सद्य: प्रकाशित काव्यकृति ‘ज्योति-सागर’(2009) हैदराबाद की चर्चित कवयित्री ज्योति नारायण(17 मार्च ?) की चौथी कृति है। 80 पृष्ठों की यह काव्य कृति बसंती प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है। इसका मूल्य है रु.150/- ।
‘ज्योति-सागर’ के प्रकाशन के पूर्व कवयित्री के तीन काव्य संग्रह - ‘प्रेम ज्योति का सूरज’(2003), ‘चेतना ज्योति’( ) और ‘ज्योति कलश’( ) प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कविताओं के अवलोकन के आधार पर बेहिचक यह कहा जा सकता है कि इनमें उनके जीवनानुभव का सार निहित है। वे अपनी कविताओं के माध्यम से पाठकों को यह संदेश देना चाहती हैं कि -
"मानवता विश्वास संजोये बैठी है,/ पुरखों का इतिहास संजोये बैठी है।/ तुमको बनना है भविष्य भारत का,/ मानवता यह आस लगाए बैठी है।" (‘ज्योति-सागर’; पृ.20)
‘ज्योति-सागर’ में संकलित रचनाएँ वस्तुत: मुक्तक हैं। मुक्तक चार पंक्तियों में स्वत:पूर्ण रचना होती है। इसका अन्य रचनाओं के साथ पूर्वापर संबंध नहीं होता। इस प्रकार की रचनाओं में जीवन के किसी अनुभव पर टिप्पणी होती है या कोई इस प्रकार का निष्कर्ष होता है कि जो सूक्ति बन जाता है। इस पुस्तक में कुल 195 मुक्तक संचित किए गए हैं जिन्हें 12 खानों में सजाया गया है। इनके शीर्षकों से ही इनके विषय प्रकट हो जाते हैं जैसे -(1)मुक्तक, (2)माटी औए मानवता, (3)ईमान-अवाम और सियासत, (4)देश-धर्म और सियासत, (5)जिंदगी, (6)दर्द, (7)औरत, (8)माँ, (9)सपना, (10)तुम और तुम्हारी याद, (11)प्रेम/प्यार और (12)मैं।
कहा जाता है कि जो सरसता प्रदान करे वही रस है। यह रस काव्य की आत्मा है। चाहे कविता हो या गीत या मुक्तक उसमें सरसता होनी चाहिए। इसी सरसता के बल पर बिहरी जैसे रचनाकार दोहे रूपी मुक्तक काव्य द्वारा गहन विचारों या मर्मस्पर्शी भावनाओं को प्रस्तुत कर पाठक या श्रोता को आनंद सागर में डुबो देते हैं। काव्य का भावपक्ष हृदय की सघन अनुभूतियों की भावभूमि से पल्लवित और पुष्पित होता है। इस दृष्टि से देखें तो निस्संकोच यह कहा जा सकता है कि ‘ज्योति-सागर’ में संकलित मुक्तक कवयित्री की अंतर्वेदना की आत्माभिव्यक्ति है। इसकी विषयवस्तु विविधतापूर्ण है। ‘ज्योति-सागर’ अर्थात ज्योति रूपी सागर में अवगाहन करने से जो मुक्तक अर्थात मोती प्राप्त होते हैं वे जीवन के सुख-दु:ख, आत्मसंघर्ष और मानसिक घुटन के साथ साथ सामाजिक विसंगतियों, व्यक्ति मन के अंतर्द्वन्द्व, प्रकृति प्रेम, प्रणयानुभूति, पारिवारिक रिश्ते-नातों, संबंधों के ह्रास, आज की और पुरानी जीवन शैली की तुलना, राजनैतिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक विचारों की सीपी में पकाकर पेश किए गए हैं। आधुनिक विमर्शों में खास तौर से स्त्री विमर्श ने इन मुक्तकों या मोतियों को आबदार बनाया है।
किसी भी कार्य को करने के पीछे कुछ न कुछ प्रयोजन अवश्य होता है। काव्य सृजन के पीछे भी कुछ प्रयोजन निहित है। ज्योति नारायण ने अपना काव्यप्रयोजन आरंभ में ही बता दिया है -
"जो भी लिखना खरी खरी लिखना/ बात मेरी ये आखरी लिखना,/ प्यार का नाम जब कभी लिखना,/ एक मीरा थी बावरी लिखना॥"(पृ.15)
बात साफ है कि वे खरी बातें अर्थात् जीवन की सच्चाइयों को लिखना-लिखाना चाहती हैं और प्रेम के पागलपन को व्यंजित करना चाहती हैं। कवयित्री ने मीरा की भाँति बावरी होकर अपनी अनुभूतियों को शब्दों में तराशना चाहा है। उनके लिए कविता आत्म-अन्वेषण की साधना है। इसीलिए वे कहती हैं कि
