठभूमि, बिंबविधान, काव्य रूप, संगीत तथा जीवन दर्शन सब मिलकर एक अभिन्न तत्व के रूप में भारतीय साहित्य की भारतीयता को प्रकट करते हैं. डॉ.नगेंद्र और सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसे एकता के रूप में विश्लेषित किया है.
भारतीय साहित्य आमतौर से तीन अर्थ समझे जाते हैं –
1. संस्कृत साहित्य जिसकी विशाल परंपरा है और जो आधुनिक भारतीय साहित्य को प्रभावित करता है. भारतीयों द्वारा अंग्रेज़ी में लिखा साहित्य. गोकक ने भारतीयता की चर्चा करते हुए भारतीयों द्वारा अंग्रेज़ी में लिखे साहित्य का ही उदाहरण दिया है.
2. विभिन्न भारतीय भाषाओं हिंदी, तमिल, तेलुगु, बंगला, मणिपुरी आदि में लिखा गया साहित्य जिसमें विषय और भावगत एकसूत्रता दिखाई पड़ती है.
3. भले ही भारत की 22 भाषाओं में अभिव्यक्तियाँ अलग-अलग हों तथापि इनमें मूलभूत एकरूपता देखी जा सकती है. वर्त्तमान संदर्भ में हम भारतीय साहित्य के इसी अर्थ को ग्रहण करते हैं.
प्रो.इंद्रनाथ चौधुरी ने इस मूलभूत एकरूपता के दो कारण बताए हैं –
1. एक ही स्रोत से प्रेरणा ग्रहण करना. यह मूल स्रोत है – संस्कृत साहित्य, महाकाव्य, पुराण, जातक, लोकसाहित्य, दार्शनिक साहित्य, कला एवं संगीत.
2. लगभग एक ही प्रकार की अनुभूतियों से प्रेरित साहित्य का निर्माण होना. इसीके कारण हमारी साहित्यिक परंपरा में अटूट निरंतरता दिखाई देती है और आधुनिकता में भी प्राचीनता की प्राणशक्ति प्रकट होती है.
कृष्ण कृपलानी ने भारतीय साहित्य की इसी एकरूपता को देखते हुए कहा है कि हमारा साहित्य मात्र एक दृश्य नहीं पैनोरोमा है. ऊपर से नीचे तक इसमें बहुत से लैंडस्केप दिखाई देते हैं मगर इन विभिन्न लैंडस्केपों के रहते हुए भी अर्थात अनेकता में भी एक सैद्धांतिक एकता है जो विभिन्न विधाओं, रूपों या अभिव्यक्तियों में प्रतिफलित है.
विद्वानों ने यह परिलक्षित किया है कि हमारे साहित्य में मिथकों, मोटिफों, बिंबों या प्रतीकों के प्रयोग में एक व्यावहारिक संश्लेषण मिलता है जो भारतीय साहित्य की भारतीयता को उजागर करता है. इस भारतीयता की पहचान भारत के 5000 वर्ष के साहित्य की धारा में अवगाहन करके ही की जा सकती है. अभिप्राय यह है कि भारतीय साहित्य में भारतीयता के आविष्कार के लिए समूचे भारतीय साहित्य को स्वीकारना होगा.
डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी ने भारतीय साहित्य में भारतीयता के कुछ मूलबिंदु निर्धारित किए हैं जिन पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है.
