"नहीं, उर्वशी नारि नहीं, आभा है निखिल भुवन की;
रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की।" (उर्वशी, पृ.17)
रामधारी सिंह ‘दिनकर’(30 सितंबर, 1908 - 25 अपैल, 1974) का साहित्यिक व्यक्तित्व राष्ट्रीय आंदोलन की इतिहास यात्रा से जुड़ा हुआ है। उनका समय नवीन आयामों के विकास का समय था। उन दिनों स्वाधीनता आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। ‘वंदे मातरम्’ के उद्घोष ने जनमानस में राष्ट्रीयता की चिनगारी को जगा दी थी। इन सभी परिस्थितियों से प्रभावित होकर दिनकर ने अपने समूचे अस्तित्व को राष्ट्रीय अनुभूतियों के अधीन कर दिया तथा पौरुष का शंखनाद और क्रांति के अंगार लेकर वे साहित्य में उतरे।
पौरुष के प्रतीक, अनल के कवि, मानवता के पक्षधर दिनकर ने जन-जागरण की काव्यधारा को भी तीव्र एवं प्रहर बनाया। उनकी कविताओं में योद्धा का गंभीर घोष, अनल का सा तीव्र ताप और सूर्य का सा प्रखर तेज विद्यमान है। जीवन की हर स्थिति में उनका कवि रूप ही जीवंत और प्रखर बना रहा। राष्ट्रीयता उनकी कविता का मूल स्वर है। उनकी कविता किसी क्षणिक उत्तेजना या तात्कालिक आवेग की कविता नहीं अपितु स्वदेश की मिट्टी को दहकानेवाली, हिमगिरि को पिघलानेवाली और गंगा के पानी को खौलानेवाली शाश्वत कविता है।
दिनकर का पौरुष और क्रांति का तेवर ‘रेणुका’. हुँकार’, ‘सामधेनी’, ‘कुरुक्षेत्र’,‘रश्मिरथी’ से होते हुए ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में नए रूप में सामने आता है। इन काव्यों की मूल समस्या युद्ध है। स्वाधीनता के संघर्ष में जूझ रहे भारत के ‘युगचारण’ कहे जानेवाले दिनकर का क्रांतिकारी तेवर ‘उर्वशी’ में एक सुंदर मोड़ लेकर प्रेम की रागात्मिकता और अनोखे ‘कामाध्यात्म’ में परिवर्तित होता दिखाई देता है। कई आलोचकों ने इसे एक आकस्मिक घटना माना लेकिन स्वयं दिनकर ने कहा - "माचा पर बैठे बैठे टीन बजाते बजाते थक गया हूँ। अब कुछ ऐसा लिखना चाहता हूँ जिसमें आत्मा का रस अधिक हो।" (कुमुद शर्मा; हिंदी के निर्माता; पृ.323)
"पढ़ो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का;
यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमायेगी,
***** ***** *****
रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है।" (उर्वशी; पृ.45-46)
इस उद्घोष पर आधारित काव्य रूपक ‘उर्वशी’ का प्रकाशन 1961 में हुआ। इसमें पुराण प्रसिद्ध पुरूरवा और उर्वशी की कथा संकलित है। नाटक की भाँति पाँच अंकों मे विभक्त इस काव्य रूपक के प्रत्येक अंक में स्थान स्थान पर रंगमंचीय संकेत भी अंकित है। ‘उर्वशी’ कवि की समसामयिक विचारधारा के साथ साथ उनके जीवन दर्शन की भी द्योतक है। कवि ने नर-नारी की प्रेम समस्या पर अत्यंत गंभीरता एवं सूक्ष्मता के साथ विचार किया है। ध्यान देने की बात है कि उन्होंने सौंदर्य और आसक्ति तथा कर्तव्य और प्रेम में कोई अंतर नहीं किया है।
‘उर्वशी’ के प्रथम अंक में विभिन्न पात्रों के द्वारा वर्णित घटनाओं तथा उनकी विचारधाराओं में उसके प्रतिपाद्य की स्थापना हुई है। प्रारंभ में पुरूरवा की राजधानी प्रतिष्ठानपुर के बगीचे में अप्सराएँ आती हैं। यहीं उनके द्वारा पुरूरवा और उर्वशी के स्वर्ग में प्रथम दर्शन और उससे उत्पन्न प्रेम का पता चलता है। द्वितीय अंक में पुरूरवा की महारानी औशीनरी को उर्वशी और पुरूरवा के प्रेम संबंध का समाचार मिलता है। इस अंक में दाम्पत्य और परकीय प्रेम की तुलना की गई है। चेतन और अचेतन स्तर पर प्रेम के विविध रूपों का विश्लेशण किया गया है। तीसरे अंक में पुरूरवा और उर्वशी विश्व-नर और विश्व-नारी के प्रतीक बन जाते हैं। वे दोनों गंधमादन पर्वत पर विहार करते समय स्त्री-पुरुष प्रेम के विविध गहन अनुभव प्राप्त करते हैं। यहाँ दर्शाया गया है कि मनुष्य होने के कारण पुरूरवा भौतिकता और अध्यात्म के बीच झूलता है और प्रेम के अनुभव को अशरीरी स्तर तक ले जाने के लिए चेतन और अचेतेन स्तर पर क्रियाशील रहता है। चौथे अंक में उर्वशी अपने नवजात शिशु को च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या को सौंप कर पुरूरव के साथ रहने लगती