"खुद की तलाश में यूँ भटकती है जिंदगी/ खुद में खुदा मिला ले तो - करूँ बंदगी उसकी। मुझे खुद में ही खुदा को ढूँढ़ना है...।" (मेरी बात)।
कवयित्री वस्तुत: आशावादी हैं अत: वे कहती हैं कि इस दुनिया से अंधेरे को भगाने के लिए रोशनी की जरूरत है और यह तभी संभव होगा जब मन में विश्वास होगा -
"शाख शाख फूल खिलाओ प्यारे,/ मन में विश्वास जगाओ प्यारे।/ जिससे रौशन हो जाए अंधेरी दुनिया,/ एक दिया ऐसा जलाओ प्यारे॥"(पृ.33)
यह सर्वविदित है कि जीवन सुख-दु:ख का मिश्रण है। संघर्ष ही मानव नियति है। जन्म लेना संघर्ष में पड़ना है। रोटी, कपड़ा और मकान मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। रोटी वस्तुत: श्रम सिद्धांत का प्रतीक है। इस बात को स्पष्ट करते हुए कवयित्री ने कहा है कि -
"सच पूछो तो माटी श्रम की भाषा है,/ रोटी रोटी में इसकी परिभाषा है।/ तत्व ज्ञान का मर्म बताती है सबको,/ अंकुर अंकुर में सोई जिज्ञासा है॥" (पृ.17)
वे आगे यह भी कहती हैं कि
"जिंदगी दर जिंदगी जो सिलसिला है,/ आदमी की भूख का यह काफिला है।/ ज्ञान हो, विज्ञान हो, या दीनो-धरम हो-/ रोटियों के पृष्ठ पर लिखा गया ये फलसफा है।" (पृ.43)
कवि भी मनुष्य ही है और इसलिए वह भी सामाजिक प्राणी है। समाज से कटकर वह जी नहीं सकता। समाज में व्याप्त विसंगतियों को देखकर उसका संवेदनशील हृदय उद्वेलित होता है। मनुष्य और मनुष्य के बीच आज खाई उत्पन्न हो रही है। शराफत का जमाना नहीं रहा। ईर्ष्या और दुश्मनी के बीज बोए जा रहे हैं और नफरत की फसल उगाई जा रही है -
"ईर्ष्या और दुश्मनी की यहाँ/ क्यों पर्चियाँ बँटती हैं?/ और शराफत अपने आँसुओं से-/ क्यों कफ़न धोती रहती है?" (पृ.49)
जब चारों ओर ईर्ष्या, दुश्मनी और नफरत व्याप्त है तो सहृदय व्यक्ति की आत्मा का विचलित होना स्वाभाविक है। इसलिए कवयित्री कहती हैं -
"अजब सुनसान सा लगा मुझको,/ बहुत वीरान सा लगा मुझको।/ यहाँ, जिंदगी हो गई है पत्थर दिल,/ शहर शमशान सा लगा मुझको॥" (पृ.31)।
संवेदनाओं के जमने के इस जमाने में जीवन की धड़कनें भी मानो श्मसान में सोती हुई प्रतीत होती है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच फासला इतना बढ़ता जा रहा है कि रिश्ते-नाते निरर्थक और संबंध नष्ट होते जा रहे हैं। इन्सानियत भी खतरे में पड़ गई है -
"बस्ती बस्ती किस कदर वीरानियत है,/ क्रूरता से हँस रही शैतानियत है।/ आदमी को आदमी दिखता नहीं है-/ आज खतरे में पड़ी इन्सानियत है॥" (पृ.30)
मंदिर और मस्जिद के नाम पर भाई भाई से लड़ने लगा है -
"खुद ही लगा के आग बुझाते मिलेंगे लोग,/ यूँ ही वफाए रस्म निभाते मिलेंगे लोग।/ न मस्जि़द में खुदा होगा, न मंदिर में कोई राम-/ मज़हब का खून यूँ ही बहाते मिलेंगे लोग॥" (पृ.30)।
‘ज्योति-सागर’ के इस अत्यंत आबदार मोती की चमक अन्यत्र भी कौंधती प्रतीत होती है। यथा - "ये किसका बोल-बाला हो रहा है,/ लहू का रंग काला हो रहा है।/ वहाँ सब चाँद तारे छू रहे हैं-/ यहाँ मस्जिद शिवाला हो रहा है॥" (पृ.31)।
इसमें संदेह नहीं कि सांप्रदायिक सोच का जहर हमारी पीढ़ियों को विषाक्त कर रहा है और हम प्रगति की यात्रा में सदियों पिछड़ते प्रतीत हो रहे हैं।
