(इस लेख के लेखक डॉ रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं.)
गांधी युग से पूर्व तक हिंदी का प्रचार, साहित्यिक धरातल पर, प्रयाग का हिंदी साहित्य सम्मलेन करता था, काशी की नागरी प्रचारिणी सभा करती थी. स्वामी दयानंद हिंदी को आर्य भाषा कहते थे और उसका प्रचार उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में किया था. जहाँ तक हिंदी के शिक्षा का माध्यम होने का प्रश्न है, इस दिशा में भी आदिप्रयाग आर्यसमाजियों ने आरंभ किए थे तथा स्वामी श्रद्धानंद (पं.मुंशीराम) जी महाराज ने गुरुकुल की स्थापना करके इस कार्य का श्रीगणेश कर दिया था. किंतु, अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी के विधिवत प्रचार दिशा में तब तक कोई कदम उठाया नहीं गया था. तब हिंदी साहित्य सम्मलेन के इंदौर अधिवेशन (मार्च सन 1918 ई) के सभापति महात्मा गांधी चुने गए.
गांधी युग से पूर्व तक हिंदी का प्रचार, साहित्यिक धरातल पर, प्रयाग का हिंदी साहित्य सम्मलेन करता था, काशी की नागरी प्रचारिणी सभा करती थी. स्वामी दयानंद हिंदी को आर्य भाषा कहते थे और उसका प्रचार उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में किया था. जहाँ तक हिंदी के शिक्षा का माध्यम होने का प्रश्न है, इस दिशा में भी आदिप्रयाग आर्यसमाजियों ने आरंभ किए थे तथा स्वामी श्रद्धानंद (पं.मुंशीराम) जी महाराज ने गुरुकुल की स्थापना करके इस कार्य का श्रीगणेश कर दिया था. किंतु, अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी के विधिवत प्रचार दिशा में तब तक कोई कदम उठाया नहीं गया था. तब हिंदी साहित्य सम्मलेन के इंदौर अधिवेशन (मार्च सन 1918 ई) के सभापति महात्मा गांधी चुने गए.
इंदौरवाले सम्मलेन का भाषण तैयार करने के पूर्व गांधी जी ने रवींद्रनाथ, एनी बेसेंट, मालवीयजी, तिलकजी आदि देश के कुछ बड़े नेताओं से इस बारे में पत्र व्यवहार द्वारा राय-मशविरा किया था कि -
- क्या हिंदी (भाषा या उर्दू) अंतःप्रांतीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्यवाहियों के लिए उपयुक्त एकमात्र राष्ट्रीय भाषा नहीं है?
- क्या हिंदी कांग्रेस के आगामी अधिवेशनों में मुख्यतः उपयोग में लाई जानेवाली भाषा न होनी चाहिए?
- क्या हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों में ऊँची शिक्षा देशी भाषाओं के माध्यम से देना वांछनीय और संभव नहीं है? और क्या हमें प्रारंभिक शिक्षा के बाद हिंदी को अपने विद्यालयों में अनिवार्य द्वितीय भाषा नहीं बना देना चाहिए?
"मैं महसूस करता हूँ कि यदि हमें जन साधारण तक पहुँचना है और यदि राष्ट्रीय सेवकों को सारे भारतवर्ष के जन साधारण से संपर्क करना है, तो उपर्युक्त प्रश्न तुरंत हल किए जाने चाहिए." (सं.गां.वां., खंड 14, पृ. 149-150).
सभी नेताओं ने गांधीजी को अनुकूल उत्तर भेजे. कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिका था - "वास्तव में भारत में अंतःप्रांतीय व्यवहार के लिए उपयुक्त राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही है. किंतु मैं समझता हूँ कि दीर्घकाल तक इसे हम लागू नहीं कर सकेंगे."
भाषा के संबंध में गांधी जी के अपने विचार पूर्णरूप से परिमार्जित और प्रौढ़ हो चुके थे. फिर भी इंदौर जाने से पहले उन्होंने अपने समकालीन नेताओं से मत लेकर अपने विश्वास को और भी पुष्ट बना लिया. 29 मार्च सन 1918 ई. को इंदौर में सभापति के मंच से गांधी ने जो भाषण दिया, उसके कुछ मुख्य अंश नीचे उद्धृत किए जाते हैं -
"यह भाषा का विषय बड़ा भारी और बड़ा ही महत्वपूर्ण है. यदि सब नेता सब काम छोड़कर केवल इसी विषय पर लगे रहें, तो बस है."
"शिक्षित वर्ग, जैसा कि माननीय पंडितजी (मालवीयजी) ने अपने पत्र में दिखाया है, अंग्रेज़ी के मोह में पड़ गया है और अपनी राष्ट्रीय मातृभाषा से उसे असंतोष हो गया है."
"हमें ऐसा उद्योग करना चाहिए कि एक वर्ष में राजकीय सभाओं में, कांग्रेस में, प्रांतीय भाषाओं में और अन्य समाज और सम्मेलनों में अंग्रेज़ी का एक भी शब्द सुनाई नहीं पड़े. हम अंग्रेज़ी का व्यवहार बिलकुल त्याग दें. ... आप हिंदी को भारत की राष्ट्भाषा बनने का गौरव प्रदान करें."
:हिंदी भाषा की व्याख्या का थोड़ा-सा ख्याल करना आवश्यक है. मैं कई बार व्याख्या कर चुका हूँ कि हिंदी भाषा है, जिसको उत्तर में हिंदू व मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी अथवा फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है. यह हिंदी एकदम संस्कृतमयी नहीं है. न वह एकदम फ़ारसी शब्दों से लड़ी हुई है. देहाती बोली में मैं जो माधुर्य देखता हूँ, वह न लखनऊ के मुसलमान भाइयों की बोली में, न प्रयाग के पंडितों की बोली में पाया जाता है. भाषा वही श्रेष्ठ है, जिसको जनसमूह सहज में समझ ले."
"हिंदू-मुसलामानों के बीच जो भेद किया जाता है, वह कृत्रिम है. ऐसी ही कृत्रिमता हिंदी व उर्दू भाषा के भेद में है. हिंदुओं की बोली से फ़ारसी शब्दों का सर्वथा त्याग और मुसलमानों की बोली में संस्कृत का सर्वथा त्याग अनावश्यक है. दोनों का स्वाभाविक संगम गंगा-जमुना के संगम-सा शोभित और अचल रहेगा. मुझे उम्मीद है कि हम हिंदी-उर्दू के झगड़े में पड़कर अपना बल क्षीण नहीं करेंगे. लिपि की कुछ तकलीफ़ ज़रूर है. मुसलमान भाई अरबी लिपि में ही लिखेंगे, हिंदू बहुत करके नागरी में लिखेंगे. राष्ट्र में दोनों लिपियों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए. इसमें कुछ कठिनाई नहीं है. अंत में जिस लिपि में ज्यादा सरलता होगी, उसकी विजय होगी.
"आज भी हिंदी से स्पर्धा करनेवाली कोई दूसरी भाषा नहीं है. हिंदू-उर्दू का जह्ग्दा छोड़ने से राष्टभाषा का सवाल सरल हो जाता है. हिंदुओं को फ़ारसी के शब्द थोड़े बहुत जानने पड़ेंगे. इस्लामी भाइयों को संस्कृत शब्दों का ज्ञान संपादन करना पडेगा. ऐसी लें-दें से इस्लामी भाषा का बल बढ़ जाएगा और हिंदू-मुसलामानों की एकता का एक बहुत बड़ा साधन हमारे हाथ में आ जाएगा. अंग्रेज़ी भाषा का मोह दूर करने के लिए इतना अधिक परिश्रम करना पडेगा कि हमें लाजिम है कि हम हिंदी-उर्दू का झगडा न उठावें." (सं.गां.वां., खंड 24, पृ. 279-280).
गांधी जी आरंभ से ही सोचते आ रहे थे कि जो भाषा उत्तर के हिंदुओं, मुसलामानों, सिक्खों, पारसियों और क्रिस्तानों की रूचि की भाषा होगी, उसी भाषा को सारे देश को ग्रहण करना चाहिए. इस बार उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मलेन के मंच से उसे भाषा की सिफारिश की और सम्मलेन ने उसे पसंद किया.
जहां तक अंग्रेज़ी का सवाल है, गांधी जी ने अपने इंदौरवाले भाषण में कहा था - "कहना आवश्यक नहीं कि अंग्रजी भाषा से मैं द्वेष नहीं करता हूँ. अंग्रेज़ी साहित्य भंडार से मैंने भी बहुत रत्नों का उपयोग किया है. अंग्रेज़ी भाषा की मार्फ़त हमें विज्ञान आदि का खूब ज्ञान लेना है. अंग्रेज़ी का ज्ञान भारतवासियों के लिए बहुत आवश्यक है. लेकिन इस भाषा को उसका उचित स्थान देना एक बात है, उसकी जड़-पूजा करना दूसरी बात है."
अंग्रेज़ी का उचित स्थान इस देश में ज्ञान की भाषा का स्थान (लैंग्वेज ऑफ कांप्रेहेंशन) ही हो सकता है, शिक्षा और शासन के कार्य तो इसी देश की भाषाओं में किए जाने चाहिए. और यह केवल इसलिए नहीं कि उससे हमारे स्वाभिमान की रक्षा होती है, बल्कि इसलिए कि शासन और न्याय के काम जब जनता की भाषा में चलते हैं, तब उनसे जनता की शिक्षा होती है.
"हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक प्रजा की राजनैतिक कार्यों में ठीक तालीम नहीं मिलती है. हमारे हिंदी अखबार इस कार्य को थोड़ा-सा करते हैं, लेकिन प्रजा को तालीम अनुवाद से नहीं मिल सकती है. हमारी अदालतों में ज़रूर राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषा का प्रचार होना चाहिए. न्यायाधीशों की मार्फ़त जो तालीम हमको सहज ही मिल सकती है, उस तालीम से आज प्रजा वंचित रह जाती है."
"जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं."
सन 1918 ई. वाले इंदौर सम्मलेन में दो बातें बड़े महत्त्व की रहीं. एक तो यह कि गांधीजी ने सम्मलेन के मंच से अपनी हिंदी विषयक कल्पना की व्याख्या प्रस्तुत की और सभा ने उसे पसंद किया. और दूसरा वह प्रस्ताव (इस प्रस्ताव का आशय यह था कि प्रति वर्ष छह दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने को प्रयाग भेजे जाएँ और हिंदी भाषा भाषी छह युवकों को दक्षिणी भाषाएँ सीखने तथा साथ साथ वहाँ हिंदी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजे जाए.) जिसके द्वारा दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की आवश्यकता पर जोर दिया गया था. उस समय दक्षिण के चारों भाषा भाषी प्रदेश एक ही मद्रास प्रेसिडेंसी के अंग थे और गांधीजी राष्ट्रभाषा की कठिनाई को सबसे ऊपर मानते थे. "सबसे कठिन मामला द्राविड भाषाओं के लिए है. वहाँ तो कुछ प्रयत्न ही नहीं हुआ है. हिंदी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करना चाहिए."
दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार के लिए इंदौर सम्मलेन ने कुछ सदस्यों की एक समिति बनाई, जिसमें गांधी जी और टंडनजी भी थे. इसी सम्मलेन में दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के लिए महाराज होलकर और सेठ सर हुकुमचंद ने दस-दस हजार रुपयों के दान दिए. प्रचार के लिए सम्मेलन ने जो प्रस्ताव स्वीकृत किया, उसमें यह बात थी की हिंदी सीखने के लिए दक्षिण के छह नवयुवक उत्तर भारत बुलाए जाएँ.
इंदौर सम्मलेन 29 मार्च को हुआ था. 31 मार्च को गांधीजी ने समाचार पत्रों को एक छोटा-सा लेख भेजा, जिसमें उन्होंने हिंदी प्रचार समिति की रचना का जिक्र किया और कहा कि "हम ऐसे छह तमिल और तेलुगु भाषी होनहार और सच्चरित तरुणों के नाम चाहते हैं, जो तमिल और तेलुगु भाषी जनता में हिंदी का प्रचार करना ही जीवन का ध्येय बनाने की दृष्टि से हिंदी सीखना शुरू करें. प्रस्ताव के अनुसार इन्हें इलाहाबाद या बनारस में रखकर हिंदी सिखाई जाएगी. वैसे तो देश में एक बड़ा प्रबल आंदोलन खड़ा होना चाहिए, जो हिंदी को द्वितीय भाषा के रूप में पब्लिक स्कूलों में लागू कराने पर शिक्षा अधिकारियों को विवश कर दे. परंतु सम्मलेन ने महसूस किया कि मद्रास प्रांत में हिंदी का प्रचार तुरंत ही आरंभ किया जाना चाहिए. इसीलिए उपर्युक्त प्रस्ताव रखा गया है. .... समिति हिंदी सिखाने के लिए इच्छुक लोगों को निःशुल्क पढ़ाने के लिए तमिल और आंध्र जिलों में हिंदी अध्यापक भेजने की बात सोच रही है." (सं.गां.वा., खंड 14, पृ.284).
गांधी जी गर्म लोहे को ठंडा होने देनेवाले आदमी नहीं थे. सम्मलेन के बाद उन्होंने दक्षिण के कुछ प्रमुख नेताओं से लिखा-पढ़ी की और अखबारों में लेख भी लिखे. 'गांधी जी के उक्त विचारों को पढ़कर दक्षिण के कुछ उत्साही, देशप्रेमी युवकों का ध्यान हिंदी की ओर आकृष्ट हुआ. उन्होंने हिंदी पढ़ने की इच्छा प्रकट करते हुए गांधी जी से प्रार्थना की कि हिंदी पढ़ाने के लिए एक सुयोग्य अध्यापक को दक्षिण में भीजा जाए.' इस प्रार्थना पर गांधी जी चुप नहीं रह सकते थे, न वे इस बात का इंतज़ार कर सकते थे कि दक्षिण जाने को तैयार युवक कब और कहाँ मिलेंगे. निदान, हिंदी की सेवा के लिए उन्होंने अपने सबसे छोटे बेटे और मेधावी पुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेज दिया. देवदास की उम्र उस समय केवल अठारह वर्ष की थी. यह 12 मई, सन 1918 ई. की बात है.
मद्रास में हिंदी का पहला वर्ग ता. 12 मई, 1918 ई. में ही खुला और उसका उदघाटन समारोह होमरूल लीग के दफ्तर ब्राडवे में मनाया गया. इस समारोह की अध्यक्षता डॉ.सी.पी.रामस्वामी ऐय्यर ने की थी. अध्यक्ष और उद्घाटिका, दोनों ने दक्षिण में हिंदी प्रचार योजना की भूरि भूरि प्रशंसा की और लोगों का आह्वान किया कि वे इस योजना को हर तरह से सफल बनाएँ.
हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो, यह बात बोली तो बहुत दिनों से जा रही थी, किंतु अब तक किसी भी नेता ने इस विचार को सक्रीय बनाने का प्रयास नहीं किया था. यह गांधी जी के व्यक्तित्व की महिमा थी कि वे जिस कार्य का शुभारंभ करते थे, देश उसे अपना पुनीत कार्य मानकर अपना लेता था. गांधी जी के उत्साह का प्रभाव एनी बेसेंट पर इस जोर से पड़ा कि अपने दैनिक पत्र 'न्यू इंडिया' में वे अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ हिंदी लेख भी प्रकाशित करने लगीं. "वे हिंदी का राष्ट्रभाषा होना अत्यंत आवश्यक और अंग्रेज़ी का इस देश की राष्ट्रभाषा बन जाना देश के लिए खतरनाक समझती थीं. उनका कहना था कि जिस दिन अंग्रेज़ी हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हो जाएगी, उस दिन समझ लेना चाहिए कि हमारी बरबादी शुरु हो गई. उनकी राय में एक देश के मुट्ठी-भर लोगों का दूसरे देश के करोड़ों लोगों पर हुकूमत करना देश की भारी मुसीबत है, तिसपर भी उस देश की भाषा को मिटाकर विदेशी भाषा को वहाँ की जनता पर ज़बर्दस्त थोप देना अत्यंत विनाशकारी कार्य है." (दक्षिण में हिंदी प्रचार आंदोलन का समीक्षात्मक इतिहास, लेखक : श्री पी.के.केशवन नायर).
इंदौर सम्मलेन के प्रस्ताव के अनुसार दक्षिण के छह युवकों को हिंदी सीखने को प्रयाग जाना था. ठीक छह तो नहीं, किंतु पांच युवक और युवतियाँ गांधी जी से प्ररित होकर हिंदी सीखने को प्राय्ग गए. ये पाँच व्यक्ति थे, पंडित हरिहर शर्मा और उनकी सहधर्मिणी, श्री बंदेमातरम सुब्रह्मण्यम और उनकी सहधर्मिणी तथा पंडित शिवराम शर्मा. और जो शिक्षक इन्हें हिंदी पढ़ाते थे, उनके नाम थे श्री हरिप्रसाद द्विवेदी (वियोगी हरि) और पंडित गणेशदीन त्रिपाठी.
गांधी जी का पुण्य प्रताप इतना बड़ा था कि जब देवदास जी ने मद्रास में हिंदी वर्ग आरंभ किया, उसमें हिंदी पढ़ने को मद्रास के कुछ बहुत अच्छे लोग आ गए, जिनमें से सर्वश्री सदाशिव ऐय्यर (हाईकोर्ट के न्यायाधीश), श्री वेंकटराम शास्त्रीय (सुप्रसिद्ध वकील), श्री के.भाष्यम अय्यंगार, श्री एन.सुन्दर ऐय्यर, श्रीमती अम्बुजम्माल, श्रीमती दुर्गाबाई, श्रीमती रुक्मिणी लक्ष्मीपति आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. मद्रास में जो हिन्दी कार्य आरम्भ हुआ, उसका समर्थन केवल एनी बेसेंट की 'न्यू इंडिया' ही नहीं , मद्रास के सुप्रसिद्ध दैनिक 'हिन्दू' आदि भी करते थे.
इंदौर सम्मेलन के प्रस्तावानुसार तथा गांधी जी की प्रेरणा से उत्तर भारत के जो युवक धीरे धीरे दक्षिण गए, उनमें से पं.रामानंद शर्मा श्री क्षेमानंद राहत, हरी रामभरोसे श्रीवास्तव, पं.हृषकेश शर्मा, पं.अवधनंदन, पं.रघुवरदयाल मिश्र, श्री जमुनाप्रसाद, पं.देवदूत विद्यार्थी, पं.रामगोपाल शर्मा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. सन 1918 ई. में परिव्राजक स्वामी सत्यदेव भी हिन्दी प्रचारक बनकर मद्रास पहुँच गए थे.
