जब तक बहती है जीव नदी, जीवित हैं कालोजी
प्रजाकवि कलोजी |
“काल को चुनौती देती हुई
निरंतर बहती है, संघर्षशील है
समुद्र पर घेरा डालने वाली
नदियों से भी टकराने वाली
आगे ही आगे तैरती, उफनती, लुढ़कती
ऊँचाई की ओर बढ़ती
मेरी आवाज है न
कालोजी है न.
न केवल काल के समक्ष
महाकाल के समक्ष भी
मुँहजोरी करने के कलेजे के साथ
कालोजी है न
मेरी आवाज है न. “
यह आवाज है ‘कालन्ना’ की. यह वर्ष ‘कालन्ना’ या ‘कालोजी’ के नाम से प्रसिद्ध ‘प्रजाकवि’ कालोजी नारायण राव (9 सितंबर 1914 – 13 नवंबर 2002) की शताब्दी है. पथप्रदर्शक, स्वतंत्रता सेनानी, जनपक्षधर कवि कालोजी का जन्म 9 सितंबर 1914 को कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में स्थित रट्टिहल्ली नामक गाँव में हुआ था. उनके पिता कालोजी रंगाराव मराठी भाषी थे और माता रमाबाई कन्नड़ भाषी थीं. बचपन से ही कालोजी मराठी और कन्नड़ के संस्कारों को रचा-पचा कर आगे बढे. उनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा वरंगल जिले में स्थित मदिकोंडा नामक गाँव में हुई थी. उच्च शिक्षा उन्होंने हैदराबाद में प्राप्त की. 1939 में उन्होंने एल.एल.बी. की उपाधि अर्जित की.
कालोजी अपने विद्यार्थी जीवन से ही अनेक आन्दोलनों में हिस्सा लेते रहे. वे आर्यसमाज के सिद्धांतों से प्रभावित थे. उन्होंने 1930 में ‘पुस्तकालय आंदोलन’ चलाया. गाँव-गाँव में पुस्तकालयों की स्थापना करवाई. इतना ही नहीं वे आंध्र महासभा आंदोलन से भी जुड़े रहे. उनके बड़े भाई रामेश्वर राव कालोजी उर्दू के अच्छे कवि थे. कालोजी पर उनका काफी प्रभाव था. दोनों ने हैदराबाद मुक्ति संग्राम में सक्रीय रूप से भाग लिया था. कालोजी ने अपनी व्यथा, दर्द, खीझ, चिंता, आक्रोश, संघर्ष, विद्रोह चेतना, आकांक्षा और जिजीविषा आदि को साहित्य की अनेक विधाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया.
कालोजी प्रगतिवादी काव्यांदोलन और विरसम (विप्लव रचयितल संघम) के सशक्त स्तंभ थे. उन्होंने तेलुगु के अलावा मराठी, उर्दू और हिंदी में साहित्य सृजन किया. उन्होंने अपनी पहली किविता 1931 में भगतसिंह की मृत्यु पर विचलित होकर लिखी थी. तब से वे लगातार प्रत्येकमहत्वपूर्ण राजनैतिक घटना पर अपने विचार बेबाकी से व्यक्त करते रहे. निजाम के रजाकारों और ब्रिटिश सैनिकों द्वारा जनगामा तालुका के माचिरेड्डी पल्ले और आकुनूर गाँवों की स्त्रियों पर किए गए अत्याचार का विरोध करते हुए उन्होंने लिखा कि –
“दायित्वहीन सरकार के
सिपहसालारों का अत्याचार, अब और नहीं
दायित्वपूर्ण व्यवस्था के बिना
जीवन, अब और नहीं
सत्ताधारियों के निरंकुश
खेल, अब और नहीं.
**** ****
माचिरेड्डी और आकुनूर में
अस्मत की लूट, अब और नहीं.
शासन के नाम पर गाँव-गाँव में
पापाचार, अब और नहीं.
रक्षण के नाम पर
भक्षण, अब और नहीं.
पैसे वालों की दुनिया में
गरीब का क्रय-विक्रय, अब और नहीं.”