कहा जाता है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’। इसलिए अपनी मिट्टी से कटकर रहना किसी के लिए संभव नहीं। कवयित्री भी अपनी मातृभूमि से अपार प्रेम करती हैं इसलिए तो वे कहती हैं -
"मातृभूमि की मिट्टी सबसे पावन है,/ नंदन वन है, यही इंद्र का कानन है। यहाँ सभी ऋतुओं का नर्तन होता है,/ फागुन खिलते फूल, बरसता सावन है॥" (पृ.17)
इसी क्रम में कवयित्री अपने पाठकों को संदेश देती हैं कि -
"माथे पर मिट्टी का तिलक लगाओ तुम,/ दुनिया को मिट्टी का अर्थ बताओ तुम।/ है सोई चैतन्य धार इस जड़ता में ,/ प्रखर चेतना का अंकुर बन जाओ तुम॥" (पृ.18)
मातृभूमि पर जब भी संकट मंड़राता है कवयित्री विचलित हो उठती हैं -
"देश की सरहदों पे खतरा है,/ देश की हर हदों पे खतरा है।/ देश महफूज हो तो कैसे हो-/ देश को हर पदों पे खतरा है॥" (पृ.29)
कुछ मुक्तकों में राजनीतिज्ञों पर व्यंग्य भी किया गया है -
"मौलवी और पुजारी मिलेंगे,/ जाल फेंके शिकारी मिलेंगे।/ इस सियासत की गलियों में अक्सर,/ वोट के ही भिखारी मिलेंगे॥" (पृ.29)
जैसा कि आरंभ में इशारा किया जा चुका है, कवयित्री की स्त्री विषयक स्व-धारणाएँ भी इन मुक्तकों में मुखरित है। स्वयं स्त्री होने के नाते कवयित्री ने स्त्री के दिल की धड़कन को बारीकी से चित्रित किया है।
सदियों से स्त्री को परंपरागत रूढ़ियों की चिता पर जलाया जा रहा है। हमेशा ही वह हाशिए पर रही है -
(1) "हाय औरत तुम्हारी वफ़ा को,/ हर तरफ आजमाया गया है।/ नोंच कर तेरे पाँवों की पायल,/ तुझको घुंघरू पहनाया गया है॥" (पृ.50)
(2) "आग कब यह बुझाई गई है,/ सदियों सदियों सताई गई है।/ रूढ़ियों की चिता पर हमेशा-/ सिर्फ औरत जलाई गई है॥" (पृ.50)
(3) "वक्त के हाशिए की लकीरें,/ चंद लम्हों की मोहताज होंगी।/ संगमरमर के लाखों महल हों-/ कब्र में कैद मुमताज होंगी।"(पृ.50)
स्त्री की इस बंदिनी और अबला छवि को आज भी नकारना असंभव है क्योंकि इक्कीसवीं सदी में भी साधारण भारतीय स्त्री के जीवन की सच्चाई यही है। इसके अलावा ज्योति नारायण ने स्त्री विमर्श के एक और आयाम को खूबसूरती से उभारा है। ‘ज्योति-सागर’ में संकलित कुछ मुक्तकों में मातृत्व का जीवंत पक्ष दिखाई देता है -
(1) "माँ मुझे टूटा खिलौना याद आता है,/ और वह भीगा बिछौना याद आता है।/ जब कभी तुम याद आती हो मुझे माँ,/ अपने माथे का डिठौना याद आता है॥" (पृ.53)
(2) कितने खुश थे तेरी पनाह में हम,/ दुबके दुबके से तेरी बाँह में हम।/ तेरी ममता का वह घना साया, नन्हें बिरवें से तेरी छाँह में हम॥" (पृ.53)
अंत में यही कि कवयित्री ने अपने मुक्तकों में आकर्षक प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से जीवन के हर पहलू को उजागर करने का सफल प्रयास किया है। वे अहर्निश साहित्य के सागर में प्रभंजन गति लिए आगे बढ़ना चाहती हैं -
"आरती का दीप बन जलती रहूँगी,
मैं हृदय की दाह सब सहती रहूँगी।
ठोकरों की राह है मंजिल मेरी,
मैं प्रभंजन गति लिए बढ़ती रहूँगी।" (पृ.62)
आशा है कि हिंदी पाठक इस संग्रह का स्वागत करेंगे।
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ज्योति-सागर (मुक्तक-संग्रह)/ ज्योति नारायण/ बसंती प्रकाशन, पी-137,पिलंजी सरोजिनी नगर, नई दिल्ली-110 023/ 2009/ रु.150/-/ पृ.80
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