मद्रास में हिन्दी प्रचार का कार्य ज्यों ज्यों बढ़ता गया, त्यों त्यों धन की आवश्यकता भी बढ़ती गई. इंदौर से सेठ हुकुमचंद और महाराज होलकर से बीस हजार की रकम गांधी जी को मिली थी और गांधी जी ने उसे सम्मलेन को दे दिया था, क्योंकि मद्रास का कार्य सम्मलेन का ही कार्य समझा जाता था. सन 1920 ई. में अग्रवाल महासभा ने 50 हजार और श्री घनश्यामदास बिड़ला ने 10 हजार रूपए इस कार्य के लिए गांधी जी को दी. आरम्भ में इसी धनराशि से दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार का कार्य चलता रहा.
सन 1920 ई. तो भारतीय क्षितिज पर महामा गांधी रूपी सूर्य के उदय का वाढ बन गया. उस समय से गांधी जी ने हिन्दी प्रचार के कार्य को देश के तीन सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में स्थान दे दिया. जब वे होमरूल लीग से सम्बद्ध हुए, अपने वक्तव्य में उन्होंने घोषणा की कि "मेरी राय में स्वराज्य शीघ्र प्राप्त करने का साधन स्वदेशी, हिन्दू-मुस्लिम- ऐक्य, हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा मानना और प्रान्तों का भाषाओं के अनुसार नए सिरे से निर्माण करना है. इसलिए लीग को मैं इन कामों में लगाना चाहता हूँ. (कांग्रेस का इतिहास, 151).
सन 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन के चलते सारा देश राष्ट्रीयता के आवेश से हिलने लगा और प्रायः प्रत्येक प्रांत में राष्ट्रीय विद्यापीठ, कॉलेज और स्कूल खुल गए, जिनमें प्रधानता अंग्रेज़ी की नहीं वरन हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं की थी. शिक्षा के क्षेत्र में यह नया आन्दोलन था तथा उससे हिन्दी का पक्ष, आपसे आप, प्रबल हो गया.
तमिलनाडु का सर्वप्रथम हिन्दी प्रचारक विद्यालय सन 1922 ई. में इरोड में खुला. उसका उदघाटन पं.मोतीलाल नेहरु ने किया था. और वह विद्यालय द्रविड़ कळकम के प्रसिद्ध नेता श्री ई.वी.रामस्वामी नायकर के मकान पर खोला गया था.
दक्षिण में हिन्दी का जो प्रचार कार्य चल रहा था, उसका निरीक्षण करने को बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन सन 1925 ई. में दक्षिण भारत गए. उसी अवसर पर उनकी भेंट कामकोटि (कांची के) शंकराचार्यजी से हुई. स्वामी ने हिन्दी, कार्य करने के लिए एक सौ रूपए का दान किया.
गांधी जी अपनी भाषा नीति का प्रचार बहुत पहले से ही करते आ रहे थे, किन्तु इंदौर सम्मलेन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया और हर मौके पर लोगों को वे यह समझने लगे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना हमारा राष्ट्र कुंठित रहेगा.
हिन्दी शिक्षक की मांग करनेवाले तमिल भाइयों को उन्होंने 19.04.1918 को लिखा - "हम हिन्दी भाषा को हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक परस्पर व्यवहार की आम भाषा बना दें, तो फिर राष्ट्र सेवा करने की हमारी शक्ति कोई भी सीमा स्वीकार नहीं करेगी." (सं.गां.वा., खंड 14, पृ. 340).
26 मार्च, सन 1919 ई. को मदुराई में स्तयाग्रह आन्दोलन पर भाषण करते हुए उन्होंने कहा - "आप में से जिन लोगों को पर्याप्त शिक्षा प्राप्त हुई है, वे यदि यह समझ लेते कि हिन्दी और केवल हिंदी ही भारत की राष्टभाषा बन सकती है, तो आप इस समय तक इसे किसी न किसी तरह सीख लेते. लेकिन हम अपनी गलतियों को अब भी सुधार सकते हैं." (सं. गां. वा., खंड 15, पृ. 161).
28 मार्च सन 1919 ई. को तूत्तुक्कुडि में बोलते हुए उन्होंने कहा - 'जब आप भारत की राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी सीख लेंगे, तो आपके सामने हिन्दी में भाषण करने में मुझे बहुत खुशी होगी. यह आपके ऊपर है कि यदि चाहें तो मद्रास और अन्य स्थानों पर हिन्दी सीखने की जो सुविधा है, उसका लाभ उठाएँ. जब तक आप हिन्दी नहीं सीखते, तब तक आप शेष भारत से अपने को बिलकुल अलग रखेंगे." (सं. गां. वा., खंड 15, पृ. 164).
कांग्रेस जब गांधी जी के प्रभाव में आने लगी, वे यह कोशिश करने लगे कि कांग्रेस के मंच से अधिक से अधिक भाषण हिन्दी में हों.
सन 1919 ई. के दिसंबर में हुई कांग्रेस में ज्यादा भाषण हिन्दी में हुए थे. गांधी जी को यह मलाल था कि इस कांग्रेस के अध्यक्ष का भाषण हिन्दी में क्यों नहीं हुआ. किन्तु श्रीमती एनी बेसेंट ने अपने पत्र में यह लिख डाला कि इस बार की कांग्रेस राष्ट्र्रीय धरातल से उतरकर प्रांतीय धरातल पर चली गई थी, क्योंकि उसमें दिए गए भाषण अंग्रेज़ी में नहीं थे. श्रीमती एनी बेसेंट की इस टिप्पणी आ जवाब देते हुए गांधी जी ने 21 जनवरी सन् 1920 ई. को 'यंग इंडिया' में लिखा - "मुझे उनके (श्रीमती बेसेंट के) इस विचार से कि हिन्दुस्तानी के व्यवाह से कांग्रेस प्रांतीय हो जाती है, सार्वजनिक रूप से मतभेद प्रकट करने में दुःख होता है. कांग्रेस की लगभाग समस्त कार्यवाही पिछले दो सालों के सिवा अब तक अंग्रेज़ी में किए जाने के कारण राष्ट्र को सचमुच काफी हानि पहुँची है. मैं यह तथ्य भी बताना चाहता हूँ कि मद्रास प्रेसिडेंसी के अतिरिक्त अन्य सभी प्रान्तों के राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधियों और दर्शकों में से अधिकाँश अंग्रेज़ी की अपेक्षा हिन्दुस्तानी ही अधिक अमझ सके हैं. इसलिए इसका एक बड़ा ही विचित्र-सा परिणाम यह हुआ है कि इन समस्त वर्षों में कांग्रेस जैसी महती संस्था केवल देखने में राष्ट्रीय रही है, किन्तु वह अपने वास्तविक शैक्षणिक महत्त्व के कारण कभी राष्ट्रीय नहीं रही. इसलिए प्रश्न यह है कि इस प्रेसिडेंसी (मद्रास) के 3 करोड़ 80 लाख लोगों का कर्तव्य है. क्या भारत उनके कारण अंग्रेज़ी सीखे? या वे सत्ताईस करोड़ सत्तर लाख भारतीयों के लिए हिन्दुस्तानी सीखेंगे? स्वर्गीय न्यायमूर्ति कृष्णस्वामी, जिनकी गहनदृष्टि अचूक थी, यह मानते थे कि भारत के विभिन्न भागों के बीच विचारों के आदान-प्रादान का एकमात्र संभावित माध्यम हिन्दुस्तानी ही हो सकती है." (सं. गां. वा., खंड 26, पृ. 511-512).
गांधी जी जो होमरूल लीगवालों ने अपना नेतृत्व करने को कहा, तब भी गांधी जी ने यह शर्त रखी थी कि मैं किसी संस्था में शरीक तभी हो सकता हूँ, जब उसके सदस्य मेरे साथ सहमत हों. इस संबंध में श्री वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री को 18 मार्च, 1920 ई. को उन्होंने जो पत्र लिखा था, उसमें एक प्रमुख शर्त यह रखी थी, कि "हिन्दी और उर्दू के मिश्रण से निकली हुई हिन्दुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में निकट भविष्य में स्वीकार कर लिया जाए. अतएव भावी सदस्य इम्पीरियल काउन्सिल में इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे, जिससे वहां हिन्दुस्तानी का प्रयोग प्रारम्भ हो सके और प्रांतीय कौंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध होंगे जिससे वहां, जब तक हम राष्ट्रीय कामकाज के लिए अंग्रेज़ी को पूरी तरह छोड़ देने की स्थिति में नहीं जाते, तब तक के लिए, कम से कम वैकल्पिक माध्यम के रूप में प्रांतीय भाषाओं का उपयोग प्रारम्भ हो सके. वे हमारे स्कूलों में हिन्दुस्तानी को देवनागरी लिपि या वैकल्पिक रूप में,, उर्दू लिपि के साथ, अनिवार्य द्वितीय भाषा की तरह दाखिल कराने के लिए भी वचनबद्ध होंगे. अंग्रेज़ी को साम्राजीय संपर्क, राजनीतिक संबंध तथाअंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा के रूप में मान्यता दी जाएगी." (सं. गां. वा., खंड 17, पृ. 100-108).