है। क्योंकि उसे यह शाप है कि पति और पुत्र नहीं, पति या पुत्र का ही सुख मिल सकता है। इस अंक में प्रकृति और पुरुष की एकानुभूति तथा संन्यास और प्रेम के बीच संतुलन की स्थापना का परिचय महर्षि च्यवन के माध्यम से दिया गया है। पाँचवे अंक में सुकन्या उर्वशी-पुरूरवा के पुत्र आयु को प्रतिष्ठानपुर ले आती है। भरतमुनि का शाप प्रतिफलित होता है और उर्वशी अदृश्य हो जाती है तथा पुरूरवा संन्यास ले लेता है। आयु का राज्याभिषेक होता है। औशीनरी उसे माँ का प्रेम देती है -( "बरस गया पीयूष, देवी! यह भी है धर्म क्रिया का/ अटक गयी हो तेरी मनुज की किसी घाट-अवघट में ,/ तो छिगुनी की शक्ति लगा नारी फिर उसे चला दे;/ और लुप्त हो जाय पुनः आतप, प्रकाश, हलचल से।" (उर्वशी; पृ.130)
‘उर्वशी’ में वर्तमान युग के व्यक्ति के अंतर्द्वन्द्व का चित्रण हुआ है। स्वयं दिनकर की दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का। उर्वशी पंचेंद्रियों की कामनाओं का प्रतीक है तो पुरूरवा इंद्रिय संवेदना से प्राप्त सुखों से उद्वेलित मनुष्य है। जिस प्रकार धर्म का उद्भव भय से और कला का जन्म काम से होता है, उसी प्रकार देवत्व की तृष्णा रूप के निराकार भाव से उपजती है। अतः ‘उर्वशी’ का कवि कहता है - "जीवन में सूक्ष्म आनंद और निरुद्देश्य सुख के जितने भी सोते हैं, वे कहीं-न-कहीं, काम के पर्वत से फूटते हैं। जिसका काम कुंठित, उपेक्षित अथवा अवरुद्ध है, वह आनंद के अनेक सूक्ष्म रूपों से वंचित रह जाता है।" (उर्वशी; भूमिका)
‘उर्वशी’ का मूल विषय काम एवं अध्यात्म के बीच सामंजस्य की खोज ही है। यह काव्य दर्शन और मनोविज्ञान द्वारा जीवन के कामपक्ष की व्याख्या करता है। काम या प्रेम के अनेक रूप हैं - भ्रातृ प्रेम, मातृ प्रेम, पितृ प्रेम, यौवनाश्रित प्रेम, शृंगारिक प्रेम, आत्म प्रेम तथा ईश्वर प्रेम। हम भली-भाँति जानते हैं कि मानव चेतना के आधार तत्व हैं - इंद्रियाँ, मन और आत्मा। मानव चेतना का संपूर्ण इतिहास शारीरिक काम से उद्वेलित है। ‘उर्वशी’ काव्य में काम के चार प्रतिनिधि रूप हैं - उर्वशी अतीन्द्रिय प्रेम से कुंठित होकर मानवीय प्रेम अर्थात् ऐंद्रिक सुख की प्राप्ति के लिए मानव लोक में आती है। पुरूरवा द्वन्द्व से युक्त है चूँकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का स्वभाव है। पुरूरवा जिस मानवीय प्रेम का प्रतीक है वह ऐंद्रिय होकर भी आत्मिक है। महारानी औशीनरी का प्रेम संपूर्ण समर्पण का प्रतीक है तथा सुकन्या के प्रेम में काम का सफल रूप है। अर्थात् काम का पूर्ण उपभोग तो है पर वह स्वतंत्र न होकर धर्म का ही अंग है।
‘उर्वशी’ में दिनकर ने नर-नारी प्रेम की अशरीरी आनंद लहर को प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस बात पर बार बार बल दिय है कि प्रेम का जन्म काम में होता है, किंतु उसकी परिणति काम के अतिक्रमण में होनी चाहिए। इसलिए कवि कहते हैं - "रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है" (उर्वशी; पृ.36) और यह प्रेम ‘सेक्स’ से भिन्न है चूँकि ‘सेक्स’ केवल शारीरिक स्तर की अनुभूति है जबकि प्रेम की अनुभूति में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों अनुभूतियाँ समन्वित रहती हैं। इसलिए दिनकर यह मानते हैं कि प्रणय अनास्क्ति के गंगाजल में स्नान कर पवित्र हो जाता है - "नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है/ उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।" (उर्वशी; पृ.34)
किंतु प्रेम की इस आध्यात्मिक अनुभूति को प्राप्त करना मानव मात्र के लिए सहज नहीं है। इसे पाने के लिए विषिष्ट होना चाहिए। अतः दिनकर ने उस विशिष्ट समन्वित नर को ‘कवि’ की संज्ञा दी हैं - "दाह मात्र नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी,/ नारी जब देखती पुरुष को इच्छा-भरे नयन से,/ नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में ,/ मन में किसी कान्त कवि को भी जन्म दिया करती है।/ नर समेट रखता बाँहों में स्थूल देह नारी की,/ शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है।/ तन्मय हो सुनता मनुष्य जब स्वर कोकिल-कण्ठी का,/ कवि हो रहता लीन रूप की उज्जवल झंकारों में।/ नर चाहता सदैव खींच रख लेना जिसे हृदय में,/ कवि नारी के उस स्वरूप का अतिक्रमण करता है।" (उर्वशी; पृ.47)