1. आध्यात्मिक दृष्टि
2. रहस्यात्मक बिंबवाद
3. अद्वैत
4. आदर्शवाद
5. मानवतावाद
1. आध्यात्मिक दृष्टि :
भारतीय प्राच्य विद्या के जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने कहा है – ‘India is always transcendental and beyond.’ उनकी यह मान्यता भारतीय साहित्य की आध्यात्मिक अवधारणा पर भी लागू होती है. भारत शब्द का अर्थ ही है ‘भा + रत’ = ‘प्रकाश में रत’. यहाँ प्रकाश का लाक्षणिक अर्थ ‘प्रकाशपूर्ण ज्ञान, आत्मा ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान’ है. (भारतीय साहित्य की अवधारणा (लेख), पाण्डेय शशिभूष्ण शीतांशु). वास्तव में इसी तत्व से भारत की मानसिकता का मूल स्वरूप तय होता है जो आध्यात्मिक है. मैथ्यू आर्नल्ड ने इसे भारत की ‘निष्काम दृष्टि’ (Indian Virtue of detachment) और गोयते ने व्यक्तिगत भावावेग से मुक्त भारतीय कला दृष्टि (India Art without individual passion) कहा है. गीता की शब्दावली में हम इसे ‘अनासक्ति’ कह सकते हैं. इस अनासक्ति के कारण ही भारतीय साहित्य में कवि अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करते दिखाई नहीं देते. भारतीय साहित्य व्यष्टि से समष्टि की ओर जाने की साधना है जो भारतीय मनुष्य की मनोचेतना में गहरी जमी हुई है. यह दृष्टि ईशोपनिषद् के इस कथन से प्रेरणा लेती है – ईशावास्यमिदं सर्वम् (सर्व ईश का वास है). इसी बात को रवींद्रनाथ ठाकुर ‘सीमार माझे असीम तुमि’ कहकर व्यक्त करते हैं तथा निराला कहते हैं – ‘उस असीम में ले जाओ/ मुझे न कुछ तुम दे जाओ.’
यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि आध्यात्मिक दृष्टि का अर्थ धार्मिक या सांप्रदायिक होना नहीं है. भारतीय साहित्य मूलतः मनुष्य के विषय में और मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ को मानता है – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष. इन्हें ही महाकाव्य का प्रयोजन माना गया है. भारतीय साहित्यकार इनका वर्णन कुछ इस प्रकार करता है कि अंततः सौंदर्य और आनंद की स्थापना हो सके.
2. रहस्यात्मक बिंबवाद :
भारतीय साहित्य में यह देखा गया है कि इसमें सौंदर्यबोध और आनंद की अभिव्यक्ति के साथ नीतिबोध जुड़ा हुआ है. भारत की सौंदर्य दृष्टि आध्यात्मिक ध्यान दृष्टि है जिसके उदाहरण के रूप में विभिन्न देव मूर्तियों को देखा जा सकता है. दरअसल भारतीय साहित्य में यथार्थ को बौद्धिकता के साहारे नहीं संवेदना और अनुभूति के सहारे ग्रहण किया जाता है. इसीलिए इसमें रहस्यात्मक बिंबवाद की प्रवृत्ति पाई जाती है. रहस्यात्मक बिंबवाद का अर्थ है रूपकों के प्रयोग द्वारा वस्तुपक्ष को जटिल बनाते हुए सत्य की खोज. उदाहरण के लिए संत कबीर का यह रहस्यात्मक बिंब द्रष्टव्य है-
‘लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल’
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (जिसमें निषेध के द्वारा ब्रह्म की परिभाषा का प्रयास है) से लेकर आधुनिक युग में रवींद्रनाथ ठाकुर और सुब्रह्मण्य भारती आदि भारतीय भाषाओं के कवियों में यह रहस्यात्मक बिंबवाद बार बार दिखाई देता है. इसमें विरोधाभास की सहायता से मूल सत्य की खोज की प्रवृत्ति पाई जाती है. यों कहा जा सकता है कि जिस तरह के मानचित्र का एक स्थाई हिस्सा हिमालय है उसी प्रकार भारतीयता का एक स्थाई हिस्सा आत्मा रूपी एक परम सत्य का खोज है, रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों में –
‘पहले दिन के सूर्य ने प्रश्न किया था
सत्ता के नए आविर्भाव को
कौन तुम ?
उत्तर नहीं मिला.’