कालोजी ने अनेक विधाओं के माध्यम से जनता की आवाज को, जनता की पीड़ा को व्यक्त किया है. उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं ‘कालोजी कथलु’ (1943, 2000), ‘पार्थिव व्ययम’ (पार्थिव नाम संवत्सर का व्यय, 1946), ‘ना गोडवा’ (मेरी आवाज, 1953), ‘तुदि विजयम’ (प्रथम विजय, 1962), ‘जीवन गीता’ (1968), ‘तेलंगाना उद्यम कवितलु’ (1969), ‘इदि ना गोडवा’ (यह मेरी आवाज है (आत्मकथा), 1995),’बापू! बापू!! बापू!!!’ (1995) आदि.
कालोजी देशभक्त थे. उन्होंने अपने आपको सक्रिय रूप से जनता की आजादी की हर लड़ाई के साथ जोड़ा. वे अन्याय को न तो सह सकते थे और न ही चुपचाप देख सकते थे. इसलिए वे कहते हैं कि
“मन में ममता हो तो
समता का भाव जन्म लेता है.
मैं मिट्टी का लोंदा नहीं
मन वाला मानव हूँ.
ममताविहीन जीवन जी नहीं सकता.
इसके लिए मन मेरा मानता नहीं.
मैं रो सकता हूँ, हँस सकता हूँ
मैं मनुष्य हूँ, हाँ! मैं मनुष्य हूँ.”
कालोजी ने जनता की पीड़ा को अपनी पीड़ा बनाया. इसी पीड़ा को उन्होंने अपना काव्य विषय बनाया. इसीलिए वे ‘प्रजाकवि’ बने. उनकी हर साँस में प्रजा की वेदना निहित है, प्रजा की आस्था-अनास्था, आशा-निराशा, आक्रोश, आवेग, शोषण के प्रति विद्रोह मुखरित है. उनकी आवाज जनता की वह आवाज है जिसने अन्याय का डटकर विरोध किया. उन्होंने निजाम के निरंकुश शासन के खिलाफ आवाज बुलंद की-
“लोकतांत्रिक संस्था से प्रतिशोध लेने का नतीजा
प्रकट होगा अवश्य बहुत जल्दी ही.
इठलाती-अकड़ती तानाशाही
टिक नहीं सकती, गिर जाएगी जमीन पर,
मजाक में भी छेद कर देने से
पक्का बाँध तक टूट जाता है जैसे.”
कालोजी परिस्थितियों के सामने घुटने टेकना नहीं जानते थे. वे हर विषम परिस्थिति का डटकर मुकाबला करते थे. वे सत्तालोलुप राजनीति से समझौता करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को देख कर दुःख से कराहते हैं –
“क्या हुआ? मुझे क्या हुआ?
अत्याचार को देशीय समझ
दया की क्या मैंने?
अंग्रेजों का विरोध कर
काले लोगों की सेवा करना;
किसलिए? क्या हुआ?
मुझे क्या हुआ?
उस समय के रजाकारों को
मिटाने की तरह मैं
आज के रजाकारों का
‘नायक’ बन आया हूँ
क्यों? क्या हुआ? मुझे क्या हुआ?
हृदय बकरी, चित्त लोमड़ी,
मन भेडिया.
कुत्ते की तरह जी रहा हूँ
क्यों? मुझे क्या हुआ?
इससे भला
कोई और पशु होता
तो अच्छा होता.”
कालोजी ने ‘जय तेलंगाना’ आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था. कालोजी यह प्रश्न करते हैं कि क्या तेलंगाना के अलग हो जाने से देश पर विपत्ति आएगी? क्या लोग तेलुगु भाषा भूल जाएँगे? होशियारी कम हो जाएगी? जलस्रोत सूख जाएँगे? दोस्ती कम हो जाएगी?
