‘गद्य ब्रह्मा’ और ‘गद्य तिक्कन’ के नाम से तेलुगु साहित्य जगत् में विख्यात कंदुकूरी वीरेशलिंगम् पंतुलु का जन्म 16 अप्रैल, 1848 में राजमहेंद्रवरम् (राजमंड्री) में हुआ। साहित्यकार के साथ साथ वे समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज सेवा के लिए साहित्य को साधन बनाया। नारी समाज को जागृत करना उनका परम लक्ष्य था। इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए उन्होंने अनेक आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। उन्होंने 1876 में ‘विवेकवर्द्धनी’ और ‘हास्य संजीवनी’ नामक मासिक पत्रिकाएँ आरंभ की और 1883 में ‘सतीहित बोधनी’। इन पत्रिकाओं के माध्यम से श्रुति, स्मृति और पुराणों से प्रमाण देकर उन्होंने पुरातन पंथियों की जड़ मान्यताओं पर प्रहार किया। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के साथ साथ उन्होंने विधवा पुनर्विवाह और अंतर जातीय विवाह का भी समर्थन किया और बाल विवाह का खंडन भी किया।
वीरेशलिंगम् पंतुलु ने आधुनिक तेलुगु गद्य साहित्य को अनेक नूतन विधाओं से समृद्ध किया। वे तेलुगु के प्रथम उपन्यासकार, नाटककार, आत्मकथाकार, जीवनीकार और निंबंधकार हैं। उन्होंने तेलुगु भाषा को परिष्कृत किया और सर्वप्रर्थम गद्य में सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया। उन्होंने गद्य में समस्यापूर्ति का भी प्रवर्तन किया।
वीरेशलिंगम् के युग में आंध्रप्रदेश अंधविश्वासों के गर्त में डूबा हुआ था। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई। उस युग में स्त्री की स्थिति अत्यंत दयनीय और सोचनीय थी। परंपरागत बंधनों के कारण स्त्री जीवन चूल्हा-चक्की तक सिमटकर रह गया था। वह केवल बच्चा पैदा करने का यंत्र मात्र थी। बाल विवाह के कारण भी अनेक स्त्रियाँ को अल्पायु में ही विधवा जीवन की यातनाएँ सहनी पड़ती थी। वीरेशलिंगम् ने स्त्री की इस सोचनीय स्थिति की ओर ध्यान दिया और सुधारवादी आंदोलनों का सूत्रपात किया। उन्होंने ‘वितंतु शरणालयमु’ (विधवा शरणालय) की स्थापना की थी। इसके बाद स्त्रियाँ स्वयं अपनी शिक्षा, अस्मिता और अधिकारों के प्रति सजग हो उठीं।
साहित्य के क्षेत्र में वीरेशलिंगम् ने कुल मिलाकर 130 ग्रंथ लिखे। उनमें संस्कृत और अंग्रेज़ी के अनुवाद तथा मौलिक ग्रंथ भी हैं। 1878 में प्रकाशित ‘राजशेखर चरित्रमु’ (राजशेखर चरित्र) को तेलुगु साहित्य का प्रथम उपन्यास माना जाता है। यह उपन्यास गोल्डस्मिथ कृत ‘विकर ऑफ द वेकफील्ड’ पर आधारित है। इसमें हिंदू समाज की कुरीतियों का खंडन किया गया है। उन्होंने कथावृत्त, चरित्र चित्रण, परिवेश, आचार-विचार आदि का तेलुगुकरण किया। औपन्यासिक तत्व, कथा निर्माण एवं भाषा शैली की दृष्टि से भी यह उपन्यास श्रेष्ठ है। इस उपन्यास की प्रासंगिकता को देखकर1886 में रिवरेंड हच्चिनसन ने अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद किया। 1887 में ‘फार्चून्स व्हील’ नाम से इसका अंग्रेज़ी रूपांतर प्रकाशित हुआ।
1883 में ‘गुलिवर्स ट्रेवल्स’ का ‘सत्यराज पूर्वदेश यात्रलु’ (सत्यराज की पूर्वदेशी यात्राएँ) नाम से तेलुगु अनुवाद प्रकाशित हुआ। उपर्युक्त दोनों उपन्यास अंग्रेज़ी कृतियों के आधार पर रचे गए हैं, किंतु मौलिकता से पूर्ण है। वीरेशलिंगम् का उपन्यास ‘आडलयालम्’ (स्त्री जाति) ने तेलुगु साहित्य जगत् में तहलका मचा दिया था। इस उपन्यास में लेखक ने यह दर्शाया है कि स्त्री यदि अपने अधिकारों के प्रति सजग हो उठेगी तो वह भी पुरुष के समान इस समाज में अपनी पहचान बना सकेगी। इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने परंपरागत रूढ़ियों पर प्रहार किया। तत्कालीन समाज में प्रचलित सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई। इस उपन्यास में उन्होंने इस बिंदु को उजागर किया कि पत्नी की मृत्यु के बाद पति को उसके साथ सहमरण करना चाहिए क्योंकि स्त्रियों के सती होने की प्रथा थी।
वीरेशलिंगम् की सभी रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों का खंडन पाया जाता है। उपन्यास लेखन को विशेष प्रोत्साहन देने के लिए वीरेशलिंगम् ने 1891 में राजमंड्री से ‘चिंतामणि’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था। इस पत्रिका के माध्यम से उपन्यास लेखन प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया जाता था।
1883 में वीरेशलिंगम् ने कालिदास कृत ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ का तेलुगु रूपांतर किया। उन्होंने ‘मालविकाग्नि मित्र’, ‘प्रबोध चंद्रोदय’ और ‘रागमंजरी’ आदि नामों से अंग्रेज़ी नाटकों का सरल और सरस अनुवाद भी प्रस्तुत किया था। ‘प्रह्लाद नाटक’, ‘दक्षिण गोग्रहणमु’, ‘सत्य हरिश्चंद्र’, ‘विवेक दीपिका’ आदि उनके मौलिक नाटक हैं।
पंतुलु ने तेलुगु में सर्वप्रथम ‘प्रहसन’ का सूत्रपात किया। समाज सुधार को ही लक्ष्य बनाकर ‘वेश्या प्रिय’, ‘महावंचक’, ‘विचित्र विवाह’ और ‘कलह प्रिया’ आदि दर्जनों प्रहसनों की रचना की हैं। वे अच्छे समीक्षक भी थे। तर्क शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, शरीर विज्ञान, भौतिक शास्त्र आदि शास्त्र ग्रंथों की रचना करके उन्होंने तेलुगु साहित्य को समृद्ध बनाया।
प्रगतिशील विचारोंवाले युग पुरुष कंदुकूरी वीरेशलिंगम् पंतुलु का देहावसान 27 मई, 1919 को हुआ। तेलुगु साहित्य जगत् में आज भी वीरेशलिंगम् का नाम चिरस्थाई हैं। कहना न होगा कि वीरेशलिंगम् पंतुलु हिंदी में आधुनिकता के प्रवर्तक भारतेंदु के समकालीन ही नहीं, अपनी रचनाशीलता और वैचारिकता में भी उनके समकक्ष और समतुल्य हैं। हिंदी क्षेत्र के नवजागरण का नेतृत्व जिस प्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया उससे कहीं अधिक प्रभावी रूप में वीरेशलिंगम् पंतुलु ने तेलुगु समाज के नवजागरण को नेतृत्व प्रदान किया ।
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