3. अद्वैत :
वेदांत की अद्वैतवादी अवधारणा भारतीय साहित्य में निहित भारतीयता का एक प्रमुख आद्यरूप (Archetype) है. इसके अनुसार पारमार्थिक सत्ता एक मात्र सत्ता है जिसे प्राकृतिक सत्ता के द्वारा समझा जा सकता है. ब्रह्म और प्रकृति की इस दोहरी भावना को भारतीय साहित्यकारों ने अनेक रूपकों द्वारा स्पष्ट किया है. शिव और शक्ति या अर्द्धनारीश्वर भी इसी प्रकार का एक रूपक है. दरअसल यह एक ऐसा युग्म है जिसका एक पक्ष अविकारी है जिसे स्रष्टा, शिव, सत्य, काल या आत्मा कहा गया है. दूसरा पक्ष गतिशील है, परिवर्तनशील है जिसे सृष्टि या शक्ति कहा गया है. यह नए नए रूपों में जन्म लेती है. आत्मा और देह ही पुरुष और प्रकृति है. इसलिए देह को लेकर यहाँ कोई पाप बोध नहीं हैं. शिव-पार्वती और राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं को यहाँ अनैतिक कहकर नकारा नहीं जाता बल्कि इसे आत्मा और प्रकृति की सदा चलने वाली लीला माना जाता है. निराला के शब्दों में –
‘नव जीवन की प्रबल उमंग, जा रही मैं मिलने के लिए पार कर सीमा
प्रियतम असीम के संग.’
देह प्रेम को यहाँ जीवन चक्र के लिए सहज माना गया है. इसीलिए ‘कामसूत्र’ में यह कहा गया है कि शयनकक्ष में सिरहाने मूर्ति होनी चाहिए. मलयालम के कवि शंकर कुरुप की कविता यहाँ द्रष्टव्य है –
मैंने उसके पैरों में लगे आलता का लाल रंग देखा
मगर मुझे लगा कि उषा शरमाई हुई है.
वह आसमान में अपनी अंगूठी छोड़ गई है.
मगर मुझे लगा, नहीं वह तो सूर्य है.
4. आदर्शवाद :
भारतीय साहित्य के एक अन्य आद्यप्रारूप के तौर पर आदर्शवाद की पहचान की गई है. इंद्रनाथ चौधुरी ने लक्षित किया है कि भारतीय साहित्य में तनाव और संघर्ष है परंतु चरम विरोध नहीं है. यहाँ संघर्ष दो व्यक्तित्वों की टकराहट नहीं, इच्छा और आदर्श का सघर्ष है जिसमें अंततः आदर्श की विजय होती है. इसीलिए यहाँ ट्रेजिक साहित्य बहुत ही कम लिखा गया है. ‘गोदान’ में एक ही मृत्यु होती है मगर सात ही सबका हृदय परिवर्तन होता है. वस्तुतः यहाँ मृत्यु नहीं होती. मृत्यु के बाद जीवन ही यहाँ नियम है. अर्थात यहाँ पतझड़ और वसंत एक निरंतर/ सतत प्रक्रिया के दो अंग हैं.
भारतीय साहित्य के आदर्शवादी होने का दूसरा कारण चक्राकार काल की संकल्पना है जिसके अनुसार जीवन और मृत्यु एक ही काल प्रवाह के दो बिंदु हैं और मृत्यु से नया जीवन आरंभ होता है. मोक्ष मिलने तक यह क्रम चलता रहता है (आवागमन से मुक्ति). यही कारण है कि भारतीय साहित्य में ट्रेजडी नहीं बल्कि सम्पूर्ण जीवन का चित्र अंकित करने की परम्परा है. यदि भारतीय कवि दुःख को जीवन का मूल तत्व बताते हैं तो इसे पाश्चात्य साहित्य में वर्णित मेलेंकली (यातना) नहीं समझना चाहिए बल्कि यह भारत की एक विशिष्ट मानसिकता है जो यातना और दुःख के द्वारा भी जीवन के सकारात्मक पक्ष को खोजती है. यहाँ हम अज्ञेय की निम्नलिखित पंक्तियों को याद कर सकते हैं –
“दुःख सबको माँजता है
और
चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने, किंतु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्त रखें.”