मद्रास में हिंदी प्रचार को बढ़ावा देने के लिए गांधी जी भाषणों और लेखों का प्रयोग करते ही रहते थे. 16 जून सन् 1920 ई. की 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा था - "मुझे पक्का विशवास है कि किसी दिन हमारे द्राविड भाई-बहन, गंभीर भाव से हिंदी का अध्ययन करने लगेंगे. आज अंग्रेज़ी भाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवाँ हिस्सा भी हिंदी सीखने में करें, तो बाकी हिंदुस्तान, जो आज उनके लिए बंद किताब की तरह है, उससे वे परिचित होंगे और हमारे साथ उनका ऐसा तारतम्य स्थापित हो जाएगा, जैसा पहले कभी नहीं था. कोई भी साधारण आदमी एक साल में हिंदी सीख सकता है. मैं अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि द्राविड बालक बहुत आसानी से हिंदी सीख लेते हैं. यह बात शायद ही कोई जानता हो कि दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले सभी तमिल-तेलुगु भाषी लोग हिंदी में खूब अच्छी तरह बातचीत कर सकते हैं." (सं. गां. वा., खंड 17, पृ.534).
सन् 1920 ई. से राष्ट्रीय आंदोलन ज्यों ज्यो जोर पकडता गया, हिंदी का आंदोलन भी उसी अनुपात में बढ़ता गया. सन् 1925 ई. में कानपुर कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पास किया कि "यह कांग्रेस तय करती है कि कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का कामकाज, आम तौर पर, हिंदुस्तानी में चलाया जाएगा. जो वक्ता हिंदुस्तानी में नहीं बोल सकते, उनके लिए या जब जब जरूरत हो तब, अंग्रेज़ी का या किसी प्रांतीय भाषा का इस्तेमाल किया जा सकेगा." (राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी से).
गांधी जी ने अपने सतत चलनेवाले प्रचार से देश में वः हवा पैदा कर दी कि राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में वक्ता जब अंग्रेज़ी में भाषण शुरू करते, तब अहिंदी भाषी श्रोता भी 'हिंदी हिंदी' का नारा लगाने लगते थे. इस नई हवा का असर देश के बड़े लोगों पर भी पड़ने लगा. 6 अप्रैल, सन् 1920 ई. को भावनगर (सौराष्ट्र) में जुग्राती साहित्य परिषद का छठा अधिवेशन हुआ, जिसके सभापति श्री रवींद्रनाथ ठाकुर थे. इस सम्मलेन में पाना अध्यक्षीय भाषण गुरुदेव ने हिंदी में दिया था. भाषण के मुखबंध में उन्होंने कहा था कि "आपकी सेवा में खडा होकर विदेशीय भाषा कहूँ, यह हम चाहते नहीं. पर जिस प्रांत में मेरा घर है, वहाँ सभा में कहने लायक हिंदी का व्यवहार है नहीं. महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिंदी में कहने के लिए. यदि हम समर्थ होता, तब इससे बड़ा आनंद कुछ होता नहीं. असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिंदी में बोलूंगा." (यह सम्पूर्ण भाषण उस समय प्रकाशित 'शांतिनिकेतन' पत्रिका में बंगाक्षरों में छपा था.).
सन् 1925 ई. में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन का अधिवेशन भरतपुर में हुआ था. गुरुदेव श्री रवींद्रनाथ ठाकुर ने उस सम्मलेन में भी पधारने की कृपा की थी और हिंदी में बोलकर हिंदी का पक्ष समर्थन किया.
गांधी जी के प्रचार से तमिलनाडु में हिंदी के प्रति ऐसा उत्साह प्रवाहित हुआ कि प्रांत के सभी बड़े लोग हिंदी का समर्थन करने लगे. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के आजीवन अध्यक्ष स्वयं गांधी जी थे. राजाजी उसके उपाध्यक्ष थे. श्री ई.वी. रामस्वामी नायक्कर हिंदी प्रचार के अत्यंत उत्साही समर्थक थे. तमिल के विख्यात कवी श्री सुब्रह्मण्य भारती भारत की राष्ट्रीय चेतना के जाज्वल्यमान प्रतीक थे और हिंदी प्रचार के प्रति उनकी पूरी सहानुभूति थी. तमिल के दूसरे प्रकांड कवी श्री मुरुगनार, जो अब साधक के रूप में, रमणाश्रम (तिरुवण्णामलै) में रहते हैं, राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने हिंदी के समर्थन में तमिल में एक छोटी-सी कविता भी लिखी थी, जिसका कच्चा-पक्का अनुवाद नीचे दिया जाता है -
श्री राजगोपालाचारी, जो अब राजभाषा हिंदी के कट्टर विरोधी बन गए हैं, उन दिनों हिंदी के भारी समर्थक थे. जनवरी सन् 1930 ई. के 'हिंदी प्रचारक' नामक मासिक पत्र में उन्होंने 'छात्रों से अपील' नामक एल लेख में यों लिखा था - "अगर हिंदुस्तानी भाषा सीखने की आवश्यकता के बारे में अब भी आपको संदेह हो, तो जो लोग पिछली कांग्रेस में गए थे, उनमें से किसी से भी बात करके देख लीजिए. जो प्रतिनिधि लाहौर गए थे और जिन्होंने कांग्रेस को देखा है, वे इस बात की गवाही भरेंगे कि हिंदुस्तानी के ज्ञान के बिना राष्ट्रीय सम्मेलनों में उपयोगी भूमिका अदा करना किसी के लिए भी संभव नहीं है. इस कांग्रेस में सबसे अधिक असुविधा तमिलनाडु के प्रतिनिधियों को हुई, क्योंकि राष्ट्भाषा की जानकारी उन्हें नहीं है. वे आपको बताएँगे कि भारत के किसी भी भाग में यात्रा, वाणिज्य या व्यापार करने के लिए हिंदुस्तानी का ज्ञान कितना जरूरी है. प्रत्येक छात्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने अवकाश के समय का उपयोग राष्ट्रभाषा सीखने के लिए करे. राष्ट्भाषा की शिक्षा स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग होना चाहिए. मगर इसके लिए तब तक इंतज़ार करना बेकार अहि, जब तक शिक्षा के अधिकारियों को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं होता. शिक्षा के अधिकारी जब तक यह नहीं समझते कि भारत के सभी प्रांतों में, लड़कों और लड़कियों के स्कूली पाथ्य्कर्मों में भारत की सामान्य भाषा का स्थान नहीं होना भारी गलती है, तब तक अपनी मदद हमें आप करनी चाहिए. यह भाषा बड़ी आसानी से सीखी जाती है. आप संस्कृत की लिपि सीखकर हिंदुस्तानी तुरंत आरंभ कर सकते हैं." (दक्षिण के हिंदी प्रचार आंदोलन का समीक्षात्मक इतिहास से).
हिंदी प्रचार का कार्य राष्ट्र के रचनात्मक कार्यक्रम का अत्यंत प्रमुख अंग था. हिंदी प्रचारक होना अपने आप में गौरव की बात थी, क्योंकि जो हिंदी प्रचारक होता था, वह गांधी जी का सीधा अनुचर समझा जाता था. समाज में हिंदी प्रचारकों की बड़ी इज्जत थी और वे जो कुछ कहते थे, समाज पर उसका असर पड़ता था.
मद्रास की दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा सन् 1926 ई. तक प्रयाग के हिंदी साहित्य सम्मलेन से संबद्ध रही. सन् 1927 ई. में साहित्य सम्मलेन से सभा का संबंध विच्छेद हो गया और वह स्वतंत्र संस्था के रूप में पंजीकृत करा दी गई.
हिंदी साहित्य सम्मलेन का चौबीसवाँ अधिवेशन भी सन् 1935 ई. में इंदौर में ही हुआ और संयोग ऐसा हुआ कि इस बार भी सम्मलेन के सभापति महात्मा गांधी ही हुए. इस समय तक दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की जो प्रगति हुई थी, उसके आंकड़े बताते हुए गांधी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा - "दक्षिण में हिंदी प्रचार सबसे कठिन कार्य है, तथापि अठारह वर्ष से हम वहाँ व्यवस्थित रूप में जो कार्य करते आए हैं, उसके फलस्वरूप इन वर्षों में छह लाख दक्षिणवासियों ने हिंदी में प्रवेश किया, 42,000 परीक्षाओं में बैठे, 3200 स्थानों में शिक्षा दी गई, 600 शिक्षक तैयार हुए और आज 450 स्थानों में कार्य हो रहा है. वहाँ हिंदी की 70 किताबें तैयार हुईं और मद्रास में उनकी आठ लाख प्रतियां छापीं. सत्रह वर्ष पूर्व दक्षिण के एक भी हाई स्कूल में हिंदी की पढ़ाई नहीं होती थी, पर आज सत्तर हाई स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है. और आज तक इस प्रयास में चार लाख रुपए कह्र्च हुए हैं, जिनमें से आधे से कुछ कम रुपए दक्षिण में ही मिले हैं." (राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी).
इस बीच बंगाल, असं और उड़ीसा में भी हिंदी प्रचार का कुछ थोड़ा काम शुरू हो गया था. गांधी जी ने उन प्रांतों की स्थिति का भी पर्यवेक्षण किया और कहा कि सम्मलेन को इन प्रांतों में भी हिंदी के प्रचार पर ध्यान देना चाहिए.
मद्रास में जहाँ तहाँ जो शंका खादी हो गई थी कि हिंदी के प्रचार से प्रांतीय भाषाओं के विकास में बाधा नहीं पड़ेगी, उसका खंडन करते हुए गांधी जी ने कहा कि "कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हम प्रांतीय भाषाओं को नष्ट करके हिंदी को सारे भारत की एकमात्र भाषा बनाना चाहते हैं. गलतफहमी से भ्रमित होकर वे हमारे प्रचार का विरोध करते हैं. मैं हमेशा से यह मानता रहा हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को मिटाना नहीं चाहते. हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिन्द्र्र भाषा सीखें."