हैदराबाद के स्वतंत्रता आंदोलन में सशस्त्र भागीदारी और बाद में ‘जय तेलंगाना’ आंदोलन की अगुवाई करने वाले कालोजी नारायण राव ने भूमिहीन किसानों को जमीन दिलवाने के लिए अथक संघर्ष किया. उनका पूरा जीवन ही संघर्ष है. मानव अधिकारों के प्रति वे जागरूक थे. जब 1973 में प्रगतिशील रचनाकार वरवर राव और कुछ अन्य लोगों के खिलाफ सरकार द्वारा ‘सिकंदराबाद का झूठा मुकदमा’ दर्ज किया गया तो उसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने लिखा –
“चालीस लोगों ने या चार नक्सलियों ने
अत्यंत गोपनीय ढंग से
रची साजिश,
असल में भूमिगत – प्रकट में रहस्य !
साजिश !
प्रधानमंत्री इंदिरा की सरकार को
जड़ से उखाड़ फेंकने की साजिश!
सरेआम सशस्त्र संघर्ष चलाने की साजिश!
फिर भी गाय-बछड़े की सरकार के
जासूसों ने सूँघ ही लिया
षड्यंत्र.
दर्ज किया कोर्ट में केस
गवाह हैं पाँच सौ;
पाँच सौ गवाहों के समक्ष
रहस्यमय साजिश !
भयंकर खतरनाक साजिश !
पाँच सौ गवाह;
कैसी साजिश ! सरकारी साजिश
झूठे मुक़दमे की सुनवाई
चल सकती है कोर्ट में चार-पाँच सालों तक.
मृत्युदंड या उम्रकैद की धाराओं के तहत
दोष का अभियोग.
क्या कुछ लोगों को हो नहीं सकती फाँसी –
और कुछ को उम्रकैद की सजा –
बाकी के बरी हो जाने पर भी
धाराओं के तहत चार पाँच बरस का कारावास तो तय है.
भयंकर साजिश – सरकारी साजिश का मुकदमा
प्रजाहित के लिए – साजिश !
श्रेष्ठ राज्य के लिए – साजिश !!”
1949 में हैदराबाद पुलिस एक्शन के बाद स्टेट कांग्रेस के संस्थागत चुनाव के समय जब अपराधी तत्व चुनाव लड़ रहे थे तब कालोजी ने अपनी व्यथा और आक्रोश को इस तरह व्यक्त किया है –
“कहाँ कहाँ घूमे? क्या क्या किया?
कितने बरसों बाद घर वापस लौटे?
बहुत चालाकी से अपने हिस्से को स्वाहा कर
पुराना उधार चुकाने के वक्त भाग खड़े हुए क्या?
चोरी के माल को चोरी से बेचकर
नकदी अपनी पत्नी के नाम जमा कर ली क्या?
***** *****
भूल गई जनता – अब कैसा डर,
यह सोच तुम आज उम्मीदवार बन प्रकट हो गए?
ठगे गए थे कल – ठगे जाएँगे न आज
हर बार तुम्हारा खेल नहीं चलेगा.
दुष्कर्मी! वोटों का क्या कहना
जूतों की, लातों की कमी नहीं रहेगी!”
कालोजी राष्ट्रभक्त के साथ साथ मातृभाषा के भी भक्त थे. वे उन लोगों का खुलकर निंदा करते थे जो पर-भाषा को अपनाकर निज-भाषा की उपेक्षा करते हैं –
“भाषा तेरी क्या है? वेशभूषा तेरी क्या?
भाषा, वेशभूषा यह किसके लिए है?
अंग्रेजी में बतियाकर तू
नाज-नखरे क्यों करता है?
सूट-बूट और हैट पहनकर
शौक दिखा क्या पाया तूने? अकड़ किस लिए?
**** ****
तेलुगु सुत होकर तेलुगु बोलने में
संकोच क्यों करता है? बात क्या है?
अन्य भाषाएँ सीख, अपनी भाषा में न बोल
क्यों हिनहिनाता है? मरता क्यों नहीं तू?”
कालोजी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चाहते थे जो वास्तव में जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन हो. वे हमेशा यही कहते थे कि ‘मेरे हाथ में वोट है.’ वे वोट को बहुत महत्व देते थे. वोट-बैंक की राजनीति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा है-
“अपना वोट बैंक बनाकर
हर मर्ज की दवा पा लो
इस पथ पर जो गुजर गए
उन जैसी सफलता पा लो.”
