रविवार, 25 सितंबर 2016

हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश

   
“मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्छा)। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण-भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सब कुछ बह जाते हैं।“ (हजारीप्रसाद द्विवेदी) 

भारतवर्ष के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के सपने देखने वाले, मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा की बात करने वाले, सभ्यता और संस्कृति के अर्थ को समझाने वाले आकाशधर्मी साहित्यकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में कुछ कहना या लिखना आसान नहीं हैं। द्विवेदी जी प्रखर आलोचक के साथ-साथ कवि, समीक्षक, निबंधकार और उपन्यासकार हैं। यह देखा जा सकता है कि उनके हर लेखन का केंद्र मनुष्य है। उनकी हर बात मनुष्य से शुरू होकर मनुष्य में समाप्त होती है। मानवता के प्रति गहन आस्था रखने वाले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में निहित परिवेश का मूल्यांकन डॉ. मृगेंद्र राय ने अपनी आलोचनात्मक कृति ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश’ में बखूबी किया है। 1996 में प्रकाशित इस कृति को पाठकों ने बहुत सराहा; अतः विषय की सार्थकता को दृष्टि में रखकर 2015 में उसे संशोधन एवं परिवर्धन के साथ नेशनल पब्लिशिंग हाउस से पुनः प्रकाशित किया गया है। 

मृगेंद्र राय ने अपनी इस पुस्तक में राजनीति, समाज, धर्म, संस्कृति और प्रकृति को कसौटियों के रूप में अपनाकर द्विवेदी जी के उपन्यास साहित्य में निहित परिवेश का मूल्यांकन किया है क्योंकि ये पाँचों ही परिवेश के प्रमुख पक्ष हैं। उपन्यास साहित्य को खँगालने से पहले उन्होंने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दिया है। साथ ही उपन्यास और परिवेश के अंतःसंबंध को रेखांकित किया है। परिवेश के पूर्वोक्त पाँच प्रमुख पक्षों (राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक) के आधार पर आगे द्विवेदी जी के उपन्यास साहित्य का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। 

द्विवेदी जी के उपन्यासों में निहित राजनैतिक परिवेश को उभारने के लिए ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ के पाठ की सूक्ष्म विवेचना की गई है। मृगेंद्र राय यह प्रतिपादित करते हैं कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में द्विवेदी जी ने जिस राजनैतिक परिवेश के यथार्थ को प्रस्तुत किया है, उसमें वस्तुतः राष्ट्र हित की चेतना मुखरित है। इसके पीछे मानव जाति की कल्याण भावना निहित है। इसीलिए द्विवेदी जी ने बाणभट्ट से कहलवाया है, “उठो देवी, आर्यावर्त को बचाना है, म्लेच्छ से देश को बचाना है, मनुष्य जाति को बचाना है।“ (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ. 231)। ‘चारुचंद्रलेख’ में चित्रित राजनैतिक परिवेश 12वीं-13वीं शताब्दी का है। उस समय एकता का नितांत अभाव था, आपसी रंजिश चरम पर थी, मनमुटाव के कारण विदेशी आक्रमणकारियों ने लाभ उठाया। मृगेंद्र राय कहते हैं कि “प्रजातंत्र की सफलता के लिए शासक और शासित जनता की निकटता एवं एकमेव की स्थिति जरूरी है। राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं गौरव को त्याग, बलिदान और स्वार्थ से ऊपर उठे बिना नहीं साधा जा सकता।“ (मृगेंद्र राय, हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में परिवेश, पृ. 36)। ‘पुनर्नवा’ में यह दिखाया गया है कि राजनैतिक धरातल पर देश कैसे छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त है। ‘अनामदास का पोथा’ में आचार्य औदुंबरायण के माध्यम से यह कहा गया है कि “राजा जब तक स्वयं जागरूक न हो तो राजकर्मचारी शिथिल हो जाते हैं, मुस्तैदी से काम नहीं करते।“ मृगेंद्र राय का कहना है कि लेखक ने “तत्कालीन राजनैतिक परिवेश से प्रजा के हित में शासक वर्ग की दायित्व चेतना को सफलतापूर्वक संकेतित किया है।“ (वही, पृ. 45)। 

द्विवेदी जी के उपन्यासों का विश्लेषण सामाजिक दृष्टि से करने पर यह स्पष्ट होता है कि विवेच्य कालावधि में समस्त सामाजिक परिवेश असत्य पर आधृत था। मृगेंद्र राय तत्कालीन सामाजिक समस्याओं की तुलना आज से करते हुए कहते हैं कि “नारी की उपेक्षा, अपमान, नारी को गणिका, परिचारिका, नर्तकी, देवदासी आदि बनाने के लिए पुरुष की विलासी प्रवृत्ति उत्तरदायी है। तत्कालीन समाज में इससे असत्य, पाखंड और दंभ का बोलबाला दिखाई देता है। यदि हम वर्तमान समाज को देखें तो स्थितियों में तमाम क़ानूनों के बावजूद कोई खास बदलाव नज़र नहीं आता।“ (वही, पृ. 51)। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि तत्कालीन समाज में भी जाति व्यवस्था चरम पर थी। सामाजिक एकता के लिए भाईचारे की भावना अनिवार्या है। इसीलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में भट्टिनी के माध्यम से यह चिंता व्यक्त की कि “एक जाति दूसरी जाति को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़कर अशांति का कारण और क्या हो सकता है, भट्ट? तुम्हीं ऐसे हो जो नर-लोक से लेकर किन्नर लोक तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय, एक ही करुणायित चित्त को हृदयंगम करा सकते हो।“ मृगेंद्र राय यह प्रतिपादित करते हैं कि जातिगत संकीर्णता और अहंकार से ऊपर उठने पर ही देश का हित संभव है। 

मनुष्य जीवन को सही दिशा दिखाने का काम करता है धर्म। लेकिन आजकल यह भी देखा जा सकता है कि धर्म के नाम पर लोगों के विश्वासों से कैसे-कैसे खेला जा रहा है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों से यह स्पष्ट है कि यह स्थिति उस समय के सामज में भी देखी जा सकती है। उन दिनों भी समाज में धार्मिक मिथ्याचार, बाह्याडंबरों की बहुलता थी। धर्म के नाम पर तमाम लोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे थे। आज भी यही स्थिति तो है। अतः मृगेंद्र राय का कहना है कि “उपन्यासकार सहज ही निवृत्ति का नहीं, वरन उस प्रवृत्ति मार्ग का समर्थन करता है। इस प्रकार लोक से जुड़ने एवं लोक की सेवा में ही वह जीवन की सार्थकता मान्य करता दीख पड़ता है।“ (वही, पृ. 98)। 

हजारीप्रसाद द्विवेदी संस्कृतिचिंतक हैं। वे प्रकृति के माध्यम से संस्कृति की यात्रा करने वाले रचनाकार हैं। यही कारण है कि उनके उपन्यासों में प्रकृति चित्रण विविध रूपों में द्रष्टव्य है। साथ ही, वे यह मानते हैं कि जिस देश की संस्कृति जितनी अधिक विकसित होगी वह देश उतना ही विकसित होगा। मृगेंद्र राय ने यह प्रतिपादित किया है कि “सांस्कृतिक परिवेश राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक होता है। संस्कृतिविहीन समाज आज भी पंगु माना जाता है। तत्कालीन समाज के लोग हर्षोल्लास के साथ उत्सवों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे। यह उनके जीवन जीने की कला की ओर ही संकेत करता है।“ (वही, पृ. 106)। 

मृगेंद्र राय विवेचन-विश्लेषण के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों का अध्ययन करते हुए यह सहज ही अनुभव किया जा सकता है कि राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक परिवेश, द्वैत-अद्वैत भाव से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। उनकी संश्लिष्ट उपस्थिति अपने इंद्रधनुषी सौंदर्य से पाठक को अभिभूत किए बिना नहीं रहती। इस स्थिति में पाठक उपन्यास-युग में विचरण करते हुए उसमें वर्णित वस्तु का साक्षात्कार करने के साथ-साथ उसकी मूल चेतना की ओर भी अभिमुख होता है।“ (वही, पृ. 145)। 

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