बंगाल और दक्षिण भारत का नाम लेकर गांधी जी ने कहा कि "बंगाल और दक्षिण भारत को ही लीजिए, जहाँ अंग्रेज़ी का प्रभाव सबसे अधिक अहि. यदि वहाँ जनता की मार्फत हम कुछ भी काम करना चाहते अहिं, तो वह आज हिंदी के द्वारा भले ही न कर सकें, पर अंग्रेज़ी द्वारा कर ही नहीं सकते."
साहित्य सम्मलेन के चौबीसवें अधिवेशन का सबसे बड़ा महत्त्व यह था कि उसने गांधी जी की कल्पना की हिंदी-हिंदुस्तानी को प्रस्ताव द्वारा स्वीकार कर लिया. सम्मलेन के मंच से गांधी जी अपना हिंदी-हिंदुस्तानी विषयक मत सन् 1918 ई. में ही प्रकट कर चुके थे, किंतु उस समय सम्मलेन से इस विषय में कोई प्रस्ताव नहीं किया था. सन् 1935 ई. में गांधी जी ने अपने उसी मत को और भी स्पष्ट करके रखा.
'हिंदी उस भाषा अका नाम अहि, जिसे हिंदू और मुसलमान, कुदरती तौर पर, बगैर प्रयत्न के बोलते हैं. हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फ़र्क नहीं अहि. देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और अरबी में लिखी जाने पर वह उर्दू कही जाती है. जो लेखक या व्याख्यानदाता चुन-चुनकर संस्कृत या अरबी शब्दों का ही प्रयोग करता है, वह देश का अहित करता है. हमारी राष्ट्रभाषा में वे सब प्रकार के शब्द आने चाहिए, जो जनता में प्रचलित हो गए हैं.'
सम्मलेन ने गांधी जी की व्याख्या स्वीकार कर ली, इस बात से उन्हें ख्गुशी हुई. हरिजन सेवक के 10 मई, 1935 वाले अंक में लिखते हुए गांधी जी ने कहा - "पहला प्रस्ताव इस तथ्य पर जोर देता है कि हिंदी प्रांतीय भाह्साओं को नष्ट नहीं करना चाहती, किंतु उनकी पूर्तिरूप बन्ना चाहती है और अखिल भारतीयता के सेवा क्षेत्र में हिंदी बोलनेवाले कार्यकर्ताओं के ज्ञान तथा उपयोगिता बढ़ाती है. वः भाषा भी हिंदी है, जो लिख्र्र उर्दू में जाती है, पर जिसे मुसलमान और हिंदू, दोनों समझ लेते हैं. इस बात को स्वीकार करके सम्मलेन ने इस संदेह को दूर कर दिया है कि उर्दू में लिपि के प्रति सम्मलेन की कोई दुर्भावना है. तो भी सम्मलेन तो मुसलमानों के इस अधिकार को स्वीकार करता है कि अब तक जिस उर्दू लिपि में वे हिंदुस्तानी भाषा लिखते आ रहे हैं, उसमें अब भी लिख सकते हैं."
गांधी जी यह महसूस करने लगे थे कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के लिए यह काफी है कि वह दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार को बढ़ाए. जहां तक अन्य अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी के प्रचार का सवाल था, इस काम के लिए गांधी जी साहित्य सम्मेअलं की एक अलग शाखा कायम करना चाहते थे. सम्मलेन के इंदौर वाले चौबीसवें अधिवेशन में उन्होंने इस विशाल कार्य क्षेत्र की थोड़ी चर्चा की थी, जो लगभग खाली पड़ा था. दुसरे वर्ष, यानी सन् 1936 ई. में सम्मलेन का पच्चीसवाँ अधिवेशन नागपुर में हुआ, जिसके सभापति श्री राजेंद्र प्रसाद जी थे. इसी सम्मलेन में गांधी जी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव स्वीकार किया गया कि हिंदी प्रचार का कार्य करने के लिए हिंदी प्रचार समिति का गठन किया जाए और इसका कार्यालय वर्धा में रखा जाए. इसी प्रस्ताव के अनुसार राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा का संगठन किया गया. यह समिति दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की ही तरह दक्षिण भारत के चारों प्रदेशों को छोड़कर भारत के लगभग सभी प्रदेशों में काम कर रही है. इसके सिवा, विदेशों में भी अनेक स्थानों पर समिति के परीक्षा केन्द्र हैं और वहाँ हिंदी की पढ़ाई की व्यवस्था है.
(दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा प्रकाशित 'अमृत स्मारिका' (2012) से साभार)
"जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं."
सन 1918 ई. वाले इंदौर सम्मलेन में दो बातें बड़े महत्त्व की रहीं. एक तो यह कि गांधीजी ने सम्मलेन के मंच से अपनी हिंदी विषयक कल्पना की व्याख्या प्रस्तुत की और सभा ने उसे पसंद किया. और दूसरा वह प्रस्ताव (इस प्रस्ताव का आशय यह था कि प्रति वर्ष छह दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने को प्रयाग भेजे जाएँ और हिंदी भाषा भाषी छह युवकों को दक्षिणी भाषाएँ सीखने तथा साथ साथ वहाँ हिंदी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजे जाए.) जिसके द्वारा दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की आवश्यकता पर जोर दिया गया था. उस समय दक्षिण के चारों भाषा भाषी प्रदेश एक ही मद्रास प्रेसिडेंसी के अंग थे और गांधीजी राष्ट्रभाषा की कठिनाई को सबसे ऊपर मानते थे. "सबसे कठिन मामला द्राविड भाषाओं के लिए है. वहाँ तो कुछ प्रयत्न ही नहीं हुआ है. हिंदी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करना चाहिए."
दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार के लिए इंदौर सम्मलेन ने कुछ सदस्यों की एक समिति बनाई, जिसमें गांधी जी और टंडनजी भी थे. इसी सम्मलेन में दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के लिए महाराज होलकर और सेठ सर हुकुमचंद ने दस-दस हजार रुपयों के दान दिए. प्रचार के लिए सम्मेलन ने जो प्रस्ताव स्वीकृत किया, उसमें यह बात थी की हिंदी सीखने के लिए दक्षिण के छह नवयुवक उत्तर भारत बुलाए जाएँ.
इंदौर सम्मलेन 29 मार्च को हुआ था. 31 मार्च को गांधीजी ने समाचार पत्रों को एक छोटा-सा लेख भेजा, जिसमें उन्होंने हिंदी प्रचार समिति की रचना का जिक्र किया और कहा कि "हम ऐसे छह तमिल और तेलुगु भाषी होनहार और सच्चरित तरुणों के नाम चाहते हैं, जो तमिल और तेलुगु भाषी जनता में हिंदी का प्रचार करना ही जीवन का ध्येय बनाने की दृष्टि से हिंदी सीखना शुरू करें. प्रस्ताव के अनुसार इन्हें इलाहाबाद या बनारस में रखकर हिंदी सिखाई जाएगी. वैसे तो देश में एक बड़ा प्रबल आंदोलन खड़ा होना चाहिए, जो हिंदी को द्वितीय भाषा के रूप में पब्लिक स्कूलों में लागू कराने पर शिक्षा अधिकारियों को विवश कर दे. परंतु सम्मलेन ने महसूस किया कि मद्रास प्रांत में हिंदी का प्रचार तुरंत ही आरंभ किया जाना चाहिए. इसीलिए उपर्युक्त प्रस्ताव रखा गया है. .... समिति हिंदी सिखाने के लिए इच्छुक लोगों को निःशुल्क पढ़ाने के लिए तमिल और आंध्र जिलों में हिंदी अध्यापक भेजने की बात सोच रही है." (सं.गां.वा., खंड 14, पृ.284).
गांधी जी गर्म लोहे को ठंडा होने देनेवाले आदमी नहीं थे. सम्मलेन के बाद उन्होंने दक्षिण के कुछ प्रमुख नेताओं से लिखा-पढ़ी की और अखबारों में लेख भी लिखे. 'गांधी जी के उक्त विचारों को पढ़कर दक्षिण के कुछ उत्साही, देशप्रेमी युवकों का ध्यान हिंदी की ओर आकृष्ट हुआ. उन्होंने हिंदी पढ़ने की इच्छा प्रकट करते हुए गांधी जी से प्रार्थना की कि हिंदी पढ़ाने के लिए एक सुयोग्य अध्यापक को दक्षिण में भीजा जाए.' इस प्रार्थना पर गांधी जी चुप नहीं रह सकते थे, न वे इस बात का इंतज़ार कर सकते थे कि दक्षिण जाने को तैयार युवक कब और कहाँ मिलेंगे. निदान, हिंदी की सेवा के लिए उन्होंने अपने सबसे छोटे बेटे और मेधावी पुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेज दिया. देवदास की उम्र उस समय केवल अठारह वर्ष की थी. यह 12 मई, सन 1918 ई. की बात है.
मद्रास में हिंदी का पहला वर्ग ता. 12 मई, 1918 ई. में ही खुला और उसका उदघाटन समारोह होमरूल लीग के दफ्तर ब्राडवे में मनाया गया. इस समारोह की अध्यक्षता डॉ.सी.पी.रामस्वामी ऐय्यर ने की थी. अध्यक्ष और उद्घाटिका, दोनों ने दक्षिण में हिंदी प्रचार योजना की भूरि भूरि प्रशंसा की और लोगों का आह्वान किया कि वे इस योजना को हर तरह से सफल बनाएँ.
हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो, यह बात बोली तो बहुत दिनों से जा रही थी, किंतु अब तक किसी भी नेता ने इस विचार को सक्रीय बनाने का प्रयास नहीं किया था. यह गांधी जी के व्यक्तित्व की महिमा थी कि वे जिस कार्य का शुभारंभ करते थे, देश उसे अपना पुनीत कार्य मानकर अपना लेता था. गांधी जी के उत्साह का प्रभाव एनी बेसेंट पर इस जोर से पड़ा कि अपने दैनिक पत्र 'न्यू इंडिया' में वे अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ हिंदी लेख भी प्रकाशित करने लगीं. "वे हिंदी का राष्ट्रभाषा होना अत्यंत आवश्यक और अंग्रेज़ी का इस देश की राष्ट्रभाषा बन जाना देश के लिए खतरनाक समझती थीं. उनका कहना था कि जिस दिन अंग्रेज़ी हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हो जाएगी, उस दिन समझ लेना चाहिए कि हमारी बरबादी शुरु हो गई. उनकी राय में एक देश के मुट्ठी-भर लोगों का दूसरे देश के करोड़ों लोगों पर हुकूमत करना देश की भारी मुसीबत है, तिसपर भी उस देश की भाषा को मिटाकर विदेशी भाषा को वहाँ की जनता पर ज़बर्दस्त थोप देना अत्यंत विनाशकारी कार्य है." (दक्षिण में हिंदी प्रचार आंदोलन का समीक्षात्मक इतिहास, लेखक : श्री पी.के.केशवन नायर).
इंदौर सम्मलेन के प्रस्ताव के अनुसार दक्षिण के छह युवकों को हिंदी सीखने को प्रयाग जाना था. ठीक छह तो नहीं, किंतु पांच युवक और युवतियाँ गांधी जी से प्ररित होकर हिंदी सीखने को प्राय्ग गए. ये पाँच व्यक्ति थे, पंडित हरिहर शर्मा और उनकी सहधर्मिणी, श्री बंदेमातरम सुब्रह्मण्यम और उनकी सहधर्मिणी तथा पंडित शिवराम शर्मा. और जो शिक्षक इन्हें हिंदी पढ़ाते थे, उनके नाम थे श्री हरिप्रसाद द्विवेदी (वियोगी हरि) और पंडित गणेशदीन त्रिपाठी.
गांधी जी का पुण्य प्रताप इतना बड़ा था कि जब देवदास जी ने मद्रास में हिंदी वर्ग आरंभ किया, उसमें हिंदी पढ़ने को मद्रास के कुछ बहुत अच्छे लोग आ गए, जिनमें से सर्वश्री सदाशिव ऐय्यर (हाईकोर्ट के न्यायाधीश), श्री वेंकटराम शास्त्रीय (सुप्रसिद्ध वकील), श्री के.भाष्यम अय्यंगार, श्री एन.सुन्दर ऐय्यर, श्रीमती अम्बुजम्माल, श्रीमती दुर्गाबाई, श्रीमती रुक्मिणी लक्ष्मीपति आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. मद्रास में जो हिन्दी कार्य आरम्भ हुआ, उसका समर्थन केवल एनी बेसेंट की 'न्यू इंडिया' ही नहीं , मद्रास के सुप्रसिद्ध दैनिक 'हिन्दू' आदि भी करते थे.
इंदौर सम्मेलन के प्रस्तावानुसार तथा गांधी जी की प्रेरणा से उत्तर भारत के जो युवक धीरे धीरे दक्षिण गए, उनमें से पं.रामानंद शर्मा श्री क्षेमानंद राहत, हरी रामभरोसे श्रीवास्तव, पं.हृषकेश शर्मा, पं.अवधनंदन, पं.रघुवरदयाल मिश्र, श्री जमुनाप्रसाद, पं.देवदूत विद्यार्थी, पं.रामगोपाल शर्मा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. सन 1918 ई. में परिव्राजक स्वामी सत्यदेव भी हिन्दी प्रचारक बनकर मद्रास पहुँच गए थे.
मद्रास में हिन्दी प्रचार का कार्य ज्यों ज्यों बढ़ता गया, त्यों त्यों धन की आवश्यकता भी बढ़ती गई. इंदौर से सेठ हुकुमचंद और महाराज होलकर से बीस हजार की रकम गांधी जी को मिली थी और गांधी जी ने उसे सम्मलेन को दे दिया था, क्योंकि मद्रास का कार्य सम्मलेन का ही कार्य समझा जाता था. सन 1920 ई. में अग्रवाल महासभा ने 50 हजार और श्री घनश्यामदास बिड़ला ने 10 हजार रूपए इस कार्य के लिए गांधी जी को दी. आरम्भ में इसी धनराशि से दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार का कार्य चलता रहा.
सन 1920 ई. तो भारतीय क्षितिज पर महामा गांधी रूपी सूर्य के उदय का वाढ बन गया. उस समय से गांधी जी ने हिन्दी प्रचार के कार्य को देश के तीन सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में स्थान दे दिया. जब वे होमरूल लीग से सम्बद्ध हुए, अपने वक्तव्य में उन्होंने घोषणा की कि "मेरी राय में स्वराज्य शीघ्र प्राप्त करने का साधन स्वदेशी, हिन्दू-मुस्लिम- ऐक्य, हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा मानना और प्रान्तों का भाषाओं के अनुसार नए सिरे से निर्माण करना है. इसलिए लीग को मैं इन कामों में लगाना चाहता हूँ. (कांग्रेस का इतिहास, 151).
सन 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन के चलते सारा देश राष्ट्रीयता के आवेश से हिलने लगा और प्रायः प्रत्येक प्रांत में राष्ट्रीय विद्यापीठ, कॉलेज और स्कूल खुल गए, जिनमें प्रधानता अंग्रेज़ी की नहीं वरन हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं की थी. शिक्षा के क्षेत्र में यह नया आन्दोलन था तथा उससे हिन्दी का पक्ष, आपसे आप, प्रबल हो गया.
तमिलनाडु का सर्वप्रथम हिन्दी प्रचारक विद्यालय सन 1922 ई. में इरोड में खुला. उसका उदघाटन पं.मोतीलाल नेहरु ने किया था. और वह विद्यालय द्रविड़ कळकम के प्रसिद्ध नेता श्री ई.वी.रामस्वामी नायकर के मकान पर खोला गया था.
दक्षिण में हिन्दी का जो प्रचार कार्य चल रहा था, उसका निरीक्षण करने को बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन सन 1925 ई. में दक्षिण भारत गए. उसी अवसर पर उनकी भेंट कामकोटि (कांची के) शंकराचार्यजी से हुई. स्वामी ने हिन्दी, कार्य करने के लिए एक सौ रूपए का दान किया.
गांधी जी अपनी भाषा नीति का प्रचार बहुत पहले से ही करते आ रहे थे, किन्तु इंदौर सम्मलेन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया और हर मौके पर लोगों को वे यह समझने लगे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना हमारा राष्ट्र कुंठित रहेगा.
हिन्दी शिक्षक की मांग करनेवाले तमिल भाइयों को उन्होंने 19.04.1918 को लिखा - "हम हिन्दी भाषा को हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक परस्पर व्यवहार की आम भाषा बना दें, तो फिर राष्ट्र सेवा करने की हमारी शक्ति कोई भी सीमा स्वीकार नहीं करेगी." (सं.गां.वा., खंड 14, पृ. 340).
26 मार्च, सन 1919 ई. को मदुराई में स्तयाग्रह आन्दोलन पर भाषण करते हुए उन्होंने कहा - "आप में से जिन लोगों को पर्याप्त शिक्षा प्राप्त हुई है, वे यदि यह समझ लेते कि हिन्दी और केवल हिंदी ही भारत की राष्टभाषा बन सकती है, तो आप इस समय तक इसे किसी न किसी तरह सीख लेते. लेकिन हम अपनी गलतियों को अब भी सुधार सकते हैं." (सं. गां. वा., खंड 15, पृ. 161).
28 मार्च सन 1919 ई. को तूत्तुक्कुडि में बोलते हुए उन्होंने कहा - 'जब आप भारत की राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी सीख लेंगे, तो आपके सामने हिन्दी में भाषण करने में मुझे बहुत खुशी होगी. यह आपके ऊपर है कि यदि चाहें तो मद्रास और अन्य स्थानों पर हिन्दी सीखने की जो सुविधा है, उसका लाभ उठाएँ. जब तक आप हिन्दी नहीं सीखते, तब तक आप शेष भारत से अपने को बिलकुल अलग रखेंगे." (सं. गां. वा., खंड 15, पृ. 164).
कांग्रेस जब गांधी जी के प्रभाव में आने लगी, वे यह कोशिश करने लगे कि कांग्रेस के मंच से अधिक से अधिक भाषण हिन्दी में हों.