कालोजी के बारे में स्पष्ट करते हुए दाशरथी रंगाचार्य ने कहा है कि “ कालोजी कवि निरंकुशुडु. अतनिकि दुराशलु लेवु. आशल वुच्चुलु लेवु. कालोजी मंदि मनीषी. कालोजी कविता प्रजल परुवम“ (कवि कालोजी निरंकुश व्यक्ति हैं. कोई दुराशा नहीं. उन्हें कोई आशा भी नहीं. कालोजी जनपक्षधर हैं. कालोजी की कविता जनता के लिए वरदान है.)
कालोजी ने समाज की विडंबना को बखूबी रेखांकित किया है –
“रोगों को देख डर रही हैं दवाइयाँ
अपमानजनक है गुंडों के हाथों पुलिस की पिटाई
टिकट चेकर कर रहे हैं सलाम बेटिकटों को
इनविजिलेटर दे रहे हैं प्रश्नपत्रों के समाधान
लिखे हुए उत्तर पर कितने अंक लुटाएँ - पूछ रहे हैं परीक्षक
कंडक्टर को देख डर रहे हैं पैसेंजर
गुंडों को देख डर रही है सरकार,
जनता खरीद रही है दैनंदिन सुरक्षा
स्थानीय बाहुबलियों से”
कालोजी ने जनसाधारण की भाषा को ही काव्यभाषा बनाया. उनकी कविताओं में भारतीय संस्कृति, मिथक, प्रतीक और बिंब विधान निहित है. उनकी कविता ऊपर से जितनी सरल और सहज लगती है वास्तव में वह उतनी सरल नहीं है. उनकी कविताओं में मराठी, कन्नड़, तेलुगु, हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं के शब्द सम्मिलित हैं. कुछ विद्वानों ने कालोजी को वेमना और कबीर के साथ जोड़ा है तो कुछ लोगों ने जनकवि नागार्जुन और महाश्वेता देवी के साथ.
कालोजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं दिखाई देता. कालोजी ने मनुष्य की जिजीविषा को अभिव्यक्ति दी. उन्होंने कभी मृत्यु की भी परवाह नहीं की. उनकी इच्छा यही थी कि
“मेरी है एक इच्छा
कि मेरी आवाज तुझे लिखे हुए खत के समान हो
**** ****
लुप्त हो रही दोस्ती को संजीवनी लगे
जलती आँखों को ठंडक पहुंचाने वाला लगे
भटके हुए सांड को गले में बंधा गलगोड्डा-सा लेग
**** *****
राष्ट्र को नीति सा लगे
शत्रु को भीति सा लगे
सरहद को रक्षा सा लगे
शिबि के शरीर सा लगे
बलि के त्याग सा लगे
सैनिकों के प्राण सा लगे”
कालोजी ने अपने आपको प्रजा के हित के लिए समर्पित कर दिया था. वे जब तक जीवित रहे तब तक जनता के लिए ही काम करते रहे. मृत्यु के बाद भी जनता के काम आने की दृष्टि से उन्होंने अपनी वसीयत में यह अंतिम इच्छा प्रकट की कि मृत्यु के बाद अनका पार्थिव शरीर काकतीय मेडिकल कॉलेज को तथा आँखें हैदराबाद के प्रसिद्ध एल.वी.प्रसाद इंस्टीट्यूट को दे दी जाएँ. वे मर कर भी अमर हुए. उन्हीं के शब्दों में –
“ज़िंदा ही रहूँगा मैं
जब तक आर्द्रता झरती रहेगी
मित्रता के झरने से
हरती हुई पराएपन को;
ज़िंदा ही रहूँगा मैं.
जीवन की सँकरी राहों पर
प्रतिकूल परिस्थितियों से टकराकर
सारे पाप-ताप हरती
जब तक बहती रहेगी जीव-नदी;
ज़िंदा ही रहूँगा मैं.
तमाम दुष्टताओं के बीच
जब तक बचाता रहेगा
मेरा षड्वर्ग अपने शील को;
ज़िंदा ही रहूँगा मैं.
वाद्यवृंद की विषम ध्वनियों के लिए
समश्रुति सा मेरा स्वर
जब तक उखड़ने न लगे;
ज़िंदा ही रहूँगा में.”
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