इसी प्रकार जब रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि कली के भीतर खुशबू अंधी होकर रो रही है’ तो इस कथन में हमें दुःख का चरम सुंदर रूप दिखाई पड़ता है. यही भारतीय साहित्य का अस्तित्व बोध है जहाँ दुःख और आनंद,बुद्धि और अबौद्धिकता, अस्तित्व और विचार एक दूसरे के पूरक हैं.
5. मानवतावाद :
भारतीय साहित्य की भारतीयता का चरमोत्कर्ष उसके भव्य और प्रखर मानवतावाद में दिखाई देता है. उपनिषदों की कल्पना है कि मनुष्य स्वयं ईश्वर है – ‘अहम ब्रह्मास्मि’. महाभारत में मनुष्य को दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य कहा गया है. चंडीदास हों या पंत, व्यास हों या वाल्मीकि, शरत हों या प्रेमचंद - सभी मनुष्य को सर्वोपरि सत्य मानते हैं. मनुष्य को देवताओं से भी श्रेष्ठ माना गया है. इसी कारण हमारे साहित्य में नायक का धीर होना अनिवार्य माना गया है. धीरता के द्वारा ही महाकाव्य का नायक हमारे लिए अनुकरणीय बनता है. भारतीय साहित्य में नायक पूजा को मनुष्य की असीम शक्ति के प्रति लेखक की श्रद्धा का निवेदन माना जा सकता है. मध्ययुगीन भक्ति काव्य में विश्वमानवता का आदर्श देखा जा सकता है तो दूसरे ओर तमिल के प्रसिद्ध काव्य ‘तिरुकुरळ’ में तिरुवल्लुवर ने कहा है – जो भी हो मेरा पड़ोसी हैं, जहाँ भी हो मेरा देश है. अर्थात इस मानवतावाद में न कोई पराया है और न ही परदेश है. इसीका नाम वसुधैव कुटुंबकम है. इस मानवतावाद के दो आधारतत्व हैं. एक त्याग और दूसरा भक्ति. वास्तव में मानवतावाद की यह व्यापक धारणा नैतिकता और सौंदर्यबोध पर आधारित है जिसके द्वारा मनुष्य में विद्यमान देवत्व को प्रकट किया जाता है.
निष्कर्ष :
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि एक ‘सर्वभारतीय संवेदना’ भारतीय साहित्य के केंद्र में स्थित है. आधुनिक भारतीय साहित्य भले ही विभिन्न भाषाओं में लिखा जाता हो लेकिन उसमें भी यह संवेदना दिखाई पड़ती है जिसमें वे मूल्य निहित हैं जो भारतीय सांस्कृतिक इतिहास और अनुभव की उपलब्धियां हैं. ये मूल्य ही भारतीय साहित्य की भारतीयता के नियामक तत्व हैं.
संदर्भ :
1. तुलनात्मक साहित्य की भूमिका – इंद्रनाथ चौधुरी, 1983, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास, टी.नगर, चेन्नई - 600017
2. भारतीय साहित्य : अवधारणा, समन्वय एवं सादृश्य, (सं) जगदीश यादव, 2011, सिंघई पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-654, सेक्टर – 2, आर.एस.यूनिवर्सिटी, रायपुर - 492010
3. कविता की जातीयता, डॉ.कविता वाचक्नवी, 2009, हिंदुस्तान एकेडेमी, 12 डी, कमला नेहरू मार्ग, इलाहाबाद – 211001
4. भारतीय साहित्य की पहचान, (सं) डॉ.सियाराम तिवारी, 2009, नालंदा खुला विश्वविद्यालय, तीसरा तल, बिस्कोमान भवन, पश्चिमी गांधी मैदान, पटना - 800001
1 टिप्पणी:
very nice article.. Thank you for the information..
Dr. D. Nageswara Rao
Assistant Professor of Hindi,
SCSVMV University,
kanchipuram 631561
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