सन 1919 ई. के दिसंबर में हुई कांग्रेस में ज्यादा भाषण हिन्दी में हुए थे. गांधी जी को यह मलाल था कि इस कांग्रेस के अध्यक्ष का भाषण हिन्दी में क्यों नहीं हुआ. किन्तु श्रीमती एनी बेसेंट ने अपने पत्र में यह लिख डाला कि इस बार की कांग्रेस राष्ट्र्रीय धरातल से उतरकर प्रांतीय धरातल पर चली गई थी, क्योंकि उसमें दिए गए भाषण अंग्रेज़ी में नहीं थे. श्रीमती एनी बेसेंट की इस टिप्पणी आ जवाब देते हुए गांधी जी ने 21 जनवरी सन् 1920 ई. को 'यंग इंडिया' में लिखा - "मुझे उनके (श्रीमती बेसेंट के) इस विचार से कि हिन्दुस्तानी के व्यवाह से कांग्रेस प्रांतीय हो जाती है, सार्वजनिक रूप से मतभेद प्रकट करने में दुःख होता है. कांग्रेस की लगभाग समस्त कार्यवाही पिछले दो सालों के सिवा अब तक अंग्रेज़ी में किए जाने के कारण राष्ट्र को सचमुच काफी हानि पहुँची है. मैं यह तथ्य भी बताना चाहता हूँ कि मद्रास प्रेसिडेंसी के अतिरिक्त अन्य सभी प्रान्तों के राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधियों और दर्शकों में से अधिकाँश अंग्रेज़ी की अपेक्षा हिन्दुस्तानी ही अधिक अमझ सके हैं. इसलिए इसका एक बड़ा ही विचित्र-सा परिणाम यह हुआ है कि इन समस्त वर्षों में कांग्रेस जैसी महती संस्था केवल देखने में राष्ट्रीय रही है, किन्तु वह अपने वास्तविक शैक्षणिक महत्त्व के कारण कभी राष्ट्रीय नहीं रही. इसलिए प्रश्न यह है कि इस प्रेसिडेंसी (मद्रास) के 3 करोड़ 80 लाख लोगों का कर्तव्य है. क्या भारत उनके कारण अंग्रेज़ी सीखे? या वे सत्ताईस करोड़ सत्तर लाख भारतीयों के लिए हिन्दुस्तानी सीखेंगे? स्वर्गीय न्यायमूर्ति कृष्णस्वामी, जिनकी गहनदृष्टि अचूक थी, यह मानते थे कि भारत के विभिन्न भागों के बीच विचारों के आदान-प्रादान का एकमात्र संभावित माध्यम हिन्दुस्तानी ही हो सकती है." (सं. गां. वा., खंड 26, पृ. 511-512).
गांधी जी जो होमरूल लीगवालों ने अपना नेतृत्व करने को कहा, तब भी गांधी जी ने यह शर्त रखी थी कि मैं किसी संस्था में शरीक तभी हो सकता हूँ, जब उसके सदस्य मेरे साथ सहमत हों. इस संबंध में श्री वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री को 18 मार्च, 1920 ई. को उन्होंने जो पत्र लिखा था, उसमें एक प्रमुख शर्त यह रखी थी, कि "हिन्दी और उर्दू के मिश्रण से निकली हुई हिन्दुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में निकट भविष्य में स्वीकार कर लिया जाए. अतएव भावी सदस्य इम्पीरियल काउन्सिल में इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे, जिससे वहां हिन्दुस्तानी का प्रयोग प्रारम्भ हो सके और प्रांतीय कौंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध होंगे जिससे वहां, जब तक हम राष्ट्रीय कामकाज के लिए अंग्रेज़ी को पूरी तरह छोड़ देने की स्थिति में नहीं जाते, तब तक के लिए, कम से कम वैकल्पिक माध्यम के रूप में प्रांतीय भाषाओं का उपयोग प्रारम्भ हो सके. वे हमारे स्कूलों में हिन्दुस्तानी को देवनागरी लिपि या वैकल्पिक रूप में,, उर्दू लिपि के साथ, अनिवार्य द्वितीय भाषा की तरह दाखिल कराने के लिए भी वचनबद्ध होंगे. अंग्रेज़ी को साम्राजीय संपर्क, राजनीतिक संबंध तथाअंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा के रूप में मान्यता दी जाएगी." (सं. गां. वा., खंड 17, पृ. 100-108).
मद्रास में हिंदी प्रचार को बढ़ावा देने के लिए गांधी जी भाषणों और लेखों का प्रयोग करते ही रहते थे. 16 जून सन् 1920 ई. की 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा था - "मुझे पक्का विशवास है कि किसी दिन हमारे द्राविड भाई-बहन, गंभीर भाव से हिंदी का अध्ययन करने लगेंगे. आज अंग्रेज़ी भाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवाँ हिस्सा भी हिंदी सीखने में करें, तो बाकी हिंदुस्तान, जो आज उनके लिए बंद किताब की तरह है, उससे वे परिचित होंगे और हमारे साथ उनका ऐसा तारतम्य स्थापित हो जाएगा, जैसा पहले कभी नहीं था. कोई भी साधारण आदमी एक साल में हिंदी सीख सकता है. मैं अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि द्राविड बालक बहुत आसानी से हिंदी सीख लेते हैं. यह बात शायद ही कोई जानता हो कि दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले सभी तमिल-तेलुगु भाषी लोग हिंदी में खूब अच्छी तरह बातचीत कर सकते हैं." (सं. गां. वा., खंड 17, पृ.534).
सन् 1920 ई. से राष्ट्रीय आंदोलन ज्यों ज्यो जोर पकडता गया, हिंदी का आंदोलन भी उसी अनुपात में बढ़ता गया. सन् 1925 ई. में कानपुर कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पास किया कि "यह कांग्रेस तय करती है कि कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का कामकाज, आम तौर पर, हिंदुस्तानी में चलाया जाएगा. जो वक्ता हिंदुस्तानी में नहीं बोल सकते, उनके लिए या जब जब जरूरत हो तब, अंग्रेज़ी का या किसी प्रांतीय भाषा का इस्तेमाल किया जा सकेगा." (राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी से).
गांधी जी ने अपने सतत चलनेवाले प्रचार से देश में वः हवा पैदा कर दी कि राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में वक्ता जब अंग्रेज़ी में भाषण शुरू करते, तब अहिंदी भाषी श्रोता भी 'हिंदी हिंदी' का नारा लगाने लगते थे. इस नई हवा का असर देश के बड़े लोगों पर भी पड़ने लगा. 6 अप्रैल, सन् 1920 ई. को भावनगर (सौराष्ट्र) में जुग्राती साहित्य परिषद का छठा अधिवेशन हुआ, जिसके सभापति श्री रवींद्रनाथ ठाकुर थे. इस सम्मलेन में पाना अध्यक्षीय भाषण गुरुदेव ने हिंदी में दिया था. भाषण के मुखबंध में उन्होंने कहा था कि "आपकी सेवा में खडा होकर विदेशीय भाषा कहूँ, यह हम चाहते नहीं. पर जिस प्रांत में मेरा घर है, वहाँ सभा में कहने लायक हिंदी का व्यवहार है नहीं. महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिंदी में कहने के लिए. यदि हम समर्थ होता, तब इससे बड़ा आनंद कुछ होता नहीं. असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिंदी में बोलूंगा." (यह सम्पूर्ण भाषण उस समय प्रकाशित 'शांतिनिकेतन' पत्रिका में बंगाक्षरों में छपा था.).
सन् 1925 ई. में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन का अधिवेशन भरतपुर में हुआ था. गुरुदेव श्री रवींद्रनाथ ठाकुर ने उस सम्मलेन में भी पधारने की कृपा की थी और हिंदी में बोलकर हिंदी का पक्ष समर्थन किया.
गांधी जी के प्रचार से तमिलनाडु में हिंदी के प्रति ऐसा उत्साह प्रवाहित हुआ कि प्रांत के सभी बड़े लोग हिंदी का समर्थन करने लगे. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के आजीवन अध्यक्ष स्वयं गांधी जी थे. राजाजी उसके उपाध्यक्ष थे. श्री ई.वी. रामस्वामी नायक्कर हिंदी प्रचार के अत्यंत उत्साही समर्थक थे. तमिल के विख्यात कवी श्री सुब्रह्मण्य भारती भारत की राष्ट्रीय चेतना के जाज्वल्यमान प्रतीक थे और हिंदी प्रचार के प्रति उनकी पूरी सहानुभूति थी. तमिल के दूसरे प्रकांड कवी श्री मुरुगनार, जो अब साधक के रूप में, रमणाश्रम (तिरुवण्णामलै) में रहते हैं, राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने हिंदी के समर्थन में तमिल में एक छोटी-सी कविता भी लिखी थी, जिसका कच्चा-पक्का अनुवाद नीचे दिया जाता है -
जिस जिस भारत के सभी लोग,
अपनी पसंद से चुनी हुई सबकी बोली
हिंदी को अपनी जानेंगे,
जानेंगे केवल नहीं, वरन् आसानी से
हिंदी में करके काम-काज सुख मानेंगे,
बस, उसी दासत्व न रहने पाएगा,
बस, उसी रोज सच्चा स्वराज्य आ जाएगा.
तमिल के महाकवि श्री सुब्रह्मण्य भारती राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रभाषा के पूरे समर्थक थे. अपनी छात्रावस्था में वे सन् 1898 ई. से लेकर 1902 ई. तक काशी में रहे थे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की प्रवेश परिक्षा मे संस्कृत और हिंदी का विशेष अध्ययन करके प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे.