स्थूल से सूक्ष्म एवं लौकिक से अलौकिक की ओर प्रस्थान ही ‘उर्वशी’ काव्य का प्राण स्वर है। दिनकर ने दिव्य एवं उज्ज्वल प्रेम का निरूपण भी किया है - "देह प्रेम की जन्मभूमि है, पर उसके विचरण की/ सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक।/ यह सीमा प्रसरित है मन के गहन गुह्य लोकों में ,/ जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आँका करती है,/ और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमंडल में / किसी दिव्य अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है।" (उर्वशी; पृ.47-48)
इस प्रकार दिनकर ने देह से उतपन्न होनेवाले प्रेम को रहस्य चिंतन तक पहुँचा दिया है। अर्थात् उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि शारीरिक प्रेम से आत्मिक प्रेम पैदा होता है। नारी के रूप को ‘दिव्य अव्यक्त कमल’ अर्थात् उदात्त बना देना वस्तुतः फ्रायड के मनोवैज्ञानिक उदत्तीकरण के तरह ही है। इतना ही नहीं उन्होंने नर-नारी के बीच विद्यमान अंतर को भी इस उदत्तता के आकाश में विलीन होते दिखाया है - "वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में ,/ न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो,/ दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,/ देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी हो।" (उर्वशी; पृ.48)
‘उर्वशी’ का तृतीय अंक वस्तुतः इस काव्य का मर्मस्थल है। पुरूरव और उर्वशी गंधमाधन पर्वत पर हैं, धरती और स्वर्ग के मध्य। पुरूरवा धरती का धर्म छोड़कर स्वर्ग के धर्म को ग्रहण करता है तथा उर्वशी स्वर्ग का धर्म छोड़कर आसक्ति की व्यथा को भोग रही है। प्रकृति से उद्भूत बिंब में भावों को अभिव्यक्त करने की गहरी शक्ति होती है। गंधमादन पर्वत का बिंब आँखों के सामने उभर कर आता है - "दमक रही कर्पूर-धूलि दिग्बधुओं के आनान पर,/ रजनी के अंगों पर कोई चंदन लेप रहा है।/ यह अधित्यक्ता दिन में तो कुछ इतनी बड़ी नहीं थी?/ अब क्या हुआ कि यह अनन्त सागर-समान लगती है?/ कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की?/ उठी हुई-सी मही, व्योम कुछ झुका हुआ लगता है।" (उर्वशी; पृ.51)
इस अंक में प्रेम की व्याख्या अधिक हुई है। पुरूरवा और उर्वशी आत्मज्ञापन करने लगते हैं कि ‘यह कर्म नहीं क्रिया है, क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है।’ बुद्धि और कामना के द्वन्द्व से उत्पन्न मनुष्य के अंतर्मन की झांकियों को दिनकर ने अपने विचार एवं कल्पना के माध्यम से बाँध लिया है। ‘उर्वशी’ की कथा को संयोजित करते हुए दिनकर ने ‘भूमिका’ में लिखा है कि "नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँचकर निस्पन्द हो जाता है। और पुरुष के भीतर एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है। इंद्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श; यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।" (उर्वशी; भूमिका)
इसमें संदेह नहीं कि ‘उर्वशी’ में प्रतिपादित काम और अध्यात्म के समन्वय के इस सिद्धांत की अनेक प्रकार से व्याख्या, विवेचन और आलोचना की जा सकती है; की गई है। लिकिन विवादों को किनारे करके यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ‘उर्वशी’ साहित्य आकाश में वह नक्षत्र है जो निरंतर अपनी उदात्त एवं उज्जवल आभा से सहृदयों को आकर्षित करती रहेगी तथा प्रेमियों में निश्चल प्रेम की उत्तेजना, कर्मशील व्यक्तियों में निष्काम कर्म की प्रेरणा तथा सहृदयों में आत्मदान की भावना जगाती रहेगी -
"प्राण की चिर-संगिनी यह, वह्नि
इसको साथ लेकर
भूमि से आकाश तक चलते रहो।
मर्त्य नर का भाग्य
जब तक प्रेम की धारा न मिलती
आप अपनी आग में जलते रहो।" (उर्वशी; पृ.42)
`स्रवंति' राष्ट्रकवि दिनकर विशेषांक (मई , २००९) में प्रकाशित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें