ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित तेलुगु उपन्यासकार डॉ॰ रावूरि भरद्वाज का 18 अक्तूबर 2013 की रात हैदराबाद के केयर हॉस्पिटल में निधन हो गया। उनके न रहने से भारतीय साहित्य में बड़ा शून्य उत्पन्न हो गया है। गत दिनों उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के अवसर पर लिखे गए आलेख को यहाँ पुनर्प्रकाशित करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित है। - नीरजा
रावूरि भरद्वाज होने का अर्थ
आंध्रप्रदेश के गोदावरी जिले में एक छोटा-सा गाँव है मोगलतूरू. इस गाँव में कोटय्या और मल्लिकांबा दंपति रहते थे. जमीन-जायदाद तो थी नहीं पर कोटय्या छोटी-मोटी नौकरी करके गुजारा करता था. भगवान की कृपा से 5 जुलाई, 1927 को उनके घर एक बालक का जन्म हुआ जिसे रावूरि भरद्वाज के नाम से जाना गया. जी हाँ, वही रावूरि भरद्वाज जिन्हें 2012 ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया है.
रावूरि के जन्म पर उनके माता-पिता बहुत ही खुश हुए. वे अपने बच्चे को सब सुख-सुविधाएँ देना चाहते थे और इसलिए वे मोगलतूरू से गुंटूर जिले के तरिगोंडा नामक गाँव में आकर बस गए. उनकी आर्थिक स्थिति कुछ सुधर गई. बालक बड़ा होता गया और आठवीं कक्षा तक पढ़ भी लिया. पर उसके बाद आर्थिक समस्या शुरू हो गई. रावूरि को स्कूल जाना बंद करना पड़ा और गुजारा करने के लिए छोटी-मोटी नौकरी करनी पड़ी. 15 वर्ष की आयु में कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी उठाई. खेलकूद की उम्र में कल-कारखाने, फैक्टरी, प्रिंटिंग प्रेस, खेतों-खलिहानों में काम करना पड़ा. नन्हे हाथों ने कलम छोड़कर औजार उठाए. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय तकनीशियन का काम भी किया. यह सब तकलीफदेह रहा, फिर भी जो भी काम करते पूरे लगन और ईमानदारी के साथ करते. जब वह बालक अपने दोस्तों को स्कूल जाते हुए देखता था तो अपनी स्थिति पर बहुत दुःखी और लज्जित होता था. उनके दोस्त उनकी अवहेलना करते थे कि ‘तुम पढ़कर क्या करोगे. जाओ जाओ, किसी कारखाने में या होटल में जाओ और साफ़-सफाई का काम करो.’ इससे उस बालक में पढ़ने की इच्छा प्रबल होती गई. परिणामस्वरूप यह हुआ कि उन्होंने दिन-दिन भर मजदूरी करने के बावजूद, रात को मंदिर में बैठकर पढ़ाई करना आरंभ कर दिया.
मजे की बात सुनिए, बालक रावूरि से अक्सर लोग यही कहते थे कि ‘तुम पढ़कर क्या करोगे’ लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और वे 17 वर्ष की आयु में साहित्य सृजन की ओर प्रवृत्त हो गए. 1946 में नेल्लूर से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘जमीन रैतु’ (धरा कृषक) के संपादक ने उन्हें उप-संपादक के पद को संभालने के लिए चुना तो उन्होंने सहर्ष उसे स्वीकार किया. बाद में तेलुगु साप्ताहिक ‘दीनबंधु’ के प्रभारी बने. 1959 तक उन्होंने ‘ज्योति’, ‘अभिसारिका’, ‘समीक्षा’, ‘चित्रसीमा’, ‘सिनेमा’ जैसी फ़िल्मी पत्र-पत्रिकाओं में भी काम किया. वहाँ भी उनके ‘हितैषी’ यही कहा करते थे कि ‘संपादक बनकर तुम क्या करोगे. बड़े आए संपादक. काम-वाम तो आता नहीं. बस हवा में तो पुल बनाते हो.’ फिर भी रावूरि ने हार नहीं मानी. वे अपना काम करते गए. अपनी जिम्मेदारी निभाते गए.
1959 में तेलुगु के प्रसिद्ध कथाकार त्रिपुरनेनि गोपीचंद की प्रेरणा से रावूरि ने आकाशवाणी में स्क्रिप्ट लेखक के रूप में कार्यभार ग्रहण किया. वहाँ भी लोगों ने उन्हें चैन से नहीं जीने दिया. अक्सर यही कहते थे ‘तुम्हारी आवाज माइक के लिए ठीक नहीं है. तुम दूसरा कोई काम क्यों नहीं करते.’ पर बच्चे रावूरि के कार्यक्रम को बहुत रुचि से सुनते थे. रावूरि ने सबको यह सिद्ध करके दिखा दिया कि वे कलम और ‘गळम’ (कंठ) दोनों के धनी हैं. लोगों ने यह कहकर भी उन्हें हतोत्साहित किया कि ‘तुम जिंदगी में कभी भी अंग्रेज़ी भाषा नहीं सीख सकते हो.’ पर उन्होंने अंग्रेज़ी से कई निबंधों का तेलुगु में अनुवाद कर डाला. कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने तो उन्हें यह कहकर अपमानित भी किया कि ‘तुम्हारी इस दरिद्र जिंदगी में साहित्य सृजन का सपना आकाश सुमन ही होगा.’ लेकिन गर्व का विषय है कि रावूरि ने साहित्य जगत को समृद्ध बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने 160-170 से भी अधिक पुस्तकें लिख डालीं. साहित्यकार बन गए. रावूरि ने अपने जीवनानुभवों और अनुभूतियों को ही साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त कर यह सिद्धि प्राप्त की. उन्होंने 17 उपन्यास, 36 कहानी संग्रह, 6 बाल साहित्य ग्रंथ और 8 नाटकों के साथ साथ सैकड़ों छुटपुट रचनाओं, रेखाचित्रों, जीवनियों, कविताओं, निबंधों, पटकथाओं, विज्ञान पुस्तकों आदि के रूप में अनेक विधाओं में सृजन किया है. अवहेलना और तिरस्कार करने वालों के सामने उन्होंने एक मिसाल कायम की है. उनकी कुछ रचनाएँ हिंदी, तमिल, कन्नड, मलयालम, गुजराती तथा अंग्रेज़ी भाषाओं में भी अनूदित हो चुकी हैं. सरल-सुबोध विज्ञान पुस्तकों के लेखक के रूप में भी उन्हें बड़ी ख्याति मिली है.
अपनी पत्नी की स्मृति में रावूरि भरद्वाज ने ‘कांतम’ नाम से डायरी शैली में स्मृतिकाव्य का सृजन किया जिसका हिंदी अनुवाद डॉ. भीमसेन निर्मल ने 1997 में ‘फिर भी एक कांतम’ नाम से किया. उनके प्रथम उपन्यास ‘कादंबरी’ का 1981 में डॉ. बालशौरि रेड्डी ने ‘कौमुदी’ नाम से हिंदी में अनुवाद किया जो विद्या प्रकाशन मंदिर, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित है. रावूरि भरद्वाज को तेलुगु साहित्य के प्रसिद्ध स्त्रीवादी रचनाकार गुडिपाटि वेंकट चलम के अनुयायी के रूप में भी जाना जाता है. उनकी कहानियों में अवंति, नर(क) लोक, अनाथ शरणम नास्ति, अपरिचितुलु (अपरिचित), अर्धांगिनी, आहुति, कल्पना आदि उल्लेखनीय हैं. बाल साहित्य में कीलु गुर्रम (काठी का घोड़ा), मणि मंदिरम (मणि मंदिर), मायालोकम (मायालोक), परकाया प्रवेशम (परकाया प्रवेश) बहुत चर्चित हैं तो मनोरथम, दूरपु कोंडलू (दूर के पर्वत), भानुमूर्ति जैसे नाटक उल्लेखनीय हैं. उनके उपन्यासों में प्रमुख रूप से कादंबरी, चंद्रमुखी, चित्र ग्रहम, इदं जगत, करिमिंगिन वेलगपंडू (हाथी द्वारा निगला हुआ बेल का फल), मंचि मनिषी (अच्छा मानव), ओक रात्रि ओक पगलु (एक रात एक सुबह) और पाकुडु राल्लु (काई जमे पत्थर) उल्लेखनीय हैं.
1965 में जब ‘पालपुंता’ (गेलेक्सी) नाम से उनकी लंबी कहानी ‘कृष्णा पत्रिका’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई थी तो अनेक विद्वानों ने अनेक तरह के आक्षेप भी लगाए. कहा गया कि इसमें कुछ वास्तविक व्यक्तियों के नामा और चरित्र सम्मिलित हैं और कि इसके विवरण उत्तेजक हैं. इस बहाने उस कहानी पर रोक लगाने का प्रयास भी किया गया था. लेकिन रावूरि टस से मस नहीं हुए. 1978 में उन्होंने इसी कहानी को बृहत उपन्यास का रूप दिया और इसका नामकरण ‘माया जलतारु’ (माया स्वर्णतार) के रूप में किया. इस उपन्यास को पढ़ने के बाद प्रमुख साहित्य समीक्षक सीला वीरराजू ने ‘पाकुडु राल्लु’ (काई जमे पत्थर) किया. यह उपन्यास मूलतः सिनेमा जगत की विसंगतियों, विडंबनाओं और समस्याओं को उजागर करता है. इसके केंद्र में एक स्त्री है जो अनेक पड़ावों को पार करके सिने जगत में अपना एक सुनिश्चित स्थान प्राप्त करने के प्रयत्न में अंततः आत्महत्या कर लेती है. इस उपन्यास का शीर्षक ‘पाकुडु राल्लु’ (काई जमे पत्थर) अत्यंत सटीक है क्योंकि सागर के किनारे पानी में पड़े हुए पत्थरों पर काई जम जाती है तो देखने में ये पत्थर सुंदर और मनमोहक तो लगते हैं लेकिन यदि कोई इन पत्थरों पर खड़ा होकर प्रकृति को निहारने का प्रयत्न करता है तो उसका फिसल कर नीचे गिरना निश्चित है. सिनेमा जगत का सच भी यही है. उसकी चकाचौंध से आकर्षित होकर गाँव से शहर की ओर पलायन करके इस दुनिया में कदम रखने वालों की स्थिति - विशेष रूप से स्त्रियों की स्थिति - भी यही है.
अब देखिए, लोग रावूरि भरद्वाज की पग-पग पर अवहेलना करते रहे पर उन्होंने इतना कुछ लिख डाला. आपको याद होगा कि 1970 में तेलुगु साहित्य के लिए प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार विश्वनाथ सत्यनारायण को उनकी कृति ‘रामायण कल्पवृक्षमु’ पर प्रदान किया गया था. उसके 18 वर्ष पश्चात 1988 में यह पुरस्कार डॉ सी.नारायण रेड्डी को उनके महाकाव्य ‘विश्वंभरा’ के लिए प्रदान किया गया. उसके बाद 25 बरसों तक यह कशमकश चलती रही कि तेलुगु साहित्य के लिए किस साहित्यकार को ज्ञानपीठ के लिए चुना जाय. आज यह कशमकश समाप्त हो गई है और 2012 का ज्ञानपीठ पुरस्कार रावूरि भरद्वाज को उनकी कृति ‘पाकुडु राल्लु’ (काई जमे पत्थर) के लिए मिल रहा है. जिस उपन्यास को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया गया था आज उसी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हो रहा है! स्मरण रहे कि इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाला यह पहला तेलुगु उपन्यास है.
रावूरि भरद्वाज बाहर जैसे दीख पड़ते हैं अंदर से भी वे वैसे ही हैं – सीधे सच्चे मनुष्य. कहने का अर्थ यह है कि उनका बाह्य एवं आतंरिक व्यक्तित्व दोनों ही सहज और सरल हैं. पके हुए बाल, सफ़ेद सफ़ेद लंबी दाढ़ी और मूँछें, खादी कुर्ता और धोती – वेशभूषा जितनी सहज है उनका मन भी उतना ही सहज, निर्मल और संवेदनशील है. वे अपने परिवारी जन और दोस्तों से अमित प्यार करते हैं. उनका सोच सकारात्मक है. इसीलिए तो उन्होंने लोगों की निंदा को भी सकारात्मक रूप से स्वीकार किया है और आज ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हो रहे हैं. यह गौरव और हर्ष की बात है.
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