श्री राजगोपालाचारी, जो अब राजभाषा हिंदी के कट्टर विरोधी बन गए हैं, उन दिनों हिंदी के भारी समर्थक थे. जनवरी सन् 1930 ई. के 'हिंदी प्रचारक' नामक मासिक पत्र में उन्होंने 'छात्रों से अपील' नामक एल लेख में यों लिखा था - "अगर हिंदुस्तानी भाषा सीखने की आवश्यकता के बारे में अब भी आपको संदेह हो, तो जो लोग पिछली कांग्रेस में गए थे, उनमें से किसी से भी बात करके देख लीजिए. जो प्रतिनिधि लाहौर गए थे और जिन्होंने कांग्रेस को देखा है, वे इस बात की गवाही भरेंगे कि हिंदुस्तानी के ज्ञान के बिना राष्ट्रीय सम्मेलनों में उपयोगी भूमिका अदा करना किसी के लिए भी संभव नहीं है. इस कांग्रेस में सबसे अधिक असुविधा तमिलनाडु के प्रतिनिधियों को हुई, क्योंकि राष्ट्भाषा की जानकारी उन्हें नहीं है. वे आपको बताएँगे कि भारत के किसी भी भाग में यात्रा, वाणिज्य या व्यापार करने के लिए हिंदुस्तानी का ज्ञान कितना जरूरी है. प्रत्येक छात्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने अवकाश के समय का उपयोग राष्ट्रभाषा सीखने के लिए करे. राष्ट्भाषा की शिक्षा स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग होना चाहिए. मगर इसके लिए तब तक इंतज़ार करना बेकार अहि, जब तक शिक्षा के अधिकारियों को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं होता. शिक्षा के अधिकारी जब तक यह नहीं समझते कि भारत के सभी प्रांतों में, लड़कों और लड़कियों के स्कूली पाथ्य्कर्मों में भारत की सामान्य भाषा का स्थान नहीं होना भारी गलती है, तब तक अपनी मदद हमें आप करनी चाहिए. यह भाषा बड़ी आसानी से सीखी जाती है. आप संस्कृत की लिपि सीखकर हिंदुस्तानी तुरंत आरंभ कर सकते हैं." (दक्षिण के हिंदी प्रचार आंदोलन का समीक्षात्मक इतिहास से).
हिंदी प्रचार का कार्य राष्ट्र के रचनात्मक कार्यक्रम का अत्यंत प्रमुख अंग था. हिंदी प्रचारक होना अपने आप में गौरव की बात थी, क्योंकि जो हिंदी प्रचारक होता था, वह गांधी जी का सीधा अनुचर समझा जाता था. समाज में हिंदी प्रचारकों की बड़ी इज्जत थी और वे जो कुछ कहते थे, समाज पर उसका असर पड़ता था.
मद्रास की दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा सन् 1926 ई. तक प्रयाग के हिंदी साहित्य सम्मलेन से संबद्ध रही. सन् 1927 ई. में साहित्य सम्मलेन से सभा का संबंध विच्छेद हो गया और वह स्वतंत्र संस्था के रूप में पंजीकृत करा दी गई.
हिंदी साहित्य सम्मलेन का चौबीसवाँ अधिवेशन भी सन् 1935 ई. में इंदौर में ही हुआ और संयोग ऐसा हुआ कि इस बार भी सम्मलेन के सभापति महात्मा गांधी ही हुए. इस समय तक दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार की जो प्रगति हुई थी, उसके आंकड़े बताते हुए गांधी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा - "दक्षिण में हिंदी प्रचार सबसे कठिन कार्य है, तथापि अठारह वर्ष से हम वहाँ व्यवस्थित रूप में जो कार्य करते आए हैं, उसके फलस्वरूप इन वर्षों में छह लाख दक्षिणवासियों ने हिंदी में प्रवेश किया, 42,000 परीक्षाओं में बैठे, 3200 स्थानों में शिक्षा दी गई, 600 शिक्षक तैयार हुए और आज 450 स्थानों में कार्य हो रहा है. वहाँ हिंदी की 70 किताबें तैयार हुईं और मद्रास में उनकी आठ लाख प्रतियां छापीं. सत्रह वर्ष पूर्व दक्षिण के एक भी हाई स्कूल में हिंदी की पढ़ाई नहीं होती थी, पर आज सत्तर हाई स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है. और आज तक इस प्रयास में चार लाख रुपए कह्र्च हुए हैं, जिनमें से आधे से कुछ कम रुपए दक्षिण में ही मिले हैं." (राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी).
इस बीच बंगाल, असं और उड़ीसा में भी हिंदी प्रचार का कुछ थोड़ा काम शुरू हो गया था. गांधी जी ने उन प्रांतों की स्थिति का भी पर्यवेक्षण किया और कहा कि सम्मलेन को इन प्रांतों में भी हिंदी के प्रचार पर ध्यान देना चाहिए.
मद्रास में जहाँ तहाँ जो शंका खादी हो गई थी कि हिंदी के प्रचार से प्रांतीय भाषाओं के विकास में बाधा नहीं पड़ेगी, उसका खंडन करते हुए गांधी जी ने कहा कि "कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हम प्रांतीय भाषाओं को नष्ट करके हिंदी को सारे भारत की एकमात्र भाषा बनाना चाहते हैं. गलतफहमी से भ्रमित होकर वे हमारे प्रचार का विरोध करते हैं. मैं हमेशा से यह मानता रहा हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को मिटाना नहीं चाहते. हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिन्द्र्र भाषा सीखें."
बंगाल और दक्षिण भारत का नाम लेकर गांधी जी ने कहा कि "बंगाल और दक्षिण भारत को ही लीजिए, जहाँ अंग्रेज़ी का प्रभाव सबसे अधिक अहि. यदि वहाँ जनता की मार्फत हम कुछ भी काम करना चाहते अहिं, तो वह आज हिंदी के द्वारा भले ही न कर सकें, पर अंग्रेज़ी द्वारा कर ही नहीं सकते."
साहित्य सम्मलेन के चौबीसवें अधिवेशन का सबसे बड़ा महत्त्व यह था कि उसने गांधी जी की कल्पना की हिंदी-हिंदुस्तानी को प्रस्ताव द्वारा स्वीकार कर लिया. सम्मलेन के मंच से गांधी जी अपना हिंदी-हिंदुस्तानी विषयक मत सन् 1918 ई. में ही प्रकट कर चुके थे, किंतु उस समय सम्मलेन से इस विषय में कोई प्रस्ताव नहीं किया था. सन् 1935 ई. में गांधी जी ने अपने उसी मत को और भी स्पष्ट करके रखा.
'हिंदी उस भाषा अका नाम अहि, जिसे हिंदू और मुसलमान, कुदरती तौर पर, बगैर प्रयत्न के बोलते हैं. हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फ़र्क नहीं अहि. देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और अरबी में लिखी जाने पर वह उर्दू कही जाती है. जो लेखक या व्याख्यानदाता चुन-चुनकर संस्कृत या अरबी शब्दों का ही प्रयोग करता है, वह देश का अहित करता है. हमारी राष्ट्रभाषा में वे सब प्रकार के शब्द आने चाहिए, जो जनता में प्रचलित हो गए हैं.'
सम्मलेन ने गांधी जी की व्याख्या स्वीकार कर ली, इस बात से उन्हें ख्गुशी हुई. हरिजन सेवक के 10 मई, 1935 वाले अंक में लिखते हुए गांधी जी ने कहा - "पहला प्रस्ताव इस तथ्य पर जोर देता है कि हिंदी प्रांतीय भाह्साओं को नष्ट नहीं करना चाहती, किंतु उनकी पूर्तिरूप बन्ना चाहती है और अखिल भारतीयता के सेवा क्षेत्र में हिंदी बोलनेवाले कार्यकर्ताओं के ज्ञान तथा उपयोगिता बढ़ाती है. वः भाषा भी हिंदी है, जो लिख्र्र उर्दू में जाती है, पर जिसे मुसलमान और हिंदू, दोनों समझ लेते हैं. इस बात को स्वीकार करके सम्मलेन ने इस संदेह को दूर कर दिया है कि उर्दू में लिपि के प्रति सम्मलेन की कोई दुर्भावना है. तो भी सम्मलेन तो मुसलमानों के इस अधिकार को स्वीकार करता है कि अब तक जिस उर्दू लिपि में वे हिंदुस्तानी भाषा लिखते आ रहे हैं, उसमें अब भी लिख सकते हैं."
गांधी जी यह महसूस करने लगे थे कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के लिए यह काफी है कि वह दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार को बढ़ाए. जहां तक अन्य अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी के प्रचार का सवाल था, इस काम के लिए गांधी जी साहित्य सम्मेअलं की एक अलग शाखा कायम करना चाहते थे. सम्मलेन के इंदौर वाले चौबीसवें अधिवेशन में उन्होंने इस विशाल कार्य क्षेत्र की थोड़ी चर्चा की थी, जो लगभग खाली पड़ा था. दुसरे वर्ष, यानी सन् 1936 ई. में सम्मलेन का पच्चीसवाँ अधिवेशन नागपुर में हुआ, जिसके सभापति श्री राजेंद्र प्रसाद जी थे. इसी सम्मलेन में गांधी जी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव स्वीकार किया गया कि हिंदी प्रचार का कार्य करने के लिए हिंदी प्रचार समिति का गठन किया जाए और इसका कार्यालय वर्धा में रखा जाए. इसी प्रस्ताव के अनुसार राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा का संगठन किया गया. यह समिति दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की ही तरह दक्षिण भारत के चारों प्रदेशों को छोड़कर भारत के लगभग सभी प्रदेशों में काम कर रही है. इसके सिवा, विदेशों में भी अनेक स्थानों पर समिति के परीक्षा केन्द्र हैं और वहाँ हिंदी की पढ़ाई की व्यवस्था है.
(दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा प्रकाशित 'अमृत स्मारिका' (2012) से साभार)
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